नाथ संप्रदाय (साहित्य): योग, तंत्र और साधना की भारतीय परंपरा का अनूठा अध्याय

भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा में योग, तंत्र और साधना के अनेक मार्ग विकसित हुए हैं। इन्हीं में एक प्रमुख पंथ है – नाथ संप्रदाय। नाथ संप्रदाय का उद्भव सिद्धों की भोगवादी प्रवृत्ति और उनके द्वारा प्रचारित महासुखवाद के विरोध स्वरूप हुआ। नाथ साहित्य न केवल आध्यात्मिक चेतना को उजागर करता है, बल्कि यह समाज के पाखंडों, बाह्याडंबरों और वर्गगत भेदभावों के विरुद्ध आवाज भी उठाता है।

नाथ पंथ में भगवान शिव को आदिनाथ और समस्त योग-विद्याओं के आदिगुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। नाथों ने अपने साहित्य में योग, ध्यान, गुरु भक्ति, संयम, और मोक्ष जैसे विषयों पर बल दिया।

यह लेख नाथ साहित्य, नाथ संप्रदाय के प्रमुख विचारों, उसके योग, तांत्रिक और आयुर्वेदिक पक्षों, बौद्ध परंपरा में उसके प्रभाव, तथा हिंदी साहित्य में उसकी भूमिका को समेटते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।

नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति और विचारधारा

नाथ पंथ का उद्भव एक प्रकार की सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। सिद्धों द्वारा प्रतिपादित पंचमकार (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन) जैसे भोगवादी साधना मार्गों का नाथों ने कठोर विरोध किया। उन्होंने नारी भोग की प्रवृत्ति को अस्वीकार किया और गृहस्थ जीवन, सामाजिक पाखंड, जाति व्यवस्था तथा बाह्याडंबरों की आलोचना की।

नाथ पंथ का मूल उद्देश्य आत्मसंयम, योग-साधना और मोक्ष की प्राप्ति है। वे ईश्वर को घट-घट वासी मानते हैं और गुरु को परमात्मा के समतुल्य मानते हैं। नाथ संप्रदाय की शिक्षाएं सामाजिक और आध्यात्मिक क्रांति की दिशा में एक प्रयास थीं, जो तत्कालीन समाज में व्याप्त असमानताओं और धर्म के नाम पर चल रहे शोषण के विरुद्ध थी।

नाथ संप्रदाय के प्रमुख संत और आचार्य

नाथ पंथ में नौ प्रमुख नाथों की मान्यता है, जिन्हें नवनाथ कहा जाता है। इनकी संख्या नौ होते हुए भी विभिन्न क्षेत्रों में इनकी सूची में थोड़े-बहुत भेद देखने को मिलते हैं। प्रमुख नाथ हैं:

  1. आदिनाथ (भगवान शिव – मूल गुरू)
  2. मत्स्येन्द्रनाथ – नाथ परंपरा के संस्थापक माने जाते हैं।
  3. गोरखनाथ – योग साधना और नाथ साहित्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संत।
  4. गहिणीनाथ
  5. चर्पटनाथ
  6. चौरंगीनाथ
  7. जालंधरनाथ
  8. भर्तृहरिनाथ
  9. गोपीचंदनाथ

इनमें गोरखनाथ की प्रसिद्धि सबसे अधिक है। उन्होंने योग, भक्ति और आत्मज्ञान पर विस्तृत साहित्य की रचना की। उनकी रचनाएँ गोरखबाणी नाम से जानी जाती हैं, जो आज भी नाथ पंथ के अनुयायियों के लिए मार्गदर्शक हैं।

नाथ साहित्य की विशेषताएँ

नाथ साहित्य अपने समय का अत्यंत प्रगतिशील और विचारोत्तेजक साहित्य था। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  • ज्ञाननिष्ठा पर बल: नाथ साहित्य में केवल विश्वास नहीं, अपितु अनुभव, विवेक और साधना पर बल दिया गया है।
  • मनोविकारों की निंदा: लोभ, मोह, काम, क्रोध जैसे विकारों से दूर रहने की प्रेरणा दी गई है।
  • नारी विषयक दृष्टिकोण: इस साहित्य में नारी की निंदा बार-बार की गई है, जो इसकी आलोचना का विषय भी बना है।
  • गुरु महिमा: गुरु को ईश्वर तुल्य माना गया है और प्रत्येक साधक को गुरुकृपा द्वारा मोक्ष प्राप्ति की बात कही गई है।
  • हठयोग की शिक्षा: नाथों ने योग के कठिन साधना मार्ग – हठयोग – को अपनाया। यह शरीर और आत्मा को संयमित करने की साधना है।
  • गृहस्थ जीवन के प्रति उदासीनता: नाथ साहित्य में गृहस्थ धर्म के प्रति उपेक्षा का भाव मिलता है। इसे आत्मज्ञान में बाधा के रूप में देखा गया।
  • तंत्र और योग का समन्वय: नाथों ने योगमार्ग और तांत्रिक विद्या का समन्वय करते हुए सहज योग और कुण्डलिनी योग को विकसित किया।

हठयोग और नाथ साधना

नाथ संप्रदाय के योगियों ने हठयोग को मोक्ष का सीधा मार्ग बताया। गोरखनाथ और उनके अनुयायियों ने इसे शरीर और आत्मा के संयोजन की प्रक्रिया माना।

हठयोगप्रदीपिका के लेखक स्वात्माराम ने 33 प्रमुख नाथ योगियों का उल्लेख किया है, जो हठयोग के सिद्ध और अनुभवी माने जाते हैं। हठयोग न केवल शरीर की शुद्धि करता है, बल्कि यह मानसिक नियंत्रण, इंद्रियनिग्रह और अंतःकरण की शुद्धि में भी सहायक होता है।

राजयोग, जपयोग, कुण्डलिनी योग – इन सबका समावेश नाथ परंपरा के भीतर हठयोग में ही हुआ है। इस संप्रदाय का उद्देश्य आत्मा और ब्रह्म के संयोग को शरीर के भीतर ही अनुभव करना था।

नाथ सम्प्रदाय और आयुर्वेद

नाथ सिद्ध केवल योगी नहीं थे, वे चिकित्सक और रसायन शास्त्र के ज्ञाता भी थे। उन्होंने शरीर को मोक्ष प्राप्ति का माध्यम माना और उसे स्वस्थ बनाए रखने के लिए रसायन चिकित्सा की अवधारणाएँ दीं।

प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य महामहोपाध्याय गणनाथ सेन ने नाथ सिद्धों की चिकित्सा विधियों का उल्लेख करते हुए कहा है कि उन्होंने पारद, अभ्रक, आदि धातुओं से चिकित्सा पद्धति का प्रवर्तन किया।

नाथ साहित्य में रचित रसायन ग्रंथ भारतीय आयुर्वेद के अमूल्य निधि हैं, जिनमें जीवन की दीर्घता और आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त करने के लिए शरीर-रक्षा को आवश्यक माना गया है।

नाथ संप्रदाय और तंत्र परंपरा

नाथ संप्रदाय मूलतः शैव तांत्रिक परंपरा से जुड़ा है। इसमें शिव को आदिनाथ, अर्थात प्रथम योगी और गुरु माना गया है।

शाबर तंत्र में कापालिकों के 12 प्रमुख आचार्यों का उल्लेख मिलता है, जिनमें आदिनाथ, वीरनाथ, महाकाल आदि सम्मिलित हैं। तांत्रिक ग्रंथ षोडश नित्यातंत्र में कहा गया है कि नाथ योगियों – जडभरत, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ आदि – ने तंत्रों का प्रचार किया।

नाथों ने साधना, मंत्र शक्ति, और सहज योग को तंत्र के साथ जोड़ते हुए गूढ़ विद्या को लोक-कल्याणकारी स्वरूप प्रदान किया।

नाथ संप्रदाय और बौद्ध परंपरा

नाथ पंथ का उल्लेख बौद्ध तिब्बती परंपरा में भी मिलता है। विख्यात विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने अपने ग्रंथ गंगा के पुरातत्त्वांक में नाथ सिद्धों को तिब्बती सहजयान परंपरा के 84 सिद्धों में सम्मिलित किया है।

इन सिद्धों में लुइपा, गोरक्षपा, चैरंगीपा, शबरपा आदि प्रमुख हैं। ये सभी योग और सहज साधना के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति के पक्षधर थे। बौद्ध धर्म की इस शाखा में भी नाथ योगियों की शिक्षाओं ने गहरा प्रभाव छोड़ा।

हिंदी साहित्य में नाथ सिद्धों का योगदान

हिंदी साहित्य के आदिकाल में नाथ योगियों की रचनाओं का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इनकी भाषा अपभ्रंश और अवहट्ट रही है जो हिंदी की प्रारंभिक कड़ी मानी जाती है।

नाथ साहित्य में पाखंड, आडंबर, जात-पात की आलोचना स्पष्ट रूप से मिलती है। इनकी रचनाओं में चित्त, मन, आत्मा, योग, संयम और मोक्ष जैसे विषयों की गहराई से विवेचना की गई है।

गोरखनाथ, चौरंगीनाथ जैसे कवियों की रचनाएँ साहित्य में एक जागरूकता और आत्म-चिंतन का भाव पैदा करती हैं। इनके दोहे, पद, चौपाइयाँ आज भी विद्या, साधना और जीवन के रहस्यों को सरल भाषा में प्रकट करती हैं।

नाथ साहित्य: एक समग्र मूल्यांकन

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाथ पंथ को “सिद्ध मार्ग”, “योग संप्रदाय”, “अवधूत मत” जैसे नामों से पुकारा। वहीं राहुल सांकृत्यायन ने इसे सिद्ध परंपरा का विकसित रूप माना है।

नाथ साहित्य भारतीय संत परंपरा का महत्वपूर्ण अंग है। इसकी सकारात्मक विशेषताओं के साथ-साथ कुछ आलोचनात्मक बिंदु भी हैं जैसे:

  • नारी निंदा की प्रवृत्ति।
  • गृहस्थ जीवन की अवहेलना।
  • साहित्य में कठोरता और रूखापन।

किन्तु इसके बावजूद नाथ साहित्य योग, ध्यान, संयम, सामाजिक जागृति और तंत्र के लोक कल्याणकारी उपयोग का एक अनमोल उदाहरण है।

निष्कर्ष

नाथ साहित्य भारतीय आध्यात्मिक, तांत्रिक, और सांस्कृतिक परंपरा का ऐसा प्रतिबिंब है जो ज्ञान, साधना, और योग के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति को केंद्र में रखता है। यह साहित्य न केवल साधकों के लिए बल्कि सामान्य जनमानस के लिए भी मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।

गोरखनाथ और अन्य नवनाथों द्वारा रचित यह साहित्य एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जिसमें जाति-पाति, अंधविश्वास, भोगवाद और भेदभाव का स्थान न हो। इसकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि मध्यकाल में थीं।


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