भारतेंदु युग (नवजागरण काल) की समय-सीमा, स्वरूप और युग-निर्धारण की समीक्षा

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का प्रारंभ जिन साहित्यिक विशेषताओं, रचनात्मक नवीनताओं और सामाजिक चेतना से होता है, वह सब “भारतेंदु युग” की देन है। यह युग न केवल साहित्य के क्षेत्र में परिवर्तन लाया, बल्कि नवजागरण की वह चेतना भी प्रस्तुत की जिसने राष्ट्रवाद, सामाजिक सुधार और आधुनिक सोच की नींव रखी। इस युग के प्रमुख सूत्रधार भारतेंदु हरिश्चंद्र माने जाते हैं, जिनकी रचनात्मकता, नवोन्मेषशीलता और भाषा-संवेदना ने हिंदी साहित्य को नवीन दिशा प्रदान की।

इस युग की समय-सीमा निर्धारण को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं, लेकिन एक सामान्य मत भी उभर कर सामने आता है जो भारतेंदु हरिश्चंद्र के जन्म वर्ष से ही इस युग की शुरुआत मानता है। इस लेख में हम न केवल इस सामान्य मत को विश्लेषित करेंगे, बल्कि समय-सीमा निर्धारण के विभिन्न दृष्टिकोणों को भी विस्तार से प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट करेंगे कि इस युग की उपयुक्त काल-सीमा क्या होनी चाहिए।

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युग निर्धारण की पृष्ठभूमि

युग-निर्धारण साहित्यिक इतिहास का एक जटिल कार्य होता है, क्योंकि कोई भी साहित्यिक युग किसी एक दिन प्रारंभ और समाप्त नहीं होता। यह एक क्रमिक प्रक्रिया होती है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषाई कारकों की सहभागिता होती है। भारतेंदु युग के संदर्भ में यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यह वह काल था जब हिंदी साहित्य ने परंपरागत ढांचों से बाहर निकलकर आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र: युग-प्रवर्तक

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को काशी में हुआ और उनका निधन 6 जनवरी 1885 को हुआ। इनका संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य को आधुनिक चेतना से जोड़ने में समर्पित रहा। उन्होंने कविता, नाटक, निबंध, संपादन, अनुवाद, आलोचना, पत्रकारिता – हर विधा में सक्रियता दिखाई। भारतेंदु ने साहित्य को जनजीवन से जोड़ा, सामाजिक मुद्दों को स्वर दिया और भाषा को सहज, प्रवाहमयी तथा जनसुलभ बनाया। इसलिए उनके जीवनकाल में ही हिंदी नवजागरण की आधारशिला पड़ी।

प्रारंभिक साहित्यिक सक्रियता और युग की शुरुआत

भारतेंदु की रचनात्मक प्रतिभा बाल्यकाल में ही प्रकट हो गई थी। मात्र 5 वर्ष की अवस्था में उन्होंने यह दोहा कहा था:

“लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान॥”

यह दोहा उनकी पौराणिक समझ और काव्यबोध को दर्शाता है। किंतु साहित्य में उनकी व्यवस्थित सक्रियता का प्रारंभ 1868 ईस्वी से माना जाता है, जब उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का संपादन, सामाजिक लेखन और नाट्य रचना प्रारंभ की।

सामान्य मत – 1850 ई. से 1900 ई. तक की समय-सीमा

1850 ई. से युग की शुरुआत क्यों मानी जाती है?

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 ई. को काशी में हुआ। सामान्यतः साहित्यिक युग की शुरुआत उस समय से मानी जाती है जब कोई प्रमुख साहित्यकार रचनात्मक रूप से सक्रिय होता है, लेकिन भारतेंदु युग के संदर्भ में एक विशिष्ट मत यह है कि उनके जन्म से ही हिंदी साहित्य के नवजागरण युग की शुरुआत मान ली जाती है।

यह मान्यता केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और विचारात्मक धरातल पर भी आधारित है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म उसी समय हुआ जब भारत में नई शिक्षा प्रणाली, अंग्रेजी शासन की सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियाँ, प्रेस की स्वतंत्रता और आधुनिक पत्रकारिता के अंकुर फूटने लगे थे। यही वह समय था जब भारत में सामाजिक और वैचारिक बदलाव का दौर प्रारंभ हुआ था।

इसलिए, 1850 ई. से भारतेंदु युग की शुरुआत मानने के पीछे दो प्रमुख आधार हैं:

  1. भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म – साहित्यिक दृष्टि से उस परिवर्तनकारी व्यक्तित्व का अवतरण, जिसने हिंदी को आधुनिकता की ओर अग्रसर किया।
  2. समय की ऐतिहासिक परिस्थिति – भारत में आधुनिक विचारधाराओं के बीज पड़ने लगे थे; नवजागरण की लहरें उठनी शुरू हो चुकी थीं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का दृष्टिकोण

आचार्य रामचंद्र शुक्ल, जो हिंदी साहित्य के सर्वाधिक मान्य इतिहासकार माने जाते हैं, उन्होंने भारतेंदु हरिश्चंद्र के रचनाकाल (1850–1885 ई.) को “नई धारा” या “प्रथम उत्थान” की संज्ञा दी है।

उन्होंने लिखा:

“काल की गति के साथ-साथ जनता के भाव और विचार तो बहुत आगे बढ़ गए थे पर साहित्य पीछे ही पड़ा था। भारतेंदु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर से जोड़ दिया।”

शुक्लजी का यह कथन यह स्पष्ट करता है कि भारतेंदु केवल एक साहित्यकार नहीं, बल्कि समय की चेतना के वाहक थे, जिन्होंने साहित्य को जीवन से जोड़ा और युग की दिशा बदल दी। यही कारण है कि कई साहित्येतिहासकार भारतेंदु के जन्मवर्ष से ही आधुनिक साहित्य के युग की शुरुआत मानते हैं।

भारतेंदु युग की समय-सीमा निर्धारण के विभिन्न दृष्टिकोण

भारतेंदु युग की काल-सीमा को लेकर विद्वानों में विविध मत हैं। ये मत मुख्यतः तीन बिंदुओं पर आधारित हैं:

  1. भारतेंदु के जन्म और रचनात्मक सक्रियता का समय
  2. उनके प्रभाव में रचनारत अनुयायियों की सक्रियता
  3. हिंदी साहित्य में नवीन चेतना का संक्रमण

नीचे विभिन्न विद्वानों और परंपराओं द्वारा प्रस्तुत समय-सीमाओं का विश्लेषण दिया गया है:

(क) 1850 ई. से 1900 ई. तक – सामान्य और प्रतीकात्मक समय-सीमा

  • यह समय-सीमा भारतेंदु हरिश्चंद्र के जन्म (1850) से लेकर 1900 ई. तक की मानी जाती है।
  • इस अवधि में भारतेंदु हरिश्चंद्र के साहित्यिक कार्य और उनके प्रभाव में रचनारत प्रमुख लेखक सक्रिय रहे।
  • 1900 ई. तक आते-आते उनके समकालीन प्रमुख साहित्यकार – अंबिकादत्त व्यास, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन आदि – दिवंगत हो चुके थे, जिससे उनके प्रभाव का समापन माना गया।
  • यह काल साहित्यिक नवजागरण, भाषा सुधार, राष्ट्रवाद, स्त्री शिक्षा, और समाज सुधार से जुड़ा हुआ रहा।

(ख) 1857 ई. से 1900 ई. तक – राष्ट्रीय चेतना आधारित दृष्टिकोण

  • 1857 ई. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वर्ष था, जिसे भारत में राष्ट्रीय चेतना के जागरण का आरंभ माना जाता है।
  • साहित्य में भी इस जागरण की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने लेखन में बार-बार अंग्रेजी शासन के दोषों और भारतीय संस्कृति की गरिमा को उजागर किया।
  • अतः कुछ विद्वान 1857 से इस युग की औपचारिक शुरुआत मानते हैं।

(ग) 1868 ई. से 1900 ई. तक – सर्वाधिक यथार्थवादी और व्यापक दृष्टिकोण

  • 1868 ई. से भारतेंदु हरिश्चंद्र की सुनियोजित साहित्यिक सक्रियता प्रारंभ होती है:
    • इसी वर्ष उन्होंने कविवचनसुधा पत्रिका का संपादन शुरू किया।
    • अनेक नाटकों, आलोचनात्मक लेखों, और सामाजिक चेतना से भरे निबंधों की रचना प्रारंभ हुई।
  • इस आधार पर डॉ रामविलास शर्मा और अन्य अनेक आधुनिक आलोचकों ने 1868–1900 ई. को भारतेंदु युग की सर्वाधिक उपयुक्त कालावधि माना है।

(घ) 1868 ई. से 1888 ई. तक – मिश्रबंधु की समय-सीमा

  • मिश्रबंधुओं के अनुसार भारतेंदु युग 1868 से 1888 ई. तक सीमित था।
  • 1888 में भारतेंदु के कुछ प्रमुख अनुयायियों की सक्रियता क्षीण होने लगी, जिससे साहित्यिक प्रवृत्तियों में बदलाव आया।

(ङ) 1886 ई. से 1920 ई. तक – डॉ नगेंद्र का ‘पत्रिकाओं पर आधारित’ मत

  • डॉ नगेंद्र ने युग निर्धारण के लिए पत्रिकाओं को आधार बनाया है:
    • कविवचनसुधा (1886) – भारतेंदु की परंपरा की प्रमुख पत्रिका।
    • सरस्वती (1920) – द्विवेदी युग की आरंभिक प्रतिनिधि पत्रिका।
  • इस आधार पर उन्होंने 1886–1920 की कालावधि को भारतेंदु प्रभाव से युक्त माना।

(च) 1843 ई. से आधुनिक काल की शुरुआत – भाषा विकास आधारित दृष्टिकोण

  • कुछ भाषा-आधारित आलोचक, जैसे आचार्य किशोरीदास वाजपेयी आदि, हिंदी गद्य और आधुनिक काव्य भाषा के क्रमिक विकास को आधार मानते हुए 1843 ई. से ही आधुनिक काल की शुरुआत मानते हैं।
  • यद्यपि यह भारतेंदु युग से संबंधित प्रत्यक्ष नहीं है, परंतु यह परिप्रेक्ष्य समय-सीमा की जड़ें स्पष्ट करता है।

भारतेंदु युग के समय सीमा निर्धारण पर विभिन्न मतों की तालिका

विद्वानसमय-सीमाआधार
आचार्य रामचंद्र शुक्ल1850 – 1885भारतेंदु का रचनाकाल – “प्रथम उत्थान” की संज्ञा
मिश्रबंधु1868 – 1888साहित्यिक सक्रियता और प्रभाव की अवधि
डॉ रामविलास शर्मा1868 – 1900युग प्रभाव और परंपरा का तार्किक विस्तार
डॉ नगेंद्र1886 – 1920‘कविवचनसुधा’ (1886) से ‘सरस्वती’ (1920) तक की पत्रिकाओं का प्रभाव
कुछ विद्वान1857 – 19001857 की क्रांति को राष्ट्रीय चेतना के उद्भव का काल मानते हुए

उपयुक्त समय-सीमा क्या मानी जाए?

समस्त दृष्टिकोणों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि:

मतअवधितर्क
सामान्य मत1850–1900प्रतीकात्मक: जन्म से आरंभ, अनुयायियों की मृत्यु तक समाप्ति
व्यावहारिक दृष्टिकोण1868–1900साहित्यिक सक्रियता और प्रभाव की स्पष्ट सीमा
राष्ट्रीय चेतना आधारित1857–1900स्वतंत्रता संग्राम से जागरूक साहित्य तक
पत्रिका आधारित दृष्टिकोण1886–1920पत्रिकाओं में विचारों की निरंतरता
भाषा विकास आधारित1843 से आरंभआधुनिक गद्य भाषा की यात्रा की दृष्टि

➡️ अधिकांश आधुनिक विद्वानों और आलोचकों ने 1868–1900 ई. की समय-सीमा को ही सर्वाधिक युक्तिसंगत और उपयुक्त माना है, क्योंकि:

  • यही वह अवधि है जब भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनात्मकता अपने पूर्ण उत्कर्ष पर थी।
  • उनके अनुयायी सक्रिय थे।
  • हिंदी साहित्य में नवजागरण की स्पष्ट रेखाएं दृष्टिगोचर होती हैं।

भारतेंदु युग की समाप्ति: 1900 ईस्वी क्यों?

  • 1900 ई. तक आते-आते भारतेंदु के समकालीनों एवं अनुयायियों – अंबिकादत्त व्यास, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन आदि की मृत्यु हो गई थी।
  • 20वीं शताब्दी के आरंभ में महावीर प्रसाद द्विवेदी का ‘सरस्वती’ के माध्यम से हिंदी गद्य को शुद्धता, तार्किकता और विचारशीलता की ओर ले जाना प्रारंभ हुआ, जिससे एक नया युग (द्विवेदी युग) प्रारंभ माना गया।
  • अतः 1900 ई. भारतेंदु युग के समापन का सर्वमान्य वर्ष बनता है।

भारतेंदु युग की उपयुक्त समय-सीमा – एक सम्यक निष्कर्ष

विभिन्न मतों और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारतेंदु युग की उपयुक्त समय-सीमा 1868 ई. से 1900 ई. तक मानी जानी चाहिए, क्योंकि:

  • यह काल भारतेंदु की सक्रिय साहित्यिक उपस्थिति और उनके प्रभाव में रचनारत रचनाकारों की उपस्थिति को समेटे हुए है।
  • 1868 ई. में कविवचनसुधा, हरिश्चंद्र मैगज़ीन, नाटक रचनाएं, और सामाजिक-राजनीतिक लेखन की शुरुआत भारतेंदु द्वारा की गई।
  • 1900 ई. के बाद हिंदी साहित्य में भारतेंदु परंपरा की स्पष्ट समाप्ति और द्विवेदी युग की ठोस शुरुआत दिखती है।

हालाँकि कुछ ऐतिहासिक संदर्भों (जैसे 1850 – जन्मवर्ष या 1857 – स्वतंत्रता संग्राम) से प्रेरित विद्वान युग-आरंभ को थोड़ा पीछे ले जाते हैं, किंतु साहित्यिक दृष्टिकोण से 1868 – 1900 की सीमा सर्वाधिक युक्तिसंगत, प्रमाणिक और तर्कपूर्ण प्रतीत होती है।

भारतेंदु युग – क्यों ‘नवजागरण काल’?

भारतेंदु युग को नवजागरण काल या आधुनिक युग का प्रवेश द्वार कहा गया है क्योंकि:

  • इस काल में रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष, राष्ट्रवाद, सामाजिक चेतना, धार्मिक सहिष्णुता, स्त्री शिक्षा जैसे विषयों पर लेखन हुआ।
  • भाषा का सरलीकरण और भारतीयता से संपृक्त साहित्य सामने आया।
  • नाटक, निबंध, यात्रा-वृत्तांत, आलोचना जैसी विधाओं का विधिवत् विकास हुआ।
  • पत्रकारिता और सामाजिक आंदोलन साहित्य से सीधे जुड़ गए।

निष्कर्ष

👉 भारतेंदु युग की सर्वाधिक तर्कसंगत एवं उपयुक्त समय-सीमा: 1868 ई. से 1900 ई. तक।
हालाँकि 1850 ई. से इसकी प्रतीकात्मक शुरुआत मानना एक सामान्य मत है, जो भारतेंदु के जन्म और समकालीन ऐतिहासिक घटनाओं के कारण तार्किक भी है।
किन्तु वास्तविक साहित्यिक सक्रियता और युग-परंपरा की दृष्टि से 1868–1900 ई. की सीमा अधिक सटीक और प्रमाणिक मानी जानी चाहिए।
👉 यह युग भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक दृष्टि, सामाजिक चेतना और भाषाई नवाचारों से परिभाषित होता है।
👉 इसे हिंदी नवजागरण का युग कहा गया है, जिसने परंपरा और आधुनिकता के संगम से साहित्य को एक नई दिशा दी।
👉 इस युग ने आने वाले द्विवेदी युग, छायावाद युग और प्रगतिवाद तक के साहित्यिक विमर्शों की भूमि तैयार की।


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