हिंदी साहित्य में गद्य विधाओं की विविधता अत्यंत व्यापक है। निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रा-वृत्तांत, डायरी, आत्मकथा, जीवनी, कहानी, उपन्यास जैसी अनेक विधाओं के बीच रिपोर्ताज अपेक्षाकृत नई किंतु विशिष्ट विधा है। यह विधा आधुनिक युग की सामयिकता, यथार्थ चित्रण और पत्रकारिता-प्रभावित प्रस्तुति की देन है।
रिपोर्ताज का मूल उद्देश्य किसी महत्वपूर्ण घटना, परिस्थिति, सामाजिक आंदोलन या युगीन संकट को प्रत्यक्ष अनुभव, तथ्यात्मक आधार और कलात्मक संवेदना के साथ प्रस्तुत करना है, ताकि पाठक न केवल घटना के तथ्यों से परिचित हो, बल्कि उसकी सामाजिक, मानवीय और ऐतिहासिक गहराई को भी महसूस कर सके।
रिपोर्ताज का अर्थ
‘रिपोर्ताज’ शब्द का मूल फ्रेंच भाषा के शब्द “Reportage” में है, जिसका अर्थ है – प्रत्यक्ष देखी, सुनी और अनुभव की गई घटना का तथ्यपूर्ण एवं कलात्मक वर्णन।
साहित्यिक दृष्टि से रिपोर्ताज वह विधा है जिसमें लेखक स्वयं प्रत्यक्षदर्शी होता है, घटनाओं का सत्यापन करता है, और उन्हें इस प्रकार शब्दों में ढालता है कि वे मात्र सूचना न होकर एक जीवंत, संवेदनापूर्ण साहित्यिक कृति का रूप ले लें।
पत्रकारिता और साहित्य के संगम पर जन्मी यह विधा न तो शुद्ध समाचार है और न ही मात्र कल्पना-प्रधान कहानी। इसमें तथ्य, संवेदना, और लेखकीय दृष्टिकोण का अद्वितीय संयोजन होता है।
रिपोर्ताज का इतिहास और विकास
रिपोर्ताज को हिंदी में अपेक्षाकृत नई विधा माना जाता है, जिसका आरंभ प्रायः द्वितीय विश्व युद्ध के समय से (लगभग 1936 ई.) माना जाता है।
इस समय भारत और विश्व – दोनों स्तरों पर – राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में तेजी से परिवर्तन हो रहे थे। युद्ध, अकाल, आज़ादी की लड़ाई, किसान आंदोलनों, श्रमिक संघर्षों और क्रांतिकारी गतिविधियों ने लेखकों को ऐसी अभिव्यक्ति की तलाश दी, जो प्रत्यक्ष यथार्थ को संवेदना और विचार के साथ व्यक्त कर सके।
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कई रचनाएँ ऐसे समय में आईं, जिन्हें बाद में ‘रिपोर्ताज’ की श्रेणी में रखा गया।
- 1938 ई. में रूपाभ पत्रिका में प्रकाशित शिवदान सिंह चौहान की ‘लक्ष्मीपुरा’ को डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया ने हिंदी का प्रथम रिपोर्ताज माना।
- हालांकि, वास्तविकता में कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की ‘क्षण बोले, कण मुस्काए’ के अंतर्गत आने वाले कई रिपोर्ताज इनसे पहले के हैं।
इस प्रकार, हिंदी में रिपोर्ताज का क्रमिक विकास 1930 के दशक के उत्तरार्ध से शुरू हुआ और 1940–50 के दशक में यह विधा परिपक्व हुई।
पहला रिपोर्ताज
हिंदी साहित्य में ‘रिपोर्ताज’ को एक विशिष्ट और अपेक्षाकृत नई गद्य विधा माना जाता है। हिंदी में इसे कभी-कभी ‘वृत्त-निर्देशन’ या ‘सूचिका’ भी कहा गया है, किंतु वर्तमान में ‘रिपोर्ताज’ नाम ही सर्वाधिक प्रचलित है। इसका उद्भव यूरोप में 1936 ई. के आसपास, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय माना जाता है। उस समय यूरोप के साहित्यकारों ने युद्ध के मोर्चों से प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित साहित्यिक रिपोर्टें लिखीं, जिन्हें बाद में ‘रिपोर्ताज’ कहा जाने लगा। रिपोर्ताज के जनक के रूप में रूसी साहित्यकार इलिया एहरेनवर्ग को मान्यता प्राप्त है।
हिंदी में रिपोर्ताज के जनक – शिवदान सिंह चौहान
हिंदी में रिपोर्ताज लेखन के प्रणेता शिवदान सिंह चौहान माने जाते हैं। उनका रिपोर्ताज ‘लक्ष्मीपुरा’ हिंदी का पहला रिपोर्ताज माना जाता है, जो सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली ‘रूपाभ’ पत्रिका के दिसंबर, 1938 ई. के अंक में प्रकाशित हुआ था। ‘लक्ष्मीपुरा’ में एक गाँव के हलचल भरे जीवन, उसकी सामाजिक गतिविधियों, और वहाँ के लोगों की रोजमर्रा की जद्दोजहद का सजीव व यथार्थ चित्रण मिलता है।
कुछ समय बाद उनका दूसरा महत्वपूर्ण रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िंदगी की लड़ाई’ ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जिसने इस विधा को हिंदी पाठकों में विशेष लोकप्रियता दिलाई। संपादक के रूप में भी उन्होंने ‘अपना देश’ नामक एक स्थायी स्तंभ प्रारंभ किया, जिसमें प्रतिमाह एक नया रिपोर्ताज प्रकाशित होता था। इस प्रकार शिवदान सिंह चौहान ने न केवल हिंदी में रिपोर्ताज की नींव रखी, बल्कि इसे साहित्यिक गरिमा और जनपक्षीय दृष्टिकोण भी प्रदान किया।
रिपोर्ताज का स्वरूप
रिपोर्ताज को अन्य गद्य विधाओं से अलग पहचान दिलाने वाले कुछ प्रमुख तत्त्व निम्न हैं:
- सामयिकता और प्रामाणिकता –
रिपोर्ताज की सबसे पहली शर्त है कि इसमें किसी महत्वपूर्ण सामयिक घटना का प्रत्यक्ष और सत्य विवरण हो। लेखक स्वयं घटना का प्रत्यक्षदर्शी या प्रमाणिक स्रोतों का उपयोग करने वाला होना चाहिए। - लेखकीय दृष्टिकोण –
मात्र घटनाओं और तथ्यों का विवरण रिपोर्ताज नहीं बनाता। इसमें लेखक की सोच, दृष्टि और अनुभव का स्पष्ट प्रतिबिंब होना आवश्यक है। - कथात्मकता –
प्रायः हर रिपोर्ताज में किसी न किसी रूप में कहानी होती है। लेकिन यह कहानी पारंपरिक कथा-साहित्य की तरह केवल मनोरंजन हेतु नहीं, बल्कि जीवन-मूल्यों और सामाजिक यथार्थ को उजागर करने के लिए होती है। - जीवन-मूल्यों का चित्रण –
छोटी-छोटी घटनाओं, प्रसंगों और संवादों के माध्यम से पाठक के मन में करुणा, संवेदना, आक्रोश, प्रेरणा जैसे भाव जगाना रिपोर्ताज की आत्मा है।
रिपोर्ताज और अन्य गद्य विधाओं में अंतर
अक्सर रिपोर्ताज को कहानी, निबंध, रेखाचित्र या संस्मरण समझने की भूल कर दी जाती है। इसका कारण यह है कि रिपोर्ताज में इन सबके कुछ तत्त्व मिल जाते हैं, लेकिन इसकी विशिष्टता इसके उद्देश्य, स्वरूप और प्रस्तुति में है।
विधा | मुख्य उद्देश्य | तथ्यों का प्रयोग | लेखकीय अनुभव |
---|---|---|---|
कहानी | मनोरंजन/भाव-जागरण | आंशिक/कल्पनात्मक | कल्पना-प्रधान |
निबंध | विचार-प्रस्तुति | गौण | वैचारिक |
संस्मरण | आत्मानुभव का चित्रण | प्रामाणिक | व्यक्तिगत |
रेखाचित्र | किसी व्यक्ति/स्थान का चित्रण | प्रामाणिक | कलात्मक |
रिपोर्ताज | सामयिक घटना का यथार्थ चित्रण | पूर्ण प्रामाणिक | प्रत्यक्षदर्शी और संवेदनापूर्ण |
रिपोर्ताज लेखन की विशेषताएँ
रिपोर्ताज लिखते समय लेखक को कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना आवश्यक है:
- तथ्यों की सटीकता – तथ्य तोड़-मरोड़कर नहीं प्रस्तुत करने चाहिए।
- भाषा की सजीवता – भाषा ऐसी हो कि पाठक को लगे मानो वह स्वयं घटना-स्थल पर मौजूद है।
- संवाद और दृश्य-चित्रण – प्रत्यक्ष संवाद, दृश्य, वातावरण का चित्रण प्रभावी बनाता है।
- भावात्मक प्रभाव – केवल जानकारी देना ही उद्देश्य नहीं, बल्कि पाठक के मन में संवेदनात्मक प्रभाव छोड़ना ज़रूरी है।
- संक्षिप्तता और संप्रेषणीयता – अनावश्यक विस्तार से बचना चाहिए; वाक्य छोटे और असरदार हों।
रिपोर्ताज की शैली
रिपोर्ताज में शैली अत्यंत लचीली होती है। लेखक अपनी सुविधा और रचना की मांग के अनुसार निबंध शैली, पत्र शैली, डायरी शैली, या संवादात्मक शैली का प्रयोग कर सकता है।
- इसे लघु रूप में लिखा जा सकता है, जैसे अख़बार या पत्रिका के लिए एक या दो पृष्ठ का विवरण।
- या फिर उपन्यास की भांति विस्तृत आकार भी दिया जा सकता है, जैसे किसी बड़े आंदोलन या युद्ध पर आधारित रिपोर्ताज-पुस्तक।
लेकिन चाहे आकार छोटा हो या बड़ा, इसमें अपने युग का जीवंत इतिहास दर्ज होना अनिवार्य है।
रिपोर्ताज का उद्देश्य
रिपोर्ताज का मूल उद्देश्य केवल घटना का वर्णन करना नहीं है। इसका वास्तविक प्रयोजन है:
- घटना-चक्र में पिसने वाले सामान्य जन की असामान्य वीरता,
- उनके साहस, दृढ़ संकल्प और जीवन-संघर्ष को उजागर करना,
- और पाठक को संवेदना, करुणा, आक्रोश से भर देना।
हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज लेखक और उनकी रचनाएँ
- शिवदान सिंह चौहान – ‘लक्ष्मीपुरा’ (1938, रूपाभ पत्रिका)
- रांगेय राघव – ‘तूफानों के बीच’ (1946, हंस पत्रिका में बंगाल के अकाल पर आधारित, बाद में पुस्तकाकार)
- भदंत आनंद कौशल्यायन – ‘देश की मिट्टी बुलाती है’
- शमशेर बहादुर सिंह – ‘प्लाट का मोर्चा’ (1952)
- कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ – ‘क्षण बोले कण मुस्काए’ (1953)
- शिवसागर मिश्र – ‘वे लड़ेंगे हजारों साल’ (1966)
- धर्मवीर भारती – ‘युद्ध यात्रा’ (1972)
- विवेकी राय – ‘जुलूस रूका है’ (1977)
- फणीश्वरनाथ रेणु – ‘ऋण जल धन जल’ (1977), ‘नेपाली क्रांति कथा’ (1978), ‘श्रुत-अश्रुत पूर्व’ (1984)
इनके अतिरिक्त भगवतशरण उपाध्याय, प्रकाश चंद्र, उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतराय, निर्मल वर्मा, कामता प्रसाद मिश्र आदि ने भी उल्लेखनीय योगदान दिया।
रिपोर्ताज की महत्ता
रिपोर्ताज का महत्व केवल साहित्यिक दृष्टि से नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यधिक है:
- यह तत्कालीन समाज का जीवंत दस्तावेज होता है।
- यह जन-संघर्षों और आंदोलनों की सच्ची तस्वीर पेश करता है।
- यह आने वाली पीढ़ियों को यथार्थ इतिहास का अनुभव कराता है।
रिपोर्ताज उदाहरण एवं विश्लेषण
‘तूफानों के बीच’ – रांगेय राघव
यह बंगाल के अकाल पर आधारित रिपोर्ताज है, जिसमें केवल भूख और मौत की घटनाओं का विवरण ही नहीं, बल्कि अकाल पीड़ितों के साहस, मानवीय संवेदना और सामाजिक विडंबनाओं का भी सजीव चित्रण है।
‘देश की मिट्टी बुलाती है’ – भदंत आनंद कौशल्यायन
इसमें स्वतंत्रता आंदोलन और देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत घटनाओं का वर्णन है, जो पाठक को तत्कालीन संघर्ष में भावनात्मक रूप से जोड़ देता है।
निष्कर्ष
रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की ऐसी विधा है जो समाचार की तथ्यपरकता, कहानी की संवेदनशीलता और निबंध की वैचारिकता – तीनों का संगम है। यह न केवल घटनाओं का दस्तावेज है, बल्कि उन घटनाओं के पीछे छिपे मानवीय मूल्यों और संघर्षों का जीवंत चित्रण भी है।
आज के समय में, जब पत्रकारिता और साहित्य की सीमाएँ और भी धुंधली हो रही हैं, रिपोर्ताज की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। यह विधा हमें यह याद दिलाती है कि साहित्य केवल कल्पना का संसार नहीं, बल्कि यथार्थ की धड़कनों को शब्दों में कैद करने की कला भी है।
इन्हें भी देखें –
- रिपोर्ताज और रिपोर्ताजकार – लेखक और रचनाएँ | अर्थ, उत्पत्ति, हिंदी साहित्य में विकास
- हिन्दी के यात्रा-वृत्त और यात्रा-वृत्तान्तकार – लेखक और रचनाएँ
- यात्रा-वृत्त : परिभाषा, इतिहास, विशेषताएँ और विकास
- हिंदी डायरी साहित्य और लेखक
- डायरी – परिभाषा, महत्व, लेखन विधि, अंतर और साहित्यिक उदाहरण
- रेखाचित्र लेखन: संवेदना, समाज और मनोवैज्ञानिक गहराई का साहित्यिक आयाम
- भारतेंदु युग के कवि और रचनाएँ, रचना एवं उनके रचनाकार
- हिंदी उपन्यास और उपन्यासकार: लेखक और रचनाओं की सूची
- जीवनी – परिभाषा, स्वरूप, भेद, साहित्यिक महत्व और उदाहरण
- आत्मकथा – अर्थ, विशेषताएँ, भेद, अंतर और उदाहरण
- हिंदी की आत्मकथा और आत्मकथाकार : लेखक और रचनाएँ