साहित्य के विकास में आलोचना की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। आलोचना न केवल रचना के गुण-दोषों का विवेचन करती है, बल्कि लेखक, पाठक और समाज के बीच एक सार्थक संवाद भी स्थापित करती है। आलोचना का उद्देश्य केवल त्रुटियाँ निकालना नहीं है, बल्कि रचना के सौंदर्य, उद्देश्य और प्रभाव को समझना तथा उसे उचित संदर्भ में प्रस्तुत करना है। हिंदी साहित्य में आलोचना का क्रमिक विकास अनेक युगों से होकर गुजरा है और इसने विभिन्न रूपों एवं पद्धतियों को अपनाया है।
आलोचना: अभिप्राय, अर्थ और व्युत्पत्ति
1. आलोचना शब्द से अभिप्राय
‘आलोचना’ शब्द संस्कृत की ‘लुच’ धातु से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है — देखना। यहाँ ‘देखना’ केवल दृष्टि डालना मात्र नहीं, बल्कि गहराई से परखना, समझना और मूल्यांकन करना है। किसी रचना, वस्तु या विचार को गहन दृष्टि से देखकर, उसके विभिन्न पहलुओं का सम्यक विश्लेषण करना और निष्पक्ष रूप से अपने मत को प्रस्तुत करना ही आलोचना का मूल स्वरूप है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत साहित्य के पारंपरिक काव्य-सिद्धांत निरूपण से स्वतंत्र है। उनका मानना था कि आलोचना का मुख्य उद्देश्य किसी साहित्यिक रचना का गहन निरीक्षण करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यवस्था का स्पष्ट निर्धारण करना है। इस दृष्टि से आलोचना केवल एक मूल्यांकन प्रक्रिया नहीं, बल्कि रचना की आत्मा को समझने का एक बौद्धिक और संवेदनात्मक प्रयास है।
2. हिन्दी आलोचना का अर्थ
हिन्दी में आलोचना से तात्पर्य है — किसी विषय, वस्तु या साहित्यिक कृति का उसके उद्देश्य और प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए, उसके गुण-दोष, प्रासंगिकता और उपयुक्तता का विवेचन करना।
सामान्य धारणा में आलोचना को केवल दोष-दर्शन के रूप में समझा जाता है, परंतु वास्तव में आलोचना का उद्देश्य दोष निकालना मात्र नहीं होता। एक सच्चा आलोचक रचना के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर समान रूप से प्रकाश डालता है, ताकि पाठक को रचना की संपूर्णता का बोध हो सके। इस प्रकार, आलोचना लेखक और पाठक के बीच एक सेतु का कार्य करती है, जो साहित्य की गहन समझ को संभव बनाती है।
3. आलोचना शब्द की व्युत्पत्ति
‘आलोचना’ शब्द संस्कृत धातु ‘लुच्’ से बना है, जिसका अर्थ है — देखना। इस दृष्टि से आलोचना का मूल आशय है — किसी रचना को गहन दृष्टि से देखना, समझना, उसके अंतर्निहित अर्थ को पकड़ना और उसके गुण-दोषों का विवेचन करना।
अंग्रेज़ी में इसके लिए ‘Criticism’ शब्द का प्रयोग होता है। ‘Criticism’ का आशय है — साहित्य या कला के आकलन और मूल्यांकन की वह संगठित प्रक्रिया, जिसके द्वारा किसी रचना की विशेषताओं, शैली, भाषा, भाव और उद्देश्य को इस प्रकार उद्घाटित किया जाए कि सामान्य पाठक भी उसका पूर्ण आनंद ले सके।
संक्षेप में, आलोचना एक बौद्धिक, तर्कपूर्ण और संवेदनात्मक प्रक्रिया है, जो साहित्य और कला के क्षेत्र में रचनाओं के मूल्यांकन के साथ-साथ उनके वास्तविक स्वरूप को उजागर करती है। इसका उद्देश्य मात्र दोष ढूँढना नहीं, बल्कि रचना के भीतर छिपी सुंदरता, विचार और भावनात्मक गहराई को पाठक तक पहुँचाना है। इस प्रकार, आलोचना साहित्यिक विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जो सृजन और आस्वादन दोनों को समृद्ध करती है।
आलोचना की परिभाषा : विद्वानों के मत
आलोचना के स्वरूप और उद्देश्य को स्पष्ट करने के लिए भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं। उनके मत निम्नलिखित रूप में संकलित किए जा सकते हैं —
- डॉ. गुलाब राय — “आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति का सभी दृष्टिकोणों से आस्वाद कर पाठकों को उस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना, उनकी रुचि को परिमार्जित करना तथा साहित्य की गतिविधि निर्धारित करने में योगदान देना है।”
- डॉ. श्यामसुन्दर दास — “साहित्य-क्षेत्र में ग्रन्थ को पढ़कर उसके गुणों और दोषों का विवेचन करना और उसके सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करना आलोचना कहलाता है।”
- आचार्य नंददुलारे वाजपेयी — “सत्य, शिवं, सुंदरम् का समुचित अन्वेषण, पृथक्करण और अभिव्यंजना ही आलोचना है।”
- डॉ. भगीरथ मिश्र — “आलोचना का कार्य कवि और उसकी कृति का यथार्थ मूल्य प्रकट करना है।”
- आई. ए. रिचर्ड्स — “आलोचना साहित्यिक अनुभूतियों के विवेकपूर्ण विवेचन के उपरांत उनका मूल्यांकन करती है।”
- मैथ्यु अर्नाल्ड — “वास्तविक आलोचना में यह गुण रहा करता है कि उसमें समग्र निष्पक्षता से बौद्धिक सामर्थ्य का प्रदर्शन किया जाए।”
आलोचक का कार्य और भूमिका
आलोचक केवल रचना के दोष गिनाने वाला व्यक्ति नहीं होता, बल्कि वह साहित्य और समाज के बीच सेतु का कार्य करता है। स्काट जेम्स के अनुसार आलोचक कभी-कभी प्रकृति का भावानुवाद करता है, कभी उसकी व्याख्या करता है; कभी कलाकार बनकर नई दृष्टि देता है, तो कभी प्रचारक का रूप लेकर समाजहितकारी विचारों का प्रसार करता है। कभी वह रचनात्मक इतिहासकार बनकर यह दर्शाता है कि समाज ने कला को कैसे प्रभावित किया और कला ने समाज को किस प्रकार रूपांतरित किया।
इस प्रकार आलोचक —
- नई विचारधारा प्रवाहित करता है।
- चिरंतन सत्य की प्रतिष्ठा करता है।
- साहित्यिक मूल्यों को संरक्षित और विकसित करता है।
हिंदी आलोचना का प्रारंभ और विकास
हिंदी साहित्य में आलोचना का इतिहास साहित्यिक विकास की प्रक्रिया के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। आलोचना केवल किसी कृति के दोष गिनाने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह रचना के सौंदर्य, उद्देश्य और प्रभाव का विवेचन करने वाली साहित्यिक विधा है। हिंदी आलोचना का संगठित स्वरूप 19वीं सदी में खड़ी बोली हिंदी गद्य के विकास के साथ आरंभ हुआ।
प्रारंभिक दौर और भारतेन्दु युग
हिंदी आलोचना के औपचारिक और संगठित प्रारंभ का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चंद्र को जाता है। इस युग में हिंदी प्रदीप पत्र के माध्यम से आलोचना का कार्य शुरू हुआ। यद्यपि इस समय आलोचना का स्वरूप प्रारंभिक, सीमित और साहित्यिक परिचय या मूल्यांकन तक ही सीमित था, फिर भी इसने आगे के विकास की नींव रखी।
भारतेन्दु युग की आलोचना मुख्यतः —
- साहित्य के मानक स्वरूप को निर्धारित करने,
- रचनाओं की भाषा-शैली पर ध्यान केंद्रित करने,
- तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों के मूल्यांकन
तक सीमित रही।
द्विवेदी युग : आलोचना को नई दिशा
महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में हिंदी आलोचना को नई दिशा और गति मिली। उन्होंने न केवल भाषा और शैली को परिष्कृत किया, बल्कि साहित्यिक मानदंडों को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित किया। इस काल में आलोचना का स्वरूप अधिक संगठित और व्यवस्थित हुआ, हालांकि यह अभी भी पूरी तरह तात्त्विक और गहन विश्लेषणात्मक नहीं हो पाया था।
इस युग में निम्नलिखित आलोचना-पद्धतियाँ विशेष रूप से उभरीं —
- शास्त्रीय आलोचना — प्राचीन आचार्यों के मानदंडों के आधार पर मूल्यांकन।
- अनुसंधानपरक आलोचना — ऐतिहासिक तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर आलोचना।
- परिचयात्मक आलोचना — लेखक और कृति का सामान्य परिचय व विवेचन।
- व्याख्यात्मक आलोचना — कृति के आशय और सौंदर्य का उद्घाटन, मूल्य-निर्णय के बिना।
छायावादी युग : रामचंद्र शुक्ल का योगदान
हिंदी आलोचना के सैद्धांतिक और व्यवस्थित विकास का वास्तविक प्रस्थान-बिंदु रामचंद्र शुक्ल का युग रहा। छायावादी युग में उन्होंने आलोचना को सुव्यवस्थित रूप दिया और नए मानदंड स्थापित किए।
उनका दृष्टिकोण —
- ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कृति का विश्लेषण,
- साहित्यिक प्रवृत्तियों का मूल्यांकन,
- और सामाजिक संदर्भों में रचना की भूमिका का अध्ययन —
पर आधारित था।
शुक्ल की आलोचना ने हिंदी में एक नई बौद्धिक परंपरा की शुरुआत की, जो आज भी प्रासंगिक है।
छायावादोत्तर काल : सर्वांगीण विकास
छायावादोत्तर काल में हिंदी आलोचना का सर्वांगीण और बहुआयामी विकास हुआ। इस दौर में विभिन्न आलोचना-पद्धतियाँ और दृष्टिकोण अपनाए गए —
- मार्क्सवादी आलोचना — साहित्य को सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में देखना।
- मनोवैज्ञानिक आलोचना — रचना को लेखक के मानसिक और भावनात्मक संदर्भों से जोड़कर समझना।
- प्रभाववादी आलोचना — व्यक्तिगत अनुभव और प्रतिक्रिया के आधार पर कृति का मूल्यांकन।
इस समय आलोचना केवल कृति के मूल्यांकन तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह साहित्यिक, सांस्कृतिक और वैचारिक विमर्श का भी महत्वपूर्ण साधन बन गई।
प्रमुख आलोचक और उनका योगदान
भारतेन्दु युग से लेकर समकालीन समय तक हिंदी आलोचना के विकास में कई विद्वानों का अमूल्य योगदान रहा है —
- भारतेन्दु हरिश्चंद्र — आलोचना का प्रारंभिक संगठित रूप।
- महावीर प्रसाद द्विवेदी — भाषा और शैली का परिष्कार, मानक निर्धारण।
- रामचंद्र शुक्ल — सैद्धांतिक और व्यवस्थित आलोचना की नींव।
- नंददुलारे वाजपेयी — आलोचना को वैचारिक गहराई प्रदान की।
- हजारीप्रसाद द्विवेदी — सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से मूल्यांकन।
- डॉ. नगेंद्र — मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण की स्थापना।
- डॉ. रामविलास शर्मा — मार्क्सवादी आलोचना का विकास।
- नामवर सिंह — उत्तर आधुनिक और समकालीन विमर्श।
- मैनेजर पांडे — साहित्यिक सिद्धांत और आधुनिक आलोचना प्रवृत्तियों का विश्लेषण।
हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो 19वीं सदी के भारतेन्दु युग से शुरू होकर आज के समकालीन विमर्शों तक पहुँची है। भारतेन्दु ने इसकी नींव रखी, द्विवेदी ने इसे दिशा दी, शुक्ल ने इसका सैद्धांतिक ढांचा तैयार किया और बाद के आलोचकों ने इसे विविध दृष्टिकोणों से समृद्ध किया। आज हिंदी आलोचना साहित्य के मूल्यांकन के साथ-साथ समाज, संस्कृति और विचारधारा के अध्ययन का भी एक सशक्त माध्यम बन चुकी है।
आलोचना के प्रकार
आलोचना साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन, विश्लेषण और विवेचन की वह प्रक्रिया है जिसमें रचना के स्वरूप, विषय-वस्तु, शैली, प्रभाव और साहित्यिक महत्त्व का निर्धारण किया जाता है। साहित्यिक आलोचना का स्वरूप समय, समाज, युगीन प्रवृत्तियों और स्वयं आलोचक के दृष्टिकोण के अनुसार बदलता रहता है। आलोचना के प्रकार का निर्धारण मुख्य रूप से तीन आधारों पर किया जाता है—
- आलोचक का दृष्टिकोण
- आलोचना की पद्धति
- मूल्यांकन के मापदंड
आलोचना करते समय अपनाए गए मान्यताओं, मापदंड, दृष्टिकोण और पद्धतियों के आधार पर आलोचना के अनेक प्रकार पाए जाते हैं। इनके आधार पर आलोचना के प्रकार मुख्य रूप से दो बड़े वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं —
- सैद्धान्तिक आलोचना
- व्यावहारिक आलोचना
इसके अतिरिक्त, समकालीन आलोचना और उसके अंतर्गत विभिन्न प्रवृत्तियों के आधार पर भी प्रकार निर्धारित होते हैं।
1. सैद्धान्तिक आलोचना (Theoretical Criticism)
सैद्धान्तिक आलोचना में साहित्य के सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है। ये सिद्धान्त शास्त्रीय या ऐतिहासिक कुछ भी हो सकते है। इस पद्धति में आलोचक शास्त्र के विषय में सिद्धान्त स्थापित करता है, उसमें साहित्य के मानदण्ड विषयक चिन्तन होता है। साहित्य के मूल को पहचान कर उसमें सम्बन्ध रखने वाले सिद्धान्त स्थिर किए जाते हैं।
परिभाषा:
सैद्धान्तिक आलोचना में साहित्य के सिद्धान्तों, मानदण्डों और मूलभूत अवधारणाओं का अध्ययन एवं स्थापना की जाती है। इसमें काव्य, नाटक, कहानी या किसी भी साहित्यिक विधा के आदर्श रूप और नियमों को परिभाषित किया जाता है। काव्यशास्त्र, साहित्य दर्पण, काव्य प्रकाश, रसगंगाधर आदि इसी प्रकार के ग्रंथ हैं।
विशेषताएँ:
- साहित्य के सिद्धान्तों की स्थापना
- ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय दृष्टिकोण का प्रयोग
- साहित्य के उद्देश्य और प्रयोजन पर विचार
- मूल स्रोत और परम्पराओं की पहचान
उदाहरण:
- काव्यशास्त्र (भामह)
- रसगंगाधर (पंडित जगन्नाथ)
- साहित्य दर्पण (विश्वनाथ)
प्रमुख आलोचक:
आचार्य भरत, भामह, आचार्य शुक्ल, पंडित जगन्नाथ, नन्ददुलारे वाजपेयी
2. व्यावहारिक आलोचना (Practical Criticism)
जब सिद्धान्तों के आधार पर साहित्य की समीक्षा की जाए, तो उसे व्यावहारिक आलोचना का नाम दिया जाता है।
परिभाषा:
जब स्थापित सिद्धान्तों के आधार पर किसी विशिष्ट साहित्यिक कृति का परीक्षण और विवेचन किया जाता है, तो इसे व्यावहारिक आलोचना कहते हैं।
विशेषताएँ:
- सिद्धान्तों का प्रयोग कर कृति का मूल्यांकन
- विश्लेषण, व्याख्या और निर्णय पर जोर
- रचना के गुण-दोषों का प्रत्यक्ष विवेचन
व्यावहारिक आलोचना के उप-प्रकार और उनका विवरण:
व्यावहारिक आलोचना दो प्रमुख उप प्रकारों में विभाजित किया जाता है –
(A) पद्धति-आधारित उप-प्रकार
- व्याख्यात्मक आलोचना
- जीवन-चरितात्मक आलोचना
- ऐतिहासिक आलोचना
- रचनात्मक आलोचना
- प्रभाववादी आलोचना
- तुलनात्मक आलोचना
(B) दृष्टिकोण/दर्शन-आधारित उप-प्रकार
- शास्त्रीय आलोचना
- निर्णयात्मक आलोचना
- मनोवैज्ञानिक / मनोविश्लेषणवादी आलोचना
- मार्क्सवादी आलोचना
आगे इन सभी उप प्रकारों को विवरण दिया गया है –
(A) पद्धति-आधारित उप-प्रकार
(1) व्याख्यात्मक आलोचना (Exegetical Criticism)
व्याख्यात्मक आलोचना की नींव डॉ. मोल्टन ने रखी। इस पद्धति में वैज्ञानिक अन्वेषण और विश्लेषण को आदर्श माना जाता है। आलोचक का कार्य केवल कृति के सौंदर्य का उद्घाटन करना होता है, मूल्य निर्धारण करना नहीं।
- परिभाषा: डॉ. मोल्टन द्वारा प्रारम्भ की गई यह पद्धति कृति के सौन्दर्य को उद्घाटित करने पर केंद्रित है, मूल्यांकन पर नहीं।
- विशेषताएँ: वैज्ञानिक दृष्टि, सौन्दर्य-विश्लेषण, तथ्यात्मक व्याख्या
- उदाहरण: किसी कविता का पंक्ति-दर-पंक्ति विश्लेषण
- प्रमुख आलोचक: डॉ. मोल्टन, मैथिलीशरण गुप्त पर नामवर सिंह की व्याख्याएँ
(2) जीवन-चरितात्मक आलोचना (Biographical Criticism)
इसमें लेखक के जीवन, व्यक्तिगत अनुभवों, संघर्ष और परिस्थितियों के संदर्भ में रचना का विश्लेषण किया जाता है।
- परिभाषा: इसमें लेखक के जीवन, व्यक्तित्व और अनुभवों को उसकी कृति के मूल्यांकन का आधार बनाया जाता है।
- विशेषताएँ: जीवनी और साहित्यिक रचना का संबंध स्पष्ट करना
- उदाहरण: “दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय चेतना”
- प्रमुख आलोचक: सैमुअल जॉनसन, नन्दकिशोर नवल
(3) ऐतिहासिक आलोचना (Historical Criticism)
इसमें आलोचक लेखक के जीवन-काल, युगीन परिस्थितियों, आंदोलनों और प्रवृत्तियों के संदर्भ में कृति का विश्लेषण करता है।
- परिभाषा: लेखक की रचना का उसके युगीन संदर्भ, राजनीतिक-समाजिक परिस्थितियों और साहित्यिक आंदोलनों के आलोक में मूल्यांकन।
- विशेषताएँ: संदर्भात्मक विश्लेषण, ऐतिहासिक घटनाओं का प्रभाव
- उदाहरण: छायावाद के उद्भव का विश्लेषण
- प्रमुख आलोचक: हिप्पोलाइट टेन, आचार्य शुक्ल
(4) रचनात्मक आलोचना (Creative Criticism)
इसमें आलोचक रचना की मौलिकता, कलात्मक संरचना और सृजनात्मक तत्वों पर ध्यान देता है।
- परिभाषा: आलोचना जो स्वयं साहित्यिक सृजन के समान प्रभाव उत्पन्न करे।
- विशेषताएँ: रचनात्मक भाषा, भावुकता और कलात्मकता
- उदाहरण: रामचंद्र शुक्ल की शैलीगत आलोचनाएँ
- प्रमुख आलोचक: मैथ्यू अर्नोल्ड, रामचंद्र शुक्ल
(5) प्रभाववादी आलोचना (Comparative Criticism)
आलोचक अपने व्यक्तिगत प्रभाव, अनुभूति और प्रतिक्रिया के आधार पर रचना का मूल्यांकन करता है।
- परिभाषा: इसमें कृति का मूल्यांकन आलोचक पर पड़े तत्काल प्रभाव के आधार पर किया जाता है।
- विशेषताएँ: व्यक्तिगत अनुभूति, तात्कालिक प्रभाव
- उदाहरण: कविता पढ़ने के बाद उत्पन्न निजी प्रतिक्रिया
- प्रमुख आलोचक: वर्जीनिया वुल्फ, हजारीप्रसाद द्विवेदी
(6) तुलनात्मक आलोचना (Comparative Criticism)
दो या अधिक रचनाओं, लेखकों, युगों या भाषाओं के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन और मूल्यांकन।
- परिभाषा: विभिन्न भाषाओं या साहित्यिक परम्पराओं की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन।
- विशेषताएँ: अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण, प्रभाव और समानताओं की खोज
- उदाहरण: तुलसीदास और होमर के महाकाव्यों की तुलना
- प्रमुख आलोचक: मैथ्यू अर्नोल्ड, कृष्णदेव उपाध्याय
(B) दृष्टिकोण/दर्शन-आधारित उप-प्रकार
(1) शास्त्रीय आलोचना (Classical Criticism)
प्राचीन या अर्वाचीन आचार्यों द्वारा दिए गए शास्त्रीय लक्षणों के आधार पर रचना का मूल्यांकन। इसमें पारंपरिक मानदंड ही कसौटी माने जाते हैं।
परिभाषा:
शास्त्रीय आलोचना में प्राचीन आचार्यों के शास्त्रीय लक्षणों और नियमों के आधार पर कृति का मूल्यांकन किया जाता है।
विशेषताएँ:
- परंपरागत मानदण्डों का पालन
- अनुशासन और शास्त्रीयता पर जोर
- नवाचार की सीमित स्वीकृति
उदाहरण:
- संस्कृत अलंकार शास्त्र के आधार पर हिंदी कविता का विश्लेषण
प्रमुख आलोचक:
भरत, भामह, विश्वनाथ, पंडित जगन्नाथ
(2) निर्णयात्मक आलोचना (Judicial Criticism)
इस प्रकार की आलोचना में आलोचक या तो शास्त्रीय मानदंडों के आधार पर, या अपनी व्यक्तिगत दृष्टि के अनुसार, कृति का अंतिम मूल्यांकन करता है। इसमें कृतियों को महान, सामान्य या कमजोर श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
परिभाषा:
निर्णयात्मक आलोचना में आलोचक किसी कृति के गुण-दोषों के आधार पर उसे श्रेष्ठ, सामान्य या निम्न श्रेणी में रखता है।
विशेषताएँ:
- आलोचक की निजी रुचि का प्रभाव
- अंतिम निर्णय प्रदान करना
- शास्त्रीय एवं व्यक्तिगत मानदण्ड दोनों का प्रयोग
उदाहरण:
- “प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास ‘गोदान’ है” जैसे निर्णय
प्रमुख आलोचक:
रामचंद्र शुक्ल, मैथ्यू अर्नोल्ड
(3) मनोवैज्ञानिक / मनोविश्लेषणवादी आलोचना (Psychological / Psychoanalytic Criticism)
मनोविज्ञान से प्रभावित होकर हिन्दी आलोचना की रचनाओं में विश्लेषण की प्रवृत्ति जागृत हुई। जिसे मनोविश्लेषणवादी नाम दिया गया। इसमें अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी एवं देवराज उपाध्याय आदि आलोचक इसी वर्ग हैं।
परिभाषा:
इस आलोचना में कृति को लेखक की मानसिक स्थिति, अवचेतन और भावनात्मक संदर्भों के आधार पर समझा जाता है।
विशेषताएँ:
- सिग्मंड फ्रायड और जंग के सिद्धान्तों का प्रभाव
- लेखक के अवचेतन और स्वप्नों का अध्ययन
- रचना को वैयक्तिक कर्म मानना
उदाहरण:
- ‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद के अवचेतन का विश्लेषण
प्रमुख आलोचक:
अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, देवराज उपाध्याय
(4) मार्क्सवादी आलोचना (Marxist Criticism)
हिंदी आलोचना में मार्क्स के विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा है। स्वच्छन्दतावादी के प्रभाव को समाप्त करने का कार्य मार्क्सवादी आलोचकों ने ही किया है। मार्क्सवादी आलोचना के क्षेत्र में भी हिन्दी के कई आलोचकों का नाम लिया जाता है। डॉ. रामविलास शर्मा का नाम इसने सबसे पहले लिया जाता है। इनके अतिरिक्त शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह, प्रकाश चन्द्रगुप्त, अमृतराय आदि इसी वर्ग के आलोचक हैं।
परिभाषा:
मार्क्सवाद के सिद्धान्तों पर आधारित आलोचना, जिसमें साहित्य को सामाजिक-आर्थिक संघर्ष और वर्ग-संघर्ष के संदर्भ में परखा जाता है।
विशेषताएँ:
- सर्वहारा वर्ग का समर्थन
- सामाजिक यथार्थ पर बल
- शोषण-विरोध और परिवर्तन की आकांक्षा
उदाहरण:
- प्रगतिवादी साहित्य का विश्लेषण
प्रमुख आलोचक:
रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह
3. समकालीन आलोचना
‘समकालीन’ का अर्थ है- ‘एक समय में रहने या होने वाला’ अर्थात् एक समय में घटित होने वाली। समकालीन आलोचना की विशेषता यह रही है कि वह रचना या कृति को उसकी समग्रता में देखने व परखने की पक्षधर रही है। समकालीन आलोचना अस्तित्ववाद की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। साथ ही समाज और सौन्दर्य की नवीन धारणाओं का स्वागत व उनका समर्थन करती है।
समकालीन आलोचना में काफी वैविध्य है, लेकिन आलोचकों में अपने आग्रह, विचार और विविधता के बावजूद यह कोशिश दिखाई देती है कि अन्तर्वस्तु और रचना-शिल्प की दृष्टि से एक समावेशी और समेकित आलोचना दृष्टि का विकास किया जा सके। इस समय के आलोचकों में सुधीश पचौरी, नामवर सिंह, मलयज, बच्चन सिंह, निर्मला जैन, विश्वनाथ त्रिपाठी, परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर नवल, रमेश चन्द्र शाह, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, नन्दकिशोर आचार्य, प्रभाकर श्रोतिय, अशोक वाजपेयी और मैनेजर पाण्डेय आदि प्रमुख हैं।
समकालीन आलोचना में विविध दृष्टिकोण शामिल हैं —
- सौष्ठववादी / स्वच्छन्दतावादी आलोचना — व्यक्तिगत भाव और कल्पनाशीलता को महत्व (प्रमुख: जयशंकर प्रसाद पर लेखन करने वाले आलोचक)
- रसवादी आलोचना — ‘रस’ को साहित्य का प्राण मानकर काव्य का मूल्यांकन (भरतमुनि, आनंदवर्धन, विश्वनाथ)
- अस्तित्ववादी आलोचना — व्यक्ति की अस्मिता, संकट और आंतरिक सत्य पर बल (प्रमुख: अज्ञेय, धर्मवीर भारती)
- आधुनिकतावादी आलोचना — नवीनता, प्रयोगशीलता और अनुभव की प्रामाणिकता (प्रमुख: अशोक वाजपेयी)
- नई समीक्षा — बहुआयामी दृष्टिकोण, समाहार प्रवृत्ति (प्रमुख: विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय)
(1) सौष्ठववादी / स्वच्छन्दतावादी आलोचना (Aesthetic / Romantic Criticism)
स्वच्छन्दतावादी दृष्टि की मूलभूत विशेषता साहित्य की जड़ता, कृत्रिमता, रूढ़ियों और अप्रासंगिक होती हुई, लेखन परम्पराओं से विद्रोह है। स्वच्छन्दतावादी आलोचना में आत्मसृजन, वैयक्तिकता, कल्पनाशीलता और स्वानुभूति को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है।
परिभाषा: साहित्य में आत्मसृजन, कल्पनाशीलता, वैयक्तिकता और स्वानुभूति को महत्व देना।
उदाहरण: छायावादी काव्य का स्वतंत्रतावादी दृष्टिकोण से मूल्यांकन।
प्रमुख आलोचक: अज्ञेय, हजारीप्रसाद द्विवेदी।
(2) रसवादी आलोचना (Rasa Theory Criticism)
संस्कृत काव्यशास्त्र की मूल दृष्टि रसवादी ही रही है, लेकिन आचार्य शुक्ल ने रसवादी चिन्तन को लोकमंगल से जोड़ा है। शुक्ल ने रसवादी चिन्तन को लोकमंगल से जोड़कर हिन्दी आलोचना की प्रवृत्ति को नई दिशा प्रदान की। नन्ददुलारे वाजपेयी और डॉ. नगेन्द्र ने इस रसवादी परम्परा को आगे बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
परिभाषा: ‘रस’ को साहित्य का प्राण मानकर काव्य का मूल्यांकन।
उदाहरण: जयशंकर प्रसाद के कामायनी का शृंगार और करुण रस के आधार पर विश्लेषण।
प्रमुख आलोचक: भरतमुनि, आनंदवर्धन, विश्वनाथ।
(3) अस्तित्ववादी आलोचना (Existential Criticism)
अस्तित्ववादी आलोचना में व्यक्ति की अस्मिता, उसके अस्तित्व पर संकट, क्षणिक अनुभव, उसके आन्तरिक सत्य के उद्घाटन की प्रवृत्ति विकसित हुई। अज्ञेय, डॉ. रघुवंश, धर्मवीर भारती आदि आलोचकों में अस्तित्ववादी प्रभाव देखा जा सकता है।
परिभाषा: व्यक्ति के अस्तित्व, अस्मिता, क्षणिक अनुभव और आंतरिक सत्य पर केंद्रित आलोचना।
उदाहरण: धर्मवीर भारती के अंधा युग का अस्तित्ववादी दृष्टि से अध्ययन।
प्रमुख आलोचक: जाँ-पॉल सार्त्र (पश्चिमी), अज्ञेय।
(4) आधुनिकतावादी आलोचना (Modernist Criticism)
इसके अन्तर्गत साहित्य में वस्तु यथार्थ के ऊपर अनुभव की प्रामाणिकता, परम्परा और शास्त्रीय नियमों के स्थान पर प्रयोग और नवीनता, सत्यता के स्थान पर ईमानदारी और गतिशील, मानव चेतना एवं व्यापकता से अधिक गहराई पर बल देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
परिभाषा: प्रयोग, नवीनता, व्यक्तिगत अनुभव की प्रामाणिकता और परंपरा-विरोध को महत्व देना।
उदाहरण: 1960–70 की नई कविता का विश्लेषण।
प्रमुख आलोचक: अज्ञेय, मुक्तिबोध, नामवर सिंह।
(5) नई समीक्षा (New Criticism)
नई समीक्षा अनेक दृष्टियों और प्रवृत्तियों के समाहार वाली आलोचना है। समाहार रूप में नई समीक्षा आज के परिवेश में एक नई परम्परा निर्माण की आकांक्षी है।
परिभाषा: विभिन्न दृष्टियों और प्रवृत्तियों का समन्वय कर समेकित आलोचना दृष्टि विकसित करना।
उदाहरण: रघुवीर सहाय की कविताओं का सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और कलात्मक तीनों दृष्टियों से विश्लेषण।
प्रमुख आलोचक: नामवर सिंह, कृष्ण कुमार।
आलोचना के प्रकार – श्रेणीबद्ध सारणी
श्रेणी | क्रम | आलोचना का प्रकार | परिभाषा | प्रमुख विशेषताएँ | उदाहरण | प्रमुख आलोचक |
---|---|---|---|---|---|---|
I. सैद्धान्तिक आलोचना | 1 | सैद्धान्तिक आलोचना | साहित्य के सिद्धान्तों और मानदण्डों की स्थापना करने वाली आलोचना | शास्त्रीय/ऐतिहासिक दृष्टि, मूल स्रोत की पहचान, सिद्धान्त निर्माण | काव्यशास्त्र, रसगंगाधर | आचार्य भरत, भामह, आचार्य शुक्ल |
II. व्यावहारिक आलोचना (A) पद्धति-आधारित उप-प्रकार | 2(a) | व्याख्यात्मक आलोचना | कृति के सौन्दर्य का उद्घाटन करने वाली आलोचना | वैज्ञानिक दृष्टि, मूल्यांकन नहीं | कविता की पंक्ति-दर-पंक्ति व्याख्या | डॉ. मोल्टन |
2(b) | जीवन-चरितात्मक आलोचना | लेखक के जीवन और कृति के संबंध पर आधारित | जीवनी-कृति का संबंध, प्रसंग विश्लेषण | ‘दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय चेतना’ | सैमुअल जॉनसन, नन्दकिशोर नवल | |
2(c) | ऐतिहासिक आलोचना | युगीन संदर्भ में कृति का मूल्यांकन | ऐतिहासिक परिस्थितियाँ, आंदोलनों का प्रभाव | छायावाद का उद्भव | हिप्पोलाइट टेन, आचार्य शुक्ल | |
2(d) | रचनात्मक आलोचना | आलोचना जो स्वयं साहित्यिक सृजन जैसी हो | कलात्मक भाषा, भावुकता | शुक्ल की शैलीगत आलोचना | मैथ्यू अर्नोल्ड, रामचंद्र शुक्ल | |
2(e) | प्रभाववादी आलोचना | आलोचक पर पड़े तत्काल प्रभाव पर आधारित | व्यक्तिगत अनुभूति, तात्कालिक प्रतिक्रिया | कविता पढ़ने के बाद का अनुभव | वर्जीनिया वुल्फ, हजारीप्रसाद द्विवेदी | |
2(f) | तुलनात्मक आलोचना | दो या अधिक साहित्यिक परम्पराओं की तुलना | अंतरराष्ट्रीय दृष्टि, समानता-अंतर खोज | तुलसीदास और होमर का तुलनात्मक अध्ययन | मैथ्यू अर्नोल्ड, कृष्णदेव उपाध्याय | |
II. व्यावहारिक आलोचना (B) दृष्टिकोण/दर्शन-आधारित उप-प्रकार | 3 | शास्त्रीय आलोचना | शास्त्रीय लक्षणों के आधार पर कृति का मूल्यांकन | परंपरागत मानदण्ड, अनुशासन | संस्कृत अलंकार शास्त्र से हिंदी कविता का विश्लेषण | भरत, भामह, विश्वनाथ |
4 | निर्णयात्मक आलोचना | कृति को श्रेणीबद्ध करने वाली आलोचना | अंतिम निर्णय, निजी रुचि का प्रभाव | ‘गोदान’ को सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानना | रामचंद्र शुक्ल, मैथ्यू अर्नोल्ड | |
5 | मनोवैज्ञानिक / मनोविश्लेषणवादी आलोचना | लेखक की मानसिक स्थिति और अवचेतन पर आधारित | फ्रायड/जंग का प्रभाव, अवचेतन अध्ययन | ‘कामायनी’ का अवचेतन विश्लेषण | अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी | |
6 | मार्क्सवादी आलोचना | मार्क्सवाद के सिद्धान्तों पर आधारित | वर्ग-संघर्ष, सामाजिक यथार्थ | प्रगतिवादी साहित्य का मूल्यांकन | रामविलास शर्मा, नामवर सिंह | |
III. समकालीन आलोचना के प्रकार | 7 | सौष्ठववादी/स्वच्छन्दतावादी आलोचना | जड़ता और रूढ़ियों से विद्रोह | वैयक्तिकता, आत्मसृजन, कल्पनाशीलता | छायावादी काव्य | मलयज, अज्ञेय |
8 | अस्तित्ववादी आलोचना | व्यक्ति की अस्मिता और संकट पर केंद्रित | आन्तरिक सत्य, क्षणिक अनुभव | अज्ञेय की रचनाएँ | अज्ञेय, धर्मवीर भारती | |
9 | नई समीक्षा | बहुआयामी, समाहार दृष्टिकोण वाली आलोचना | अंतर्वस्तु और शिल्प दोनों का मूल्यांकन | समकालीन काव्य की समीक्षा | विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय | |
10 | आधुनिकतावादी आलोचना | नवीनता और प्रयोगशीलता पर आधारित | परंपरा के स्थान पर प्रयोग, गहराई पर बल | नयी कविता का विश्लेषण | अशोक वाजपेयी, नन्दकिशोर आचार्य |
नोट: यह सारणी स्पष्ट रूप से दिखाती है कि:
- सैद्धान्तिक आलोचना अलग है।
- व्यावहारिक आलोचना के भीतर दो समूह हैं — पद्धति-आधारित और दृष्टिकोण/दर्शन-आधारित।
- समकालीन आलोचना की अलग धारा है जिसमें आधुनिक प्रवृत्तियाँ आती हैं।
प्रभाववादी आलोचना का दृष्टिकोण
प्रभाववादी आलोचक मानते हैं कि आलोचना को केवल विज्ञान नहीं माना जा सकता। वस्तुओं को पूर्ण यथार्थ रूप में देखना संभव नहीं है, क्योंकि हम उन्हें अपने मन के अनुभव से देखते हैं। साहित्य का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व को स्पर्श करना, सहानुभूति जगाना, भावनाओं का संचार करना और संवेदनाओं को तीव्र बनाना है।
इस दृष्टिकोण में —
- व्यक्तिगत अनुभव और प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है।
- बाहरी तत्वों (इतिहास, राजनीति, अर्थव्यवस्था) को गौण माना जाता है।
- रचना स्वयं में केंद्र बिंदु होती है।
हिंदी साहित्य के प्रमुख आलोचना/कृति का नाम तथा आलोचक
क्रम | आलोचना/कृति का नाम | आलोचक |
---|---|---|
1 | नाटक | भारतेन्दु |
2 | शिवसिंह सरोज | शिवसिंह सेंगर |
3 | बिहारी सतसई की भूमिका | पद्मसिंह शर्मा |
4 | देव और बिहारी | कृष्ण बिहारी मिश्र |
5 | सिद्धांत और अध्ययन, काव्य के रूप, नवरस | बाबू गुलाबराय |
6 | साहित्यालोचन, रूपक रहस्य, भाषा रहस्य | श्यामसुंदर दास |
7 | काव्य में रहस्यवाद, रस मीमांसा, गोस्वामी तुलसीदास, भ्रमरगीत-सार, जायसी ग्रंथावली की भूमिका | रामचंद्र शुक्ल |
8 | रवींद्र कविता कानन, पंत और पल्लव | निराला |
9 | गद्यपथ, शिल्प और दर्शन, छायावादः पुनर्मूल्यांकन | पंत |
10 | साहित्य समालोचना | रामकुमार वर्मा |
आलोचना का महत्व
आलोचना केवल साहित्यिक विमर्श का साधन नहीं है, बल्कि —
- यह साहित्यिक धारा को दिशा देती है।
- पाठकों को रचना के मर्म तक पहुँचने में सहायता करती है।
- लेखक को सुधार के अवसर प्रदान करती है।
- समाज और साहित्य के बीच संवाद स्थापित करती है।
निष्कर्ष
हिंदी साहित्य में आलोचना का इतिहास एक सतत यात्रा है, जिसमें विभिन्न युगों के साहित्यकारों और आलोचकों ने अपने-अपने समय की आवश्यकताओं के अनुसार मानदंड, पद्धतियाँ और दृष्टिकोण विकसित किए। आज आलोचना केवल रचना के मूल्यांकन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक, सामाजिक और वैचारिक विमर्श का एक महत्वपूर्ण साधन बन चुकी है।
इन्हें भी देखें –
- आलोचना और आलोचक | हिन्दी में आलोचना का स्वरूप एवं विशेषताएँ
- सगुण भक्ति काव्य धारा: अवधारणा, प्रवृत्तियाँ, प्रमुख कवि और साहित्यिक विशेषताएँ
- निर्गुण भक्ति काव्य धारा: अवधारणा, प्रवृत्तियाँ, प्रमुख कवि और साहित्यिक विशेषताएँ
- भक्ति काल के कवि और उनके काव्य (रचनाएँ)
- प्रकीर्णक (लौकिक) साहित्य: श्रृंगारिकता और लोकसंवेदना का आदिकालीन स्वरूप
- भारतेन्दु युग (1868–1900 ई.): हिंदी नवजागरण का स्वर्णिम प्रभात
- हिंदी साहित्य के आदिकाल के कवि और काव्य (रचनाएँ)
- रीतिकाल (1650 – 1850 ई.): हिंदी साहित्य का उत्तर मध्यकालीन युग
- डायरी – परिभाषा, महत्व, लेखन विधि, अंतर और साहित्यिक उदाहरण
- हिंदी डायरी साहित्य और लेखक
- हिन्दी के यात्रा-वृत्त और यात्रा-वृत्तान्तकार – लेखक और रचनाएँ
- रिपोर्ताज – अर्थ, स्वरूप, शैली, इतिहास और उदाहरण
- रिपोर्ताज और रिपोर्ताजकार – लेखक और रचनाएँ | अर्थ, उत्पत्ति, हिंदी साहित्य में विकास