वैश्विक प्लास्टिक प्रदूषण संधि वार्ता गतिरोध: एक अधूरा प्रयास और बढ़ता खतरा

प्लास्टिक प्रदूषण आज के दौर की सबसे गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों में से एक बन चुका है। यह समस्या अब केवल कचरे के ढेर या समुद्र तटों पर पड़े प्लास्टिक बोतलों और थैलियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारी खाद्य श्रृंखला, पेयजल, वायु और यहाँ तक कि हमारे शरीर तक में प्रवेश कर चुकी है। संयुक्त राष्ट्र (UN) ने इस संकट की गंभीरता को देखते हुए वैश्विक स्तर पर एक ऐतिहासिक प्लास्टिक प्रदूषण संधि बनाने की पहल की थी, ताकि सभी देश मिलकर एक बाध्यकारी ढांचा तैयार कर सकें और उत्पादन से लेकर पुनर्चक्रण तक समाधान सुनिश्चित हो सके।

हालांकि, हाल ही में जिनेवा में आयोजित 11 दिवसीय वार्ता अंततः किसी ठोस समझौते के बिना समाप्त हो गई। इससे पहले दक्षिण कोरिया में हुई बैठक भी असफल रही थी। लगातार प्रयासों के बावजूद, राजनीतिक और आर्थिक हित इस महत्वपूर्ण पर्यावरणीय लक्ष्य की राह में रोड़े अटका रहे हैं। इस लेख में हम इस गतिरोध के कारणों, इसके वैश्विक प्रभावों, संधि की आवश्यकता और संभावित समाधान पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

पृष्ठभूमि: वैश्विक संधि का प्रयास

संयुक्त राष्ट्र के जिनेवा स्थित मुख्यालय में 185 देशों के प्रतिनिधि एकत्र हुए थे। उद्देश्य था— प्लास्टिक प्रदूषण को रोकने के लिए पहली बार एक कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधि बनाना।

  • बैठक की अवधि: 11 दिन
  • प्रतिभागी: 185 देश
  • परिणाम: किसी सर्वसम्मति पर सहमति नहीं

यही नहीं, इससे पहले दक्षिण कोरिया में भी इस विषय पर हुई बैठक बिना किसी ठोस निष्कर्ष के समाप्त हो चुकी थी। लगातार असफलताओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और आर्थिक हितों की टकराहट के चलते पर्यावरणीय मुद्दों पर वैश्विक एकजुटता बनाना बेहद कठिन है।

वार्ता में गतिरोध के मुख्य कारण

1. नए प्लास्टिक उत्पादन पर सीमा

यह सबसे बड़ा विवादास्पद मुद्दा रहा।

  • समर्थन: कई देश और पर्यावरण संगठन चाहते थे कि संधि में नए प्लास्टिक उत्पादन पर सख्त कानूनी सीमा तय की जाए। उनका मानना है कि जब तक उत्पादन कम नहीं होगा, पुनर्चक्रण या कचरा प्रबंधन पर्याप्त समाधान नहीं हो सकते।
  • विरोध: अमेरिका (ट्रंप प्रशासन के तहत) और तेल उत्पादक देश इसके खिलाफ थे। इनके लिए प्लास्टिक उत्पादन घटते ईंधन बाजार की भरपाई का एक प्रमुख विकल्प है। इनका तर्क था कि ध्यान उत्पादन घटाने की बजाय कचरा प्रबंधन और पुनर्चक्रण पर होना चाहिए।

2. मसौदे में कानूनी बाध्यता की कमी

नवीनतम मसौदे में कई प्रावधानों को या तो कमजोर किया गया या हटा दिया गया।

  • प्लास्टिक उत्पादन सीमा से जुड़े अनुच्छेद हटा दिए गए।
  • संधि के दायरे को केवल “स्वैच्छिक सहयोग” तक सीमित किया गया।

3. तेल उत्पादक देशों का दबाव

कई तेल और गैस निर्यातक देशों ने स्पष्ट कर दिया कि वे उत्पादन कटौती पर सहमत नहीं होंगे। इनके लिए यह आर्थिक अस्तित्व का प्रश्न है।

अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ

वार्ता विफल रहने पर विभिन्न देशों ने अपनी गहरी निराशा और नाराज़गी व्यक्त की।

  • फ्रांस: पारिस्थितिकी मंत्री एग्नेस पनियर-रूनाशे ने परिणामों को “क्रोध पैदा करने वाला” बताया।
  • यूरोपीय संघ: डेनमार्क के पर्यावरण मंत्री मैग्नस होनिके ने कुछ देशों पर समझौता रोकने का आरोप लगाया।
  • पनामा: प्रतिनिधि जुआन कार्लोस मोंटेरे गोमेज़ ने मसौदे को “समर्पण” जैसा बताया।
  • माइक्रोनेशिया: वार्ताकार डेनिस क्लेयर ने इसे “एक कदम पीछे” करार दिया।
  • वार्ता अध्यक्ष लुइस वायस वाल्डिविएसो ने कहा कि लंबित मुद्दे भविष्य में समझौते की दिशा तय करेंगे।

स्पष्ट है कि वैश्विक उत्तर और दक्षिण के बीच गहरी खाई इस विषय पर भी दिख रही है। विकसित देश कठोर प्रावधान चाहते हैं जबकि तेल-निर्भर देश और अमेरिका जैसी बड़ी शक्तियाँ लचीलापन चाहती हैं।

प्लास्टिक प्रदूषण: बढ़ता संकट

उत्पादन में तेज़ वृद्धि

  • वर्ष 2000: 234 मिलियन टन
  • वर्ष 2019: 460 मिलियन टन
  • अनुमान 2040 तक: 700 मिलियन टन

यानी, दो दशकों में उत्पादन लगभग दोगुना हो चुका है और आने वाले वर्षों में यह और बढ़ेगा।

पुनर्चक्रण की स्थिति

  • आज तक कुल प्लास्टिक कचरे का केवल 10% ही पुनर्चक्रित हुआ है।
  • शेष 90% पर्यावरण में या तो जलकर, या लैंडफिल में, या महासागरों में जमा हो गया।

पर्यावरणीय प्रभाव

  • हर साल लाखों टन प्लास्टिक महासागरों में पहुँचकर समुद्री जीवों को नुकसान पहुँचाता है।
  • कछुए, व्हेल, मछलियाँ और पक्षी प्लास्टिक खाने से मर जाते हैं या घायल हो जाते हैं।
  • पारिस्थितिक तंत्र और आवासों का विनाश होता है।
  • प्लास्टिक के विघटन में 20–500 वर्ष का समय लगता है।

मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव

  • सूक्ष्म प्लास्टिक अब पीने के पानी, भोजन और हवा में पाए जा रहे हैं।
  • ये हानिकारक रसायनों के वाहक हैं, जो कैंसर, हार्मोन असंतुलन और श्वसन संबंधी बीमारियों का कारण बन सकते हैं।

आर्थिक लागत

  • पर्यटन उद्योग, मत्स्य पालन और सफाई कार्यों पर अरबों डॉलर का बोझ पड़ता है।
  • अनुमान है कि हर साल दुनिया को अरबों डॉलर का नुकसान सिर्फ प्लास्टिक प्रदूषण के कारण उठाना पड़ता है।

ग्लोबल प्लास्टिक संधि की आवश्यकता क्यों?

  1. प्लास्टिक उत्पादन में कमी लाना – जब तक उत्पादन सीमित नहीं होगा, समस्या का समाधान संभव नहीं।
  2. हानिकारक रसायनों का उन्मूलन – प्लास्टिक में मौजूद जहरीले तत्वों को हटाना।
  3. टिकाऊ कचरा प्रबंधन – सभी देशों के लिए बाध्यकारी लक्ष्य तय करना।
  4. सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की प्राप्ति – SDG-12 (सतत उत्पादन और उपभोग) और SDG-14 (महासागरों का संरक्षण) सीधे इससे जुड़े हैं।
  5. सर्कुलर इकोनॉमी को बढ़ावा – प्लास्टिक को कचरे से संसाधन में बदलने का दृष्टिकोण अपनाना।
  6. जलवायु परिवर्तन से जुड़ाव
    • 2020 में प्लास्टिक का योगदान वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 3.6% था।
    • अनुमान है कि 2050 तक यह योगदान 20% तक बढ़ सकता है।

समाधान की संभावित दिशा

हालांकि वार्ता असफल रही, लेकिन यह समस्या इतनी गंभीर है कि इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। संभावित समाधान में शामिल हो सकते हैं:

  • वैश्विक स्तर पर उत्पादन सीमा: तेल उत्पादक देशों को विकल्प प्रदान करते हुए उत्पादन पर अंतरराष्ट्रीय सीमा तय करना।
  • अनिवार्य पुनर्चक्रण लक्ष्य: सभी देशों को न्यूनतम स्तर पर पुनर्चक्रण सुनिश्चित करने का दायित्व देना।
  • वित्तीय सहायता तंत्र: विकासशील देशों को तकनीकी और वित्तीय सहायता देकर उन्हें कचरा प्रबंधन और वैकल्पिक उत्पादन की ओर ले जाना।
  • नवाचार और विकल्प: बायोप्लास्टिक, पुन: प्रयोज्य सामग्री और टिकाऊ पैकेजिंग पर अनुसंधान और निवेश।
  • जनजागरूकता: उपभोक्ताओं को एकल-उपयोग प्लास्टिक से दूर करने के लिए शिक्षा और अभियान।

निष्कर्ष

जिनेवा में हुई वार्ता का असफल रहना यह संकेत है कि प्लास्टिक प्रदूषण पर वैश्विक सहमति बनाना आसान नहीं है। लेकिन यह समस्या इतनी गंभीर है कि इसे और टालना मानवता के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा। हर साल लाखों टन प्लास्टिक महासागरों और धरती पर जमा हो रहा है, वन्यजीव मर रहे हैं, और इंसानों के शरीर तक में सूक्ष्म प्लास्टिक पहुँच चुका है।

यह समय है कि दुनिया राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर पर्यावरण और मानव अस्तित्व के लिए ठोस कदम उठाए। एक कानूनी रूप से बाध्यकारी वैश्विक संधि न केवल जरूरी है, बल्कि अब अत्यावश्यक हो चुकी है। अन्यथा, आने वाली पीढ़ियाँ हमें क्षमा नहीं करेंगी।


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