“काव्य के सौन्दर्य तत्व” लेख में भारतीय काव्यशास्त्र की उन गहन धारणाओं का विस्तृत विवेचन किया गया है, जो साहित्य को न केवल मनोरंजन का साधन बनाते हैं, बल्कि जीवन के उच्च आदर्शों, मानवीय भावनाओं और समाजोपयोगी मूल्यों का मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं। इस लेख में मम्मट द्वारा बताए गए काव्य के छः प्रयोजनों — यश की प्राप्ति, अर्थ की सिद्धि, व्यवहार शिक्षा, अमंगल निवारण, आत्मिक शांति तथा उपदेश ग्रहण — का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया गया है। साथ ही काव्य के दस उल्लासों को भी सरल भाषा में उदाहरण सहित प्रस्तुत किया गया है। इन उल्लासों में रस, ध्वनि, गुण, रीति और अलंकार जैसे पारंपरिक आयामों के साथ-साथ उनकी आधुनिक व्याख्या को भी तुलनात्मक सारणी के रूप में स्पष्ट किया गया है।
इसके अतिरिक्त काव्य के चार प्रमुख सौन्दर्य तत्वों — भाव-सौन्दर्य, विचार-सौन्दर्य, नाद-सौन्दर्य और अप्रस्तुत-सौन्दर्य — का भी विशेष विवेचन है। भाव-सौन्दर्य में कवि की संवेदनशीलता और हृदय की कोमलता झलकती है; विचार-सौन्दर्य में ज्ञान, तर्क और चिंतन की गहराई दिखती है; नाद-सौन्दर्य में शब्द-संगीत और छंद की लयात्मकता पाठक को मंत्रमुग्ध कर देती है; वहीं अप्रस्तुत-सौन्दर्य में परोक्ष संकेत और अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति द्वारा गूढ़ार्थ का उद्घाटन होता है।
लेख में पारंपरिक और आधुनिक दृष्टिकोणों के बीच तुलनात्मक अध्ययन भी किया गया है, जिससे पाठक यह समझ सके कि काव्य की मूल धारणाएँ समय के साथ कैसे परिवर्तित हुई हैं और आज के साहित्यिक परिदृश्य में उनका क्या महत्व है।
इस प्रकार यह लेख न केवल काव्यशास्त्र के सौन्दर्यशास्त्रीय पहलुओं की गहरी समझ देता है, बल्कि हिंदी साहित्य के विकासक्रम और उसके व्यावहारिक स्वरूप को भी उजागर करता है। यह संपूर्ण विवेचन साहित्य-प्रेमियों, शोधार्थियों और छात्रों के लिए उपयोगी होने के साथ-साथ साहित्य की गहराई को जानने का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
काव्य के सौन्दर्य तत्व (साहित्यिक सौन्दर्य तत्व)
मानव जीवन में साहित्य का महत्व केवल ज्ञान या मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संवेदनाओं और सौन्दर्य-बोध का भी पोषण करता है। साहित्य, विशेषकर काव्य, मनुष्य के हृदय की गहराइयों को झकझोरने की क्षमता रखता है। काव्य की शक्ति उसके सौन्दर्य-तत्वों में निहित होती है। यदि काव्य में सौन्दर्य न हो तो वह नीरस और निर्जीव प्रतीत होता है।
भारतीय काव्य-परंपरा में सौन्दर्य को काव्य का सारतत्त्व माना गया है। आचार्य मम्मट ने तो यहाँ तक कहा कि “काव्यस्य आत्मा रसः”, अर्थात् रस ही काव्य की आत्मा है। रस, भाव, नाद और विचार की सामंजस्यपूर्ण अभिव्यक्ति से काव्य एक कलात्मक रूप प्राप्त करता है।
मुख्य रूप से काव्य के सौन्दर्य-तत्व चार प्रकार के बताए जाते हैं—
- भाव-सौन्दर्य
- विचार-सौन्दर्य
- नाद-सौन्दर्य
- अप्रस्तुत-योजना का सौन्दर्य
अब हम इन सभी का विस्तार से अध्ययन करेंगे।
1. भाव-सौन्दर्य : संवेदना की आत्मा
भाव-सौन्दर्य काव्य का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। जब कवि अपने हृदय के अनुभवों को करुणा, प्रेम, शृंगार, वीरता, उत्साह, हर्ष, क्रोध आदि भावनाओं के साथ प्रस्तुत करता है, तब काव्य में भाव-सौन्दर्य उत्पन्न होता है।
रस और भाव-सौन्दर्य
भारतीय साहित्य-शास्त्रियों ने भाव-सौन्दर्य को ही रस कहा है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से लेकर आचार्य अभिनवगुप्त और विश्वनाथ तक सभी आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा बताया है।
नौ प्रमुख रस—
- शृंगार
- वीर
- हास्य
- करुण
- रौद्र
- भयानक
- वीभत्स
- अद्भुत
- शान्त
परवर्ती काल में वात्सल्य और भक्ति रस को भी स्वीकार किया गया।
उदाहरण
- सूरदास की बाल-लीलाओं में वात्सल्य रस का अनुपम चित्रण मिलता है।
- भूषण की शिवा बावनी में वीर रस अपनी चरम सीमा पर है।
- तुलसीदास के रामचरितमानस में भक्ति और शृंगार दोनों रसों की गहन अनुभूति होती है।
- मीरा – कृष्ण के प्रति भक्ति और विरह की वेदना।
रस की निष्पत्ति विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के सामंजस्य से होती है। जब कवि पाठक या श्रोता के मन में करुणा, हर्ष या उत्साह जैसी भावनाओं को जाग्रत करता है तो यही भाव-सौन्दर्य है।
उद्धरण :
“मैया! मैं नहीं माखन खायो।” (सूरदास) – इसमें वात्सल्य और बाल-लीला का भाव-सौन्दर्य है।
रस-निष्पत्ति का सूत्र
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार—
रस = विभाव + अनुभाव + संचारी भाव
- विभाव – रस को उत्पन्न करने वाले कारण या साधन।
- विभाव दो प्रकार के माने गए हैं—
- आलंबन विभाव : वह पात्र या वस्तु जिससे भाव उत्पन्न होता है।
- उद्दीपन विभाव : वह वातावरण या परिस्थिति जो भाव को प्रबल करता है।
- विभाव दो प्रकार के माने गए हैं—
- अनुभाव – विभाव से उत्पन्न भाव जब बाह्य क्रियाओं, अंग-संचालन, वाणी, दृष्टि आदि के रूप में व्यक्त होता है।
- संचारी भाव (व्यभिचारी भाव) – अस्थायी, सहायक भाव जो मुख्य स्थायी भाव को बल देते हैं।
जब ये तीनों मिलते हैं, तभी रस (भाव का सौन्दर्य) साकार होता है।
उदाहरण सहित स्पष्टता
कविता का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है भाव-सौन्दर्य। जब कवि अपने हृदय के गहन अनुभवों और भावनाओं (प्रेम, करुणा, शृंगार, क्रोध, वीरता आदि) को सहज और मार्मिक ढंग से व्यक्त करता है, तब काव्य में भाव-सौन्दर्य उत्पन्न होता है।
(1) वात्सल्य रस – सूरदास
उदाहरण :
“मैया! मैं नहीं माखन खायो।”
- विभाव :
- आलंबन विभाव – बालकृष्ण (माखन चुराने वाले बालक)।
- उद्दीपन विभाव – माखन की हांडी, उलझी हुई सूरत, शरारती मुस्कान।
- अनुभाव – बालकृष्ण की भोली सूरत, यशोदा के प्रश्नों पर मासूम जवाब।
- संचारी भाव – लज्जा, चपलता, बाल-सुलभ डर।
- रस-निष्पत्ति – इन सबके मेल से वात्सल्य रस जाग्रत होता है और पाठक के हृदय में बाल-लीला का सौन्दर्य प्रकट होता है।
(2) वीर रस – भूषण की शिवा बावनी
उदाहरण :
“आए न रण में जब तक, सिवा-सिंह-समाना।
तब तक धरा धरत्री धीरज धरे न जाना॥”
- विभाव :
- आलंबन विभाव – शिवाजी का पराक्रम।
- उद्दीपन विभाव – रणभूमि का वातावरण, शत्रुओं की भीड़।
- अनुभाव – सैनिकों का उत्साह, गर्जना, अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग।
- संचारी भाव – उत्साह, रोष, धैर्य।
- रस-निष्पत्ति – इन सबके योग से वीर रस की चरम अनुभूति होती है।
(3) भक्ति रस – तुलसीदास का रामचरितमानस
उदाहरण :
“प्रभु तुम्हरी गति माया न जानई।
शरणागत भव भव तरणई॥”
- विभाव :
- आलंबन विभाव – श्रीराम।
- उद्दीपन विभाव – उनका रूप, आचरण, दिव्य गुण।
- अनुभाव – भक्तों द्वारा हाथ जोड़ते हुए (प्रणाम की मुद्रा), आँसुओं से भरी आँखें, विनयपूर्ण वाणी।
- संचारी भाव – दीनता, श्रद्धा, प्रेम, नम्रता।
- रस-निष्पत्ति – इन सबके मेल से भक्ति रस प्रकट होता है और भक्त अपने आराध्य में तन्मय हो जाता है।
(4) शृंगार रस – जयदेव की गीतगोविन्द
उदाहरण :
“सखि हे! केशवमधवमाधवमनोहरम्।”
- विभाव :
- आलंबन विभाव – राधा और कृष्ण।
- उद्दीपन विभाव – वसंत ऋतु, यमुना तट, पुष्पित लताएँ।
- अनुभाव – राधा का लज्जित होना, कृष्ण की मुस्कान, दृष्टि-विनिमय।
- संचारी भाव – चपलता, उत्सुकता, संकोच।
- रस-निष्पत्ति – इन सबके संगम से शृंगार रस अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचता है।
संक्षिप्त तालिका : भाव सौन्दर्य (रस-निष्पत्ति के उदाहरण)
रस | कवि/ग्रंथ | विभाव | अनुभाव | संचारी भाव | रस का प्रभाव |
---|---|---|---|---|---|
वात्सल्य | सूरदास – बाल-लीला | कृष्ण और माखन | भोली सूरत, मासूम जवाब | लज्जा, चपलता | वात्सल्य और स्नेह |
वीर | भूषण – शिवा बावनी | शिवाजी, रणभूमि | पराक्रम, गर्जना | उत्साह, रोष | पराक्रम और जोश |
भक्ति | तुलसीदास – रामचरितमानस | श्रीराम | हाथ जोड़े हुए (प्रणाम की मुद्रा), आँसू | श्रद्धा, दीनता | भक्ति और समर्पण |
शृंगार | जयदेव – गीतगोविन्द | राधा-कृष्ण | दृष्टि, मुस्कान | संकोच, चपलता | प्रेम और सौन्दर्य |
👉 ये चारों उदाहरण रस-निष्पत्ति के सूत्र (विभाव + अनुभाव + संचारी भाव) को पूरी तरह स्पष्ट करते हैं।
2. विचार-सौन्दर्य : चिंतन की ऊँचाई
यदि भाव-सौन्दर्य काव्य की आत्मा है तो विचार-सौन्दर्य उसकी गरिमा है। कविता केवल भावनाओं का विस्फोट नहीं, बल्कि चिंतन का भी माध्यम है। जब कवि उच्च विचारों, नैतिक मूल्यों और प्रेरणादायक संदेशों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है तो काव्य में विचार-सौन्दर्य उत्पन्न होता है।
उद्धरण : “मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।” (दिनकर) – यह विचार-सौन्दर्य का उदाहरण है।
विचार-सौन्दर्य वह तत्व है जो काव्य को केवल मनोरंजन का साधन न बनाकर सामाजिक परिवर्तन का साधन बना देता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से
- भक्तिकाल के कबीर, रहीम, तुलसीदास आदि कवियों के दोहों और पदों में व्यावहारिक शिक्षा और नीति का बोध मिलता है।
- रीतिकाल में भले ही शृंगार रस प्रमुख रहा हो, किन्तु गिरधर कविराय जैसे कवियों ने विचार-प्रधान काव्य भी लिखा।
- छायावाद काल में प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी ने विचार-सौन्दर्य को भावनाओं के साथ पिरोया।
- आधुनिक प्रगतिवादी और प्रयोगवादी कवि जनजीवन की समस्याओं, शोषण और अन्याय को केंद्र में लाकर विचार-सौन्दर्य का नया रूप प्रस्तुत करते हैं।
कविता केवल भावनाओं का ही नहीं, बल्कि विचारों का भी साधन है। जब कविता में उच्च कोटि की चिंतनधारा, आदर्श, नैतिकता और प्रेरणादायक संदेश समाहित होता है, तब उसे विचार-सौन्दर्य कहते हैं। जैसे –
- कबीर – दोहों में व्यावहारिक शिक्षा और सामाजिक सन्देश : “बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।”
- रहीम – नीति और सदाचार के दोहे।
- जयशंकर प्रसाद – कामायनी में संस्कृति, राष्ट्रीयता और जीवन-दर्शन।
- दिनकर – कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी में राष्ट्रीयता और मानवता के विचार।
- गुप्त – उनकी कविताओं में स्वतंत्रता और देशप्रेम का सन्देश।
साहित्य केवल भावों की अभिव्यक्ति भर नहीं है, बल्कि उसमें विचारों की गहराई भी होती है। जब कोई कवि या साहित्यकार अपने काव्य या गद्य में जीवन-दर्शन, नीति, धर्म, समाज या मानवता से जुड़े गूढ़ विचारों को सुंदर और सरल रूप में प्रस्तुत करता है, तो उसे विचार-सौन्दर्य कहा जाता है। इसमें भावनाओं के साथ-साथ चिंतन और विवेक की झलक मिलती है।
स्पष्टीकरण
- विचार-सौन्दर्य वह गुण है जो पाठक को केवल आनंद ही नहीं देता, बल्कि उसके जीवन, सोच और दृष्टिकोण को भी प्रभावित करता है।
- यह सौन्दर्य साहित्य को क्षणिक न बनाकर स्थायी और उपयोगी बना देता है।
- जब कवि या लेखक अपने काव्य में जीवन की सार्थकता, नीति, धर्म, न्याय या आध्यात्मिकता जैसे बौद्धिक तत्वों को शामिल करता है, तो उसके साहित्य में विचार-सौन्दर्य का प्रस्फुटन होता है।
उदाहरण सहित स्पष्टता
- तुलसीदास – रामचरितमानस में केवल भक्ति और कथा का ही सौन्दर्य नहीं है, बल्कि जीवन-दर्शन, नीति और सदाचार के अनेक विचार भी समाहित हैं।
- जैसे उन्होंने लिखा है –
“परहित सरिस धरम नहि भाई, परपीड़ा सम नहि अधमाई।”
यह विचार मानव समाज के लिए उच्च आदर्श प्रस्तुत करता है।
- जैसे उन्होंने लिखा है –
- कबीर – उनके दोहे विचार-सौन्दर्य के अद्वितीय उदाहरण हैं।
- “बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छांव नहीं, फल लागे अति दूर॥”
इसमें अहंकार का व्यंग्यपूर्ण और विचारपूर्ण चित्रण है।
- “बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
- भारतेन्दु हरिश्चंद्र – उनके काव्य और नाटक समाज-सुधार और राष्ट्रीय चेतना के विचारों से भरे हुए हैं।
- जैसे – “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।”
यह वाक्य विचार-सौन्दर्य का अद्वितीय उदाहरण है, जिसमें मातृभाषा के महत्व को गहन विचार के साथ प्रस्तुत किया गया है।
- जैसे – “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।”
विचार-सौन्दर्य साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न बनाकर शिक्षाप्रद और मार्गदर्शक भी बनाता है। इसमें चिंतन की गहराई, जीवन का सत्य और समाज के लिए उपयोगी संदेश होते हैं। इसलिए विचार-सौन्दर्य साहित्य की आत्मा का महत्वपूर्ण अंग है।
संक्षिप्त तालिका : विचार-सौन्दर्य (उत्तम चिंतन, नीति, और गम्भीर भावों की अभिव्यक्ति)
काव्य गुण | कवि/ग्रंथ | उदाहरण/भाव | विचार की विशेषता | प्रभाव |
---|---|---|---|---|
नीति | तुलसीदास – रामचरितमानस | “परहित सरिस धरम नहि भाई। परपीड़ा सम नहि अधमाई॥” | परोपकार सर्वोत्तम धर्म है | समाज में नैतिकता व सेवा-भाव |
नीति-नीरख | कालिदास – रघुवंशम् | “परहितार्तं वसुधां ददाति” | राजा का कर्तव्य लोक-हित में है | आदर्श शासन-चिन्तन |
दार्शनिकता | रहीम | “रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।” | जीवन में संयम और मूल्य की रक्षा | जीवन-ज्ञान, संतुलन |
नीति-उपदेश | हितोपदेश/पंचतंत्र | पशु-पक्षियों की कथाएँ | नीति के माध्यम से शिक्षा | जन-शिक्षा और सहज उपदेश |
3. नाद-सौन्दर्य : शब्दों की संगीतात्मकता
कविता का तीसरा महत्वपूर्ण सौन्दर्य-तत्व है नाद-सौन्दर्य। यह शब्दों की लय, गति, तुक और स्वर-संयोजन से उत्पन्न होता है। जब कविता पढ़ने या सुनने में मधुर और गेय लगती है तो यह नाद-सौन्दर्य का परिणाम होता है।
नाद-सौन्दर्य काव्य का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण गुण है। जब काव्य की भाषा, शब्दचयन और ध्वनियों का प्रवाह इस प्रकार से व्यवस्थित होता है कि पाठक या श्रोता को मधुरता, लयात्मकता और संगीतात्मक आनंद की अनुभूति हो, तो उसे नाद-सौन्दर्य कहा जाता है। यह काव्य को केवल अर्थ और भाव के स्तर पर ही नहीं, बल्कि श्रवणानुभूति के स्तर पर भी सुन्दर बनाता है।
नाद-सौन्दर्य मुख्यतः दो रूपों में प्रकट होता है –
- शब्द-सौष्ठव और ध्वनि-माधुर्य – उपयुक्त शब्दों के चयन से उत्पन्न लय और संगीत।
- अनुप्रास और छंद-लालित्य – ध्वनि की पुनरावृत्ति और छंद की ताल से उत्पन्न सौन्दर्य।
नाद-सौन्दर्य की विशेषताएँ
- लय और छन्द – छन्द के कारण कविता में संगीतात्मकता आती है।
- अनुप्रास – वर्णों की आवृत्ति से शब्दों में गूंज पैदा होती है।
- यमक और तुकान्त – एक ही शब्द या ध्वनि की पुनरावृत्ति कविता को मधुर बनाती है।
उद्धरण :
“खग-कुल कुलकुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा।” – इसमें अनुप्रास और लय से नाद-सौन्दर्य है।
जब कविता के शब्द, लय, तुक और ध्वनि-संयोजन पाठक या श्रोता को संगीतात्मक आनंद देते हैं, तब नाद-सौन्दर्य प्रकट होता है। इसमें अनुप्रास, यमक, तुकांत, लय और छन्द की विशेष भूमिका रहती है।
प्रमुख उदाहरण
- बिहारी :
“रनित भंग घण्टावली झरित दान मधु नीर।
मंद-मंद आवतु चल्यो, कुंजर कुंज समीर॥”
– इसमें भ्रमरों की गुंजार हाथी की घंटियों जैसी लगती है। - कविप्रसाद :
“घन घमण्ड नभ गरजत घोरा।”
– इसमें बादलों की गर्जना प्रत्यक्ष सुनाई देती है। - लोकगीत और रीतिकालीन कवियों की कविताएँ – तुक और लय से नाद-सौन्दर्य का उत्कर्ष।
- “खग-कुल कुलकुल सा बोल रहा। किसलय का अंचल डोल रहा॥”
– यहाँ पक्षियों का कलरव और पत्तों की सरसराहट नाद-सौन्दर्य को सजीव करती है। - बिहारी का प्रसिद्ध दोहा—
“रनित भंग घण्टावली झरित दान मधु नीर।
मंद-मंद आवतु चल्यो, कुंजर कुंज समीर॥”
– इसमें भ्रमरों की गुनगुनाहट को हाथी की घंटी की ध्वनि से जोड़ा गया है।
नाद-सौन्दर्य कविता को श्रोताओं के लिए अधिक आकर्षक और हृदयग्राही बनाता है।
सूरदास (मधुर नाद-सौन्दर्य – बाल-लीला चित्रण) | अनुप्रास
मैया! मोहिं दाऊ बहुत खिझाय।
मोरे साँचे दूध-बिलइया, मुख ले हंसि दिखाय॥
इन पंक्तियों में “मैया, मोहिं, मोरे” जैसे कोमल और मधुर ध्वनियों का प्रयोग हुआ है। इनके उच्चारण से वात्सल्य की लोरी जैसी मिठास उत्पन्न होती है। ध्वनि के लयात्मक प्रयोग से पाठक के हृदय में रस का स्पर्श सहज हो जाता है।
तुलसीदास (लयात्मक नाद-सौन्दर्य – भक्ति भाव) | अनुप्रास
सीय राममय सब जग जानी।
करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
इन पंक्तियों में राममय, जग जानी जैसे शब्द लयात्मक ध्वनि-प्रवाह उत्पन्न करते हैं। “जोरि जुग पानी” का संगीतात्मक कंपन पाठक के हृदय में श्रद्धा और भक्ति का नाद भर देता है।
जयशंकर प्रसाद (गंभीर नाद-सौन्दर्य – वीर रस) | तुकान्त
अरुण यहॉं उग रहा प्राची में,
छोड़ स्वप्न निशा की काली।
उठो धरा के वीर सपूतो!
अब जागो भारत के लाली॥
यहाँ अरुण, उग रहा, प्राची जैसे शब्दों से गंभीर, गूंजता हुआ नाद उत्पन्न होता है। यह लय पाठक के हृदय में जोश और उत्साह भर देता है।
बिहारी (कोमल नाद-सौन्दर्य – शृंगार रस) | अनुप्रास, तुकान्त
निसि दिन बरसत नैनन नीर।
बिछुरत पिय, पियु मिलन अधीर॥
यहाँ “निसि दिन बरसत नैनन नीर” में ध्वनि का इतना मधुर प्रयोग हुआ है कि शृंगार रस की करुणता और प्रेम-व्याकुलता का नाद कानों में गूंजता है।
👉 स्पष्टिकरण :
नाद-सौन्दर्य के ये उदाहरण दिखाते हैं कि कविता में केवल भाव और विचार ही नहीं, बल्कि ध्वनि की मधुरता, लय और प्रवाह भी रसात्मकता और सौन्दर्य को गहराई प्रदान करते हैं।
संक्षिप्त तालिका : नाद-सौन्दर्य (शब्दों की ध्वन्यात्मक मधुरता)
काव्य गुण | कवि/ग्रंथ | उदाहरण/पंक्तियाँ | नाद की विशेषता | प्रभाव |
---|---|---|---|---|
मधुर ध्वनि | सूरदास – बाल-कृष्ण | “मैया! मोरी मैं नहीं माखन खायो।” | कोमल ध्वनि, अलंकारिक पुनरुक्ति | स्नेह और वात्सल्य का संचार |
गाम्भीर्य ध्वनि | भूषण – शिवा बावनी | “जगमग जगत में बाजि उठी, रणभेरी की गूँज।” | ओजपूर्ण ध्वनि, अनुनाद | उत्साह और पराक्रम की भावना |
कोमल लय | कालिदास – मेघदूत | “कान्तारायाम् श्रमविगतगात्राः…” | दीर्घ और लघु ध्वनियों की संतुलित योजना | विरह और कोमल करुणा |
माधुर्य | तुलसीदास | “सिय राममय सब जग जानी।” | सरल और मधुर शब्दावली | भक्ति का आनन्द |
4. अप्रस्तुत-योजना का सौन्दर्य : कल्पना की उड़ान
कविता केवल यथार्थ का प्रतिबिंब नहीं होती, उसमें कल्पना और अप्रस्तुत-योजना का भी विशेष महत्व है। कवि अपनी बात को रोचक और प्रभावी बनाने के लिए उपमान, उत्प्रेक्षा और रूपक का सहारा लेता है।
अप्रस्तुत-योजना की शर्तें
- उपमेय और उपमान में सादृश्य होना चाहिए।
- अप्रस्तुत वस्तु कविता के भाव के अनुरूप होनी चाहिए।
- इसका प्रयोग भाव को और गहन बनाने के लिए होना चाहिए।
काव्य में भावों और विचारों को अधिक प्रभावी, हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी बनाने के लिए कवि अप्रस्तुत-योजना का सहारा लेता है। अप्रस्तुत योजना का तात्पर्य यह है कि कवि किसी भाव या दृश्य को प्रत्यक्ष रूप से न कहकर किसी अन्य वस्तु, दृश्य या रूपक के माध्यम से प्रस्तुत करता है। इससे काव्य में गहन सौन्दर्य और कलात्मकता उत्पन्न होती है।
अप्रस्तुत योजना का मूल आधार सादृश्य है। कवि उपमेय (प्रस्तुत भाव) के लिए उपमान (तुलना) चुनते समय रूप-साम्य, धर्म-साम्य अथवा प्रभाव-साम्य का ध्यान रखता है।
1. रूप-साम्य (आकार में समानता से उत्पन्न सौन्दर्य)
जब उपमेय और उपमान के आकार, रूप अथवा आकृति में समानता दिखाई देती है, तो उसे रूप-साम्य कहा जाता है।
उदाहरण –
करतल परस्पर शोक से, उनके स्वयं घर्षित हुए।
तब विस्फुटित होते हुए, भुजदण्ड यों दर्शित हुए।
दो पद्म शुण्डों में लिए, दो शुण्ड वाला गज कहीं,
मर्दन करे उनको परस्पर, तो मिले उपमा कहीं॥
यहाँ भुजदण्डों की तुलना गजराज की शुण्डों से की गई है। भुजदण्डों का प्रचण्ड रूप और करतलों की कोमलता, रूप-साम्य से ही प्रकट होती है।
अन्य उदाहरण –
- तुलसीदास जी ने श्रीराम के बाणों की चमक की तुलना विद्युत से की है—
कृसानु बाण प्रकट भइ, जनु ज्वालामुखि मुख बारि॥
यहाँ रूप-साम्य से अग्निबाणों की भयंकरता चित्रित हुई है।
2. धर्म-साम्य (गुणों में समानता से उत्पन्न सौन्दर्य)
जब उपमेय और उपमान में गुण, स्वभाव या धर्म की समानता हो, तो धर्म-साम्य कहा जाता है।
उदाहरण –
नवप्रभा परमोज्ज्वलालीक सी गतिमती कुटिला फणिनी समा।
दमकती दुरती धन अंक में विपुल केलि कला खनि दामिनी॥
यहाँ दामिनी (बिजली) और फणिनी (सर्पिणी) दोनों का धर्म “कुटिल गति” है। दोनों ही भय और आतंक उत्पन्न करती हैं।
अन्य उदाहरण –
- सूरदास जी ने नंदलाल की चंचलता की तुलना वानर से की है, क्योंकि दोनों का धर्म चपलता है।
कबहुँक कबहुँक उछरि परत, ज्यों वानर नन्दलाल॥
3. प्रभाव-साम्य (अनुभूति या असर की समानता से उत्पन्न सौन्दर्य)
जब उपमेय और उपमान से उत्पन्न प्रभाव समान हो, तो प्रभाव-साम्य कहा जाता है।
उदाहरण –
प्रिय पति, वह मेरा प्राण-प्यारा कहाँ है?
दुःख-जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है?
लख मुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ,
वह हृदय हमारा नेत्र-तारा कहाँ है?
यहाँ यशोदा की विकलता व्यक्त करने के लिए श्रीकृष्ण को दुःख-जलनिधि का सहारा, प्राण-प्यारा, नेत्र-तारा कहा गया है। इन उपमानों का प्रभाव अत्यंत मार्मिक है।
अन्य उदाहरण –
- भक्त सूरदास ने भगवान श्रीकृष्ण को जीवन का सार और आधार बताया है—
जसुमति मैया से कहत, भई बहुत दिन बीति।
बिना हरि नाम एक पल, जनु सहस्र कल्प प्रीति॥
यहाँ हरिनाम की अनुपस्थिति का प्रभाव वैसे ही बताया गया है, जैसे हजारों कल्पों का दुःख।
4. अन्य प्रभावी अप्रस्तुत-योजनाएँ
(क) श्रद्धा का सौन्दर्य
नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग॥
यहाँ श्रद्धा का सौन्दर्य वर्णित करते हुए उसे मेघों के बीच चमकती बिजली के फूल के समान बताया गया है। दृश्य अत्यंत हृदयग्राही बन जाता है।
(ख) उत्प्रेक्षा द्वारा अप्रस्तुत योजना
लता भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु युग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ॥
यहाँ लता-भवन से प्रकट हुए दोनों भाइयों (लव-कुश) की तुलना मेघ-पटल से निकलते हुए दो चन्द्रमाओं से की गई है। यह अप्रस्तुत योजना भावनाओं को सहज और रमणीय बना देती है।
(ग) अतिरिक्त उदाहरण –
- भूषण की “शिवा बावनी” में—
जस दिग्पाल संकुल, जस धरनी धार।
जस गंगा गम्भीर, जस गिरा गगन आधार॥
यहाँ अप्रस्तुत उपमानों के सहारे वीर शिवाजी की महिमा को प्रभावशाली बनाया गया है। - कबीर ने भी अप्रस्तुत योजना का प्रयोग कर ज्ञान को स्पष्ट किया—
जैसे तरुवर पात झरे, बहुरि न लागे डार।
एही प्रकार गया शरीर, नहीं आवे संसार॥
अप्रस्तुत-योजना काव्य की एक महत्वपूर्ण सौन्दर्य-शैली है। इसके माध्यम से कवि प्रत्यक्ष की अपेक्षा परोक्ष में भावों को प्रकट करता है, जिससे काव्य अधिक कलात्मक, हृदयग्राही और प्रभावशाली बन जाता है। रूप-साम्य, धर्म-साम्य और प्रभाव-साम्य के आधार पर रचे गए अप्रस्तुत बिंब न केवल भाव-सौन्दर्य को सजीव करते हैं, बल्कि पाठक और श्रोता दोनों को गहराई तक स्पर्श करते हैं।
संक्षिप्त तालिका : अप्रस्तुत योजना का सौन्दर्य (रूपक, उपमा और अप्रत्यक्ष व्यंजना)
काव्य गुण | कवि/ग्रंथ | उदाहरण/पंक्तियाँ | अप्रस्तुत योजना की विशेषता | प्रभाव |
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रूपक | तुलसीदास | “जैसे काजलु कोरि…” (सीता की कोमलता का वर्णन) | सीधा रूपक प्रयोग | सहज चित्रात्मकता |
उपमा | कालिदास – अभिज्ञान शाकुंतलम् | “वदनं पद्ममिव” (मुख पद्म के समान) | उपमा के द्वारा सौन्दर्य उभारना | सजीव चित्रण |
प्रतीक | सूरदास | “साँची कहौं तोरे बदन की बरनि न सकौं।” | अप्रस्तुत वस्तु द्वारा भावों का संकेत | भावों की तीव्रता |
दृष्टान्त | रहीम | “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।” | धागे के माध्यम से प्रेम का प्रतीक | नैतिक-भावनात्मक शिक्षा |
तुलनात्मक तालिका : काव्य (साहित्यिक) सौन्दर्य तत्व और उनके उदाहरण
सौन्दर्य का प्रकार | कवि/ग्रंथ | उदाहरण/पंक्तियाँ | विशेषता/प्रभाव |
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भाव सौन्दर्य (रस-निष्पत्ति का सौन्दर्य) | सूरदास – बाल-लीला | “माँ माखन खायौ, मुख लिपटायौ” | वात्सल्य रस – भोली सूरत, मासूम जवाब से वात्सल्य की निष्पत्ति |
भूषण – शिवा बावनी | “जय-जय शिवराज, हर-हर महादेव” | वीर रस – रणभूमि, पराक्रम और उत्साह का संचार | |
तुलसीदास – रामचरितमानस | “भए प्रगट कृपाला, दीनदयाला” | भक्ति रस – श्रद्धा, करुणा और समर्पण | |
जयदेव – गीतगोविन्द | “स्मेराननं किमपि दृष्टिपतं हरिणी” | शृंगार रस – प्रेम, संकोच और सौन्दर्य | |
विचार-सौन्दर्य | कालिदास – कुमारसंभव | “कान्तारान्धकरे नयनोदयः” | प्रकृति और मानव संबंध की गहन दार्शनिकता |
तुलसीदास – रामचरितमानस | “परहित सरिस धरम नहि भाई” | मानवता और कर्तव्यबोध का उच्च विचार | |
सूरदास – सूरसागर | “जहँ-जहँ चरण पड़े मधुकर, तहाँ-तहाँ धूलि सुवास” | दार्शनिक प्रतीकवाद – ईश्वर की उपस्थिति का चिंतन | |
भूषण | “कवित्त फड़कैं करनाल ज्यों” | राष्ट्रीयता और पराक्रम का विचार | |
नाद-सौन्दर्य | कालिदास – मेघदूत | “कान्तारान्धकरे नयनोदयः” | ध्वनियों की गूंज से नादात्मकता और सौन्दर्य |
सूरदास | “मैया! मोहिं दाऊ बहुत खिझायो” | बालकृष्ण की वाणी में कोमल नाद और माधुर्य | |
तुलसीदास | “राम सिया राम सिया राम जय राम” | अनुगूँज और लयात्मक पुनरुक्ति से नाद-सौन्दर्य | |
भूषण | “गर्जे गगन, बजे रणभेरी” | रणगर्जना से ओजपूर्ण नाद | |
अप्रस्तुत योजना का सौन्दर्य | कालिदास – रघुवंश | “अभिनव जलधर सम वपुष्मान्” (नायक को मेघ से तुलना) | अप्रस्तुत योजना द्वारा उपमान का नवीन सौन्दर्य |
तुलसीदास | “रामहि केवल प्रेम पियारा” (सरलता को विभिन्न उपमानों से सजाना) | सरल उपमा द्वारा भाव को गहराई देना | |
सूरदास | “जसुमति मैया से कहि न जाई” (बालकृष्ण का रोना – चाँद से उपमा) | अप्रस्तुत उपमान से माधुर्य-वृद्धि | |
भूषण | “छत्रपति शिवराज सिंह सम नृप” (सिंह की उपमा) | उपमा से वीर रस का उत्कर्ष |
काव्य के सौन्दर्य-तत्व काव्य को पूर्णता प्रदान करते हैं। भाव-सौन्दर्य उसकी आत्मा है, विचार-सौन्दर्य उसकी गरिमा है, नाद-सौन्दर्य उसकी मधुरता है और अप्रस्तुत-योजना उसका कल्पनात्मक आकर्षण है। इन चारों के समन्वय से ही काव्य हृदयस्पर्शी, प्रेरणादायक और कलात्मक बनता है।
भारतीय साहित्य की दीर्घ परंपरा इस तथ्य की गवाह है कि जब-जब कवियों ने इन सौन्दर्य-तत्वों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है, तब-तब साहित्य ने समाज को न केवल आनंद, बल्कि मार्गदर्शन और प्रेरणा भी दी है।
काव्य के गुण
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्यगुणों को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया है—ओज गुण, माधुर्य गुण और प्रसाद गुण। इन तीनों गुणों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं जो काव्य को भिन्न प्रकार की शोभा और प्रभाव प्रदान करती हैं।
1. ओज गुण
जिस गुण के कारण काव्य श्रोता या पाठक के मन में स्फूर्ति, साहस, शौर्य, पराक्रम, उत्साह और बलिदान की भावना जागृत होती है, वहाँ ओज गुण प्रकट होता है। इसमें प्रायः कठिन संयुक्ताक्षरों का प्रयोग किया जाता है। इस गुण में मुख्यतः वीर, रौद्र और भयानक रस का समावेश होता है।
(क) संयुक्ताक्षर का प्रयोग –
छोड़ देंगे मार्ग तेरा, विहन बाधा सहन कर। काल अभिनन्दन करेगा, आज तेरा समय सादर।।
(ख) रसों का समावेश –
महलों ने दी आग, झोपड़ियों में ज्वाला सलगाई थी। यह स्वतंत्रता की चिंगारी, अंतर मन में आई थी।।
➡ यहाँ कवि ने ओज गुण के द्वारा पराक्रम और स्वतंत्रता की भावना को प्रबल किया है।
ओज का अर्थ है शक्ति, तेज और वीरता से भरी वाणी। इसमें शब्दों का ऐसा प्रयोग होता है जिससे शौर्य, पराक्रम और उत्साह की ध्वनि उठती है।
उदाहरण:
भूषण की शिवाबावनी (शिवाजी का वीरवर्णन):
“जगति जेते बरननि भूसुर भूप भूधर भूत भवानी।
सबहि प्रगटै भूपतिनाम तिन्हैं में वीर शिवाबावनी॥”
यहां कवि भूषण ने ओजस्वी शब्दों और त्वरित लय का प्रयोग किया है। वीर रस प्रधान इस रचना में नाद-सौन्दर्य ओजगुण से उत्पन्न होता है।
कालिदास का “रघुवंशम्” में रघु वंश का वीर वर्णन—
“तेजसा सूर्यसम्पन्नाः शौर्येण च महाबलाः।
रघूनां वंशजा नित्यं लोकपालसमाः स्मृताः॥”
यहां नाद-सौन्दर्य के साथ शब्दों की कठोरता और पराक्रम की आभा ओजगुण का उदाहरण है।
2. माधुर्य गुण
जब काव्य को पढ़ने या सुनने से हृदय में आनंद, कोमलता और मधुर भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, तब वहाँ माधुर्य गुण प्रकट होता है। इसमें सरल एवं छोटी-छोटी शब्दावलियों का प्रयोग होता है तथा कठिन संयुक्ताक्षरों का प्रयोग नहीं होता। इसमें प्रायः अनुनासिक वर्णों का प्रयोग मिलता है। माधुर्य गुण में मुख्य रूप से शृंगार, हास्य और शांत रस का समावेश होता है।
(क) शृंगार रस –
बसो मेरे नैनन में नन्दलाल, मोहिनी सूरत, सांवरी सूरत, नैना वने रसाल।।
(ख) हास्य रस –
छाया करती रहे सदा, तुझ पर सुहाग की छाछ। सुख-दुख ग्रीवा के नीचे हो, प्रीतम की वाह।।
➡ इन उदाहरणों में शब्दों की कोमलता और लयात्मकता हृदय को मधुर आनंद से भर देती है।
माधुर्य का अर्थ है मधुरता, कोमलता और भावनात्मक गेयता। इसमें शब्द और ध्वनि कानों में मिठास घोल देते हैं।
उदाहरण:
सूरदास की वात्सल्यपूर्ण बाल-लीलाएँ—
“मैया! मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मोसौं कहत माखन न खायो॥”
इन पंक्तियों में सहज सरल शब्दों की लय और गेयता माधुर्य का सुंदर उदाहरण है। यह नाद-सौन्दर्य हृदय को कोमल बना देता है।
कालिदास का “मेघदूत” में यक्ष का विरह—
“कान्तारान्तरगं सलीलमधिरूढं गजेन्द्राणां गजानाम्।
आसक्तं मधुरं निनादमिव मेघस्य मृदुस्तनयः॥”
यहां बादलों की मधुर गूँज का वर्णन यक्ष की विरह-वेदना को माधुर्य से भर देता है।
तुलसीदास ने भी भक्ति और माधुर्य का अद्भुत संयोग किया है—
“सिया राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥”
यहां छंद की सरलता और गेयता माधुर्यगुण को व्यक्त करती है।
3. प्रसाद गुण
जिस काव्य में भावार्थ सरलता और सहजता से समझ में आ जाता है, और जिसमें सरल, सुबोध शब्दों का प्रयोग किया गया हो, वहाँ प्रसाद गुण प्रकट होता है। यह गुण लगभग सभी रसों में पाया जाता है।
उदाहरण –
उठो लाल, अब आँखें खोलो,
पानी लाई हूँ, मुँह धो लो।
बीती रात, कमल-दल फूले
उनके ऊपर, भँवरे झूले।।
➡ इस उदाहरण में भाषा की सरलता और स्पष्टता पाठक-श्रोता को बिना किसी कठिनाई के भावार्थ समझा देती है।
प्रसाद का अर्थ है स्पष्टता, सहजता और सरलता। इसमें शब्द सीधे हृदय में उतर जाते हैं और जटिलता का अभाव रहता है।
उदाहरण:
तुलसीदास की रामचरितमानस—
“राम सिया राम सिया राम जय जय राम।
मन बसिय राम सिया राम जय जय राम॥”
इन पंक्तियों में भाषा की सहजता और सरल पुनरावृत्ति प्रसादगुण को स्पष्ट करती है।
कालिदास के “अभिज्ञानशाकुंतलम्” में सहज भाव—
“मृगनयनीमपि पश्यसि शशिनि चन्द्रेण तुलयामि।”
(“हे प्रिय, तुम्हारी मृगनयनी आँखें चन्द्रमा की शीतलता को भी लज्जित करती हैं।”)
यहां विचार और शब्द दोनों सहज, स्पष्ट और हृदयग्राही हैं, जो प्रसादगुण की पहचान है।
इस प्रकार, ओज गुण काव्य में साहस और पराक्रम जगाता है, माधुर्य गुण हृदय को कोमलता और मधुर आनंद से भरता है, जबकि प्रसाद गुण सरलता और सहजता के द्वारा काव्य को सर्वग्राह्य बना देता है। यही तीनों गुण काव्य की शोभा और उसकी प्रभावोत्पादकता को पूर्णता प्रदान करते हैं।
काव्य के गुण – तुलनात्मक सारणी
गुण | विशेषताएँ | प्रमुख रस | उदाहरण (क्लासिकल व आधुनिक) | प्रभाव |
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ओज गुण | – साहस, शौर्य, पराक्रम, उत्साह, बलिदान की अभिव्यक्ति।– प्रायः कठिन संयुक्ताक्षरों का प्रयोग। | वीर, रौद्र, भयानक | (आधुनिक) – “महलों ने दी आग, झोपड़ियों में ज्वाला सलगाई थी।” भूषण – “जगति जेते बरननि भूसुर भूप भूधर भूत भवानी…” (शिवाबावनी) कालिदास – “तेजसा सूर्यसम्पन्नाः शौर्येण च महाबलाः…” (रघुवंशम्) | पाठक के हृदय में वीरता, साहस और पराक्रम की ज्वाला जगाता है। |
माधुर्य गुण | – कोमलता, मधुरता, लयात्मकता और गेयता।– सरल शब्द, छोटे-छोटे पद।– अनुनासिक वर्णों की अधिकता। | शृंगार, हास्य, शांत | (आधुनिक) – “बसो मेरे नैनन में नन्दलाल…” सूरदास – “मैया! मोहिं दाऊ बहुत खिझायो…” कालिदास – “कान्तारान्तरगं सलीलमधिरूढं गजेन्द्राणां…” (मेघदूत) तुलसी – “सिया राममय सब जग जानी…” | हृदय को कोमलता, मधुर आनंद और भाव-संवेदनशीलता से भर देता है। |
प्रसाद गुण | – भावार्थ सरलता और सहजता से समझ में आए।– भाषा स्पष्ट और सुबोध।– जटिलता का अभाव। | सर्वरस | (आधुनिक) – “उठो लाल, अब आँखें खोलो…” तुलसी – “राम सिया राम सिया राम जय जय राम…” (रामचरितमानस) कालिदास – “मृगनयनीमपि पश्यसि शशिनि चन्द्रेण तुलयामि।” (अभिज्ञानशाकुंतलम्) | सहजता, स्पष्टता और सरलता से सभी रसों को हृदयग्राही बना देता है। |
काव्य का प्रयोजन
संस्कृत आचार्य मम्मट ने काव्य के छः प्रमुख प्रयोजन बताए हैं। उनके अनुसार काव्य केवल मनोरंजन या सौंदर्य-बोध का साधन नहीं है, बल्कि यह जीवन और समाज दोनों में अनेक उपयोगी कार्य करता है। मम्मट ने इसे सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया है—
“काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥”
1. यश प्राप्ति
काव्य रचना से कवि को समाज में कीर्ति और यश की प्राप्ति होती है। उसके विचार और सृजन लोकमानस में अमर हो जाते हैं।
2. अर्थ (धन) की प्राप्ति
काव्य के माध्यम से कवि को आर्थिक लाभ भी प्राप्त होता है। प्राचीन काल में राजाश्रय, दान और मान-सम्मान इसी के प्रमाण हैं।
3. व्यवहार-विद्या
काव्य से लोक-व्यवहार की शिक्षा मिलती है। इसमें जीवन-नीति, आचार-विचार और सामाजिक आदर्शों का प्रतिपादन होता है।
4. अमंगल निवारण
काव्य का एक प्रयोजन अशुभ और अमंगल के प्रभाव को दूर करना भी माना गया है। शुभ चिंतन और मंगलमय वातावरण उत्पन्न कर यह जीवन को शांति प्रदान करता है।
5. त्वरित परम-निर्वृत्ति
साहित्य और काव्य-पाठ से तुरंत आनंद और आत्मिक शांति मिलती है। यह हृदय को प्रसन्न कर दुःख और क्लेशों को दूर करता है।
6. उपदेशात्मक प्रयोजन
काव्य उपदेश देने वाला होता है। मम्मट ने इसे “कान्ता सम्मित” कहा है अर्थात् जैसे प्रिय पत्नी अपने मधुर और सहज व्यवहार से पति को शिक्षा देती है, वैसे ही काव्य भी मधुरता और सौंदर्य के माध्यम से सत्य और नीति का उपदेश देता है।
काव्य के छः प्रयोजन – तुलनात्मक सारणी
प्रयोजन | संक्षिप्त अर्थ | उदाहरण |
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1. यशः (यश प्राप्ति) | कवि को कीर्ति और समाज में सम्मान मिलता है। | तुलसीदास की रामचरितमानस ने कवि को अमर यश प्रदान किया। |
2. अर्थकृति (धन प्राप्ति) | काव्य से जीविका एवं धन अर्जन संभव है। | प्राचीनकाल में दरबारी कवि (भूषण आदि) राजाओं से सम्मान एवं धन पाते थे। |
3. व्यवहारविद्या (लोक-व्यवहार शिक्षा) | काव्य से नीति, धर्म और जीवन-व्यवहार की शिक्षा मिलती है। | हितोपदेश और पंचतंत्र की कथाएँ। |
4. शिवेतरक्षतये (अमंगल निवारण) | काव्य अशुभ प्रभावों और नकारात्मक विचारों को दूर करता है। | देवी महात्म्य और रामायण का पाठ अमंगल को नष्ट करने वाला माना गया है। |
5. सद्यः परनिर्वृति (क्षणिक आनंद/शांति) | काव्य का आस्वाद करते ही तत्काल आनंद और मानसिक शांति मिलती है। | सूरदास के कृष्ण बाललीला पद सुनकर मन प्रसन्न हो उठता है। |
6. कान्तासम्मितोपदेश (कान्ता-सदृश उपदेश) | कविता उपदेश देते हुए भी प्रियतम/पत्नी की तरह मधुर लगती है, उपदेश बोझिल नहीं होता। | कालिदास का अभिज्ञानशाकुंतलम् जीवन-आदर्श और धर्म का उपदेश मधुरता से देता है। |
काव्यप्रकाश : मम्मटाचार्य का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ
काव्यप्रकाश आचार्य मम्मट द्वारा रचित एक अत्यंत प्रामाणिक और प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ “काव्य की परख कैसे की जाए?” इस विषय पर उदाहरण सहित विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करता है। आज भी यह विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में साहित्य के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
मम्मटाचार्य ने काव्यप्रकाश को 10 उल्लासों (अध्यायों) में विभाजित किया है। प्रत्येक उल्लास में काव्यशास्त्र के किसी विशेष पक्ष पर गहन विवेचना की गई है।
प्रथम उल्लास : काव्य-प्रयोजन-कारण-स्वरूप निर्णय
- मंगलाचरण के उपरान्त कवि-सृष्टि की विशेषताएँ, अनुबंध और काव्य के प्रयोजन का विवेचन।
- उपदेश की त्रिविध शैली की चर्चा।
- मयूरभट्ट, वामन, भामह तथा कुंतक के प्रयोजनों का विश्लेषण।
- कवि तथा पाठक/श्रोता की दृष्टि से काव्य प्रयोजन की समीक्षा।
- भरतमुनि के काव्य प्रयोजन का उल्लेख।
- विभिन्न आचार्यों के काव्य हेतुओं का समालोचनात्मक अध्ययन।
- काव्य के लक्षण और आचार्य विश्वनाथ के मत की आलोचना।
द्वितीय उल्लास : शब्दार्थ स्वरूप निर्णय
- शब्द की परिभाषा और उसकी शक्ति का विवेचन।
- पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों का विश्लेषण।
- शब्द की तीन शक्तियाँ – अभिधा, व्यंजना और लक्षणा।
- व्यंजना को काव्य का सर्वोत्तम गुण माना गया।
तृतीय उल्लास : अर्थव्यंजकता निर्णय
- अर्थ की विशद व्याख्या।
- अर्थ के भेद और उनकी समीक्षा।
- पूर्ववर्ती आचार्यों और मम्मट के मतों का तुलनात्मक अध्ययन।
चतुर्थ उल्लास : ध्वनि निर्णय
- काव्य के प्रथम भेद ध्वनि काव्य का विवेचन।
- रस और उसकी निष्पत्ति का विश्लेषण।
- रस के भाव और अनुभावों की व्याख्या।
- रस और ध्वनि का तादात्म्य।
- रसवद् अलंकारों का महत्व और उनका अर्थव्यंजना से संबंध।
पंचम उल्लास : ध्वनि-गुणीभूत-व्यंग्य-संकीर्ण-भेद निर्णय
- काव्य के दूसरे भेद गुणीभूत व्यंग्य काव्य की चर्चा।
- इसके आठ भेदों का वर्णन।
- विभिन्न आचार्यों की परिभाषाओं का परीक्षण।
- व्यंजना शक्ति विषयक मतभेदों की समालोचना।
- मम्मट का स्वतंत्र मत प्रस्तुत।
षष्ठ उल्लास : शब्दार्थचित्र निरूपण
- काव्य के तीसरे भेद चित्रकाव्य का विवेचन।
- इसके दो भेद – शब्दचित्र और अर्थचित्र।
- पूर्ववर्ती आचार्यों की परिभाषाओं और उदाहरणों की समीक्षा।
सप्तम उल्लास : दोषदर्शन
- काव्य के दोषों की विस्तृत विवेचना।
- श्रुतिकटु आदि १६ दोषों का उल्लेख।
- दोषों का उदाहरण सहित विश्लेषण।
अष्टम उल्लास : गुणालंकार भेद निर्णय
- काव्य के गुणों का विवेचन।
- गुणों के तीन भेद।
- आचार्य वामन द्वारा बताए गए १० अर्थगुणों का खंडन।
- गुणानुसारिणी रचना के अपवादों की समीक्षा।
नवम उल्लास : शब्दालंकार विवेचन
- शब्दालंकारों की परिभाषा, प्रयोग और उदाहरण।
- इनके अपवादों की व्याख्या।
दशम उल्लास : अर्थालंकार विवेचन
- अर्थालंकारों की परिभाषा और उदाहरण।
- उनके प्रयोग और अपवादों का वर्णन।
👉 इस प्रकार काव्यप्रकाश केवल काव्य के प्रयोजन, लक्षण और स्वरूप का ही नहीं, बल्कि रस, अलंकार, गुण-दोष और काव्य की सम्पूर्ण सौंदर्यशास्त्रीय परंपरा का संपूर्ण एवं प्रामाणिक मार्गदर्शक ग्रंथ है।
काव्य-सौन्दर्य और साहित्यिक परंपरा
भारतीय साहित्य परंपरा में सौन्दर्य-तत्वों का विकास निरंतर होता रहा है।
- संस्कृत साहित्य में कालिदास, भवभूति और भर्तृहरि ने भाव, विचार और नाद-सौन्दर्य को संतुलित किया।
- हिंदी साहित्य में भक्तिकालीन कवियों ने भाव और भक्ति का सौन्दर्य रचा।
- रीतिकाल में श्रृंगार रस के माध्यम से भाव और नाद-सौन्दर्य की पराकाष्ठा देखी जाती है।
- आधुनिक काल में विचार-सौन्दर्य का वर्चस्व बढ़ा।
काव्यप्रकाश : 10 उल्लासों की संक्षिप्त सारणी
क्रमांक | शीर्षक (Ullas) | विषयवस्तु (Content) | विशेष टिप्पणी (Special Remark) |
---|---|---|---|
1 | प्रथम उल्लास – काव्य-प्रयोजन-कारण-स्वरूप निर्णय | मंगलाचरण, कवि-सृष्टि की विशेषताएँ, अनुबंध, काव्य के प्रयोजन, उपदेश की त्रिविध शैली, मयूरभट्ट, वामन, भामह, कुंतक आदि के प्रयोजनों का अध्ययन, काव्य के लक्षण, आचार्य विश्वनाथ की आलोचना। | काव्य के प्रयोजन और स्वरूप पर व्यापक चर्चा; आधारभूत अध्याय। |
2 | द्वितीय उल्लास – शब्दार्थ स्वरूप निर्णय | शब्द की परिभाषा और शक्ति; पूर्ववर्ती आचार्यों के मत; शब्द की तीन शक्तियाँ – अभिधा, लक्षणा, व्यंजना; व्यंजना को श्रेष्ठतम माना। | व्यंजना को काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिपादित किया। |
3 | तृतीय उल्लास – अर्थव्यंजकता निर्णय | अर्थ की विशद व्याख्या; अर्थ के भेद; आचार्यों के मत और मम्मट का मत। | अर्थ की गहराई और उसके विभाजन पर स्पष्ट दृष्टिकोण। |
4 | चतुर्थ उल्लास – ध्वनि निर्णय | ध्वनि काव्य का विवेचन; रस और उसकी निष्पत्ति; भाव-अनुभाव; रस व ध्वनि का तादात्म्य; रसवद् अलंकारों का महत्व। | रस और ध्वनि के संबंध को स्पष्ट किया; रस का मूल स्थान प्रतिपादित। |
5 | पंचम उल्लास – ध्वनि-गुणीभूत-व्यंग्य-संकीर्ण-भेद निर्णय | गुणीभूत व्यंग्य काव्य की व्याख्या; इसके आठ भेद; विभिन्न आचार्यों के मत; व्यंजना शक्ति पर विमर्श। | व्यंग्यार्थ को व्यवस्थित रूप से समझाया; मम्मट का स्वतंत्र मत प्रस्तुत। |
6 | षष्ठ उल्लास – शब्दार्थचित्र निरूपण | चित्रकाव्य का विवेचन; दो भेद – शब्दचित्र और अर्थचित्र; आचार्यों की परिभाषा व उदाहरण। | काव्य की अलंकारिक शोभा पर केंद्रित। |
7 | सप्तम उल्लास – दोषदर्शन | काव्य के दोषों का विवेचन; 16 दोषों (श्रुतिकटु आदि) का उल्लेख; उदाहरण सहित विश्लेषण। | दोषों की पहचान और परख की कसौटी प्रस्तुत। |
8 | अष्टम उल्लास – गुणालंकार भेद निर्णय | काव्य के गुण; तीन भेद; वामन के 10 अर्थगुणों का खंडन; गुणानुसारिणी रचना के अपवाद। | गुणों और अलंकारों के बीच संतुलन स्थापित। |
9 | नवम उल्लास – शब्दालंकार विवेचन | शब्दालंकारों की परिभाषा, प्रयोग और उदाहरण; अपवादों का विवेचन। | शब्दालंकारों की समग्र व्याख्या। |
10 | दशम उल्लास – अर्थालंकार विवेचन | अर्थालंकारों की परिभाषा, उदाहरण, प्रयोग और अपवाद। | अर्थालंकारों की गहन विवेचना; काव्यशास्त्र की पूर्णता। |
👉 इस तालिका से स्पष्ट है कि काव्यप्रकाश केवल प्रयोजन, लक्षण और रस पर ही नहीं, बल्कि गुण, दोष और अलंकार की भी समग्र दृष्टि प्रस्तुत करता है।
काव्य लेखन : काव्य कैसे लिखें?
1. काव्य की उदात्त भूमिका
काव्य मनुष्य के हृदय को संकुचित स्वार्थ-संबंधों से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाता है।
यहीं पर मनुष्य जगत की नाना गतियों का मार्मिक साक्षात्कार करता है और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है।
इस अवस्था में कवि अपनी व्यक्तिगत सत्ता को भुलाकर लोक-सत्ता में लीन हो जाता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति बन जाती है।
2. हृदय की अनेक-भावात्मकता
जगत अनेक रूपात्मक है, उसी प्रकार मानव-हृदय भी अनेक भावों से परिपूर्ण है।
इन भावों का परिष्कार तभी संभव है जब उनका सामंजस्य जगत के विविध रूपों, व्यापारों और तथ्यों के साथ स्थापित हो।
इन्हीं भाव-सूत्रों के माध्यम से मनुष्य-जाति आदिकाल से जगत के साथ तादात्म्य का अनुभव करती आई है।
3. काव्य के मूल रूप और व्यापार
जिन रूपों और व्यापारों से मानवता आदि युगों से परिचित है और जिनसे वह लुब्ध या क्षुब्ध होती आई है, उनका हमारे भावों के साथ सीधा और गहरा संबंध है।
यही रूप और व्यापार काव्य के लिए मूल रूप तथा मूल व्यापार कहे जाते हैं।
काव्य दृष्टि तभी संभव है जब विश्व के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष और गूढ़तम तथ्यों को इन्हीं मूल मार्मिक रूपों और व्यापारों में परिणत किया जाए।
(क) मूल रूप
वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कछार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़, फूस, शाखा, पशु, पक्षी, आकाश, मेघ, नक्षत्र, समुद्र इत्यादि।
(ख) मूल व्यापार
खेत, ढुर्री, हल, झोंपड़े, चौपाये, पानी का बहना, सूखे पत्तों का झड़ना, बिजली का चमकना, घटा का घिरना, नदी का उमड़ना, मेह का बरसना, डर से भागना, लोभ से लपकना, छीनना, झपटना, नदी या दलदल से निकालना, हाथ से खिलाना, आग में झोंकना, गला काटना आदि।
4. वंशानुगत वासना और रसपरिपाक
इन आदिम रूपों और व्यापारों में वंशानुगत वासना की दीर्घ परंपरा के कारण भावों के उद्बोधन की अपार शक्ति संचित है।
इन्हीं से रस-परिपाक की सच्ची संभावना उत्पन्न होती है।
इसके विपरीत आधुनिक जीवन की वस्तुएँ—जैसे कल-कारखाने, स्टेशन, हवाई जहाज, जाली दस्तावेज़, मोटर, इंजन आदि—काव्य के लिए उतनी मार्मिक और रसजनक नहीं हो पातीं।
👉 इस प्रकार स्पष्ट है कि काव्य लेखन के लिए कवि को आदिम और सार्वभौमिक रूपों व व्यापारों को आधार बनाना चाहिए, क्योंकि वही मानव-हृदय के भावों के साथ सहज और गहरा सामंजस्य स्थापित करते हैं।
मूल रूप बनाम आधुनिक रूप एवं मूल व्यापार बनाम आधुनिक व्यापार
पक्ष (Aspect) | मूल रूप (Traditional Form) | आधुनिक रूप (Modern Form) | मूल व्यापार (Traditional Commerce) | आधुनिक व्यापार (Modern Commerce) |
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संचार (Communication) | संदेशवाहक, दूत, पत्र, मौखिक परंपरा | टेलीफोन, मोबाइल, ई-मेल, सोशल मीडिया | मुँहजबानी सौदे, पत्राचार से व्यापार | ई-कॉमर्स, डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन मार्केटिंग |
विनिमय का साधन (Medium of Exchange) | वस्तु-विनिमय (Barter System), धातु मुद्राएँ | कागजी मुद्रा, प्लास्टिक मनी, डिजिटल करेंसी (UPI, क्रिप्टो) | वस्तु के बदले वस्तु या सीमित नकद लेन-देन | वैश्विक डिजिटल लेन-देन, कैशलेस अर्थव्यवस्था |
परिवहन (Transport) | बैलगाड़ी, पैदल, नाव, ऊँट, घोड़ा | रेल, मोटरगाड़ी, हवाई जहाज, कंटेनर शिप | स्थानीय स्तर तक सीमित व्यापार | राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय व्यापार |
बाज़ार (Market) | हाट, मंडी, साप्ताहिक बाज़ार | शॉपिंग मॉल, ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म (Amazon, Flipkart) | क्षेत्रीय बाजार, सीमित उपभोक्ता | वैश्विक बाजार, व्यापक उपभोक्ता वर्ग |
ज्ञान का साधन (Knowledge Source) | शास्त्र, गुरु, मौखिक शिक्षा | पुस्तकें, विश्वविद्यालय, इंटरनेट | पारंपरिक व्यापारिक नीतियाँ | आधुनिक प्रबंधन (MBA), रिसर्च व डेटा-आधारित रणनीति |
लेन-देन (Transaction Method) | उधार, हिसाब-किताब (बही-खाता, खाता-बही) | नेट बैंकिंग, मोबाइल वॉलेट, UPI, कार्ड पेमेंट | खाता-बही पर निर्भरता | ऑनलाइन ऑटोमेटेड अकाउंटिंग सिस्टम |
प्रभाव क्षेत्र (Reach) | सीमित – गाँव, कस्बा, नगर तक | असीमित – वैश्विक स्तर तक | स्थानीय व्यापार | अंतरराष्ट्रीय व्यापार |
जोखिम व सुरक्षा (Risk & Security) | चोरी, डकैती, विवाद – प्रत्यक्ष निपटान | साइबर सुरक्षा, बीमा, कानूनी सुरक्षा | शारीरिक व वित्तीय जोखिम अधिक | तकनीकी सुरक्षा पर आधारित, फिर भी साइबर खतरे |
प्रौद्योगिकी का उपयोग (Technology Use) | न्यूनतम – हस्तकला, कृषि उपकरण | अधिकतम – रोबोटिक्स, एआई, ऑटोमेशन | श्रम आधारित व्यापार | तकनीक आधारित व्यापार |
लचीलापन (Flexibility) | परंपरा व नियमों में बंधा हुआ | अत्यधिक लचीला और नवाचार-प्रधान | निश्चित पैटर्न पर आधारित | बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अनुकूलन |
काव्य-सौन्दर्य का सामाजिक महत्व
काव्य-सौन्दर्य केवल कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि समाज को दिशा देने वाला भी है।
- भाव-सौन्दर्य मनुष्य को संवेदनशील बनाता है।
- विचार-सौन्दर्य उसे आदर्श और प्रेरणा देता है।
- नाद-सौन्दर्य उसकी रुचि और आकर्षण को बढ़ाता है।
- अप्रस्तुत-योजना कल्पनाशक्ति और सृजनशीलता को प्रोत्साहित करती है।
इस प्रकार काव्य का सौन्दर्य मनुष्य के जीवन को केवल आनंद ही नहीं देता, बल्कि उसे विचारशील और संस्कारित भी बनाता है।
निष्कर्ष
काव्य के सौन्दर्य तत्व मानव जीवन के गहनतम अनुभवों, भावनाओं और विचारों को न केवल व्यक्त करते हैं, बल्कि उन्हें शाश्वत और अमर बना देते हैं। मम्मट द्वारा बताए गए छः प्रयोजन — श्रवणानन्द, ज्ञानवृद्धि, व्युत्पत्ति, शीलसंस्कार, शोकनिवारण तथा द्रव्यलाभ — काव्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उपयोगिता को स्पष्ट करते हैं। इसी प्रकार 10 उल्लासों की रूपरेखा काव्य को जीवन की विविध अवस्थाओं में मार्गदर्शक और प्रेरक सिद्ध करती है।
काव्य में भाव सौन्दर्य हृदय की संवेदनाओं को स्पर्श करता है, विचार सौन्दर्य मन को तर्क, ज्ञान और दर्शन की ओर ले जाता है, नाद सौन्दर्य इंद्रियों को मधुरता और लय से आंदोलित करता है, और अप्रस्तुत सौन्दर्य अप्रत्यक्ष रूप से कही गई गूढ़ बातों के माध्यम से गहन प्रभाव उत्पन्न करता है। ये सभी सौन्दर्य तत्व मिलकर काव्य को केवल शब्दों का समुच्चय नहीं रहने देते, बल्कि उसे मानव सभ्यता और संस्कृति का अमूल्य धरोहर बना देते हैं।
आधुनिक युग में जहाँ जीवन भाग-दौड़, तनाव और व्यावहारिकता से घिरा हुआ है, वहीं काव्य का यह सौन्दर्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना शास्त्रीय युग में था। यह केवल साहित्यिक रस प्रदान नहीं करता, बल्कि समाज को नैतिकता, संवेदनशीलता और सौंदर्यबोध की दिशा में आगे बढ़ाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि काव्य के सौन्दर्य तत्व मानव हृदय और मस्तिष्क दोनों के लिए ऊर्जा स्रोत हैं, जो जीवन को सार्थक, समृद्ध और संतुलित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि—
“काव्य का सौन्दर्य ही उसकी अमरता का रहस्य है।”
इन्हें भी देखें –
- काव्य : स्वरूप, इतिहास, परिभाषा, दर्शन और महत्व
- काव्य और कविता : परिभाषा, उदाहरण, अंतर, समानता एवं साहित्यिक महत्व
- सगुण भक्ति काव्य धारा: अवधारणा, प्रवृत्तियाँ, प्रमुख कवि और साहित्यिक विशेषताएँ
- जैन साहित्य: स्वरूप, विकास, प्रमुख कवि, कृतियाँ और साहित्यिक विशेषताएँ
- सिद्ध साहित्य: हिन्दी साहित्य का आदिरूप और सामाजिक चेतना का संवाहक
- हिंदी साहित्य का आधुनिक काल और उसका ऐतिहासिक विकास | 1850 ई. से वर्तमान तक
- प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता: छायावादोत्तर युग के अंग या स्वतंत्र साहित्यिक प्रवृत्तियाँ?
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