हिंदी ध्वनियों (वर्णों) के उच्चारण स्थान, वर्गीकरण एवं विशेषतायें

भारतीय भाषाशास्त्र की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के माध्यम से विकसित हुई हिंदी भाषा में ध्वनिविज्ञान (Phonetics) का विशेष महत्व है। ध्वनि ही भाषा का आधार है और ध्वनियों के व्यवस्थित अध्ययन के बिना भाषा-विज्ञान अधूरा माना जाता है। संस्कृत और हिंदी व्याकरण में ध्वनियों के उच्चारण-स्थान (Articulatory places of speech sounds) का गहन विवेचन किया गया है।

उच्चारण स्थान से आशय है—मुख, कंठ, तालु, दांत, ओष्ठ अथवा नासिका के वे अंग, जहाँ से वायु प्रवाहित होकर स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। संस्कृत के आचार्यों ने इसे सूत्र रूप में प्रस्तुत किया है, जबकि आधुनिक भाषाविज्ञान में इसे ध्वनिविज्ञान (Phonetics) और ध्वन्यात्मकता (Phonology) कहा जाता है।

इस लेख में हम उच्चारण स्थानों की परिभाषा, उनकी संख्या, संस्कृत और हिंदी में उनके भेद, ध्वनियों के वर्गीकरण, तालिकाओं और उदाहरणों सहित विस्तार से चर्चा करेंगे।

Table of Contents

उच्चारण स्थान की परिभाषा

जब हम कोई वर्ण (ध्वनि) उच्चारित करते हैं, तो फेफड़ों से निकलने वाली वायु मुखगुहा और कंठगुहा से गुजरते हुए किसी न किसी स्थान पर अवरुद्ध होती है और फिर निकलती है। यह अवरोध और उसके पश्चात निकलने वाली ध्वनि ही वर्ण कहलाती है। जिस अंग से वायु का अवरोध होता है, उसे उच्चारण स्थान (Articulatory Place) कहा जाता है।

उच्चारण स्थान की संख्या

संस्कृत परंपरा

संस्कृत व्याकरण में सात प्रमुख उच्चारण स्थान माने गए हैं—

  1. कंठ (Throat)
  2. तालु (Palate)
  3. मूर्धा (Cerebral/Retroflex position)
  4. दंत (Teeth)
  5. ओष्ठ (Lips)
  6. नासिका (Nasal cavity)
  7. जीव्हामूल (Root of tongue)

हिंदी परंपरा

हिंदी वर्णमाला में जीव्हामूल को स्वतंत्र उच्चारण स्थान के रूप में नहीं स्वीकारा गया है। इसीलिए हिंदी में उच्चारण स्थानों की संख्या छह मानी जाती है—

  1. कंठ
  2. तालु
  3. मूर्धा
  4. दंत
  5. ओष्ठ
  6. नासिका

उच्चारण स्थान और उनके वर्ण

1. कंठव्य वर्ण (कंठ से उच्चारित)

कंठ से उच्चारित ध्वनियाँ कंठव्य कहलाती हैं।

  • व्यंजन: क, ख, ग, घ, ङ
  • स्वर: अ, आ
  • उष्म: ह
  • संस्कृत सूत्र: “अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः”

उदाहरण: कमल, घर, अग्नि

2. तालव्य वर्ण (तालु से उच्चारित)

तालु की सहायता से उच्चारित होने वाले वर्ण तालव्य कहलाते हैं।

  • व्यंजन: च, छ, ज, झ, ञ
  • स्वर: इ, ई
  • अन्तःस्थ: य
  • उष्म: श
  • संस्कृत सूत्र: “इचुयशानां तालु”

उदाहरण: चरण, जीवन, शिखा

3. मूर्धन्य वर्ण (मूर्धा से उच्चारित)

जीभ की नोक को पीछे मोड़कर तालु के ऊपरी भाग (मूर्धा) से टकराकर बोली जाने वाली ध्वनियाँ।

  • व्यंजन: ट, ठ, ड, ढ, ण
  • स्वर: ऋ, ॠ
  • अन्तःस्थ: र
  • उष्म: ष
  • संस्कृत सूत्र: “ऋटुरषाणां मूर्धा”

उदाहरण: टहलना, ढोल, ऋषि, रथ

4. दंतव्य वर्ण (दांत से उच्चारित)

दांतों की सहायता से बोली जाने वाली ध्वनियाँ।

  • व्यंजन: त, थ, द, ध, न
  • स्वर: लृ
  • अन्तःस्थ: ल
  • उष्म: स
  • संस्कृत सूत्र: “लृतुलसानां दन्ताः”

उदाहरण: तरुण, धन, सागर

5. ओष्ठव्य वर्ण (होठों से उच्चारित)

दोनों होठों को मिलाकर अथवा एक होठ को दांत से मिलाकर बनने वाली ध्वनियाँ।

  • व्यंजन: प, फ, ब, भ, म
  • स्वर: उ, ऊ
  • संस्कृत सूत्र: “उपूपध्मानीयानामोष्ठौ”

उदाहरण: पल, फूल, बंदर, मन

6. नासिक्य वर्ण (नाक से उच्चारित)

नाक की सहायता से बोली जाने वाली ध्वनियाँ।

  • व्यंजन: ङ, ञ, ण, न, म
  • अनुस्वार: अं
  • संस्कृत सूत्र: “ञमङणनानां नासिका”

उदाहरण: मंगल, ज्ञान, पंक्ति

संयुक्त उच्चारण स्थान

कुछ वर्ण दो अंगों की संयुक्त क्रिया से उच्चारित होते हैं।

1. कण्ठतालव्य

  • स्वर: ए, ऐ
  • सूत्र: “एदैतोः कण्ठतालु”

2. कण्ठोष्ठ्य

  • स्वर: ओ, औ
  • सूत्र: “ओदौतोः कण्ठोष्ठम्”

3. दन्तोष्ठ्य

  • व्यंजन: व
  • सूत्र: “वकारस्य दन्तोष्ठम्”

4. जीव्हामूलीय

  • संस्कृत में प्रयुक्त।
  • संस्कृत सूत्र: “जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्”

उच्चारण स्थान और संस्कृत के मूल स्वर

संस्कृत में पाँच शुद्ध स्वर (अ, इ, उ, ऋ, लृ) माने जाते हैं। ये सीधे-सीधे उच्चारण स्थानों से जुड़े हैं। इनके दीर्घ रूप (आ, ई, ऊ, ॠ) सहित कुल 9 स्वर संस्कृत के मूल स्वर माने जाते हैं।

  • कंठ – अ
  • तालु – इ
  • मूर्धा – ऋ
  • दंत – लृ
  • ओष्ठ – उ

इन स्वरों का दीर्घ रूप समय के अनुसार उत्पन्न होता है।

उच्चारण स्थान तालिका

उच्चारण स्थानस्वरव्यंजनअन्तस्थउष्म
कंठअ, आक, ख, ग, घ, ङ
तालुइ, ईच, छ, ज, झ, ञ
मूर्धाऋ, ॠट, ठ, ड, ढ, ण
दंतलृत, थ, द, ध, न
ओष्ठउ, ऊप, फ, ब, भ, म
नासिकाङ, ञ, ण, न, म, अं
कण्ठतालुए, ऐ
कण्ठोष्ठ्यओ, औ
दन्तोष्ठ्य

भाषावैज्ञानिक दृष्टि

भारतीय ध्वनिविज्ञान ने उच्चारण स्थानों का जो वर्गीकरण प्रस्तुत किया है, वह वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत प्रामाणिक है। आधुनिक भाषाविज्ञान में इन्हें Places of Articulation कहा जाता है। जैसे—

  • कंठ्य = Velar
  • तालव्य = Palatal
  • मूर्धन्य = Retroflex
  • दंत्य = Dental
  • ओष्ठ्य = Labial
  • दन्तोष्ठ्य = Labiodental
  • कण्ठतालव्य = Palato-Velar

हिंदी और संस्कृत में भिन्नता

  • संस्कृत में जीव्हामूल को सातवाँ स्थान माना गया है, हिंदी में नहीं।
  • संस्कृत में ऋ, ॠ, लृ जैसे स्वर प्रचलित थे, हिंदी में इनका स्वतंत्र प्रयोग नहीं है।
  • हिंदी में उच्चारण स्थान व्यावहारिक हैं, संस्कृत में सैद्धांतिक।

हिंदी की ध्वनियाँ और उनकी वैज्ञानिकता

1. हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता

हिंदी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह अत्यंत वैज्ञानिक भाषा है। इसमें जैसा लिखा जाता है, वैसा ही बोला जाता है। यह गुण इसे अंग्रेज़ी और अरबी जैसी भाषाओं से अलग करता है।

  • अंग्रेज़ी में BUT (बट) और PUT (पुट) जैसे शब्दों का उच्चारण उनके लेखन से मेल नहीं खाता।
  • अरबी लिपि में केवल तीन स्वरों के माध्यम से लगभग तेरह स्वरों का काम लिया जाता है।

इसके विपरीत, हिंदी में लेखन और उच्चारण में गहरी समानता और शुद्धता मौजूद है।

2. हिंदी में ध्वनि चिह्नों की भूमिका

हिंदी में अनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग जैसे चिह्नों ने इसे और अधिक वैज्ञानिक बना दिया है।

  • 20वीं सदी में जब हिंदी ने यूरोपीय भाषाओं और अरबी-फ़ारसी से शब्द अपनाए, तो इसके लिए नए चिह्न भी ग्रहण किए गए।
  • उदाहरण: अंग्रेज़ी से आया शब्द ‘डॉक्टर’। इसमें ‘ऑ’ ध्वनि है। हिंदी में यह स्वर पहले उपलब्ध नहीं था, इसलिए ‘ऑ’ चिह्न को अपनाया गया।

3. हिंदी में नई स्वीकृत ध्वनियाँ

अरबी-फ़ारसी से आए कुछ शब्दों के सटीक उच्चारण हेतु हिंदी ने पाँच नई ध्वनियाँ अपनाईं:

  • क़, ख़, ग़, ज़ और फ़
    इन ध्वनियों ने हिंदी को अधिक समृद्ध बनाया और भावों को सूक्ष्मता तथा स्पष्टता से व्यक्त करने की शक्ति प्रदान की।

4. हिंदी में उच्चारण की सटीकता

हिंदी की वर्णमाला में दो मुख्य वर्ग हैं—

  1. स्वर
  2. व्यंजन

इन दोनों वर्गों को इतने वैज्ञानिक तरीके से व्यवस्थित किया गया है कि इनके आधार पर कोई भी व्यक्ति शुद्ध उच्चारण सीख सकता है।

  • स्वर ध्वनियाँ: इनके उच्चारण में किसी अन्य ध्वनि की सहायता नहीं ली जाती। वायु मुखगुहा से बिना किसी अवरोध के बाहर निकलती है।
  • व्यंजन ध्वनियाँ: इनके उच्चारण में स्वरों की सहायता आवश्यक होती है। यहाँ वायु मुखगुहा में कहीं न कहीं अवरोध पाती है।

5. उच्चारण बिंदु और उच्चारक

व्यंजन ध्वनियों के निर्माण में उच्चारण बिंदु (Articulation Point) महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

  • अचल उच्चारक (Immovable Articulators): मुखगुहा की छत का कोई भाग।
  • चल उच्चारक (Movable Articulators): जिह्वा, नीचे का ओष्ठ (Lower Lip), तथा श्वासद्वार (Glottis)।

संयुक्त उच्चारण:
कुछ ध्वनियों का उच्चारण केवल एक स्थान से नहीं, बल्कि दो स्थानों की संयुक्त क्रिया से होता है, जैसे—

  • कंठ + तालु (कण्ठतालव्य)
  • कंठ + ओष्ठ (कण्ठोष्ठ्य)
  • दंत + ओष्ठ (दन्तोष्ठ्य)
  • मुख + नासिका (नासिक्य)

हिंदी की सभी ध्वनियों का उच्चारण स्थान के आधार पर वर्गीकरण

हिंदी भाषा की ध्वनियाँ अपने-अपने उच्चारण स्थान के अनुसार विभाजित की जाती हैं। प्रत्येक ध्वनि का जन्म मुखगुहा, कंठ, तालु, दंत, मूर्द्धा, ओष्ठ अथवा नासिका के विभिन्न भागों से होता है। नीचे उच्चारण स्थानों के अनुसार हिंदी की सभी ध्वनियों का वर्गीकरण प्रस्तुत है—

1. कंठ्य ध्वनियाँ (Kanthya Dhwaniyan)

इन ध्वनियों का उच्चारण कंठ से होता है।

  • स्वर: अ, आ
  • व्यंजन: क, ख, ग, घ, ङ
    👉 कंठ्य ध्वनियाँ हिंदी की वर्णमाला की मूल ध्वनियों में आती हैं।

2. तालव्य ध्वनियाँ (Taalavya Dhwaniyan)

जिन ध्वनियों में जिह्वा का मध्य भाग तालु से स्पर्श करता है, उन्हें तालव्य कहते हैं।

  • स्वर: इ, ई
  • व्यंजन: च, छ, ज, झ, ञ, श, य

3. मूर्द्धन्य ध्वनियाँ (Murdhanya Dhwaniyan)

इन ध्वनियों का उच्चारण जिह्वा की नोक के मुर्द्धा (तालु का ऊपरी भाग) से टकराने पर होता है।

  • व्यंजन: ट, ठ, ड, ढ, ण, ष

4. दन्त्य ध्वनियाँ (Dantya Dhwaniyan)

दाँतों के सहयोग से उत्पन्न ध्वनियाँ दन्त्य कहलाती हैं।

  • व्यंजन: त, थ, द, ध, न, र, ल, स, क्ष

5. ओष्ठ्य ध्वनियाँ (Oshthya Dhwaniyan)

इनका उच्चारण दोनों होठों के स्पर्श से होता है।

  • व्यंजन: प, फ, ब, भ, म

6. अनुनासिक ध्वनियाँ (Anunasik Dhwaniyan)

इन ध्वनियों का उच्चारण मुख और नासिका दोनों के सहयोग से होता है।

  • अनुनासिक वर्गीय वर्ण: क, ख, ग, घ, ङ; च, छ, ज, झ, ञ; ट, ठ, ड, ढ, ण; त, थ, द, ध, न; प, फ, ब, भ, म।
    👉 प्रत्येक वर्ग का अंतिम वर्ण अनुनासिक होता है— ङ, ञ, ण, न, म
  • लिपि-चिह्न:
    • चन्द्रबिन्दु (ँ) : स्वर पर अनुनासिकता दिखाने हेतु, जैसे— अँ, ऊँ।
    • अनुस्वार (ं) : मात्रा के साथ प्रयोग होने पर, जैसे— ऐं, ओं।

7. दन्त्योष्ठ्य ध्वनियाँ (Dantoshthya Dhwaniyan)

ये ध्वनियाँ दंत और ओष्ठ दोनों के सहयोग से उत्पन्न होती हैं।

  • व्यंजन: फ, व

8. कंठ-तालव्य ध्वनियाँ (Kanth-Taalavya Dhwaniyan)

इन ध्वनियों का उच्चारण कंठ और तालु दोनों के सहयोग से होता है।

  • स्वर: ए, ऐ

9. कंठोष्ठ्य ध्वनियाँ (Kanthoshthya Dhwaniyan)

कंठ और ओष्ठों के सहयोग से उच्चारित ध्वनियाँ।

  • स्वर: ओ, औ

10. जिह्वामूलक ध्वनियाँ (Jihva-Mooliya Dhwaniyan)

ये ध्वनियाँ जिह्वा के मूल (पीछे के भाग) से उच्चारित होती हैं।

  • व्यंजन: क़, ख़, ग़
    👉 ये अरबी-फ़ारसी से हिंदी में अपनाई गई ध्वनियाँ हैं।

11. वर्त्स्य ध्वनियाँ (Vartasya Dhwaniyan)

अरबी-फ़ारसी से आई विशेष ध्वनियाँ।

  • व्यंजन: ज़, फ़

12. काकल्य ध्वनियाँ (Kakaly Dhwaniyan)

इन ध्वनियों के उच्चारण में मुखगुहा खुली रहती है और वायु बंद कंठ को खोलकर झटके से बाहर निकलती है।

  • व्यंजन: ह
    👉 यह ध्वनि हिंदी में स्वर की तरह ही बिना अवरोध के उच्चरित होती है और इसे महाप्राण अघोष ध्वनि कहा जाता है।

हिंदी ध्वनियों का उच्चारण-स्थान के आधार पर वर्गीकरण (Table)

क्रमांकध्वनि वर्ग (उच्चारण स्थान)स्वरव्यंजनविशेष टिप्पणी
1कंठ्य (कंठ से)अ, आक, ख, ग, घ, ङमुख्य स्वर अ, आ भी कंठ्य हैं
2तालव्य (तालु से)इ, ईच, छ, ज, झ, ञ, श, यजिह्वा का मध्य भाग तालु से लगता है
3मूर्द्धन्य (मूर्द्धा से)ट, ठ, ड, ढ, ण, षसभी व्यंजन मूर्द्धन्य
4दन्त्य (दाँत से)त, थ, द, ध, न, र, ल, स, क्षदाँतों के सहयोग से उच्चारण
5ओष्ठ्य (होंठों से)प, फ, ब, भ, मदोनों होंठों के स्पर्श से
6अनुनासिक (नाक + मुख से)ङ, ञ, ण, न, मप्रत्येक वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन; अनुस्वार/चंद्रबिंदु भी इसी में
7दन्त्योष्ठ्य (दाँत + होंठ)फ, वदाँत और होंठ दोनों की सहायता
8कंठ-तालव्य (कंठ + तालु)ए, ऐद्विस्वर उच्चारण स्थान
9कंठोष्ठ्य (कंठ + होंठ)ओ, औद्विस्वर उच्चारण स्थान
10जिह्वामूलक (जिह्वा का मूल)क़, ख़, ग़अरबी-फारसी मूल की ध्वनियाँ
11वर्त्स्य (दन्त्य/ओष्ठ्य से संबद्ध)ज़, फ़अरबी-फारसी की ध्वनियाँ
12काकल्य (विशेष स्वरूप)महाप्राण अघोष, स्वर-सदृश व्यंजन

हिंदी की ध्वनियों का प्रयत्न (Articulatory Effort) के आधार पर वर्गीकरण

1. स्पर्श ध्वनियाँ (Sparshi Varn)

‘क से म’ तक के वर्णों को स्पर्शी वर्ण कहते हैं। इन ध्वनियों के उच्चारण में मुख-विवर में कहीं न कहीं वायु को पूरी तरह रोका जाता है और फिर बिना किसी घर्षण के वह बाहर निकलती है।

  • उदाहरण: क, ख, ग, घ, ङ; च, छ, ज, झ, ञ; ट, ठ, ड, ढ, ण; त, थ, द, ध, न; प, फ, ब, भ, म।
    👉 अंग्रेज़ी में इन्हें Stop या Explosive sounds तथा हिंदी में स्फोट ध्वनियाँ कहते हैं।

2. संघर्षी ध्वनियाँ (Sangharshi Varn)

इन व्यंजनों के उच्चारण में वायु मार्ग संकुचित हो जाता है और वायु घर्षण करते हुए बाहर निकलती है।

  • उदाहरण: फ, ज, स।

3. स्पर्श-संघर्षी ध्वनियाँ (Sparsh-Sangharshi Varn)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा तालु से स्पर्श करती है, लेकिन साथ ही वायु के निकलते समय घर्षण भी उत्पन्न होता है, उन्हें स्पर्श-संघर्षी कहा जाता है।

  • उदाहरण: च, छ, ज, झ।

4. लुंठित ध्वनि (Lunthit Varn)

इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा की नोक में लुण्ठन या प्रकम्पन (vibration/rolling) की क्रिया होती है।

  • उदाहरण: र।

5. पार्श्विक ध्वनि (Parshwik Varn)

इन ध्वनियों के उच्चारण में वायु जिह्वा के दोनों किनारों (पार्श्वों) से बाहर निकलती है।

  • उदाहरण: ल।

6. उत्क्षिप्त ध्वनियाँ (Utkshipt Varn)

इन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा की नोक को मोड़कर मूर्धा की ओर ले जाया जाता है और फिर झटके से नीचे फेंका जाता है।

  • उदाहरण: ड़, ढ़।
    👉 इन्हें द्विगुण व्यंजन, ताड़नजात व्यंजन या फेंके हुए व्यंजन भी कहा जाता है।

7. नासिक्य ध्वनियाँ (Nasikya Varn)

इन ध्वनियों के उच्चारण में कोमलतालु नीचे झुक जाता है, जिससे श्वासवायु मुख के साथ-साथ नासारन्ध्र से भी बाहर निकलती है।

  • उदाहरण: अं, ङ, ञ, ण, न, म, म्ह, न्ह।

👉 ध्यान दें:

  • पंचमाक्षर (ङ, ञ, ण, न, म) का संयुक्त उच्चारण स्थान नासिक्य माना जाता है।
  • किंतु प्रत्येक पंचमाक्षर का स्वतंत्र उच्चारण स्थान अलग-अलग होता है, जैसा कि उच्चारण-स्थान की तालिका में बताया गया है।

हिंदी की ध्वनियों का प्रयत्न-आधारित वर्गीकरण (Table)

क्रमांकप्रयत्न का आधार / ध्वनि का प्रकारपरिभाषा / विशेषताउदाहरण ध्वनियाँ
1स्पर्श ध्वनियाँ (Sparshi Varn)वायु को मुखगुहा में रोककर फिर बिना घर्षण के छोड़ा जाता है।क, ख, ग, घ, ङ; च, छ, ज, झ, ञ; ट, ठ, ड, ढ, ण; त, थ, द, ध, न; प, फ, ब, भ, म
2संघर्षी ध्वनियाँ (Sangharshi Varn)वायु मार्ग संकुचित होकर घर्षण के साथ बाहर निकलती है।फ, ज, स
3स्पर्श-संघर्षी ध्वनियाँ (Sparsh-Sangharshi Varn)जिह्वा तालु को स्पर्श करती है और वायु घर्षण के साथ निकलती है।च, छ, ज, झ
4लुंठित ध्वनि (Lunthit Varn)जिह्वा की नोक प्रकम्पित होकर ध्वनि उत्पन्न करती है।
5पार्श्विक ध्वनि (Parshwik Varn)वायु जिह्वा के दोनों किनारों (पार्श्वों) से निकलती है।
6उत्क्षिप्त ध्वनियाँ (Utkshipt Varn)जिह्वा मूर्धा से टकराकर झटके से नीचे गिरती है।ड़, ढ़
7नासिक्य ध्वनियाँ (Nasikya Varn)वायु मुख व नाक दोनों मार्गों से निकलती है।अं, ङ, ञ, ण, न, म, म्ह, न्ह

वायु की शक्ति के आधार पर हिंदी की ध्वनियों का वर्गीकरण

हिंदी भाषा की ध्वनियों को प्राण वायु (श्वास वायु) तथा स्वर-तंत्रियों के कंपन के आधार पर भी वर्गीकृत किया जाता है। इस दृष्टि से इनका अध्ययन मुख्यतः दो भागों में किया जाता है –

  1. प्राण वायु के आधार पर वर्गीकरण (अल्पप्राण और महाप्राण)
  2. घोषत्व के आधार पर वर्गीकरण (अघोष और सघोष)

1. प्राण वायु के आधार पर हिंदी की ध्वनियाँ

(क) अल्पप्राण वर्ण (Alpaprana Varn)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से कम श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें अल्पप्राण वर्ण कहते हैं।

  • उदाहरण: प, ब, त, द, च, ज, क, ल, र, व, य आदि।

(ख) महाप्राण वर्ण (Mahaprana Varn)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से अधिक श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें महाप्राण वर्ण कहते हैं।

  • उदाहरण: ख, घ, फ, भ, थ, ध, छ, झ आदि।

2. घोषत्व की दृष्टि से हिंदी की ध्वनियाँ

(क) अघोष वर्ण (Aghosh Varn)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियों में कंपन नहीं होता, उन्हें अघोष वर्ण कहते हैं।

  • उदाहरण: क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स।

(ख) सघोष या घोष वर्ण (Saghosh Varn)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियों में कंपन होता है, उन्हें सघोष (घोष) वर्ण कहते हैं।

  • उदाहरण: ग, घ, ङ, ञ, झ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म तथा य, र, ल, व।

अल्पप्राण–महाप्राण और घोष–अघोष का संयुक्त वर्गीकरण तालिका (Table)

इन ध्वनियों को और स्पष्ट रूप से समझने के लिए निम्न सारणी दी जा रही है –

स्थानअघोष (Aghosh)घोष (Saghosh)
अल्पप्राणमहाप्राणअल्पप्राणमहाप्राण
कण्ठ
तालु
मूर्द्धा
दन्त
ओष्ठ
अनुनासिकङ, ञ, ण, न, म
अन्य ध्वनियाँश, ष, सय, र, ल, व
विशेष चिह्नविसर्ग (ः)अनुस्वार (ं)

हिंदी की ध्वनियों की अन्य विशेषताएँ

हिंदी भाषा की ध्वनियों का वर्गीकरण केवल उच्चारण-स्थान, प्रयत्न या वायु की शक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी कुछ और विशेषताएँ भी हैं। इनमें दीर्घता, बलाघात, अनुतान और विवृत्ति विशेष उल्लेखनीय हैं।

1. दीर्घता (Deerghata)

किसी ध्वनि के उच्चारण में लगने वाले समय को दीर्घता कहते हैं। यह किसी ध्वनि का अविभाज्य रूप से लंबा होना दर्शाती है।

  • हिंदी और अंग्रेज़ी में ध्वनियों को ह्रस्व (short) और दीर्घ (long) – दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
  • संस्कृत में इसका विस्तार करते हुए ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत – तीन मात्राओं की चर्चा की गई है।

दीर्घता (उदाहरण)

  • ह्रस्व स्वर (अल्पकालिक)
    • इधर देखो
    • उदय हो रहा है
  • दीर्घ स्वर (दीर्घकालिक)
    • सीता पढ़ रही है
    • पूरा काम कर लो
  • प्लुत स्वर (अत्यधिक दीर्घ) (संस्कृत परंपरा में प्रयोग)
    • उदाहरण: रामोऽऽऽ ब्रवीति (यहाँ ‘ओ’ स्वर अत्यधिक खिंचकर बोला जाता है)

2. बलाघात (Balaghat)

ध्वनि के उच्चारण में प्रयुक्त बल की मात्रा को बलाघात कहते हैं।

  • बलाघात युक्त ध्वनि के लिए अधिक प्राणशक्ति यानी फेफड़ों से अधिक वायु की आवश्यकता होती है।
  • बलाघात की दो मुख्य श्रेणियाँ हैं –
    1. पूर्ण बलाघात
    2. दुर्बल बलाघात

भाषागत महत्व

  • अधिकांश भाषाओं में वाक्य बलाघात पाया जाता है।
  • सामान्यतः संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण और क्रिया विशेषण बलाघात युक्त होते हैं, जबकि अव्यय और परसर्ग बलाघात रहित होते हैं।
  • अंग्रेज़ी में शब्द बलाघात और वाक्य बलाघात दोनों पाए जाते हैं, जबकि हिंदी में बलाघात का महत्व मुख्यतः वाक्य स्तर पर होता है।
  • उदाहरण – “यह मोहन नहीं राम है।” यहाँ विरोध प्रकट करने के लिए “राम” पर बल दिया गया है।

बलाघात (उदाहरण)

  • पूर्ण बलाघात (Strong stress)
    • मैं ही जाऊँगा। (यहाँ “ही” पर बल)
    • यह काम अभी करना है। (यहाँ “अभी” पर बल)
  • दुर्बल बलाघात (Weak stress)
    • वह घर पर है। (यहाँ बल सामान्य है, किसी शब्द पर विशेष जोर नहीं)
  • वाक्य बलाघात के उदाहरण
    • राम खेल रहा है। (साधारण कथन)
    • राम खेल रहा है? (सवाल बन गया – “राम” पर हल्का बल)
    • राम खेल रहा है! (आश्चर्य – “राम” और “खेल” दोनों पर बल)

3. अनुतान (Anutaan) – आरोह-अवरोह

स्वन-यंत्र में उत्पन्न घोष (voice) के आरोह-अवरोह के क्रम को अनुतान कहते हैं।

  • अन्य शब्दों में, स्वर-तंत्रियों के कंपन से उत्पन्न सुर का उतार-चढ़ाव ही अनुतान है।
  • साधारणतः मानव की स्वर-तन्त्रियाँ 42 Hz से 2400 Hz तक कम्पित होती हैं।
  • यह कंपन आयु और लिंग पर भी निर्भर करता है।

अनुतान और तान का अंतर

  • वाक्य स्तर पर सुर का उतार-चढ़ाव – अनुतान
  • शब्द स्तर पर सुर का उतार-चढ़ाव – तान

सुर के तीन मुख्य स्तर

  1. उच्च
  2. मध्य
  3. निम्न

उदाहरण

  • “वह आ रहा है।” (सामान्य कथन)
  • “वह आ रहा है?” (प्रश्न)
  • “वह आ रहा है !” (आश्चर्य)

अनुतान – आरोह-अवरोह / Intonation (उदाहरण)

  • उच्च स्वर (High pitch)
    • क्या कहा? (सवाल में “क्या” पर ऊँचा स्वर)
  • मध्य स्वर (Mid pitch)
    • वह बाजार गया था। (साधारण कथन, बिना विशेष जोर)
  • निम्न स्वर (Low pitch)
    • मैं थक गया हूँ। (थकावट या उदासी व्यक्त करने में स्वर नीचे चला जाता है)

👉 ध्यान दें कि स्वर का आरोह-अवरोह केवल भाव ही नहीं, बल्कि वाक्य का प्रकार (कथन, प्रश्न, विस्मय) भी बदल देता है।

4. विवृत्ति (Vivrati) – संक्रमण

एक ध्वनि से दूसरी ध्वनि पर जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं। संक्रमण के दो प्रकार हैं –

  1. सामान्य संक्रमण (आबद्ध संक्रमण) – जब ध्वनियों का उच्चारण बिना व्यवधान के क्रम से होता है।
  2. मुक्त संक्रमण (विवृत्ति) – जब ध्वनियों का उच्चारण क्रमिक न होकर व्यवधान के साथ होता है।

उदाहरण (हिंदी में विवृत्ति)

  • तुम्हारे = तुम + हारे
  • हाथी = हाथ + ही

विवृत्ति (Vivrati) – संक्रमण उदाहरण

  1. सामान्य संक्रमण (आबद्ध संक्रमण) – Bound Transition

यह तब होता है जब संयुक्ताक्षर या मूल धातु से बनी ध्वनियों के मेल पर संक्रमण होता है।

उदाहरण:

  • गृहस्थ = गृह + स्थ → “ह” और “स्” के मेल पर संक्रमण।
  • विद्या = विद् + या → “द्” और “य” के बीच हल्का संक्रमण।
  • ज्ञान = ज्ञ → “ग्” और “य” के बीच ज्य जैसी संक्रमण ध्वनि।
  • गौरव = गौ + रव → “औ” और “र” के बीच स्वरूप संक्रमण।

2. मुक्त संक्रमण (विवृत्ति) Free Transition

यह तब होता है जब स्वतंत्र शब्दों या ध्वनियों के मेल पर संक्रमण उत्पन्न होता है।

उदाहरण:

  • तुम्हारा = तुम + हारा → “म” और “हा” के बीच संक्रमण।
  • हाथी = हाथ + ही → “थ” और “हि” के बीच संक्रमण।
  • नव + ऋतु = नवर् + ऋतु → “र्” और “ऋ” के बीच व्यवधान।
  • जग + उत्सव = जगुत्सव → “ग” और “उ” के मेल पर हल्का “गु” संक्रमण।
  • राम + इष्ट = रामिष्ट → “म” और “इ” के बीच “मि” जैसा संक्रमण।

👉 इस प्रकार, विवृत्ति संयुक्ताक्षर, स्वर–व्यंजन मेल और शब्द-संधि की स्थिति में विशेष रूप से दिखाई देती है।

हिंदी की ध्वनियों की अन्य विशेषताएँ – सारणी

विशेषतापरिभाषाप्रकार/श्रेणियाँउदाहरण / टिप्पणियाँ
दीर्घता (Deerghata)किसी ध्वनि के उच्चारण में लगने वाला समय– ह्रस्व (Short)
– दीर्घ (Long)
– प्लुत (Very Long, केवल संस्कृत में)
हिंदी व अंग्रेज़ी → ह्रस्व/दीर्घ
संस्कृत → ह्रस्व/दीर्घ/प्लुत
बलाघात (Balaghat)उच्चारण में प्रयुक्त बल की मात्रा– पूर्ण बलाघात
– दुर्बल बलाघात
हिंदी में वाक्य-स्तर पर बलाघात महत्त्वपूर्ण
उदाहरण: “यह मोहन नहीं राम है।”
अनुतान (Anutaan)स्वर-तंत्रियों के कंपन से उत्पन्न सुर का आरोह-अवरोह (intonation)– उच्च सुर
– मध्य सुर
– निम्न सुर
वह आ रहा है। (कथन)
वह आ रहा है? (प्रश्न)
वह आ रहा है ! (आश्चर्य)
विवृत्ति (Vivrati)एक ध्वनि से दूसरी ध्वनि पर जाते समय संक्रमण का प्रकार– सामान्य संक्रमण (आबद्ध)
– मुक्त संक्रमण (विवृत्ति)
तुम्हारे = तुम+हारे
हाथी = हाथ+ही

निष्कर्ष

हिन्दी ध्वनिविज्ञान भाषा-विज्ञान की वह शाखा है जो न केवल ध्वनियों के भौतिक और शारीरिक उत्पादन का अध्ययन करता है, बल्कि उनके स्थान, प्रयत्न, वायु-प्रवाह और ध्वनि-संयोजन की विशेषताओं को भी व्यवस्थित रूप से समझाता है। इस आर्टिकल में हमने देखा कि हिन्दी ध्वनियाँ कई स्तरों पर विभाजित होती हैं –

  • उच्चारण-स्थान के आधार पर (ओष्ठ्य, दन्त्य, मूर्धन्य, तालव्य, कण्ठ्य आदि)
  • प्रयत्न के आधार पर (स्पर्श, घर्षण, नासिक्य, अर्धस्पर्श आदि)
  • वायु-आधारित वर्गीकरण (अघोष–सघोष, अल्पप्राण–महाप्राण)
  • अन्य विशेषताएँ जैसे दीर्घता (ध्वनि की लंबाई), बलाघात (बल का प्रयोग), अनुतान (आरोह-अवरोह), विवृत्ति (संक्रमण)

इन सभी वर्गीकरणों और उदाहरणों से स्पष्ट है कि हिन्दी ध्वनियों का संसार अत्यंत समृद्ध और वैज्ञानिक है। यह केवल बोलने और सुनने का माध्यम नहीं, बल्कि भाषा की लय, प्रवाह और स्वाभाविकता को भी नियंत्रित करता है।

साथ ही, तालिकाओं, चार्टों और सारांशों की सहायता से इस अध्ययन को न केवल सहज बनाया जा सकता है, बल्कि छात्रों और शोधार्थियों के लिए यादगार और व्यावहारिक भी बनाया जा सकता है।

अतः कहा जा सकता है कि हिन्दी ध्वनियों का अध्ययन भाषा की संरचना, व्याकरणिक नियमों और साहित्यिक सौंदर्य को समझने की एक अनिवार्य कुंजी है, जो भाषा-शिक्षण तथा उच्चारण की शुद्धता दोनों में समान रूप से सहायक सिद्ध होती है।


इन्हें भी देखें –

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