भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में छठ पूजा एक ऐसा पर्व है जो न केवल भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि यह प्रकृति, सूर्य और जल के प्रति मानव कृतज्ञता का सबसे सुंदर रूप भी प्रस्तुत करता है। यह पर्व, जो बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में विशेष रूप से लोकप्रिय है, आज पूरे भारत में एक राष्ट्रीय आस्था उत्सव के रूप में स्थापित हो चुका है।
साल 2025 में छठ पूजा की शुरुआत 25 अक्टूबर, शनिवार से हो रही है, और इसका प्रथम दिन नहाय-खाय कहलाता है — यही वह क्षण होता है जब भक्त अपने तन, मन और आत्मा को पवित्र कर व्रत की शुरुआत करते हैं। इस दिन की विशेषता केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक, वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टियों से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
छठ पूजा की पृष्ठभूमि: सूर्य उपासना की प्राचीन परंपरा
छठ पर्व की जड़ें वैदिक काल तक फैली हुई हैं। ऋग्वेद और अथर्ववेद में सूर्योपासना के कई उल्लेख मिलते हैं। वैदिक ऋषियों ने सूर्य को न केवल जीवनदाता कहा, बल्कि उसे ब्रह्मांडीय चेतना का प्रत्यक्ष प्रतीक माना। छठ पूजा में उसी सूर्य की आराधना की जाती है, जो समस्त सृष्टि को ऊर्जा प्रदान करता है और जीवन चक्र को गतिमान रखता है।
पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि त्रेतायुग में जब भगवान राम वनवास से लौटे और अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ, तब माता सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्यदेव की उपासना की थी। इसी घटना से प्रेरित होकर छठ पर्व की परंपरा आरंभ हुई। दूसरी कथा के अनुसार, पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भी इस व्रत को कठिन समय में संतान और समृद्धि की कामना से किया था।
नहाय-खाय क्या है? — व्रत की पवित्र प्रस्तावना
छठ पूजा के चार दिनों में पहला दिन नहाय-खाय कहलाता है। इस दिन व्रती (मुख्य उपासक) स्नान कर पवित्रता का संकल्प लेते हैं। शब्द ‘नहाय-खाय’ स्वयं बताता है कि पहले स्नान (नहाय) और फिर पवित्र भोजन (खाय) किया जाता है।
सुबह सूर्योदय से पहले व्रती गंगा, सरयू या किसी स्थानीय नदी, तालाब अथवा कुएँ में स्नान करते हैं। जो लोग नदी तक नहीं जा सकते, वे घर पर गंगाजल मिलाकर स्नान करते हैं। स्नान के बाद पूरे घर और रसोई की सफाई की जाती है — क्योंकि छठ व्रत में पवित्रता सर्वोपरि मानी जाती है।
फिर व्रती सूर्य देव और छठी माता की पूजा करते हैं। इस पूजा के बाद जो पहला सात्विक भोजन बनाया जाता है, वही नहाय-खाय का प्रसाद कहलाता है, जिसे व्रती स्वयं ग्रहण करते हैं। इसी क्षण व्रत की आध्यात्मिक यात्रा आरंभ होती है।
नहाय-खाय में क्या खाया जाता है?
नहाय-खाय के भोजन में सादगी, पवित्रता और सात्विकता का अद्भुत संतुलन होता है। इस दिन जो भोजन तैयार किया जाता है, वह पूरी तरह शुद्ध होता है — बिना लहसुन, प्याज और मसाले के। सामान्यतः कद्दू, लौकी, चने की दाल और चावल का संयोजन मुख्य व्यंजन के रूप में बनता है।
भोजन शुद्ध घी में पकाया जाता है और इसमें केवल सेंधा नमक का प्रयोग किया जाता है। यह भोजन न केवल स्वाद में सरल होता है, बल्कि पाचन के लिए भी अत्यंत लाभदायक है।
व्रती स्वयं इस भोजन को प्रसाद के रूप में ग्रहण करती हैं, और यहीं से पूरे व्रत की शुरुआत होती है।
नहाय-खाय का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व
छठ पूजा का यह पहला दिन आध्यात्मिक शुद्धता का प्रतीक है। धर्मग्रंथों में कहा गया है —
“शरीरशुद्धिं विना देवताराधना निष्फला।”
अर्थात्, शरीर और मन की शुद्धि के बिना देव उपासना फलदायक नहीं होती।
नहाय-खाय इसी शुद्धता का प्रतीक है। व्रती इस दिन अपने भीतर के पाप, दोष और विकारों को त्याग कर नई आध्यात्मिक यात्रा आरंभ करती हैं।
माना जाता है कि नहाय-खाय के दिन का सात्विक आहार शरीर को विषम उपवास के लिए तैयार करता है, और यह आत्मनियंत्रण (संयम) की प्रथम परीक्षा होती है।
इस दिन व्रती निम्न मंत्र से व्रत का संकल्प लेती हैं —
“ॐ अद्य अमुकगोत्रोअमुकनामाहं
मम सर्व पापनक्षयपूर्वकशरीरारोग्यार्थ
श्री सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ
श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।”
इस मंत्र के उच्चारण के साथ ही छठी माता का आवाहन किया जाता है और व्रती यह संकल्प लेती हैं कि आने वाले दिनों में वे पूरी निष्ठा, संयम और शुचिता के साथ व्रत का पालन करेंगी।
नहाय-खाय का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
जहाँ धार्मिकता इस पर्व की आत्मा है, वहीं विज्ञान इसकी संरचना को प्रमाणित करता है। छठ पर्व के प्रत्येक चरण में वैज्ञानिक सोच छिपी हुई है।
नहाय-खाय के दिन जब लोग गंगा या अन्य जलाशयों में स्नान करते हैं, तो इससे शरीर के अनेक विषाक्त तत्व बाहर निकलते हैं। जल का तापमान और उसमें उपस्थित प्राकृतिक खनिज तत्व शरीर की त्वचा को जीवाणु-मुक्त करते हैं।
भोजन की दृष्टि से भी यह दिन बेहद वैज्ञानिक है। कद्दू, लौकी और चना — ये तीनों ही खाद्य पदार्थ विटामिन, फाइबर और प्रोटीन के उत्तम स्रोत हैं। इनका सेवन शरीर को डिटॉक्स करता है और पाचन प्रणाली को नियंत्रित रखता है।
नहाय-खाय का सात्विक आहार शरीर को अगले 36 घंटे तक चलने वाले निर्जला उपवास के लिए तैयार करता है। इस प्रकार, यह चरण न केवल धार्मिक आस्था बल्कि स्वास्थ्य विज्ञान से भी गहराई से जुड़ा हुआ है।
छठ पूजा में शुद्धता और अनुशासन का दर्शन
छठ पर्व में किसी अन्य धार्मिक अनुष्ठान की तरह केवल पूजा-पाठ नहीं होता, बल्कि यह मनुष्य को अनुशासन, संयम और प्रकृति के साथ संतुलन बनाना सिखाता है। नहाय-खाय के दिन से ही व्रती और उनके परिवारजन इस नियम का पालन करने लगते हैं कि घर में अशुद्धता या अव्यवस्था नहीं होगी।
भोजन पकाने के लिए जो बर्तन और स्थान चुने जाते हैं, वे पूरी तरह नए या शुद्ध किए हुए होते हैं। कई जगह व्रती मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी या उपले जलाकर भोजन बनाती हैं — यह न केवल पारंपरिक है, बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी टिकाऊ पद्धति है।
नहाय-खाय और परिवारिक सामंजस्य
छठ पूजा केवल व्यक्तिगत आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का पर्व है। नहाय-खाय के दिन परिवार के सभी सदस्य मिलकर भोजन बनाते हैं। घर के वातावरण में भक्ति और सहयोग की भावना व्याप्त रहती है।
यह दिन परिवार के पुनर्मिलन का भी अवसर बनता है। चाहे कोई व्यक्ति कितनी भी दूर क्यों न रहता हो, छठ पूजा के समय अपने घर लौटकर व्रत में शामिल होना कर्तव्य और गर्व दोनों माना जाता है।
सांझ होते-होते गाँवों और शहरों के मोहल्लों में एक सामूहिक चेतना जाग उठती है — हर घर से धूप की खुशबू, गायत्री मंत्रों की ध्वनि और सूर्यदेव की आराधना की गूंज सुनाई देती है।
नहाय-खाय से शुरू होने वाली चार दिवसीय आध्यात्मिक यात्रा
नहाय-खाय से आरंभ यह यात्रा चार दिनों में पूरी होती है —
- पहला दिन — नहाय-खाय: पवित्र स्नान और सात्विक भोजन से शुरुआत।
- दूसरा दिन — खरना: निर्जला उपवास और संध्या समय गुड़ की खीर, रोटी और केला का प्रसाद।
- तीसरा दिन — संध्या अर्घ्य: डूबते सूर्य को अर्घ्य देना।
- चौथा दिन — उषा अर्घ्य: उगते सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का समापन।
इस प्रकार, नहाय-खाय केवल एक आरंभ नहीं बल्कि पूरी तपस्या की प्रस्तावना है।
लोक जीवन में नहाय-खाय का भावनात्मक अर्थ
यदि धार्मिकता इसकी आत्मा है तो भावना इसका जीवन। नहाय-खाय का दिन उन अनगिनत माताओं और बहनों के हृदय में छठी मैया के प्रति श्रद्धा, विश्वास और मातृत्व की करुणा का सागर भर देता है।
जब कोई व्रती सुबह सूरज की पहली किरणों को नमन करती है, तो उसके भीतर यह भाव उमड़ता है कि प्रकृति और मानव एक ही धारा के दो छोर हैं।
यह दिन केवल शरीर की सफाई का नहीं, मन की निर्मलता का भी दिन है। व्रती अपने भीतर से अहंकार, लोभ, क्रोध, और द्वेष जैसे अंधकारों को धोकर आत्मिक प्रकाश की ओर अग्रसर होती हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नहाय-खाय
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो छठ पूजा लोक-आस्था और प्राकृतिक चेतना का सबसे प्राचीन उत्सव है। आर्य सभ्यता में सूर्योपासना का विशेष महत्व था। बिहार के अनेक स्थलों — जैसे देव सूर्य मंदिर (औरंगाबाद), बरौनी घाट (बेगूसराय) और आदित्यपुर (गया) — में छठ पूजा से संबंधित पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं।
मध्यकाल में जब समाज धार्मिक विभाजनों से गुजर रहा था, तब भी छठ पूजा ने अपनी लोक-आस्था को बनाए रखा। इसकी खास बात यह रही कि यह किसी जाति, वर्ग या सम्प्रदाय से सीमित नहीं रही — बल्कि सबको एक सूत्र में पिरोती रही। नहाय-खाय उसी एकता का प्रथम चरण है।
नहाय-खाय: मानव और प्रकृति का संवाद
छठ पूजा का मूल तत्व ‘प्रकृति के प्रति आभार’ है। इस दिन जब व्रती नदी में स्नान करती है, तो वह केवल जल से नहीं, बल्कि प्रकृति से संवाद करती है। वह मानो कहती है —
“हे सूर्य, हे जल, तुमसे ही जीवन है; मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूं।”
नहाय-खाय की यह परंपरा हमें सिखाती है कि शुद्धता केवल भौतिक नहीं होती — यह मानसिक और पारिस्थितिक संतुलन का भी प्रतीक है। इस प्रकार, यह पर्व मानव जीवन को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाता है।
सांस्कृतिक प्रतीक और सामुदायिक समरसता
नहाय-खाय का दिन भारतीय संस्कृति की जीवंतता का परिचायक है। गाँवों में इस दिन महिलाएँ मिट्टी के बर्तन सजाती हैं, बच्चे नदी किनारे खेलते हैं, और पुरुष पूजा की सामग्रियों की व्यवस्था में जुटे रहते हैं।
हर घर से “छठी मैया के गीत” गूंजते हैं —
“केलवा के पात पर उगेलन सूरज देव, अँजोर अँजोर भइल…”
ये गीत न केवल भक्ति के भाव को व्यक्त करते हैं, बल्कि ग्रामीण लोकजीवन की आत्मा को भी संजोए हुए हैं। नहाय-खाय के अवसर पर ये गीत घरों में गाए जाने लगते हैं, जो आने वाले दिनों की धार्मिक गूंज का संकेत होते हैं।
निष्कर्ष: नहाय-खाय — संयम, शुचिता और सामंजस्य का उत्सव
नहाय-खाय केवल छठ पूजा की शुरुआत नहीं, बल्कि जीवन के पुनर्संस्कार का प्रतीक है। यह दिन हमें सिखाता है कि आस्था केवल पूजा में नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक कर्म में होनी चाहिए — पवित्रता, अनुशासन, और कृतज्ञता के रूप में।
धार्मिक दृष्टि से यह आत्मशुद्धि का दिन है; वैज्ञानिक दृष्टि से यह स्वास्थ्य और स्वच्छता का अभ्यास; और सामाजिक दृष्टि से यह एकता और सहयोग का पर्व है।
जब व्रती गंगा में स्नान कर सूर्य को प्रणाम करती है, तो उस क्षण वह मानवता को यह संदेश देती है कि —
“प्रकृति के प्रति आभार ही सच्ची पूजा है।”
इस प्रकार, नहाय-खाय 2025 न केवल छठ पूजा का प्रारंभिक चरण है, बल्कि यह मनुष्य और प्रकृति के बीच आध्यात्मिक समरसता की नई शुरुआत भी है — एक ऐसी परंपरा जो हर वर्ष हमें याद दिलाती है कि पवित्रता ही जीवन का सच्चा प्रकाश है।
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