लौकिक संस्कृत : इतिहास, उत्पत्ति, स्वरूप, विशेषताएँ और साहित्य

भारतीय भाषाओं और साहित्य के विस्तृत संसार में संस्कृत भाषा का स्थान सर्वोपरि है। यह न केवल भारत की शास्त्रीय भाषा है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा धार्मिक उपलब्धियों का प्रमुख माध्यम भी रही है। संस्कृत का इतिहास अत्यन्त प्राचीन और बहुआयामी है, जिसे मुख्यतः दो रूपों में विभाजित किया जाता है—वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। इनमें वैदिक संस्कृत को भारतीय आर्य भाषाओं की प्राचीनतम अभिव्यक्ति माना जाता है, जबकि वैदिक युग के बाद विकसित संस्कृत साहित्य को लौकिक संस्कृत के नाम से जाना जाता है।

इस शोधपूर्ण लेख में हम समझेंगे कि लौकिक संस्कृत क्या है, इसका विकास कैसे हुआ, इसमें भाषिक परिवर्तन क्या-क्या आए, यह वैदिक संस्कृत से किस प्रकार भिन्न है, और लौकिक संस्कृत में रचित विशाल साहित्यिक क्षेत्र में कौन-कौन से ग्रंथ आते हैं। लेख के अंत में वेदांगों और उपांगों पर भी विस्तृत चर्चा की जाएगी।

Table of Contents

लौकिक संस्कृत : परिभाषा और कालखंड

लौकिक संस्कृत को सामान्यतः 800 ई.पू. से 500 ई.पू. का काल माना जाता है। यह वह भाषा है जिसका पाणिनि की अष्टाध्यायी में विधिवत् वर्णन मिलता है। ‘अष्टाध्यायी’ संस्कृत व्याकरण का सबसे महत्वपूर्ण और आज तक का सबसे तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक ग्रंथ है। पाणिनि ने जिस संस्कृत रूप का विश्लेषण किया, वही आगे चलकर लौकिक संस्कृत कहलाया।

लौकिक संस्कृत को उस भाषा का रूप माना जाता है, जो—

  • वैदिक संस्कृत की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए
  • समाज, सभ्यता, राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा, दर्शन, इतिहास आदि क्षेत्रों में
    व्यापक रूप से प्रयोग की जाने लगी।

इसी भाषा में आगे के शास्त्र, महाकाव्य, कथाएँ, नाटक, चिकित्सा ग्रंथ, आयुर्वेद, धर्मशास्त्र, पौराणिक साहित्य तथा वैज्ञानिक साहित्य रचा गया।

वैदिक संस्कृत : पृष्ठभूमि और स्वरूप

लौकिक संस्कृत को समझने से पहले वैदिक संस्कृत की संरचना को समझना आवश्यक है। वैदिक साहित्य का सृजन 1500 ई.पू. से 800 ई.पू. के बीच हुआ। इसकी भाषा को—

  • वैदिकी
  • वैदिक
  • छन्दस्
  • छान्दस्

आदि नामों से भी जाना जाता है।

वैदिक साहित्य मुख्यतः चार भागों में विभाजित है—

  1. संहिताएँ (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद)
  2. ब्राह्मण
  3. आरण्यक
  4. उपनिषद

इन्हीं के आधार पर भारतीय दर्शन, धर्म, आचार, अनुष्ठान और सांस्कृतिक प्रणाली का आधार निर्मित हुआ।

वैदिक संस्कृत में ध्वनियों की संख्या 52 मानी जाती है। इनमें ळ, ळह, जिह्वमूलीय और उपध्मानीय जैसी विशेष ध्वनियाँ थीं, जो आगे चलकर लुप्त हो गईं और भाषा सहज होते-होते लौकिक संस्कृत के रूप में विकसित हुई।

वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत की ओर : संधिकाल

वैदिक युग के उत्तरार्ध में भाषा में अनेक परिवर्तन आने लगे। ध्वनियाँ सरल हुईं, व्याकरण स्थिर हुआ, प्रयोग अधिक सामाजिक और व्यवहारिक बन गया। इसी काल को संधिकाल कहा जाता है।

इस संधिकाल में—

  • वैदिक संस्कृत की जटिलता कम हुई
  • भाषिक रूप अधिक सामान्य हुआ
  • धर्म-अनुष्ठानों से आगे बढ़कर भाषा का प्रयोग साहित्य, इतिहास और समाज में फैलने लगा

इसी काल में रामायण और महाभारत जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई। इन्हें आरंभिक लौकिक संस्कृत साहित्य माना जाता है।

पाणिनि और अष्टाध्यायी : लौकिक संस्कृत का स्वरूप निर्धारण

पाणिनि (500–400 ई.पू.) भारतीय व्याकरण परंपरा के महानतम विद्वानों में से एक हैं।
उन्होंने अपने समय में प्रचलित संस्कृत भाषा का विशद् अध्ययन करके ‘अष्टाध्यायी’ की रचना की, जो—

  • आठ अध्यायों में विभाजित है
  • 4000 से अधिक सूत्रों का संकलन है
  • संक्षिप्त, सटीक एवं वैज्ञानिक है

अष्टाध्यायी में वर्णित भाषा ही शुद्ध लौकिक संस्कृत मानी जाती है, जिसे आगे चलकर शास्त्रीय संस्कृत, आधुनिक संस्कृत, तथा पौराणिक संस्कृत ने अपना आधार बनाया।

लौकिक संस्कृत की भाषिक विशेषताएँ

लौकिक संस्कृत, वैदिक संस्कृत से सरल और सुव्यवस्थित है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं—

(1) ध्वनि-प्रणाली

लौकिक संस्कृत में कुल 48 ध्वनियाँ स्वीकार की जाती हैं।
वैदिक संस्कृत की 4 ध्वनियाँ—

  • ळह
  • जिह्वमूलीय
  • उपध्मानीय

समय के साथ लुप्त हो गईं।

(2) उच्चारण में सरलता

स्वर तथा व्यंजन दोनों में स्थिरता आई। पाणिनि ने ध्वनियों को वैज्ञानिक वर्गीकरण दिया।

(3) व्याकरण का मानकीकरण

लौकिक संस्कृत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि—

  • इसके रूप पाणिनि द्वारा निश्चित
  • संधि-समास, विभक्ति, प्रत्यय के नियम स्पष्ट
  • व्याकरण में एकरूपता

वैदिक संस्कृत में उपलब्ध अनेक अपवाद यहाँ व्यवस्थित हो गए।

(4) शब्दावली का विस्तार

धर्म, दर्शन, आयुर्वेद, राजनीति, खगोलशास्त्र, नाटक, काव्य, ज्योतिष आदि सभी विषयों के लिए नए शब्द बनें।

(5) साहित्य का बहुविध विकास

लौकिक संस्कृत में:

  • काव्य
  • महाकाव्य
  • नाटक
  • कथा
  • चिकित्सा
  • विज्ञान
  • गणित
  • वैदिक सहायक शास्त्र
  • स्मृतियाँ
  • वेदांग
  • पुराण

सभी का लेखन हुआ।

लौकिक संस्कृत साहित्य की व्यापकता

वैदिक साहित्य के बाद संस्कृत में जो भी साहित्य रचा गया, उसे व्यापक रूप से लौकिक संस्कृत साहित्य कहा जाता है। इसे कई उपविभागों में बाँटा जा सकता है—

  1. वेदांग
  2. रामायण
  3. महाभारत
  4. नाटक
  5. काव्य
  6. कथा साहित्य
  7. आयुर्वेद
  8. वैज्ञानिक साहित्‍य
  9. पौराणिक साहित्य
  10. उपांग(दर्शन)

(1) वेदांग

वेदों के अध्ययन हेतु सहायक ग्रंथ वेदांग कहलाते हैं। वेदांगों की संख्या छह है—

  1. शिक्षा – उच्चारण और ध्वनि का ज्ञान
  2. कल्प – यज्ञों/संस्कारों की विधि
  3. व्याकरण – भाषा के नियम (पाणिनि का व्याकरण सर्वश्रेष्ठ)
  4. ज्योतिष – ग्रह, नक्षत्र, समय-निर्धारण
  5. छन्दस् – छंद और मात्राएँ
  6. निरुक्त – कठिन वैदिक शब्दों का अर्थ

ये ग्रंथ वैदिक परंपरा से सीधे जुड़े हैं, किन्तु इनका स्वरूप लौकिक संस्कृत का माना जाता है।

वेदांगों को वैदिक ज्ञान-परंपरा को समझने और उसके अनुरूप अनुष्ठानों को सही प्रकार से संपन्न करने हेतु विकसित सहायक शास्त्र माना जाता है। ऋषियों ने इन छह विद्याओं को वेद का “अंग” कहा है, क्योंकि जैसे शरीर अंगों के बिना अपूर्ण होता है, वैसे ही वेद भी इन सहायक विद्याओं के बिना पूर्णतः बोधगम्य नहीं होते। लौकिक संस्कृत साहित्य के गठन में भी वेदांगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि उनका रूप और भाषिक संरचना वैदिक से अधिक लौकिक संस्कृत के निकट मानी जाती है।

वेदांगों का मुख्य उद्देश्य वेदों के अर्थ, उच्चारण, प्रयोग, समय-निर्धारण तथा छंद-विन्यास को स्पष्ट करना है। नीचे उनके स्वरूप और उपयोग को संक्षेप में समझा जा सकता है—

(I) शिक्षा वेदांग : परिचय एवं स्वर–विज्ञान की वैदिक परंपरा

वेदों की शुद्ध रक्षा तथा मंत्र-पाठ की प्राचीन परंपरा को बनाए रखने के लिए भारतीय ऋषियों ने जिन सहायक ग्रंथों की रचना की, उनमें ‘शिक्षा वेदांग’ का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे वेदों का स्वर-विज्ञान भी कहा जाता है, क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य वेदमंत्रों का उच्चारण, स्वर-विन्यास, वर्णों की शुद्धता तथा पाठ-प्रणाली को नियोजित करना है।
वेदों की दीर्घकालीन मौखिक परंपरा को सुरक्षित रखने में शिक्षा वेदांग की भूमिका अत्यंत केंद्रीय रही है। वैदिक सभ्यता में यह विश्वास था कि मंत्र का अर्थ तभी प्रभावी होता है जब उसका उच्चारण पूर्णतः शुद्ध हो। इसी कारण शिक्षा वेदांग में स्वर-वर्णों से लेकर पाठक के गुण-दोष तक सभी पहलुओं का अत्यंत विस्तार से विवेचन मिलता है।

शिक्षा वेदांग : स्वर और वर्ण-विज्ञान का आधार

शिक्षा वेदांग में वर्णों के उच्चारण, उनके स्थान, प्रयत्न और श्वास-चाल से संबंधित विस्तृत नियम निर्धारित किए गए हैं।
इस वेदांग में मुख्यतः निम्नलिखित विषयों का अध्ययन होता है—

  • स्वर (उच्चार स्वर–स्वर-विन्यास)
  • वर्णों के उच्चारण-स्थान एवं प्रयत्न
  • मंत्र-पाठ की विधि
  • स्वर, मात्रा, गुण, वृद्धि
  • शुद्ध उच्चारण की अनिवार्यता
  • पाठक के लिए आवश्यक शास्त्रीय नियम

वेद मंत्रों के स्वर-विधान को बिना परिवर्तन बनाए रखने हेतु शिक्षा वेदांग का उद्भव हुआ। धीरे-धीरे जब लोकभाषा और वैदिक भाषा में दूरी बढ़ने लगी, तब मंत्रों के स्वर-रूप को सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक हो गया। यही कारण है कि यह वेदांग वैदिक अध्ययन का सबसे प्राचीन और मूलभूत आधार माना जाता है।

शिक्षा वेदांग की तीन प्रमुख रचनात्मक धाराएँ

परंपरा में शिक्षा वेदांग का साहित्य मुख्यतः तीन स्वरूपों में मिलता है—

(क) प्रातिशाख्य ग्रंथ

(ख) शिक्षा-ग्रंथ

(ग) शिक्षा-सूत्र

ये तीनों मिलकर वैदिक मंत्र-पाठ की पूर्ण संरचना प्रदान करते हैं। नीचे इनके स्वरूप और महत्त्व का क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत है।

(क) प्रातिशाख्य ग्रंथ : वैदिक ध्वनि-विज्ञान का मूल रूप

प्रातिशाख्य ग्रंथ शिक्षा वेदांग की सर्वाधिक प्राचीन श्रेणी माने जाते हैं। “शाखा” शब्द का अर्थ है — किसी वेद की विशिष्ट परंपरा। अतः प्रातिशाख्य वे ग्रंथ हैं जो वेद की किसी विशेष शाखा में प्रचलित पाठ-पद्धति, ध्वनि-विन्यास और वर्ण-विचार का विस्तारपूर्वक निरूपण करते हैं।

समय के साथ बोलचाल की भाषा बदलती गई और वैदिक मंत्रों की स्वर-रचना को संरक्षित करने की आवश्यकता और भी बढ़ गई। इसी आवश्यकता के कारण—

  • मंत्रों का संधिरहित रूप (पद-पाठ) तैयार किया गया,
  • संहिता-पाठ से पद-पाठ तक और
  • पद-पाठ से संहिता-पाठ तक पहुँचने के नियम बनाए गए।

इन सभी का समुचित विवेचन प्रातिशाख्य ग्रंथों में मिलता है।

प्रमुख प्रातिशाख्य ग्रंथ

यद्यपि वेदों की कुल 129 शाखाएँ मानी जाती हैं, परन्तु वर्तमान में केवल कुछ प्रातिशाख्य ही उपलब्ध हैं—

  • ऋक् प्रातिशाख्य — आचार्य शौनक (ऋग्वेद)
  • वाजसनेयि प्रातिशाख्य — कात्यायन (शुक्ल यजुर्वेद)
  • तैत्तिरीय प्रातिशाख्य — तैत्तिरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद)
  • पुष्प-सूत्र प्रातिशाख्य / ऋक्तन्त्र प्रातिशाख्य — शाकटायन / औदब्रजि (सामवेद)
  • चतुरध्यायिका — आचार्य शौनक (अथर्ववेद)
  • अथर्व प्रातिशाख्य / अथर्व प्रातिशाख्य सूत्र — अथर्ववेद

प्रातिशाख्यों की विशेषताएँ

इन ग्रंथों में—

  • उच्चारण के सूक्ष्म नियम
  • स्वर और accent की व्यवस्था
  • संधि-विधान
  • मात्रा-परिवर्तन
  • छन्दानुसार दीर्घ-ह्रस्व की व्यवस्था
  • पदपाठ-संहितापाठ रूपांतरण के नियम

का अत्यंत वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादन किया गया है।

यद्यपि कुछ आचार्यों ने प्रातिशाख्य को व्याकरण के अंतर्गत माना है, परंतु वस्तुतः यह शिक्षा और व्याकरण — दोनों का समन्वित रूप है। वैदिक ध्वनि-विज्ञान का यह सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक साहित्य है।

(ख) शिक्षा-ग्रंथ : उच्चारण-विद्या का व्यवस्थित विस्तार

प्रातिशाख्यों के आधार पर समय के साथ अनेक शिक्षा-ग्रंथों का निर्माण हुआ। ये ग्रंथ पद्य या कारिका शैली में रचे गए हैं और इनमें उच्चारण-शास्त्र से संबंधित विस्तृत सूत्र, नियम और स्पष्टीकरण मिलते हैं।

उपलब्ध प्रमुख शिक्षा-ग्रंथ

वर्तमान में लगभग 11 शिक्षा-ग्रंथ उपलब्ध हैं—

  • पाणिनीय शिक्षा
  • याज्ञवल्क्य शिक्षा
  • वाशिष्ठी शिक्षा
  • कात्यायनी
  • पाराशरी
  • माण्डव्यी
  • अमोघानन्दिनी
  • माध्यन्दिनी
  • केशवी
  • नारदीया
  • माण्डूकी शिक्षा

शिक्षा-ग्रंथों के मुख्य विषय

इन ग्रंथों में—

  • शुद्ध उच्चारण का महत्व
  • स्वर-वर्णों के उच्चारण-नियम
  • पाठक के लिए आवश्यक गुण
  • उच्चारण में होने वाले दोष
  • वैदिक पाठ की शास्त्रीय मर्यादा

जैसे विषयों का अत्यंत विस्तार में वर्णन मिलता है। विशेषतः ‘पाणिनीय शिक्षा’ आज भी भारत में वैदिक उच्चारण के लिए सबसे अधिक प्रामाणिक मानी जाती है।

(ग) शिक्षा-सूत्र : वर्णों के स्थान और प्रयत्न का विश्लेषण

वैदिक उच्चारण-शास्त्र के सबसे प्राचीन स्वरूपों में शिक्षा-सूत्र प्रमुख हैं।
आपिशली, पाणिनि और चन्द्रगोमी जैसे आचार्यों के शिक्षा-सूत्र उपलब्ध हैं। इन सूक्ष्म सूत्रों में—

  • वर्णों के उत्पत्ति-स्थान
  • उच्चारण में प्रयत्न
  • वायु-संचार
  • स्वर-परिवर्तन
  • ध्वनि-उत्पत्ति की प्रक्रिया

का वैज्ञानिक रूप से निरूपण किया गया है।

यह तथ्य उल्लेखनीय है कि भारतीय ऋषियों ने भाषाविज्ञान का इतना सूक्ष्म अध्ययन उस काल में किया था जब विश्व के अन्य किसी भाग में ध्वनि-विज्ञान का इतना गहन विश्लेषण उपलब्ध नहीं था। आधुनिक भाषाविज्ञान के इतिहास का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा वेदांग में निहित ध्वनि-विश्लेषण अपने आप में अद्वितीय है।

शिक्षा वेदांग का समग्र महत्त्व

वेदों के मंत्र केवल भाषा के शब्द नहीं बल्कि स्वर-ऊर्जा से सम्पन्न माने जाते थे। अतः उच्चारण में तनिक-सी भी त्रुटि मंत्र के प्रभाव को परिवर्तित कर सकती थी।
इसी कारण—

  • वैदिक परंपरा की निरंतरता
  • स्वर-विन्यास की रक्षा
  • मौखिक परंपरा का संरक्षण
  • शुद्ध-पाठ की व्यवस्था

शिक्षा वेदांग के माध्यम से सुनिश्चित की गई।
आज भी भारत में वैदिक अनुष्ठानों, यज्ञों, वेद-अध्ययन और संस्कृत के ध्वनिविज्ञान को समझने के लिए इस वेदांग का विशेष अध्ययन किया जाता है।

(II) कल्प वेदांग : यज्ञ-विधान का आधार

कल्प वेदांग वेदों में वर्णित मंत्रों, सूक्तों और ब्रह्मवाक्यों के व्यावहारिक प्रयोग का मार्गदर्शक है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि कौन-सा मंत्र किस प्रकार के अनुष्ठान, यज्ञ या संस्कार में उपयोग किया जाना चाहिए। इस प्रकार यह वेद-निर्देशित कर्मकांडों की विधि और शुचिता सुनिश्चित करता है।

कल्प शास्त्र की तीन प्रमुख शाखाएँ मानी जाती हैं—

  • श्रौतसूत्र – श्रुतियों के अनुसार सम्पन्न होने वाले अग्निहोत्र, सोमयाग जैसे महायज्ञों का विधान।
  • गृह्यसूत्र – विवाह, उपनयन, श्राद्ध आदि गृहस्थ जीवन से जुड़े संस्कारों के नियम।
  • धर्मसूत्र – सामाजिक आचरण, कर्तव्यों और नैतिक दिशानिर्देशों का विवेचन।

इन सभी ग्रंथों का सामूहिक उद्देश्य वेद-प्रतिपादित कर्मों की सुसंगत और शुद्ध परंपरा को बनाए रखना है। इसीलिए कल्प को “यज्ञविधि का विज्ञान” कहा गया है।

(III) व्याकरण वेदांग : शब्द-शास्त्र एवं भाषा-शुद्धि

व्याकरण वेदांग संस्कृत भाषा की संरचना, रूप-निर्माण और ध्वनि-व्यवस्था का शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करता है। शब्द कैसे बनते हैं, धातु और प्रत्यय के मेल से किस प्रकार रूप-सिद्धि होती है, तथा स्वरों—उदात्त, अनुदात्त, स्वरित—की स्थिति किस नियम पर आधारित है, इन सबका विशद वर्णन व्याकरण में मिलता है।

वेदों के अर्थ को ठीक प्रकार समझने के लिए भाषा की शुद्ध पहचान अत्यंत आवश्यक है, इसलिए व्याकरण को “वेदों का मुख” कहा गया है। पाणिनि की अष्टाध्यायी को इसी परंपरा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है; यह केवल लौकिक संस्कृत का ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय भाषिक परंपरा का आधार-ग्रंथ है।

(IV) निरुक्त वेदांग : वैदिक शब्दों का अर्थ-विज्ञान

निरुक्त वह शास्त्र है जिसमें वैदिक वाङ्मय में प्रयुक्त शब्दों के सटीक और परंपरागत अर्थ स्पष्ट किए गए हैं। वैदिक भाषा अत्यंत प्राचीन और सांकेतिक है; अनेक शब्दों के अर्थ सामान्य संस्कृत से भिन्न हैं। ऐसे में निरुक्त अर्थ-निर्णय की आधार-विद्या के रूप में कार्य करता है।

कहा गया है कि निरुक्त वेद-पुरुष का कान है, क्योंकि यह वही सुनने और समझने में सहायता करता है जो ऋषियों ने अभिप्रेत किया था। शब्दों के व्युत्पत्ति-आधारित अर्थ, प्रसंगानुसार अर्थ, और वैदिक प्रयोग-विधि का ज्ञान निरुक्त के बिना संभव नहीं है। इसी कारण इसे वेद की “आत्मा” भी कहा गया है।

(V) ज्योतिष वेदांग : काल-निर्णय और ग्रह-नक्षत्र का ज्ञान

वेद-निर्देशित यज्ञ और अनुष्ठान केवल मंत्र-पाठ पर आधारित नहीं होते; उनके सही समय, तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त का निर्धारण भी अत्यंत आवश्यक है। इसी आवश्यकता की पूर्ति ज्योतिष वेदांग करता है। यहाँ ज्योतिष का अर्थ वेदांग-ज्योतिष से है, जो मुख्यतः यज्ञों के काल-निर्णय से सम्बद्ध है।

वेदांग ज्योतिष को वेद-पुरुष का नेत्र कहा गया है, क्योंकि यह विभिन्न यज्ञों एवं कर्मों के लिए अनुकूल समय का बोध कराता है। वैदिक पहेलियों, ऋतु-चक्र, ग्रह-नक्षत्र और काल-गणना की सूक्ष्म जानकारी भी इसी शास्त्र से प्राप्त होती है। यज्ञ-कर्मकाल की शुद्धि इस शास्त्र का प्रमुख उद्देश्य है।

(VI) छन्द वेदांग : मंत्रों की संरचना और लय

वेदों के मंत्र किसी साधारण गद्य या छंदहीन काव्य की तरह नहीं रचे गए; वे एक निश्चित मात्राबद्ध और ध्वनि-विन्यासयुक्त छंद-व्यवस्था पर आधारित हैं। छन्द वेदांग इन छंदों की रचना, नियमों और संरचनात्मक विशेषताओं का विवेचन करता है।

गायत्री, जगती, त्रिष्टुप, उष्णिक आदि वेद-छंदों के स्वरूप को समझने तथा मंत्रों के शुद्ध-पाठ की रक्षा करने के लिए यह विद्या अनिवार्य है। छन्द को वेद-पुरुष के पैर की उपमा दी गई है, क्योंकि यह सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय को अपने समुचित लय और गति में आगे बढ़ाता है। छंदों को मंत्रों का “आवरण” भी कहा गया है, जो उनके अर्थ और प्रभाव दोनों की रक्षा करता है।

(2) रामायण

महार्षि वाल्मीकि कृत रामायण लौकिक संस्कृत के आरंभिक महाकाव्यों में एक है।
यह—

  • 24,000 श्लोकों का
  • 7 कांडों में विभाजित
  • आदर्शों, नीति और धर्म का महाकाव्य है।

इसमें लौकिक संस्कृत का सहज और प्रवाहमय रूप मिलता है।

लौकिक संस्कृत साहित्य की प्रारम्भिक और अत्यंत महत्वपूर्ण कृतियों में महार्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का विशेष स्थान है। इसे संस्कृत का पहला महाकाव्य माना जाता है, और इसी कारण वाल्मीकि को “आदिकवि” तथा उनकी रचना को “आदिकाव्य” कहा जाता है। यह ग्रंथ केवल कथा-साहित्य नहीं, बल्कि आदर्श जीवन, नीति, धर्म और मानवीय मूल्यों का मर्मभेदी दार्शनिक आख्यान भी है।

रामायण का स्वरूप और संरचना

रामायण पारंपरिक रूप से चतुर्विंशति सहस्र अर्थात लगभग 24,000 श्लोकों का काव्य माना गया है। आधुनिक पांडुलिपियों में श्लोक संख्या लगभग 23,440 पाई जाती है, इसलिए इसे चतुर्विंशति संहिता भी कहा जाता है। ग्रंथ का प्रस्तुत रूप सात कांडों में विभाजित है—

  • बालकाण्ड – राम के जन्म, शिक्षा और सीता-स्वयंवर संबंधी प्रसंग
  • अयोध्याकाण्ड – राम के वनगमन और अयोध्या की घटनाओं का वर्णन
  • अरण्यकाण्ड – वनवास, ऋषि-आश्रमों और सीता-हरण का विवरण
  • किष्किन्धाकाण्ड – सुग्रीव-मैत्री और वानर सहयोग
  • सुन्दरकाण्ड – हनुमान की लंका-यात्रा, साहस और भक्ति
  • लङ्काकाण्ड – रावण-वध और धर्म की विजय
  • उत्तरकाण्ड – उत्तरकथाएँ, राज्याभिषेक और अंतिम घटनाएँ

लौकिक संस्कृत का प्रांजल रूप

रामायण में प्रयुक्त भाषा उस काल की लौकिक संस्कृत का अत्यंत सरल, सरस और प्रवाहपूर्ण रूप प्रस्तुत करती है। यद्यपि कथानक वैदिक परंपरा से प्रेरित है, किंतु भाषा में स्पष्ट रूप से परिपक्व, व्यवस्थित और शुद्ध रूप से विकसित संस्कृत दिखाई देती है, जिसने आगे आने वाले महाकाव्य एवं काव्य-परंपरा को आधार प्रदान किया।

(3) महाभारत

महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है।

  • 18 पर्व।
  • लगभग 1 लाख श्लोक।
  • गीता इसी का अंश है।

इसके भाषा-रूप में वैदिक और लौकिक संस्कृत दोनों के मिश्रित स्वरूप दिखते हैं।

संस्कृत साहित्य की स्मृति परंपरा में महाभारत सबसे विस्तृत और प्रभावशाली महाकाव्य माना जाता है। इसके संकलन की प्रक्रिया लम्बे समय तक चलती रही, और विद्वानों के अनुसार इसका अंतिम रूप लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसा के बीच स्थिर हुआ। इस ग्रंथ के कुछ अत्यंत प्राचीन अंश लगभग 400 ईसा पूर्व के माने जाते हैं, जबकि इससे जुड़े मूल ऐतिहासिक प्रसंगों की पृष्ठभूमि ईसा पूर्व 9वीं–8वीं शताब्दी तक जाती है।

नामकरण और परंपरा

यह महाकाव्य प्रारंभ में “जय”, उसके बाद “भारत”, और अंततः “महाभारत” नाम से विख्यात हुआ। जय नाम धर्म की अधर्म पर विजय का द्योतक है, जबकि भारत नाम इसे भरतवंश की वंशावली और परंपरा से जोड़ता है। एक प्रसिद्ध आख्यान के अनुसार, जब देवताओं ने तराजू के एक पलड़े में चारों वेद रखे और दूसरे में इस काव्य को, तो “भारत” का पलड़ा भारी निकला—इस महानता के कारण इसे “महाभारत” कहा गया।

संरचना और परिमाण

वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत में लगभग एक लाख श्लोक हैं, इसलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहा जाता है। यह विश्व के सबसे बड़े काव्यों में से एक माना जाता है और भारतीय सांस्कृतिक चेतना का दिग्दर्शक ग्रंथ है।

ज्ञान–परंपरा का विश्वकोश

महाभारत केवल कुरुक्षेत्र युद्ध का वर्णन मात्र नहीं है, बल्कि यह भारतीय ज्ञान–परंपरा का एक व्यापक विश्वकोश है। इसमें—

  • वेदों और उपनिषदों में निहित दार्शनिक सूत्र
  • धर्म और नीति संबंधी विवेचन
  • न्याय, शिक्षा और राजनीति
  • चिकित्सा, आयुर्वेद और युद्धनीति
  • योगशास्त्र, अर्थशास्त्र और खगोलविद्या
  • वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र और कामशास्त्र

जैसे अनेक विषयों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस प्रकार महाभारत भारतीय सभ्यता के बौद्धिक, दार्शनिक और नैतिक विकास का एक व्यापक दर्पण है।

(4) नाट्य-साहित्य

भारत में नाट्यशास्त्र का आधार भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ है।
बाद में भवभूति, विशाखदत्त, मृच्छकटिकम् के लेखक शूद्रक, तथा कालिदास आदि महान नाटककार हुए।

लौकिक संस्कृत में भाषा का सबसे कलात्मक और सौंदर्यपूर्ण रूप नाटकों में दिखाई देता है।

लौकिक संस्कृत साहित्य की प्रमुख विधाओं में नाट्य–साहित्य का विशेष स्थान है। नाट्य शब्द संस्कृत धातु ‘नट्’ से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ नृत्य, अभिनय या किसी भूमिका का निर्वाह करना होता है। भारतीय साहित्य–परंपरा में काव्य को जहाँ कलात्मक अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ रूप कहा गया है, वहीं नाटक को उसका उत्कृष्टतम रूप माना गया है, क्योंकि इसमें काव्य, अभिनय, संगीत, नृत्य और दृश्य–शिल्प सभी कलाएँ एक साथ संगठित रूप में अभिव्यक्त होती हैं।

भारतीय नाट्य–परंपरा और नाट्यशास्त्र

संस्कृत नाट्य कला का सबसे प्राचीन और विश्वसनीय आधार आचार्य भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ है। यह ग्रंथ केवल नाटक की संरचना या अभिनय–विधि तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें संगीत, नृत्य, वेश–विन्यास, रंगमंच–विधान, रस–सिद्धांत तथा ललित कलाओं का अत्यंत व्यापक विवेचन मिलता है। इसीलिए नाट्यशास्त्र को भारतीय नाट्यविद्या का “मूलग्रंथ” कहा जाता है। भरतमुनि ने नाटक को “पंचम वेद” का दर्जा भी दिया है—अर्थात वह शास्त्र जिसमें ज्ञान, कला, कौशल और लोकानुभव का समन्वय दिखाई देता है।

नाट्य–परंपरा के प्रारम्भिक संकेत

वैदिक साहित्य के बाद नाटक के प्रारंभिक स्वरूप के संकेत हमें रामायण और महाभारत—दोनों ग्रंथों में प्राप्त होते हैं।

  • महाभारत में रामायण नाटक और कौबेर रंगाभिसार जैसे नाटकों का उल्लेख मिलता है।
  • विराट पर्व में रंगशाला, अभिनय और नटों की गतिविधियों का वर्णन किया गया है।
  • रामायण में भी ‘नट’, ‘नाटक’, ‘रंग’ और नर्तकों से संबंधित उल्लेख कई स्थलों पर प्राप्त होते हैं।

पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में नाटक–परंपरा के अस्तित्व की ओर संकेत करते हुए स्पष्ट किया है कि उनके समय तक अभिनय और नाटकीय प्रस्तुतियाँ विद्यमान थीं और समाज में लोकप्रिय भी थीं।

प्राचीन भारत में नाट्य पेशे और सामाजिक संदर्भ

कौटिल्य के अर्थशास्त्र (चतुर्थ शताब्दी ई.पू.) से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय नगरों में नट, नर्तक, वादक, गायक, प्लवक, कुशीलव, चारण आदि नाट्य–कला के माध्यम से जीविकोपार्जन करते थे। इससे पता चलता है कि उस काल तक नाटक एक संगठित और व्यवस्थित कला–व्यवसाय के रूप में विकसित हो चुका था।

बौद्ध साहित्य, विशेषकर विनयपिटक के चुल्लवग्ग में भी नाटक देखने की प्रवृत्ति का उल्लेख मिलता है। एक प्रसंग में अभिनय देखने गए दो भिक्षुओं—अश्वजित और पुनर्वसु—को अनुशासन–भंग के कारण विहार से निष्कासित कर दिया गया। यह घटना दर्शाती है कि उस समय नाट्य–कला अत्यंत लोकप्रिय और व्यापक थी।

पतंजलि और रस–सिद्धांत

पतंजलि ने अपने महाभाष्य में “कंसवध” और “बलिबंध” नामक दो नाटकों का उल्लेख किया है। साथ ही “रसिको नटः” जैसे प्रयोग यह सिद्ध करते हैं कि पतंजलि के समय तक रस–सिद्धांत का ज्ञान अत्यंत विकसित रूप में समाज में प्रचलित था। इससे यह स्पष्ट होता है कि नाट्य–कला केवल मनोरंजन का साधन नहीं थी, बल्कि यह भावनाओं, अनुभूतियों और सौंदर्य–बोध का गहन माध्यम बन चुकी थी।

(5) काव्य और महाकाव्य

लौकिक संस्कृत में काव्य-परंपरा का विकास सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा।

इनमें प्रमुख हैं—

  • कालिदास – रघुवंश, कुमारसंभव
  • बाणभट्ट – हर्षचरित, कादंबरी
  • माघ, श्रीहर्ष, जयदेव, भारवि

इन रचनाओं में अनुप्रास, रूपक, उपमा, अर्थालंकारों का अद्भुत प्रयोग मिलता है।

प्राचीन भारत में पद्य-परंपरा और स्मृति-आधारित ज्ञान-संरक्षण

छापाखाने के आविष्कार से पूर्व भारत में दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां तैयार करना सरल नहीं था। ऐसे समय में ज्ञान को सुरक्षित रखने का सबसे विश्वसनीय माध्यम था—सुगम रूप में याद हो सकने वाली पद्यात्मक रचना। इसीलिए राजनीति, आयुर्वेद, विज्ञान और दर्शन जैसे विविध विषयों को भी पद्यबद्ध किया जाता था। भारतीय साहित्य की यह काव्यपरंपरा अत्यंत प्राचीन है, जिसका श्रेष्ठतम उदाहरण ऋग्वेद है। ऋग्वेद के मंत्र प्रकृति, मानवीय भावनाओं तथा जीवन के विभिन्न पक्षों का छंदात्मक और सौंदर्यमय निरूपण करते हैं।

काव्य-परंपरा के प्रारंभिक सिद्धांतकार

भारतीय काव्यशास्त्र के आरंभिक स्वरूप को समझने के लिए आचार्य मम्मट द्वारा रचित काव्यप्रकाश अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस ग्रंथ में मम्मटाचार्य ने मयूरभट्ट, वामन, भामह, विश्वनाथ और कुंतक जैसे अनेक आचार्यों का उल्लेख किया है, जिन्होंने काव्य-विमर्श में महत्वपूर्ण योगदान दिया। परंतु इनमें से किसी को भी “काव्य का जनक” घोषित नहीं किया गया है। इसलिए काव्य के मूल प्रवर्तक के विषय में कोई सर्वमान्य निष्कर्ष नहीं मिलता। फिर भी, काव्यपरंपरा के मूल आदर्श और उसके प्रारंभिक सिद्धांत भरतमुनि की परंपरा से आरंभ माने जाते हैं, जिनका नाट्यशास्त्र भारतीय काव्य और ललित कलाओं का आधारग्रंथ माना जाता है।

(6) कथा साहित्य

भारतीय साहित्यिक परंपरा में कथा-साहित्य का विकास अत्यंत प्राचीन और बहुआयामी रहा है। मानव सभ्यता के प्रारंभिक दौर में जब ज्ञान के संरक्षण के लिए मौखिक परंपरा ही मुख्य साधन थी, तब कहानियाँ न केवल मनोरंजन का माध्यम थीं बल्कि समाज के नैतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक निर्माण की आधारशिला भी। संस्कृत भाषा में रचित कथाओं ने इस धरोहर को विशेष समृद्धि प्रदान की। वेदों और उपनिषदों में निहित सूक्तिपूर्ण प्रसंगों से लेकर पुराणों, उपदेशमूलक ग्रंथों और रूपक-प्रधान आख्यानों तक, संस्कृत कथा-परंपरा ने युगों–युगों तक भारतीय विचारधारा को दिशा दी है।

इसी परंपरा ने आगे चलकर पंचतंत्र, हितोपदेश और बृहत्कथा जैसे अमर ग्रंथों को जन्म दिया, जिनके प्रभाव की गूँज भारत की सीमाओं से बहुत दूर तक सुनाई देती है। संस्कृत कथाओं की यही वैश्विक यात्रा भारतीय साहित्य को विश्वसाहित्य का अभिन्न अंग बनाती है।

संस्कृत कथा-साहित्य की परंपरा

संस्कृत में गद्य–पद्य रूप में रचित कथाओं की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। उपलब्ध ग्रंथों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि संस्कृत साहित्य में तीन प्रकार की कथा-शैलियाँ विकसित हुईं—

  1. कल्पनालोक पर आधारित कथाएँ (Fairy Tales)
  2. पशु-पक्षी परक नैतिक कथाएँ (Fables)
  3. उपदेशप्रधान शिक्षात्मक कथाएँ (Didactic Tales)

इन तीनों वर्गों ने भारतीय समाज के मनोरंजन और नैतिक निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कथाओं का वैदिक उद्गम

संस्कृत कथा-परंपरा की नींव वेदों में निहित है। ऋग्वेद के कई मंत्र ऐसे हैं जिनमें प्राचीन आख्यानों की झलक मिलती है। बाद के आचार्यों ने इन कथाओं को व्यवस्थित करने का कार्य किया—

  • शौनक ने बृहद्देवता में,
  • कात्यायन सर्वानुक्रमणी की वेदार्थदीपिका,
  • यास्क के निरुक्त,
  • सायण के वेदभाष्य,
  • तथा नीति-मंजरी (15वीं शती के अंत) में स्याद्विवेद ने —

इन सबने वेदों में निहित कथा-तत्वों को विस्तार दिया। आगे चलकर यही कथाएँ पुराणों में और फिर लौकिक संस्कृत साहित्य में लोकप्रिय कथा-रूपों में परिवर्तित हो गईं।

संस्कृत कथाग्रंथों का विशाल वैभव (प्रमुख संस्कृत कथाग्रंथ)

भारतीय कथा-साहित्य के अनेक ग्रंथ शताब्दियों से पाठकों द्वारा सराहे जाते रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं—

  • पंचतंत्र
  • हितोपदेश
  • बृहत्कथा
  • वेतालपचीसी / वेताल पंचविंशति
  • सिंहासन बत्तीस / सिंहासन द्वात्रिंशिका / विक्रमचरित
  • शुकसप्तति
  • भरटक द्वात्रिंशिका
  • कथारत्नाकर

विशेषतः पंचतंत्र ने भारतीय साहित्यिक परंपरा को विश्वपटल पर प्रतिष्ठा दिलाई। इन कथाओं ने केवल भारतीय जनमानस का मनोरंजन और मार्गदर्शन नहीं किया, बल्कि विश्वसाहित्य के विकास में भी अप्रतिम योगदान दिया।

पंचतंत्र का वैश्विक यात्रा-पथ

भारतीय कथा-साहित्य की अंतरराष्ट्रीय पहचान में पंचतंत्र की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। फारस के सम्राट खुसरों नौशेरवाँ (531–579 ई.) के शासनकाल में 533 ई. के आसपास इसका पहला विदेशी अनुवाद पहलवी भाषा में किया गया, जिसे विद्वान हकीम बुरजोई ने संपन्न किया। शृगालबंधु—करटक और दमनक—के नाम पर यह संस्करण “कलीलाह व दिमनाह” के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

इसके बाद इस ग्रंथ की लोकप्रियता पश्चिम और मध्य-पूर्व तक फैल गई—

  • 560 ई. में “बुद” नामक एक ईसाई विद्वान ने पहलवी संस्करण को सीरियाई भाषा में रूपांतरित किया।
  • 8वीं शताब्दी में सीरियाई संस्करण से इसका अरबी अनुवाद अब्दुल्ला बिन अल-मुकफ़्फ़ा ने किया, जो अरबी साहित्य की अमूल्य निधियों में सम्मिलित हुआ।
  • अरबी संस्करण के आधार पर आगे चलकर लैटिन, ग्रीक, स्पेनिश, इतालवी, जर्मन और अंग्रेजी सहित यूरोप की कई भाषाओं में अनुवाद किए गए।

16वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते पंचतंत्र की कथाएँ यूरोप के अधिकांश देशों में जानी–पहचानी बन चुकी थीं, जो इसके सार्वकालिकता, सार्वभौमिक लोकप्रियता और वैश्विक प्रभाव का प्रमाण है।

(7) आयुर्वेद और चिकित्सा-ग्रंथ

भारतीय ज्ञान–परंपरा में आयुर्वेद केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि जीवन को स्वस्थ और संतुलित रखने का संपूर्ण विज्ञान माना गया है। इसकी जड़ें वैदिक युग तक पहुँचती हैं, जहाँ ऋग्वेद और अथर्ववेद में स्वास्थ्य, औषधि और उपचार संबंधी अनेक मंत्र बिखरे हुए मिलते हैं। किंतु आयुर्वेद का व्यवस्थित, वैज्ञानिक और पूर्ण रूप हमें बाद के काल में मिलता है, जब इसके प्रमुख ग्रंथ लौकिक संस्कृत में रचे गए। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांगहृदयम् जैसे ग्रंथ न केवल आयुर्वेद के आधारस्तंभ हैं, बल्कि आज के आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान में भी अत्यंत मूल्यवान संदर्भ माने जाते हैं।

इन ग्रंथों ने आयुर्वेद को वैज्ञानिक रूप से सुव्यवस्थित किया, उसके सिद्धांतों, चिकित्सा–विधियों, शल्य–कर्मों, औषध–निर्माण, रोग–निदान तथा शरीर–रचना के ज्ञान को संगठित रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रकार आयुर्वेद एक प्राचीन परंपरा होने के साथ-साथ एक विकसित और व्यावहारिक चिकित्सा-शास्त्र भी है, जिसने सहस्राब्दियों से मानव स्वास्थ्य के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

आयुर्वेद की उत्पत्ति वैदिक युग से मानी जाती है, लेकिन उसके व्यवस्थित ग्रंथ लौकिक संस्कृत में लिखे गए—

  • चरक संहिता
  • सुश्रुत संहिता
  • अष्टांगह्रदयम्

ये ग्रंथ आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान में भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

आयुर्वेद : प्राचीन भारतीय चिकित्सा परंपरा

भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित आयुर्वेद न केवल एक उपचार-पद्धति है, बल्कि जीवन को समग्र रूप से समझने का विज्ञान भी है। भारत, नेपाल और श्रीलंका में आज भी बड़ी आबादी इसका प्रयोग करती है, जिससे इसकी सामाजिक स्वीकृति और उपयोगिता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में आयुर्वेद का स्थान विशेष है, क्योंकि इसकी अवधारणाएँ वैदिक युग तक फैली हुई मिलती हैं।

आयुर्वेद की प्राचीनता और वैदिक आधार

ऋग्वेद—जिसका रचनाकाल विद्वानों ने ईसा से हजारों वर्ष पूर्व माना है—में स्वास्थ्य, औषधियों और उपचार से जुड़े अनेक सूत्र मूलरूप में विद्यमान हैं। चरक, सुश्रुत और काश्यप जैसे प्रामाणिक आचार्यों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा है, जो इसकी वैदिक वंशपरंपरा और प्राचीन स्वरूप का स्पष्ट प्रमाण है।

आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य

आयुर्वेद का विकास किसी एक व्यक्ति का कार्य नहीं, बल्कि लम्बी परंपरा का परिणाम है। अश्विनीकुमारों को इसका आदि-प्रवर्तक माना जाता है। इसके बाद धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), च्यवन, अगस्त्य, अत्रि और उनके प्रमुख शिष्य—अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत—इत्यादि ने इस परंपरा को समृद्ध किया। चरक और सुश्रुत ने इसे वैज्ञानिकता एवं व्यवस्थित रूप देकर चिकित्सा-विज्ञान की दिशा निर्धारित की।

अष्टांग आयुर्वेद : चिकित्सा के आठ विभाग

परंपरा में वर्णित है कि ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में विभाजित किया, जिन्हें ‘तन्त्र’ कहा गया। आधुनिक चिकित्सा के अनुरूप इनके स्वरूप को इस प्रकार समझा जा सकता है—

क्रमतन्त्रआधुनिक चिकित्सा में समतुल्य
1शल्यतन्त्रशल्यचिकित्सा (सर्जरी)
2शालाक्यतन्त्रनेत्र–कर्ण–नास–कंठ संबंधी चिकित्सा (आँख, कान, नाक, गला)
3कायचिकित्सासामान्य औषध-उपचार
4भूतविद्या तंत्रमनोचिकित्सा
5कौमारभृत्यशिशु रोग विज्ञान
6अगदतन्त्रविषविज्ञान
7रसायनतन्त्रजराविद्या और जराचिकित्सा (रसायन-विज्ञान)
8वाजीकरणतन्त्रपुरुषत्व-वर्धन एवं प्रजनन विज्ञान

इन्हीं आठ विभागों के कारण आयुर्वेद को “अष्टांग वैद्यक” कहा जाता है।

आयुर्वेद का मूल सिद्धांत : त्रिदोष और त्रिसूत्र

आयुर्वेद शरीर को तीन दोषों—वात, पित्त और कफ—की साम्यावस्था से संतुलित मानता है। इनके असंतुलन से रोग उत्पन्न होते हैं, इसलिए उपचार का उद्देश्य इन्हें पुनः संतुलित करना होता है।
इसके अतिरिक्त, आयुर्वेद अपनी संरचना को त्रिसूत्र या त्रिस्कन्ध पर आधारित मानता है—
हेतु (रोग के कारण), लिंग (रोग के लक्षण) और औषध (उपचार)।

यह त्रिसूत्र चिकित्सा की संपूर्ण प्रक्रिया का आधार है।

(8) वैज्ञानिक और गणितीय साहित्य

भारतीय ज्ञान–परंपरा में वैज्ञानिक साहित्य का विकास अत्यंत प्राचीन और समृद्ध रहा है। वैदिक युग से लेकर लौकिक संस्कृत के काल तक विज्ञान, गणित, ज्योतिष और खगोल–शास्त्र पर असंख्य ग्रंथों की रचना हुई, जिन्होंने न केवल भारतीय बौद्धिक विरासत को आकार दिया, बल्कि वैश्विक वैज्ञानिक चिंतन को भी प्रभावित किया। आर्यभटीय, सूर्य सिद्धांत, बौधायन, कात्यायन और वराहमिहिर जैसे ग्रंथों में ग्रह–गति, शून्य की अवधारणा, बीजगणित, ज्यामिति, निर्माण–सूत्रों और क्षेत्रफलों का अत्यंत सटीक एवं विश्लेषणात्मक वर्णन मिलता है।

इसी वैज्ञानिक दृष्टि और तार्किक पद्धति ने भारतीय साहित्य को मात्र दार्शनिक या धार्मिक अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे ऐसी सुव्यवस्थित वैज्ञानिक शैली प्रदान की, जिसने संहिताओं, निघण्टुओं, तन्त्रयुक्तियों और भाष्यों की समृद्ध परंपरा को जन्म दिया। इस आधारभूमि ने आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष तथा अन्य शास्त्रों को एक विशिष्ट और वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया, जिसकी झलक हमें प्राचीन से लेकर मध्यकालीन संस्कृत साहित्य तक निरंतर दिखाई देती है।

लौकिक संस्कृत में विज्ञान, गणित और खगोल-शास्त्र के अनेक ग्रंथ रचे गए—

  • आर्यभटीय
  • सूर्य सिद्धांत
  • बौधायन
  • कात्यायन
  • वराहमिहिर

इनमें ग्रह-गति, शून्य, बीजगणित, क्षेत्रफलों आदि का विस्तृत व्याख्यान है।

प्राचीन भारत में वैज्ञानिक साहित्य की परंपरा

भारतीय ज्ञान–परंपरा में वैज्ञानिक विषयों पर लेखन केवल आधुनिक युग की देन नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं। गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, स्थापत्य, व्याकरण और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में भारत ने बहुत प्रारंभिक समय से सुव्यवस्थित ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में पूर्ववर्ती रचनाकारों का उल्लेख करने, मूल सूत्रों पर विस्तृत भाष्य लिखने तथा जटिल विषयों को छोटे सूत्रों में व्यवस्थित करने की विशिष्ट परंपरा दिखाई देती है।

वैज्ञानिक लेखन की पद्धतियाँ

भारतीय विद्वानों ने वैज्ञानिक विषयों को प्रभावशाली और स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करने के लिए विशेष लेखन–पद्धतियों का विकास किया। प्राचीन साहित्य में वर्णित तन्त्रयुक्ति, ताच्छील्य, और कल्पना जैसी विधियों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि वैज्ञानिक ग्रंथ तार्किक, संगठित और उच्च गुणवत्ता वाले रहें। इन्हीं पद्धतियों के कारण संहिताएँ, संग्रह-ग्रंथ और निघण्टु जैसे साहित्य एक समान शैली और वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए दिखाई देते हैं।

तर्कशास्त्र और ज्ञान–परंपरा

भारतीय वैज्ञानिक लेखन की दार्शनिक नींव न्यायशास्त्र में देखी जा सकती है। ‘अक्षपाद गौतम’ द्वारा रचित न्यायसूत्र भारतीय तर्कशास्त्र का आधारभूत ग्रंथ माना जाता है। दूसरी शताब्दी ईसा–पूर्व में रचित इस ग्रंथ में ज्ञान की परीक्षा और विचार-विन्यास की पद्धति को पाँच अवयवों—प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन—के रूप में समझाया गया है। ये पाँच अवयव भारतीय वैज्ञानिक और दार्शनिक लेखन को एक तर्कपूर्ण संरचना प्रदान करते हैं।

आयुर्वेद और वैज्ञानिक लेखन

आयुर्वेद के ग्रंथों में भी वैज्ञानिक लेखन की स्पष्ट और सुविचारित पद्धति देखने को मिलती है। चरकसंहिता के विमानस्थान में ‘शास्त्रपरीक्षा’ नाम से उन सभी आवश्यक गुणों—भाषा, विषय का क्रम, विस्तार, तथा प्रस्तुति की विधि—का उल्लेख किया गया है, जिन्हें एक वैज्ञानिक ग्रंथ में अनिवार्य माना गया है। इन गुणों को ‘तन्त्रगुण’ कहा गया है, और भले ही ये निर्देश आयुर्वेद के लिए हों, परंतु वैज्ञानिक दृष्टि से ये सभी शास्त्रों पर लागू होते हैं।

प्रमुख चिकित्सा-ग्रंथ और उनके रचनाकार

भारतीय चिकित्सा विज्ञान का आधार चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और अष्टांगसंग्रह जैसे ग्रंथों पर टिका है। चरकसंहिता संस्कृत में रचित एक महत्वपूर्ण चिकित्सा-ग्रंथ है, जिसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु, लेखक अग्निवेश तथा पुनर्संस्कर्ता चरक माने जाते हैं। सुश्रुतसंहिता शल्यचिकित्सा का आधारभूत ग्रंथ है, और वाग्भट का अष्टांगसंग्रह तथा अष्टांगहृदयम् आयुर्वेदीय सिद्धांतों को सुचारु रूप से प्रस्तुत करते हैं।

चरक, सुश्रुत और वाग्भट—इन तीन आचार्यों को भारतीय चिकित्साविज्ञान का त्रिकोण कहा जाता है, और इनके ग्रंथ आज भी आयुर्वेद के मानक साहित्य के रूप में पढ़े और मान्य किए जाते हैं।

(9) पौराणिक साहित्य

पुराणों की रचना मुख्यतः लौकिक संस्कृत में हुई—

  • 18 महापुराण
  • 18 उपपुराण

इनमें सृष्टि-विज्ञान, अवतार-विज्ञान, भूगोल, कालगणना, धर्म-नीति आदि विषयों पर विशाल ज्ञान संचित है।

पुराणों की परिभाषा एवं उत्पत्ति

भारतीय साहित्य–परंपरा में पुराण एक विशिष्ट श्रेणी के ग्रंथ हैं, जिनका उद्देश्य केवल धार्मिक आख्यान प्रस्तुत करना ही नहीं, बल्कि अतीत के सांस्कृतिक–ऐतिहासिक अनुभवों को संरक्षित करना भी है। ‘पुराण’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘पुरा’ (अर्थात् पुराना/प्राचीन) और ‘अण’ (अर्थात् कथन) से मानी जाती है, जिसका तात्पर्य है—प्राचीन घटनाओं, परंपराओं एवं जीवन–वृत्तों का वर्णन। संस्कृत काव्य परंपरा में भी इनके इसी गुण का संकेत मिलता है; कालिदास ने रघुवंश में पुराण को पुराने वृत्तांतों का संवाहक कहा है।

संहिताकरण एवं भाषिक स्वरूप

परंपरा के अनुसार वैदिक साहित्य के उपरांत पुराणों का उद्भव हुआ और महर्षि वेदव्यास को इनका संहिताकरणकर्ता माना जाता है। इनकी भाषा मुख्यतः लौकिक संस्कृत है, जो वैदिक संस्कृत की अपेक्षा अधिक सहज, व्यवस्थित और जनाभिमुख मानी जाती है। इस प्रकार पुराण वैदिक ज्ञान और लोक–परंपरा को जोड़ने वाली सेतु–स्वरूप विधा के रूप में विकसित हुए।

पुराणों का वर्गीकरण

पुराण–साहित्य को दो मुख्य भागों में विभाजित किया गया है—

  1. अठारह महापुराण
  2. अठारह उपपुराण

अठारह महापुराण (महापुराणों की सूची)

भारतीय पुराण-साहित्य में अठारह महापुराणों को सबसे प्रामाणिक और व्यापक श्रेणी माना जाता है। इनमें सृष्टि–रचना, देव–अवतार, धर्म–शास्त्र, भूगोल, इतिहास और दार्शनिक सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन मिलता है। परंपरा में मान्य महापुराणों की सूची निम्नलिखित है—

  1. ब्रह्म पुराण
  2. पद्म पुराण
  3. विष्णु पुराण
  4. शिव पुराण
  5. भागवत पुराण
  6. नारद पुराण
  7. मार्कण्डेय पुराण
  8. अग्नि पुराण
  9. भगवति पुराण (भविष्य पुराण)
  10. ब्रह्मवैवर्त पुराण
  11. लिंग पुराण
  12. वराह पुराण
  13. स्कन्द पुराण
  14. वामन पुराण
  15. कूर्म पुराण
  16. मत्स्य पुराण
  17. गरुड़ पुराण
  18. ब्रह्माण्ड पुराण

महापुराणों का स्वरूप एवं विशेषताएँ

महापुराणों की विषयवस्तु अत्यन्त विस्तृत होने के कारण इन्हें भारतीय ज्ञान–परंपरा का विश्वकोश भी कहा जाता है। इनमें—

  • सृष्टि एवं ब्रह्मांड–विज्ञान
  • अवतारों एवं देवताओं की कथाएँ
  • ऋषि वंशावलियाँ एवं राजवंशों का इतिहास
  • धर्म, नीति और जीवन–चर्या के सिद्धांत
  • कथा, उपाख्यान, स्तोत्र और उपासना-विधि
  • भूगोल, खगोल एवं ज्योतिष संबंधी विवरण

जैसे विविध विषय समाहित हैं।

महापुराण केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति, समाज, दर्शन और ऐतिहासिक परंपरा के संवाहक हैं। इन्होंने वेदों की अमूर्त आध्यात्मिक अवधारणाओं को जनसाधारण तक कथाओं, संवादों और प्रसंगों के माध्यम से सुलभ बनाया। इसी कारण ये भारतीय जीवन और आस्था के मूल आधार स्तंभ माने जाते हैं।

महापुराणों की विषयवस्तु एवं महत्त्व

पुराण केवल देवताओं के अवतारों और धार्मिक कथाओं तक सीमित नहीं हैं। इनमें—

  • सृष्टि–तत्त्व और ब्रह्मांड–विज्ञान
  • भूगोल, खगोल और कालगणना
  • राजवंशों और ऋषि–परंपराओं का इतिहास
  • धर्म–नीति और आचरण संबंधी शिक्षाएँ
  • लोकाचार, तीर्थों और पवित्र स्थलों का विवरण

जैसे अनेक विषयों का विशाल भंडार मिलता है। इस विविधतापूर्ण सामग्री के कारण पुराण भारतीय सांस्कृतिक चेतना, वैज्ञानिक दृष्टि, ऐतिहासिक स्मृति और दार्शनिक विमर्श—सभी के महत्वपूर्ण स्रोत माने जाते हैं।

अठारह उपपुराण (उपपुराणों की सूची)

महापुराणों की भाँति उपपुराणों की संख्या भी अठारह मानी गई है। यद्यपि विभिन्न ग्रंथों में इनके नामों में कुछ अंतर दिखाई देता है, फिर भी परंपरा के अनुसार स्वीकृत सूची निम्नलिखित है—

  1. संहिता उपपुराण
  2. विष्णुधर्मोत्तर उपपुराण
  3. स्कन्द उपपुराण
  4. शिवधर्म उपपुराण
  5. कालिका उपपुराण
  6. वामन उपपुराण
  7. नारद उपपुराण
  8. महेश्वर उपपुराण
  9. ब्रह्माण्ड उपपुराण
  10. विष्णु उपपुराण
  11. दक्ष उपपुराण
  12. संकर्षण उपपुराण
  13. कौरव उपपुराण
  14. कपिल उपपुराण
  15. वैष्णव उपपुराण
  16. गणेश उपपुराण
  17. अगस्त्य उपपुराण
  18. रामायण उपपुराण

उपपुराणों की प्रमुख विशेषताएँ

उपपुराण विषय–वस्तु और संरचना में महापुराणों के समान होते हुए भी अपेक्षाकृत संक्षिप्त हैं। इनमें—

  • विशेष देवताओं की उपासना पद्धति,
  • लोकप्रचलित धार्मिक अनुष्ठान,
  • तीर्थ–वर्णन,
  • व्रत–उपवास विधियाँ,
  • सामाजिक आचार–नीति,
  • पुरातन कथाएँ और दार्शनिक विचार

जैसे विषयों का संग्रहीत एवं व्यवस्थित निरूपण मिलता है।

उपपुराणों का महत्त्व

इन ग्रंथों ने भारतीय समाज में धार्मिक मर्यादा, लोकाचार और भक्ति–भाव को जनसाधारण तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महापुराणों की तुलना में इनका स्वरूप अधिक व्यवहारिक, लोकधर्मी और सरल माना जाता है, जिसके कारण उपपुराण भारत की धार्मिक–सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

(10) उपांग और भारतीय दर्शन

वेदांगों के समानांतर विकसित उपांग वैदिक परंपरा के महत्वपूर्ण सहायकीय ग्रंथ माने जाते हैं। इनकी संख्या छह मानी जाती है—प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छंदोभाषा (या प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय और वैशेषिक। वैदिक ज्ञान को व्यवस्थित, व्याख्यायित और तर्कसंगत रूप देने में इन उपांगों की बड़ी भूमिका रही है। यही उपांग आगे चलकर भारतीय दार्शनिक चिंतन की नींव बने और इन्हीं से भारत के प्रसिद्ध “षड्दर्शन” का गठन हुआ।

वैदिक/आस्तिक दर्शन

वेद और उपनिषदों के अध्ययन, मनन और चिंतन के आधार पर जिन छह आचार्यों ने अपने-अपने विचार–प्रणालियों की रचना की, उन्हें सामूहिक रूप से भारतीय षड्दर्शन कहा जाता है। ये रचनाएँ लौकिक संस्कृत में लिखी गईं। ये दर्शन वेद को प्रमाण मानने के कारण आस्तिक दर्शन कहलाते हैं—

  1. सांख्य दर्शन – कपिल
  2. न्याय दर्शन – गौतम
  3. योग दर्शन – पतंजलि
  4. पूर्व मीमांसा – जैमिनि
  5. उत्तर मीमांसा / वेदांत – बादरायण
  6. वैशेषिक दर्शन – कणाद (उलूक)

ये दर्शन विभिन्न दृष्टियों से सत्य, जगत, आत्मा, ज्ञान, कर्म और मोक्ष जैसे गूढ़ विषयों की व्याख्या करते हैं तथा भारतीय तत्त्वचिंतन की आधारभूमि बनाते हैं।

अवैदिक/नास्तिक दर्शन

वहीं दूसरी ओर कुछ दार्शनिक परंपराएँ ऐसी विकसित हुईं, जिन्होंने वेदों को प्रमाण नहीं माना। इन्हें नास्तिक दर्शन कहा जाता है—

  • चार्वाक दर्शन
  • बौद्ध दर्शन
  • जैन दर्शन

वेद–सम्मत और वेद–विरुद्ध इन दो भिन्न परंपराओं ने मिलकर भारतीय दर्शन को व्यापकता और विविधता प्रदान की है।

उपवेद : वेदों से उद्भूत व्यावहारिक ज्ञान–परंपराएँ

वेदों के सैद्धांतिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप के साथ–साथ भारतीय परंपरा में कुछ विशिष्ट विद्याएँ भी विकसित हुईं, जो मानव–जीवन के व्यावहारिक पक्ष को व्यवस्थित करती हैं। इन्हें उपवेद कहा गया है। उपवेद प्रत्येक वेद से संबद्ध विशिष्ट क्षेत्र–ज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं और वैदिक संस्कृति के अनुप्रयोगात्मक आयाम को प्रकट करते हैं। परंपरा में इनकी संख्या चार मानी जाती है—आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद और शिल्पवेद।

1. आयुर्वेद – स्वास्थ्य और चिकित्सा का वैदिक उपवेद

ऋग्वेद से संबद्ध आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा–विज्ञान की प्राचीनतम शाखाओं में से एक है। इसका उद्देश्य मानव–देह, स्वास्थ्य, रोग, औषधि तथा उपचार–विधियों को वैज्ञानिक रूप से समझना है। आयुर्वेद में त्रिदोष सिद्धांत, ऋतुचक्र, पोषण, शल्य–चिकित्सा से लेकर बाल–चिकित्सा और मनोचिकित्सा तक का व्यापक विवरण मिलता है। चरक, सुश्रुत और वाग्भट जैसे आचार्यों ने इसे सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया।

2. धनुर्वेद – सैन्य–विद्या और युद्ध–कौशल

यजुर्वेद का उपवेद माने जाने वाला धनुर्वेद युद्ध की कला, अस्त्र–शस्त्र, शौर्य, रणकौशल एवं सैन्य–नीति का प्राचीन ग्रंथ है। इसमें शारीरिक शक्ति, मानसिक एकाग्रता, रक्षा–रणनीति, सैनिक अनुशासन और विभिन्न शस्त्रों के प्रयोग का वर्णन मिलता है। प्राचीन भारत की युद्ध–प्रणालियाँ और वीर–परंपराएँ उसी ज्ञान–धारा से पोषित हुईं।

3. गंधर्ववेद – संगीत, नृत्य और कलाओं का शास्त्र

सामवेद से संबद्ध गंधर्ववेद भारतीय संगीत–शास्त्र का प्राचीनतम आधार माना जाता है। इसमें स्वर, लय, ताल, राग, नृत्य–रचना, वाद्य–विज्ञान और कलात्मक अभिव्यक्ति के विविध रूपों की व्यवस्थित व्याख्या है। आगे चलकर भरतमुनि का नाट्यशास्त्र और भारतीय संगीत–परंपरा इसी उपवेद के विस्तार के रूप में विकसित हुई।

4. शिल्पवेद – वास्तु, मूर्तिकला और निर्माण–कला

अथर्ववेद का उपवेद शिल्पवेद स्थापत्य–कला, मूर्तिशिल्प, चित्रकला, विशुद्ध वास्तु–विधान तथा लौकिक विज्ञानों से संबंधित तकनीकी ज्ञान का शास्त्र है। मंदिर–निर्माण, नगर–रचना, धातु–कला, आभूषण–निर्माण और विभिन्न हस्तशिल्प परंपराएँ इसी ज्ञान–समूह से प्रेरित हैं।

वैदिक और लौकिक संस्कृत की तुलना

भारतीय भाषिक परंपरा में संस्कृत का विकास दो प्रमुख चरणों—वैदिक और लौकिक संस्कृत—के रूप में सामने आता है। वैदिक संस्कृत मुख्यतः धार्मिक और आध्यात्मिक विधानों की भाषा रही, जबकि लौकिक संस्कृत ने साहित्य, दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा और नाट्य-काव्य जैसे विविध क्षेत्रों में अपनी अभिव्यक्ति को विस्तृत किया। नीचे दोनों रूपों के बीच प्रमुख अंतरों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया गया है।

1. साहित्यिक स्वरूप एवं रचनाओं की प्रकृति

  • वैदिक संस्कृत
    इसका साहित्य चारों वेदों की संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों में निहित है। ये रचनाएँ पूरी तरह धार्मिक अनुष्ठानों, यज्ञ-विधान और आध्यात्मिक चिंतन पर केंद्रित हैं।
  • लौकिक संस्कृत
    इस चरण में भाषा धार्मिक सीमाओं से आगे बढ़कर विविध विधाओं में प्रयुक्त हुई। रामायण, महाभारत, नाटक, काव्य, कथा-साहित्य, आयुर्वेद और वेदांग ग्रन्थ इसी काल की देन हैं।

2. भाषा-रचना एवं व्याकरणिक विशेषताएँ

  • वैदिक संस्कृत में धातु और उपसर्ग स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त हो सकते थे, जबकि लौकिक संस्कृत में उपसर्ग धातु से स्थायी रूप से जुड़े रहते हैं।
  • वैदिक भाषा में सप्तमी एकवचन कुछ प्रसंगों में लुप्त हो जाता है, परंतु लौकिक संस्कृत में यह रूप पूर्ण रूप से सुरक्षित है।
  • वैदिक काल की भाषा में व्याकरणिक रूपों में कुछ असंगतियाँ या स्वतंत्रता मिलती है; किंतु लौकिक संस्कृत में व्याकरण पाणिनि जैसे आचार्यों द्वारा सुव्यवस्थित और बाध्यकारी हो गया।
  • लोट्-लकार जैसे कुछ विशिष्ट धातुरूप वैदिक संस्कृत में विद्यमान हैं, परंतु लौकिक संस्कृत में नहीं मिलते।

3. ध्वनि-व्यवस्था और शब्द-संपदा

  • वैदिक संस्कृत में स्वरों की संख्या अधिक थी—जैसे लृ जैसे स्वर बाद के समय में लुप्त हो गए।
  • अनेक वैदिक शब्द लौकिक संस्कृत में परिवर्तित या नष्ट हो गए। उदाहरण रूप में देवासःदेवः, जनामःजनः
  • भाषा के स्वभाव में भी परिवर्तन हुआ—वैदिक संस्कृत में संगीतात्मकता और उच्चारण की स्वर-प्रधानता देखी जाती है, जबकि लौकिक संस्कृत में उच्चारण अधिक बल-प्रधान और व्यवस्थित हो गया।

4. शब्दार्थों में परिवर्तन

कालांतर में अनेक शब्दों के अर्थ भी परिवर्तित हो गए—

  • पत् (उड़ना) → (गिरना)
  • सह (जीतना) → (सहन करना)
  • असुर (शक्तिशाली देवता वर्ग) → (दैत्य)
  • अराति (कृपण/दरिद्र) → (शत्रु)
  • वध (घातक शस्त्र) → (हत्या)
  • क्षितिः (गृह) → (पृथ्वी)

5. लौकिक संस्कृत में वैज्ञानिक साहित्य का उद्भव

लौकिक संस्कृत का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसी काल में विज्ञान, गणित और खगोल-शास्त्र ने सुविकसित रूप धारण किया। इस दौर के विद्वानों ने गणना-पद्धति, ग्रह-गति, बीजगणित, समय-निर्धारण तथा ज्योतिषीय सिद्धांतों पर अद्भुत कृतियाँ प्रस्तुत कीं।
मुख्य ग्रंथ एवं आचार्य—

  • आर्यभटीय – आर्यभट्ट
  • सूर्य सिद्धांत – प्राचीन खगोल-ग्रंथ
  • बौधायन – ज्यामिति और श्रुतियों से संबंधित सूत्र
  • कात्यायन – वेदांग-निर्माण में योगदान
  • वराहमिहिर – बृहत्संहिता और ज्योतिष ग्रंथ

इन कृतियों ने क्षेत्रफलों, गणितीय सूत्रों, शून्य की अवधारणा, समय-चक्र तथा खगोलीय गणनाओं को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।

6. वेदांगों का महत्व

लौकिक संस्कृत के सुव्यवस्थित भाषा-विकास में छः वेदांगों—शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प—की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। इन्होंने भाषा, मंत्र-पाठ, छंदशास्त्र, व्याकरण और यज्ञ-विधान की परंपरा को स्थिर आकार दिया।

वैदिक और लौकिक संस्कृत : तुलनात्मक सारणी | अंतर

विषयवैदिक संस्कृतलौकिक संस्कृत
मुख्य साहित्यसंहिताएँ, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद; पूर्णतः धार्मिक एवं आध्यात्मिक विषयवेदांग, रामायण, महाभारत, नाटक, काव्य, आयुर्वेद, कथा-साहित्य तथा वैज्ञानिक ग्रंथ
रचनाओं का स्वरूपयज्ञ-विधान, अनुष्ठान, मंत्र-पाठ, दार्शनिक चिंतनलौकिक, ऐतिहासिक, कथात्मक, वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक विषयों का विस्तार
उपसर्ग एवं धातुउपसर्ग धातु से अलग भी प्रयोग हो सकते थे; रूपों में स्वतंत्रताउपसर्ग धातु से स्थायी रूप से जुड़े; स्वतंत्र प्रयोग सीमित
व्याकरणिक व्यवस्थारूपों में कुछ असंगति एवं लचीलेपन के उदाहरणपाणिनि आदि द्वारा व्यवस्थित; नियम-संगति अनिवार्य
कारक-प्रयोगकुछ प्रसंगों में सप्तमी एकवचन का लोपसप्तमी एकवचन का पूर्ण संरक्षण
ध्वनि-तंत्र (स्वर)स्वरों की संख्या अधिक; जैसे लृ स्वर विद्यमानस्वर-परिवर्तन; लृ आदि स्वर लुप्त
शब्द-रूपदेवा‍सः, जनामः आदि रूप प्रयुक्तदेवः, जनः जैसे सरल रूप
लकार-प्रयोगलोट् लकार उपलब्धलोट् लकार का अभाव
भाषिक स्वभावउच्चारण में संगीतात्मकता एवं स्वर-प्रधानताबल-प्रधानता; संगीतात्मकता में कमी
शब्दार्थ परिवर्तनपत् = उड़ना, सह = जीतना, असुर = शक्तिशाली देव वर्ग, अराति = कृपण, वध = घातक शस्त्र, क्षिति = गृहपत् = गिरना, सह = सहना, असुर = दैत्य, अराति = शत्रु, वध = हत्या, क्षिति = पृथ्वी
वैज्ञानिक/गणितीय परंपरावैज्ञानिक साहित्य प्रायः अनुपस्थित; ध्यान धार्मिक विधानों परविज्ञान, गणित और खगोल-शास्त्र का विकास—आर्यभटीय, सूर्य सिद्धांत, बौधायन, कात्यायन, वराहमिहिर आदि के ग्रंथ; शून्य, ग्रह-गति, बीजगणित, क्षेत्रफलों का विस्तार
महत्त्वपूर्ण ग्रंथ-श्रेणीउपनिषदों में वेद-सार; वैदिक ऋचाएँ और अनुष्ठान-केंद्रित साहित्यस्मृतियाँ, इतिहास (रामायण–महाभारत), वैज्ञानिक साहित्य, आयुर्वेद, नाट्य-शास्त्र
वेदांगों की भूमिकावेद के अध्ययन हेतु आधारभूत रूप से विद्यमानशिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प—भाषा एवं ज्ञान परंपरा को व्यवस्थित करने वाले छह प्रमुख वेदांग

इतिहास-ग्रंथ, स्मृतियाँ और भगवद्गीता की स्थान-परंपरा

भारतीय धार्मिक व दार्शनिक धरोहर में इतिहास-ग्रंथों, स्मृतियों और भगवद्गीता का विशेष स्थान है। उपनिषदों में निहित गूढ़ दार्शनिक विचारों को गीता ने सरल और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया है, इसलिए इसे प्रायः “उपनिषदों का सार” कहा जाता है।

इसी प्रकार स्मृति-ग्रंथों ने वैदिक वचनों की व्याख्या करते हुए उन्हें आचरण-परक स्वरूप प्रदान किया, जिससे धर्म, नीति और समाजव्यवस्था से जुड़े सिद्धांत अधिक स्पष्ट रूप में सामने आए।

भारतीय परंपरा में रामायण (महर्षि वाल्मीकि कृत) और महाभारत (वेदव्यास कृत) को “इतिहास” की श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि इनमें राजवंशों, राज्यों, वंशावलियों और उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का वर्णन मिलता है। दूसरी ओर पुराण व्यापक प्राचीन आख्यानों, सृष्टि-विज्ञान, अवतार-कथाओं और लोक-मान्यताओं से जुड़ा विशाल साहित्य है, जो आर्यों के प्राचीन इतिहास और सांस्कृतिक विकास का दर्पण माना जाता है।

वेदों के अध्ययन, उच्चारण, संरक्षण और सही अर्थ-निर्णय के लिए जिन सहायक शास्त्रों की रचना की गई, उन्हें वेदांग कहा जाता है।
अर्थात—
“वेदों को समझने तथा उनके अनुसार आचरण करने के लिए आवश्यक अंग।”

ये वेदांग वेद-स्वाध्याय की वैज्ञानिक पद्धति प्रदान करते हैं और वेदों की भाषा, व्याकरण, छंद, अर्थ, गणना और अनुष्ठानों को विशुद्ध रूप में संरक्षित रखने का कार्य करते हैं। वेदांग कुल छः हैं—

  1. शिक्षा – वेदों के स्वरों, उच्चारण, स्थान, मात्रा और शुद्ध उच्चारण की विधि।
  2. छंद – मंत्रों और सूक्तों के छंद, मात्राएँ एवं लय-संयोजन।
  3. व्याकरण – संस्कृत भाषा के नियम, धातु-रूप, शब्द-रचना (प्रमुख ग्रंथ: पाणिनि व्याकरण)।
  4. निरुक्त – वैदिक शब्दों और मंत्रों के अर्थ एवं व्युत्पत्ति का विज्ञान।
  5. ज्योतिष – यज्ञ-यागादि के लिए शुभ मुहूर्त, ग्रह-स्थिति और काल-गणना।
  6. कल्प – वेदों के अनुसार विधि-विधान, संस्कार, यज्ञ-पद्धतियाँ और आचार।

संक्षेप में,
वेदांग = वेदों के ‘अंग’, जो वेदों के अध्ययन और व्याख्या को वैज्ञानिक, व्यवस्थित और प्रमाणिक बनाते हैं।

गीता, स्मृति, इतिहास, पुराण और वेदांग — समेकित सार-तालिका

श्रेणीप्रमुख ग्रंथ / अवयवविशेषताएँ / महत्व
गीताभगवद्गीताउपनिषदों में व्यक्त दार्शनिक सिद्धांतों को सरल संवाद रूप में प्रस्तुत करने के कारण “उपनिषदों का सार” मानी जाती है।
स्मृति-ग्रंथमनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति आदिवेद-वाक्यों की व्याख्या करते हुए धर्म, आचार, नीति और सामाजिक व्यवस्था का विस्तृत प्रतिपादन; वेदों के व्यवहारिक पक्ष को स्पष्ट करते हैं।
इतिहास (Itihāsa)रामायण (वाल्मीकि), महाभारत (व्यास)प्राचीन भारत के राजवंशों, सामाजिक ढाँचे, नीतियों और युद्ध-वर्णनों का विस्तृत विवरण; अतः “प्राचीन इतिहास-ग्रंथ” के रूप में मान्य।
पुराण18 महापुराण, 18 उपपुराणसृष्टि-विज्ञान, अवतार-विज्ञान, भूगोल, वंशावली, नैतिक कथाएँ और धार्मिक परंपराओं का विशाल संकलन।
वेदांगशिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, कल्पवेद-स्वाध्याय की वैज्ञानिक पद्धति को व्यवस्थित करने हेतु निर्मित; वेदों के उच्चारण, व्याकरण, अर्थ, गणना और अनुष्ठान-प्रणाली की तकनीकी आधार-भूमि प्रदान करते हैं।

आधुनिक संस्कृत : लौकिक संस्कृत की उत्तरवर्ती परंपरा

आधुनिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत का ही परिवर्तित और परिपक्व रूप है।
आज—

  • विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाती है
  • अख़बार, रेडियो, टीवी कार्यक्रम संस्कृत में उपलब्ध हैं
  • कर्नाटक के ‘मत्तूर’ जैसे गाँव में संस्कृत बोली जाती है

आधुनिक संस्कृत पूर्णत: पाणिनि-व्याकरण पर आधारित है, अर्थात यह लौकिक संस्कृत की ही उत्तरजीवी भाषा है।

निष्कर्ष

लौकिक संस्कृत भारतीय सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान-परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है।
यह वह भाषा है जिसमें—

  • महाकाव्य
  • पुराण
  • वेदांग
  • आयुर्वेद
  • नाटक
  • दर्शन
  • विज्ञान
  • राजनीति
  • अर्थशास्त्र

जैसे अनगिनत क्षेत्रों में विश्व-स्तरीय साहित्य की रचना हुई।

वैदिक संस्कृत ने जहाँ भारतीय सभ्यता की नींव रखी, वहीं लौकिक संस्कृत ने उसे स्वरूप, विस्तार और साहित्यिक ऊँचाई प्रदान की। पाणिनि की व्याकरण पर आधारित यह भाषा आज भी उतनी ही वैज्ञानिक, सशक्त और प्रासंगिक है।

संस्कृत का यह उज्ज्वल रूप हमें भारतीय ज्ञानपरंपरा की गहराई, वैज्ञानिकता और साहित्यिक समृद्धि का अद्भुत परिचय कराता है। यही कारण है कि लौकिक संस्कृत को भारतीय आर्य भाषाओं के विकास का सुनहरा अध्याय माना जाता है।


FAQs: लौकिक संस्कृत से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न–उत्तर


Q1. लौकिक संस्कृत क्या है?

लौकिक संस्कृत वह शास्त्रीय संस्कृत भाषा है जिसका उपयोग वैदिक युग के बाद विभिन्न साहित्यिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ग्रंथों के लेखन में हुआ। यह भाषा मुख्यतः महाकाव्यों, नाटकों, कथाओं, दार्शनिक शास्त्रों तथा वैज्ञानिक ग्रंथों में देखने को मिलती है। वैदिक संस्कृत की तुलना में इसकी शब्दावली और व्याकरण अधिक परिष्कृत और व्यवस्थित हैं।

Q2. “लौकिक संस्कृत” शब्द का आशय क्या है?

‘लौकिक’ शब्द का अर्थ है—‘लोक में प्रचलित’। इस प्रकार लौकिक संस्कृत उस संस्कृत भाषा को कहा जाता है जो दैनिक जीवन, सामाजिक कथानकों, साहित्य और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में उपयोग की जाती थी। यह वैदिक मंत्रों की गूढ़ भाषा के स्थान पर एक अधिक सुगम और व्यावहारिक रूप में विकसित हुई।

Q3. वैदिक और लौकिक संस्कृत में मुख्य अंतर क्या है?

वैदिक संस्कृत का संबंध वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों से है, जबकि लौकिक संस्कृत में महाकाव्य, नाटक, काव्य, दर्शन, आयुर्वेद, खगोल-शास्त्र और अन्य वैज्ञानिक ग्रंथ शामिल हैं।

  • वैदिक संस्कृत अधिक पुरातन, जटिल और ध्वन्यात्मक विविधताओं से युक्त है।
  • लौकिक संस्कृत में भाषा अधिक मानकीकृत, सरल और साहित्यिक रूप से परिष्कृत हो गई।
  • कई वैदिक शब्द बाद के काल में प्रचलन से बाहर हो गए और नए शब्दों का विकास हुआ।

Q4. लौकिक संस्कृत में किस प्रकार का साहित्य उपलब्ध है?

लौकिक संस्कृत का साहित्य अत्यंत विस्तृत है, जिसमें—

  • महाकाव्य : रामायण, महाभारत
  • नाटक : कालिदास, भास, भवभूति एवं शूद्रक की रचनाएँ
  • काव्य : मेघदूत, कुमारसंभव, रघुवंशम् इत्यादि
  • गद्य कृतियाँ : बाणभट्ट की कादंबरी
  • वैज्ञानिक साहित्य : आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, खगोल, शिल्प एवं संगीत–ग्रंथ
  • अलंकार एवं काव्यशास्त्र : काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण आदि
    इस प्रकार लौकिक संस्कृत में धार्मिक ही नहीं, बल्कि कला, विज्ञान और समाज से संबंधित ज्ञान का विशाल भंडार मिलता है।

Q5. लौकिक संस्कृत के प्रमुख लेखक कौन-कौन थे?

शास्त्रीय संस्कृत साहित्य में अनेक लेखकों ने अप्रतिम योगदान दिया, जिनमें प्रमुख हैं—

  • कालिदास – नाटक एवं काव्य
  • भास – प्राचीन नाटककार
  • बाणभट्ट – कथा-साहित्य (कादंबरी)
  • भवभूति – नाटक
  • श्रीहर्ष – नैषधचरित
  • शूद्रक – मृच्छकटिकम्
    इनकी रचनाएँ संस्कृत साहित्य को उसकी चरम प्रतिष्ठा तक ले गईं।

Q6. लौकिक संस्कृत के प्रमुख ग्रंथ कौन से माने जाते हैं?

कुछ महत्वपूर्ण कृतियाँ—

  • रामायण (वाल्मीकि)
  • महाभारत (व्यास)
  • अभिज्ञान शाकुंतलम् (कालिदास)
  • कुमारसंभव / मेघदूत (कालिदास)
  • कादंबरी (बाणभट्ट)
  • मृच्छकटिकम् (शूद्रक)
    ये सभी ग्रंथ शास्त्रीय संस्कृत साहित्य की उत्कृष्टता के प्रतीक हैं।

Q7. क्या लौकिक संस्कृत केवल साहित्य तक ही सीमित थी?

नहीं। लौकिक संस्कृत का उपयोग चिकित्सा (आयुर्वेद), गणित, ज्योतिष, वास्तु, संगीत, राजनीति, अर्थशास्त्र और शिक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में हुआ। चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, अर्थशास्त्र और सूर्यसिद्धांत इसके प्रमाण हैं।

Q8. लौकिक संस्कृत किस काल में विकसित हुई?

लौकिक संस्कृत का मुख्य विकास महाभारत के काल के बाद, लगभग ईसा पूर्व 500 से लेकर ईसा की 12वीं शताब्दी तक माना जाता है। गुप्त युग में इसे स्वर्णकाल प्राप्त हुआ।

Q9. क्या आज भी लौकिक संस्कृत का अध्ययन होता है?

हाँ। भारत और विदेशों के विश्वविद्यालयों में लौकिक संस्कृत पढ़ाई जाती है और इसके साहित्य पर शोध कार्य होते हैं। संस्कृत नाटक, महाकाव्य, काव्यशास्त्र और दर्शन आज भी अकादमिक अध्ययनों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं।

Q10. लौकिक संस्कृत की भाषा-शैली कैसी होती है?

लौकिक संस्कृत की शैली—

  • सुगठित, स्पष्ट और साहित्यिक
  • छंद, अलंकार और प्रतिमाओं से परिपूर्ण
  • संवाद और कथा-वाचन के लिए उपयुक्त
    इस कारण नाटक और महाकाव्य रचने के लिए इसे सर्वश्रेष्ठ माना गया।

Q11. भगवद्गीता किसे कहते हैं?

भगवद गीता:

भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का वह दिव्य उपदेश है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म, कर्म, ज्ञान और भक्ति का अद्वितीय संदेश दिया। इसे उपनिषदों का सार और वेदों का निचोड़ कहा जाता है, क्योंकि इसमें उन सभी वैदिक सत्यों को अत्यंत सरल, तर्कपूर्ण और व्यावहारिक रूप में समझाया गया है, जो उपनिषदों में गूढ़ रूप में निहित हैं।

अर्थात—
“गीता वह ग्रंथ है जो मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म, कर्तव्य और आत्मसाक्षात्कार का मार्ग दिखाता है।”

भगवद्गीता का स्वरूप और महत्व:

  • गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं।
  • यह श्रीकृष्ण के गीतोपदेश पर आधारित है, जिसे सनातन धर्म का सार्वभौमिक नैतिक-धर्मशास्त्र माना जाता है।
  • उपनिषद जहाँ दार्शनिक विचार देते हैं, वहीं गीता उन विचारों को व्यावहारिक आचरण में उतारने का मार्ग बताती है।
  • इसलिए इसे “उपनिषद-सार” तथा “गीतोपनिषद” भी कहा जाता है।
  • इसमें जीवन, कर्म, योग, मोक्ष, आत्मा, परमात्मा, संसार, धर्म और नीति—इन सभी विषयों का सुसंगत समन्वय मिलता है।

गीता और स्मृति-परंपरा:

स्मृतियों में जहाँ वेदवाक्यों का विस्तार और व्यवहारिक रूप मिलता है, वहीं गीता इस परंपरा का सर्वाधिक संक्षिप्त, सुबोध और सर्वमान्य ग्रंथ है।

  • मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकारों ने जहाँ सामाजिक-धार्मिक आचार बताए,
  • वहीं गीता ने व्यक्तिगत एवं आध्यात्मिक जीवन का सार्वभौमिक धर्म प्रतिपादित किया।

इस प्रकार गीता भारतीय ज्ञान-परंपरा का वह केंद्रबिंदु है, जहाँ वेद, उपनिषद, महाभारत और स्मृति—सभी का सार सहज रूप में संगठित दिखाई देता है।

Q12. गीता क्या है और इसे इतना महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है?

उत्तर:
भगवद्गीता 700 श्लोकों का एक दार्शनिक ग्रंथ है जो महाभारत के भीष्म पर्व में शामिल है। यह श्रीकृष्ण और अर्जुन के मध्य युद्धभूमि में हुए संवाद का आध्यात्मिक और नैतिक सार प्रस्तुत करती है।

  • इसमें कर्मयोग, भक्ति योग, ज्ञानयोग जैसे मार्गों का संतुलित समन्वय है।
  • उपनिषदों में व्यक्त दार्शनिक सिद्धांतों को सरल संवाद रूप में समझाया गया है, इसलिए इसे “उपनिषदों का सार” कहा जाता है।
  • गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन-प्रबंधन और नैतिक दार्शनिकता का सार्वभौमिक मार्गदर्शक है।

Q13. स्मृति-ग्रंथ किसे कहा जाता है?

उत्तर:
स्मृति-ग्रंथ वे ग्रंथ हैं जिनमें धर्म, आचार, नीति, समाज और कानून से सम्बंधित वैदिक सिद्धांतों की व्यावहारिक व्याख्या की गई है। ये वेदों के अनुपालन हेतु व्यवहारिक नियमों का निर्धारण करते हैं।

मुख्य स्मृतियाँ:

  • मनुस्मृति
  • याज्ञवल्क्य स्मृति
  • नारद स्मृति
  • पराशर स्मृति आदि

महत्व:

  • सामाजिक और नैतिक व्यवस्था के नियम प्रस्तुत करते हैं।
  • प्राचीन भारतीय विधि और न्याय-व्यवस्था का आधार।
  • धर्मशास्त्र के मूल ग्रंथ माने जाते हैं।

Q14. इतिहास (Itihāsa) से क्या अभिप्राय है?

उत्तर:
“इतिहास” का अर्थ है—“यथावत घटित घटनाओं का वर्णन”। भारतीय परंपरा में इतिहास-ग्रंथ दो ही माने गए हैं:

  1. रामायण (महर्षि वाल्मीकि)
  2. महाभारत (महर्षि व्यास)

महत्व:

  • प्राचीन भारत के राजवंशीय इतिहास, युद्ध-वर्णन, सामाजिक संरचना और नीति-सिद्धांतों का विश्वसनीय स्रोत।
  • मानव-चरित्र, नीति, आदर्श और कर्तव्यों का शिक्षाप्रद साहित्य।
  • इसलिए इन्हें “पुरातन इतिहास-ग्रंथ” का दर्जा प्राप्त है।

Q15. पुराण किसे कहते हैं? इनके प्रमुख प्रकार कौन से हैं?

उत्तर:
पुराण विशाल काव्यात्मक-गद्यात्मक ग्रंथ हैं जिनमें सृष्टि-विज्ञान, भूगोल, अवतार-कथाएँ, वंशावली, लोकाचार और धर्मपरंपराएँ समाहित होती हैं।

पुराणों का स्वरूप:

  • 18 महापुराण
  • 18 उपपुराण

मुख्य विषय-वस्तु:

  • ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विनाश
  • देवताओं के अवतार और विभिन्न कथाएँ
  • प्राचीन राजाओं की वंशावली
  • तीर्थ, पर्व, व्रत और उपासना प्रणाली
  • नैतिक एवं धार्मिक शिक्षाएँ

पुराणों के कारण भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को एक सुगम, जनप्रिय शैली में संरक्षित किया जा सका।

Q16. वेदांग किसे कहा जाता है?

उत्तर:
वेदांग वे छह सहायक विद्याएँ हैं जिन्हें वेद-अध्ययन, वेद-पाठ, वेद-अर्थ और वेद-यज्ञ की विधियों को सुव्यवस्थित करने हेतु विकसित किया गया।

छः वेदांग:

  1. शिक्षा – वेदपाठ का उच्चारण विज्ञान
  2. छंद – वेदों के छंदों का विश्लेषण
  3. व्याकरण – पाणिनि के नियमों पर आधारित भाषा-व्यवस्था
  4. निरुक्त – कठिन वैदिक शब्दों के अर्थ
  5. ज्योतिष – ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर यज्ञकाल एवं गणना
  6. कल्प – यज्ञ-विधि, गृह्यसूत्र, श्रौतसूत्र आदि की व्यवस्था

महत्व:
वेदों को वैज्ञानिक और पद्धतिगत रूप से समझने, पढ़ने और अनुष्ठान में लागू करने की संपूर्ण तकनीकी आधार-भूमि वेदांग प्रदान करते हैं।

Q17. भगवद्गीता, इतिहास और पुराण के बीच क्या संबंध है?

उत्तर:

  • भगवद्गीता — महाभारत का दार्शनिक अध्याय है।
  • इतिहास — महाभारत और रामायण, दोनों ही प्राचीन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक वृत्तांत हैं।
  • पुराण — इन सारी परंपराओं की पृष्ठभूमि में देवताओं, ऋषियों और राजवंशों की वंशावलियाँ और विश्व-रचना का मॉडल प्रस्तुत करते हैं।

तीनों मिलकर भारतीय धर्म, नैतिकता, समाज, संस्कृति और दार्शनिक चिंतन की परिपूर्ण संरचना प्रस्तुत करते हैं।

Q18. स्मृतियाँ और वेदांग एक-दूसरे से कैसे भिन्न हैं?

उत्तर:

  • वेदांग → वेदों की तकनीकी और भाषिक सहायता प्रदान करते हैं; ये विज्ञान-आधारित संरचनाएँ हैं।
  • स्मृति-ग्रंथ → सामाजिक, नैतिक और धर्म-संबंधी व्यावहारिक नियम प्रदान करते हैं।

इस प्रकार वेदांग ज्ञान की पद्धति देते हैं, जबकि स्मृतियाँ जीवन की व्यवस्था निर्धारित करती हैं।

Q19. पुराण और इतिहास में क्या मुख्य अंतर है?

उत्तर:

  • इतिहास वास्तविक घटनाओं, युद्धों और राजवंशों का वर्णन करता है—जैसे रामायण और महाभारत
  • पुराण में ब्रह्माण्ड-रचना, देवकथाएँ, भूगोल और वंशावलियों का संकलन होता है।

इतिहास मुख्यतः मानव-केंद्रित है; पुराण अधिकतर दैवी, ब्रह्माण्डीय और सांस्कृतिक ज्ञान से परिपूर्ण।

Q20. गीता को जीवन-दर्शन का ग्रंथ क्यों कहा जाता है?

उत्तर:

  • यह कर्तव्य, कर्म, आत्मा, भक्ति, ज्ञान और समय जैसे जटिल विषयों के सरल और तार्किक समाधान प्रदान करती है।
  • किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को संतुलित, नैतिक और स्थिर रहने का मार्ग दिखाती है।
  • इसलिए सार्वभौमिक रूप से इसे एक जीवन-प्रबंधन ग्रंथ माना जाता है।

Q21. वेदांग किस प्रकार भारत के वैज्ञानिक ज्ञान-विकास से जुड़े हैं?

उत्तर:

  • ज्योतिष — गणित, समय-गणना, ग्रह-गति का आधार
  • व्याकरण — दुनिया की सबसे वैज्ञानिक भाषा-व्यवस्था
  • शिक्षा और छंद — ध्वनि-विज्ञान एवं गणितीय संरचनाएँ
  • कल्प — यज्ञ-विधि की व्यवस्थित पद्धति
  • निरुक्त — भाषाविज्ञान और व्युत्पत्तिविज्ञान का प्रारंभिक स्वरूप

ये सभी मिलकर प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक और विद्वत परंपरा का मूल ढाँचा तैयार करते हैं।


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