प्राचीन भारतीय आर्यभाषा | 1500 ई.पू. – 500 ई.पू. | उत्पत्ति, विकास और भाषिक संरचना

भारतीय भाषाओं के इतिहास में प्राचीन भारतीय आर्यभाषा एक महत्वपूर्ण और आधारभूत चरण मानी जाती है। यह भाषा-परंपरा न केवल भारत के वैचारिक, दार्शनिक और धार्मिक विकास का दर्पण है, बल्कि भारतीय सभ्यता के ज्ञान-विस्तार का मूल स्रोत भी रही है। प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का स्वरूप समय के साथ वैदिक, उत्तरवैदिक, लौकिक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अंततः आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के रूप में विकसित होता गया।

इस परंपरा का प्रारंभ वैदिक संस्कृत से होता है, जिसमें वेद, उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई। आगे चलकर पाणिनि की व्याकरण-व्यवस्था के आधार पर लौकिक संस्कृत का सुव्यवस्थित रूप सामने आया, जिसने रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र, काव्य, चिकित्सा, गणित, दर्शन तथा कथा-साहित्य को भाषा का सशक्त मंच प्रदान किया।

इस प्रकार प्राचीन भारतीय आर्यभाषा मात्र संचार का साधन नहीं रही, बल्कि भारतीय समाज, धर्म, संस्कृति और विद्या-परंपरा की निरंतरता का सजीव प्रमाण बन गई। यह भाषा-यात्रा न केवल भाषाई परिवर्तन का इतिहास है, बल्कि भारत की चिंतन-परंपरा, आध्यात्मिकता और साहित्य की अमूल्य धरोहर भी है।

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प्राचीन भारतीय आर्यभाषा : परिचय

भारतीय भाषाई परंपरा में प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (1500 ई.पू. – 500 ई.पू.) वह मूलभूत भाषिक आधार है, जिसने आगे चलकर भारतीय साहित्य, धर्म, दर्शन और विज्ञान की समृद्ध परंपरा को जन्म दिया। यह भाषा आर्यों के भारत आगमन के उपरांत विकसित हुई और क्रमशः मौखिक परंपरा से ग्रंथों के रूप में संकलित होने लगी।

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा की विशेषता यह है कि यह केवल एक भाषाई माध्यम नहीं थी, बल्कि भारतीय सभ्यता की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक चेतना को अभिव्यक्त करने का प्रमुख साधन भी रही। वेद, उपनिषद, धर्मशास्त्र, महाकाव्य, नाटक, काव्य, चिकित्सा तथा गणित जैसे विविध ज्ञान-विषयों की नींव इसी भाषा में रखी गई, जिसके कारण यह भारतीय भाषाओं और साहित्य की आधारशिला मानी जाती है।

समय के साथ इस भाषा में ध्वनि, शब्दरचना, व्याकरणिक रूपों और शैलीगत अभिव्यक्ति में परिवर्तन हुए, जिसके परिणामस्वरूप इसका क्रमिक विकास विभिन्न रूपों में दिखाई देता है। यही भाषिक विकास आगे चलकर अनेक भारतीय आर्यभाषाओं—जैसे हिंदी, संस्कृत, मराठी, बंगाली, पंजाबी, गुजराती आदि—के गठन का कारण बना।

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का काल-विभाजन (1500 ई.पू. – 500 ई.पू.)

भारतीय भाषाओं के इतिहास में प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (1500 ई.पू. – 500 ई.पू.) एक महत्वपूर्ण चरण का प्रतिनिधित्व करती है। यह वह भाषिक अवस्था है जिसने आगे चलकर भारतीय साहित्य, संस्कृति और दर्शन की विशिष्ट पहचान को आकार दिया। इस काल में भाषा का विकास केवल संप्रेषण के साधन के रूप में नहीं हुआ, बल्कि यह धार्मिक अनुष्ठानों, वैदिक मंत्रों, दार्शनिक चिंतन और ज्ञान-विज्ञान की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम रही।

इस प्रकार, 1500 ई.पू. से 500 ई.पू. तक का प्राचीन आर्यभाषा काल भारतीय भाषाई विकास का स्वर्णिम युग माना जाता है, जिसने आगे चलकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के निर्माण की नींव रखी।
भाषाविदों ने प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का विकास मुख्यतः दो प्रमुख चरणों में विभाजित किया है—

(1) वैदिक संस्कृत (1500 ई.पू. – 800 ई.पू.)
(2) लौकिक या शास्त्रीय संस्कृत (800 ई.पू. – 500 ई.पू.)

1. वैदिक संस्कृत | 1500 ई.पू. – 800 ई.पू.

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का सर्वप्रथम उपलब्ध स्वरूप वैदिक संस्कृत में मिलता है। यह भाषा भारतीय आर्यों की सबसे प्राचीन साहित्यिक अभिव्यक्ति मानी जाती है। वैदिक संस्कृत को समय के साथ विभिन्न नाम मिले जैसे—

  • वैदिकी
  • छन्दस
  • छान्दस्
  • श्रुति भाषा

वैदिक संस्कृत उस भाषा का रूप है जिसमें भारत के प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथ वेद रचे गए। इस भाषा में न केवल प्रार्थनाएँ और अनुष्ठानों के मंत्र हैं, बल्कि प्राकृतिक घटनाओं, ब्रह्मांडीय चिंतन, समाज, राजनीति और दार्शनिक अवधारणाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है।

वैदिक साहित्य का वर्गीकरण

वैदिक साहित्य को पारंपरिक रूप से तीन मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता है—

क्रमवैदिक साहित्य की शाखास्वरूप
1संहितामन्त्र भाग
2ब्राह्मणकर्मकाण्ड की व्याख्या
3उपनिषद्दार्शनिक चिंतन

इन तीनों भागों में वेदों का समग्र रूप संकलित है जो मानव सभ्यता की प्राचीनतम मौखिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपरा को संरक्षित करता है।

(क) संहिता साहित्य

संहिता खंड वैदिक साहित्य का मुख्य भाग है, जिसमें मंत्रों का संकलन मिलता है। चारों वेदों की अपनी-अपनी संहिताएँ हैं—

1. ऋग्वेद संहिता

  • यह सभी वेदों में सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
  • “ऋक्” का अर्थ है स्तुति या प्रशंसा
  • इसमें देवताओं की स्तुति, प्रकृति के रहस्यों, लोक-व्यवस्था, धर्म और समाज की झलक मिलती है।

संरचना :

  • 10 मंडल
  • 1028 सूक्त
  • लगभग 10,580 ऋचाएँ

ऋग्वेद के सूक्त ऋषियों के अनुभवों पर आधारित काव्यात्मक स्तोत्र हैं जो यज्ञों में प्रयुक्त होते थे।

2. यजुर्वेद संहिता

यजुर्वेद मूलतः कर्मकाण्ड आधारित वेद है। इसमें यज्ञों में बोले जाने वाले मंत्र तथा अनुष्ठान क्रम के निर्देश पाए जाते हैं।

इसके दो प्रकार हैं—

  1. कृष्ण यजुर्वेद – मंत्र और गद्य-व्याख्या मिश्रित
  2. शुक्ल यजुर्वेद – केवल मंत्र भाग

यजुर्वेद से पता चलता है कि वैदिक समाज अत्यंत संगठित, धार्मिक और संस्कारप्रधान था।

3. सामवेद संहिता

  • सामवेद को संगीत का वेद कहा जाता है।
  • इसमें ऋग्वेद के मंत्रों को स्वरबद्ध करके साम-गान के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
  • कुल मंत्र लगभग 1875 हैं, जिनमें केवल 75 मौलिक हैं, शेष ऋग्वेद से लिए गए हैं।

सामवेद से भारतीय संगीतशास्त्र, छंद संरचना और गायन परंपरा का विकास हुआ।

4. अथर्ववेद संहिता

अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। इसमें आम जनता के लिए स्वास्थ्य, औषधि, जादू-टोना, बल-शांति, तंत्र, दर्शन और सामाजिक जीवन से जुड़े मंत्र मिलते हैं।

यह वेद बताता है कि वैदिक समाज का चिंतन केवल देव-यज्ञ तक सीमित नहीं था, बल्कि चिकित्सा, ज्ञान-विज्ञान और तंत्र-विद्या तक विस्तारित था।

(ख) ब्राह्मण ग्रंथ

ब्राह्मण ग्रंथ संहिताओं पर आधारित व्याख्यानात्मक ग्रंथ हैं, जिनमें यज्ञों की विधि, उद्देश्यों और प्रतीकों की व्याख्या मिलती है।

प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ—

वेदसंबंधित ब्राह्मण ग्रंथ
ऋग्वेदऐतरेय ब्राह्मण
सामवेदताण्डव या पंचविंश ब्राह्मण
शुक्ल यजुर्वेदशतपथ ब्राह्मण
कृष्ण यजुर्वेदतैत्तिरीय ब्राह्मण
अथर्ववेदगोपथ ब्राह्मण (मुख्य रूप)

ब्राह्मण साहित्य वैदिक धर्म की संरचना और दार्शनिकता का व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत करता है।

(ग) उपनिषद्

उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम, दार्शनिक और आध्यात्मिक चरण है। इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। इन ग्रंथों में ब्रह्म, आत्मा, मोक्ष, सत्य और ज्ञानपरक चिंतन निहित है।

मुख्य 12 उपनिषद् ये माने जाते हैं—

  1. ईश
  2. केन
  3. कठ
  4. प्रश्न
  5. बृहदारण्यक
  6. ऐतरेय
  7. छान्दोग्य
  8. तैत्तिरीय
  9. मुण्डक
  10. माण्डूक्य
  11. कौषीतकी
  12. श्वेताश्वेतर

उपनिषद् काल भारतीय विचारधारा में वैदिक कर्मकाण्ड से ज्ञानमार्ग की ओर संक्रमण का प्रतीक है।

वैदिक भाषा की संरचना और विकास

श्रुति परंपरा के कारण वेद मौखिक रूप से पीढ़ियों तक सुरक्षित रहे। किंतु समय के साथ बोलचाल की भाषा में परिवर्तन हुआ और संहिताओं के उच्चारण में विचलन की आशंका बढ़ी। इसी कारण—

  • संहिता पदों के संधि-विच्छेद रूप बनाए गए जिन्हें ‘पदपाठ’ कहा गया।
  • फिर उस पदपाठ के संहितारूप बनाने के विधि-नियम बने जिन्हें प्रतिशाख्य ग्रंथ कहा गया।

प्रमुख प्रतिशाख्य ग्रंथ

वेदों की कुल 1130 शाखाएँ बताई गई हैं, परंतु वर्तमान में केवल छह प्रतिशाख्य उपलब्ध हैं—

  • शौनक कृत ऋग्वेद प्रतिशाख्य
  • कात्यायन कृत शुक्ल यजुर्वेद प्रतिशाख्य
  • तैत्तिरीय प्रतिशाख्य
  • मैत्रायणी प्रतिशाख्य
  • सामवेद का पुष्पसूत्र
  • अथर्ववेद का शौनकीय प्रतिशाख्य

ये ग्रंथ आधुनिक ध्वनिविज्ञान के आधारभूत पाठ माने जाते हैं।

वैदिक संस्कृत का ध्वन्यात्मक स्वरूप

वैदिक भाषा में ध्वनियों की संख्या विद्वानों के अनुसार भिन्न-भिन्न मानी गई है।

  • डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. कपिलदेव द्विवेदी आदि विद्वानों के अनुसार—
    वैदिक ध्वनियाँ = 52
    (13 स्वर + 39 व्यंजन)
  • डॉ. हरदेव बाहरी के अनुसार स्वर संख्या 14 है।

वैदिक स्वर (13)

प्रकारस्वर
मूल स्वरअ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ
संयुक्त स्वरए, ओ, ऐ, औ

वैदिक व्यंजन (39)

(यह वर्गीकरण शास्त्रीय संस्कृत के आधार से मिलता-जुलता है, परंतु वैदिक रूप अधिक ध्वनि-वैज्ञानिक है।)

वैदिक ध्वनि प्रणाली से स्पष्ट होता है कि भारतीय ध्वन्यात्मक संरचना अत्यंत वैज्ञानिक, व्यवस्थित और उच्चारण-केंद्रित थी।

वैदिक व्यंजन (39)

वैदिक व्यंजनों का वर्गीकरण पारंपरिक ध्वनि-विज्ञान पर आधारित है। इन्हें पाँच वर्गों (वर्गीय व्यंजन), अन्तःस्थ (Semi-vowels), ऊष्म (Spirants), तथा अन्य विशेष ध्वनियों में विभाजित किया जाता है।

(1) वर्गीय व्यंजन (25)

उच्चारण-स्थानस्पर्श (अघोष अल्पप्राण)स्पर्श (अघोष महाप्राण)स्पर्श (सघोष अल्पप्राण)स्पर्श (सघोष महाप्राण)नासिक्य
कण्ठ्य (Guttural)
तालव्य (Palatal)
मूर्धन्य (Cerebral/Retroflex)
दन्त्य (Dental)
ओष्ठ्य (Labial)

(2) अन्तःस्थ व्यंजन (Semi-Vowels) – 4

श्रेणीव्यंजन
यन् वर्गय, र, ल, व

(3) ऊष्म व्यंजन (Spirants) – 8

प्रकारव्यंजन
सामान्य श्वासजन्य ध्वनियाँश, ष, स, ह
विशिष्ट वैदिक ध्वनियाँळ, ज़् (जस्), ष़् (विशिष्ट छाया ध्वनि), ह़ (कुछ परंपराओं में)

नोट: वैदिक काल में इन ध्वनियों के उच्चारण में क्षेत्रीयता और शाखा-भेद के अनुसार अंतर पाया जाता है।

(4) विसर्ग एवं अनुस्वार समूह – 2

ध्वनिविवरण
ः (विसर्ग)श्वासयुक्त पश्चस्वर ध्वनि
ं (अनुस्वार)नासिक्य ध्वनि, कभी-कभी ङ,ञ,ण,न,म का स्थान लेती है

(5) विशेष वैदिक ध्वनियाँ – (वर्णक्रम में शामिल किंतु आधुनिक संस्कृत में दुर्लभ)

ध्वनिउपयोग
प्लुत ध्वनि (॒,॑ स्वरचिह्न सहित)दीर्घ उच्चारण में
जिह्वामूलीयविशेषतः क, ख से पहले
उपध्मानीविशेषतः प, फ से पहले

वैदिक व्यंजन संख्या सारांश

प्रकारसंख्या
वर्गीय व्यंजन25
अन्तःस्थ व्यंजन4
ऊष्म व्यंजन8
विसर्ग व विशेष ध्वनियाँ2
कुल39 ध्वनियाँ

वैदिक व्यंजन व्यवस्था अत्यंत वैज्ञानिक और ध्वनि-आधारित थी। इसमें ध्वनियों का वर्गीकरण उच्चारण-स्थान, घोष-अघोष, महाप्राण-अल्पप्राण, और नासिक्यता के आधार पर किया गया है। यह वैज्ञानिक स्वरूप आधुनिक ध्वनिविज्ञान से तुलना योग्य है तथा इसे मानव सभ्यता की सबसे उन्नत प्राचीन ध्वनि-संरचना माना जाता है।

वैदिक संस्कृत की भाषिक विशेषताएँ

वैदिक संस्कृत केवल एक भाषा न होकर भारतीय आर्य परंपरा की सबसे प्राचीन और संरचित अभिव्यक्ति मानी जाती है। इसकी व्याकरणिक संरचना अत्यंत विकसित, वैज्ञानिक और बहुस्तरीय थी, जिसके कारण इसे मानव इतिहास की सर्वाधिक परिपूर्ण भाषाओं में गिना जाता है। नीचे इसकी प्रमुख भाषिक विशेषताओं को वर्गीकृत रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

1. संरचनात्मक एवं ध्वन्यात्मक विशेषताएँ

वैदिक संस्कृत में शब्दनिर्माण की प्रक्रिया अत्यंत संलग्न (synthetic) प्रकृति की थी जिसे भाषावैज्ञानिक “श्लिष्ट योगात्मक” (Inflectional-Agglutinative) रूप में वर्गीकृत करते हैं। इस भाषा में शब्दों का अर्थ केवल मूल धातु या मूलरूप से नहीं, बल्कि प्रत्यय, उपसर्ग, स्वराघात और व्याकरणिक चिह्नों के संयुक्त प्रभाव से निर्धारित होता था।

ध्वनि-विज्ञान की दृष्टि से वैदिक संस्कृत में स्वराघात की दो प्रकार की पद्धतियाँ पाई जाती हैं—

  1. संगीतात्मक (Melodic) उच्चारण
  2. बलात्मक (Stress-based) उच्चारण

इस प्रकार यह भाषा केवल उच्चारण की नहीं बल्कि स्वरलहरियों की भी भाषा थी—जो वेदों के मंत्रों में स्पष्ट रूप से अनुभव होता है।

2. लिंग, वचन और वाच्य व्यवस्था

वैदिक संस्कृत में व्याकरणिक रूप से वर्गीकृत तीन लिंग—

लिंगउदाहरण
पुल्लिंगदेवः
स्त्रीलिंगदेवी
नपुंसकलिंगजलम्

वचन व्यवस्था भी अत्यंत प्राचीन और विशिष्ट थी। आधुनिक भारतीय भाषाओं में जहाँ केवल एकवचन और बहुवचन ही मिलते हैं, वहीं वैदिक संस्कृत में एक अतिरिक्त रूप द्विवचन (Dual Number) मौजूद था जिसे केवल दो वस्तुओं के लिए प्रयुक्त किया जाता था—जैसे: अश्वौ (दो घोड़े)

वाक्यरचना की दृष्टि से क्रियाएँ तीन प्रकार के वाच्य उत्पन्न करती थीं—

वाच्यउपयोग
कर्तृवाच्यजहाँ कर्ता कर्म करता है
कर्मवाच्यजहाँ कर्म मुख्य होता है
भाववाच्यजहाँ क्रिया का भाव मुख्य रहता है

3. विभक्ति-प्रणाली

वैदिक संस्कृत में संज्ञाओं का प्रयोग आठ विभक्तियों के माध्यम से होता था, जिन्हें आधुनिक व्याकरण में कारक कहा जाता है। ये विभक्तियाँ अर्थ, संबंध और कार्य के आधार पर वाक्य में शब्दों की भूमिका निर्धारित करती थीं—

विभक्तिकार्य
1. प्रथमाकर्ता
2. संबोधनपुकार
3. द्वितीयाकर्म
4. तृतीयाकरण
5. चतुर्थीसम्प्रदान
6. पंचमीअपादान
7. षष्ठीसम्बन्ध
8. सप्तमीअधिकरण

4. क्रिया-रूप और लकार-व्यवस्था

वैदिक संस्कृत की क्रियाव्यवस्था अत्यंत विस्तृत थी। धातुरूप दो पदों में रूपांतरित होते थे—

पदअर्थ
परस्मैपदजहाँ क्रिया का फल दूसरों हेतु होता है
आत्मनेपदजहाँ क्रिया का फल स्वयं कर्ता को प्राप्त होता है

कुछ धातुएँ दोनों रूपों में रूपांतरित होती थीं, जिन्हें उभयपदी धातुएँ कहा जाता था।

क्रियाओं में कुल 10 लकारों का प्रयोग मिलता है, जो काल और भाव—दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

(A) काल दर्शक लकार

क्रमलकारअर्थ
1लोṭआज्ञा
2लिड्परोक्ष या सम्पन्न भूत
3लङ्अनद्यतन भूत (बीता हुआ कार्य)
4लुङ्सामान्य भूत

(B) भावदर्शक लकार

क्रमलकारउपयोग
1लोṭआज्ञार्थ
2विधिलिङ्संभावना
3आशिष्लिङ्इच्छा
4लुङ्हेतु-बहुकारक प्रयोग
5लेट्संकल्प या अभिप्राय
6लेङ्अनिवार्यता (निर्बन्ध)

5. धातु-पद्धति एवं गण-व्यवस्था

वैदिक संस्कृत में धातुओं को उनकी विकृति और प्रयोग-शैली के आधार पर दस गणों में वर्गीकृत किया गया था। यह वर्गीकरण पाणिनि पूर्व परंपरा से चला आ रहा है—

गणनाम
1भ्वादिगण
2अदादिगण
3जुहोत्यादि अथवा ह्वादिगण
4दिवादिगण
5स्वादिगण
6तुदादिगण
7तनादिगण
8रूधादिगण
9क्रयादिगण
10चुरादिगण

6. समास व्यवस्था

डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार वैदिक संस्कृत में समास-संरचना सीमित थी और केवल चार प्रकार अधिक प्रचलित थे—

समास प्रकारउदाहरण
तत्पुरुषदेवदत्तः
कर्मधारयनीलोत्पलम्
बहुव्रीहिपीताम्बरः
द्वन्द्वमाता-पिता

वैदिक संस्कृत अपनी संरचना, ध्वनि-विज्ञान, शब्दरचना, व्याकरण तंत्र तथा क्रियापद्धति के कारण उस काल की अत्यंत उन्नत भाषा थी। इसमें वैज्ञानिक संगति, तार्किक रूपविधान और ध्वनि-सौंदर्य का अद्भुत संगम दिखाई देता है—जिसके कारण यह भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं बल्कि आध्यात्मिक, दार्शनिक और काव्यात्मक परंपराओं की आधारशिला बनकर उभरी।

2. लौकिक संस्कृत (शास्त्रीय संस्कृत) | 800 ई.पू. – 500 ई.पू.

भारतीय आर्यभाषाओं के विकासक्रम में संस्कृत भाषा ने केंद्रीय भूमिका निभाई है। वैदिक युग से गुजरते हुए जब भाषा अधिक स्थिर, व्याकरणिक और मानक रूप ग्रहण करने लगी, तब उसका जो रूप सामने आया उसे ‘लौकिक संस्कृत’ कहा जाता है। यह वह संस्कृत है जिसका विस्तृत और व्यवस्थित विश्लेषण पाणिनि की अष्टाध्यायी में मिलता है तथा जो आगे चलकर भारतीय साहित्य, दर्शन, विज्ञान और कला का मूलाधार बनती है।

लौकिक या शास्त्रीय संस्कृत का भाषिक स्वरूप

वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत तक की यात्रा में भाषा में कई ध्वन्यात्मक परिवर्तन हुए। वैदिक काल में जहाँ 52 ध्वनियों का प्रयोग मिलता है, वहीं लौकिक संस्कृत के काल तक चार ध्वनियाँ— ळ, ळह, जिह्वमूलीय और उपध्मानीय — लुप्त हो गई, परिणामस्वरूप 48 ध्वनियों की मानक व्यवस्था दिखाई देती है। ध्वनियों की यह सुव्यवस्थित प्रणाली ही आगे चलकर संस्कृत को उच्चतम शास्त्रीय भाषा की पहचान प्रदान करती है।

लौकिक संस्कृत न केवल व्याकरणिक रूप से परिष्कृत है, बल्कि इसमें भाषाशास्त्र, साहित्य, इतिहास, चिकित्सा, खगोल और दर्शन की अत्यधिक समृद्ध परंपरा भी विकसित हुई।

लौकिक संस्कृत साहित्य : व्यापकता और विविधता

लौकिक संस्कृत का साहित्य अत्यंत विशाल और बहुरंगी है। यह केवल धार्मिक ग्रंथों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने जीवन, समाज, ज्ञान और कला के प्रत्येक क्षेत्र को स्पर्श किया। सामान्यतः इसके अंतर्गत निम्न प्रमुख साहित्य-श्रेणियाँ आती हैं—

  • वेदांग
  • रामायण
  • महाभारत
  • नाटक
  • काव्य
  • कथा-साहित्य
  • आयुर्वेद
  • वैज्ञानिक एवं तकनीकी साहित्य

इन सभी क्षेत्रों ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता की नींव रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1. वेदांग : वेद अध्ययन के सहायक शास्त्र

वेदों को समझने के लिए प्राचीन आचार्यों ने छह सहायक शास्त्रों की स्थापना की जिन्हें वेदांग कहा गया। वेदांग शब्द का अर्थ है— वेदों के अंग, अर्थात वेदों की संरचना, पठन, व्याख्या एवं अनुष्ठान को समझने वाले शास्त्र।

वेदांग इस प्रकार हैं—

  1. शिक्षा – वर्णों के उच्चारण, स्वरों, मात्रा, बल आदि का विज्ञान।
  2. कल्प – यज्ञ-विधि, अनुष्ठानों, श्रौत और गृह्य नियमों का विधान।
  3. व्याकरण – भाषा को शुद्ध रूप में व्यवस्थित करने वाला शास्त्र, जिसकी सर्वोच्च कृति पाणिनि की अष्टाध्यायी है।
  4. ज्योतिष – काल-निर्णय, ग्रह-नक्षत्रों की गति तथा शुभ मुहूर्त का ज्ञान।
  5. छन्द – श्लोकों और काव्य में प्रयुक्त मात्राओं और लयों का शास्त्र।
  6. निरुक्त – वैदिक शब्दों और नामों का अर्थ एवं व्युत्पत्ति।

वेदांगों के अध्ययन द्वारा हम वेदों की मूल भावना, भाषा और विधि-विधान को अधिक सुगमता से समझ पाते हैं।

2. रामायण : आदिकाव्य की प्रतिष्ठित धरोहर

भारतीय कथा-परंपरा में रामायण का स्थान अनन्य है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित यह ग्रंथ लौकिक संस्कृत साहित्य में ‘आदिकाव्य’ कहलाता है, क्योंकि भारतीय काव्य-परंपरा का सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप इसी में मिलता है।

रामायण की संरचना

रामायण में कुल सात काण्ड हैं—

  • बालकाण्ड
  • अयोध्याकाण्ड
  • अरण्यकाण्ड
  • किष्किन्धाकाण्ड
  • सुन्दरकाण्ड
  • लङ्काकाण्ड
  • उत्तरकाण्ड

कुल श्लोकों की संख्या लगभग 23,440 है, इसलिए इसे चतुर्विंशति संहिता कहा जाता है।

काल-निर्धारण

धार्मिक मान्यता के अनुसार रामायण की घटनाएँ त्रेतायुग की हैं और श्रीराम का काल लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व माना जाता है। विद्वानों का मत है कि इसका लिखित संकलन लगभग 600 ईसा पूर्व के आसपास हुआ। विभिन्न पुराणों, उपपुराणों और परंपरागत ग्रंथों में इस महाकाव्य के संदर्भ मिलते हैं।

3. महाभारत : मानव धरोहर का विश्वकोश

वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत दुनिया का सबसे विस्तृत महाकाव्य माना जाता है, जिसमें लगभग 1,10,000 श्लोक सम्मिलित हैं। इसी कारण यह “शतसाहस्त्री संहिता” के नाम से विख्यात है।

काल-निर्धारण

  • विद्वानों के अनुसार महाभारत की मूल घटनाएँ 9वीं–8वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास की हैं।
  • वर्तमान स्वरूप का संकलन ईसा पूर्व 3वीं शताब्दी से ईसा की 3वीं शताब्दी के बीच माना जाता है।
  • यह ग्रंथ केवल युद्धकथा नहीं, बल्कि राजनीति, नीति, समाजशास्त्र, धर्म और दर्शन का भंडार है।

भागवद्गीता इसी महाकाव्य का हृदयस्थल है।

4. नाटक : भारतीय ललित कलाओं का शिरोमणि रूप

संस्कृत नाट्य परंपरा की सबसे महत्वपूर्ण कृति है— भरतमुनि का “नाट्यशास्त्र”। ‘नाट्य’ शब्द ‘नट्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है— नृत्य या अभिनय करना।

भरतमुनि ने नाटक को “पंचम वेद” कहा है, क्योंकि इसमें चारों वेदों का सार निहित है— भाषा, संगीत, नृत्य, अभिनय और सौंदर्यशास्त्र।

नाट्यशास्त्र केवल नाटक की कला नहीं है, यह—

  • संगीत
  • नृत्य
  • अभिनय
  • शिल्प
  • वस्त्राभूषण
  • रंगमंच निर्माण

इन सभी का विस्तृत और वैज्ञानिक मार्गदर्शन प्रदान करता है। भारत की संपूर्ण नाट्य परंपरा इसी ग्रंथ पर आधारित मानी जाती है।

5. काव्य : शब्दों में अनुभूति की निर्मल अभिव्यक्ति

कविता भारतीय संस्कृति का हृदय है। जब लेखन सामग्री और प्रतिलिपि-प्रणाली विकसित नहीं थी, तब ज्ञान के संरक्षण का सर्वश्रेष्ठ साधन था— काव्य। इसी कारण राजनीति, आयुर्वेद, गणित, नीति, ज्योतिष— सभी विषयों को छंदों में लिखा गया।

काव्य-शास्त्र की परंपरा

उत्तरवैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक अनेक आचार्यों ने काव्य की प्रकृति पर विचार किया—

  • आचार्य विश्वनाथ
  • पंडितराज जगन्नाथ
  • भामह
  • कुंतक
  • आचार्य मम्मट
  • तथा आधुनिक आलोचक— आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं जयशंकर प्रसाद

मम्मट के काव्यप्रकाश में काव्य के विविध अंगों— रस, अलंकार, रीति, शब्द, अर्थ— का अत्यंत सूक्ष्म विवेचन मिलता है। काव्य का कोई एक “जनक” निश्चित नहीं माना गया, परंतु इसका व्यवस्थित रूप भरतमुनि से प्रारंभ माना जाता है।

6. कथासाहित्य : भारतीय लोकबुद्धि और नीतिशास्त्र का भंडार

संस्कृत में कथा-परंपरा अत्यंत समृद्ध है। इसमें तीन प्रकार की कहानियों का उल्लेख मिलता है—

  1. परियों की कहानियाँ (Fairy tales)
  2. जंतुकथाएँ (Fables)
  3. उपदेशमयी कहानियाँ (Didactic tales)

प्रमुख कथाग्रंथ

  • पंचतंत्र
  • हितोपदेश
  • बृहत्कथा
  • वेताल पंचविंशति
  • सिंहासन बत्तीसी
  • शुकसप्तति
  • भरटक द्वात्रिंशिका
  • कथारत्नाकर

इन ग्रंथों का उद्देश्य केवल मनोरंजन न होकर— नीति, सदाचार, राजनीति, गृह-व्यवहार और बुद्धिमत्ता का मार्गदर्शन देना रहा है।

7. आयुर्वेद : भारतीय चिकित्सा-विज्ञान की प्राचीन धारा

आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। भारत, नेपाल और श्रीलंका में आज भी अधिकांश जनसंख्या आयुर्वेदिक प्रणालियों का उपयोग करती है। इसका आधार है—

  • शरीर–मात्रिका
  • त्रिदोष सिद्धांत
  • आहार–विहार
  • प्रकृति–परिवर्तन
  • और जीवन-शैली आधारित उपचार

आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य

  • अश्विनीकुमार
  • धन्वंतरि
  • दिवोदास
  • च्यवन
  • अगस्त्य
  • अत्रि एवं उनके शिष्य— अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत
  • सुश्रुत – शल्य-चिकित्सा के जनक
  • चरक – चरक संहिता के प्रणेता

इन आचार्यों ने चिकित्सा को केवल रोगोपचार नहीं, बल्कि समग्र स्वास्थ्य- विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया।

8. वैज्ञानिक साहित्य : भारतीय ज्ञान-विज्ञान की प्राचीन परंपरा

संस्कृत में वैज्ञानिक लेखन की परंपरा अत्यंत प्राचीन और सुविकसित रही है। भारत में—

  • गणित
  • ज्योतिष
  • आयुर्वेद
  • स्थापत्य
  • व्याकरण
  • धातुविज्ञान

आदि विषयों पर वैज्ञानिक पद्धति से ग्रंथ रचे गए। प्राचीन विद्वान अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करते हुए ग्रंथ-लेखन करते थे, जिससे ज्ञान-परंपरा सतत बनी रही। अधिकांश ग्रंथ सूत्ररूप में होते थे, इसलिए बाद में उनके भाष्य, टीका और व्याख्या-ग्रंथ भी लिखे गए, जो ज्ञान को आगे पहुँचाने का आधार बने।

निष्कर्ष

भारतीय भाषाई परंपरा का विकास-क्रम वैदिक संस्कृत से आरंभ होकर लौकिक संस्कृत तक पहुँचता है, और फिर उसी से प्राकृत–अपभ्रंश के मार्ग से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विस्तृत परिवार जन्म लेता है। वैदिक संस्कृत केवल एक प्राचीन भाषा नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता की आध्यात्मिक चेतना, सांस्कृतिक स्मृति और दार्शनिक दृष्टि का आधार-स्तंभ रही है। इसने धर्म, विज्ञान, संगीत, ज्योतिष, दर्शन और समस्त वेदांगों को एक सुव्यवस्थित संरचना प्रदान की।

इसी आधार पर विकसित लौकिक संस्कृत ने भारतीय ज्ञान-परंपरा को और भी व्यापक, व्यवहारिक और साहित्यिक रूप दिया। महाकाव्य, नाटक, काव्य, कथा-साहित्य, आयुर्वेद, गणित और खगोल-शास्त्र—इन सभी क्षेत्रों को लौकिक संस्कृत ने वैज्ञानिकता, मानक रूप और स्थायित्व प्रदान किया। यह भाषा भारतीय कला, संस्कृति, चिंतन और साहित्यिक परंपरा को जोड़ने वाली जीवन-रेखा सिद्ध हुई।

इन दोनों चरणों—वैदिक और लौकिक—की दीर्घ यात्रा ने न केवल भारत की प्राचीन विद्वत्ता को पुष्ट किया, बल्कि आगे चलकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के निर्माण के लिए भी आधार तैयार किया। इस प्रकार भारतीय भाषाई विकास केवल एक भाषिक परिवर्तन नहीं, बल्कि एक सतत् सांस्कृतिक, बौद्धिक और वैज्ञानिक उत्कर्ष का दर्पण है, जो आज भी भारतीय सभ्यता की गहराई, विविधता और प्रगतिशीलता को प्रतिपादित करता है।


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