डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल : जीवन, कृतित्व और हिंदी निबंध साहित्य में योगदान

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल आधुनिक हिंदी गद्य के उन दुर्लभ रचनाकारों में से हैं, जिनके साहित्य में प्रकाण्ड पाण्डित्य, अनुसंधानपरक दृष्टि, ऐतिहासिक चेतना और कवि-सुलभ भावुकता का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। वे केवल साहित्यकार ही नहीं थे, बल्कि प्राचीन भारतीय संस्कृति, इतिहास, पुरातत्त्व और भाषाविज्ञान के मर्मज्ञ विद्वान भी थे। उनके निबंधों में तथ्यात्मक गंभीरता के साथ-साथ सांस्कृतिक आत्मा की गहन अनुभूति मिलती है।

डॉ. अग्रवाल ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेखन द्वारा हिंदी गद्य को शोध की प्रतिष्ठा प्रदान की। पुरातत्त्व संबंधी उपलब्धियों से सम्पन्न कर उन्होंने हिंदी को एक ऐसी भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया, जो केवल भाव-प्रकाशन की नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और ऐतिहासिक चिंतन की भी समर्थ भाषा है। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्येता के रूप में उनका निबंध साहित्य हिंदी की अमूल्य निधि माना जाता है।

Table of Contents

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल : जीवन-परिचय (संक्षिप्त – तालिका)

हेडिंगविवरण
पूरा नामवासुदेवशरण अग्रवाल
उपाधिडॉक्टर (Ph.D., D.Litt.)
जन्म तिथि7 अगस्त, 1904 ई.
जन्म स्थानखेड़ा ग्राम, मेरठ जिला, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु तिथि27 जुलाई, 1966 ई. (कुछ स्रोतों में 1967 भी उल्लिखित)
मृत्यु स्थानवाराणसी, उत्तर प्रदेश
पिता का नामविष्णु अग्रवाल
माता का नामसीता देवी अग्रवाल
राष्ट्रीयताभारतीय
कालआधुनिक काल
शिक्षाएम.ए., पीएच.डी., डी.लिट.
शिक्षण संस्थानकाशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
भाषा-ज्ञानहिन्दी, संस्कृत, प्राकृत
व्यवसाय / पेशासाहित्यकार, विद्वान, वकील
प्रसिद्धिप्रख्यात विद्वान, लेखक एवं सांस्कृतिक चिन्तक
प्रमुख साहित्यिक विधाएँनिबन्ध, शोध-ग्रन्थ, समीक्षात्मक ग्रन्थ
प्रमुख रचनाएँपृथ्वीपुत्र, कल्पवृक्ष, भारत की एकता, कल्पलता, वाग्धारा, मातृभूमि, कला और संस्कृति, पाणिनिकालीन भारतवर्ष आदि
उल्लेखनीय कार्यराष्ट्रीय पुरातत्त्व संग्रहालय, दिल्ली की स्थापना में प्रमुख भूमिका
अन्य महत्वपूर्ण योगदानमथुरा संग्रहालय (उत्तर प्रदेश) के संग्रहाध्यक्ष के रूप में सेवाएँ
आंदोलन / सांस्कृतिक योगदानस्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय सांस्कृतिक एवं पुरातत्त्वीय संस्थानों के विकास में सक्रिय योगदान
पुरस्कार एवं सम्मानसाहित्य अकादमी पुरस्कार (1956) — संजीवनी व्याख्या

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जी का जीवन परिचय

जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का जन्म 7 अगस्त 1904 ई. को उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद में स्थित खेड़ा नामक ग्राम में हुआ। उनके पिता का नाम विष्णु अग्रवाल तथा माता का नाम सीता देवी अग्रवाल था। यद्यपि जन्मस्थली खेड़ा थी, किंतु माता-पिता का निवास लखनऊ में होने के कारण उनका बचपन और प्रारंभिक जीवन वहीं व्यतीत हुआ।

लखनऊ उस समय उत्तर भारत का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र था। यही कारण है कि डॉ. अग्रवाल को बाल्यकाल से ही साहित्य, इतिहास और संस्कृति से जुड़े वातावरण में रहने का अवसर मिला। माता-पिता की स्नेहिल छत्र-छाया में उन्होंने अनुशासन, अध्ययनशीलता और जिज्ञासा के संस्कार ग्रहण किए, जो आगे चलकर उनके विद्वान व्यक्तित्व की आधारशिला बने।

शिक्षा और बौद्धिक निर्माण

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की शिक्षा का क्रम अत्यंत सुदृढ़ और बहुआयामी रहा। प्रारंभिक एवं माध्यमिक शिक्षा लखनऊ में प्राप्त करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का रुख किया। यहाँ से उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

इसके पश्चात उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए., पीएच.डी. तथा डी.लिट. जैसी उच्चतम शैक्षणिक उपाधियाँ अर्जित कीं। उनका शोध प्रबंध ‘पाणिनिकालीन भारत’ विद्वानों द्वारा अत्यंत प्रशंसित हुआ। यह शोध न केवल पाणिनि के काल की भाषिक स्थिति को समझने का प्रयास था, बल्कि उसमें उस युग की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचना का भी सूक्ष्म विश्लेषण किया गया था।

डॉ. अग्रवाल को पाली, संस्कृत और अंग्रेजी जैसी भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। उन्होंने इन भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन कर भारतीय संस्कृति को बहुभाषिक दृष्टि से समझने का प्रयास किया। इसी कारण उनके लेखन में शास्त्रीय प्रमाणों के साथ आधुनिक विवेचन भी मिलता है।

पुरातत्त्व और संग्रहालय सेवा

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का जीवन केवल विश्वविद्यालयी अध्यापन तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने पुरातत्त्व और संग्रहालय विज्ञान के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया।

उन्होंने लखनऊ और मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालयों में निरीक्षक के पद पर कार्य किया। मथुरा जैसे ऐतिहासिक नगर में कार्य करते हुए उन्हें भारतीय मूर्तिकला, शिल्पकला और पुरावशेषों का प्रत्यक्ष अध्ययन करने का अवसर मिला।

सन् 1946 से 1951 ई. तक वे सेंट्रल एशियन एण्टिक्विटीज म्यूजियम के सुपरिंटेंडेंट रहे। इस पद पर रहते हुए उन्होंने मध्य एशिया से प्राप्त भारतीय सांस्कृतिक अवशेषों के संरक्षण और अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही वे भारतीय पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष भी रहे। इस प्रकार उन्होंने प्रशासनिक स्तर पर भी भारतीय पुरातत्त्व को दिशा देने का कार्य किया।

विश्वविद्यालयी अध्यापन और अकादमिक योगदान

सन् 1951 ई. में डॉ. अग्रवाल को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इंडोलॉजी (भारती महाविद्यालय) में प्रोफेसर नियुक्त किया गया। यह उनके जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण चरण था, क्योंकि यहाँ उन्हें भारतीय विद्या, इतिहास और संस्कृति के विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष मार्गदर्शन देने का अवसर मिला।

सन् 1952 ई. में वे लखनऊ विश्वविद्यालय में राधाकुमुद मुखर्जी व्याख्याननिधि के अंतर्गत व्याख्याता नियुक्त हुए। इस अवसर पर उन्होंने ‘पाणिनि’ विषय पर व्याख्यानमाला प्रस्तुत की, जो आगे चलकर विद्वानों के लिए संदर्भ सामग्री बनी।

इसके अतिरिक्त वे भारतीय मुद्रापरिषद् (नागपुर), भारतीय संग्रहालय परिषद् (पटना), ऑल इंडिया ओरिएंटल कॉन्ग्रेस, तथा फाइन आर्ट सेक्शन (बंबई) जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं से भी सक्रिय रूप से जुड़े रहे और कई संस्थाओं के सभापति पद को सुशोभित किया।

निबंधकार के रूप में वासुदेव शरण अग्रवाल

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनका निबंध साहित्य है। उनके निबंध केवल विषय-प्रधान नहीं, बल्कि संस्कृति-प्रधान और शोध-प्रधान हैं। वे इतिहास को केवल घटनाओं का क्रम नहीं मानते, बल्कि उसे एक सांस्कृतिक प्रवाह के रूप में देखते हैं।

उनकी लेखनी में तीन प्रमुख तत्त्व स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं—

  1. प्रकाण्ड पाण्डित्य
  2. शोध-दृष्टि और तथ्यात्मकता
  3. कवि-सुलभ संवेदना और सौंदर्यबोध

यही कारण है कि उनके निबंध शुष्क इतिहास नहीं बनते, बल्कि जीवंत सांस्कृतिक आख्यान का रूप ग्रहण कर लेते हैं।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की प्रमुख रचनाएँ : स्वरूप, विषय-विस्तार और महत्व

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल हिंदी साहित्य में केवल निबंधकार के रूप में ही नहीं, बल्कि शोधकर्ता, संपादक, समीक्षक और सांस्कृतिक इतिहासकार के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। उनकी रचनाओं का मूल केंद्र पुरातत्त्व, भारतीय संस्कृति, इतिहास, भाषा और साहित्य रहा है।

उन्होंने निबंध-लेखन के अतिरिक्त हिंदी, पालि, प्राकृत और संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रंथों का संपादन एवं पाठ-शोधन किया। इस कार्य के माध्यम से उन्होंने प्राचीन भारतीय ज्ञान-परंपरा को आधुनिक पाठकों और शोधकर्ताओं के लिए सुलभ बनाया। डॉ. अग्रवाल ने पुरातत्त्व को ही अपना मुख्य वर्ण्य-विषय बनाया और उसी के आलोक में अपने निबंधों तथा ग्रंथों की रचना की।

उनकी रचनाओं को विषय और प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है—

1. निबंध संकलन

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का निबंध साहित्य हिंदी गद्य की एक विशिष्ट धारा का प्रतिनिधित्व करता है। उनके निबंध शोधपरक, सांस्कृतिक और विचारप्रधान हैं। इनमें इतिहास, कला, संस्कृति, राष्ट्रबोध और मानवीय मूल्यों का गहन विश्लेषण मिलता है।

(1) पृथ्वीपुत्र

यह निबंध संकलन मानव और पृथ्वी के संबंध को सांस्कृतिक दृष्टि से देखता है। इसमें भारतीय सभ्यता की प्रकृति-केन्द्रित चेतना, भूमि की पवित्रता और मानव जीवन में पृथ्वी के महत्व को रेखांकित किया गया है।

(2) कल्पवृक्ष

इस संकलन में भारतीय संस्कृति को एक कल्पवृक्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसकी जड़ें वेदों में हैं और शाखाएँ विविध कला, साहित्य एवं दर्शन में फैली हुई हैं। यह ग्रंथ भारतीय परंपरा की निरंतरता और जीवंतता को रेखांकित करता है।

(3) भारत की एकता

यह निबंध संकलन डॉ. अग्रवाल की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक दृष्टि का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसमें उन्होंने भारत की भौगोलिक, भाषिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बीच अंतर्निहित एकता को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रमाणों के साथ स्पष्ट किया है।

(4) मातृभूमि

इस संकलन के निबंधों में भूमि, राष्ट्र और संस्कृति के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त हुई है। यहाँ मातृभूमि केवल राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सत्ता के रूप में उपस्थित है।

(5) कला और संस्कृति

इस ग्रंथ में डॉ. अग्रवाल ने भारतीय कला—विशेषतः मूर्तिकला, चित्रकला और स्थापत्य—को सांस्कृतिक दृष्टि से विश्लेषित किया है। कला को उन्होंने समाज और इतिहास की जीवंत अभिव्यक्ति माना है।

(6) कल्पलता

यह संकलन भारतीय जीवन-मूल्यों, परंपराओं और सांस्कृतिक प्रतीकों की व्याख्या करता है। इसकी शैली अधिक काव्यात्मक और भावप्रवण है।

(7) वाग्धारा

‘वाग्धारा’ में भाषा, साहित्य और अभिव्यक्ति की परंपरा पर केंद्रित निबंध संकलित हैं। इसमें डॉ. अग्रवाल की भाषावैज्ञानिक और साहित्यिक चेतना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

2. ऐतिहासिक एवं पौराणिक निबंध

इन निबंधों में डॉ. अग्रवाल ने भारतीय इतिहास और पुराण-परंपरा के महान व्यक्तित्वों को आधुनिक शोध-दृष्टि से प्रस्तुत किया है।

(1) महापुरुष श्रीकृष्ण

इस निबंध में श्रीकृष्ण को केवल पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के केंद्रीय प्रतीक के रूप में विश्लेषित किया गया है। इसमें उनके सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक योगदान का विवेचन है।

(2) महर्षि वाल्मीकि

यह निबंध वाल्मीकि को आदि कवि के रूप में ही नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना के संवाहक के रूप में प्रस्तुत करता है। रामायण को सांस्कृतिक ग्रंथ के रूप में समझने की दृष्टि इसमें मिलती है।

(3) मनु

मनु पर लिखे गए निबंध में डॉ. अग्रवाल ने मनु को विधिक और सामाजिक परंपरा के प्रतीक के रूप में देखा है। इसमें भारतीय समाज-व्यवस्था के विकास का ऐतिहासिक विश्लेषण मिलता है।

3. शोध ग्रंथ

पाणिनिकालीन भारत

यह डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शोध-ग्रंथ है। इसमें उन्होंने पाणिनि के व्याकरण के आधार पर उस काल के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का पुनर्निर्माण किया है।
यह ग्रंथ भारतीय इतिहास-लेखन में एक मौलिक और प्रामाणिक योगदान माना जाता है।

4. समीक्षात्मक ग्रंथ

डॉ. अग्रवाल की समीक्षाएँ केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भी हैं।

(1) मलिक मोहम्मद जायसी कृत पद्मावत

इस ग्रंथ में पद्मावत का गहन साहित्यिक और सांस्कृतिक विश्लेषण किया गया है। सूफी परंपरा, प्रेम-तत्त्व और भारतीय लोकजीवन की व्याख्या इसमें मिलती है।

(2) कालिदास कृत मेघदूत की संजीवनी व्याख्या

इस व्याख्या में डॉ. अग्रवाल ने मेघदूत को केवल काव्य न मानकर, उसे संस्कृति, प्रकृति और मानवीय भावनाओं का समन्वित रूप सिद्ध किया है।

5. सांस्कृतिक ग्रंथ

(1) भारत की मौलिक एकता

यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति की आंतरिक एकता को सिद्ध करता है। इसमें भाषा, धर्म, कला और जीवन-पद्धति के आधार पर भारत की सांस्कृतिक अखंडता का विवेचन है।

(2) हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन (अनुवाद ग्रंथ)

यह बाणभट्ट के हर्षचरित का सांस्कृतिक दृष्टि से किया गया अध्ययन है। इसके माध्यम से गुप्तोत्तर भारत की सांस्कृतिक छवि उभरकर सामने आती है।

(3) हिन्दू सभ्यता

इस ग्रंथ में डॉ. अग्रवाल ने हिन्दू सभ्यता के विकास, मूल तत्त्वों और ऐतिहासिक निरंतरता का गहन विश्लेषण किया है।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की रचनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि वे केवल लेखक नहीं, बल्कि संस्कृति के अन्वेषक थे। उनके निबंध, शोध और समीक्षात्मक ग्रंथ हिंदी साहित्य को बौद्धिक गहराई, ऐतिहासिक दृष्टि और सांस्कृतिक गरिमा प्रदान करते हैं। उनकी रचनाएँ आज भी हिंदी के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और संस्कृति-अध्येताओं के लिए प्रामाणिक संदर्भ बनी हुई हैं।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल जी का रचनात्मक परिचय

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के कृतित्व की सबसे सुदृढ़ और स्थायी पहचान उनके द्वारा किए गए संस्कृत, हिन्दी तथा प्राचीन भारतीय ग्रंथों के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भाषिक अध्ययन में निहित है। उनका यश केवल निबंधकार के रूप में सीमित नहीं है, बल्कि वे भारतविद्या (Indology) के उन विरल विद्वानों में गिने जाते हैं, जिन्होंने भाषा और साहित्य के माध्यम से भारतीय सभ्यता का पुनःअन्वेषण किया।

संस्कृत साहित्य में कालिदास और बाणभट्ट जैसे महाकवियों के ग्रंथों से लेकर पुराणों और महाभारत तक, तथा हिन्दी साहित्य में विद्यापति के अवहट्ठ काव्य से लेकर मलिक मोहम्मद जायसी के अवधी महाकाव्य ‘पद्मावत’ तक—डॉ. अग्रवाल का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक, बहुस्तरीय और बहुभाषिक रहा है।

उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ भारतविद्या का एक आदर्श और अनुपम ग्रंथ मानी जाती है। इस ग्रंथ में उन्होंने पाणिनि की अष्टाध्यायी को आधार बनाकर तत्कालीन भारतीय समाज, संस्कृति, जीवन-दर्शन और संस्थाओं का वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत विश्लेषण किया है। भाषा को ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में प्रयोग करते हुए उन्होंने यह सिद्ध किया कि व्याकरण भी संस्कृति के अध्ययन का प्रामाणिक साधन हो सकता है

इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि यह केवल शोध-ग्रंथ न रहकर विश्वकोशीय स्वरूप ग्रहण कर लेता है। सुव्यवस्थित अनुक्रमणिका के कारण इसका उपयोग कोशीय ग्रंथ के रूप में भी सहज और प्रभावी हो जाता है।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल जी की प्रमुख कृतियाँ : विषयानुसार वर्गीकरण

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की रचनाओं को विषय-वस्तु और प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित वर्गों में सुव्यवस्थित किया जा सकता है—

1. निबंध-संग्रह

डॉ. अग्रवाल के निबंध शोध, संस्कृति और राष्ट्रबोध का सशक्त समन्वय प्रस्तुत करते हैं। इनमें इतिहास-बोध, कला-दृष्टि और भारतीय जीवन-मूल्यों की गहरी पड़ताल मिलती है।

प्रमुख निबंध-संग्रह

  • पृथ्वी-पुत्र
  • कल्पवृक्ष
  • कल्पतरु
  • माताभूमि
  • भारत की एकता
  • वेद विद्या
  • कला और संस्कृति
  • वाग्बधारा
  • पूर्ण ज्योति

इन निबंधों में भारत की सांस्कृतिक चेतना को भावनात्मक नहीं, बल्कि बौद्धिक और ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया गया है।

2. ऐतिहासिक एवं पौराणिक निबंध

इन निबंधों में डॉ. अग्रवाल ने पौराणिक एवं ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को आधुनिक शोध-दृष्टि से पुनःव्याख्यायित किया है—

  • महापुरुष श्रीकृष्ण
  • महर्षि वाल्मीकि
  • मनु

यहाँ ये व्यक्तित्व केवल धार्मिक या मिथकीय नहीं रहते, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के केंद्रीय सूत्रधार के रूप में सामने आते हैं।

3. आलोचनात्मक एवं समीक्षात्मक कृतियाँ

डॉ. अग्रवाल की आलोचना परंपरागत साहित्यालोचना से भिन्न है। वे ग्रंथों का मूल्यांकन सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों में करते हैं—

  • पद्मावत की संजीवनी व्याख्या
  • हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन

इन ग्रंथों में उन्होंने काव्य को समाज और संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति के रूप में समझाया है।

4. शोध-ग्रंथ

  • पाणिनिकालीन भारतवर्ष

यह ग्रंथ उनके संपूर्ण कृतित्व का केन्द्रीय स्तंभ है। इसमें भाषा, व्याकरण, समाज और इतिहास का अद्भुत अंतर्संबंध स्थापित किया गया है।

(कुछ संदर्भों में नविन कालीन भारत नाम से उल्लिखित कृति भी शोध-प्रवृत्ति को दर्शाती है।)

5. ग्रंथाधारित विवेचनात्मक अध्ययन

डॉ. अग्रवाल ने अनेक प्राचीन ग्रंथों का एकांगी नहीं, बल्कि समग्र सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया—

  • मेघदूत : एक अध्ययन (1951)
  • हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन (1953)
  • पाणिनिकालीन भारतवर्ष (1955)
  • पद्मावत : मूल एवं संजीवनी व्याख्या (1955)
  • कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन (1957)
  • मार्कण्डेय पुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन (1961)
  • कीर्तिलता : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन (1962)
  • भारत सावित्री (महाभारत-कथा का आलोचनात्मक सार, तीन खंडों में)

इन कृतियों में साहित्य को इतिहास, समाज और धर्म से जोड़कर देखा गया है।

6. स्वतंत्र विषयक ग्रंथ

इन ग्रंथों में डॉ. अग्रवाल ने किसी एक साहित्यिक कृति तक सीमित न रहकर व्यापक भारतीय संदर्भों पर विचार किया—

  • भारत की मौलिक एकता
  • भारतीय कला (प्रारंभिक युग से तीसरी शती ईस्वी तक)

ये ग्रंथ भारत की सांस्कृतिक अखंडता और कलात्मक विकास को ऐतिहासिक क्रम में समझाते हैं।

7. विविध विषयक निबंध-संग्रह

  • पृथ्वी-पुत्र
  • उरु-ज्योति
  • कल्पवृक्ष
  • माताभूमि
  • कला और संस्कृति
  • इतिहास-दर्शन
  • भारतीय धर्ममीमांसा

इनमें दर्शन, इतिहास, धर्म और संस्कृति का समन्वित चिंतन दिखाई देता है।

8. संपादन एवं अनुवाद कार्य

डॉ. अग्रवाल ने संपादक और अनुवादक के रूप में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया—

  • पोद्दार अभिनन्दन ग्रंथ
  • हिन्दू सभ्यता (राधाकुमुद मुखर्जी की अंग्रेजी कृति का हिंदी अनुवाद)
  • शृंगारहाट (डाॅ. मोतीचन्द्र के सहयोग से)

इन कार्यों के माध्यम से उन्होंने विदेशी भाषा में उपलब्ध भारतीय ज्ञान को हिंदी जगत तक पहुँचाया।

9. अंग्रेज़ी में प्रकाशित कृतियाँ

डॉ. अग्रवाल की विद्वत्ता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार्य रही। उनकी प्रमुख अंग्रेज़ी कृतियाँ हैं—

  • Vedic Lectures
  • Vision in Long Darkness
  • Hymn of Creation (Nasadiya Sukta)
  • The Deeds of Harsha
  • Indian Art
  • India – A Nation
  • Masterpieces of Mathura Sculpture
  • Ancient Indian Folk Cults
  • Evolution of the Hindu Temple & Other Essays
  • A Museum Studies
  • Varanasi Seals and Sealing

इन ग्रंथों के माध्यम से भारतीय संस्कृति और कला का वैश्विक स्तर पर प्रस्तुतीकरण हुआ।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल जी की रचनाएँ : वर्गीकृत तालिका

क्रमरचना-श्रेणीग्रंथ / कृति का नाम
1निबंध-संग्रहपृथ्वी-पुत्र
कल्पवृक्ष
कल्पतरु
माताभूमि
भारत की एकता
वेद विद्या
कला और संस्कृति
वाग्बधारा
पूर्ण ज्योति
उरु-ज्योति
इतिहास-दर्शन
भारतीय धर्ममीमांसा
2ऐतिहासिक एवं पौराणिक निबंधमहापुरुष श्रीकृष्ण
महर्षि वाल्मीकि
मनु
3शोध-ग्रंथपाणिनिकालीन भारतवर्ष
नविन कालीन भारत
4आलोचनात्मक / समीक्षात्मक कृतियाँपद्मावत की संजीवनी व्याख्या
हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन
5ग्रंथाधारित सांस्कृतिक अध्ययनमेघदूत : एक अध्ययन
कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन
मार्कण्डेय पुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन
कीर्तिलता : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन (संजीवनी व्याख्या सहित)
पद्मावत : मूल पाठ एवं संजीवनी व्याख्या
भारत सावित्री (महाभारत-कथा का आलोचनात्मक सार – तीन खंड)
6स्वतंत्र विषयक ग्रंथभारत की मौलिक एकता
भारतीय कला (प्रारंभिक युग से तीसरी शती ईस्वी तक)
7संपादन एवं अनुवादपोद्दार अभिनन्दन ग्रंथ (संपादन)
हिन्दू सभ्यता (राधाकुमुद मुखर्जी की अंग्रेज़ी कृति का हिंदी अनुवाद)
शृंगारहाट (डाॅ. मोतीचन्द्र के साथ)
8अंग्रेज़ी में प्रकाशित कृतियाँVedic Lectures
Vision in Long Darkness
Hymn of Creation (Nasadiya Sukta)
The Deeds of Harsha
Indian Art
India – A Nation
Masterpieces of Mathura Sculpture
Ancient Indian Folk Cults
Evolution of the Hindu Temple & Other Essays
A Museum Studies
Varanasi Seals and Sealing

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की रचनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि वे केवल साहित्यकार नहीं, बल्कि संस्कृति के वैज्ञानिक अन्वेषक थे। उनका कृतित्व हिंदी साहित्य को बौद्धिक गरिमा, ऐतिहासिक प्रामाणिकता और सांस्कृतिक आत्मबोध प्रदान करता है। यही कारण है कि उनका रचनात्मक अवदान आज भी शोधार्थियों और विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य संदर्भ बना हुआ है।

भाषागत विशेषताएँ और अभिव्यक्ति

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की भाषा उनकी विद्वत्ता और सांस्कृतिक चेतना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। उनकी गद्य-भाषा मूलतः शुद्ध, परिमार्जित और संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक हिंदी है, जिसमें तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग मिलता है। इसके बावजूद उनकी भाषा दुरूह नहीं बनती, क्योंकि शब्द-चयन में वे अत्यंत सजग और संतुलित दृष्टि अपनाते हैं।

उनकी भाषा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह विषय के अनुरूप अपना रूप परिवर्तित करती है। जहाँ सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और शोधपरक निबंधों में भाषा गंभीर, विश्लेषणात्मक और विचारप्रधान दिखाई देती है, वहीं अन्य निबंधों में वही भाषा सरल, सहज और व्यावहारिक स्वरूप ग्रहण कर लेती है। इस गुण के कारण उनका लेखन विद्वानों के साथ-साथ सामान्य पाठकों के लिए भी सुगम बन जाता है।

डॉ. अग्रवाल की शब्द-संपदा में देशज शब्दों का यथोचित प्रयोग मिलता है, किंतु उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दावली का प्रयोग उन्होंने प्रायः नहीं किया है। मुहावरों और लोकोक्तियों का भी उनकी भाषा में विशेष स्थान नहीं है। वे भाषा को अलंकरण का साधन न बनाकर विचार-प्रकाशन और सांस्कृतिक गरिमा का माध्यम मानते हैं। समग्रतः उनकी भाषा प्रौढ़, अनुशासित और भाव-सम्प्रेषण में अत्यंत सक्षम है।

शैलीगत विविधता

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के निबंधों में एकरूपता के स्थान पर शैलीगत बहुलता देखने को मिलती है। विषय-वस्तु के अनुसार उन्होंने विभिन्न शैलियों का सफल प्रयोग किया है—

1. गवेषणात्मक शैली

पुरातत्त्व, इतिहास और संस्कृति से संबंधित शोधपरक निबंधों में उन्होंने गवेषणात्मक शैली अपनाई है। इस शैली में भाषा अधिक संस्कृतनिष्ठ होती है तथा वाक्य संरचना अपेक्षाकृत दीर्घ और विश्लेषणात्मक होती है। कहीं-कहीं पारिभाषिक और अप्रचलित शब्द भी मिलते हैं, जिससे भाषा में गंभीरता बढ़ जाती है। यद्यपि इस कारण भाषा कुछ स्थलों पर कठिन प्रतीत होती है, फिर भी विचार-प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता।

इस शैली में वे संस्कृति को ज्ञान और कर्म के संयुक्त रूप के रूप में परिभाषित करते हुए भारतीय जीवन-दृष्टि को गहराई से स्पष्ट करते हैं।

2. व्याख्यात्मक शैली

जिन रचनाओं में किसी ग्रंथ, काव्य या शास्त्रीय प्रसंग की विवेचना की गई है, वहाँ डॉ. अग्रवाल ने व्याख्यात्मक शैली का सहारा लिया है। पद्मावत जैसी कृतियों की व्याख्या करते समय वे जटिल संदर्भों को सरल, स्पष्ट और क्रमबद्ध भाषा में प्रस्तुत करते हैं, जिससे पाठक विषय को सहजता से ग्रहण कर सके। यह शैली उनके आलोचनात्मक विवेक और शिक्षक-सुलभ दृष्टि को उजागर करती है।

3. भावात्मक शैली

जहाँ लेखक का संवेदनात्मक पक्ष प्रधान हो जाता है, वहाँ उनकी शैली भावात्मक रूप ग्रहण कर लेती है। इस शैली में भाषा में सरसता, काव्यात्मकता और आलंकारिक सौंदर्य का समावेश दिखाई देता है। संस्कृति, राष्ट्र और जीवन-मूल्यों पर लिखते समय उनकी भाषा भाव-प्रवण होकर पाठक के मन को स्पर्श करती है। यहाँ विचार और भावना का संतुलन विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

4. उद्धरणात्मक शैली

डॉ. अग्रवाल अपने तर्कों और विचारों को पुष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर उद्धरणों का प्रयोग करते हैं। ये उद्धरण प्रायः संस्कृत ग्रंथों से लिए गए होते हैं, जो उनके कथन को प्रामाणिकता और शास्त्रीय आधार प्रदान करते हैं। इस शैली से उनके लेखन में विद्वत्ता के साथ-साथ विश्वसनीयता भी जुड़ जाती है।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल की भाषा-शैली में गंभीरता, प्रवाह, वैचारिक स्पष्टता और सांस्कृतिक गरिमा का संतुलित समन्वय दिखाई देता है। उनकी अभिव्यक्ति न तो बोझिल है और न ही अलंकारिक प्रदर्शन से युक्त। वे भाषा को विचार का अनुशासित माध्यम बनाते हैं, जिसके माध्यम से भारतीय संस्कृति, इतिहास और जीवन-दर्शन की गूढ़ अवधारणाएँ भी सहज रूप में व्यक्त हो जाती हैं।

इस प्रकार उनकी भाषा और शैली हिंदी गद्य परंपरा में एक उच्चकोटि का आदर्श प्रस्तुत करती है और उनके निबंधों को स्थायी महत्त्व प्रदान करती है।

साहित्य और संस्कृति का समन्वय

डॉ. अग्रवाल का साहित्य यह सिद्ध करता है कि संस्कृति केवल अतीत की वस्तु नहीं, बल्कि वर्तमान की चेतना है। उन्होंने भारतीय संस्कृति को पुरातत्त्व, भाषा, साहित्य और कला—सभी के समन्वय से समझने का प्रयास किया।

उनके निबंधों में भारतबोध, राष्ट्रीय चेतना और सांस्कृतिक गौरव की भावना प्रखर रूप में दिखाई देती है, किंतु यह भावना कहीं भी अंधराष्ट्रवाद का रूप नहीं लेती। यह तर्क, प्रमाण और ऐतिहासिक विवेक पर आधारित है।

निधन और साहित्यिक विरासत

प्राचीन भारतीय साहित्य और संस्कृति का यह महान विद्वान 27 जुलाई 1966 ई. (कुछ स्रोतों में 27 जुलाई 1967 ई.) को इस संसार से विदा हो गया। यद्यपि उनका भौतिक शरीर नश्वर था, किंतु उनका साहित्य आज भी जीवित है।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने हिंदी गद्य को जो बौद्धिक गरिमा और सांस्कृतिक ऊँचाई प्रदान की, वह उन्हें हिंदी निबंध परंपरा के शीर्ष विद्वानों में स्थापित करती है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल हिन्दी साहित्य के उन विरल विद्वानों में गिने जाते हैं, जिन्होंने साहित्य, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्त्व को एक समन्वित बौद्धिक दृष्टि प्रदान की। वे केवल निबन्धकार ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के गम्भीर मनीषी, प्रामाणिक अनुसन्धानकर्ता और मौलिक चिन्तक थे। हिन्दी साहित्य में उनका स्थान इसलिए भी विशिष्ट है कि उन्होंने साहित्य को भावात्मक अभिव्यक्ति तक सीमित न रखकर उसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भों से समृद्ध किया।

उनके निबन्ध हिन्दी निबन्ध परम्परा में एक नई दिशा का संकेत देते हैं। आचार्य शुक्ल के बाद जिस शोधप्रधान और विवेचनात्मक निबन्ध-धारा का विकास हुआ, उसमें डॉ. अग्रवाल का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने विषयों की गहन पड़ताल करते हुए तथ्यों, प्रमाणों और तर्कों के आधार पर अपने विचार प्रस्तुत किए, जिससे उनके निबन्ध विद्वत्ता और प्रामाणिकता का आदर्श बन गए।

डॉ. अग्रवाल की मौलिकता इस बात में निहित है कि वे भारतीय संस्कृति को केवल अतीत की वस्तु मानकर नहीं देखते, बल्कि उसे जीवंत परम्परा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके लेखन में वैदिक, पौराणिक, बौद्ध, जैन और लोक-सांस्कृतिक तत्त्वों का समन्वय दिखाई देता है। इसी कारण उनके निबन्ध साहित्य के साथ-साथ इतिहास, पुरातत्त्व और संस्कृति के विद्यार्थियों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हैं।

विवेचन की गम्भीरता और विश्लेषण की सूक्ष्मता उनके लेखन की प्रमुख विशेषताएँ हैं। वे किसी भी विषय पर सतही दृष्टि से नहीं लिखते, बल्कि उसकी जड़ों तक पहुँचकर व्यापक संदर्भों में उसका मूल्यांकन करते हैं। इस प्रवृत्ति ने उनके निबन्धों को स्थायित्व प्रदान किया और उन्हें समय की कसौटी पर खरा उतारा।

हिन्दी साहित्य में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का स्थान एक ऐसे विद्वान के रूप में सुरक्षित है, जिसने ज्ञान, शोध और संवेदना के बीच संतुलन स्थापित किया। उनका योगदान न केवल निबन्ध साहित्य को समृद्ध करता है, बल्कि हिन्दी को एक सशक्त बौद्धिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। निस्संदेह, उनका कृतित्व हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहेगा।

उपसंहार

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल केवल एक साहित्यकार नहीं, बल्कि संस्कृति के साधक, इतिहास के विवेचक और हिंदी भाषा के उन्नायक थे। उनका जीवन और कृतित्व यह प्रमाणित करता है कि जब साहित्य, शोध और संस्कृति एक साथ चलते हैं, तब भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रहती, बल्कि राष्ट्रीय चेतना की संवाहक बन जाती है।

हिंदी निबंध साहित्य में उनका योगदान कालातीत है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।


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