हुमायूँ | 1508 ई.-1556 ई.

हुमायूँ बाबर का सबसे बड़ा पुत्र और एक प्रख्यात मुगल सम्राट था। हुमायूँ एक एक मात्र ऐसा मुगल शासक था, जिसने अपने पिता बाबर की आज्ञा का पालन करते हुए अपने मुगल सम्राज्य का बंटवारा अपने चारों भाईयों में किया था।

हुमायूँ का जीवन इतना सरल नहीं था, उसका जीवन कई उतार-चढ़ावों से भरा हुआ था। हुमायूँ को सबसे ज्यादा कष्ट उसके भाईयों से मिला था। इसके साथ ही साथ अफगान शत्रुओं ने हुमायूँ की मुसीबतों को और भी ज्यादा बढ़ा दिया था।

मुग़ल शासक हुमायूँ का इतिहास

पूरा नामनासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ
अन्य नामहुमायूँ
जन्म तिथि6 मार्च, सन् 1508 ई.
जन्म भूमिक़ाबुल
मृत्यु तिथि27 जनवरी, सन् 1556 ई.
मृत्यु स्थानदिल्ली
पिता/माताबाबर, माहम बेगम
पति/पत्नीहमीदा बानू बेगम, बेगा बेगम, बिगेह बेगम, चाँद बीबी, हाज़ी बेगम, माह-चूचक, मिवेह-जान, शहज़ादी ख़ानम
संतानपुत्र-अकबर, मिर्ज़ा मुहम्मद हाकिम पुत्री- अकीकेह बेगम, बख़्शी बानु बेगम, बख्तुन्निसा बेगम
राज्य सीमाउत्तर और मध्य भारत
शासन काल26 दिसंबर, 1530 – 17 मई, 1540 ई. और 22 फ़रवरी, 1555 – 27 जनवरी, 1556 ई.
शा. अवधिलगभग 11 वर्ष
राज्याभिषेक29 दिसम्बर, सन् 1530 ई. आगरा
धार्मिक मान्यताइस्लाम धर्म
युद्ध1554 ई. में भारत पर आक्रमण
पूर्वाधिकारीबाबर
उत्तराधिकारीअकबर
राजघरानामुग़ल
मक़बराहुमायूँ का मक़बरा
संबंधित लेखमुग़ल काल

बाबर द्वारा उत्तराधिकारी के रूप में हुमायूँ की घोषणा एवं राज्याभिषेक

मुगल वंश के संस्थापक बाबर की मौत के चार दिन बाद 29 दिसंबर सन 1530 ई. में बाबर की इच्छानुसार उनके बड़े बेटे हुमायूँ को मुगल सिंहासन की गद्दी पर बिठाया गया और उनका राज्याभिषेक किया गया। बाबर ने उनके चार पुत्रों में मुगल सम्राज्य को लेकर लड़ाई न हो और अपने अन्य पुत्रों की उत्तराधिकारी बनने की इच्छा जाहिर करने से पहले ही अपने जीवित रहते हुए हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

इसके साथ ही बाबर ने चारों तरफ फैले अपने मुगल सम्राज्य को मजबूत बनाए रखने के लिए हुमायूँ को मुगल सम्राज्य को चारों भाईयों में बांटने के आदेश दिए। जिसके बाद बाबर के आज्ञाकारी पुत्र हुमायूँ ने अपने मुगल सम्राज्य को चारों भाईयों में बांट दिया।

हुमायूँ ने अपने भाई कामरान मिर्जा को पंजाब, कांधार, काबुल, हिन्दाल को अलवर और असकरी को सम्भल की सूबेदारी प्रदान किया, यही नहीं हुमायूँ ने अपने चचेरे भाई सुलेमान मिर्जा को भी बदखशा की जागीर सौंपी।

हालांकि, हुमायूँ द्वारा भाईयों को जागीर सौंपने का फैसला उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित हुआ। इसकी वजह से उसे अपनी जिंदगी में कई बड़ी मुसीबतों का भी सामना करना पड़ा। वहीं उसका सौतेला भाई कामरान मिर्जा उसका बड़ा प्रतिद्धन्दी बना। हालांकि, हुमायूँ का अफगान शासको से कट्टर दुश्मनी थी, वहीं अफगान शासकों से लड़ाई में भी उसके भाईयों ने कभी सहयोग नहीं दिया जिससे बाद में हुमायूँ को असफलता हाथ लगी।

हुमायूँ एवं उसके विजय अभियान

हुमायूँ ने अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में साल 1531 से 1540 ई. तक शासन किया, फिर दोबारा साल 1555 से 1556 तक शासन किया था। वहीं मुगल सम्राज्य का विस्तार पूरी दुनिया में करने के मकसद को लेकर हुमायूँ ने अपनी कुशल सैन्य प्रतिभा के चलते कई राज्यों में विजय अभियान चलाया। और इन अभियानों के तहत उसने कई राज्यों में जीत का परचम भी लहराया था।

साल 1531 ई. में गुजरात के शासक बहादुर शाह की लगातार बढ़ रही शक्ति को रोकने के लिए मुगल सम्राट हुमायूँ ने कालिंजर पर हमला किया। वहीं इस दौरान अफगान सरदार महमूद लोदी के जौनपुर और बिहार की तरफ आगे बढ़ने की खबर मिलते ही हुमायूँ गुजरात के शासक से कुछ पैसे लेकर वापस जौनपुर की तरफ चला गया। जिसके बाद दोनों के बीच युद्ध हुआ।

हुमायूँ

कालिंजर का आक्रमण (1531 ई.)

हुमायूँ को कालिंजर अभियान गुजरात के शासक बहादुर शाह की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए करना पड़ा। कालिंजर पर आक्रमण हुमायूँ का पहला आक्रमण था। कालिंजर के किले पर आक्रमण के समय ही उसे यह सूचना मिली कि, अफ़ग़ान सरदार महमूद लोदी बिहार से जौनपुर की ओर बढ़ रहा है। अतः कालिंजर के राजा प्रतापरुद्र देव से धन लेकर हुमायूँ वापस जौनपुर की ओर चला गया।

दौहारिया का युद्ध (1532 ई.)

साल 1532 में अफगान सरदार महमूद लोदी और हुमायूँ की विशाल सेना के बीच दौहारिया नामक स्थान के बीच युद्ध हुआ, इस युद्ध में हुमायूँ के पराक्रम के आगे महमूद लोदी नहीं टिक पाया और उसे हार का मुंह देखना पड़ा। और इस युद्द को दौहारिया का युद्ध कहा गया।

चुनार का घेरा (1532 ई.)

हुमायूँ के चुनार के क़िले पर आक्रमण के समय यह क़िला अफ़ग़ान नायक शेरशाह (शेर ख़ाँ) के क़ब्ज़े में था। 4 महीने लगातार क़िले को घेरे रहने के बाद शेर ख़ाँ एवं हुमायुँ में एक समझौता हो गया।

समझौते के अन्तर्गत शेर ख़ाँ ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार करते हुए, अपने पुत्र कुतुब ख़ाँ को एक अफ़ग़ान सैनिक टुकड़ी के साथ हुमायूँ की सेना में भेजना स्वीकार कर लिया तथा बदले में चुनार का क़िला शेर ख़ाँ के अधिकार में छोड़ दिया गया। हुमायूँ का खेर ख़ाँ को बिना पराजित किये छोड़ देना उसकी एक और बड़ी भूल थी। इस सुनहरे मौके का फ़ायदा उठाकर शेर ख़ाँ ने अपनी शक्ति एवं संसाधनों में वृद्धि कर ली। दूसरी तरफ़ हुमायूँ ने इस बीच अपने धन का अपव्यय किया तथा 1533 ई. हुमायूँ ने दिल्ली में ‘दीनपनाह’ नाम के एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका उद्देश्य था- मित्र एवं शत्रु को प्रभावित करना।

  • 1534 ई. में बिहार में मुहम्मद जमान मिर्ज़ा एवं मुहम्मद सुल्तान मिर्ज़ा के विद्रोह को हुमायूँ ने सफलतापूर्वक दबाया।

हुमायूँ और बहादुर शाह के बीच संघर्ष (1535-1536 ई.)

गुजरात के शासक बहादुर शाह ने 1531 ई. में मालवा तथा 1532 ई. में ‘रायसीन’ के महत्वपूर्ण क़िले पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मेवाड़ को संधि करने के लिए मजबूर किया। और इसी दौरान गुजरात के शासन बहादुर शाह ने टर्की के एक प्रख्यात एवं कुशल तोपची रूमी ख़ाँ की मदद से एक शानदार तोपखाने का निर्माण भी करवाया था।

जिसके बाद हुमायूँ ने बहादुरशाह की बढ़ती हुई शक्ति को दबाने के लिए साल 1535 ई. में बहादुरशाह पर ‘सारंगपुर’ में आक्रमण कर दिया। दोनों के बीच हुए इस संघर्ष में गुजरात के शासक बहादुर शाह को मुगल सम्राट हुमायूँ से हार का सामना करना पड़ा था।

इस तरह हुमायूँ ने माण्डू और चंपानेर के किलों पर भी अपना अधिकार जमा लिया और मालवा और गुजरात को उसने मुगल सम्राज्य में शामिल करने में सफलता हासिल की।

हुमायूँ का शेरशाह सूरी से मुकाबला (1537 ई.-1540 ई.)

वहीं दूसरी तरफ शेर खां ने ‘सूरजगढ़ के राज’ में बंगाल को जीतकर काफ़ी ख्याति प्राप्त की, जिससे हुमायूँ की चिंता और अधिक बढ़ गई। इसके बाद हुमायूँ ने शेर खां को सबक सिखाने और उसकी शक्ति को दबाने के उद्देश्य से साल 1538 में चुमानगढ़ के किला पर घेरा डाला और अपने साहस और पराक्रम के बलबूते पर उस पर अपना अधिकार जमा लिया।

हालांकि, शेर ख़ाँ (शेरशाह) के बेटे कुतुब ख़ाँ ने हुमायूँ को करीब 6 महीने तक इस किले पर अधिकार जमाने के लिए उसे काफी परेशान किया था और उसे कब्जा नहीं करने दिया था, लेकिन बाद में हुमायूँ के कूटनीति के सामने कुतुब खां को घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ा था।

इसके बाद 1538 ई. अपने विजय अभियान को आगे बढ़ाते हुए मुगल शासक हुमायूँ, बंगाल के गौड़ क्षेत्र में पहुंचा, जहां उसने चारों तरफ लाशों का मंजर देखा और अजीब से मनहूसियत महसूस की। इसके बाद हुमायूँ ने इस स्थान का फिर से निर्माण कार्य करा कर इसका नाम जन्नताबाद रख दिया।

हुमायूँ | 1508 ई.-1556 ई.

इसके बाद जब हुमायूँ बंगाल से लौट रहा था उसी समय हुमायूँ एवं शेरखाँ के बीच बक्सर के पास 29 जून, 1539 को चौसा नामक जगह पर युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ को हार का सामना करना पड़ा।

चौसा का युद्ध

साल 1539 में चौसा नामक जगह पर हुमायूँ और शेख खां की सेना के बीच युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में मुगल सेना को भारी नुकसान हुआ और अफगान सेना ने जीत हासिल की। वहीं चौसा के युद्ध क्षेत्र से हुमायूँ ने किसी तरह अपनी जान बचाई।

इतिहासकारों के मुताबिक चौसा के युद्ध में जिस भिश्ती का सहारा लेकर हुमायूँ ने अपनी जान बचाई थी, उसे हुमायूँ ने 24 घंटे के लिए दिल्ली का बादशाह का ताज पहनाया था, जबकि अफगान सरदार शेर खां को इस युद्ध में मिली महाजीत के बाद उसे ‘शेरशाह’ की उपाधि से नवाजा गया। इसके साथ ही शेर खां ने अपने नाम के सिक्के चलवाए।

कन्नौज (बिलग्राम) का युद्ध (17 मई, 1540 ई.)

17 मई 1540 ईसवी में हुमायूँ ने बिलग्राम और कन्नौज में लड़ाई लड़ी। वहीं इस लड़ाई में मुगल सम्राट हुमायूँ का उसके भाई अस्कारी और हिन्दाल ने साथ दिया, हालांकि हुमायूँ को इस युद्ध में असफलता हाथ लगी और यह एक निर्णायक युद्ध साबित हुआ। वहीं कन्नौज के इस युद्द के बाद हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य कमजोर पड़ गया और देश की राजसत्ता एक बार फिर से अफगानों के हाथ में आ गई।

इस युद्ध में पराजित होने के बाद हुमायूँ सिंध चला गया, और लगभग 15 साल तक निर्वासित जीवन व्यतीत किया। वहीं अपने इस निर्वासन काल के दौरान ही 29 अगस्त,1541 ई. में हुमायूँ ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरू फारसवासी शिया मीर अली की पुत्री हमीदाबानों बेगम से निकाह कर लिया, जिनसे उन्हें महान बुद्धजीवी और योग्य पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम अकबर रखा गया। अकबर ने बाद में मुगल सम्राट की नींव को मजबूत किया और मुगल साम्राज्य का जमकर विस्तार किया। और अपने पिता के सपने को साकार किया।

हुमायूँ द्वारा पुन: सत्ता−प्राप्ति

करीब 14 साल काबुल में बिताने के बाद साल 1545 ई. में मुगल सम्राट हुमायूँ ने काबुल और कंधार पर अपनी कुशल रणनीतियों द्वारा फिर से अपना अधिकार कर लिया। वहीं हिंदुस्तान के तख़्त पर फिर से राज करने के लिए 1554 ई. में हुमायूँ अपनी भरोसेमंद सेना के साथ पेशावर पहुंचा, और फिर अपने पूरे जोश के साथ उसने 1555 ई. में लाहौर पर दोबारा अधिकार कर जीत का परचम लहराया।

मच्छिवारा का युद्ध (15 मई, 1555 ई.)

इसके बाद मुगल सम्राट हुमायूँ और अफगान सरदार नसीब खां एवं तांतर खां के बीच सतलुज नदी के पास ‘मच्छीवारा’ नामक जगह पर युद्ध हुआ। इस युद्द में भी हुमायूँ ने जीत हासिल की और इस प्रकार पूरे पंजाब पर मुगलों का अधिकार करने में हुमायूँ सफल हुआ।

सरहिन्द का युद्ध (22 जून, 1555 ई.)

15 मई 1555 ईसवी को ही मुगलों और अफगानों के बीच सरहिन्द नामक जगह पर भीषण संघर्ष हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व बैरम खाँ ने और अफगान सेना का नेतृत्व सिकंदर सूर ने किया। हालांकि इस संघर्ष में अफगान सेना को मुगल सेना से हार खानी पड़ी। और 23 जुलाई, 1555 ई. के शुभ क्षणों में एक बार पुनः दिल्ली की गद्दी पर हुमायूँ को बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

इस तरह मुगलों ने एक बार फिर अपने सम्राज्य स्थापित कर लिया और हिंदुस्तान में मुगलों का डंका बजा।

हुमायूँ की मृत्यु

दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के बाद हुमायूँ ज्यादा दिनों तक सत्ता का सुख नहीं उठा सका। 27 जनवरी, साल 1556 में जब वह दिल्ली में दीनपनाह भवन में स्थित लाइब्रेरी की सीढ़ियों से उतर रहा था, तभी उसका पैर लड़खड़ा गया और उसकी मृत्यु हो गई।

वहीं उनके मौत के कुछ दिनों बाद उनकी बेगम हमीदा बानू ने “हुमायूँ के मकबरा” का निर्माण करवाया जो कि आज दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों में से एक है, और यह मुगलकालीन वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। इस तरह मुगल सम्राट हुंमायू के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए लेकिन हुंमायूं अपनी पराजय से निराश नहीं हुए बल्कि आगे बढ़ते रहे और एक बार फिर से अपने खोए हुए सम्राज्य को हासिल करने में सफल रहे।

वहीं हुमायूँ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर ने मुगल सिंहासन संभाला। उस समय अकबर की उम्र महज 13-14 साल थी, इसलिए बैरम खां को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया गया। इसके बाद अकबर ने मुगल सम्राज्य को मजबूती प्रदान की और लगभग पूरे भारत में मुगलों का सम्राज्य स्थापित किया।

हुमायूँ के जीवन से यही प्रेरणा मिलती है कि कठिनाइयों का डटकर सामना करने वालों को अपने जीवन में सफलता जरूर नसीब होती है। इसलिए अपने लक्ष्य की तरफ बिना रुके बढ़ते रहना चाहिए। इतिहासकार लेनपुल ने हुमायूँ के बारे में कहा है की,

“हुमायूँ गिरते पड़ते इस जीवन से मुक्त हो गया, ठीक उसी तरह, जिस तरह तमाम जिन्दगी गिरते पड़ते चलता रहा था”

हुमायूँ का मक़बरा

हुमायूँ के मकबरा को बनाने में लगभग 8 साल का समय लगा था। इस हुमायूँ के मकबरे का निर्माण काल 1565 से 1572 ई. के बीच माना जाता है। हुमायूँ के मकबरे के निर्माण के बारे में बताया जाता है, कि इस मकबरे का निर्माण के लिए हुमायूँ के मृत्यु के 9 साल उपरांत सोचा गया था। जब 1556 में मुग़ल सम्राट हुमायूँ की मृत्यु हुई, तब इनके शरीर को पुराने किला में दफनाया गया था। लेकिन किसी रक्षात्मक कारण को लेकर हुमायूँ के मृत्यु के 9 साल उपरांत इस हुमायूं के मकाबरे का निर्माण शुरू होने के बाद हुमायूँ को पुराने किले से लाकर पुनः यहां पर दफना दिया गया।

हुमायूँ | 1508 ई.-1556 ई.

हुमायूँ का मकबरा जो कि दिल्ली में स्थित है, इसे एक फारसी वास्तुकार जिनका नाम मिराक मिर्ज़ा घियास था ने निर्मित करवाया। इस मकबरा को बनाने में उस समय के दौरान लगभग 1.5 मिलियन रुपए का लागत आया था। इस मकाबरे के पास और भी कई सम्राटों की कब्रें देखने को मिलती है, जिनमें मुख्य हैं सम्राट हुमायूं की बेगम हमीदा बानो और शाहजहां के पुत्र दारा शिकाह की कब्र।

चार बाग़ गार्डन

मुख्य इमारत के निर्माण में आठ वर्ष लगे, किन्तु इसकी पूर्ण शोभा इसको घेरे हुए 30 एकड़ में फैले चारबाग शैली के मुगल उद्यानों से निखरती है। ये उद्यान भारत ही नहीं वरन दक्षिण एशिया में अपनी प्रकार के पहले उदाहरण थे। ये उच्च श्रेणी की ज्यामिती के उदाहरण हैं। जन्नत रूपी उद्यान चहार दीवारी के भीतर बना है।

ये उद्यान चार भागों में पैदल पथों (खियाबान) और दो विभाजक केन्द्रीय जल नालिकाओं द्वारा बंटा हुआ है। ये इस्लाम के जन्नत के बाग में बहने वाली चार नदियों के परिचायक हैं। इस प्रकार बने चार बागों को फिर से पत्थर के बने रास्तों द्वारा चार-चार छोटे भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार कुल मिलाकर 32 भाग बनते हैं।

केन्द्रीय जल नालिका मुख्य द्वार से मकबरे तक जाती हुई उसके नीचे जाती और दूसरी ओर से फिर निकलती हुई प्रतीत होती है, ठीक जैसा कुरआन की आयतों में ’जन्नत के बाग’ का वर्णन किया गया है। मकबरे को घेरे हुए चारबाग हैं, व उन्हें घेरे हुए तीन ओर ऊंची पत्थर की चहार दीवारी है व तीसरी ओर कभी निकट ही यमुना नदी बहा करती थी, जो समय के साथ परिसर से दूर चली गई है।

केन्द्रीय पैदल पथ दो द्वारों तक जाते हैं, एक मुख्य द्वार दक्षिणी दीवार में और दूसरा छोटा द्वार पश्चिमी दीवार में। ये दोनों द्वार दुमंजिला हैं। इनमें से पश्चिमी द्वार अब प्रयोग किया जाता है, व दक्षिणी द्वार मुगल काल में प्रयोग हुआ करता था और अब बंद रहता है। पूर्वी दीवार से जुड़ी हुई एक बारादरी है। इसमें नाम के अनुसार बारह द्वार हैं और इसमें ठंडी बहती खुली हवा का आनंद लिया जाता था।

उत्तरी दीवार से लगा हुआ एक हम्माम है जो स्नान के काम आता था। मकबरे के परिसर में चारबाग के अंदर ही दक्षिण-पूर्वी दिशा में 1590 में बना नाई का गुम्बद है। इसकी मुख्य परिसर में उपस्थिति दफ़नाये गये व्यक्ति की महत्ता दर्शाती है। वह शाही नाई हुआ करता था।

यह मकबरा एक ऊंचे चबूतरे पर बना है जिस पहुंचने के लिये दक्षिण ओर से सात सीढ़ियां बनी हैं। यह वर्गाकार है और इसके अकेले कक्ष के ऊपर एक दोहरा गुम्बद बना है। अंदर दो कब्रों पर कुरआन की आयतें खुदी हुई हैं। इनमें से एक कब्र पर 999 अंक खुदे हैं, जिसका अर्थ हिजरी का वर्ष 999 है जो 1590-91 ई. बताता है।

मुग़ल राज्य की स्थापना

जिस समय हुमायूँ की मृत्यु हुई उस समय उसका पुत्र अकबर 13−14 वर्ष का बालक था। हुमायूँ के बाद उसके पुत्र अकबर को उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उसका संरक्षक बैरम ख़ाँ को बनाया गया। तब हेमचंद्र सेना लेकर दिल्ली आया और उसने मु्ग़लों को वहाँ से भगा दिया।परन्तु हेमचंद्र की भी पराजय 6 नवंबर सन् 1556 ई. में पानीपत के मैदान में हो गई। और उसी दिन से भारत में स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना का सपना टूट गया और बालक अकबर के नेतृत्व में मुग़लों का शासन जम गया।


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