इल्तुतमिश का अर्थ है साम्राज्य का रक्षक। गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश 1210 से 1236 तक दिल्ली सल्तनत का सुल्तान रहा। इल्तुतमिश गुलाम वंश के बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक का उत्तराधिकारी था। उसका पूरा नाम शमशुद्दीन इल्तुतमिश था और वहआफ़ग़ान मूल का था। उसका जन्म सिस्टान (आज की ईरान) में हुआ था। उसने बाबरपुर (आज की बहादुरगढ़) में सलतनत की स्थापना किया और दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया।
इल्तुतमिश ने अपने शासनकाल में दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रखने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए। उसने सल्तनत की सेना को मजबूत किया, शांति संधियों को स्थापित किया, और राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में अपने मंत्रियों को नियुक्त किया। वह एक प्रतिष्ठित शासक के रूप में जाना जाता है। इल्तुतमिश को शांति और सुशासन का प्रशंसक माना जाता है।
इल्तुतमिश का शासनकाल राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण था। उसने अपने शासनकाल में दिल्ली सल्तनत को विशालतम और सबसे मजबूत राज्यों में से एक बनाया। उन्होंने दिल्ली सल्तनत को आर्थिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक रूप से समृद्ध और समृद्धिकृत किया।
इल्तुतमिश की संक्षिप्त जीवनी
- नाम : अल्तमश अथवा इल्त्तुतमिश
- जन्म स्थल : मध्य एशिया
- मृत्यु : 01 मई 1236, दिल्ली
- पूरा नाम : सम्शुद्दीन इल्तुतमिश
- धर्म : इस्लाम
- पिता : इलबारी सरदार आलमखां
- जीवन संगिनी : शाह तुर्कान
- संतान : रजिया सुल्तान, रुकुनुद्दीन फिरोज, नसुरुद्दीन महमूद, मौजुद्दीन बहराम, सुल्तान नसुरुद्दीन महमूद शाह
- घराना : बदायुं (दिल्ली का शासक बनने के पहले बदायु का सूबेदार था)
- दिल्ली सल्तनत का वास्तविक सस्थापक एवं दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला पहला शासक, दिल्ली का पहला सुल्तान।
- दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान जिसने बगदाद से सन 1229 ई . में खलीफा की उपाधि धारण किया।
- मंगोल के शासक चंगेज खान इल्तुतमिश के समय में ही भारत पर आक्रमण किया।
- इल्तुतमिश को गुलामो का गुलाम भी कहा जाता था।
इल्तुतमिश का जीवन परिचय
इल्तुतमिश तुर्किस्तान की इलबारी कबीले के सरदार आलम खां का लड़का था। बचपन से ही इल्तुतमिश अत्यधिक आकर्षक एवं होनहार था। जिसके कारण इल्तुतमिश का पिता अपने अन्य पुत्रों की अपेक्षा इल्तुतमिश से अधिक प्यार करता था। प्रारंभ से ही उसमें बुद्धिमत्ता एवं चतुराई के लक्षण दिखलाई देते थे। इससे उसके भाइयों को बड़ी ईष्या होती थी और उससे काफी परेशान रहते थे। इसलिए इल्तुतमिश के भाइयों ने इल्तुतमिश को पैतृक घर एवं संरक्षण से वंचित करने के लिए बचपन में ही घोड़ो के एक व्यापारी को बेच दिया। और घोड़ों के व्यापारी ने इल्तुतमिश को प्रधान काजी को बेच दिया।
काजी के पुत्रों ने उसे एक दास व्यापारी जमालुद्दीन को बेच दिया। अंत में मुहम्मद गोरी के एक भरोसेमंद गुलाम एवं शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने इल्तुतमिश को खरीद लिया। जिससे इल्तुतमिश को गुलामो का गुलाम भी कहा जाता है। परन्तु विपरीत परिस्थितियों ने उसके गुण नष्ट नहीं किये और शीघ्र ही उसके जीवन में एक नया द्वार खोल दिया।
इल्तुतमिश ने अपनी योग्यता, पराक्रम और स्वामी भक्ति से ऐबक का विश्वास प्राप्त कर लिया और धीरे धीरे उन्नति की ओर बढने लगा। प्रारम्भ में उसे सूबेदार पद पर नियुक्त किया गया। इसके बाद उसे अमीर ए शिकार बनाया गया। 1205 ई में जब गोरी ने पंजाब के खोखरों के विरुद्ध अभियान किया था, उसमें इल्तुतमिश ने असाधारण पराक्रम का परिचय दिया। जिससे प्रसन्न होकर गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को उसके साथ अच्छा व्यवहार करने तथा दासता के बंधन से मुक्त करने को कहा।
इस प्रकार सुलतान के आदेश से वह दासत्व से मुक्त कर दिया गया और उसे अमीरुल-उमरा का ऊंचा पद मिला। इस पद पर रहते हुए उसने गढ़वाल राजपूतों का दमन किया और अपनी रण निपुणता के लिए ख्याति अर्जित की। अपनी योग्यता के बल से Iltutmish धीरे-धीरे अपना दर्जा बढ़ाता गया। वह बदायूँ का शासक बना दिया गया।
इल्तुतमिश और दिल्ली की सत्ता | सुल्तानी संघर्षों का आरंभ
लाहौर में कुतुबुद्दीन ऐबक की अचानक मृत्यु हो जाने पर वहाँ के अमीरों और मलिकों ने उपद्रव पर नियंत्रण करने, साधारण जनता में शान्ति कायम रखने तथा सैनिकों के हृदयों के संतोष के लिए आरामबख्श को सुल्तान एहराम शाह के नाम से उसका उत्तराधिकारी खड़ा किया। एहराम शाह राज्य-शासन के योग्य नहीं था। जिससे शीघ्र ही दिल्ली सरदारों ने आराम शाह के विरुद्ध षड्यंत्र रच कर उसे हटाने के लिए मलिक शम्सुद्दीन इल्तुतमिश को आमंत्रित किया, जो उस समय बदायूं का शासक था। इस बुलावे के उत्तर में इल्तुतमिश अपनी सारी सेना लेकर आगे बढ़ा तथा एहराम शाह को दिल्ली के निकट, जूद के मैदान में परास्त कर दिया। और सत्ता अपने हाथ में ले लिया।
इस प्रकार दिल्ली के सरदारों ने एक योग्य व्यक्ति को चुना। परन्तु 1210 ई. में सिंहासन पर बैठने के पश्चात् इल्तुतमिश ने अपने को संकट पूर्ण परिस्थिति में पाया। नासिरुद्दीन कुबाचा ने सिंध में स्वतंत्रता स्थापित कर ली और ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पंजाब पर भी अपना अधिपत्य जमाना चाहता है। ताजुद्दीन यल्दूज जो गजनी पर अधिकार किये था, अब भी मुहम्मद के भारतीय प्रदेशों पर प्रभुता का अपना पुराना दावा किये बैठा था।
इल्तुतमिश का सांस्कृतिक और प्रशासनिक योगदान
इल्तुतमिश ने कुतुबमीनार का निर्माण कार्य पूरा कराया। न्याय के लिए सिंहों के गले में घण्टी बंधवाई। नागौर में मस्जिद एवं विशाल अतरकिन का दरवाजा बनाया। दिल्ली में शम्सीहौज एवं नासिरुदीन महमूद का गढ़ी का मकबरा बनवाया जो भारत का पहला मकबरा माना जाता है। वकात-ए-नासिरी के लेखक मिनहाज इस काल का प्रमुख विद्वान था। प्रशासन में मदद के लिए तुर्कान-ए-चिहलगानी नामक दल का गठन किया। सल्तनत काल में वंशानुगत व्यवस्था चलाने का श्रेय एवं उत्तराधिकारी घोषित करने की परम्परा इल्तुतमिश ने शुरू की। वास्तव में इस काल में उत्तराधिकार की कोई निश्चित परम्परा नही थी।
इल्तुतमिश और उसके उत्तराधिकारी
इल्तुतमिश बंगाल में शासन कर रहे अपने प्रिय पुत्र नसिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार को लेकर काफी चिंतित था क्योकि उसके बाकी के पुत्र उत्तराधिकारी बनने के योग्य नहीं थे। परन्तु इल्तुतमिश की पुत्री रजिया में वो सभी गुण मौजूद थे, जो एक अच्छे शासक में होने चाहिए। अतः ग्वालियर अभियान से लौटने के बाद इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
अपने प्रिय पुत्र नसिरुद्दीन महमूद की याद में इल्तुतमिश ने दिल्ली में पहला मकबरा जिसे गढ़ी का मकबरा कहा जाता है का निर्माण कराया।इसका अन्तिम अभियान वमियान का माना जाता है। इसी दौरान बीमार होने के पश्चात् उसकी मृत्यु हो गयी। राजगद्दी को वंशानुगत बनाने वालों में दिल्ली का पहला शासक इल्तुतमिश को माना जाता है।
अमीरों ने इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् रजिया को गद्दी पर न बैठाकर उसके अयोग्य पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज को गद्दी पर बैठाया। रुकनुद्दीन एक कमजोर और अक्षम शासक था। पूरा शासन उसकी विलासी, महत्वाकांक्षा और क्रूर मां शाह तुर्कान के हाथों में था। वह कुचक्रणी थी। इतिहासकारों ने उसे दासी बताया है जो इल्तुतमिश के हरम में महत्वपूर्ण स्थान पाकर रुकनुद्दीन की मां बनी।
इल्तुतमिश के शासन के दौरान आने वाली समस्याए
इल्तुतमिश सुल्तान तो बन गया परन्तु उसके लिए शासन कर पाना इतना आसान नहीं था। शासक बनते ही उसके सामने अनेक कठिनाईयाँ तथा समस्याएं आ खड़ी हुई।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में जो तुर्क राज्य स्थापित किया था, उस तुर्क राज्य को संगठित करने का पूरा समय नहीं मिल पाया था। जिसके कारण कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद विभिन्न क्षेत्रों में नियुक्त अमीर तुर्क, दिल्ली के सिंहासन पर अपना अधिकार करने तथा अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की जद्दोजहद में लगे हुए थे। बहुत से तुर्क सरदार जो मुहम्मद गोरी एवं कुतुबुद्दीन ऐबक के समय में इल्तुतमिश से कहीं अधिक महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त थे, वे सभी Iltutmish को सुल्तान बना देने से के कारण असंतुष्ट थे। वे चाहते थे की किसी राजवंशीय सरदार को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया जाये।
ये तुर्क सरदार चाहते थे की प्रशासन के सभी महत्वपूर्ण पदों पर केवल तुर्क सरदारों को ही नियुक्त किया जाए और भारतीय मुसलमानों को ऊँचे पद नहीं दिए जाए। इसी प्रक्रम में सिंध और मुल्तान के सूबेदार कुबाचा ने कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अपने आपकों स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और भटिंडा, सुरसती, कुहराम, लाहौर आदि क्षेत्रों पर अधिकार जमा लीया था। तथा अपने आप को कुतुबुद्दीन ऐबक का उत्तराधिकारी भी समझता था।
उधर गजनी में ताजुद्दीन यल्दौज ने भारतीय प्रदेशों पर पुनः गजनी का दावा प्रस्तुत किया। और इल्तुतमिश को अपना सूबेदार मानते हुए उसके लिए राजकीय चिह्न भिजवा दिए। परिस्थतियों की विवशता देखते हुए उस समय इल्तुतमिश को अपमान सहन कर उनके चिह्नों को स्वीकार करना पड़ा।
ऐबक की मृत्यु के बाद बंगाल के अली मर्दान ने भी अपने आपकों स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और उसने सुल्तान अलाउद्दीन की उपाधि धारण की। बिहार के खिलजी सरदार मलिक ने भी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। इस प्रकार इल्तुतमिश की सबसे बड़ी कठिनाई इन तुर्क सरदारों को हरा करके उन्हें दिल्ली शासन के अंतर्गत अपने अधीन लाना था।
इल्तुतमिश के लिए सबसे दुर्भाग्य की बात एक यह भी थी कि जिस सेना नायक अली इस्माइल ने इल्तुतमिश को आमंत्रित किया था, वह भी अब इल्तुतमिश का विरोधी बन गया था। और तुर्क सेना अभी भी अली इस्माइल के नियंत्रण में थी। इसके अलावा हिन्दू सरदारों ने भी कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्य के बाद इल्तुतमिश को कर देना बंद कर दिया था और अपने अपने क्षेत्रों से तुर्क अधिकारियों को खदेड़ दिया।
इसके अलावा इल्तुतमिश के सामने उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा भी एक गंभीर चुनौती बनी हुई थी। मध्य एशिया की राजनीति में मंगोलों के प्रवेश से भारी उथल पुथल मची हुई थी। मंगोलों ने ख्वारिज्म के शाह को परास्त कर दिया था। ख्वारिज्म का राजकुमार जलालुद्दीन भी भागकर सिन्धु तट पर आ पंहुचा और मंगोल नेता चंगेज खां उसका पीछा करता हुआ किसी भी समय भारत में प्रवेश कर सकता था। जिससे मंगोलों के संभावित आक्रमण से दिल्ली सल्तनत को बचाने की समस्या इल्तुतमिश के लिए अग्नि परीक्षा के समान थी। साथ ही साथ झेलम और सिंध के मध्य में स्थित लड़ाकू खोखरों की शुरू से ही शत्रुता चली आ रही थी।
इल्तुतमिश एक दास का दास था। और ऐसे में तुर्क सरदारों की दृष्टि में उसका साम्राज्य पर अधिकार अनुचित बात थी। तुर्क सरदार उसको सुल्तान मानने को तैयार नहीं थे, जो उसके लिए शासन में एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में सामने आ रही थी। इस्लामी कानून के हिसाब से भी इल्तुतमिश की स्थिति कमजोर थी। क्योकि धार्मिक नेताओं का व्यवहार भी उसके पक्ष में नहीं था। अतः इल्तुतमिश के लिए अपने राज्याधिकार को सुद्रढ़ बनाना अति आवश्यक कार्य था। और साथ ही एक बहुत बड़ी चुनौती भी थी।
इल्तुतमिश के शासन के दौरान आने वाली समस्याओं का समाधान
तुरकान-ए-चहलगानी का गठन– तुर्क अमीरों के भावी विद्रोह को रोकने तथा अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए इल्तुतमिश ने बड़ी कूटनीति से काम लिया। उसने अपने प्रति निष्ठावान दासों का एक नया दल संगठित किया। इसमें चालीस लोग सम्मिलित किये गये थे। इसलिए इसे चरगान या चहलगानी (चालीस दास अमीरों का दल) कहा जाने लगा। इन लोगों को प्रशासन के मुख्य पदों पर नियुक्त किया गया। और इनकी उन्नति इल्तुतमिश की कृपा पर निर्भर थी। अतः वे लोग हमेशा उसके प्रति निष्ठावान बने रहे।
इसके अलावा 1221 ई में इल्तुतमिश के सामने मंगोल आक्रमण का भयंकर संकट आ खड़ा हुआ। जिसे उसने अपनी कुटनीतिक प्रतिभा के द्वारा दूर करने में सफलता प्राप्त की। इसके अलावा यल्दौज तथा कुबाचा का भी दमन इल्तुतमिश ने बड़ी ही चतुराई तथा सूझ बुझ के साथ किया एवं अपने शासन को मजबूती के साथ स्थापित किया।
इल्तुतमिश के प्रमुख कार्य
- कुतुबमीनार के कार्य को पूरा कराया।
- तुरकान-ए-चहलगानी का निर्माण कराया।
- टाका (चांदी) एवं जीतल (सोना) नमक दो सिक्के चलवाए।
- तुर्की अमीरों का दमन।
- इक्ता व्यवस्था लागू किया।
- यल्दूज की पराजय, गजली से अंतिम रूप से सम्बन्ध विच्छेद।
- संभावित मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा।
- बंगाल की पुनर्विजय।
- राजस्थान, मालवा और दोआब की गतिविधियां।
- दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक।
- कुशल राजनीतिज्ञ।
- खलीफा से उपाधि लेना।
सिक्कों का प्रयोग- चांदी का टका तथा तांबे का जीतल
इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत कालीन दो महत्त्वपूर्ण सिक्के ‘चाँदी का टका’ (लगभग 175 ग्रेन) तथा ‘तांबे’ का ‘जीतल’ चलवाया। इसने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को आरम्भ किया। सिक्कों पर इसने अपना उल्लेख ख़लीफ़ा के प्रतिनिधि के रूप में किया है। ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे “शक्तिशाली सुल्तान”, “साम्राज्य व धर्म का सूर्य”, “धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक”। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित किया।
इल्तुतमिश की मृत्यु
बानियाना/बयाना के अभियान के समय इल्तुतमिश बीमार हुआ, उसके बाद वह ठीक न हो सका। उसकी बिमारी बढ़ती गई और अप्रैल 1236 ई में उसकी मृत्यु हो गई। उसने अपनी सैनिक सफलताओं और कूटनीति के द्वारा एक विशाल राज्य की स्थापना की थी। उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक और पश्चिम में सिंध से लेकर पूर्व में बंगाल तक फैला था।
इल्तुतमिश का मक़बरा
इल्तुतमिश का मकबरा दिल्ली के महत्वपूर्ण प्राचीन स्मारकों में से एक है। वह क़ुतुब-उद-दीन ऐबक का उत्तराधिकारी और दामाद था। यह मकबरा दिल्ली में कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। मकबरा प्राचीन दिल्ली की याद दिलाता है, मकबरा अपनी साधारण वास्तुकला के लिए जाना जाता है।
रज़िया को उत्तराधिकार
रज़िया सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी। अपने अंतिम दिनों में वह अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे। परन्तु उसकी पुत्री रजिया में एक योग्य शासक के सभी गुण मौजूद थे। अत: इल्तुतमिश ने अपने आखिरी समय में अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
इन्हें भी देखें –
- भारतीय इतिहास का परिचय INTRODUCTION OF INDIAN HISTORY
- गयासुद्दीन बलबन GAYASUDDIN BALBAN (1266-1286)
- रज़िया सुल्तान RAZIYA SULTAN (1236-1240)
- कुतुबुद्दीन ऐबक QUTUBUDDIN AIBAK
- गुलाम वंश SLAVE DYNASTY (1206-1290)
- मध्य कालीन इतिहास MEDIEVAL HISTORY (712 ई -1858 ई)
- प्राचीन इतिहास (ANCIENT HISTORY)
- वैदिक सभ्यता | वैदिक काल | Vedic Age (1500ई.पू.-500 ई.पू.)
- वाक्य किसे कहते है? वाक्य के भेद | 100+ उदाहरण
- वाच्य किसे कहते है?
- काल (Tense) किसे कहते है? भेद और 50+ उदाहरण
- प्रत्यय किसे कहते हैं? भेद एवं 100+ उदाहरण
- उपसर्ग किसे कहते हैं? भेद और 100+ उदाहरण