भारत के इतिहास में तीन बार आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और ‘मराठा महासंघ’ के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में काफ़ी भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक नहीं हो पाए।
जहाँ रघुनाथराव ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मित्रता करके पेशवा बनने का सपना देखा, और अंग्रेज़ों के साथ सूरत की सन्धि की, वहीं बाजीराव द्वितीय ने बसीन भागकर अंग्रेज़ों के साथ पहली बसीन की सन्धि 1803-06 ई. में और दूसरी बसिन की संधि 1817-1818 ई. में की और अपनी स्वतंत्रता को बेच दिया। पहला युद्ध (1775-1782 ई.) रघुनाथराव द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा। इसमें अंग्रेज़ों को बंबई (वर्तमान मुंबई) के पास ‘सालसेत द्वीप’ पर क़ब्ज़े के रूप में एकमात्र लाभ मिला।
1818 ई. में बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया था। अंग्रेज़ों ने उसे बन्दी बनाकर बिठूर भेज दिया था, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों के पतन में मुख्य भूमिका बाजीराव द्वितीय की रही थी, जिसने अपनी क़ायरता और धोखेबाज़ी से सम्पूर्ण मराठों और अपने कुल को कलंकित किया था।
आंग्ल-मराठा युद्ध
अंगेज़ों और मराठों के मध्य तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए-
- प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775 – 1782 ई.)
- द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803 – 1806 ई.)
- तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817 – 1818 ई.)
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775 – 1782 ई.)
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध 1775 – 1782 ई. तक चला। राघोवा (रघुनाथराव) ईस्ट इंडिया कम्पनी से सांठ-गांठ करके स्वयं पेशवा बनने का सपना देखने लगा था। उसने 1775 ई. में अंग्रेज़ों से सूरत की सन्धि की, जिसके अनुसार बम्बई सरकार राघोवा से डेढ़ लाख रुपये मासिक ख़र्च लेकर उसे 2500 सैनिकों की सहायता देगी।
इस सहायता के बदले राघोवा ने अंग्रेज़ों को बम्बई के समीप स्थित सालसेत द्वीप तथा बसीन को देने का वचन दिया। जिसमें पुरंदर की संधि हुई जिसके अनुसार सालसेट बाम्बे और बडोंच् प्रदेश एक दूसरे को सोपना था फिर सूरत की संधि को स्वीकार किया गया1778 ई. में कम्पनी सेना की बड़गाँव नामक स्थान पर भंयकर हार हुई और उसे बड़गाँव में सलबाई (1782) की सन्धि करनी पड़ी। इस संधि को अस्वीकार कर दी और इस हार के बावजूद भी वारेन हेस्टिंग्स ने सलबाईं की सन्धि होने तक युद्ध को जारी रखा था।
सूरत की संधि ( 1775 )
अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने रघुनाथ राव को पेशवा बनाने के लिए सहयोग देने के लिए कुछ शर्तें रखी, वे शर्तें कुछ इस प्रकार थी:
1. | साल्सेट और बसीन वाले क्षेत्र अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिए जाएंगे, इन क्षेत्रों में वर्तमान के मुंबई और ठाड़े जैसे क्षेत्र आते हैं। |
2. | सूरत और भरूच के क्षेत्रों से आने वाले राजस्व को अंग्रेजी कंपनी के साथ बांटा जाएगा। |
क्योंकि रघुनाथराव को पेशवा बनने की बहुत ज्यादा चाह थी, इसलिए ये शर्तें रघुनाथराव द्वारा मान ली गई थी। इसके बदले में अंग्रेजी कंपनी के द्वारा रघुनाथराव को 2500 सैनिक उसके सहयोग के लिए दिए गए थे, इसको सूरत की संधि कहा गया और यह संधि रघुनाथराव और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया की बॉम्बे परिषद के मध्य 1775 में हुई थी।
1773 रेगुलेटिंग एक्ट के तहत अंग्रेजी कंपनी की बंगाल प्रेसीडेंसी के पास बाकी दो प्रेसीडेंसी अर्थात बॉम्बे प्रेसीडेंसी और मद्रास प्रेसीडेंसी की देखरेख की जिम्मेदारी आ गई थी, इसलिए जो सूरत की संधि रघुनाथराव और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया की बॉम्बे परिषद के मध्य हुई थी उसकी एक प्रतिलिपि बंगाल प्रेसीडेंसी के पास भी पास होने के लिए गई थी।
पुरंदर की संधि ( 1776 )
सूरत की संधि के तहत रघुनाथराव और अंग्रेजी कंपनी की तरफ से कर्नल कीटिंग्स अपने सैनिकों के साथ मराठा साम्राज्य के साथ युद्ध करने के लिए गए। हरिपंत फड़के जो बारभाई परिषद के सदस्य भी थे, उनके द्वारा मराठों की तरफ से नेतृत्व किया गया था और इस प्रकार मार्च, 1775 में प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध की शुरुआत हो गयी थी।
इस युद्ध में मराठों ने अपनी गुरिल्ला युद्ध पद्धति का भरपूर उपयोग किया और अंग्रेजी कंपनी की सेना को बहुत चुनौती दी थी। परंतु इस युद्ध के दौरान जो सूरत की संधि की प्रतिलिपि बंगाल प्रेसीडेंसी में पास होने के लिए गई थी, उसको उस समय के बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है और अंग्रेजी कंपनी की बॉम्बे परिषद को यह युद्ध बंगाल प्रेसीडेंसी द्वारा समाप्त करने के लिए कह दिया जाता है।
बंगाल प्रेसीडेंसी द्वारा मराठों को भी यह युद्ध समाप्त करने के लिए कहा जाता है और बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स द्वारा कर्नल उप्टन को मराठों के पास पुरंदर की संधि करने के लिए भेजा जाता है।
यह पुरंदर की संधि मराठों और अंग्रेजों के बीच 1776 में हुई थी, इस संधि की शर्तें कुछ इस प्रकार थीं:
1. | इस संधि के तहत सवाई माधवराव को ही पेशवा माना गया। |
2. | इसके साथ अंग्रेजी कंपनी के द्वारा मराठों के किसी भी विरोधी के साथ संधि नहीं करी जाएगी, रघुनाथराव से भी नहीं। |
3. | इस युद्ध के दौरान अंग्रेजी कंपनी द्वारा मराठों के जिन क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया गया था वे मराठों को वापस दे दिए जायेंगे। |
4. | मराठों द्वारा अपने विद्रोही हो चुके मराठा भाई रघुनाथराव को प्रस्ताव दिया गया की अगर वह अपनी सेना खत्म कर दे तो उसको मराठों द्वारा 25000 राशि की पेंशन प्रतिमाह दी जाएगी। |
5. | रघुनाथराव ने सूरत की संधि के दौरान साल्सेट का क्षेत्र अंग्रेजी कंपनी को देने के लिए कहा था, जिसे मराठों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया और इसके बदले में कोई भी अन्य क्षेत्र जिसका मूल्य 3 लाख तक का हो उसे अंग्रेजी कंपनी को देने की बात कही। |
परंतु इस संधि के बाद भी अंग्रेजी कंपनी रघुनाथराव के संपर्क में थी जो पुरंदर की संधि का उलंघन था क्यूंकि उसके हिसाब से मराठों के किसी भी विरोधी के साथ अंग्रेजी कंपनी ने हाथ मिलाने के लिए मना किया था।
इसके बाद मराठों ने अपने बल को और ज्यादा बढ़ाने का प्रयास किया ताकि अंग्रेजी कंपनी भविष्य में उनसे युद्ध न कर पाए और इस क्रम में मराठों द्वारा 1777 में फ्रांस के साथ एक मैत्रीपूर्ण संधि करी गई थी, मराठों की यह संधि करने का उद्देश्य अपनी सेना को और ज्यादा मजबूत और सुदृढ़ बनाना था।
मराठों की फ्रांस के साथ इस मैत्रीपूर्ण संधि के तहत फ्रांस द्वारा मराठों को 2500 यूरोपीय सैनिक दिए गए और 10000 भारतीय सैनिकों को यूरोपीय लाइनों में प्रशिक्षण देने की बात कही गई और इसके बदले में मराठों द्वारा फ्रांस को पश्चिमी बंदरगाह व्यापार करने के लिए दे दिए गए।मराठों की फ्रांस के साथ ऐसी संधि को जानकार अंग्रेजी कंपनी ने इसका विरोध किया और मराठों पर आक्रमण कर दिया था।
तब महादजी शिंदे द्वारा मराठा सेना का नेतृत्व किया गया था और उन्होंने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए अंग्रेजी सेना को तालेगांव के पास के घाटों पर आक्रमण करने के लिए उकसाया और जैसे ही अंग्रेजी सेना वहां आक्रमण करने पहुंची मराठा सेना ने उनपर आक्रमण कर दिया था और इसके साथ-साथ मराठा सेना ने अंग्रेजी सेना के खापोली में बने हुए बेस को भी ध्वस्त कर दिया था।
यह सब देख कर अंग्रेजी सेना भाग खड़ी हुई और वड़गाँव क्षेत्र में मराठा सेना द्वारा अंग्रेजी कंपनी की सेना को पूर्ण रूप से घेर लिया गया था और इसके बाद 1779 में अंग्रेजी सेना को समर्पण करना पड़ा था।
वड़गाँव की संधि
इसके फलस्वरूप मराठों और अंग्रेजी सेना में वड़गाँव की संधि हुई और इसके तहत 1775 से लेकर जितने भी मराठा क्षेत्र अंग्रेजी कंपनी द्वारा कब्ज़ा कर लिए गए थे, वे क्षेत्र उनको मराठाओं को वापस देने पड़े। इसके साथ-साथ वहां अंग्रेजी सेना के साथ रघुनाथराव को भी मराठा सेना द्वारा पकड़ लिया गया था, जिसके बाद रघुनाथराव ने भी अंग्रेजी सेना के साथ समर्पण कर दिया था और यह बात भी स्वीकार करी की उसकी वजह से ही अंग्रेजी सेना मराठों पर आक्रमण कर रही थी।
तब इस वड़गाँव की संधि के तहत मराठों ने रघुनाथराव को झांसी जाकर रहने को कहा और उसे पेंशन देने की बात भी कही गई थी, परंतु रघुनाथराव द्वारा अपने पुत्र बाजीराव द्वितीय को पेशवा के प्रशासन में रखने की बात कही जिसे मराठाओं द्वारा स्वीकार कर लिया गया था। परंतु बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने यह वड़गाँव की संधि को अस्वीकार कर दिया और अपनी तीन सेनाएं मराठाओं के विरुद्ध भेज दी, इन 3 सेनाओं का नेतृत्व कर्नल गोडार्ड, कप्तान पोफ़म और जनरल कैमैक कर रहे थे।
फरवरी, 1779 में कर्नल गोडार्ड की सेना ने अहमदाबाद क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। अगस्त, 1780 में कप्तान पोफ़म की सेना ने ग्वालियर पर अपना कब्ज़ा कर लिया था, इसके कुछ ही समय के बाद दिसंबर 1780 में ही फिर से कर्नल गोडार्ड की सेना ने बसीन पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद फरवरी, 1781 में जनरल कैमैक की सेना द्वारा सिपरी के युद्ध में महादजी शिंदे को भी पराजित कर दिया गया था।
इसके बाद बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने नाना फड़नवीस और पेशवा के साथ अपनी मांगो के हिसाब से संधि करने के लिए महादजी शिंदे को उनसे अलग करना चाहा। तब अक्टूबर 1781 में वारेन हेस्टिंग्स ने महादजी शिंदे के साथ एक अलग से शांति समझौता किया जिसमे उनके सारे क्षेत्र महादजी शिंदे को वापस देने की बात कही जिसके बदले में वारेन हेस्टिंग्स ने यह फैसला लिया की उन्हें मराठों और अंग्रेजी कंपनी के बीच एक मध्यस्थ व्यक्ति की तरह रहना होगा।
इस शांति समझौते से वारेन हेस्टिंग्स का उद्देश्य महादजी शिंदे को मराठों से अलग करना था और अब महादजी शिंदे न मराठाओं के साथ थे और न ही अंग्रेजी कंपनी के साथ, उनका कार्य बीच में रहकर अब होने वाली संधि में दोनों पक्षों में एक मध्यस्थ व्यक्ति की तरह कार्य को करना था।
सालबाई की संधि ( 1782 )
महादजी शिंदे को मराठों से अलग करने के बाद अंग्रेजी कंपनी और मराठाओं में सालबाई की संधि हुई और इस संधि में जो शर्तें थी, वे कुछ इस प्रकार थी:
1. | साल्सेट का क्षेत्र अब पूर्णतः अंग्रेजी कंपनी के नियंत्रण में कर दिया जाएगा, इसके साथ-साथ 1776 की पुरंदर की संधि के बाद से जितने मराठा क्षेत्र अंग्रेजी कंपनी ने अपने अधिकार में लिए थे वे उन्हें वापस दे दिए जायेंगे। |
2. | मराठाओं द्वारा रघुनाथराव को पेंशन पर भेज दिया गया था। |
3. | मराठा किसी अन्य यूरोपीय देश के साथ कोई संधि नहीं कर सकते और इस बिंदु पर महादजी शिंदे को दोनों पक्षों की और से साक्षी बना दिया गया। |
4. | अगर दोनों पक्षों की ओर से कोई इस संधि के विरुद्ध कार्य करता है तो उसकी पूर्ण जिम्मेदारी महादजी शिंदे की होगी। |
इसके बाद अंग्रेजी कंपनी फिर से मराठा क्षेत्रों में अपना व्यापार का कार्य करने लग गयी थी।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803 – 1806 ई.)
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1803 – 1805 ई. तक चला था। बाजीराव द्वितीय को अपने अधीन बनाने के पश्चात अंग्रेज़ इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि, वे होल्कर, भोसलें तथा महादजी शिन्दे को भी अपने अधीन कर लें। साथ ही वे अपनी कूटनीति से उस पारस्परिक कलह और फूट को बढ़ावा भी देते रहे, जो मराठा राजनीति का सदा ही एक गुण रहा था |
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1803 ई. से 1806 ई. तक चला। बाजीराव द्वितीय को अपने अधीन कर लेने के उपरांत अंग्रेज इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि, वे होल्कर, भोसलें तथा महादजी शिन्दे को भी अपने अधीन कर लेंगे। इसके साथ ही वे अपनी कूटनीति से उस पारस्परिक कलह और फूट को बढ़ावा देते रहे, जो मराठा राजनीति का सदा ही एक गुण रहा था।
लॉर्ड वेलेजली ने महादजी शिन्दे और भोंसले, जो उस समय दक्षिण के बरार में थे, को अपने-अपने क्षेत्र में लौट जाने को कहा। महादजी शिन्दे और भोंसले ने अंग्रेज़ों के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। उनके इन्कार करने पर 7 अगस्त, 1803 को अंग्रेज़ों ने महादजी शिन्दे के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध में महादजी शिन्दे पराजित हुआ, और उसने अंग्रेज़ों के साथ 30 दिसम्बर, 1803 ई. को सुर्जी अर्जुनगाँव की सन्धि की।
भोसलें ने देवगाँव की संधि करके कटक का प्रांत तथा बरार अंग्रेज़ों को दे दिया। रघुजी भोंसले इस असफलता के पश्चात् राजनीतिक गतिविधियों से अलग हो गया। महादजी शिन्दे ने फ़रवरी, 1804 में बुरहानपुर की सहायक संधि पर भी हस्ताक्षर किया। इसके बदले में अंग्रेजों ने दौलतराव शिन्दे की प्रतिरक्षा का आवश्वासन दिया। होल्कर को अंग्रेजों के साथ ‘राजपुर घाट की संधि’ करनी पड़ी, परन्तु अंग्रेजों ने क्रमशः 1805 एवं 1806 ई. में शिन्दे व होल्कर के साथ संधि कर उनके कुछ क्षेत्रों को वापस कर दिया।
बसीन की संधि ( 1802 )
अंग्रेजी कंपनी ने बाजीराव द्वितीय की मदद करना स्वीकार किया और इसके बदले में बाजीराव द्वितीय के साथ समझौता भी किया और इसे हम बसीन की संधि कहते हैं और यह संधि 1802 में हुई थी और इस संधि की शर्तें कुछ इस प्रकार थीं:
1. | बाजीराव द्वितीय को सूरत का क्षेत्र अंग्रेजों को देना होगा। |
2. | मराठों द्वारा निज़ामों से लिया जाने वाला चौथ कर बंद करना होगा, ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि निज़ामों द्वारा अंग्रेजी कंपनी के साथ सहायक गठबंधन पर हस्ताक्षर किये हुए थे। |
3. | अंग्रेजी कंपनी द्वारा 6000 सैनिक बाजीराव द्वितीय के सहयोग के लिए दिए गए थे। |
4. | यह 6000 सैनिक अंग्रेजी कंपनी द्वारा बाजीराव द्वितीय को फिर से पेशवा बनाने के लिए दिए गए थे, परंतु बाजीराव द्वितीय को पेशवा बनने के बाद यह सैनिक अंग्रेजी कंपनी को वापस नहीं देने थे बल्कि इन सैनिकों का खर्चा बाजीराव द्वितीय को ही पेशवा बनने के बाद उठाना था। |
5. | बाजीराव द्वितीय को एक क्षेत्र जिसका मूल्य 26 लाख का हो, वह क्षेत्र अंग्रेजों को देना होगा। |
6. | मराठों की सारी विदेश नीतियों पर अंग्रेजी कंपनी का नियंत्रण होगा। |
7. | अंग्रेजों का जिस किसी भी देश के साथ संघर्ष चल रहा हो, उस देश के व्यक्ति की मराठा साम्राज्य में नियुक्ति नहीं की जाएगी। |
इस संधि के साथ मराठा साम्राज्य के बिघटन का समय शुरू हो चुका था। बाद में बाजीराव द्वितीय अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के सहयोग से 13 मई1803 को फिर से पेशवा के पद पर आ गए थे, परंतु अब पेशवा पूर्ण आज़ादी के साथ अपना कार्य नहीं कर सकते थे और बहुत हद तक अंग्रेजी कंपनी के नियंत्रण में ही कार्य चल रहा था।
इसके बाद जितने भी मराठा साम्राज्य के वंश थे उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ उनके इस षड्यंत्र के खिलाफ युद्ध करने का निर्णय लिया, जिसे हम द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के नाम से संबोधित करते हैं। सिंधिया वंश, भोसले वंश और होल्कर वंश द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ अभियान किया गया, परंतु उनका यह अभियान विफल रहा था।
अंग्रेजी कंपनी की मराठा वंशों के साथ संधियां
अंग्रेजों ने फिर से अपनी कूटनीति का परिचय देते हुए, मराठा साम्राज्य के अलग-अलग वंशों के साथ अलग-अलग शांति संधि कर ली थी, जो कुछ इस प्रकार है:
अंग्रेजी कंपनी और सिंधिया वंश के बीच | सुरजी-अंजनगांव की संधि | 1803 |
अंग्रेजी कंपनी और भोसले वंश के बीच | देवगांव की संधि | 1803 |
अंग्रेजी कंपनी और होल्कर वंश के बीच | राजपुरघाट की संधि | 1806 |
इस द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद अंग्रेजों का मराठा साम्राज्य में बहुत ज्यादा नियंत्रण हो गया था।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817 – 1818 ई.)
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1817 – 1818 ई. तक चला था। यह युद्ध अन्तिम रूप से लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823) के भारत (अंग्रेजी क्षेत्र) के गवर्नर-जनरल बनने के बाद लड़ा गया था। अंग्रेजों ने पेशवा को 13 जून 1817 को तथा 5 नवम्बर, 1817 में महादजी शिन्दे के साथ ग्वालियर की सन्धि की, जिसके अनुसार महादजी शिन्दे पिंडारियों के दमन में अंग्रेजों का सहयोग करेगा और साथ ही चंबल नदी से दक्षिण-पश्चिम के राज्यों पर अपना प्रभाव हटा लेगा। जून, 1817 में अंग्रेजों ने से पूना की सन्धि की, जिसके तहत पेशवा ने ‘मराठा संघ’ की अध्यक्षता त्याग दी।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1817 ई. से 1818 ई. तक लड़ा गया। दूसरे अंग्रेज़-मराठा युद्ध के परिणाम से न तो किसी मराठा सरदार को संतोष हुआ, न पेशवा को। उन सबको अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा छिन जाने से खेद हुआ। पेशवा बाजीराव द्वितीय षड्यंत्रकारी मनोवृत्ति का तो था ही, उसने अविचारपूर्ण रीति से अंग्रेज़ों को जो सत्ता सौंप दी थी, उसे फिर प्राप्त करने की आशा से 1817 ई. में अंग्रेज़ों के विरुद्ध मराठा सरदारों का संगठन बनाने में नेतृत्व किया और इस प्रकार तीसरे मराठा युद्ध का सूत्रपात किया।
यह युद्ध अन्तिम रूप से लॉर्ड हेस्टिंग्स के भारत के गवर्नर-जनरल बनने के बाद लड़ा गया। अंग्रेजों ने नवम्बर, 1817 में महादजी शिन्दे के साथ ‘ग्वालियर की सन्धि’ की, जिसके अनुसार महादजी शिन्दे, पिंडारियों के दमन में अंग्रेज़ों का सहयोग करेगा। साथ ही यह भी कि महादजी शिन्दे चंबल नदी से दक्षिण-पश्चिम के राज्यों पर से अपना प्रभाव हटा लेगा।
जून, 1817 में अंग्रेज़ों ने पेशवा से पूना की सन्धि की, जिसके तहत पेशवा ने ‘मराठा संघ’ की अध्यक्षता त्याग दी। इन सन्धियों के पहले ही सम्पन्न हुई मई, 1816 ई. की ‘नागपुर की सन्धि’ को भोंसले ने अब स्वीकार कर लिया। कालान्तर में सन्धि का उल्लंघन करते हुए पेशवा, भोसलें एवं होल्कर ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। परिणामस्वरूप ‘किर्की’ में पेशवा, ‘सीताबर्डी’ में भोंसले एवं ‘महीदपुर’ में होल्कर की सेनाओं को अंग्रेज़ों की सेना ने बुरी तरह पराजित किया।
इन संघर्षों के बाद मराठों की सैन्य शक्ति अब पूरी तरह से समाप्त हो गई। जनवरी, 1818 ई. में होल्कर ने अंग्रेज़ों से ‘मंदसौर की सन्धि’ की, जिसके अनुसार उसने राजपूत राज्यों पर से अपने अधिकार वापस ले लिए। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने कोरेगाँव एवं अण्टी के युद्ध में हारने के बाद फ़रवरी, 1818 ई. में अंग्रेज़ों के सामने आत्म-समर्पण कर दिया।
अंग्रेज़ों ने पेशवा के पद को ही समाप्त कर बाजीराव द्वितीय को कानपुर के निकट बिठूर में पेंशन पर जीने के लिए भेज दिया, जहाँ पर 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों के पतन में सर्वाधिक योगदान बाजीराव द्वितीय का ही था।
इन्हें भी देखें –
- पाषाण काल STONE AGE | 2,500,000 ई.पू.- 1,000 ईसा पूर्व
- जलालुद्दीन फिरोज खिलजी | JALALUDDIN FIROJ KHILJI |1290-1296 ई.
- कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी : QUTB-UD-DIN MUBARAK SHAH KHILJI (1316-1320)
- Bimbisara बिम्बिसार (546 – 494 ईसा पूर्व)
- कोपेन के अनुसार भारत के जलवायु प्रदेश | वर्गीकरण
- भारत की प्राकृतिक वनस्पति | प्रकार एवं विशेषताएँ
- भारत की मिट्टी | मृदा | वर्गीकरण और विशेषताएं
- भारतीय मानसून और उसकी विविधता
- पुर्तगाली साम्राज्य (1415 – 1999 ई.)
- ब्रिटिश साम्राज्य 16वीं–20वीं सदी- एक समय की महाशक्ति और विचारों का परिवर्तन
- सप्तवर्षीय युद्ध: अद्भुत संघर्ष और संकटपूर्ण निर्णय |1756–1763 ई.
- विश्व के प्रमुख समाचार पत्र एवम प्रकाशन स्थल
- चाँद पर उतरने वाले देश | Country that lands on the Moon
- महान व्यक्तियों के उपनाम, स्थान, प्रमुख वचन एवं नारे
- Conjunction: Definition, Types, 100+ Example
- Tense: Definition, Types, and 100+ Examples