प्रथम विश्व युद्ध, 1914 ई. से 1918 ई. तक चलने वाला एक विश्वस्तरी संघर्ष था जिसमें दुनिया के अनेक देशों ने भाग लिया। इस युद्ध का मुख्य कारण राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों का संग्रह था जो दुनिया को एक महान युद्ध की ओर ले जाने का कारण बना। प्रथम विश्वयुद्ध को World War I, First World War, World War 1, WW I, WW 1 आदि नामों से भी जाना जाता है।
प्रथम विश्व युद्ध से पहले शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि लगभग सभी देश एक साथ इस युद्ध में कूदेंगे। इस युद्ध से होने वाली बर्बादी का अंदाजा युद्ध में मरने वालों की संख्या लगाया जा सकता है। इस युद्ध से पहले सिर्फ लड़ाइयां हुआ करती थीं, परन्तु यह लड़ाई नहीं थी, यह था एक भीषण युद्ध। युद्ध से यदि कुछ उत्पन्न हुआ है तो वह युद्ध ही है। इस कहावत को सच करते हुए इस भीषण युद्ध ने द्वितीय विश्वयुद्ध की नीव रख दी। और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आज के समय में पता नहीं तीसरा विश्वयुद्ध कब हो उठे।
प्रथम विश्वयुद्ध दो मुख्य गठबंधनों के बीच लड़ा गया था, इन गठबन्धनों में एक ओटोमन संघ, अउस्ट्रो-हंगेरियन इम्पायर, जर्मन इम्पायर, और बुल्गारिया की ओर से बनाए गए सेंट्रल पावर्स थे तो और दूसरी ओर, ब्रिटिश साम्राज्य, फ्रांस, रूस, इटली, और संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से बनाए गए एलाइड पावर्स थे।
युद्ध के दौरान, नए युद्ध तंत्र, शस्त्र और सैन्य तकनीकी में बदलाव, और महासंघर्ष के कारण लाखों लोगों की मौके मरने की घटनाएँ हुई। यह युद्ध एक बड़े पैमाने पर हुआ और दुनिया के बहुत सारे क्षेत्रों पर इसका प्रभाव दिखा।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, एक सिरे से समाज, राजनीति और आर्थिक परिवर्तन हुआ जो दुनिया के तथ्यों को बदल दिया। यह युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध की ओर एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ने में मदद करता है, जो 1939 से 1945 तक चला।
प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत 28 जुलाई 1914 को हुई थी। इस विश्व युद्ध को महायुद्ध या विश्व युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। उस समय यह माना जाता था कि इस युद्ध के समाप्त होते ही सभी युद्ध समाप्त हो जायेंगे और इसे “वह युद्ध जो सभी युद्धों को समाप्त कर दे” कहा जाता था। परन्तु ऐसा नहीं हुआ, और इस युद्ध ने जन्म दिया दूसरे विश्वयुद्ध को। इस युद्ध के 20 वर्ष बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया।
प्रथम विश्व युद्ध उस समय विश्व की दो महान शक्तियों के बीच हुआ युद्ध था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्र (अलाइड पॉवर) एक तरफ थे और केन्द्रीय शक्तियाँ (सेंट्रल पॉवर) दूसरी तरफ। रूस, फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान मित्र राष्ट्रों (एलाइड पावर्स) में शामिल हो गए। 1917-1918 में अमेरिका युद्ध में शामिल हुआ। केन्द्रीय सत्ता (सेंट्रल पॉवर)) में केवल तीन देश थे। ये तीन देश हैं ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी और ओटोमन साम्राज्य। उस समय ऑस्ट्रिया-हंगरी पर हैब्सबर्ग राजवंश का शासन था। आज का ऑटोमन साम्राज्य ऑटोमन तुर्किये का क्षेत्र है।
सितंबर 1914 में, जर्मन वैज्ञानिक और विचारक अर्न्स्ट हेकल ने पहली बार ‘विश्व युद्ध’ शब्द का प्रयोग किया, यह 4 साल तक चला। प्रथम विश्व युद्ध, जिसे आमतौर पर महायुद्ध कहा जाता है, 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला। प्रथम विश्व युद्ध में केंद्रीय शक्तियों और मित्र देशों की सेनाओं ने एक-दूसरे से लड़ाई लड़ी।
- ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने मित्र देशों की अधिकांश शक्तियों का निर्माण किया। 1917 के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका भी मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में शामिल हुआ।
- ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य प्रमुख देश थे जिन्होंने केंद्रीय शक्तियों का गठन किया।
प्रथम विश्व युद्ध के कारण
इस खतरनाक विश्व युद्ध का कोई एक कारण नहीं था। इसमें कई कारण थे, जिन्होंने दुनिया को देखने और समझने का तरीका पूरी तरह से बदल दिया था। इस विश्व युद्ध के कारण में विशेष रूप से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सामर्थ्यकीन घातक कारक थे, जिनका विवरण नीचे दिया गया है:-
राजनीतिक और सामर्थ्यकीन घातक कारक
प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारंभिक कारणों में राजनीतिक और सामर्थ्यकीन घातक कारक थे। यूरोप के विभिन्न देशों में संघर्षों की वजह से राजनीतिक तनाव बढ़ गया था। विशेष रूप से बाल्कन समूह में विभाजन, सदर द्वीप पर ब्रिटेन और जर्मनी के बीच संघर्ष, और रूस और ऑस्ट्रिया-हंगरी के बीच विवाद के कारण तनाव था।
आर्थिक संकट
प्रथम विश्वयुद्ध से पहले, यूरोप में कई देशों में आर्थिक संकट थे। उत्पादन में कमी, व्यापार में असमर्थता, बढ़ते कर्ज, और आर्थिक मुद्दे इन संकटों के कारण थे। ये समस्याएँ देशों के बीच आर्थिक संघर्ष की भी वजह बनी।
सम्राटिक शक्तियों की विशेषता
यूरोप में विभिन्न सम्राटिक शक्तियाँ थी जिनमें वित्तीय समस्याएँ थी और ये अपने प्रत्येक स्वार्थ की प्रतियोगिता कर रही थी। जर्मनी की आर्थिक विशेषता बढ़ रही थी और यह बढ़ती हुई शक्ति के साथ साम्राज्यवादी उद्देश्य पूरे करने की कोशिश कर रही थी, जो अन्य देशों में तनाव उत्पन्न करने में सहायक हुआ।
तकनीकी उन्नति
प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक तकनीकी उन्नति ने हथियारों की ताकत को बढ़ा दिया था। विभिन्न प्रकार के हथियार जैसे कि बम, राइफल, और गोलियाँ तैयार की जा रही थीं, जिससे युद्ध की नर्संहारी शक्तियाँ बढ़ गईं।
सैन्यवाद (Militarism)
देशों ने खुद को आधुनिक हथियारों से लैस करने की कोशिश की। प्रत्येक देश मशीन गन, टैंक, तोपें, तीन बड़े युद्धपोत और एक बड़ी सेना की तत्कालीन आविष्कृत अवधारणा लेकर आया। इन सभी मामलों में ब्रिटेन और जर्मनी काफी आगे थे। उनके नेतृत्व का कारण इन देशों में बढ़ती औद्योगिक क्रांति थी।
औद्योगिक क्रांति के कारण इन देशों का जोरदार विकास हुआ और उनकी सैन्य शक्ति में वृद्धि हुई। दोनों देशों ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए औद्योगिक क्षेत्रों का उपयोग किया, जिसमें विभिन्न बड़ी कंपनियों द्वारा मशीन गन और टैंक का उत्पादन भी शामिल था। यहीं से आधुनिक सेना की अवधारणा शुरू हुई।
साम्राज्यवाद (Imperialism)
उस समय पश्चिमी यूरोपीय देश अफ़्रीका और एशिया में अपने उपनिवेश या विस्तार बढ़ाना चाहते थे। इस घटना को “अफ्रीका का संघर्ष” (स्क्रेम्बल ऑफ़ अफ्रीका’) भी कहा जाता था, जिसका अर्थ था कि अफ्रीका जितना संभव हो सके उतना क्षेत्र बचा ले, क्योंकि उस समय अफ्रीका का क्षेत्र बहुत बड़ा था। और सभी देश अफ्रीका के क्षेत्रो पर कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहे थे।
1880 के बाद तक सभी प्रमुख देशों ने अफ्रीका पर कब्ज़ा कर लिया। इन देशों में फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, बेल्जियम और अन्य शामिल थे। इन सभी देशों में ग्रेट ब्रिटेन अग्रणी था। ग्रेट ब्रिटेन ने उस समय कई देशों पर कब्ज़ा कर लिया था और वह एक बहुत समृद्ध देश था। ब्रिटिश शासन की आय पूरी दुनिया की 25% थी। इस 25% क्षेत्र के कारण उनके पास बहुत सारे संसाधन थे। इससे उनकी युद्धक क्षमता में भी काफी वृद्धि हुई।
राष्ट्रवाद (Nationalism)
उन्नीसवीं शताब्दी मे देशभक्ति की भावना ने पूरे यूरोप को अपने पाले में लिया था। जर्मनी, इटली, अन्य बोल्टिक देश आदि जगह पर राष्ट्रवाद पूरी तरह से फ़ैल चुका था। इसी वजह से यह युद्ध ‘ग्लोरी ऑफ़ वार’ कहलाया था। इन देशों को लगने लगा कि कोई भी देश लड़ाई लड़ के और जीत के ही महान बन सकता है। इस तरह से देश की महानता को उसके क्षेत्रफल से जोड़ के देखा जाने लगा।
विभिन्न संधियाँ व गठबंधन प्रणाली
यूरोप में 19वीं शताब्दी के दौरान शक्ति में संतुलन स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों ने अलायन्स अथवा संधियां बनानी शुरू की। इस समय कई तरह की संधियां गुप्त रूप से होती थी।
- साल 1882 का ट्रिपल अलायन्स : 1882 में जर्मनी ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली के मध्य संधि हुई।
- कोर्दिअल इंटेंट : साल 1904 में ब्रिटेन और रूस के बीच कोर्दिअल इंटेंट नामक संधि हुई। इसके साथ रूस जुड़ने के बाद ट्रिपल इंटेंट के नाम से जाना गया।
- साल 1907 का ट्रिपल इंटेंट : 1907 में फ्रांस, रूस और ब्रिटेन के बीच ट्रिपल इंटेंट हुआ।
ऑस्ट्रिया के राजकुमार आर्चड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या
आर्चड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड ऑस्ट्रिया के क्राउन प्रिंस (राजकुमार) थे। जून 1914 में गैलवेइरो प्रिंसेप नामक व्यक्ति ने उन पर हमला कर उनकी हत्या कर दी। ऑस्ट्रिया को ऐसा लगता था कि इस हत्या में साइबेरिया का हाथ है क्योकि साइबेरिया उस समय बोस्निया को आज़ादी दिलाने में मदद कर रहा था। इसलिए आस्ट्रिया ने इस हत्या के बाद साइबेरिया को धमकियाँ देना शुरू कर दिया।
ऑस्ट्रिया ने साइबेरिया को अल्टीमेटम दिया कि वह तुरंत आत्मसमर्पण कर दे, और साइबेरिया को ऑस्ट्रियाई शासन के अधीन कर दे। इस धमकी के प्रभाव में आकर साइबेरिया ने इस मामले में रूस से मदद मांगी और रूस को बाल्टिक्स में हस्तक्षेप करने का एक और मौका दिया। देखते ही देखते यह धीरे-धीरे द्विपक्षीय युद्ध न होकर विश्व युद्ध बन गया। दूसरी ओर यूरोप का पाउडर केग कहा जाने वाला बाल्कन क्षेत्र अस्थिर था।
इन सारे कारणों के परिणामस्वरूप, प्रथम विश्वयुद्ध 28 जुलाई 1914 को आरंभ हुआ और यह दुनिया के बहुत सारे क्षेत्रों में विस्फोटक परिवर्तन का कारण बन गया।
यूरोप, अफ्रीका और एशिया के मोर्चों के संघर्षों का विवरण
यूरोप, अफ्रीका और एशिया में कई मोर्चों पर संघर्ष छिड़ गया। पश्चिमी मोर्चों पर, जर्मनों ने ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और 1917 के बाद अमेरिकियों से लड़ाई लड़ी। पूर्वी मोर्चे पर, रूसियों ने जर्मनी और ऑस्ट्रो-हंगेरियन सेनाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
1914 में, जर्मनी ने थोड़े समय के लिए युद्ध में बढ़त हासिल कर ली, जिसके बाद पश्चिमी मोर्चा स्थिर हो गया और एक लंबा और क्रूर युद्ध शुरू हो गया। इस बीच, पूर्वी मोर्चे पर जर्मनी की स्थिति मजबूत हो रही थी, हालाँकि यह जर्मनी की मजबूत स्थिति कुछ समय के लिए ही थी, निर्णायक रूप से नहीं थी।
1917 में दो ऐसी घटनाएँ घटीं जिन्होंने पूरे युद्ध की दिशा ही बदल दी। अमेरिका मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया, जबकि रूस रूसी क्रांति के बाद युद्ध से हट गया और एक अलग शांति संधि पर हस्ताक्षर कर दिया।
प्रथम विश्वयुद्ध में भारत की भागीदारी
इस युद्ध में भारत ने भी अहम् रोल निभाया। उस समय भारत पर ब्रिटिश का शासन था। इस युद्ध में लगभग 13 लाख भारतीयों ने ब्रिटिश पक्ष से लड़ाई लड़ी। इन भारतीय सैनिकों ने फ्रांस, इराक, मिस्र आदि में युद्ध किया और लगभग 50,000 सैनिक शहीद हुए। इंडिया गेट का निर्माण तीसरे आंग्ल-अफगान युद्ध और प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में किया गया था। उस समय भारतीय पैदल सेना का मासिक वेतन केवल 11 रुपये था, लेकिन जो सैनिक युद्ध में भाग ले रहे थे उनकी मासिक आय बाधा दी गयी थी।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति
प्रथम विश्व युद्ध परिणाम बहुत ही भयावह थे। 1918 में जर्मन आक्रमण के बाद, मित्र देशों के जवाबी हमलों ने जर्मन सेना को निर्णायक रूप से पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। तुर्की और ऑस्ट्रिया ने क्रमशः अक्टूबर और नवंबर 1918 में जर्मनी को अकेला छोड़कर आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में जर्मनी की पराजय हुई और सत्ता परिवर्तन हुआ।
नई सरकार के आगमन के साथ ही जर्मनी ने युद्धविराम की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए और यह प्रथम विश्व युद्ध 11 नवंबर 1918 को समाप्त हो गया। इस विश्व युद्ध में 100,000 सैनिक और लगभग 60,000 आम नागरिक मारे गए। मरने वालों की संख्या 1.7 मिलियन थी, 2 मिलियन लोग घायल हुए थे। इस युद्ध ने पूरे विश्व को आर्थिक मंदी की तरफ ढकेल दिया। इस युद्ध के बाद अमेरिका विश्व शक्ति के रूप में उभरा।
प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम
- अद्वितीय मानव नुकसान: प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप, लाखों लोगों की मौके पर मौके मौत हो गई। यह युद्ध अद्वितीय मानव नुकसान का कारण बना, जिसमें सैन्य और नागरिकों के बीच भयानक लड़ाइयों के कारण अनगिनत परिवारों में शोक और विरासत में अपार खोया गया।
- आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन: प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, दुनिया की अर्थव्यवस्थाएँ बदल गईं। युद्ध ने अर्थव्यवस्थाओं को बाधित किया, उन्हें नष्ट किया और सामाजिक परिवर्तनों की दिशा में बदलाव लाया। आर्थिक संकट और उसके परिणामस्वरूप आये आर्थिक बदलावों के कारण, समाज में भी विकास और परिवर्तन आया।
- विभाजन और समाजवाद: प्रथम विश्वयुद्ध ने विभिन्न समाजों में भूमिका में बदलाव की दिशा में गति प्रदान की। युद्ध के परिणामस्वरूप, समाजवादी विचारधारा की बढ़ती हुई पूँजीवाद से संघर्ष करने की भावना को उत्तेजित किया।
- यूनानी साम्राज्यों की खत्मि: प्रथम विश्वयुद्ध ने यूरोप में यूनानी साम्राज्यों का अंत कर दिया। जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी, रूस, और ऑटोमन साम्राज्य जैसे साम्राज्य नाश हो गए और नए राष्ट्र उनकी जगह ले ली।
- संघर्षों की बीज बोई: प्रथम विश्वयुद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध की ओर एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ने में मदद करता है, जो 1939 से 1945 तक चला। प्रथम विश्वयुद्ध से सीखकर विश्व के नेता और राष्ट्र ने विभिन्न तरीकों से संघर्ष को नियंत्रित करने की कोशिश की, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भी सद्य का समाधान नहीं पाया गया।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद संधियां
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद कई संधियाँ हुई। इन संधियों के माध्यम से आपसी सामंजस्य और शांति बनाये रखने तथा विश्व की स्थिति में सुधार करने की कोशिश की गई, जिससे ऐसी स्थिति दुबारा न उत्पन्न हो लेकिन ये संधियाँ द्वितीय विश्वयुद्ध की राह में आए संकेतों की भी थी। कुछ मुख्य संधियाँ निम्नलिखित हैं: –
पेरिस शांति सम्मेलन (Paris Peace Conference)
विश्व युद्ध में जर्मनी एवं उसके सहयोगी देश ऑस्ट्रिया, हंगरी, तुर्की आदि की पराजय हुई तथा पेरिस शांति सम्मेलन के साथ इस युद्ध का अंत हुआ।
पेरिस शांति सम्मेलन (Paris Peace Conference) और उसकी परिणति पेरिस शांति समझौता (Treaty of Paris) प्रथम विश्वयुद्ध के बाद स्थितिकरण की प्रक्रिया के हिस्से के रूप में आयोजित की गई थी। यह सम्मेलन 1919 में फ्रांस के पेरिस शहर में हुआ था और इसमें विश्वयुद्ध के विजयी देशों के नेताओं और प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
पेरिस शांति सम्मेलन के मुख्य उद्देश्यों में से एक था विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप दुनिया में स्थितिकरण स्थापित करना और एक ऐसा न्यायपालिका संरचना बनाना जिससे आगे के संघर्ष और समस्याओं का समाधान किया जा सकता हो।
पेरिस शांति सम्मेलन के परिणामस्वरूप कई समझौते हुए, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण था वर्साय संधि जिसमें जर्मनी के साथ न्यायपालिका के माध्यम से समझौता किया गया और उसकी सैन्य, दुर्गंधा, और आर्थिक दंशना को नियंत्रित किया गया। साथ ही, ब्रेस्ट-लितोव्स्क समझौता रूस के साथ हुआ जिसमें उसकी सीमा और सेना की लदाई को सीमित किया गया।
पेरिस शांति सम्मेलन के परिणामस्वरूप नई राष्ट्रिय सीमाएँ तय की गईं, नए देश गठबंधन बने और द्वितीय विश्वयुद्ध की संभावना कम होने का प्रयास किया गया। हालांकि, कुछ समझौतों की दिशा में कुछ देशों की असंतोषपूर्णता बनी रही, जिसने आगे द्वितीय विश्वयुद्ध की दिशा में कई कारकों को प्रेरित किया।
इसके अंतर्गत पराजित राष्ट्रों के साथ समझौते के रूप में पांच संधियां की गई।
- वर्साय की संधि जर्मनी के साथ, 28 June,1919
- सेंट जर्मन की संधि आस्ट्रिया के साथ, 10 Sep,1919
- न्युइली की संधि बुल्गारिया के साथ 27 Nov,1919
- त्रियानो की संधि हंगरी के साथ 4 June,1920
- सेव्रेस की संधि तुर्की के साथ 10 Aug,1920
वर्साय की संधि जर्मनी के साथ, 28 June,1919
सभी संधियों में सबसे महत्वपूर्ण थी वर्साय की संधि थी। इस संधि को ब्रिटेन ने जर्मनी के साथ किया। ब्रिटेन ने इसकी सभी शर्तों को जर्मनी के लिए स्वीकार करना अनिवार्य कर दिया। जर्मनी इस संधि की शर्तों को न चाहते हुए भी स्वीकार करने के लिए विवश था। और जर्मनी की यही विवशता दूसरे विश्वयुद्ध की तरफ जाने का पहला कदम साबित हुआ।
वर्साय संधि (Treaty of Versailles) प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुई एक महत्वपूर्ण शांति समझौता थी, जिसका सम्मलेन न्यायिक समिति द्वारा संघर्ष और चर्चा के बाद निर्धारित किया गया था। यह समझौता 28 जून 1919 को वर्साय, फ्रांस में हुआ था और जर्मनी के साथ हुआ था।
वर्साय संधि के माध्यम से जर्मनी की सीमाएँ कम की गईं, उसकी सेना को सीमाओं के अंतर्गत लाने का निर्णय लिया गया, और उसकी आर्थिक परिस्थितियों को सीमित किया गया। जर्मनी को अपनी सेना को सीमाओं में सीमित करने, आर्थिक परिस्थितियों को अशक्त करने, और युद्ध दायित्व में मानदंड को पूरा करने के लिए निर्देश दिए गए।
वर्साय संधि के तहत, जर्मनी को विश्वयुद्ध का जिम्मेदार बनाया गया था। और उसे अपनी सेना को सीमाओं के अंतर्गत रखने, युद्धयोग्य उपकरणों को सीमित करने, और अलीग तथा सुदेटेन क्षेत्रों के नियंत्रण को हाथ में नहीं रखने के लिए सहमत होना था।
वर्साय संधि के परिणामस्वरूप, जर्मन सेना को सीमाओं में सीमित किया गया, उसकी आर्थिक परिस्थितियाँ मजबूती से प्रबंधित की गईं, और विश्वयुद्ध की जिम्मेदारी को उसके ऊपर रख दिया गया। यह समझौता जर्मन समाज और राजनीति में आक्रोश और असंतोष का कारण बना, जिसका परिणाम बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में दिखाई दिया।
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद विजयी मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी के भविष्य का फैसला किया। जर्मनी को वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिये मज़बूर किया गया था।
- इस संधि के तहत जर्मनी को युद्ध का दोषी मानकर उस पर आर्थिक दंड लगाया गया।
सेंट जर्मन की संधि आस्ट्रिया के साथ 10 Sep,1919
सेंट जर्मन संधि (Treaty of Saint-Germain-en-Laye) एक प्रमुख शांति समझौता थी जो 10 सितंबर 1919 को पेरिस के पास सेंट जर्मन एन लेय (Saint-Germain-en-Laye) में अष्टांगिक संघर्षों के बाद ऑस्ट्रिया के साथ हुई थी। यह समझौता प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप हुआ और ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य को विभाजित करने का हिस्सा था।
सेंट जर्मन संधि के माध्यम से ऑस्ट्रिया-हंगरी की सीमाएँ कम की गई और उसके क्षेत्रों को नया आकर्षण दिलाया गया। यह समझौता ऑस्ट्रिया के तटीय क्षेत्रों को आदिर और टिरोल में बांट दिया गया, जो इताली के साथ संघर्ष में थे।
इस संधि के अंतर्गत ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य को संकुचित कर उसकी सेना को सीमित किया गया और उसके सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक प्रतिष्ठान को कम किया गया। इसके अलावा, ऑस्ट्रिया ने जानवरों और वानस्पतिक पौधों के विमान में सीमित अधिकार मानज़र किए और उसने अल्पसंख्यक समुदायों के स्वाभिमान और अधिकारों को संरक्षित किया।
सेंट जर्मन संधि ने ऑस्ट्रिया की भूमिका और स्थिति को पुनर्निर्धारित किया और प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को बदल दिया।
न्युइली की संधि बुल्गारिया के साथ 27 Nov,1919
न्युइली (Neuilly) संधि, जिसे “न्युइली संधि” भी कहा जाता है, एक शांति समझौता थी जो 27 नवंबर 1919 को पेरिस के न्युइली नगर में बुल्गारिया के साथ हुई थी। यह समझौता प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुआ और बुल्गारिया को सजग और क्षत्रियता में भाग लेने पर बाध्य किया गया।
न्युइली संधि के माध्यम से बुल्गारिया की सीमाएँ कम की गईं और उसके क्षेत्रों को सीमाओं के अंतर्गत लाने का निर्णय लिया गया। यह समझौता बुल्गारिया की सेना को सीमाओं की मजबूत सुरक्षा में कमी कर दिया और उसके आर्थिक और जल संसाधनों को सीमित किया गया।
न्युइली संधि के अंतर्गत बुल्गारिया ने तश्केंद समझौता के अनुसार युगोस्लाविया, रोमानिया, यूनान और तुर्की को भूमि दी और अपने क्षेत्रों को समुद्र के साथ लिया। इसके अलावा, बुल्गारिया ने आर्मी और नेवी में सीमित कमी को सहन किया और आर्थिक मानदंडों का पालन करने के लिए भुगतान किया।
न्युइली संधि ने बुल्गारिया की स्थिति को बदल दिया और उसकी सीमाएँ कम कर दी, जिससे विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप के राजनैतिक मानदंड बदल गए।
त्रियानो की संधि हंगरी के साथ 4 June,1920
त्रियानो संधि (Treaty of Trianon) एक शांति समझौता थी जिसे 4 जून 1920 को हुंगरी के साथ त्रियानो, फ्रांस में हुआ था। यह समझौता प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुआ और हंगरी के साथ हुआ था.
त्रियानो संधि के माध्यम से हंगरी की सीमाएँ कम की गईं और उसके क्षेत्रों को सीमाओं के अंतर्गत लाने का निर्णय लिया गया। यह समझौता हंगरी को उसकी सेना को सीमाओं में सीमित करने, आर्थिक परिस्थितियों को सीमित करने, और उसके समुद्र नीति को प्रतिबंधित करने के लिए बाध्य किया गया।
त्रियानो संधि के अंतर्गत हंगरी को बहुत सारे क्षेत्रों को खोना पड़ा, जिनमें से कुछ को उसने साम्राज्य के समय जीता था। इसके परिणामस्वरूप, हंगरी की भूमि और जनसंख्या में महत्वपूर्ण कटौती हुई, और उसकी आर्थिक परिस्थितियाँ मजबूती से प्रबंधित नहीं की गईं।
त्रियानो संधि ने हंगरी की स्थिति को बदल दिया और उसकी सीमाएँ कम कर दी, जिससे विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप के राजनैतिक मानदंड बदल गए।
सेव्रेस की संधि तुर्की के साथ 10 Aug,1920
सेव्रेस संधि (Treaty of Sèvres) एक शांति समझौता थी जिसे 10 अगस्त 1920 को सेव्रेस, फ्रांस में हुआ था। यह समझौता प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुआ और तुर्की के साथ हुआ था।
सेव्रेस संधि के माध्यम से तुर्की की सीमाएँ कम की गईं, उसके क्षेत्रों को सीमाओं के अंतर्गत लाने का निर्णय लिया गया, और उसकी सेना को सीमाओं में सीमित करने का प्रावधान था। यह समझौता तुर्की को उसके क्षेत्रों की सीमाएँ सीमाओं के अंतर्गत लाने, आर्थिक परिस्थितियों को सीमित करने, और उसकी समुद्र नीति को प्रतिबंधित करने के लिए बाध्य किया गया।
सेव्रेस संधि के परिणामस्वरूप, तुर्की को बहुत सारे क्षेत्रों को खोना पड़ा, जिनमें से कुछ को उसने अपने सम्राज्य के समय जीता था। इसके परिणामस्वरूप, तुर्की की भूमि और जनसंख्या में महत्वपूर्ण कटौती हुई, और उसकी आर्थिक परिस्थितियाँ मजबूती से प्रबंधित नहीं की गईं।
सेव्रेस संधि ने तुर्की की स्थिति को बदल दिया और उसकी सीमाएँ कम कर दी, जिससे विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप के राजनैतिक मानदंड बदल गए।
पेरिस शांति सम्मेलन (Paris Peace Conference) में हुई संधियों के अलावा अन्य समझौते भी हुए, जिनमे से कुछ का विवरण निचे दिया गया है–
नेविल्स संधि 27 नवंबर 1920
इस संधि के तहत, पहले विश्वयुद्ध में लड़े गए यूरोपीय देशों के बीच समझौता हुआ और उन्हें दरिया नेविल्स के समझौते की पालना करने के लिए कहा गया।
नेविल्स संधि (Treaty of Neuilly-sur-Seine) एक शांति समझौता थी जिसे 27 नवंबर 1920 को बुल्गारिया के साथ हस्ताक्षर किए गए थे। यह समझौता प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बुल्गारिया के साथ हुआ था और उसके साथी राष्ट्रों द्वारा बुल्गारिया पर आये आर्थिक और सामर्थ्य संकट को समाधान करने का प्रयास था।
नेविल्स संधि के माध्यम से बुल्गारिया ने कई क्षेत्रों में अपनी सीमाएँ और समृद्धि की हानि की स्वीकृति दी, और उसे कुछ क्षेत्रों में दस्तूरी की आज़ादी की स्वीकृति दी गई, लेकिन उसे अपनी सेना को बंद करनी और आर्थिक मुद्दों का समाधान करने के लिए भारत, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका के साथ समझौते पर मजबूर किया गया।
नेविल्स संधि ने बुल्गारिया की आर्थिक स्थिति को समाधान किया और उसके साथी राष्ट्रों द्वारा उसके परिप्रेक्ष्य में की गई आर्थिक प्रतिबंधिताओं को समाप्त किया। इसके अलावा, यह समझौता बुल्गारिया की सेना की सीमाओं में सीमित करने का भी प्रावधान था।
ट्रीटी ऑफ़ सेवर (1920)
ऑस्ट्रिया-हंगरी के साथ यह संधि की गई जिसमें उसकी सीमा और सेना को सीमित किया गया।
“ट्रीटी ऑफ़ सेवर” (Treaty of Trianon) एक इतिहासिक समझौता था, जिसमें 4 जून 1920 को ऑस्ट्रिया-हंगरी और प्रशासनिक एकाइयों के साथ हस्ताक्षर किए गए थे। यह समझौता प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुआ और ऑस्ट्रिया-हंगरी empire के खत्म होने के बाद उसकी सीमा और सामर्थ्य को सीमित करने के लिए किया गया था।
इस समझौते के माध्यम से ऑस्ट्रिया-हंगरी का भूगोलिक और सामर्थ्य परिप्रेक्ष्य में कमी कर दी गई और उसकी सीमा को सीमित किया गया। यह समझौता उसके पश्चिमी हिस्से को समर्थ नहीं बनाने के लिए किया गया और उसके भूभागों को अन्य राष्ट्रों को सौंप दिया गया।
लॉकरनो संधि (1921)
जर्मनी के साथ यह संधि हुई जिसमें विश्वयुद्ध में विजयी देशों ने जर्मनी के साथ न्यायपालिका के माध्यम से विचार किया कि उसकी कठिनाइयों के बावजूद उसे कैसे भुगतना चाहिए।
“लॉकरनो संधि” का सम्बंध रूस (सोवियत सोशलिस्ट गणराज्य USSR) और जर्मनी के बीच 1922 में हुआ था।
“लॉकरनो संधि” के माध्यम से रूस और जर्मनी ने एक-दूसरे के साथ व्यापारिक और आर्थिक संवाद की शुरुआत की और विश्वयुद्ध में हारने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास किया। इस संधि में दोनों देशों ने एक-दूसरे के साथ व्यापार, आर्थिक सहयोग, और तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में अपनी सहमति जताये।
वाशिंगटन समझौता (1922)
यह समझौता अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, और जापान के बीच हुआ, जिसमें उन्होंने युद्ध और आर्म्स रेस को नियंत्रित करने के लिए कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए।
“वाशिंगटन समझौता” (Washington Naval Treaty) एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौता था जिसे 1922 में वाशिंगटन डीसी में आयोजित हुई एक विशेष समिति के तहत ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, इटली और जापान के बीच हस्ताक्षर किया गया था। यह समझौता दुनिया के महासागरीय युद्ध और आर्म्स रेस को नियंत्रित करने का प्रयास था और उसके माध्यम से इस समझौता पर विचार किया गया कि कितनी जलयानों और सैन्य विमानों की अनुमति होनी चाहिए।
“वाशिंगटन समझौता” के अनुसार, विभिन्न देशों द्वारा अपने नौसेना शक्ति को सीमित करने के लिए समझौते किए गए और नौसेना यातायात की सीमा तय की गई। इस समझौते के परिणामस्वरूप नौसेना और आर्म्ड फोर्सेस की वृद्धि पर नियंत्रण किया गया।
“वाशिंगटन समझौता” दुनिया के महासागरीय सुरक्षा और शांति के प्रति महत्वपूर्ण कदम था जिसके परिणामस्वरूप आर्म्ड रेस को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया और नौसेना शक्ति को बात-चीत के माध्यम से नियंत्रित किया गया।
लॉकरनो संधि (1925)
फ्रांस और जर्मनी के बीच यह संधि हुई जिसमें विश्वयुद्ध में हारे जाने वाले देशों की सुरक्षा की गई और उन्हें जर्मन सीमा की खोज की आज़ादी मिली।
“लॉकरनो संधि” (Locarno Treaties) एक अहम अंतरराष्ट्रीय समझौता था। इस समझौते में 1925 में फ्रांस और जर्मनी के बीच हस्ताक्षर किए गए थे, और यह समझौता स्विट्ज़रलैंड के लोकरनो शहर में हुआ था। इस समझौते के माध्यम से विश्वयुद्ध में हारे जाने वाले देशों की सुरक्षा की गई और उन्हें जर्मन सीमा की खोज की आज़ादी दी गयी।
“लॉकरनो संधि” के तहत, फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, ब्रिटेन, और इटली ने एक दूसरे के साथ आपसी सुरक्षा और सहयोग की प्रतिबद्धता जाहिर की। इसके साथ ही, इस समझौते में स्थलीय विवादों का समाधान करने की प्रक्रिया भी शामिल थी।
“लॉकरनो संधि” ने यूरोप में संवैधानिक सुरक्षा को सख्ती से प्रयोग किया था और यह सुनिश्चित किया कि यदि कोई देश इस समझौते के शर्तों का उल्लंघन करता है, तो दूसरे देशों को उस पर प्रतिक्रिया देने का अधिकार होगा।
ये संधियाँ विश्व में स्थितिकरण और सुरक्षा की स्थापना करने का प्रयास कर रही थी, लेकिन उनमें से कई संधियाँ द्वितीय विश्वयुद्ध के निकट आने वाले घटनाक्रमों के संकेत भी दे रही थीं।
दूसरा विश्वयुद्ध होने के कारण
दूसरे विश्वयुद्ध के होने के कई कारण थे, जिनमें समाज, राजनीति, और आर्थिक प्राथमिकताएँ शामिल थीं। निम्नलिखित कुछ मुख्य कारण हैं:
- विश्वासाघात और तानाशाही राजनीति: पहले विश्वयुद्ध के बाद, विजयी देशों के बीच समझौते के बावजूद, दुनिया में स्थितिकरण और शांति की स्थिति बढ़ते तनाव के बीच थी। जीवंत बदलती राजनीतिक मानसिकता, सीमा समस्याएँ, और अधिकारियों के विभाजन के कारण दूसरे विश्वयुद्ध का आलंब था।
- आर्थिक और सामाजिक संकट: पहले विश्वयुद्ध के बाद, आर्थिक संकट और यथार्थता बढ़ गई थी। विपरीतता, बेरोजगारी, और आर्थिक मुद्दे दुनिया भर में आजाद और विकसित देशों में बढ़ गए थे। इससे संघर्ष बढ़ गया और आर्थिक संकट और यथार्थता ने राजनीतिक और सामाजिक तनाव को बढ़ावा दिया।
- इडियलोजिकल विभाजन: दूसरे विश्वयुद्ध के पहले, दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विचारधाराओं के बीच विभाजन था। कम्यूनिज्म, फैशिज्म, नास्तिकता, राष्ट्रवाद, और यहूदियों के खिलाफ अत्याचार जैसे विवादमय मुद्दे थे जो आयोजन के बावजूद दुनिया को विभाजित कर रहे थे।
- जर्मन आक्रमणवाद: हिटलर के नाजी राज्य का निर्माण करने का प्रयास जिनके माध्यम से जर्मनी ने यूरोप में बढ़त हासिल की थी, वह एक महत्वपूर्ण कारण था। जर्मनी ने अपनी बढ़ती हुई शक्ति का इस्तेमाल करके पूरी दुनिया में आक्रमण किया और बड़े-बड़े क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया।
- संघर्षों की बीज बोया जाना: पहले विश्वयुद्ध के बाद कुछ दशकों तक युद्ध से बचाने के लिए विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक प्रयास हुए थे। हालांकि, ये प्रयास सफल नहीं रहे और दूसरे विश्वयुद्ध के होने की संभावना बढ़ गई।
- आत्म-स्तरण की भावना: दूसरे विश्वयुद्ध के आसपास, कई देशों में आत्म-स्तरण की भावना बढ़ी थी। लोगों में राष्ट्रप्रेम और अपने देश के मान-सम्मान की भावना तेजी से बढ़ रही थी, जिससे देशों के बीच संघर्ष का पैमाना बढ़ गया।
- राष्ट्र संघ (League of Nations) की असफलता: पहले विश्वयुद्ध के बाद, राष्ट्र संघ की स्थापना की गई थी ताकि आने वाले संघर्षों को रोका जा सके। हालांकि, संघ के कुशल नेतृत्व के बावजूद यह संघ अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सका और यूरोप में तनाव बढ़ता गया।
इन सभी कारणों के संयोजन से दूसरे विश्वयुद्ध का होना हुआ और दुनिया को एक बार फिर संघर्ष की दिशा में बढ़ना पड़ा।
1929 की महामंदी
1929 की महामंदी, को “महामंदी 1929” अथवा “विश्वासघाती महामंदी” के रूप में भी जाना जाता है, यह एक आर्थिक मंदी थी जो विश्वभर में आर्थिक गिरावट का कारण बनी। यह मंदी 20वीं सदी के उच्च स्तर की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक थी और इसके बाद के दशकों तक की दुनिया की आर्थिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
महामंदी की मुख्य वजह थी अमेरिका में स्थित अन्यत्र कार्य का स्थगनन और आर्थिक गतिविधियों में कमी। जिसके परिणामस्वरूप बहुत सारे देशों के अर्थतंत्र बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुए। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों ने नौकरियाँ खो दी और बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी का सामना करना पड़ा।
महामंदी का प्रारंभ अक्टूबर 1929 में हुआ जब अमेरिकी स्टॉक मार्केट में एक महाधीपक घटना घटी, जिसके परिणामस्वरूप बहुत सारे निवेशक अपने पूंजी खो दिये। इस घटना से लोगों को यह विश्वास हो गया कि अब आर्थिक गतिविधियों भयंकर रूप से पिछड़ने वाली है, इस कारण लोग अपने खर्च को कम करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप और भी अधिक आर्थिक गिरावट हो गई।
- वर्ष 1930 के दशक की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने यूरोप और एशिया में अलग-अलग तरीकों से अपना प्रभाव डाला।
- यूरोप की अधिकांश राजनीतिक शक्तियां जैसे- जर्मनी, इटली, स्पेन आदि अधिनायकवादी और साम्राज्यवादी सरकारों में स्थानांतरित हो गईं।
इस प्रकार से, दुनिया भर के देशों में बड़ी आर्थिक गिरावट हुई और यह महामंदी विश्वयुद्ध के पहले चरण को बढ़ावा देने में भी मददगार साबित हुई। और विश्वयुद्ध के बाद भी उत्तराधिकारी प्रभाव डालती रही तथा एक नए आर्थिक क्रम की शुरुआत की।
महामंदी के बाद, कई अमेरिकी नीतियाँ और आर्थिक प्रणालियों में सुधार किए गए, जिनसे इस प्रकार की आर्थिक गिरावट की संभावना कम हो सके।
राष्ट्र संघ (League of Nations) का निर्माण एवं उसकी विफलता
राष्ट्र संघ (League of Nations) पहले विश्वयुद्ध के बाद गठित एक अंतरराष्ट्रीय संगठन था, जिसका उद्देश्य विश्वभर में शांति और सुरक्षा की संरचना बनाना था। यह संगठन 10 January 1920 में वर्साय की संधि के तहत स्थापित किया गया था। राष्ट्र संघ बनाने के प्रस्ताव का अनुमोदन 25 जनवरी 1919 को प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थाई शांति कायम करने के लिए बुलाए गए पेरिस शांति सम्मेलन में किया गया
राष्ट्र संघ के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार थे –
- अंतरराष्ट्रीय समझौतों के माध्यम से शांति की स्थापना और रक्षा करना।
- सदस्य देशों के बीच आपसी सहमति और सहयोग को बढ़ावा देना।
- सदस्य देशों के बीच विवादों के न्यायपूर्ण समाधान की सुनिश्चित करना।
हालांकि, राष्ट्र संघ का संचालन कई मुश्किलों से गुजरा। और ये मुश्किलें ही इसकी विफलता का कारण बनी। और द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद इसका अस्तित्व समाप्त हो गया। इसके विफल होने के कुछ मुख्य कारण इस प्रकार थे:
- संगठन के अद्यतन न कर पाना: राष्ट्र संघ ने विश्वयुद्ध के बाद की बदलते स्थितियों का तेजी से समर्थन नहीं किया और उसकी संरचना और कार्यक्रमों को अद्यतित नहीं किया, जिसके कारण उसकी क्षमता और प्रभाव गिर गए।
- महत्वपूर्ण देशों का अनदेखा करना: विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका राष्ट्र संघ में शामिल नहीं हुआ और ब्रिटेन और फ्रांस जैसे प्रमुख शक्तियाँ भी उसके सहयोग से पीछे हट गईं।
- कई देशों की आत्मशक्ति की कमी: कुछ देश अपनी आत्मशक्ति और स्वायत्तता का अभिवादन करना चाहते थे। इस कारण उन्होंने राष्ट्र संघ की सिखायी गई शान्ति प्रणालियों को नजरअंदाज किया।
- निर्णायक प्राधिकृतता की कमी: राष्ट्र संघ की निर्णायक प्राधिकृतता में कमी थी और इसके पास विवादों को न्यायपूर्ण तरीके से समाधान करने के लिए प्राधिकृत साधन नहीं थे।
- सदस्य देशों के असहमति: विभिन्न सदस्य देश विशेष रूप से महत्वपूर्ण मुद्दों पर असहमत थे और उनके बीच योगदान की कमी हो गई।
- सभी देश इसमें शामिल नहीं हो सके। जो इसके सफल न होने का एक कारण बना।
- सबसे बड़ा विफलता का कारण यह भी था कि, पहला विश्व युद्ध का परिणाम भी देशों को एक साथ नहीं ला सका। और कई देशों के मन में प्रतिशोध की भावना उसी समय से बन गयी, जो इसकी असफलता का कारण था।
- जब देशों ने अपने दायरे का विस्तार करने के लिए दूसरे देशों पर हमला करना शुरू किया, तो लीग के पास उन्हें रोकने की कोई शक्ति नहीं थी
इन सभी कारणों के संयोजन से, राष्ट्र संघ का उद्देश्य पूरा नहीं हो सका और यह 1945 में आधिकारिक रूप से बंद हो गया। इसकी विफलता के बाद, संयुक्त राष्ट्र (United Nations) का स्थापना किया गया, जो आज भी अंतरराष्ट्रीय सहयोग और संरक्षा की संरचना के रूप में कार्य कर रहा है।
प्रथम विश्वयुद्ध के महत्वपूर्ण तथ्य
- सितंबर 1914 में, जर्मन वैज्ञानिक और सिद्धांतकार (विचारक) अर्न्स्ट हेकेल ने पहली बार “विश्व युद्ध” शब्द का इस्तेमाल किया, यह चार साल तक चला।
- प्रथम विश्व युद्ध, जिसे आमतौर पर महान युद्ध कहा जाता है, 28 जुलाई, 1914 से 11 नवंबर, 1918 तक चला।
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, केंद्रीय शक्तियों और मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ एक-दूसरे से लड़ीं।
- ग्रेट ब्रिटेन, फ़्रांस और रूस मित्र देशों (एलाइड पावर्स) में शामिल थे और साथ में मिलकर युद्ध लड़ा। 1917 के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका ने मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में प्रवेश किया।
- ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य प्रमुख शक्तियाँ थीं जिन्होंने केंद्रीय शक्तियों (सेंट्रल पॉवर) का गठन किया।
- प्रथम विश्व युद्ध की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के अंत तक शुरू हो चुकी थी। इस समय तक कई यूरोपीय देशों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता स्पष्ट हो गई थी।
- 1871 में जर्मनी के एकीकरण के बाद, एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में जर्मनी के उद्भव ने अन्य यूरोपीय देशों, विशेषकर ब्रिटेन और फ्रांस को चिंतित कर दिया।
- लगभग इसी समय, ओटोमन साम्राज्य के पतन के परिणामस्वरूप, बाल्कन में नए राष्ट्रों का उदय हुआ।
- इनमें से एक देश सर्बिया था, जिसने ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य की कीमत पर अपने क्षेत्र और प्रभाव का विस्तार किया। इसने ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य को किसी भी संभावित खतरे से एक-दूसरे को बचाने के लिए इटली और जर्मनी के साथ सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
- जवाब में, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने समान लक्ष्यों के साथ एक त्रिपक्षीय संधि में प्रवेश किया।
- 20वीं सदी में जर्मनी और ब्रिटेन ने अपने युद्धपोत बेड़े में सुधार और विस्तार किया। शेष यूरोप ने भी ऐसा ही किया।
- 1914 तक, अधिकांश यूरोपीय देशों के पास सक्षम सेनाएँ थीं। युद्ध शुरू करने के लिए बस एक चिंगारी की जरूरत थी।
- जब 28 जून, 1914 को बोस्निया के साराजेवो में आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या कर दी गई, तो उस कृत्य ने विस्फोटक ईंधन के रूप में काम किया।
- ऑस्ट्रो-हंगेरियन सिंहासन के उत्तराधिकारी, फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या सर्बियाई राष्ट्रवादी गैवरिलो प्रिंसिप द्वारा की गई थी, जो बोस्निया में ऑस्ट्रो-हंगेरियन शासन का विरोध कर रहे थे।
- ऑस्ट्रिया-हंगरी द्वारा सर्बिया पर युद्ध की घोषणा के बाद, रूस ने सर्बिया की रक्षा के लिए एक सेना खड़ी की।
- जवाब में, जर्मनी फ्रांस और रूस दोनों के खिलाफ युद्ध में चला गया।
- एक बड़ी जर्मन सेना ने फ्रांस पर विजय प्राप्त करने के रास्ते में बेल्जियम की संप्रभुता पर आक्रमण किया।
- 1830 में बेल्जियम पर हमला होने पर उसकी रक्षा करने के अपने दायित्व के कारण ब्रिटेन इस संघर्ष में शामिल हो गया।