द्वितीय विश्वयुद्ध, जिसे 1939 से 1945 तक चलने वाले वैश्विक संघर्ष के रूप में जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण और घातक घटना थी जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया। इस युद्ध ने विश्वभर में बड़े पैमाने पर विनाश और उलझन का सामना किया और उसने धरती पर कई देशों को दीवारों के पीछे खड़ा कर दिया। यह युद्ध दो प्रमुख युद्धकांडों में विभाजित होता है:
- यूरोपीय युद्ध और
- प्रशांत महासागर क्षेत्र में लड़े गए युद्ध।
यूरोपीय युद्ध नाजी जर्मनी के प्रमुख द्वारा प्रारंभ किया गया था जिनका उद्देश्य पोलैंड के आक्रमण से शुरू हुआ था। जर्मनी के संगठनवादी नाजी दल द्वारा अपने प्रतिबद्धता के साथ, ब्रिटेन और फ्रांस के खिलाफ आक्रमण की ओर बढ़ते गए।
इस प्रकार से यूरोपीय युद्ध ने आखिरकार बड़ी द्वितीय विश्वयुद्ध Second World War की शुरुआत की। ऐसा युद्ध जो यूरोपीय देशों के बीच तनाव और संघर्षों के परिणामस्वरूप आरंभ हुआ और युद्ध का रूप ले लिया। इसके बाद, आइसलैंड, नॉर्वे, डेनमार्क और बेल्जियम जैसे देशों के आक्रमण ने इस युद्ध को एक भयंकर युद्ध के रूप में परिवर्तित कर दिया।
अगले कुछ वर्षों में, इस युद्ध में बहुत से देश शामिल हो गए और इसके परिणामस्वरूप यह एक विश्वयुद्ध बन गया। यूनानी, ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ, चीन, अमेरिका और भारत जैसे देश ने इस युद्ध में अपनी भूमिकाओं को निभाया। युद्ध के दौरान, नाजी जर्मनी की आक्रमणप्रिय नीतियों के परिणामस्वरूप एक विशाल और नरसंहारक हौलोकॉस्ट का सामना करना पड़ा, जिसमें लाखों लोगों की मौत हुई।
इस युद्ध का अंत 1945 में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर एटॉमिक बमों के ड्राप के कारण हुए विनाश के चलते हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध ने विश्व को एक नये युद्ध के प्रति नेतृत्व और साझा संकल्प की आवश्यकता को महसूस कराया, जिससे विनाश की दिशा में बदलाव आ सके और उम्मीदों और मानवता की समृद्धि की ओर प्रगति हो सके।
द्वितीय विश्व युद्ध: गहरी उम्मीदों की पुनरावृत्ति
द्वितीय विश्व युद्ध एक वैश्विक सशस्त्र संघर्ष था जो 1939 ई. से 1945 ई. तक चला। इस युद्ध में दो मुख्य विरोधी गुट धुरी शक्तियां (central Power – जर्मनी, इटली और जापान) और मित्र राष्ट्र (फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और आंशिक रूप से चीन) शामिल थे। यह इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था, जो छह वर्षों तक चला। इसमें लगभग 100 मिलियन लोग शामिल थे। इस युद्ध में 50 मिलियन ( चार करोड़ से अधिक लगभग पांच करोड़) अर्थात दुनिया की आबादी का लगभग 3% लोगों ने अपनी जान गंवा दी।
द्वितीय विश्व युद्ध होने के कारण
द्वितीय विश्व युद्ध Second World War के कारण विशेष तरीके से कई घटनाओं और तथ्यों का परिणाम था, जिनमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण शामिल थे। यहां कुछ मुख्य कारण दिए गए हैं:
वर्साय समझौता का परिणाम (Treaty of Versailles)
पहले विश्व युद्ध के बाद, 1919 में सम्मिलित राष्ट्र के साथ कई शांति समझौते किए गए, जिनमें वर्साय समझौता शामिल था। इस समझौते में विजयी मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी के भविष्य का फैसला किया। और जर्मनी को वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिये मज़बूर किया। उन्होंने जर्मनी को युद्ध का दोषी मानते हुए उस पर आर्थिक दंड लगाया गया, उसके प्रमुख खनिज और औपनिवेशिक क्षेत्र को छीन लिया गया तथा उसे सीमित सेना रखने के लिये प्रतिबद्ध किया गया।
इस संधि के परिणामस्वरूप, जर्मनी को भारी नुकसान उठाना पड़ा, जो उसकी आर्थिक स्थिति को दुर्बल कर दिया। यह जर्मनी में आर्थिक संकट और असमानता की भावना को बढ़ा दिया। इस अपमानजनक संधि ने जर्मनी में अति-राष्ट्रवाद के प्रसार तथा नाजी पार्टी के आगमन का मार्ग तैयार किया।
आर्थिक महामंदी (Economic Crises)
वर्ष 929 में, महामंदी ने दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। मंदी के दौरान, अर्थव्यवस्था सिकुड़ गई, व्यापार सिकुड़ गया, दुकानें बंद हो गईं, कीमतें गिर गईं, बैंक विफल हो गए और बेरोजगारी बढ़ गई। जब अर्थव्यवस्था गिरती है, तो नागरिक अपनी समस्याओं के समाधान के लिए मजबूत राजनीतिक नेतृत्व की अपेक्षा करते हैं। और ऐसी परिस्थितियों के बीच 1933 में एडोल्फ हिटलर ने जर्मनी का नेतृत्व संभाला। जर्मनी का नेतृत्व संभालने के बाद, उन्होंने जर्मनी को उसका खोया हुआ गौरव, धन और शक्ति वापस दिलाने का वादा किया।
जर्मनी को एक महान राष्ट्र बनाने के उनके सपने ने जर्मन नागरिकों के अन्दर उत्साह भर दिया और उनको को फिर से प्रेरित किया। इस सपने ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुए अपमान से उत्पन्न घावों पर मरहम का काम किया। बहुत से लोगों ने नाज़ीवाद का समर्थन किया क्योंकि इसने आर्थिक पतन से बाहर निकलने का रास्ता पेश किया।
फासीवाद / कट्टर-राष्ट्रवाद का उदय (Rise of Fascism / Ultra-Nationalism)
फासीवाद एक अत्यधिक रूढ़िवादी, सत्तावादी कट्टर-राष्ट्रवाद है जिसकी विशेषता तानाशाही शक्ति, विपक्ष का बलपूर्वक दमन और समाज तथा अर्थव्यवस्था का मजबूत संव्यूहन है, जो बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध के बाद सामने आया। फासीवाद की शुरुआत मुसोलिनी ने पहली बार इटली में की थी, जबकि एडोल्फ हिटलर ने जर्मन संस्करण ‘नाजीवाद’ के रूप में इसे अपनाया। नाजीवाद ने जर्मन लोगों के साथ ही पूरे यूरोप और दुनिया के कई अन्य हिस्सों के लिए विनाशकारी साबित हुआ।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद, यूरोप में कई राजनीतिक आंदोलनों का उदय हुआ, जिन्हें फासीवाद कहा गया। इसका प्रमुख कारण यह था कि विश्व युद्ध के बाद कई देशों में लोकतंत्र-विरोधी सरकारों का विकास हुआ, जिससे जनसामान्य लोगों का आत्मसमर्पण और आर्थिक दुविधा बढ़ गई। इससे अवसादित और पराजित मानसिकता के चलते ऐसी विचारधारा उत्पन्न हुई जिसमें फासीवाद की तरफ खिंचाव हुआ।
फासीवादी आंदोलनों ने अपने विचारों को बढ़ावा देने के लिए सत्तारूढ़ तंत्रों का उपयोग किया, जिससे उन्होंने अपने आपको साम्राज्यी और अत्यंत महत्वपूर्ण बताया। यह आंदोलन राजनीतिक और सामाजिक दिशाओं में अफसोस का कारण बने, और यह अंत में द्वितीय विश्व युद्ध की ओर ले गया, जिसमें फासीवादी देशों की सहयोगी भूमिका थी।
जर्मन सैन्यवाद (German Militarism)
एडोल्फ हिटलर ने वर्साय संधि की निंदा की और शांति संधि की उपेक्षा करते हुए तत्काल जर्मनी की सेना और हथियारों को विस्तारित करने का निर्णय लिया। इससे जर्मन सैन्यवाद का आदान-प्रदान शुरू हुआ।
ब्रिटेन और फ्रांस ने हिटलर के कार्यों के प्रति चिंतित होकर उनके प्रति विचार किया, लेकिन प्रारंभ में उन्होंने सोचा कि एक मजबूत जर्मनी रूस से साम्यवाद के प्रसार को रोक सकती है। इसके परिणामस्वरूप, वह जर्मन सैन्य की मजबूती का प्रयास करने लगे।
वर्ष 1936 में, हिटलर ने फासीवादी शक्तियों के साथ “रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी राष्ट्र” पर हस्ताक्षर किए, जिससे यह शक्तियाँ मिलकर एक-दूसरे का साथ देने का वादा किया। यह एक संघटित प्रयास था जो विशेष रूप से ब्रिटेन और फ्रांस के साम्राज्यवादी आदर्शों का खिलाफ था, जिन्हें वे तख्तापलट करना चाहते थे।
इस प्रकार, हिटलर ने जर्मन सैन्यवाद की शुरुआत की और उन्होंने उपनिवेश की दिशा में प्रयत्न किया, जिससे वे अपने आदर्शों की प्रसार कर सकें। इससे द्वितीय विश्व युद्ध की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ गया और यह युद्ध आगे बढ़ने की दिशा में बड़े परिवर्तन का कारण बना।
नाज़ीवाद का उदय (Rise of Nazism)
नाजीवाद का उदय जर्मन नेशनल सोशलिस्ट (नाज़ी) पार्टी के नेता एडोल्फ हिटलर द्वारा किया गया था। हिटलर ने फासीवाद की नस्लवादी विचारधारा का प्रचार किया और वर्साय की संधि को पलट देने, जर्मनी की संवृद्धि, धन और वैभव को पुनः बहाल करने, और जर्मन लोगों के लिए अतिरिक्त लेबेन्सराम (Lebensraum- रहने की जगह) को सुरक्षित करने का वादा किया। उन्होंने वर्ष 1933 में जर्मन चांसलर के पद पर आवाज उठाई और द्वितीय विश्व युद्ध की ओर अग्रसर होने के बाद खुद को एक तानाशाह के रूप में स्थापित किया।
नाज़ी शासन ने वर्ष 1941 में स्लाव, यहूदियों, और हिटलर की विचारधारा के दृष्टिकोण से हीन समझे जाने वाले अन्य तत्त्वों के खिलाफ युद्ध शुरू किया। उनकी इस नीति का परिणामस्वरूप होलोकॉस्ट नामक विनाशकारी घटना हुई, जिसमें लाखों यहूदी और अन्य जातियां नाज़ी शासन के तानाशाही और नस्लवादी आदर्शों की वजह से मारी गईं। उनकी विचारधारा ने दुनिया को एक अद्भुत और विनाशकारी युद्ध की ओर ले जाया, जिसने दुनिया को गहरी चोट पहुँचाई और ज़हरीले परिणामों का सामना करना पड़ा।
तुष्टिकरण की नीति (Policy of Appeasement)
हिटलर ने वर्साय संधि का खुले तौर पर उल्लंघन किया और जर्मनी की सेना और हथियारों का गुप्त निर्माण शुरू किया। ब्रिटेन और फ्रांस को हिटलर की क्रिया कलापों के बारे में जानकारी थी, लेकिन उन्हें लगा कि एक मजबूत जर्मनी ही रूस के साम्राज्यवादी प्रसार को रोक सकती है।
इस तुष्टिकरण की नीति का एक महत्वपूर्ण उदाहरण म्यूनिख समझौता (सितंबर 1938) था, इस समझौते के तहत ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी को चेकोस्लोवाकिया के उन क्षेत्रों में प्रवेश की अनुमति दी थी, जहाँ जर्मन-भाषी लोग रहते थे। हिटलर ने वादा किया कि वह शेष चेकोस्लोवाकिया या किसी अन्य देश पर आक्रमण नहीं करेगा, लेकिन मार्च 1939 में जर्मनी ने इस वादे को तोड़कर शेष चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण किया। इसके बाद भी ब्रिटेन और फ्रांस ने सैन्य कार्रवाई नहीं की।
इस नीति के माध्यम से हिटलर ने ब्रिटेन और फ्रांस के प्रति ताकत और उनकी साहस की कमी का उपयोग किया और अपने आदर्शों की प्रसार की दिशा में कदम बढ़ाया। यह नीति उनके आगे के कदमों के लिए मार्गप्रदर्शन करने में सहायक साबित हुई, जो उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध Second World War की दिशा में आगे बढ़ने में मदद करते गए।
तुष्टिकरण की विफलता (Failure of Appeasement)
तुष्टीकरण का अर्थ होता है संघर्ष से बचने के लिए दूसरे राष्ट्र की मांगों पर सहमत होने की नीति। हालांकि इस नीति को कई बार विफलता मिली है, और एक इसका प्रमुख ऐतिहासिक उदाहरण इस प्रकार है-
ब्रिटेन और फ्रांस ने यह सोचकर कि वर्साय संधि जर्मनी के प्रति पक्षपातपूर्ण थी और हिटलर की कार्रवाई स्वाभाविक और न्यायसंगत हो सकती है, म्यूनिख समझौते (सितंबर 1938) में जर्मनी को चेकोस्लोवाकिया के उत्तरी भाग में सुडेटेनलैंड में जहां जर्मन भाषी लोग के रहने के कारण उस भाग को हड़पने की अनुमति दे दी। और हिटलर ने वादा किया था कि चेकोस्लोवाकिया के अन्य किसी भाग पर हमला नहीं करेगा।
लेकिन मार्च 1939 में, जर्मनी ने अपना वादा तोड़ दिया और पूरे चेकोस्लोवाकिया पर हमला कर दिया। इस परिस्थिति में ब्रिटेन और फ्रांस सैन्य कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं थे। इससे तुष्टीकरण की नीति की विफलता का सामना करना पड़ा, और यह जर्मनी के आगे बढ़ते कदमों के लिए मार्ग प्रदर्शन करने में एक महत्वपूर्ण घटना बन गई।
जापानी सैन्यवाद (Japanese Militarism)
जापानी सैन्यवाद (Japanese Militarism) 1931 के आस-पास, जब जापान की अर्थव्यवस्था में आर्थिक मंदी का असर बेहद महत्वपूर्ण रूप से दिखाई दिया था, उस समय उसके सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई देने लगे थे। जापानी लोग सरकार पर अपने आर्थिक संकटों का समाधान ढूंढने में अविश्वास और निराशा का सामना कर रहे थे। इस दुर्दशा के बीच, उन्होंने सेना की ओर रुख किया, जिसका मतलब था कि सेना को समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए उन्होंने सामाजिक और आर्थिक मुद्दों में भी अपनी भूमिका बढ़ा दी।
जापान के अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी बदलाव आया था, जब यह देखने लगा कि उसके पास बाहरी संसाधनों की कमी है और विशेष रूप से उसके आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विदेशी सौहार्दपूर्ण संबंधों की आवश्यकता है। इसके परिणामस्वरूप, जापान ने अपने संबंधों में और अधिक आत्म-सुफल और आत्मनिर्भर बनने का प्रयास किया, जो आने वाले समय में सामर्थ्यशाली बनने के रास्ते का एक पहलु बना।
जापान के सैन्यवादी मार्ग में, सेना की महत्वपूर्ण भूमिका ने उसके नेतृत्व और नीतियों को परिवर्तित किया, और इसने आधुनिकीकरण, आत्म-समर्पण और राष्ट्रीय उत्कृष्टता की दिशा में एक नया मार्ग प्रशस्त किया।
राष्ट्र संघ की विफलता (Failure of the League of Nations)
राष्ट्र संघ की परिकल्पना सामूहिक सुरक्षा के साथ युद्ध को रोकने के लिए की गई थी। यह एक उत्कृष्ट विचार था, लेकिन आखिरकार यह असफलता में बदल गया। राष्ट्र संघ की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
- अमेरिका की अवामुखीकरण: राष्ट्र संघ का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य अमेरिका ने संघ में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया, जिससे इसकी सशक्ति और प्रभाव में कमी आई।
- संघ की शक्तिहीनता: राष्ट्र संघ को सामूहिक सुरक्षा की प्रतिष्ठा थी, लेकिन उसके पास स्वयं संरक्षण की शक्ति नहीं थी। यह सबसे ज्यादा आक्रमण युद्धों के समय में साबित हुआ, जैसे कि इटली की इथियोपिया पर और जापान की मंचूरिया पर आक्रमण।
- यूनान और तुर्की का विवाद: संघ के प्रतिष्ठितता को क्षति पहुंचने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा यूनान और तुर्की के बीच का विवाद था, जिसमें संघ की कोशिशें समस्या को सुलझाने में असफल रही।
- सदस्यों की असहमति: संघ के सदस्यों के बीच समस्याओं के समाधान के लिए असहमति होने के कारण भी संघ असफल रहा।
राष्ट्र संघ की विफलता से यह स्पष्ट होता है कि सिर्फ सामूहिक सुरक्षा की परिकल्पना ही काफी नहीं होती, बल्कि सदस्यों के सहमति, संरक्षण की सामर्थ्य, और प्रभावी कार्रवाई की भी आवश्यकता होती है।
आयात-निर्यात की बाधाएं (Import-Export Barriers)
वर्साय समझौते ने व्यापारिक संबंधों में प्रतिबंध और नियमों की स्थापना की थी, जिससे विश्व व्यापार में अड़चनें आई। यह आर्थिक संकट को बढ़ा दिया और देशों के बीच आत्मघाती आर्थिक उपायों की दिशा में अक्षमता को दिखाया।
जनसंख्या की वृद्धि (Population Growth)
द्वितीय विश्व युद्ध के समय, अनेक देशों में जनसंख्या की वृद्धि हुई थी, जिससे रोजगार और संसाधनों की मांग बढ़ गई। इससे संघर्ष बढ़ गया और सामाजिक और आर्थिक दुर्बलता बढ़ी।
इन कारणों के संयोजन से द्वितीय विश्व युद्ध हुआ, जिसका परिणामस्वरूप दुनिया भर में बड़े पैमाने पर युद्ध और विनाश हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध का इतिहास (History of World War II)
अगस्त 1939 के अंत में, हिटलर और सोवियत नेता जोसेफ स्टालिन ने जर्मन-सोवियत रोकथाम समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे लंदन और पेरिस में बड़ी चिंता पैदा हो गई। हिटलर पोलैंड पर आक्रमण की योजना बना रहा था, जिस देश पर जर्मनी ने आक्रमण किया था और जिसे ब्रिटेन और फ्रांस ने संयुक्त रूप से सैन्य समर्थन देने का वादा किया था। स्टालिन के साथ इस समझौते का मतलब था कि पोलैंड पर आक्रमण के बाद हिटलर को किसी भी तरफ से युद्ध नहीं करना पड़ेगा और देश को नष्ट करने और विभाजित करने में उसे सोवियत समर्थन प्राप्त होगा।
1 सितम्बर 1939 को हिटलर ने पश्चिम से पोलैंड पर आक्रमण किया; दो दिन बाद, फ्रांस और ब्रिटेन ने द्वितीय विश्व युद्ध शुरू करते हुए जर्मनी पर युद्ध की घोषणा की।
17 सितंबर को सोवियत सैनिकों ने पूर्वी पोलैंड पर आक्रमण किया। दोनों पक्षों के आक्रमण के परिणामस्वरूप, पोलैंड तेजी से विघटित हो गया, और 1940 की शुरुआत में जर्मनी और सोवियत संघ ने एक गुप्त समझौते से जुड़े प्रोटोकॉल के अनुसार देश का नियंत्रण साझा किया। स्टालिन की सेना ने बाद में बाल्टिक राज्यों (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) पर विजय प्राप्त की और रूसी-फिनिश युद्ध में प्रतिद्वंद्वी फिनलैंड को हराया।
पोलैंड पर आक्रमण के छह महीने के भीतर, जर्मन और पश्चिमी मित्र देशों की निष्क्रियता के कारण मीडिया में “फर्जी युद्ध” की चर्चा होने लगी। हालाँकि, समुद्र में, ब्रिटिश और जर्मन नौसेनाओं में युद्ध बढ़ रहा था, और घातक जर्मन यू-बोट हमलों ने ब्रिटिश-आने वाले व्यापारी जहाजों पर हमला करना जारी रखा, जिससे द्वितीय विश्व युद्ध के पहले चार महीनों में 100 से अधिक जहाज डूब गए।
अंतर्राष्ट्रीय तनाव: द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत
द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत में अंतर्राष्ट्रीय तनाव ने एक नए संग्रहीत युद्ध के लिए माहौल तैयार किया। यह तनाव तीन वर्षों तक विकसित होते गए, और इसके परिणामस्वरूप धुरी और मित्र शक्तियों के बीच संबंध बिगड़ने लगे। स्पेनिश गृह युद्ध, जर्मनी और ऑस्ट्रिया के संघ, और हिटलर द्वारा सूडिटेनलैंड पर कब्जा और चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण जैसी घटनाएं विश्व के राजनीतिक मंच को बदल दी थीं।
वाक् युद्ध (War of Words)
पश्चिमी यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के पहले कुछ महीनों के दौरान, स्थिति बेहद शांत थी, और इसे ‘वाक् युद्ध’ के नाम से जाना जाता है। इस अवधि के दौरान, युद्ध की तैयारी तो चल रही थी, लेकिन वास्तविक सैन्य संघर्ष की स्थिति बेहद शांत रही। पश्चिमी यूरोपीय देशों ने अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए सुरक्षित स्थानों की ओर दिशा प्रवृत्त की थी।
रिबेंट्रोप की संधि (Ribbentrop’s Pact)
जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने 1939 के आरंभिक महीनों में पोलैंड पर आक्रमण के निश्चय को लिया। पोलैंड को ब्रिटेन और फ्राँस द्वारा सहायता देने का आश्वासन था, लेकिन हिटलर ने पूरा इरादा किया था कि पोलैंड पर आक्रमण करेगा। हिटलर का मुख्य लक्ष्य पोलैंड के आक्रमण से पहले सोवियत संघ के विरोध को खत्म करना था। यद्यपि जर्मनी और सोवियत संघ के बीच मॉस्को समझौता अगस्त 1939 में हो चुका था, हिटलर ने इसका पालन नहीं किया।
फ्रांस, जर्मनी, और अंतर्राष्ट्रीय तनाव (1940): एक बदलते संघर्ष की दिशा
वर्ष 1940 में, द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के पश्चात्, एक महत्वपूर्ण सीरीज़ घटनाओं ने विश्व के राजनीतिक मंच की दिशा को बदल दिया। ‘शीतकालीन युद्ध’ के नाम से जाने जाने वाले इस समय के दौरान, रूस और फिनलैंड के बीच हुए संघर्ष मार्च महीने में समाप्त हो गए थे, और उसके पश्चात्, जर्मनी ने डेनमार्क और नॉर्वे पर आक्रमण किया। डेनमार्क ने तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन नॉर्वे ने जून 1940 तक जर्मनी के साथ मुकाबला किया, सहायता प्राप्त करने के लिए ब्रिटेन और फ्राँस का सहारा लिया।
फ्राँस का पतन और जर्मनी के सफल आक्रमण के बाद, जर्मनी ने फ्राँस में ‘विची सरकार’ की स्थापना की, जिससे वह फ्राँस के कुछ हिस्सों को अपने नियंत्रण में कर सकती थी, और ब्रिटेन पर आक्रमण की तैयारी की। यह समय विश्व राजनीति के परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह दिखाता था कि जर्मनी की आक्रमणकारी रणनीतियाँ कितनी तीव्र और सफल हो सकती थीं।
इस अवस्था में, अंतर्राष्ट्रीय तनाव ने द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभिक दिनों में संग्रहीत युद्ध की दिशा में बदलाव को प्रेरित किया। जर्मनी की तीव्र आक्रमण रणनीतियाँ और वाक् युद्ध के मौजूदगी में बदलते संघर्ष ने युद्ध के प्रवृत्ति को नया दिशा देने का काम किया।
द्वितीय विश्व युद्ध का घटनाक्रम | World War 2 Major Events
फ़ुहरर (हिटलर) ने अपनी निगाहें पोलैंड पर जमा रखी थी। फ़ुहरर एक जर्मन शब्द है जो नाजी नेता को कहा जाता है। हिटलर पोलिश कॉरिडोर पर दोबारा कब्ज़ा करना चाहता था, जिसे जर्मनी प्रथम विश्व युद्ध के बाद पोलैंड से हार गया था। सोवियत संघ के हमले से बचने के लिए, जर्मनी ने पोलैंड को एक दूसरे के बीच विभाजित करने के लिए चुपचाप एक गैर-आक्रामकता संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। जर्मनी ने 1 सितंबर, 1939 को पोलैंड पर एक आश्चर्यजनक आक्रमण किया, जिसे “ब्लिट्ज़क्रेग” अथवा “लाइटनिंग युद्ध” कहा गया। इस घटना के दो दिन बाद, 3 सितम्बर 1939 को फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
इस निर्णय ने द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत की घोषणा की, जिसने दुनिया को एक महान और विकट संघर्ष में ले जाने का संकेत दिया। इस घटनाक्रम ने विश्व को एक विपरीत परिदृश्य में डाल दिया, जहाँ शांति और सुरक्षा की बजाय संघर्ष और आक्रमण के माहौल ने व्यापारिक और राजनीतिक संबंधों को प्रभावित किया।
इस युद्ध ने न केवल देशों की सुरक्षा और स्वतंत्रता के मुद्दों को उजागर किया, बल्कि विश्व के नेता और लोगों ने एक साथ काम करने की आवश्यकता को महसूस किया। इसका परिणामस्वरूप, धुरी और मित्र शक्तियों के बीच सहयोग बढ़ा और उन्होंने मिलकर आत्मनिर्भरता और शांति की प्राप्ति के लिए संघर्ष किया।
इसके बाद, हिटलर ने ब्रिटेन पर हमला करने के लिए नार्वे और डेनमार्क के तटों के किनारे नौसेना के अड्डों का निर्माण करने का निर्णय लिया। वह डेनमार्क और नॉर्वे पर हमला करने के लिए “वेश्या” योजना को शुरू किया, जिसका मुख्य उद्देश्य था नौसेना के अड्डों को काबू में करना और यह अड्डे ब्रिटेन के व्यापारिक संबंधों को प्रभावित करने के रूप में एक महत्वपूर्ण क्षेत्र थे।
हिटलर के आदेश के बाद, जर्मनी ने 9 अप्रैल 1940 को डेनमार्क और नॉर्वे पर आक्रमण किया। डेनमार्क ने त्वरित आत्मसमर्पण किया, लेकिन नॉर्वे में जर्मन संघटना के सामर्थ्य के बावजूद स्थानीय विरोध का सामना करना पड़ा। यह घटनाक्रम विश्व युद्ध II के आगामी घटनाक्रमों के लिए महत्वपूर्ण था और यह आधिकारिक रूप से फूहरर के युद्ध प्रतिरूप की शुरुआत थी।
फ़्रांस पर हमला
मई 1940 में, हिटलर ने फ्रांस पर हमला करने की रणनीति के हिस्से के रूप में हॉलैंड, बेल्जियम और लक्ज़मबर्ग के माध्यम से एक नाटकीय मोड़ शुरू किया। इसका उद्देश्य था फ्रांस की सेना का ध्यान विचलित करके उन्हें अपनी मुख्य ध्येय की ओर खिचना।
इस समय, जर्मनी की पूरी तरह से जीत की भावना से फ़्रांस पर आक्रमण किया, इटली के नेता मुसोलिनी ने भी जर्मन सेना के साथ मिलकर फ्रांस के खिलाफ आक्रमण में जर्मनी का साथ दिया और फ्रांस को दोनों ओर से घेर लिया गया। इटली के साथ मिलकर जर्मनी ने अपनी सेना का विस्तार कर लिया।
फ़्रांस उस समय के परिस्थितियों में कमजोर हो गए थे और उनके पास बहुत कम परामर्शक विकल्प बचे थे। फ़्रांस की कमजोर परिस्थिति का फायदा उठाकर जर्मनी द्वारा फ़्रांस से रेशूरेशन के प्रस्तावना पर हस्ताक्षर करने की मांग की गई। इस प्रस्तावना का मकसद था कि वे फ़्रांस आत्मसमर्पण करें और जर्मन शासन के तहत रहना स्वीकार करे।
इस मांग के परिणामस्वरूप, 22 जून 1940 को, फ्रांस ने आत्मसमर्पण कर दिया और वे नाज़ी शासन के अधीन आ गए। जर्मन लोगों ने फ्रांस के उत्तरी भाग पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया, जबकि दक्षिणी भाग पर पेटेन के नेतृत्व वाली एक कठपुतली सरकार रखी गई, जो जर्मन संघ के अनुप्राणित थे। फ्रांस का असमर्थन और नाज़ी आक्रमण ने यूरोप में महत्वपूर्ण बदलावों की शुरुआत की, जिनसे दूसरे विश्व युद्ध की दिशा में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया।
ब्रिटेन पर हमला
फ्रांस के पतन के बाद, हिटलर ने अब ग्रेट ब्रिटेन पर आक्रमण का मन बना लिया था। इस दौरान, नए ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने पहले ही घोषित कर दिया था कि ब्रिटेन कभी भी हार नहीं मानेगा और वे सभी प्रतिक्रियाएं करेंगे जो उनकी देश की आत्मसमर्पण की भावना को प्रकट करती हैं। हिटलर ने तय किया कि वह ब्रिटिश रॉयल एयर फोर्स (RAF) पर हमला करने के लिए “ऑपरेशन सी लॉयन” योजना बनाएंगे। इस योजना के तहत, उसने ब्रिटेन की हवाई सेना पर हमला करने की रणनीति बनाई।
यह लड़ाई 10 मई 1941 तक एक वर्ष तक जारी रही, और इसके दौरान ब्रिटिशों ने महत्त्वपूर्ण प्रतिरोध किया। चर्चिल और उनकी सेना ने निरंतर आत्मबल और संकल्प से लड़ते रहे और उन्होंने जर्मन आक्रमण का सामना किया। जब हिटलर ने देखा कि ब्रिटेन का प्रतिरोध अत्यधिक मजबूत हो रहा था और उनकी योजना सफल नहीं हो रही तो उसने हमलों को बंद करने का फैसला किया।
ब्रिटेन पर हमला करने के बजाय, हिटलर ने अपना ध्यान पूर्वी यूरोप और भूमध्य सागर की ओर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इस प्रकार से अब ब्रिटेन के युद्ध का अंत हो चुका था, लेकिन मित्र राष्ट्रों को एक महत्वपूर्ण बात समझ में आई कि हिटलर के तेजी से बढ़ते हुए शक्ति को रोकने के लिए सही समय पर कदम उठाने की आवश्यकता है। यह घटनाक्रम दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार था और विश्व को एक सख्त उर्जा और इकट्ठापन की आवश्यकता की याद दिलाया।
उत्तरी अफ्रीका पर हमला
सितंबर 1940 में, मुसोलिनी ने उत्तरी अफ्रीका पर आक्रमण का कदम उठाया, जिसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश-नियंत्रित मिस्र पर कब्जा करना था। इस हमले के पीछे एक कई कारण थे, जिनमें स्थानीय और विश्वयुद्ध स्थितियाँ शामिल थीं।
मिस्र की स्वेज नहर उत्तरी अफ्रीका के तेल क्षेत्रों तक पहुंचने का मुख्य मार्ग थी, और इससे इटली को उपयुक्त आपूर्ति स्रोतों का पहुंच मिलता। मुसोलिनी का यह आक्रमण भारतीय महासागर और मध्य पूर्व के तेल संसाधनों को भी सुरक्षित करने की कोशिश थी। उन्होंने यह सोचकर भी यह कदम उठाया कि ब्रिटिश सेना और संघर्ष अनुभव में कमजोर हो चुके हैं, और उन्हें उनकी आक्रामकता से बाधा नहीं होगी।
मुसोलिनी का आक्रमण अपनी नीची स्थिति के बावजूद भी पूरी तरह से सफल नहीं हुआ। ब्रिटिश सेना ने उनकी हमलों का प्रतिरोध किया और मिस्र में ब्रिटिश और विश्वविद्युत्त प्रतिरक्षा की मदद से उन्हें रोक दिया। इसके अलावा, ब्रिटिश और उनके साथियों ने मिस्र में मुसोलिनी के स्थानीय सहयोगियों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की।
इस आक्रमण से जाहिर होता है कि विश्वयुद्ध के दौरान उपयुक्त आपूर्ति स्रोतों की महत्वपूर्णता और रणनीतिक योजनाओं का असर कैसे हो सकता है। मुसोलिनी के आक्रमण से ब्रिटेन की बड़ी संघर्ष भरी दानवी प्रतिरोध क्षमता का प्रकटीकरण हुआ, जिसने बाद में उन्हें उत्तरी अफ्रीका में सफलता प्राप्त करने में मदद की।
बाल्कन में हमला
अप्रैल 1941 में, हिटलर ने यूगोस्लाविया और यूनान दोनों पर विजय प्राप्त की। यह घटनाएँ द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान महत्वपूर्ण घटनाएँ थीं, जिनसे हिटलर की अग्रता और उसके विजय में एक मोड़ आया।
यूगोस्लाविया के मामले में, वहाँ की राजधानी बेलग्रेड पर नाजी सेना ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया और यूगोस्लावियाई सेना को मुकाबला करते हुए उनकी दलील को कमजोर किया। हिटलर ने यूगोस्लाविया के विभाजन का उपयोग किया, जिससे वहाँ की विभिन्न सामाजिक और धार्मिक समूहों के बीच द्वेष बढ़ा और उनकी सहमति कमजोर हो गई। इसके परिणामस्वरूप, यूगोस्लाविया ने नाजी सेना के सामने हार मानने के बाद सरकार निर्माण की प्रक्रिया में गहराईयों में घिर गई और उसने अप्रैल 1941 में आत्मसमर्पण कर दिया।
यूनान में भी, नाजी सेना ने प्रभारी यूनान सेना के साथ युद्ध किया और उसे मुकाबला किया। हालांकि प्रारंभ में यूनानी सेना ने आक्रमणकारी नाजी सेना के प्रति मजबूत प्रतिरोध दिखाया, लेकिन आखिरकार नाजी सेना की बड़ी संख्या और अद्वितीय युद्ध कौशल ने उन्हें विजयी बना दिया। हिटलर के सैन्य का यूनान में प्रवेश ने यूनानी सेना को प्रताड़ित किया और उन्हें हार माननी पड़ी।
नाजी ताकत के बढ़ते ताकत और प्रदर्शन के मद्देनजर, नाजी तंत्र के अग्रणीयों ने एक्रोपोलिस पर स्वास्तिक बनाकर अपनी विजय का जश्न मनाया, जिसमे उनकी सामर्थ्य और उत्तराधिकार का प्रदर्शन किया गया। यह समय था जब हिटलर की विजय अत्यंत संभावनाशील लगती थी, जो उसकी सत्ता और प्रतिष्ठा को और भी मजबूत बनाती गयी।
पर्ल हार्बर पर हमला
अमेरिका को आर्थिक मंदी से गुजरने का असर पहले तो युद्ध में शामिल होने पर डाल रहा था। लेकिन जब जर्मन यू-बोट ने 4 सितंबर 1941 को अटलांटिक में एक अमेरिकी डिस्ट्रॉयर पर गोलीबारी की, तो इसने अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंक्लिन डी. रूजवेल्ट को युद्ध में तात्पर्य शीघ्र करने के लिए प्रेरित किया। रूजवेल्ट ने नौसेना के कमांडरों को इसका जवाब देने का आदेश दिया और इससे अमेरिका के युद्ध में शामिल होने का संकेत मिला।
हालांकि इस बीच, जापान ने भी अपने आक्रमणों का सफलता से संतुष्ट होते हुए अपनी कठिनाइयों का सामना कर रहा था। वे पूरे अमेरिकी प्रशांत क्षेत्र में हमला करने के साथ-साथ पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में गुआम और वेक द्वीप पर कब्जा कर चुके थे। उन्होंने इसके बाद फिलीपींस पर भी हमला किया, जिससे अमेरिका के प्रशांत क्षेत्र में उनका विस्तार हो गया।
जापानियों ने भी ब्रिटिश साम्राज्य के कुछ हिस्सों पर हमला किया। हांगकांग पर कब्जा करने के बाद, उन्होंने मलाया पर भी आक्रमण किया, जिससे वह आगे बढ़कर सिंगापुर पर हमला कर सके। इससे ब्रिटिश साम्राज्य के प्रशांत क्षेत्र में उनका प्रभुत्व बढ़ गया और उन्होंने दिखाया कि वे उसकी सामर्थ्य को चुनौती दे सकते हैं।
इसी बीच, अमेरिका भी युद्ध में शामिल होने की तैयारी में थी और उसके राष्ट्रपति ने नौसेना के नेताओं को युद्ध के लिए तैयार होने का आदेश दिया। जापान के आक्रमणी प्रयासों और उनके सफलता पर आक्रोशित होकर, अमेरिका ने भी युद्ध में सामने आने का निश्चय किया और इससे प्रशांत महासागर क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण युद्ध शुरू हुआ, जिसका परिणाम दूसरे विश्वयुद्ध के रूप में जाना जाता है।
अमेरिका का युद्ध में प्रवेश
पर्ल हार्बर के विनाश की घटना ने अमेरिका को जागरूक किया और उसने इसका प्रतिक्रियात्मक बदला लेने के लिए युद्ध में प्रवेश किया। यह उन्हें उनके मित्र राष्ट्रों के साथ सजीव सहयोग का मौका दिया, जिससे उनका मनोबल और संरचनात्मक ताकत मजबूत हुआ।
मिडवे की लड़ाई ने जापानी समुद्री पर्यटन और व्यापारिक करियर को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। अमेरिका ने युद्ध में जापान के प्रति उदार और साहसी दृष्टिकोण का प्रदर्शन किया और उनकी आक्रामक रणनीतियों का सामना किया। इसके परिणामस्वरूप, जापान की आक्रमकता के खिलाफ युद्ध का रुख बदल गया और वह समय समय पर पीछे हटने को मजबूर हुआ।
इसी समय, मित्र राष्ट्रों ने नाजी प्रलय, जिसमें यहूदी समुदाय का विस्तारित संहार शामिल था, के बारे में भी विचार किया। वे नाजी उत्पीड़न और नरसंहार के खिलाफ एकत्र होकर कड़ी कार्यवाही करने का आश्वासन दिया। यह एक महत्वपूर्ण प्रकार से मानवाधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था और सामूहिक संहार के खिलाफ एक संघर्ष की शुरुआत की।
इस प्रकार, पर्ल हार्बर की घटना ने अमेरिका को न केवल उसके आत्मसमर्पण के समय की स्थिति से उठकर आगे बढ़ने का मार्ग प्रदान किया, बल्कि उसने मित्र राष्ट्रों के साथ मिलकर दुनिया के सामूहिक और नैतिक मानवाधिकारों के लिए संघर्ष का संकेत दिया।
मित्र राष्ट्रों की विजय: द्वितीय विश्व युद्ध में परिवर्तन
द्वितीय विश्व युद्ध के 1942 के मध्य तक, जर्मनी की प्रगति काफी धीमी हो गई थी। इस समय मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध की दिशा में परिवर्तन का संकेत दिख रहा था। उन्होंने महसूस किया कि जर्मनी को हराने के लिए संयुक्त युद्ध प्रयास करना आवश्यक था।
1944 में, कूटनाम ऑपरेशन ओवरलॉर्ड नामक मिशन के तहत, नॉर्मैंडी आक्रमण हुआ, जिसे इतिहास की सबसे बड़ी भूमि और समुद्री आक्रमण के रूप में याद किया जाता है। 6 जून, 1944 को आयोजित इस आक्रमण को ‘डी-डे’ के नाम से जाना जाता है।
मित्र राष्ट्रों ने पेरिस को मुक्त करने के बाद अपनी विजयकीर्ति का मार्च किया। सितंबर तक, उन्होंने फ्रांस, बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग और नीदरलैंड्स के अधिकांश भाग को मुक्त कर दिया। इसके बाद, उन्होंने जर्मनी की ओर अपनी दृष्टि दी।
बुल्गे की लड़ाई में, मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ पश्चिमी दिशा से आकर आने वाले जर्मन सैनिकों के साथ मुकाबला किया, जो पूर्व से सोवियत संघ के साथ मिलकर प्रेरित हुए थे। इस संघर्ष ने दिखाया कि मित्र राष्ट्रों की एकता और संयम ने जर्मनी की आक्रमक शक्तियों को प्रतिरोध करने में कितना महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जर्मनी का आत्मसमर्पण: द्वितीय विश्व युद्ध का अंतिम चरण
द्वितीय विश्व युद्ध की अंतिम दिनों में, जर्मनी ने एक ऐतिहासिक मोड़ लिया जब वह स्टेलिनग्राद में सोवियत संघ के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यह घटना युद्ध के निर्णायक पलों में एक बड़ा घटना बन गई।
द्वितीय विश्व युद्ध के उत्तरार्ध में, वर्ष 1942 के प्रारंभ में, ब्रिटिश सेनाएँ ने अफ्रीका के उत्तरी हिस्से और स्टालिनग्राद पर जर्मन सेना के उत्तरधिकारी कार्रवाई का जवाब दिया। जर्मनी ने फरवरी 1943 में स्टालिनग्राद में सोवियत संघ के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, जिससे उसकी पहली बड़ी हार हुई। इसके साथ ही, उत्तरी अफ्रीका में जर्मन और इतालियन सेनाओं ने भी मित्र राष्ट्रों के सामने आत्मसमर्पण की घोषणा की।
जर्मनी की स्थिति और बिगड़ने लगी, जब रूसी सेना ने पूर्वी मोर्चे पर बढ़त प्राप्त की और खार्किव और कीव को वापस कर लिया। उनके शहरों पर बमबारी के बाद, मित्र देशों द्वारा जर्मन शहरों पर युद्धप्रेरित हमले शुरू हो गए।
रूसी सेना की उन्नति के परिणामस्वरूप, 21 अप्रैल, 1945 को वे बर्लिन, जर्मनी की राजधानी, तक पहुँच गए। इसके बाद, हिटलर ने 30 अप्रैल को खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली और मुसोलिनी को इटली में देशभक्तों द्वारा पकड़कर फाँसी दी गई।
7 मई, 1945 को जर्मनी ने बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया और 8 मई को यूरोप में वी-ई डे – विक्ट्री इन यूरोप डे (विजय दिवस) के रूप में मनाया गया। इस प्रकार, यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ और एक नया युग शुरू हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम पलों में, जर्मनी का आत्मसमर्पण एक नए आरंभ की ओर इशारा करता है। इस घटनाक्रम के माध्यम से, मानवता ने एक नई अवस्था की ओर बढ़ने का कदम रखा और युद्ध की नष्टि और शांति की दिशा में आगे बढ़ा।
परमाणु हमला, जापान का आत्मसमर्पण: प्रशांत में युद्ध समाप्ति
हालांकि यूरोप में युद्ध समाप्त हो गया था, परंतु मित्र राष्ट्र अब भी प्रशांत क्षेत्र में जापान के साथ युद्ध कर रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने समझ गए कि जापानी सेनाओं के आक्रमण से मित्र राष्ट्रों के सैनिक और नागरिक बड़े पैमाने पर मारे जायेंगे जिससे उनकी शक्ति क्षीण हो जाएगी। इस परिस्थिति में, ट्रूमैन ने एक नए और शक्तिशाली हथियार, परमाणु बम या A-बम का उपयोग करके युद्ध को शीघ्र समाप्त करने का फैसला लिया।
ट्रूमैन ने प्रारंभ में जापानी सामर्थ्य को आत्मसमर्पण की दिशा में चेतावनी दी, लेकिन जापान ने इसकी परवाह नहीं की। 6 अगस्त, 1945 को अमेरिका ने हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया, जिससे शहर में भयानक विनाश हुआ। जापान ने अभी भी युद्ध को जारी रखा और फिर 9 अगस्त को नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया गया, जिससे फिर से अत्याधिक विनाश हुआ।
इस परमाणु हमले को जापान झेल नहीं पाया और अंततः जापान ने 2 सितंबर, 1945 को आत्मसमर्पण करने का निर्णय लिया, जिससे युद्ध समाप्त हो गया। इस घटना ने प्रशांत क्षेत्र में शांति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया और द्वितीय विश्व युद्ध का अंत हुआ। जापान के आत्मसमर्पण के साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध का अंत हो गया, और यह घटना विश्व इतिहास के एक महत्वपूर्ण संघटना के रूप में बनी। यह समापन नई आशा के साथ एक नयी युग की शुरुआत की और आत्मविश्वास और समझदारी की मांग को प्राथमिकता देने का संकेत था।
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम: एक नया विश्वक्रम का आरंभ
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप, यूरोप, एशिया, और अफ्रीका में लाखों लोगों की जानें गई और अरबों डॉलर की माने जाने वाली भारी आर्थिक हानि हुई। यह युद्ध ने एक नए वैश्विक गणराज्य के निर्माण के लिए नेतृत्व किया और एक नया आर्थिक आदान-प्रदान ढांचा स्थापित किया।
जापान के प्रति अंतिम हमले ने उसके विसैन्यीकरण को समाप्त किया और उसने एक नया संविधान अपनाया। विश्व युद्ध के पराक्रम से उसकी सामर्थ्य में गिरावट के बावजूद, जापान ने उदाहरणीय पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में कदम रखा।
साम्यवाद का उदय
युद्ध के पराक्रम के बाद, साम्यवादी आंदोलनों का उदय हुआ। विश्व युद्ध ने लोगों की मानसिकता में बदलाव लाया और उन्होंने न्याय और समानता के प्रति नए संकल्प बनाए। इस दौरान, ब्रिटेन और फ्रांस के अलावा अन्य कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों की सदस्यता में वृद्धि हुई। हालांकि, यह समर्थन बाद में कम हो गया, लेकिन यह दिखाता है कि युद्ध के परिणामस्वरूप नये आर्थिक और सामाजिक विचारों की ओर लोगों की ध्यान दृष्टि बदल गई थी।
नई महाशक्तियों का उदय
युद्ध के दौरान दिखाए गए पराक्रम के बाद, अमेरिका और सोवियत संघ ने विश्व की दो महत्वपूर्ण महाशक्तियों के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। इसके परिणामस्वरूप, ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस का प्राधिकृत स्थान कम हो गया।
युद्ध के दौरान दिखाए गए पराक्रम के परिणामस्वरूप, अमेरिका और सोवियत संघ ने विश्व में महत्वपूर्ण महाशक्तियों के रूप में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की। इस प्रकार के परिपर्णता के कारण, ब्रिटेन और फ्रांस का प्रमुखता स्थान कम हो गया। यह परिणामस्वरूप महाशक्तियों की रूपरेखा में परिवर्तन आया और विश्व राजनीति और आर्थिक प्रणाली में नए गठन दिखाई दिये। यूनाइटेड स्टेट्स और सोवियत संघ ने आगे चलकर द्विपक्षीय युद्ध के बाद के गठनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
युद्ध के पश्चात पुनर्निर्माण
युद्ध के पश्चात्, नेताओं ने आर्थिक संबंधों और व्यापार के क्षेत्र में सहमति से निर्णय लिया और सहयोग के माध्यम से युद्धोत्तर आर्थिक व्यवस्था की रचना की। 1944 में ब्रेटन वुड्स में आयोजित ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में 43 देशों की बैठक में विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना की गई। इस परिपर्णता में, अमेरिका और ब्रिटेन के नेतृत्व में, एक स्थिर आर्थिक ढांचा स्थापित करने की आवश्यकता की महसूस की गई, जो युद्ध के बाद के अस्थिर प्रभावों को दूर करने के लिए था। उन्होंने माना कि वैश्विक आर्थिक सहयोग के बिना अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की रक्षा करना मुश्किल होगा।
संयुक्त राष्ट्र (UNO) का गठन
संयुक्त राष्ट्र (UNO) का गठन द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् हुआ। यद्यपि राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) युद्ध को रोकने में विफल रहा, लेकिन यह युद्ध ने एक महत्वपूर्ण सबक दिया कि आने वाले युद्धों से बचाव के लिए एक मजबूत एवं सामर्थ्यपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता है। इसके परिणामस्वरूप, युद्ध के बाद युद्धोत्तर शांति और आर्थिक सहयोग की आवश्यकता बढ़ गई थी।
युद्ध के दौरान, फ्रैंकलिन डीलेनो रूजवेल्ट और विंस्टन चर्चिल ने 9 अगस्त, 1941 को न्यूफाउंडलैंड के किनारे एक युद्धपोत पर गुप्त रूप से मुलाकात की, जिसका परिणामस्वरूप उन्होंने ‘अटलांटिक चार्टर’ जारी किया। इस चार्टर में देशों के बीच मुक्त व्यापार और जनता के अधिकारों का समर्थन किया गया। यह चार्टर बाद में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में मित्र राष्ट्रों की शांति योजना का मूल बन गया और इसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र का चार्टर तैयार किया गया।
संयुक्त राष्ट्र का मुख्य लक्ष्य ग्रह पर शांति, गरिमा और समानता की रक्षा करना है। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों ने मूलभूत मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध रहकर मनवाधिकारों, मानवता की गरिमा और मूल्यों के प्रति समर्थन दिखाया है। यह संगठन पुरुषों और महिलाओं के समान अधिकारों की प्रमोट करने का प्रतिबद्ध है, साथ ही बड़े और छोटे राष्ट्रों के समान अधिकारों की भी प्राथमिकता को मान्यता देता है। इस प्रकार, संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से विश्व में शांति और सुरक्षा की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
शीत युद्ध (Cold War 1945-1991): अमेरिका और सोवियत संघ के बीच भू-राजनीतिक संघर्ष
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, विश्व विभाजन सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच विचार-राजनीतिक तनाव के रूप में उभरा। यह अवधि “शीत” (Cold) युद्ध के रूप में जानी जाती है, क्योंकि कोई खुली युद्ध नहीं हुआ था, लेकिन विश्व में आपसी राजनीतिक, सामर्थ्य और आर्थिक संघर्ष था। यह युद्ध विश्व के दो विपरीत प्रणालियों के बीच मुख्य आक्रमणकारी तनाव को दर्शाता है, जिसमें सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय देश एवं संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देश शामिल थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, पूर्वी यूरोप में एक नया राजनीतिक और सामर्थ्यवादी संघर्ष उत्पन्न हुआ, जिसे ‘शीत युद्ध’ कहा जाता है। इस युद्ध के दौरान, सोवियत संघ और अमेरिका के बीच विभिन्न विचारधाराओं, आर्थिक प्रणालियों और आर्थिक स्पर्श के कारण एक सामर्थ्यवादी संघर्ष उत्पन्न हुआ।
सोवियत संघ का विस्तारवाद और अमेरिका की सुप्रासिद्ध “तंत्रवाद की नीति” ने दुनिया को दो महत्वपूर्ण दलों के बीच आत्मघाती युद्ध से बचाया। सोवियत संघ ने अमेरिकी अधिकारियों की लड़ाकू बयानबाजी और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में हस्तक्षेप करने वाले दृष्टिकोण का खंडन किया। विशेष रूप से अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमण ने अमेरिका को चिंतित किया और उन्होंने “नियंत्रण रणनीति” का पालन किया, जिससे वे सोवियत संघ के विस्तारवाद को रोक सकें।
इसके परिणामस्वरूप, दुनिया दो विपरीत धाराओं के बीच बांट गई थी – एक ओर डेमोक्रेसी और मानवाधिकार के पक्षधर अमेरिका और उसके गठबंधन साथियों के साथ, और दूसरी ओर कम्युनिस्ट आदर्श और सोवियत संघ के साथ।
उपनिवेशवाद का अंत: स्वतंत्रता की प्रक्रिया
युद्ध के समापन के तुरंत बाद, ब्रिटेन और फ्रांस के सामने घरेलू और बाहरी दबाव सामने आए, क्योंकि उनके पास अब पूर्वी यूरोप में स्थान बनाने के लिए पूरी तरह से कुशलता नहीं थी। इस परिस्थिति में, ब्रिटेन और फ्रांस ने अपने उपनिवेशों को स्वतंत्रता देने का फैसला किया।
एशियाई और अफ्रीकी उपनिवेशों में भी उपनिवेशवाद की प्रक्रिया शुरू हो गई। यहाँ तक कि कई उपनिवेश स्वतंत्र हो गए और आत्मनिर्भरता की दिशा में बड़े कदम उठाए।
भारत की स्वतंत्रता
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश साम्राज्य को अपने अधिग्रहणों की महंगी कीमत चुकानी पड़ी। वे अरबों पाउंड खर्च कर चुके थे और उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं रही थी। इस समय, उनके उपनिवेशों के नये स्वायत्तता आवागमन के चलते उन्हें विश्व शक्तिमानी की पुनरावलोकन की आवश्यकता थी।
दुनिया भर के उपनिवेशों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ विरोध और दबाव बढ़ गए। अंग्रेजों की यूरोप में जर्मनी के खिलाफ लड़ी गई लड़ाइयों के बावजूद, उनके साम्राज्यवाद की विरोधी भावना बढ़ती गई और यह दुनिया भर में उपनिवेशों में एक सामूहिक उत्तरदायित्व की मांग की गई।
भारत में, महात्मा गांधी ने इस समय भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की जिसका उद्घेतन वर्ष 1942 में किया गया था। इस आंदोलन के माध्यम से गांधीजी ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारतीय जनता को जागरूक किया और स्वतंत्रता की मांग को उत्कृष्टता दी।
युद्ध के बाद, ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी और उन्होंने भारत को स्वतंत्रता प्राप्त करने का समर्थन किया। उनके प्रेरणास्त्रोत और नेतृत्व में, भारत को 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिली। भारतीय जनता ने इस दिन को आजादी दिवस के रूप में मनाने का कार्यक्रम आयोजित किया और विशेष रूप से गांधीजी की महात्मा को याद करके उनके योगदान की स्मृति को समर्पित किया।
इस प्रकार, द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटिश साम्राज्य की कमजोर हालत और उपनिवेशों में विरोध की बढ़ती भावना ने भारत को स्वतंत्रता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया और यह एक महत्वपूर्ण इतिहासिक घटना बनी।
विश्व नई आर्थिक व्यवस्था
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात्, युद्ध प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण और विकास के लिए एक नई आर्थिक व्यवस्था की आवश्यकता महसूस हो रही थी। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए ब्रेटन वुड्स सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसे आधिकारिक तौर पर “संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक और वित्तीय सम्मेलन” (United Nations Monetary and Financial Conference) के रूप में जाना जाता है। इस सम्मेलन में 1 से 22 जुलाई, 1944 तक 44 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसका प्रमुख उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध और विश्वव्यापी संकट से जूझ रहे देशों की आर्थिक मदद करना था।
इस सम्मेलन के माध्यम से आर्थिक और वित्तीय सहयोग की नई दिशा को प्रारंभ किया गया। इसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बैंक (IBRD) की स्थापना की गई, जिसे बाद में विश्व बैंक के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य था विकास और पुनर्निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग प्रदान करना।
सम्मेलन ने अमेरिकी डॉलर को विश्व व्यापार के लिए आरक्षित मुद्रा के रूप में स्थापित किया, जिसका परिणामस्वरूप अमेरिकी अर्थव्यवस्था को आर्थिक शक्ति के रूप में स्थायित किया गया। यह नई आर्थिक व्यवस्था विश्वव्यापी व्यापार और आर्थिक सहयोग की मानदंड स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारत और द्वितीय विश्व युद्ध: स्वतंत्रता की दिशा में परिवर्तन
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) ने भारत की स्थिति में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। यह युद्ध विश्वभर में बड़ी नाशामक और सामाजिक परिवर्तनों की उत्पत्ति का कारण बना और भारत भी इसके प्रभावों का सामना करना पड़ा।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय, भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक हिस्सा था और ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता को अपनी युद्ध प्रयोजनों में सहयोग देने के लिए बलवान करने का आदान-प्रदान किया। भारतीय सेना के सैनिकों ने विभागीय रूप से युद्ध भूमि पर भाग लिया, जैसे कि इयरलैंड, मेसोपोटामिया, आफ्रीका, इत्यादि। यहां तक कि भारतीय फौज ने आफ्रीका में नोर्मैंडी के युद्ध में भी भाग लिया।
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप, भारतीय समाज में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। युद्ध के समय, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भी एक नई मोड़ लिया। गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत की, जिसमें वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा देने के लिए नेतृत्व करते हुए दिखे।
इसके साथ ही, युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटिश साम्राज्य की आर्थिक स्थिति में दिक्कतें आई और उन्हें अपने उपनिवेशों को स्वतंत्रता देने की दिशा में बदलने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके परिणामस्वरूप, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नई ऊर्जा आई और आखिरकार 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली।
द्वितीय विश्व युद्ध ने भारतीय समाज की सोच, संगठन और स्वतंत्रता के प्रति आग्रह को मजबूत किया। गांधीजी के नेतृत्व में भारतीय जनता ने न सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग की, बल्कि सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता की भी मांग की। इस प्रकार, द्वितीय विश्व युद्ध ने भारत को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया: राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तन
द्वितीय विश्व युद्ध का समापन होने के बाद, दुनिया के सामाजिक और राजनैतिक मंडल में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। यह युद्ध दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में न जाने कितनी जातियों की जिन्दगियों को प्रभावित करने के साथ-साथ सरकारों की आयोजित तंत्रों और जनसंचार के माध्यम से भी बड़ा परिवर्तन लाया।
राजनैतिक परिवर्तन
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, युद्ध से प्रभावित राष्ट्रों की सरकारों में महत्वपूर्ण बदलाव हुआ। युद्ध के द्वारा उत्तरदायित्वी देशों की स्थिति मजबूत हो गई जबकि पराजित देशों की स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही थी। यह परिवर्तन विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) के गठन के साथ दिखाई दिया, जिसका उद्देश्य आने वाले संघर्षों को रोकना और आंतरराष्ट्रीय शांति और सहयोग को बढ़ावा देना था।
यूएन के साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् जारी बढ़ते जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के चलते आवश्यक आर्थिक और सामाजिक सुधार की दिशा में भी प्रयास किए गए। उदाहरणस्वरूप, ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की स्थापना की गई, जो आर्थिक सहायता और विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सामाजिक परिवर्तन
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप सामाजिक परिवर्तन भी हुआ, और यह विशेष रूप से महिलाओं के अधिकारों और समानता की दिशा में दिखाई दिया। युद्ध के समय, महिलाएं न केवल आर्थिक क्षेत्र में योगदान कर रही थीं, बल्कि सैन्य में भी अपने कौशलों को प्रदर्शित कर रही थीं। इसके परिणामस्वरूप, युद्ध के बाद समाज में महिलाओं के सामाजिक और राजनैतिक दरबार में उनके प्रति समर्पण में वृद्धि हुई।
सामाजिक परिवर्तन का यह असर न केवल अर्थव्यवस्था और राजनीति में दिखाई दिया, बल्कि विचार और मानसिकता में भी दिखाई दिया। युद्ध के खतरे के बाद, लोगों की सोच में परिवर्तन आया और उन्होंने सशक्त महिलाओं की ओर आग्रह किया, जो समाज में अपनी भूमिका को महत्वपूर्ण बना रही थीं।
समापन
इस प्रकार, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया ने राजनैतिक और सामाजिक मानवीयता के क्षेत्र में नए दिशानिर्देश तय किए। यह युद्ध सिर्फ संघर्ष का माध्यम नहीं था, बल्कि एक नई सोच और संरचनाओं की नींव भी रखा। इससे उत्तरदायित्वी देशों की मजबूती बढ़ी, राजनैतिक संघर्षों को रोकने के उपाय ढूँढे गए, और समाज में विभिन्न तरीकों से सुधार हुए।