शीत युद्ध 12 मार्च 1947 से 26 दिसम्बर 1991 तक के उस समय को कहते हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात्, सोवियत संघ तथा उससे संबंधित पूर्वी यूरोपीय देशों के आधीन और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके सहयोगी पश्चिमी यूरोपीय देशों के बीच भू-राजनीतिक तनाव के कारण उत्पन्न हुआ था। इस अवधि में, दुनिया दो मुख्य शक्तियों के बीच बंट गई थी – सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका।
“शीत” (Cold) शब्द का उपयोग इसलिए किया जाता है क्योंकि इस युद्ध में खुले संघर्ष या जंग नहीं हुए थे, लेकिन दोनों पक्षों के बीच बहुत बढ़ा तनाव था। इस “शीत युद्ध” के दौरान, पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ के बीच वैचारिक स्पर्धा थी, जिसमें दोनों पक्ष अपने-अपने साथी देशों के साथ जुड़े थे।
शीत युद्ध के पहले बार “शीत” (Cold) शब्द का इस्तेमाल अंग्रेज़ी लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने 1945 में प्रकाशित अपने एक लेख में किया था। इसके बाद, यह शब्द समय के साथ प्रसिद्ध हुआ और इस काल को “शीत युद्ध” के रूप में जाना गया।
शीत युद्ध क्या है?
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतर्गत, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, और सोवियत संघ ने मित्र राष्ट्र के रूप में साथ मिलकर जर्मनी, इटली, और जापान के खिलाफ संघर्ष किया। लेकिन युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच गहरे मतभेद और प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न हुई। इन मतभेदों ने एक अत्यंत तनावपूर्ण स्थिति को जन्म दिया।
सोवियत संघ के साम्यवादी दृष्टिकोण और संयुक्त राज्य अमेरिका के पूंजीवादी दृष्टिकोण ने दो विभिन्न विचारधाराओं को जन्म दिया। इन दोनों दिग्गज गणराज्यों के बीच यह मतभेद हमेशा एक ऐसे वातावरण को बनाते रहे कि युद्ध का खतरा सदैव उनके सामने बना रहता था। इस दौरान, बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध, सोवियत रूस द्वारा आणविक परीक्षण, सैन्य संगठन, हिन्द-चीन संघर्ष, यू-2 विमान कांड, और क्यूबा मिसाइल संकट जैसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने शीतयुद्ध के संदर्भ में तनाव को और भी बढ़ा दिया।
सन् 1991 में, सोवियत संघ के विघटन के बाद, इसकी शक्ति में कमी आई और शीतयुद्ध का अंत हो गया। इससे दुनिया के तनाव की भावना में भी कमी आई।
शीत युद्ध के कारण
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, शीतयुद्ध के लक्षण दिखाई देने लगे थे, जब दोनों महाशक्तियाँ अपने अपने स्वार्थों को महत्वपूर्ण मानकर युद्ध लड़ रही थीं और परस्पर सहयोग की भावना का दिखावा कर रही थीं। उनकी यह सहयोग की भावना युद्ध के बाद समाप्त होने लगी थी, और शीतयुद्ध के लक्षण स्पष्ट तौर पर उभरने लग गए थे, दोनों गुटों में एक दूसरे की शिकायत करने की भावना प्रबल हो गई थी। इन शिकायतों के कुछ सुदृढ़ आधार थे। ये पारस्परिक मतभेद ही शीतयुद्ध के प्रमुख कारण थे, जिनमें निम्नलिखित परिस्थितियां शामिल थी-
- पूंजीवादी और साम्यवादी विचारधारा का प्रसार: युद्ध के बाद, दो महाशक्तियाँ अपने विचारधाराओं को प्रसारित करने का प्रयास कर रही थीं, जिससे विचारधाराओं के बीच विवाद बढ़ गए।
- सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते का पालन न किया जाना: सोवियत संघ ने याल्टा समझौते का पालन नहीं किया और यह अमेरिका के साथ मतभेद का कारण बना।
- सोवियत संघ और अमेरिका के वैचारिक मतभेद: दोनों महाशक्तियाँ आपसी वैचारिक मतभेद के बावजूद युद्ध के समय सहयोग कर रही थीं, लेकिन ये मतभेद युद्ध के बाद तनावपूर्ण हो गए।
- सोवियत संघ का एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरना: सोवियत संघ का एक शक्तिशाली आर्थिक और सैन्य ब्लॉक के रूप में उभरना युद्ध के बाद एक बड़ी चुनौती था, जिससे अमेरिका के साथ मतभेद बढ़ गए।
- ईरान, टर्की, और यूनान में सोवियत हस्तक्षेप: सोवियत संघ ने कई देशों में हस्तक्षेप किया, जिससे अमेरिका का चिंता बढ़ गया।
- फासीवादी ताकतों को अमेरिकी सहयोग: युद्ध के बाद, अमेरिका ने अपने साथी देशों को फासीवादी ताकतों के खिलाफ सहयोग प्रदान किया, जिससे सोवियत संघ के साथ मतभेद बढ़े।
- बर्लिन विवाद: बर्लिन विवाद ने सोवियत संघ और पश्चिमी देशों के बीच तनाव को बढ़ा दिया और बर्लिन दीवार का निर्माण हुआ, जो शीतयुद्ध के प्रतीक बन गया।
- लैंड-लीज समझौते का समापन: लैंड-लीज समझौते का समापन युद्ध के बाद हुआ, जिसके बाद उसका पालन न करने के कारण मतभेद बढ़े।
- फासीवादी ताकतों के खिलाफ अमेरिकी सहयोग: अमेरिका ने फासीवादी ताकतों के खिलाफ अपने साथी देशों को सहयोग प्रदान किया, जिससे सोवियत संघ के साथ मतभेद बढ़े।
- सोवियत संघ द्वारा वीटो पावर का बार-बार प्रयोग: सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र में वीटो पावर का अधिक प्रयोग किया, जिससे विश्व स्तर पर तनाव बढ़ा।
- संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित संकीर्ण राष्ट्रीय हित करना: दोनों गुट संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित संकीर्ण राष्ट्रीय हित कर रहे थे, जिससे मतभेद बढ़े।
- डीप्लोमेसी के माध्यम से बातचीत की कमी: संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से डीप्लोमेसी की कमी और संवाद की अभावना युद्ध के बाद तनाव को बढ़ा दी।
इन कारणों के संयोजन के कारण शीतयुद्ध का दौर शुरू हो गया और इसके परिणामस्वरूप यह अवधि 1945 से 1991 तक चली। यह दो महाशक्तियों के बीच भू-राजनीतिक तनाव की अवधि थी, जिसने विश्व इतिहास को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया।
शीत युद्ध की शुरुआत
शीत युद्ध की शुरुआत धीरे-धीरे हुई। इसके लक्षण 1917 में ही प्रकट होने लगे थे जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्पष्ट तौर पर उभरकर विश्व के सामने आए। इसको बढ़ावा देने में दोनों महाशक्तियों (संयुक्त राष्ट्र संघ और सोवियत संघ) के बीच व्याप्त परस्पर भय और अविश्वास की भावना ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
दोनों महाशक्तियों द्वारा एक दूसरे के विरुद्ध चली गई चालों ने इस शीतयुद्ध को सबल आधार प्रदान किया और अन्त में दोनों महाशक्तियां खुलकर एक दूसरे की आलोचना करने लगी और समस्त विश्व में भय व अशान्ति का वातावरण तैयार कर दिया, इसके बढ़ावा देने में दोनों महाशक्तियां बराबर की भागीदार रही।
इसके विकास क्रम को निम्नलिखित भागों अथवा चरणों में समझा जा सकता है:
प्रथम भाग / चरण (1946 से 1953): द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, शीत युद्ध के लक्षण धीरे-धीरे प्रकट होने लगे थे। इस चरण में, दोनों महाशक्तियां अपने संकीर्ण स्वार्थों को महत्वपूर्ण मान रही थीं, लेकिन विश्व को एक बड़े युद्ध के द्वारा बचाने का प्रयास किया गया। इसका परिणामस्वरूप विश्व रंगमंच पर भय और अशान्ति का वातावरण बना।
द्वितीय भाग / चरण (1953 से 1963): शीत युद्ध के विस्तार के चरण में, दोनों महाशक्तियां अपने संकीर्ण स्वार्थों को महत्वपूर्ण मान रही थीं और विश्व स्तर पर युद्ध के खतरे को बढ़ा दिया। इस चरण में कई अहम घटनाएं हुईं, जैसे कि हंगरी क्रिसिस, सुएज़ क्रिसिस, और क्यूबा क्रिसिस।
तृतीय भाग / चरण (1963 से 1979 तक): इस चरण के दौरान, जिसे तनाव शैथिल्य का काल भी कहा जाता है, दोनों महाशक्तियां एक नये तरीके से एक दूसरे के साथ संघर्ष कर रही थीं। इस चरण में न्यूक्लियर शस्त्रों के विकास का आरंभ हुआ और यूरोप में संयुक्त राष्ट्र के मिशन्स के माध्यम से स्थायी सांझा काम का प्रारंभ हुआ।
चतुर्थ चरण / अंतिम भाग (1980 से 1989 तक): इस काल में, नया शीत युद्ध की आशंका थी, और यूएस और यूएसएसआर के बीच तनाव बढ़ गया। इसके परिणामस्वरूप दोनों महाशक्तियां संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से समस्त विश्व के साथ सहमत हुईं कि न्यूक्लियर युद्ध से बचाव के लिए कदम उठाएंगी और सोवियत संघ के खत्म होने के बाद शीत युद्ध समाप्त हुआ।
इस तरह, शीत युद्ध के विकास ने दुनिया को दो विश्वमुखी धारा में विभाजित किया और विश्व राजनीति को दशकों तक प्रभावित किया।
शीत युद्ध का प्रथम भाग (1946 से 1953)
इस समय के दौरान शीतयुद्ध का असली रूप उभरा। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच मतभेद खुलकर सामने आए और इसके परिणामस्वरूप शीतयुद्ध को बढ़ावा मिला।
चर्चिल का सोवियत संघ के साम्यवाद की आलोचना (1946)
1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने फुल्टन, मिसूरी में एक भाषण दिया जिसमें उन्होंने सोवियत संघ के साम्यवादी राजनीतिक प्रणाली की आलोचना की। इससे सोवियत संघ विरोधी भावना को स्पष्टत: भावित किया गया और युद्ध के खतरे को बढ़ा दिया।
ट्रुमैन सिद्धांत (1947)
मार्च 1947 में, अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रुमैन ने ट्रुमैन सिद्धांत की घोषणा की, जिसके अंतर्गत वे कहते हैं कि अमेरिका की नीति है कि वह सोवियत संघ के साम्यवादी प्रसार को रोकेगा और पश्चिमी यूरोपीय देशों को आर्थिक सहायता प्रदान करेगा। इससे भी सोवियत संघ विरोधी भावना बढ़ गई और युद्ध की आशंका बढ़ गई।
मार्शल योजना (1947)
अमेरिका ने 1947 में मार्शल योजना की शुरुआत की, जिसमें विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोपीय देशों को आर्थिक सहायता प्रदान करने का प्रस्ताव था। इस योजना के अंतर्गत, पश्चिमी यूरोप के देशों को आर्थिक सहायता मिली, लेकिन उनसे यह शर्त रखी गई कि वे सोवियत संघ के प्रति साम्यवाद के प्रसार को रोकें।
बर्लिन की नाकेबन्दी (1948)
1948 में, सोवियत संघ ने बर्लिन को घेर लिया और पश्चिमी बर्लिन के संचालन को बंद कर दिया। इस प्रतिस्पर्धा से युद्ध का खतरा और अधिक बढ़ गया और अमेरिका ने इसे स्थितिगत करने के लिए अपने सैनिक वर्चस्व को और भी बढ़ा दिया।
जर्मनी का विभाजन (1949)
जर्मनी का विभाजन शीत युद्ध के प्रथम चरण के दौरान एक महत्वपूर्ण घटना था। 1949 में, जर्मनी का द्विभाजन पश्चिमी जर्मनी (जो पश्चिमी देशों के प्रमुख भूमिका में था) और पूर्वी जर्मनी (जो सोवियत संघ के अधीन था) के बीच हुआ। इससे दोनों महाशक्तियों के बीच पश्चिमी जर्मनी के विषय में विरोध और आपसी मतभेद उत्पन्न हुए, जिसका परिणामस्वरूप शीतयुद्ध के दौरान उनके बीच और भी तनावपूर्ण हुआ।
नाटो का निर्माण (1949)
1949 में अमेरिका ने अपने मित्र राष्ट्रों के सहयोग से उत्तरी अटलांटिक संघ (NATO) का गठन किया। इसका उद्देश्य था उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए किसी भी बाहरी खतरे से कारगर ढंग से निपटना। यह संघ पश्चिमी देशों के बीच एक सुरक्षा साझा करने का प्रयास था, और इसके अंतर्गत सोवियत संघ को सीधी चेतावनी दी गई कि यदि वह किसी भी संधि में शामिल देश पर आक्रमण किया तो उसके भयंकर परिणाम होंगे। इससे अमेरिका और सोवियत संघ के बीच मतभेद और अधिक गहरे हो गए।
चीन की साम्यवादी सरकार (1949)
1949 में चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना होने से अमेरिका का विरोध अधिक प्रखर हुआ। इससे उसने संयुक्त राष्ट्र संघ में साम्यवादी चीन की सदस्यता को चुनौती दी। इससे सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध का वातावरण और अधिक सबल हो गया।
कोरिया संकट (1950)
1950 में, कोरिया संकट ने भी अमेरिका और सोवियत संघ में शीत युद्ध में वृद्धि की। इस युद्ध में उत्तरी कोरिया को सोवियत संघ तथा दक्षिणी कोरियों को अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्रों का समर्थन व सहयोग प्राप्त था, दोनों महाशक्तियों ने परस्पर विरोधी व्यवहार का प्रदर्शन करके शीतयुद्ध को और अधिक बढ़ा दिया। कोरिया युद्ध का तो हल हो गया लेकिन दोनों महाशक्तियों में आपसी टकराहट की स्थिति कायम रही।
कोरिया संकट (1951)
1951 में, कोरिया संकट के दौरान, अमेरिका ने अपने साथी देशों के साथ मिलकर जापान से शांति समझौता किया और समझौते को कार्यरूप देने के लिए सान फ्रांसिस्को नगर में एक सम्मेलन आयोजित किया। सोवियत संघ ने इसका कड़ा विरोध किया। अमेरिका की इन कार्यवाहियों ने सोवियत संघ के मन में द्वेष की भावना को बढ़ावा दिया इन सन्धियों को सोवियत संघ ने साम्यवाद के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा माना और उसकी निन्दा की।
इन घटनाओं ने शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच आपसी अविश्वास और टकराव को और भी तेजी से बढ़ा दिया, जिससे शीत युद्ध का वातावरण और अधिक गर्म हो गया।
इन प्रमुख घटनाओं ने शीतयुद्ध को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और सोवियत संघ और अमेरिका के बीच संघर्ष को बढ़ा दिया।
शीत युद्ध का द्वितीय भाग (1953 से 1963)
शीत युद्ध के इस दूसरे चरण में, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच आपसी आलोचना और अविश्वास बढ़ते रहे थे, जिससे शीत युद्ध के तनाव को और भी तेजी से बढ़ावा मिला। निम्नलिखित घटनाएँ इस दौरान शीत युद्ध के माहौल को और अधिक गर्म बनाई-
सोवियत आणविक परीक्षण (1953)
1953 में, सोवियत संघ ने अपना पहला आणविक परीक्षण किया, जिससे अमेरिका के मन में सोवियत संघ के इरादों के प्रति शक पैदा हुआ। आणविक परीक्षण के बाद, आणविक शक्तियों के खुले स्पर्श के खतरे के साथ-साथ अब न्यूक्लियर हथियारों के विस्तार की खबरें भी आई, जिससे युद्ध के तनाव में और भी वृद्धि हुई।
सोवियत और अमेरिकी संघ की तय प्रस्तावना (1954)
चर्चिल ने 1953 में अमेरिका से कहा कि दक्षिण पूर्वी एशिया के लिए नाटो जैसे संघ का निर्माण किया जाए। इसके उत्तराधिकार के रूप में अमेरिका ने 8 सितम्बर 1954 को दक्षिण पूर्वी एशिया समृद्धि संघ (SEATO) का गठन किया, जिसका उद्देश्य दक्षिण पूर्वी एशिया में साम्यवादी प्रसार को रोकना था। सोवियत संघ ने उत्तर में वार्सा संगठन की तैयारी की, जिसका उद्देश्य पूंजीवादी ताकतों के आक्रमणों को रोकना था। इस तरह, दोनों महाशक्तियों ने दक्षिण पूर्वी एशिया में अपने द्विपक्षीय संघों की स्थापना करके शीत युद्ध को और अधिक बढ़ावा दिया।
हिन्द-चीन संघर्ष (1954)
हिन्द-चीन संघर्ष ने भी अमेरिका और सोवियत संघ के बीच मतभेदों को और अधिक गहरा किया। 1954 में, हिन्द-चीन के बीच गृहयुद्ध प्रारंभ हुआ, जो कि तिब्बत क्षेत्र में हुआ। सोवियत संघ ने होचिन मिन की सेनाओं का समर्थन किया, जबकि अमेरिका ने फ्रांसीसी सेनाओं का समर्थन किया। इस संघर्ष के बाद, जेनेवा समझौता के तहत कोशिश की गई थी, लेकिन कुछ समय बाद ही वियतनाम में गृहयुद्ध शुरू हो गया, जिससे सोवियत संघ और अमेरिका के बीच तनाव और बढ़ गया।
हंगरी में सोवियत संघ के हस्तक्षेप (1956)
1956 में, हंगरी में सोवियत संघ ने हस्तक्षेप किया, जिससे अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तनाव और बढ़ गया। हंगरी के हस्तक्षेप के खिलाफ अमेरिका ने सोवियत संघ की कठिन संवाद की निंदा की और इसे एक स्वतंत्र और सुविधाजनक नयी सोवियत सरकार के बदलाव की मांग के रूप में प्रस्तुत किया।
स्वेज नहर संकट (1956)
स्वेज नहर संकट ने दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव में वृद्धि की। सोवियत संघ ने इस संकट में मिस्र का साथ दिया, जिससे अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तनाव बढ़ा।
आईज़नहावर सिद्धांत (1957)
जून 1957 में, आईज़नहावर सिद्धांत के अंतर्गत, अमेरिकी कांग्रेस ने राष्ट्रपति को साम्यवाद के खतरों का सामना करने के लिए सशस्त्र सेनाओं का प्रयोग करने का अधिकार प्रदान किया, जिससे पश्चिमी एशिया को शीत युद्ध का अखाड़ा बना दिया। इस निर्णय ने सोवियत संघ के साथ सशस्त्र सुसंगतता को बढ़ावा दिया और शीत युद्ध के तनाव को और भी बढ़ा दिया।
यू-2 घटना (1960)
यू-2 घटना ने शीत युद्ध के तनाव को और अधिक बढ़ा दिया। 1 मई 1960 को, अमेरिकी जासूसी विमान यू-2 को सोवियत संघ की सीमा के पास जासूसी करते हुए पकड़ लिया गया। विमान के पायलट ने माना कि उसे सोवियत संघ की सैनिक ठिकानों की जासूसी के लिए भेजा गया था। यह घटना सोवियत संघ और अमेरिका के बीच और अधिक तनावपूर्ण रिश्तों का कारण बनी, जबकि सोवियत संघ ने अपनी गलती स्वीकार करके इसे गंभीरता से लिया। इसके परिणामस्वरूप, शीत युद्ध के तनाव और बढ़ गए।
पेरिस सम्मेलन (1960)
16 मई 1960 को पेरिस सम्मेलन में, सोवियत राष्ट्रपति ख्रुश्चेव ने यू-2 घटना को दोहराया और अमेरिकी राष्ट्रपति को सोवियत संघ में दोहरी चेतावनी दी कि वे इसे फिर से न करें। सम्मेलन के दूसरे सत्र का भी सोवियत संघ ने बहिष्कार किया और अपनी नाराजगी जाहिर की। इससे अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के तनाव का पुनर्निर्माण हुआ और दोनों देशों के बीच मतभेद और धीरे-धीरे बढ़ते गए।
शीत युद्ध के दौरान घटित इन घटनाओं ने दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव को बढ़ा दिया और शीत युद्ध के माहौल को और भी तनावपूर्ण बनाया। यह घटनाएँ सोवियत संघ और अमेरिका के बीच संघर्ष की दिशा में वृद्धि लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाईं।
पूर्वी जर्मनी के साथ संधि की धमकी (1961)
1961 में ख्रुश्चेव ने पूर्वी जर्मनी के साथ एक पृथक संधि पर हस्ताक्षर करने की धमकी दी, जिससे अमेरिका को शीत युद्ध के खतरे का सामना करना पड़ा। इससे अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तनाव बढ़ गया।
बर्लिन दीवार का निर्माण (1961)
अगस्त 1961 में, सोवियत संघ ने बर्लिन शहर में पश्चिमी और पूर्वी बर्लिन के बीच दीवार बनाने की घोषणा की, जिससे पश्चिमी शक्तियों के क्षेत्र को अलग करने का प्रयास किया गया। इसका अमेरिका ने कड़ा विरोध किया और अपनी सेनाएं युद्ध के लिए एकत्रित की। इसके बावजूद, इस घटना के बाद भी बड़ी मुश्किल से शीत युद्ध गर्म युद्ध में परिवर्तित होते होते रहा, लेकिन अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तनाव बरकरार रहा।
क्यूबा में सोवियत आधिकार (1962)
1962 में क्यूबा में सोवियत संघ ने अपने सैनिक अड्डे की स्थापना की, जिससे अमेरिका के राष्ट्रपति कनैडी ने कड़ा विरोध किया। क्योकि इससे उनको अमेरिका के लिए खतरा महसूस हुआ। इस करण से एक बड़ी तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न हुई, और अमेरिका ने क्यूबा की नाकेबन्दी की घोषणा की। जिससे सोवियत संघ के सैनिक वहा पर न पहुच सके।
सोवियत संघ ने मामले को बढ़ता हुआ देखकर अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया। क्योकि इससे दोनों के बीच सीधे संघर्ष की आशंका थी। और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिर से कोई युद्ध अब सोवियत संघ नहीं चाहता था। यद्यपि इससे यह विवाद तो सुलझ गया, लेकिन यह घटना अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तनाव को बढ़ावा देने वाली घटना बनी। इन घटनाओं तथा संघर्षों ने शीत युद्ध के समय के बाद भी अमेरिका और सोवियत संघ के बीच मतभेद और तनाव को बढ़ावा दिया और दोनों महाशक्तियों के बीच यह मतभेद और संघर्ष बढ़ता गया।
अमेरिका और सोवियत संघ के बीच बढ़ते मतभेद को कम करने के लिए कुछ प्रयास किये गए जो इस प्रकार हैं –
मास्को आंशिक परीक्षण निषेध सन्धि (Moscow Partial Test Ban Treaty)
5 सितम्बर 1963 को अमेरिका, सोवियत संघ तथा ब्रिटेन के मध्य ‘मास्को आंशिक परीक्षण निषेध सन्धि’ (Moscow Partial Test Ban Treaty) हुई। इस प्रकार से शीत युद्ध को समाप्त करने के प्रयास किये गए, लेकिन ये प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं हो सके। मास्को आंशिक परीक्षण निषेध सन्धि (Moscow Partial Test Ban Treaty) ने आणविक परीक्षणों को अंतर्राष्ट्रीय व अंतर्देशीय क्षेत्रों में पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं किया, लेकिन यह एक महत्वपूर्ण कदम था जिससे आणविक परीक्षणों के खात्मे की ओर प्रायास किया गया।
ख्रुश्चेव की अमेरिका की यात्रा
इस युग में अन्य राष्ट्रों द्वारा इन दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव को कम करने और शीत युद्ध को समाप्त करने के कई प्रयास किए। इसी क्रम में 15 सितम्बर से 28 सितम्बर 1959 तक ख्रुश्चेव ने अमेरिका की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बिच उत्पन्न हो रहे मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया गया।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन (Non-Aligned Movement)
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन (Non-Aligned Movement) भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसमें कई अफ्रीकी, एशियाई, और अन्य देश शामिल थे। इस आन्दोलन ने उन देशों को एक तीसरे मार्ग की ओर बढ़ने का अवसर दिया जो दोनों सुपरपॉवर्स के पक्ष में नहीं थे और उन्होंने अपने नेतृत्व में खुद के राष्ट्रीय हितों को प्रमुख रखा।
इन सभी प्रयासों का यह सामूहिक परिणाम निकला जिसके फलस्वरूप तनाव और संघर्ष के साथ चलने वाला शीत युद्ध, धीरे-धीरे शांति की दिशा में बदल गया, लेकिन इसका पूरा समापन तब हुआ जब सोवियत संघ का विघटन हुआ और शीत युद्ध का आगाज़ के कारणों में से कुछ हल हो गए।
शीत युद्ध का तृतीय भाग (1963 से 1979)
इस समय तक दोनों महाशक्तियों के बीच संबंधों में मधुरता और तनाव कमी का आगमन हुआ। यह एक महत्वपूर्ण अवसर था जब शीत युद्ध की आशंका घट गई और विश्व के लिए शांति की दिशा में एक नया अध्याय शुरू हुआ।
अमेरिका और सोवियत संघ ने कई संधियों और समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिनमें अंतरराष्ट्रीय अंतर्देशीय क्षेत्रों में परमाणु परीक्षणों की प्रतिबंध का समझौता भी शामिल था। यह नए युद्ध के आतंक को कम किया और विश्व शांति की दिशा में कदम बढ़ाया। इस समझौते को ‘दितान्त’ (Détente) या ‘तनावशैथिल्य’ (नरमी या तनाव में कमी) कहा गया।
इस समझौते ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच विभिन्न सभाओं को आयोजित किया और बातचीतों तथा संवाद बढ़ाया, जिससे वे अपने विवादों का समाधान करने के लिए सामंजस्यपूर्ण माध्यमों को बढ़ावा दे सके।
दितान्त के कारण, यह युद्ध के बाद की दशकों में आपसी संबंधों और शांति की दशा की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था, जो विश्व सामंजस्य और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण था। तथा परमाणु युद्ध के खतरे से भी निजात मिला
शीत युद्ध का चतुर्थ एवम अन्तिम भाग (1980 से 1989 )
1970 के दशक का दितान्त समझौता अफगानिस्तान संकट के आरंभ होते ही पुनः शीत युद्ध में परिवर्तित हो गया गया।इस कारण से इस संकट को ‘दितान्त की अन्तिम शवयात्रा’ कहा जाता है। क्योकि इसके पश्चात दितान्त की समाप्ति हो गई और दोनों शक्तियों में लगभग एक दशक तक रहने वाला तनावशैथिल्य’ (नरमी या तनाव में कमी) के दिन समाप्त हो गए और पुराने तनाव फिर से बढ़ने लगे। इसकी उत्पत्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैंः
- सोवियत संघ की शक्ति में वृद्धि: सोवियत संघ में वृद्धि ने अमेरिका के साथ पुरानी दुश्मनी को फिर से तेजी से बढ़ा दिया।
- रीगन का शस्त्र उद्योग को बढ़ावा: अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने अपने शस्त्र उद्योग को बढ़ावा दिया और मित्र राष्ट्रों का शस्त्रीकरण करने पर बल दिया।
- अंतरिक्ष अनुसंधान: अमेरिका और सोवियत संघ में अंतरिक्ष अनुसंधान की बड़ी होड़ लग गई, जिससे एक नए प्रकार के सैन्य तंत्र विकसित हुआ।
- अफगानिस्तान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप: सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, जिससे शीत युद्ध में वृद्धि हुई और अमेरिका और सोवियत संघ के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ी।
- सोवियत संघ का दक्षिण पूर्वी एशिया में प्रभाव बढ़ाना: सोवियत संघ ने दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाया, जिससे अमेरिका के साथ इस क्षेत्र में गेम ऑफ़ इंफ़्लूएंस बढ़ गया।
- स्टार वार्स परियोजना: 23 मार्च 1983 को अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने ‘स्टार वार्स परियोजना’ (अन्तरिक्ष युद्ध) को मंजूरी दी, जिससे नए अस्त्र-शस्त्रों की होड़ लग गई।
- सोवियत संघ का खाड़ी क्षेत्र में प्रभुत्व: सोवियत संघ ने खाड़ी क्षेत्र में भी अपना प्रभुत्व बढ़ाने का प्रयास किया, जिससे रीजनल सुरक्षा और स्थिरता की चुनौती बढ़ गई।
- क्यूबा में सोवियत संघ की ब्रिगेड: सोवियत संघ ने क्यूबा में अपनी ब्रिगेड तैनात की, जिससे क्यूबा के साथ अमेरिका के बीच गढ़े गए तनाव को और बढ़ा दिया।
- निकारागुआ में अमेरिका का प्रभुत्व: निकारागुआ में अमेरिका ने अपना प्रभुत्व बढ़ाने का प्रयास किया, जिससे संघर्ष और तनाव बढ़े।
नई शीत युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में नई खटास पैदा की और दुनिया को तृतीय विश्व युद्ध के कगार पर खड़ा कर दिया। इस युद्ध ने एक नए दिनचर्या का आरंभ किया, जिसमें दो महत्वपूर्ण गणराज्य, अमेरिका और सोवियत संघ, का एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध बिगड़ते चले गए।
इस युद्ध का परिणाम बहुत ही दुखदायी रहा इससे निशस्त्रीकरण को गहरा धक्का लगा। इस शीत युद्ध में तनाव के केन्द्र अफगानिस्तान, कम्पूचिया, निकारागुआ आदि देश हो गए। यह युद्ध जो पहले विचारधारा विरोधी हुआ करता अब विचारधारा विरोधी न होकर सोवियत संघ विरोधी हो चुका था। इस युद्ध के अभिकर्ता अब सिर्फ अमेरिका और सोवियत संघ ही नही बल्कि ब्रिटेन, फ्रांस व चीन भी थे।
इस युद्ध के द्वारा सम्पूर्ण विश्व का वातावरण ही दूषित हो चुका था। इसने बहुध्रुवीकरण को जन्म दिया और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नई चुनौतियों को पेश किया। सोवियत संघ के ढीले होने और निशस्त्रीकरण होने के पीछे उसके ऊपर सामाजिक और आर्थिक दबाव था। यह युद्ध बहुध्रुवीकरण की शुरुआत किया एवं इसके कारण अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
इस युद्ध में चीन भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह युद्ध बीते दशकों में दुनिया के राजनैतिक और सामाजिक संरचना को स्थायी रूप से परिवर्तित किया और आंतरराष्ट्रीय संबंधों की जटिलता को बढ़ा दिया। अमेरिका ने खाड़ी सिद्धान्त के जरिये विश्व शान्ति के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया। इस नए शीत युद्ध ने विश्व को तीसरे विश्व युद्ध के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर शीत-युद्ध का प्रभाव
शीतयुद्ध (Cold War) ने 1946 से 1989 तक विभिन्न चरणों से गुजरते हुए अलग-अलग रूप में विश्व राजनीति को प्रभावित किया और इसके अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर कई प्रभाव पड़े:
- दो गुटों का विभाजन: शीतयुद्ध ने विश्व को दो मुख्य गुटों में विभाजित कर दिया – सोवियत गुट (कम्युनिस्ट ब्लॉक) और अमेरिकन गुट (कैपिटलिस्ट ब्लॉक)। इससे विश्व की समस्याओं को इन दो गुटों के द्वारा परखा जाने लगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय सहमति में कमी हुई।
- यूरोप का विभाजन: शीतयुद्ध ने यूरोप को भी विभाजित कर दिया, जिससे विश्व में यूरोपीय गुट के दोनों हिस्सों में तनाव बढ़ा।
- आतंक और भय की वृद्धि: शीतयुद्ध के कारण विश्व में आतंक और भय का माहौल बढ़ गया। इससे अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में तनाव, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास की भावना बढ़ी।
- आणविक युद्ध की सम्भावना: शीतयुद्ध ने आणविक युद्ध की सम्भावना में वृद्धि की और देशों को परमाणु शस्त्रों के विकास के बारे में सोचने के लिए उत्प्रेरित किया । यह खतरा विश्वभर में संवाद और सुरक्षा परिषद की बदलती भूमिका का भी नेतृत्व किया।
- सैनिक संगठनों का जन्म: शीतयुद्ध ने नाटो, सीटो, सेण्टो, और वारसा पैक्ट जैसे सैनिक संगठनों को जन्म दिया, जिससे निशस्त्रीकरण के प्रयासों को गहरा धक्का लगा।
- संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में कमी: इसने संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में कमी कर दी, और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर दोनों महाशक्तियों के निर्णयों पर ही निर्भर हो गया।
- आतंक के संतुलन: शीतयुद्ध ने आतंक के संतुलन को प्रोत्साहित किया, और यह विश्व राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया।
- नव उपनिवेशवाद का जन्म: इसने नव उपनिवेशवाद का जन्म दिलाया, जिसमें साइबर और अंतरिक्ष से जुड़े मामले भी शामिल थे।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति में परोक्ष युद्धों का प्रभाव: इससे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में परोक्ष युद्धों की भरमार हो गई, जिनमें दोनों महाशक्तियां अपने स्वायत्त प्रौद्योगिकी को प्रमोट करने के लिए तरह-तरह के संघर्ष करती रहीं।
- शक्ति संतुलन की जगह ‘आतंक के संतुलन’: इससे शक्ति संतुलन की जगह ‘आतंक के संतुलन’ का आदान-प्रदान हो गया, जिसमें आतंकिय संगठनों के कार्यकलापों के प्रति सतर्कता और संयम की आवश्यकता थी।
- गुटनिरपेक्ष आन्दोलन: शीतयुद्ध ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलनों को सबल आधार प्रदान किया, जिनमें अफ्रीका के बिपिन चंद्र दश और मार्टिन लुथर किंग जैसे नेता शामिल थे।
- प्रचार और कूटनीति का महत्व: इसने विश्व राजनीति में प्रचार और कूटनीति के महत्व को समझा दिया, जिसके परिणामस्वरूप जनरल्स और विशेषज्ञों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई।
- राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलनों का विकास: शीतयुद्ध के कारण दुनिया के कई देशों में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलनों का विकास हुआ, जिससे वे अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर सके।
शीतयुद्ध ने विश्व राजनीति को बदल दिया और नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिससे यह युद्ध विश्वभर के गणराज्यों के बीच संघर्ष का कारण बना। इस प्रकार शीतयुद्ध ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर विपरीत प्रभाव डाले परन्तु इसके कुछ साकारात्मक एवं नाकारात्मक पहलू भी निकल कर सामने आये-
सकारात्मक प्रभाव
- तकनीकी और प्राविधिक विकास: शीतयुद्ध ने सैन्य और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में महत्वपूर्ण विकास को प्रोत्साहित किया। इससे तकनीकी और प्राविधिक आवश्यकताओं का समाधान हुआ, जिससे विश्व में तकनीकी प्रगति हुई।
- यथार्थवादी राजनीति: इसने यथार्थवादी राजनीति का आविर्भाव किया, जिसमें देश अपने राष्ट्रीय हित को महत्वपूर्ण मानते हैं और स्वतंत्रता और सुरक्षा के प्रति अपनी प्राथमिकताओं को देखते हैं।
- नए राज्यों की भूमिका: शीतयुद्ध ने नए राज्यों की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाया, जैसे कि इसके बाद के दशकों में भूमिगत संकटों को हल करने के लिए उनका महत्व बढ़ गया।
नकारात्मक प्रभाव
- आतंक का संतुलन: शीतयुद्ध ने आतंक के संतुलन को प्रोत्साहित किया, जिससे आतंकवादी संगठनों का उदय हुआ।
- युद्धीय स्थिति: इससे विश्व के कई हिस्सों में स्थायी संघर्ष की स्थिति थी, जिससे लोगों के जीवन में अस्थिरता बढ़ गई और युद्ध की संभावना बनी रही।
- विभाजन: शीतयुद्ध ने विश्व को दो गुटों में विभाज दिया और सहमति की कमी को पैदा किया, जिससे अंतरराष्ट्रीय सहमति को प्रभावित किया।
इस तरह, शीतयुद्ध ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर एकमात्र प्रभाव नहीं डाला, बल्कि सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दोनों को प्रभावित किया, जिससे विश्व राजनीति में विशिष्ट परिणाम दिखे।
शीत युद्ध के समय होने वाली महत्वपूर्ण घटनाएँ
शीत युद्ध के समय निम्न महत्वपूर्ण घटनाये घटित हुई जिन्होंने शीत युद्ध को समय समय पर जीवित रखा –
पॉट्सडैम सम्मेलन (Potsdam Conference) क्या है?
पॉट्सडैम सम्मेलन, 1945 में बर्लिन में आयोजित की गई थी, जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, और सोवियत संघ के नेता निम्नलिखित महत्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चा करने के लिए एकत्र आए थे:
- पराजित जर्मनी में तत्काल प्रशासन की स्थापना: पॉट्सडैम सम्मेलन में प्रमुख मुद्दा यह था कि जर्मनी के जीते जी तत्काल प्रशासन कैसे स्थापित किया जाए।
- पोलैंड की सीमाओं का निर्धारण: सम्मेलन में पोलैंड की नई सीमाओं को निर्धारित करने का भी मामला था।
- ऑस्ट्रिया का आधिपत्य: ऑस्ट्रिया के आधिपत्य के बारे में भी चर्चा हुई, और इस चर्चा में यह भी विचार किया गया कि आस्ट्रिया में किस तरह का प्रशासन स्थापित किया जाए।
- पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ की भूमिका: यह बिना किसी संकट के सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव के बारे में चर्चा की गई, इसमें पोलैंड के अंदर एक बफर ज़ोन बनाने की मांग की गयी तथा इसके तरह के और भी मुद्दों पर बात हुई।
पॉट्सडैम सम्मेलन ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों को स्थिर करने और जर्मनी को नए प्रशासन के साथ दोबारा शुरू करने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिए। यह सम्मेलन विश्व इतिहास के महत्वपूर्ण पलों में से एक है, जिसके परिणामस्वरूप आधुनिक यूरोप और अंतरराष्ट्रीय संबंधों का नई दिशा में परिवर्तन हुआ।
ट्रूमैन सिद्धांत (Truman Doctrine) क्या है?
ट्रूमैन सिद्धांत की घोषणा 12 मार्च 1947 को अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन द्वारा की गई थी, और यह एक ऐसा प्रमुख डोक्यूमेंट (दस्तावेज) था जिसने अमेरिकी विदेश नीति को सबल और सुरक्षित रूप से स्थापित किया। इस सिद्धांत की मुख्य घोषणा यह थी कि अमेरिका और उसके संगठनों का मित्रता और सहायता के लिए जोड़ा जाना चाहिए जो सोवियत संघ के साम्राज्यवादी दबाव और साम्यवादी विचारधारा के खिलाफ खड़े थे।
इस सिद्धांत की घोषणा का मुख्य उद्देश्य सोवियत संघ के प्रयासों को रोकना और उनके विस्तार को रोकना था, जिसका अमेरिका ने अपने रक्षात्मक इंतरेस्ट के लिए खतरा माना। ट्रूमैन सिद्धांत के अंतर्गत अमेरिका ने ग्रीस और तुर्की को आर्थिक सहायता प्रदान की और उनकी सुरक्षा के लिए समर्थन दिया।
इस सिद्धांत के बाद, यह घोषणा चिह्नित हो गई कि अमेरिका स्वतंत्रता और असम्प्रेरण संविदान के लिए लड़ने वाले देशों के साथ खड़ा रहेगा और उनकी सुरक्षा के लिए सहायता प्रदान करेगा। इससे शीत युद्ध के बाद के अंतरराष्ट्रीय गुटों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका बनी, जैसे कि नैटो (North Atlantic Treaty Organization)।
ट्रूमैन सिद्धांत ने शीत युद्ध के बाद की आंतरराष्ट्रीय सीने को परिवर्तित किया और दुनिया के राजनीतिक पैमाने पर गहरा प्रभाव डाला। यह एक महत्वपूर्ण पहल का प्रतीक बना, जिससे अमेरिका ने अपने सुरक्षा और रक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व दिखाया और सोवियत संघ के आगे खड़े होने का संकेत दिया।
आयरन कर्टेन’ (Iron Curtain) क्या है ?
‘आयरन कर्टेन’ (Iron Curtain) शब्द का प्रयोग विंस्टन चर्चिल द्वारा 1946 में एक भाषण में किया गया था, जिसमें उन्होंने सोवियत संघ द्वारा अपनाए गए सैन्यकीय, सियासी, और आर्थिक अवरोध को दर्शाया और पूर्वी यूरोप के देशों को “आयरन कर्टेन” से आवरित किया गया है। यह शब्द द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के यूरोपीय जगत के गठन को बताने के लिए प्रयुक्त हुआ, जब सोवियत संघ और पश्चिमी देशों के बीच आगे बढ़ते तनाव और विचारधाराओं के खिलाफ़ उत्तराधिकार का सम्मान किया जा रहा था।
आयरन कर्टेन के पूर्व में वे देश थे जो सोवियत संघ के साथ जुड़े थे अथवा उससे प्रभावित थे और इसके पश्चिम में वे देश थे जो अमेरिका और ब्रिटेन के सहयोगी थे अथवा लगभग तटस्थ थे।
इस ‘आयरन कर्टेन’ द्वारा चित्रित अवरोधन से अधिक, यह एक द्विपक्षीय तंत्र के बारे में एक तत्वपूर्ण प्रकटन था जिसमें दुनिया के दो बड़े दल थे – पश्चिमी देश और सोवियत संघ। यह तनावपूर्ण घड़ी के बावजूद यह भी दिखाता है कि अमेरिका और ब्रिटेन की ओर से इस आयरन कर्टेन को खोलने की प्रयासर्थी भूमिका थी, जिससे सोवियत संघ के प्रदर्शनवादी दबाव को दुर्बल किया जा सकता था।
बर्लिन की दीवार का इतिहास
बर्लिन की दीवार, जिसे “बर्लिन वाल” भी कहा जाता है, द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् 1949 में जर्मनी के विभाजन का प्रतीक बन गया। यह दीवार पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन को अलग करता था और जर्मन विभाजन का प्रतीक बन गया।
पश्चिमी बर्लिन पश्चिमी जर्मनी का हिस्सा था और सहयोगी देशों के नियंत्रण में था, जबकि पूर्वी बर्लिन पूर्वी जर्मनी का हिस्सा था और सोवियत संघ के नियंत्रण में था।
बर्लिन की दीवार का निर्माण 13 अगस्त 1961 को शुरू हुआ था, जब पूर्वी जर्मन सरकार ने इसे बर्लिन के पश्चिमी हिस्से से पूर्वी हिस्से को अलग करने के रूप में निर्मित करने का आलंब लिया। इसका मुख्य उद्देश्य बर्लिन के पूर्वी हिस्से से पश्चिमी भाग में भागीदारी और एकाधिकार को रोकना था। इस दीवार के निर्माण से बर्लिन के विभाजन का एक और नया माध्यम पैदा हुआ और यह अलगाव और तनाव का कारण बन गया। इस दीवार के दोनों ओर बारेड वायर की तरह तंग तंग बांधी गई थी और इसे पार करने का कोई कानूनी रास्ता नहीं था।
बर्लिन की दीवार के पूर्वी ओर पूर्वी बर्लिन के निवासियों के लिए यह अद्भुत दुखदानुभव का स्रोत था, क्योंकि वे पश्चिमी बर्लिन के परिवार के सदस्यों से मिलने की कोशिश करते थे। इसके परिणामस्वरूप, कई लोगों की कोशिशें असफल रहीं और कुछ लोग दीवार को पार करने की कोशिश में जान दे दी।
बर्लिन की दीवार के बारे में बड़े ही अत्यंत प्रासंगिक स्थिति तब आई जब 1989 में यह दीवार खत्म हो गई और जर्मन विभाजन का अंत हुआ। इसके बाद, जर्मनी का हेरमान ग़ेरे एकीकरण हुआ और बर्लिन की दीवार का निर्माण और उसके विभाजन का इतिहास एक यादगार प्रतीक के रूप में बन गया। 9 नवंबर, 1989 को यह दीवार गिरा दी गयी।
बर्लिन की घेराबंदी (Berlin Blockade) 1948
बर्लिन की घेराबंदी, सोवियत संघ और पश्चिमी देशों के बीच तनाव के संकेत के रूप में 1948 में घटित हुई घटना थी। इसका मुख्य कारण था बर्लिन के नियंत्रण क्षेत्र में उसकी गतिशीलता और विभाजन की बढ़ती तनावपूर्ण स्थिति। यह घेराबंदी बर्लिन के पश्चिमी भाग को सोवियत संघ और पूर्वी बर्लिन के नियंत्रण में थे पश्चिमी देशों के लिए स्थितिगत रूप से अद्वितीय बनाने के लिए की गई थी।
सोवियत संघ ने बर्लिन के पूर्वी हिस्से को अचानक बंद कर दिया, जिससे पश्चिमी बर्लिन के लोगों को सड़क, रेल, और जल मार्गों के माध्यम से सप्लाई प्राप्त करने में असमर्थ बना दिया। यह घेराबंदी बर्लिन के पश्चिमी हिस्से की जीवन की आवश्यक सामग्री के साथ खिलवाड़ की ओर एक प्रयास था और इसका उद्देश्य यह था कि वे पश्चिमी बर्लिन को समर्थन न दें और उसके नियंत्रण को सोवियत संघ के हाथ में रखें।
हालांकि इस घेराबंदी के दौरान पश्चिमी देशों ने बर्लिन के निवासियों के लिए एक भारी उद्योगिकरण प्रोजेक्ट चलाया और उन्हें खाने की आपूर्ति प्रदान की, इसे “बर्लिन एयरलिफ्ट” कहा जाता है, जिसका परिणामस्वरूप बर्लिन के निवासियों को जीवन यापन करने में सामर्थ्य बना रहा।
इस घेराबंदी के दौरान की तनावपूर्ण स्थिति ने सोवियत संघ और पश्चिमी देशों के बीच जर्मन विभाजन के और भी गहरे होने का संकेत दिया, जिससे बर्लिन की दीवार के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। बर्लिन की दीवार का निर्माण 1961 में हुआ और यह जर्मन विभाजन के प्रतीक के रूप में बन गया, जो फिर 1989 में गिराई गई।
बर्लिन की घेराबंदी और इसके निर्माण दौरान घटित घटनाएं शीत युद्ध के संदर्भ में महत्वपूर्ण थीं और यह इतिहास में महत्वपूर्ण घटना के रूप में याद की जाती हैं।
मार्शल योजना और कमिनफॉर्म
मार्शल योजना (The Marshall Plan) और कमिनफॉर्म (The Cominform) दोनों द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के आंतरराष्ट्रीय द्वंद्व के महत्वपूर्ण पहलुओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं। ये दोनों घटनाएं आर्थिक, राजनीतिक, और आर्थिक पुनर्निर्माण के क्षेत्र में एक नई दिशा का प्रतीक थे, लेकिन उनके उद्देश्य और प्राथमिकताएँ अलग थीं।
मार्शल योजना (The Marshall Plan)
- आर्थिक सहायता: मार्शल योजना अमेरिकी विदेश मंत्री जॉर्ज मार्शल द्वारा प्रस्तावित की गई थी और इसका मुख्य उद्देश्य यूरोपीय देशों को आर्थिक सहायता प्रदान करके उनकी आर्थिक पुनर्निर्माण में मदद करना था। इससे सारे यूरोपीय क्षेत्र में अर्थव्यवस्था को बल देने का प्रयास किया गया।
- दोस्ताना प्रस्थान: मार्शल योजना द्वारा अमेरिका ने यूरोपीय देशों को आर्थिक सहायता प्रदान की और इसके तहत आर्थिक मदद के बदले में यूरोपीय देशों को अमेरिकी वस्त्र, खाद्य, और औद्योगिक उपकरणों की आपूर्ति की गई।
- डेमोक्रेसी की समर्थन: यह योजना अमेरिकी दृष्टिकोण को प्रमोट करती थी और उसके लिए आर्थिक और आर्थिक संरचना का समर्थन करने का प्रयास किया था।
कमिनफॉर्म (The Cominform)
- रूसी संघ के सहायक: कमिनफॉर्म (Communist Information Bureau) सोवियत संघ द्वारा शुरू किया गया था और इसका मुख्य उद्देश्य था पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ सोवियत संघ के साथ सान्निध्य और समरसता बनाना।
- संघर्ष आर्थिक मॉडल: कमिनफॉर्म के माध्यम से सोवियत संघ ने कम्यूनिज्म को आर्थिक और सामाजिक मॉडल के रूप में प्रमोट किया और यूरोपीय देशों को इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
- कॉमिंटर्न सदस्यता: कमिनफॉर्म ने पूर्वी यूरोपीय देशों को सोवियत संघ के साथ जोड़ने के लिए कम्यूनिस्ट पार्टियों को आवाहनित किया और एक कॉमिंटर्न संगठन बनाया जिसका उद्देश्य कम्यूनिस्टिक प्रिंसिपल्स की रक्षा करना था।
मार्शल योजना और कमिनफॉर्म दोनों के बीच यूरोपीय देशों के भविष्य के संकेत दिए और यह स्पष्ट करते हैं कि तब की दुनिया द्विपक्षीय द्वंद्व के बीच हाथापाई थी और एक नये संघर्ष की शुरुआत हो रही थी।
नाटो और वारसा संधि
नाटो (North Atlantic Treaty Organization) और वारसा संधि (Warsaw Pact) दोनों द्विपक्षीय द्वंद्व के कारण गठित रक्षा संगठन थे, जो स्थायी सदस्यों के बीच यूरोप में सुरक्षा और रक्षा की प्राथमिकता को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए थे।
नाटो (North Atlantic Treaty Organization)
- गठन: नाटो 1949 में बनाया गया था और इसमें अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड्स, लक्जमबर्ग, इटली, पुर्तगाल, डेनमार्क, नॉर्वे, आइसलैंड, ग्रीस, तुर्की, जर्मनी, और स्पेन के सदस्य थे।
- उद्देश्य: नाटो का मुख्य उद्देश्य था पश्चिमी देशों को सोवियत संघ के आक्रमण से बचाना और सुरक्षित रखना। इसका एक प्रमुख प्राथमिकता यूरोप की रक्षा और सुरक्षा की होती थी।
- सामरिक सहयोग: नाटो देशों ने सैन्य सहयोग का आदान-प्रदान किया और एक संयुक्त सैन्य कमान की तहत कार्रवाई की।
वारसा संधि (Warsaw Pact)
- गठन: वारसा संधि 1955 में बनाई गई थी और इसमें सोवियत संघ, पोलैंड, ईस्ट जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, और अल्बेनिया के सदस्य थे।
- उद्देश्य: वारसा संधि का मुख्य उद्देश्य था सोवियत संघ के सदस्यों के बीच सुरक्षा और सामरिक सहयोग को सुनिश्चित करना, और पश्चिमी देशों और नाटो के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करना।
- उत्तरदायीपन: वारसा संधि ने सोवियत संघ को इस क्षेत्र में आर्थिक और सामरिक प्रमुखता प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया और वह अपने सदस्य देशों के साथ एक संयुक्त सामरिक बल के साथ कार्रवाई कर सकता था।
इन दो संगठनों के बीच की चुनौतियाँ और स्थितियाँ द्विपक्षीय द्वंद्व की परिस्थितियों के कारण बनी और यह बीते दशकों में जंगली तोड़ और विस्फोटों की ओर ले जाई गई।
अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा
अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा, जिसे “स्पेस रेस” भी कहा जाता है, शीत युद्ध के समय अमेरिका और सोवियत संघ के बीच हुई थी। इस प्रतिस्पर्धा का मुख्य उद्देश्य था विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में आगे बढ़ना, लक्ष्य चंद्रमा पर मानव की पहुंच को बढ़ाना और सैन्य उपयोग के लिए उपग्रह तैयार करना था।
सोवियत संघ के स्पुतनिक I के सफल प्रक्षेपण के बाद, अमेरिका ने अपने अपने उपग्रह का प्रक्षेपण करने का निर्णय लिया, और इससे स्पेस रेस की शुरुआत हुई। अमेरिका ने अपने पहले सत्र से, Explorer I से शुरुआत की और इसके बाद चंद्रयान मिशन Apollo के तहत चंद्रमा पर मानव भेजने का सफल प्रयास किया। नील आर्मस्ट्रांग, बज अलद्रिन, और माइकल कोलिंस ने वर्ष 1969 में Apollo 11 मिशन के अंतर्गत चंद्रमा की सतह पर पहुंचा।
इस प्रतिस्पर्धा ने अंतरिक्ष गंभीरता के क्षेत्र में नई ऊँचाइयों को छूने का रास्ता बनाया और आगामी अंतरिक्ष मिशन्स के लिए महत्वपूर्ण अनुभव प्रदान किया।
हथियारों की होड़
संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच हाथियारों की प्रतिस्पर्धा शीत युद्ध के दौरान एक महत्वपूर्ण पहलू था। इस प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप, विश्व के विभिन्न हिस्सों में अत्यधिक मात्रा में हथियार बनाए गए और परमाणु हथियारों का विकास हुआ।
सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच हाथियारों के द्विपक्षीय वार्तालापों के बाद, 1960 के दशक से लेकर 1970 के दशक के पूर्वार्ध में वे परमाणु हथियारों की तेजी से विकास करने लगे। इसका परिणामस्वरूप, बहुत बड़ी और अत्यधिक प्रभावशाली परमाणु हथियार बनाए गए, जिनमें आइसीबीएम और सार्स अबम (Intercontinental Ballistic Missile and Submarine-Launched Ballistic Missile) शामिल थे। यह दोनों पक्षों के बीच हथियारों की बढ़ती तय संख्या और उनके विनिर्माण में बढ़ती क्षमता के कारण विश्व को एक न्यूक्लियर जंगल में ले जाने की आशंका के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच संशय और तनाव बढ़ गए।
हाथियारों के इस विकास और प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच संविश्व सुरक्षा के क्षेत्र में एक साक्षर संतुलन की आवश्यकता थी, और इसका परिणाम था विवियो अवेन्यू समझौता (Vienna Summit) और न्यूक्लियर आपसी सख्ती के अन्तरराष्ट्रीय समझौते, जिनमें स्ट्रेटेजिक आर्म्स लिमिटेशन टॉक्स (SALT) और आर्म्स कंट्रोल और डिस्आर्ममेंट (Arms Control and Disarmament) समझौते शामिल हैं।
क्यूबा मिसाइल संकट क्या है ?
क्यूबा मिसाइल संकट (Cuban Missile Crisis) शीत युद्ध के दौरान एक महत्वपूर्ण घटना थी और यह सबसे गंभीर संकट मोमेंट्स में से एक था जब विश्व न्यूक्लियर युद्ध के कगार पर था।
क्यूबा में फिदेल कास्त्रो की सत्ता को सोवियत संघ द्वारा समर्थन मिल रहा था, और उसकी आर्थिक मदद भी कर रहा था। अमेरिका को यह बात अपने लिए नागवार लगी और उसे लगा कि इससे सोवियत संघ का विस्तार बढेगा। इस कारण से अमेरिका ने क्यूबा के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ लिये तथा वर्ष 1961 में क्यूबा के ‘बे ऑफ पिग्स’ (Bay of Pigs) में आक्रमण की रणनीति बनाई जिससे सोवियत समर्थित फिदेल कास्त्रो की सत्ता को उखाड़ फेका जाये परन्तु अमेरिका का यह अभियान विफल रहा।
इस घटना के बाद फिदेल कास्त्रो ने सोवियत संघ से सैन्य मदद की अपील की। इस अपील पर सोवियत संघ ने क्यूबा में परमाणु मिसाइल लॉन्च साइट्स की स्थापना की थी, जिससे वे अमेरिका के तट से सिर्फ कुछ मिनट की दूरी पर थे, और इससे अमेरिकी महाशक्ति को बड़ा खतरा हो गया।
इस संकट के दौरान, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तनाव बढ़ गया, और इससे विश्व भर में युद्ध की आशंका बढ़ने लगी। इस संकट के दौरान, अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी और सोवियत संघ के प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव के बीच संवाद हुआ, और उन्होंने एक क्रिसिस को टालने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें सोवियत संघ ने क्यूबा से मिसाइल हटाने की सहमति दी और अमेरिका ने क्यूबा पर परमाणु हमले न करने पर सहमति जताई । इस समझौते के परिणामस्वरूप, सोवियत संघ ने क्यूबा से सभी परमाणु मिसाइल हटा लिया, और संकट को टाल दिया गया।
क्यूबा मिसाइल संकट ने प्रतिस्पर्धी दो देशों के बीच संवाद और सामाजिक समझौते की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन यह भी दिखाया कि न्यूक्लियर संवाद कितने खतरनाक हो सकता है और यह जीवन के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है।
शीत युद्ध का अंत
सोवियत संघ के विघटन का एक सीधा परिणाम शीत युद्ध के अंत के रूप में सामने आया। सोवियत संघ के विघटन के कारण, विश्व स्तर पर अधिकतम दो महाशक्तियों की सामरिक प्रतिस्पर्धा का एक दल गुम हो गया, और इससे शीत युद्ध का समाप्त होने का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
सोवियत संघ का विघटन
सोवियत संघ का विघटन शीत युद्ध समाप्त होने का सबसे बड़ा कारण बना। सोवियत यूनियन के विघटन के मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण सामने आए:
सैन्य कारण
सोवियत संघ के संसाधनों के अधिक खपत की बजाय, सैन्य तैयारी और युद्ध उपकरणों के विकास के लिए ज्यादा संसाधन लगाए जा रहे थे। इसने सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था पर दबाव डाला और उसे अधिक महंगा बना दिया।
मिखाइल गोर्बाचोव की नीतियां
गोर्बाचोव ने “ग्लासनोस्त (Openness)” और “पेरेस्त्रोइका (Restructuring)” जैसी नीतियों का पालन किया, जिसका परिणामस्वरूप सोवियत संघ में राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन हुआ। इसने खुलापन और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सुधार की कोशिश की, जिससे सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव हुआ।
- ग्लासनोस्त (Openness): ग्लासनोस्त की नीति का उद्देश्य राजनीतिक प्राक्रम में खुलापन और उदारीकरण लाना था। इसके अंतर्गत, सरकार ने मीडिया को अधिक स्वतंत्रता और स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग करने की अनुमति दी और राजनीतिक दिल्ली में जो भी गुप्त जानकारी थी, वह खुली रूप से प्रकट की जाने वाली थी।
- पेरेस्त्रोइका (Restructuring): पेरेस्त्रोइका का उद्देश्य सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को पुनर्निर्माण करना था। इसके अंतर्गत, सरकार ने उद्योगों को स्वतंत्रता से प्रबंधित करने की अनुमति दी और बाज़ार नीतियों को प्रस्तुत किया, जिससे सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को अर्ध-मुक्त बाजार की ओर ले जाने में मदद मिली।
लोकतंत्रिक सुधार
सोवियत संघ में लोकतांत्रिक सुधार हुए व आंदोलन भी काफी आगे बढ़ गए, और यहां तक कि कुछ पूर्व सत्ताधारियों को भी अपनी सत्ता छोड़नी पड़ी। जिससे सोवियत यूनियन कमजोड पड़ने लगा।
सोवियत-अफगान युद्ध (1979-89)
सोवियत-अफगान युद्ध (1979-89) सोवियत संघ के विघटन का एक महत्वपूर्ण कारण था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप, सोवियत संघ के आर्थिक और सैन्य संसाधनों में बड़ा नुकसान हुआ था और इससे सोवियत संघ के स्थायिता पर भारी प्रहार पहुंचा।
इस युद्ध का मूल कारण था कि सोवियत संघ ने अपनी आर्थिक और सामरिक रूप से अफगानिस्तान को आपने अधीन किया था, जिसके खिलाफ अफगानी मुजाहिदीन और उनके बाहरी समर्थकों ने विद्रोह किया। सोवियत संघ ने इस युद्ध में अपने सैन्य के बड़े अंश को भेज दिया, जिसके परिणामस्वरूप युद्ध की लंबाई और मूल्य बढ़ गए।
सोवियत संघ के लिए इस युद्ध का प्रबल विरोध था, और उसे अफगानिस्तान में गुजरने वाले दशकों तक लड़ना पड़ा। यह युद्ध सोवियत संघ के संसाधनों को बर्बाद कर दिया और उसके आर्थिक प्रभाव को बढ़ा दिया, जिससे उसका विघटन हो गया। इसके अलावा, युद्ध ने सोवियत संघ के सामरिक ताकत को भी प्रभावित किया, जो बाद में उसके विघटन का कारण बना।
इन कारणों और संघर्ष के बाद, सोवियत संघ का विघटन हुआ और इससे शीत युद्ध का अंत हुआ।