भारत में न्यायपालिका को संविधान द्वारा एक स्वायत्त और विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यह न केवल कानून की व्याख्या करने वाली संस्था है, बल्कि संविधान की संरक्षक (Guardian of the Constitution) के रूप में लोकतंत्र के तीनों स्तंभों — विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — के बीच संतुलन बनाए रखने का दायित्व भी निभाती है।
न्यायपालिका की सर्वोच्च इकाई भारत का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) है, जिसका नेतृत्व देश का मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India – CJI) करता है। मुख्य न्यायाधीश न केवल अदालत की कार्यप्रणाली की व्यवस्था सुनिश्चित करते हैं, बल्कि वे न्यायिक नीतियों, मामलों के आवंटन, संवैधानिक पीठों के गठन और न्यायिक सुधारों की दिशा तय करने में भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
हाल ही में यह घोषणा की गई है कि न्यायमूर्ति सूर्यकांत को भारत के 53वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया है। वे 24 नवंबर 2025 को पदभार ग्रहण करेंगे और वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी. आर. गवई के उत्तराधिकारी बनेंगे।
इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की प्रक्रिया क्या है, इसके संवैधानिक प्रावधान क्या हैं, पात्रता मानदंड कैसे निर्धारित किए गए हैं, और इस नियुक्ति का न्यायपालिका एवं लोकतंत्र के लिए क्या महत्व है।
संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय के गठन और उसके न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान अनुच्छेद 124 में किया गया है।
अनुच्छेद 124(2) के अनुसार —
“सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।”
इसका अर्थ यह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति का औपचारिक अधिकार राष्ट्रपति के पास होता है, किंतु राष्ट्रपति यह कार्य केंद्र सरकार की सलाह पर करते हैं।
हालांकि संविधान में यह स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है कि राष्ट्रपति को किनसे परामर्श करना चाहिए या नियुक्ति का आधार क्या होगा, लेकिन वर्षों में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संवाद तथा ‘जजेज़ केस’ (Judges Cases) की श्रृंखला के माध्यम से एक कोलेजियम प्रणाली (Collegium System) विकसित हुई, जिसने इस प्रक्रिया को संस्थागत रूप प्रदान किया।
इस प्रकार, मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति संविधान के तहत राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में है, लेकिन इसकी व्यवहारिक प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वायत्तता के सिद्धांत पर आधारित है।
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की प्रक्रिया
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति एक परंपरागत-प्रक्रियात्मक व्यवस्था का पालन करती है। इस प्रक्रिया को निम्न चरणों में समझा जा सकता है:
(क) वरिष्ठता का सिद्धांत (Principle of Seniority)
सर्वोच्च न्यायालय में प्रचलित परंपरा के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है।
यह सिद्धांत न्यायपालिका में पारदर्शिता, स्थिरता और संस्थागत अनुशासन सुनिश्चित करता है। वरिष्ठता के सिद्धांत के चलते अदालत में आपसी विश्वास और भविष्य की नियुक्तियों के प्रति पूर्वानुमेयता बनी रहती है।
उदाहरणस्वरूप, वर्तमान CJI न्यायमूर्ति बी. आर. गवई ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में न्यायमूर्ति सूर्यकांत के नाम की सिफारिश की है, जो उनसे वरिष्ठता क्रम में अगले स्थान पर हैं। यह परंपरा न्यायपालिका की निरंतरता और सामंजस्य का प्रतीक है।
(ख) सिफारिश और अनुमोदन की प्रक्रिया
मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त होने वाले CJI से उनके उत्तराधिकारी का नाम सुझाने को कहा जाता है।
यह नाम केंद्र सरकार (विशेष रूप से कानून मंत्रालय) को भेजा जाता है, जिसके बाद प्रधानमंत्री अपनी सलाह राष्ट्रपति को देते हैं।
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह और परंपरा के अनुरूप नियुक्ति की घोषणा करते हैं।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि कार्यपालिका की भूमिका केवल सुझाव और अनुमोदन तक सीमित होती है, जबकि न्यायपालिका की स्वायत्तता बनी रहती है।
(ग) कोलेजियम प्रणाली का विकास
हालांकि मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति मुख्यतः वरिष्ठता पर आधारित होती है, लेकिन अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम प्रणाली (Collegium System) लागू है।
यह प्रणाली तीन प्रमुख निर्णयों — First Judges Case (1981), Second Judges Case (1993), और Third Judges Case (1998) — से विकसित हुई।
कोलेजियम प्रणाली में सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। ये न्यायाधीश न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण से संबंधित अनुशंसाएं करते हैं।
यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि न्यायपालिका की नियुक्तियों में कार्यपालिका का अनावश्यक हस्तक्षेप न हो, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनी रहे।
(घ) सरकार की भूमिका और सीमाएं
सरकार नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति की पृष्ठभूमि, सत्यापन और सुरक्षा जांच करती है। यदि किसी कारण से आपत्ति हो, तो वह अपनी राय कोलेजियम को भेज सकती है।
हालांकि अंतिम निर्णय कोलेजियम की सिफारिश पर ही आधारित होता है। यदि कोलेजियम अपने निर्णय पर पुनः कायम रहता है, तो सरकार को नियुक्ति करनी ही होती है।
यह व्यवस्था न्यायपालिका की स्वायत्तता (Judicial Independence) और कार्यपालिका के साथ संतुलन दोनों को बनाए रखती है।
पात्रता के संवैधानिक मानदंड
संविधान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश (जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं) बनने के लिए व्यक्ति को निम्न योग्यता पूरी करनी होती है:
- वह भारत का नागरिक हो।
 - और निम्न में से कोई एक शर्त पूरी करता हो —
- उसने किसी उच्च न्यायालय में कम से कम पाँच वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य किया हो, या
 - उसने किसी उच्च न्यायालय में कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) के रूप में कार्य किया हो, या
 - वह राष्ट्रपति द्वारा “प्रतिष्ठित विधिवेत्ता (Eminent Jurist)” के रूप में मान्यता प्राप्त हो।
 
 
इन प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश या मुख्य न्यायाधीश बनने वाला व्यक्ति विधिक अनुभव, न्यायिक विवेक, संवैधानिक समझ और नैतिक प्रामाणिकता रखता हो।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत: एक परिचय
न्यायमूर्ति सूर्यकांत का नाम भारतीय न्यायपालिका के उन प्रमुख न्यायाधीशों में आता है जिन्होंने अपने कार्यकाल में न्यायिक नैतिकता, अनुशासन और संवैधानिक दृष्टिकोण के उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
(क) प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
- जन्म: 10 फरवरी 1962, हिसार (हरियाणा)।
 - शिक्षा: महार्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक से 1984 में कानून की डिग्री प्राप्त की।
 
(ख) अधिवक्ता के रूप में करियर
- 1984 में जिला न्यायालय, हिसार में अधिवक्ता के रूप में कार्य प्रारंभ किया।
 - 1985 से पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में नियमित रूप से प्रैक्टिस शुरू की।
 - वर्ष 2000 में उन्हें हरियाणा का सबसे युवा अधिवक्ता जनरल (Advocate General) नियुक्त किया गया।
 
(ग) न्यायिक करियर
- 9 जनवरी 2004 को उन्हें पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
 - इसके पश्चात् 24 मई 2019 को वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने।
 
(घ) मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यकाल
- न्यायमूर्ति सूर्यकांत 24 नवंबर 2025 को भारत के 53वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण करेंगे।
 - उनका कार्यकाल लगभग 15 महीने (फरवरी 2027 तक) का होगा, क्योंकि वे 9 फरवरी 2027 को सेवानिवृत्त होंगे।
 
नियुक्ति का महत्व और न्यायपालिका पर प्रभाव
न्यायमूर्ति सूर्यकांत की नियुक्ति कई दृष्टियों से संवैधानिक और संस्थागत रूप से महत्वपूर्ण है।
- वरिष्ठता सिद्धांत की निरंतरता:
यह नियुक्ति वरिष्ठता-आधारित परंपरा के अनुरूप है, जो न्यायपालिका में स्थायित्व और विश्वसनीयता का संकेत देती है। - न्यायपालिका की स्वायत्तता की पुष्टि:
यह नियुक्ति यह संदेश देती है कि कोलेजियम प्रणाली के अंतर्गत न्यायपालिका अब भी अपनी स्वतंत्र भूमिका बनाए रखे हुए है। - अनुभव और विशेषज्ञता:
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने संवैधानिक, सेवा-विधि, नागरिक और आपराधिक मामलों में उल्लेखनीय निर्णय दिए हैं।
उनका अनुभव उन्हें एक सक्षम प्रशासनिक और संवैधानिक न्यायाधीश बनाता है। - संवैधानिक संतुलन का प्रतीक:
मुख्य न्यायाधीश के रूप में वे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संवाद की निरंतरता सुनिश्चित करेंगे, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। - न्यायिक सुधारों की दिशा में नेतृत्व:
उनसे यह अपेक्षा की जा रही है कि वे डिजिटल न्याय प्रणाली, न्यायिक पारदर्शिता, और मामलों के शीघ्र निस्तारण के क्षेत्र में सुधारात्मक पहल करेंगे। 
कोलेजियम प्रणाली पर विमर्श
भारत में न्यायिक नियुक्तियों को लेकर कोलेजियम प्रणाली पर कई बार बहस होती रही है।
समर्थक इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता की गारंटी मानते हैं, जबकि आलोचक इसे “अंदरूनी सिफारिश प्रणाली” कहकर इसकी पारदर्शिता पर प्रश्न उठाते हैं।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि कोलेजियम प्रणाली न्यायपालिका की स्वायत्तता और निष्पक्षता का आधार है, और किसी भी प्रकार की बाहरी राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहना लोकतंत्र के हित में है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत जैसे वरिष्ठ न्यायाधीश की नियुक्ति यह दर्शाती है कि यह प्रणाली अब भी परंपरा और सुधार के बीच संतुलन बनाए रखे हुए है।
निष्कर्ष
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति केवल एक संवैधानिक औपचारिकता नहीं, बल्कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के संतुलन का प्रतीकात्मक क्षण है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता, कार्यपालिका का सीमित हस्तक्षेप, वरिष्ठता की परंपरा, और कोलेजियम प्रणाली का समन्वय — ये सभी तत्व मिलकर इस प्रक्रिया को एक संविधानिक साधना बनाते हैं।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत की नियुक्ति इस परंपरा की निरंतरता का प्रतीक है। उनका कार्यकाल भारतीय न्यायपालिका के लिए नए दिशानिर्देश निर्धारित कर सकता है — विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ न्याय तक पहुँच, मामलों का शीघ्र निस्तारण, और न्यायिक पारदर्शिता जैसी चुनौतियाँ सामने हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह नियुक्ति केवल एक व्यक्ति के पदभार ग्रहण की घटना नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र में संविधान के मूल मूल्य — न्याय, स्वतंत्रता और समानता — की पुनः पुष्टि है।
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