हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक के रूप में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम अत्यन्त आदर और गौरव के साथ लिया जाता है। वे केवल एक कवि ही नहीं, बल्कि नाटककार, निबन्धकार, पत्रकार, समाज-सुधारक और राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत भी थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की व्यापकता इतनी अधिक है कि उनके नाम पर हिन्दी साहित्य के एक सम्पूर्ण युग का नामकरण ‘भारतेन्दु युग’ किया गया। यह युग हिन्दी साहित्य के मध्यकाल से आधुनिक काल की ओर संक्रमण का द्योतक है।
भारतेन्दु का काव्य मुख्यतः प्रेम और शृंगार रस से अनुप्राणित है, किन्तु इसके साथ-साथ उसमें भक्ति भावना, राष्ट्रीय चेतना, समाज सुधार की भावना और मानवीय संवेदना का भी सशक्त स्वर विद्यमान है। राधा-कृष्ण की लीलाओं के माध्यम से उन्होंने शृंगार के विविध पक्षों—संयोग, वियोग, पूर्वराग, मान, प्रवास आदि—का अत्यन्त मधुर और कलात्मक चित्रण किया है।
प्रस्तुत लेख में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य की प्रमुख विशेषताओं का विस्तृत विवेचन किया गया है तथा विशेष रूप से उनके शृंगार एवं प्रेम-चित्रण को सिद्ध किया गया है। साथ ही ‘यमुना छबि’ कविता के काव्य-सौन्दर्य का भी विशद विवेचन किया गया है।
भारतेन्दु के काव्य में शृंगार और प्रेम का मधुर चित्रण
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र मूलतः शृंगार रस के कवि हैं। उनका शृंगार वर्णन न तो अश्लील है और न ही कृत्रिम, बल्कि वह स्वाभाविक, कोमल, भावपूर्ण और सौन्दर्यबोध से युक्त है। उन्होंने राधा-कृष्ण को नायक-नायिका के रूप में प्रस्तुत कर वैष्णव परम्परा के अनुरूप शृंगार को आध्यात्मिक ऊँचाई प्रदान की है।
(क) वयः सन्धि का चित्रण
वयः सन्धि शृंगार काव्य का अत्यन्त कोमल और संवेदनशील पक्ष है। इस अवस्था में बाल्यावस्था का सरल भाव अभी पूर्णतः समाप्त नहीं होता, परन्तु यौवन की प्रथम आहट मन और शरीर दोनों पर अपना प्रभाव डालने लगती है। भारतेन्दु ने इस अवस्था का चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किया है—
“सिसुताई अजौ न गई तन तें तऊ जोवन जोति बटोरैं लगी।
सुनि के चरचा हरिचन्द्र की कान कछुक दै भौंह मरोरैं लगी।”
इन पंक्तियों में नायिका की लज्जा, चपलता और नवयौवन की जागृति का सजीव चित्र प्रस्तुत हुआ है। यहाँ न कोई कृत्रिमता है, न अतिरेक—केवल भावों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।
(ख) नख-शिख एवं शृंगार वर्णन
भारतेन्दु ने शृंगार वर्णन के अन्तर्गत नख-शिख वर्णन, नायिका-भेद, संयोग-शृंगार और प्रेम-क्रीड़ा का मनोहारी चित्र अंकित किया है। नायिका का प्रिय से लिपटना, अधरामृत का पान करना—ये सभी चित्र अत्यन्त कोमल, मधुर और सौन्दर्यपूर्ण हैं—
“निधरक पियत अधर रस उमगी तऊ न नेकु अघाई।
हरीचन्द रस सिन्यु तरंगन अवगाहत सुख पाई॥”
यहाँ शृंगार केवल शारीरिक आकर्षण तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्मिक आनन्द और भावनात्मक तृप्ति का भी संकेत करता है।
(ग) रूप वर्णन
भारतेन्दु ने नायक और नायिका के रूप-सौन्दर्य का चित्रण भी अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से किया है। विशेष रूप से श्रीकृष्ण का रूप ब्रजवासियों को मोहित कर लेता है—
“एक बेर नैन भरि देखे जाहि मोहे तीन।
मच्यौ ब्रज गांव ठाँव-ठाँव में कहर है॥
या में सन्देह कछु दैया हौं पुकारि कहौं,
भैया की सौं मैया री कन्हैया जादूगर है॥”
यहाँ कृष्ण का सौन्दर्य अलौकिक प्रतीत होता है। सखी का यह कहना कि ‘कन्हैया जादूगर है’—रूप की अतिशय मोहकता को प्रकट करता है।
(घ) वियोग शृंगार का चित्रण
भारतेन्दु का वियोग वर्णन भी उतना ही प्रभावशाली है जितना उनका संयोग शृंगार। नायिका के लिए प्रिय के बिना एक क्षण भी असह्य हो जाता है—
“यह संग में लागिए डोलैं सदा बिन देखें न धीरजु आनती है।
पिय प्यारे, तिहारे निहारे बिना अंखियाँ दुखिया नहिं मानती हैं॥”
यहाँ विरह की पीड़ा, मन की व्याकुलता और नेत्रों की बेचैनी का अत्यन्त मार्मिक चित्रण हुआ है।
भारतेन्दु के काव्य में भक्ति भावना
यद्यपि भारतेन्दु शृंगार के कवि हैं, तथापि उनकी कविता में भक्ति भावना भी गहराई से विद्यमान है। वे राधा-कृष्ण को केवल नायक-नायिका के रूप में ही नहीं, बल्कि आराध्य के रूप में भी स्वीकार करते हैं। वे स्वयं को कृष्ण का सखा और राधा का सेवक मानते हैं—
“श्री राधे मोहि अपुनो कब करिहौ।
हरीचन्द कब भव बूड़त ते भुज धरि धाइ उबरिहो॥”
यह भक्ति भाव माधुर्य से युक्त है, जिसमें प्रेम और श्रद्धा का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है।
भारतेन्दु के काव्य में राष्ट्रीय चेतना
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक युग के पहले कवि हैं जिन्होंने हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना को मुखर रूप दिया। अंग्रेजी शासन के कारण भारत की दुर्दशा देखकर उनका हृदय व्याकुल हो उठता है—
“आबहु सब मिलि रोबहु भारत भाई।
हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई॥”
वे अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण पर भी तीखा प्रहार करते हैं—
“अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेस चलि जात यहै अति ख्वारी॥”
इस प्रकार भारतेन्दु का काव्य केवल सौन्दर्य और प्रेम तक सीमित नहीं है, बल्कि वह राष्ट्रीय जागरण का भी सशक्त माध्यम है।
भारतेन्दु के काव्य का कला-पक्ष
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का कला-पक्ष अत्यन्त सुदृढ़ है। उनके काव्य में—
- रसों की समृद्धि
- अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग
- गेयता और संगीतात्मकता
- भाषा की मधुरता
स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
(क) अलंकार प्रयोग
उन्हें विशेष रूप से अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, रूपक, सन्देह और मानवीकरण अलंकार प्रिय हैं—
- “तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए” — अनुप्रास
- “झुके कूल सों जल परसत हित मनहु सुहाये” — उत्प्रेक्षा
(ख) भाषा और छन्द
भारतेन्दु ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली—दोनों का सफल प्रयोग किया। उनकी ब्रजभाषा कोमलकान्त, मधुर और भावानुकूल है। छन्दों में उन्होंने छप्पय, कवित्त, सवैया आदि का प्रयोग किया।
‘यमुना छबि’ कविता का काव्य-सौन्दर्य
भूमिका
‘यमुना छबि’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध रचना है, जो ‘चन्द्रावली’ नाटिका से ली गई है। इसमें ललिता सखी द्वारा यमुना के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। यह कविता कुल नौ छप्पयों में रचित है, जिनमें से छह ‘काव्यांजलि’ में संकलित हैं।
(क) प्रकृति का आलम्बन रूप में चित्रण
यमुना, तमाल वृक्ष, चन्द्रमा और लहरें—ये सभी यहाँ आलम्बन के रूप में चित्रित हैं—
“तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहें सुहाए॥”
वृक्षों का जल में झुकना मानो अपने सौन्दर्य को निहारना हो।
(ख) चित्रोपमता और बिम्बात्मकता
यमुना में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब और लहरों की चंचलता का दृश्य अत्यन्त चित्रात्मक है—
“परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो।
लोल लहर लहि नचत कबहूँ सोई मन भायो॥”
यह दृश्य मानो आँखों के सामने सजीव हो उठता है।
(ग) अलंकारिक सौन्दर्य
इस कविता में अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, सन्देह और मानवीकरण अलंकारों का अत्यन्त सुन्दर प्रयोग हुआ है—
- “मनु हरि दरसन हेत चन्द्र जल बसत सुहायो” — उत्प्रेक्षा
- “किधी मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज सोभा” — सन्देह
(घ) भाषा और छन्द
‘यमुना छबि’ में प्रयुक्त ब्रजभाषा अत्यन्त कोमल, मधुर और संगीतात्मक है। छप्पय छन्द का प्रयोग यहाँ प्रकृति चित्रण को विशेष लयात्मकता प्रदान करता है।
निष्कर्ष
समग्र रूप से कहा जा सकता है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी के सर्वाधिक सशक्त और प्रभावशाली कवि हैं। उनके काव्य में—
- शृंगार और प्रेम की मधुरता
- भक्ति की भावुकता
- राष्ट्रीय चेतना की जागृति
- कला-पक्ष की सुदृढ़ता
एक साथ विद्यमान है। ‘यमुना छबि’ जैसी रचनाएँ उनकी काव्य-प्रतिभा का उत्कृष्ट प्रमाण हैं। इसी कारण उन्हें आधुनिक हिन्दी कविता का जनक और भारतेन्दु युग का प्रवर्तक माना जाता है।
इन्हें भी देखें –
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : जीवन परिचय, साहित्यिक योगदान, कृतियाँ एवं भाषा-शैली
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