भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा कोई नई बात नहीं है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में यह प्रतिस्पर्धा केवल सीमाओं, कूटनीति या सैन्य शक्ति तक सीमित नहीं रही है। आज यह प्रतिस्पर्धा भू-आर्थिक रणनीति (Geo-Economic Strategy) के नए मोर्चे पर उतर आई है — यानी वह क्षेत्र जहाँ आर्थिक शक्ति और वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर नियंत्रण ही राजनीतिक प्रभाव का सबसे बड़ा हथियार बन जाता है।
हाल ही में चीन ने दो महत्वपूर्ण कदम उठाए —
- भारत में फॉक्सकॉन (Foxconn) के निर्माण संयंत्रों से अपने इंजीनियरों को अचानक वापस बुलाना।
- कई महत्वपूर्ण तकनीकी उपकरणों और क्रिटिकल मिनरल्स (गैलियम, ग्रेफाइट, जर्मेनियम आदि) पर निर्यात प्रतिबंध लगाना।
ये घटनाएँ केवल व्यापारिक उतार-चढ़ाव का हिस्सा नहीं थीं। इनके पीछे एक सोची-समझी भू-आर्थिक और भूराजनीतिक रणनीति थी, जिसने भारत के निर्माण क्षेत्र की संरचनात्मक कमजोरियों को उजागर कर दिया।
फॉक्सकॉन प्रकरण: चीन की ‘साइलेंट स्ट्राइक’
फॉक्सकॉन, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों में से एक है और एप्पल (Apple) के प्रमुख सप्लायरों में शामिल है, ने भारत में तमिलनाडु और कर्नाटक में बड़े निर्माण संयंत्र स्थापित किए हैं। इन इकाइयों में iPhone 17 के निर्माण की तैयारियाँ चल रही थीं।
लेकिन अचानक, चीन ने अपने 300 से अधिक इंजीनियरों को वापस बुला लिया। इससे उत्पादन श्रृंखला में बाधा आई और प्रोजेक्ट की समयसीमा प्रभावित हुई।
इस कदम को केवल एक “प्रशासनिक निर्णय” कहना, इसकी गहराई को नजरअंदाज करना होगा। असल में, यह भारत को वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग हब बनने से रोकने की एक सटीक और सामरिक चाल थी।
चीन की भू-आर्थिक चालें और उनका उद्देश्य
चीन लंबे समय से यह समझता है कि वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर नियंत्रण उसकी सबसे बड़ी ताकत है। इलेक्ट्रॉनिक्स, नवीकरणीय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) और उच्च तकनीकी उत्पादों के लिए आवश्यक उपकरण और खनिजों पर चीन का लगभग एकाधिकार है।
हाल ही में उसने—
- गैलियम, जर्मेनियम, ग्रेफाइट जैसे क्रिटिकल मिनरल्स पर निर्यात प्रतिबंध लगाया।
- हाई-एंड मशीनरी, जो EV, इलेक्ट्रॉनिक्स और सोलर पैनल मैन्युफैक्चरिंग के लिए जरूरी है, उसके निर्यात को सीमित किया।
ये संसाधन केवल कच्चा माल नहीं हैं — ये आधुनिक उद्योगों की रीढ़ हैं। इनके बिना भारत जैसे उभरते निर्माण केंद्रों के लिए वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बने रहना कठिन हो जाएगा।
चीन की मंशा और आंतरिक आर्थिक दबाव
हालाँकि सतह पर यह सब ‘प्रतिस्पर्धा’ जैसा दिखता है, पर चीन के भीतर कई आर्थिक संकट गहराते जा रहे हैं:
- जनसंख्या में गिरावट: कामकाजी उम्र के लोगों की संख्या घट रही है।
- रियल एस्टेट संकट: एवरग्रांडे (Evergrande) जैसे मामलों ने रियल एस्टेट सेक्टर को हिला दिया है।
- कमजोर घरेलू खपत: चीनी उपभोक्ता कम खर्च कर रहे हैं, जिससे घरेलू मांग ठप पड़ रही है।
चीन का लगभग $1 ट्रिलियन का निर्यात सरप्लस उसके वेलफेयर प्रोग्राम, सुरक्षा और सैन्य बजट को फंड करता है। अगर भारत निर्माण क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ता है, तो चीन की यह निर्यात प्रधान अर्थव्यवस्था गंभीर चुनौती में आ जाएगी।
बीजिंग की नजर में यह सिर्फ बाजार खोने का खतरा नहीं है, बल्कि अस्तित्वगत खतरा है।
भारत की निर्माण क्षमता: अवसर और चुनौतियाँ
भारत ने बीते एक दशक में ‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहलों से मैन्युफैक्चरिंग में बढ़त बनाने की कोशिश की है। लेकिन जमीनी हकीकत में कई कमजोरियाँ हैं, जिनका फायदा चीन जैसी ताकतें उठा सकती हैं।
1. बुनियादी ढाँचे की कमजोरी
- परिवहन, बिजली आपूर्ति और बंदरगाह कनेक्टिविटी अभी भी वियतनाम जैसे प्रतिस्पर्धियों की तुलना में कमजोर है।
- परिणामस्वरूप, निर्माण लागत 20-30% तक अधिक हो जाती है।
2. नीतिगत और प्रशासनिक बाधाएँ
- जटिल नियम, बार-बार नीतियों में बदलाव, और धीमी नौकरशाही निवेशकों के विश्वास को कमजोर करते हैं।
- ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस’ रैंकिंग में सुधार के बावजूद जमीनी क्रियान्वयन में कमी है।
3. उच्च लॉजिस्टिक्स लागत
- आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार भारत की लॉजिस्टिक्स लागत GDP का 14-18% है, जबकि वैश्विक मानक 8% है।
- यह अतिरिक्त लागत उत्पादों की प्रतिस्पर्धात्मकता को कम करती है।
4. आयात पर निर्भरता
- सेमीकंडक्टर, चिप, उच्च-गुणवत्ता वाले इंजन, और मशीनरी के लिए भारत अभी भी आयात पर निर्भर है।
- इससे बाहरी झटकों का जोखिम बढ़ता है।
5. कौशल की कमी
- उद्योग की जरूरतों और उपलब्ध श्रमिक कौशल में बड़ा अंतर है।
- प्रशिक्षण और स्किल डेवलपमेंट की कमी उत्पादन क्षमता को सीमित करती है।
6. नवाचार और आपूर्ति श्रृंखला की कमी
- उन्नत इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी के लिए मजबूत घरेलू सप्लाई चेन का अभाव है।
- इसका असर आत्मनिर्भर भारत मिशन की गति पर पड़ता है।
भारत के लिए आगे की रणनीति
भारत को चीन की तरह किसी एक ताकतवर देश पर निर्भर रहने से बचते हुए एक संतुलित, विविध और आत्मनिर्भर भू-आर्थिक रणनीति अपनानी होगी।
1. रणनीतिक स्वतंत्रता
- आपूर्ति शृंखला और तकनीकी स्रोतों में विविधता लाएँ।
- अमेरिका, जापान, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देशों के साथ संयुक्त निवेश और टेक्नोलॉजी साझेदारी बढ़ाएँ।
2. मैन्युफैक्चरिंग इकोसिस्टम को मजबूत करना
- बुनियादी ढाँचे में बड़े पैमाने पर निवेश करें — खासकर बंदरगाह, लॉजिस्टिक्स और बिजली आपूर्ति पर।
- ‘मेक इन इंडिया’ को सिर्फ नारे से आगे बढ़ाकर जमीनी स्तर पर लागू करें।
3. तकनीकी स्रोतों में विविधता
- चीन-निर्भर तकनीकी उपकरणों और मशीनरी का विकल्प विकसित करें।
- घरेलू स्तर पर क्रिटिकल मिनरल्स की खोज और प्रोसेसिंग की क्षमता बढ़ाएँ।
4. मानव संसाधन और कौशल विकास
- उद्योग-विशेष प्रशिक्षण केंद्र खोलें।
- विदेशी विशेषज्ञों की अनुपस्थिति में घरेलू टैलेंट तैयार करने के लिए तेज़ कार्यक्रम चलाएँ।
5. नीतिगत स्थिरता
- निवेशकों को भरोसा दिलाने के लिए नीतियों में स्थिरता रखें।
- कर प्रणाली को सरल और पूर्वानुमान योग्य बनाना जरूरी है।
भविष्य की दिशा: प्रतिस्पर्धा से सहयोग की ओर?
हालाँकि मौजूदा परिदृश्य प्रतिस्पर्धात्मक है, लेकिन भू-आर्थिक रिश्तों में सहयोग की गुंजाइश पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। भारत और चीन दोनों बड़े बाजार हैं और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में एक-दूसरे की भूमिका को नकार नहीं सकते।
लेकिन जब तक चीन अपनी ‘इकोनॉमिक कोअर्शन’ (Economic Coercion) रणनीति का उपयोग करता रहेगा, भारत को अपनी ‘स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी’ (Strategic Autonomy) को मजबूत करना होगा।
निष्कर्ष
भारत-चीन भू-आर्थिक रणनीति आज सिर्फ व्यापार की लड़ाई नहीं है — यह वैश्विक शक्ति संतुलन की लड़ाई है।
चीन अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल एक सामरिक हथियार की तरह कर रहा है, जबकि भारत को अपने निर्माण क्षेत्र की कमियों को दूर करते हुए एक विश्वसनीय, विविध और आत्मनिर्भर आपूर्ति श्रृंखला बनानी होगी।
यह केवल सरकार या उद्योग की जिम्मेदारी नहीं है — इसमें अनुसंधान संस्थानों, निजी क्षेत्र, कौशल विकास एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों की भी समान भूमिका है।
यदि भारत अगले दशक में यह संतुलन साधने में सफल होता है, तो वह न केवल चीन के बराबर खड़ा हो सकेगा, बल्कि वैश्विक आर्थिक शक्ति-संतुलन में निर्णायक भूमिका निभा पाएगा।
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