भारत, वर्षों से विश्व के सबसे बड़े रेमिटेंस प्राप्तकर्ता (Remittance Recipient) देशों में अग्रणी रहा है। लेकिन भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा हाल ही में जारी “रेमिटेंस सर्वेक्षण 2025” में जो बदलाव सामने आए हैं, वे केवल आर्थिक आँकड़ों तक सीमित नहीं, बल्कि भारत के प्रवासी समुदाय, वैश्विक प्रवास पैटर्न, और भू-राजनीतिक घटनाक्रमों को भी दर्शाते हैं। सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हुआ है कि भारत को विदेशों से भेजी जाने वाली धनराशि में एक ऐतिहासिक बदलाव आ चुका है — अब खाड़ी देशों (Gulf Countries) की बजाय विकसित अर्थव्यवस्थाएँ (Advanced Economies – AEs) भारत को सबसे अधिक रेमिटेंस भेज रही हैं।
रेमिटेंस क्या है और इसका महत्व क्यों है?
विदेशों में काम कर रहे भारतीय जब भारत में अपने परिवार, रिश्तेदारों या निवेश के लिए पैसे भेजते हैं, तो उसे रेमिटेंस कहा जाता है। यह भारत जैसे विकासशील देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जन का एक बड़ा स्रोत है और साथ ही करोड़ों भारतीय परिवारों की आजीविका का आधार भी।
रेमिटेंस न केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक आय को सशक्त बनाता है, बल्कि देश की आर्थिक स्थिति, विदेशी मुद्रा भंडार, और कुल घरेलू उत्पाद (GDP) में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है। यही कारण है कि रेमिटेंस के पैटर्न में आया कोई भी बदलाव व्यापक प्रभाव डालता है।
2023-24 में रेमिटेंस का नया रिकॉर्ड
RBI के अनुसार, 2023-24 में भारत को कुल $118.7 अरब की विदेशी प्रेषण राशि प्राप्त हुई। यह 2010-11 में प्राप्त $55.6 अरब की तुलना में दोगुने से भी अधिक वृद्धि है। यह रेमिटेंस केवल एक आँकड़ा नहीं, बल्कि भारत की वैश्विक स्थिति, प्रवासी समुदाय की सफलता और विश्वव्यापी आर्थिक प्रवृत्तियों का संकेतक है।
रेमिटेंस स्रोतों में बदलाव | खाड़ी से विकसित देशों की ओर झुकाव
पहले कौन थे मुख्य योगदानकर्ता?
2010 के दशक में भारत को मिलने वाला अधिकांश रेमिटेंस खाड़ी देशों (Gulf Cooperation Council – GCC) जैसे कि संयुक्त अरब अमीरात (UAE), सऊदी अरब, कुवैत, क़तर और ओमान से आता था। 2016-17 में UAE का अकेले योगदान 26.9% था, जो अब घटकर 19.2% रह गया है।
अब कौन हैं प्रमुख स्रोत?
अब यह तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। 2023-24 में भारत को मिलने वाले रेमिटेंस का 50% से अधिक हिस्सा विकसित अर्थव्यवस्थाओं (Advanced Economies – AEs) जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका (USA), यूनाइटेड किंगडम (UK), कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर से आया है। यह पहली बार है जब AEs ने GCC देशों को पीछे छोड़ दिया है।
संयुक्त राज्य अमेरिका (USA)
- FY21 में रेमिटेंस का हिस्सा: 23.4%
- FY24 में बढ़कर हुआ: 27.7%
यूनाइटेड किंगडम और अन्य AEs
- FY17 में कुल योगदान: 26%
- FY24 में बढ़कर हुआ: 40%
सिंगापुर
- FY17 में योगदान: 5.5%
- FY24 में: 6.6% — अब तक का सबसे ऊँचा स्तर।
GCC देशों की भूमिका में गिरावट के कारण
1. COVID-19 महामारी का प्रभाव
खाड़ी देशों में ब्लू–कॉलर नौकरियों (जैसे निर्माण, हॉस्पिटैलिटी, सफाई, स्वास्थ्य सेवाएँ) पर निर्भर प्रवासी भारतीयों को महामारी के दौरान भारी नुकसान हुआ। लॉकडाउन, आर्थिक मंदी, और अस्थायी वीजा नीतियों के कारण बड़ी संख्या में भारतीयों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
2. “सऊदीकरण” और समान नीतियाँ
सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं में स्थानीय नागरिकों की भागीदारी बढ़ाने के लिए “सऊदीकरण” और समरूप नीतियाँ लागू कीं। इसके तहत विदेशी श्रमिकों की भर्ती पर पाबंदियाँ बढ़ीं, जिससे भारतीय प्रवासियों की संख्या में गिरावट आई।
3. तेल की कीमतों में गिरावट और आर्थिक चुनौती
खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ पेट्रोलियम पर निर्भर हैं। हाल के वर्षों में तेल की कीमतों में उतार–चढ़ाव और वैश्विक मंदी ने इन देशों की वित्तीय स्थिति को प्रभावित किया, जिससे रेमिटेंस भेजने की क्षमता में भी कमी आई।
AEs से रेमिटेंस में बढ़ोतरी के कारण
1. उच्च वेतन और जीवन स्तर
अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में रहने वाले भारतीय प्रवासी प्रायः उच्च-शिक्षित होते हैं और आईटी, वित्त, स्वास्थ्य, इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में कार्यरत होते हैं। इन नौकरियों में वेतन उच्च होता है और उनकी प्रेषण क्षमता (Per Capita Remittance) भी अधिक होती है।
2. Skilled Migration में वृद्धि
पिछले कुछ वर्षों में भारत से उच्च शिक्षा प्राप्त कर विदेशों में नौकरी करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। STEM (Science, Technology, Engineering, Mathematics) क्षेत्रों में भारतीय पेशेवरों की मांग विशेष रूप से अमेरिका और कनाडा में बढ़ी है।
3. भारतीय छात्रों की भूमिका
हजारों भारतीय छात्र हर साल विदेशों में उच्च शिक्षा के लिए जाते हैं। वे पढ़ाई के दौरान अंशकालिक काम करके या पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद परिवार की मदद हेतु रेमिटेंस भेजते हैं। साथ ही, वे एजुकेशन लोन चुकाने के लिए भी भारत पैसा भेजते हैं।
राज्य-वार वितरण: कौन से राज्य सबसे आगे?
रेमिटेंस प्राप्त करने के मामले में कुछ राज्य राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक लाभान्वित होते हैं। RBI सर्वेक्षण के अनुसार:
शीर्ष राज्य
- महाराष्ट्र
- केरल
- तमिलनाडु
इन तीनों राज्यों को मिला कर कुल रेमिटेंस का लगभग 50% हिस्सा प्राप्त होता है। इसकी मुख्य वजह इन राज्यों से भारी संख्या में प्रवासी भारतीयों का बाहर जाना है, विशेषकर केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों से खाड़ी देशों की ओर।
कम योगदान वाले राज्य
- हरियाणा
- गुजरात
- पंजाब
इन राज्यों को कुल रेमिटेंस का 5% से भी कम हिस्सा प्राप्त होता है, जो दर्शाता है कि इन राज्यों से या तो प्रवास की दर कम है, या फिर बाहर गए लोगों की आर्थिक स्थिति रेमिटेंस भेजने योग्य नहीं है।
प्रेषण की राशि | छोटे और बड़े ट्रांजेक्शन
रेमिटेंस भेजने की औसत राशि में भी विविधता देखने को मिलती है। RBI की रिपोर्ट के अनुसार:
- ₹5 लाख से अधिक की राशि वाले प्रेषण: 28.6%
- ₹16,500 या उससे कम की राशि वाले प्रेषण: 40.6%
इससे यह स्पष्ट होता है कि रेमिटेंस केवल उच्च आय वाले प्रवासियों तक सीमित नहीं, बल्कि छोटे स्तर पर भी बड़ी संख्या में ट्रांजेक्शन हो रहे हैं — जो आम प्रवासी मजदूरों की आर्थिक भागीदारी को दर्शाता है।
भविष्य की दिशा: क्या प्रवृत्ति स्थायी है?
RBI के रेमिटेंस सर्वेक्षण 2025 से यह संकेत मिलते हैं कि रेमिटेंस की मौजूदा प्रवृत्तियाँ आने वाले वर्षों में और अधिक गहरी हो सकती हैं:
1. Skilled Migration में और वृद्धि
भारत से इंजीनियर, डॉक्टर, तकनीकी विशेषज्ञ और स्टार्टअप उद्यमी विकसित देशों की ओर जा रहे हैं। यह रुझान भविष्य में और तेज़ होने की संभावना है।
2. भारतीय छात्रों की वैश्विक उपस्थिति
ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों में पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्रों की संख्या में साल दर साल वृद्धि हो रही है। ये छात्र भविष्य में उच्च वेतन वाली नौकरियों में जाकर भारत को अधिक रेमिटेंस भेज सकते हैं।
3. खाड़ी देशों की भूमिका में स्थायी गिरावट
यदि GCC देशों की “स्थानीयकरण” नीतियाँ बनी रहीं, और ब्लू–कॉलर नौकरियों में ऑटोमेशन आया, तो खाड़ी देशों से मिलने वाला रेमिटेंस लगातार घटता रहेगा।
भारत की वैश्विक भूमिका में बदलाव का संकेत
RBI का रेमिटेंस सर्वेक्षण 2025 केवल आर्थिक आंकड़े प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि यह भारत की वैश्विक पहचान, प्रवासी समुदाय की सफलता, और सामाजिक–आर्थिक गतिशीलता का प्रमाण है। अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य AEs से बढ़ते प्रेषण इस बात का संकेत हैं कि भारतीय प्रवासी अब केवल मजदूर नहीं, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग बन चुके हैं।
भारत को अब इस बदलते रुझान का लाभ उठाकर प्रवासी नीति (diaspora policy), विदेशी निवेश, और मानव संसाधन विकास को और अधिक सशक्त बनाना चाहिए।
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