उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई.

उपनिवेशवाद (सुप्राण) एक दार्शनिक सिद्धान्त है जो मानव जीवन को एक आध्यात्मिक और भौतिक मानवीय वास्तविकता के संघटकों के रूप में समझता है। यह सिद्धान्त कहता है कि मनुष्य का अस्तित्व और उसकी चेतना विश्व के एक अद्वितीय परमाणुओं या उपनिवेशों की एक समूहित जोड़ी का परिणाम है। उपनिवेशवाद अनेक धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं में प्रचलित है, जिनमें वेदान्त, विशिष्टाद्वैत, शैवाद्वैत, द्वैताद्वैत, अद्वैत आदि शामिल हैं।

उपनिवेशवाद के अनुसार, संसार और चेतना का सम्बन्ध तथ्यात्मक और अद्वितीय है। इस दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार, चेतना विश्व के प्राणियों में निवास करने वाले उपनिवेशों के रूप में प्रतिष्ठित है। यह चेतना अनंत और अद्वितीय है और सभी जीवों में समान रूप से मौजूद होती है। चेतना सभी जीवों की भौतिक और आध्यात्मिक प्राणियों की गुणवत्ता को प्रभावित करती है।

उपनिवेशवाद आध्यात्मिकता, एकता, और विश्व समरसता के सिद्धान्त पर आधारित है। इसे अद्वैतवादी दार्शनिकों द्वारा मान्यता प्राप्त होता है, जिनमें आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, निश्चलदास और उपनिषदों के कई आचार्य शामिल हैं।

उपनिवेशवाद मानवीय जीवन के अभिप्रेत और आध्यात्मिक आयामों के प्रतीक स्वरूप माना जाता है। यह मनुष्य के अस्तित्व, ज्ञान, आनंद और मुक्ति के प्रतीक के रूप में अवगत होता है।

उपनिवेशवाद धार्मिक और दार्शनिक प्रतिष्ठानों के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण रूप से मान्यता प्राप्त होता है, जैसे कि विज्ञान, चिकित्सा, योग, ध्यान आदि। यह मानव जीवन के आधारभूत मूल्यों को प्रशंसा करता है और एक सामरिक और सामरिक दृष्टिकोण प्रदान करता है जो सभी मानवों के बीच सौहार्द और समरसता को बढ़ावा देता है।

Table of Contents

उपनिवेशवाद का इतिहास

उपनिवेशवाद

1453 ई. में तुर्कों द्वारा कोन्स्टांटिनोपल के दुर्ग पर अधिकार कर लेने के बाद स्थल मार्ग से यूरोप के और एशियाई देशों के बीच व्यापार बंद हो गया। इससे यूरोपीय व्यापारिक राज्यों को नये समुद्री मार्गों की खोज करनी पड़ी। कुतुबनुमा, गतिमापक यंत्र, वेध यंत्रों के उपयोग से कोलंबस, मैगेलन और वास्को द गामा जैसे साहसी नाविकों ने नए समुद्री मार्गों की खोज की और अमेरिका जैसे नए देशों को खोजा। इन भौगोलिक खोजों के परिणामस्वरूप यूरोपीय व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। धन की बहुलता और स्वतंत्र राज्यों के उदय ने उद्योगों को बढ़ावा दिया।

कई नए उद्योग स्थापित हुए। स्पेन को अमेरिका जैसे एक ऐसे धन के खजाने मिले जिससे वह समृद्धि के शीर्ष पर पहुंच गया। ईसाई धर्म के प्रचारक भी नए खोजे गए देशों में जाने लगे। इस प्रकार अपने व्यापारिक हितों को पूरा करने और धर्म प्रचार के लिए यूरोपीय राष्ट्र उपनिवेशों की स्थापना की ओर बढ़ चढ़ करते रहे और इस तरह यूरोप में उपनिवेशों का विकास हुआ।

उपनिवेशवाद का इतिहास साम्राज्यवाद के इतिहास से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। सन् 1500 के आसपास स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्रांस और नीदरलैंड्स की विस्तारवादी कार्रवाइयों को यूरोपीय साम्राज्यवाद का पहला दौर माना जाता है। दूसरा दौर लगभग 1870 के आसपास शुरू हुआ जब मुख्य रूप से ब्रिटेन साम्राज्यवादी विस्तार के शीर्ष पर था। अगली सदी में जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका उसके प्रतियोगी के तौर पर उभरे।

इन शक्तियों ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विजय प्राप्त करके अपने उपनिवेशों को बसाया और मिशनरियों को भेजकर ईसाईत का प्रचार किया। ब्रिटेन के साथ फ्रांस, जापान और अमेरिका की साम्राज्यवादी सत्ता के तहत उपनिवेशों की स्थापना दुनिया के पैमाने पर प्रतिष्ठा और आर्थिक लाभ का स्रोत बन गयी। यही वह दौर था जब यूरोपियों ने अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आधार पर साम्राज्यवादी विस्तार को एक सभ्यता के वाहक के रूप में देखना शुरू किया। इस प्रकार, उपनिवेशवाद एक प्रमुख कारक बना जो साम्राज्यवादी राष्ट्रों के रूप में यूरोपीय सत्ता को चरमोत्कर्ष तक ले गया और उन्हें अनेक लाभ प्रदान किए।

जिन देशों ने उपनिवेश बनाए उनमें से प्रमुख ये हैं-

उपनिवेशवाद

  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. यूनाइटेड किंगडम
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. फ्रांस
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. बेल्जियम
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. इटली
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. जर्मनी
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. पुर्तगाल
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. स्पेन
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. नीदरलैंड
  • उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई. रूस

अवधिकरण

तीन मुख्य देश यूरोपीय उपनिवेशवाद की पहली लहर थे पुर्तगाल , स्पेन और जल्दी तुर्क साम्राज्य । पुर्तगालियों ने 1415 में सेउटा, मोरक्को की विजय और अन्य अफ्रीकी क्षेत्रों और द्वीपों की विजय और खोज के साथ यूरोपीय उपनिवेशवाद की लंबी उम्र की शुरुआत की, इससे युग की खोज के रूप में जाना जाने वाला आंदोलन भी शुरू हुआ।

ओटोमन साम्राज्य ने 1359 और 1653 के बीच व्यापक रूप से यूरोप, मध्य पूर्व, उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका में विजय प्राप्त की थी। यह साम्राज्यवादी शक्ति उपनिवेशीकरण के माध्यम से क्षेत्रीय विजय की बजाय उपनिवेशिक कब्जे की प्रणाली को अपनाते थे।

1494 में तोरडेसिलास की संधि के बाद स्पेन और पुर्तगाल ने अमेरिका के उपनिवेशीकरण की शुरुआत की। यह संधि स्पेन और पुर्तगाल के क्षेत्रीय दावों के आधार पर अमेरिका के क्षेत्रों की सीमाओं को निर्धारित करती थी। इससे ब्रिटेन, फ्रांस और नीदरलैंड्स को इस क्षेत्र में ध्यान आकर्षित हुआ। कैरिबियन और उत्तरी अमेरिका में इन तीनों देशों का प्रवेश यूरोपीय उपनिवेशवाद को स्थायी बनाया।

यूरोपीय उपनिवेशवाद की दूसरी लहर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा आश्रित थी, जिसमें ब्रिटेन ने एशिया में अपनी भूमिका की स्थापना की। फ्रांस, पुर्तगाल और नीदरलैंड्स जैसे अन्य देशों ने भी एशिया में यूरोपीय विस्तार में हिस्सा लिया।

तीसरी लहर “नया साम्राज्यवाद” अफ्रीका में उत्पन्न हुई, जिसमें बर्लिन सम्मेलन (1884-1885) के माध्यम से हाथापाई के मामले पर नियम बनाए गए। इस सम्मेलन ने अफ्रीका को यूरोपीय शक्तियों के बीच बांट दिया। इससे अफ्रीका के विभिन्न क्षेत्रों पर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल, बेल्जियम, इटली और स्पेन का प्रभाव फैला।

इन लहरों के परिणामस्वरूप, केवल तेरह वर्तमान स्वतंत्र देश उपनिवेशवाद से पहले बच गए हैं: अफगानिस्तान, भूटान, चीन, ईरान, जापान, लाइबेरिया, मंगोलिया, नेपाल, उत्तर कोरिया, सऊदी अरब, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड और तुर्की, साथ ही उत्तर यमन के पूर्वी हिस्सा जो अब यमन का एक भाग है।

रूस

रूस इतिहास में, शब्द “उपनिवेशवाद” (colonialism) विभिन्न रूपों में प्रयोग हुआ है। इसका मतलब होता है एक देश या राष्ट्र की आपसी संपर्क, नियंत्रण और सत्ता का एक प्रकार है जब विदेशी शासन शक्ति उस क्षेत्र को आपने वश में करने का प्रयास करती है। यह राष्ट्रीय संपत्ति और संसाधनों के अधिकार पर नियंत्रण रखने के लक्ष्य से भी हो सकता है।

रूसी उपनिवेशवाद के बारे में बात करते समय, आपके दिमाग में शायद साम्राज्यवाद की एक तस्वीर आ सकती है, जिसका प्रसार 16वीं से 20वीं सदी तक था। रूसी साम्राज्य अपने शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए बड़ी संपत्तियों, संसाधनों और भूमि का उपयोग करता रहा है। इसके परिणामस्वरूप, वे विदेशी समुद्री बंदरगाहों, उत्पाद संरचनाओं, सेना और अन्य संपत्तियों को नियंत्रण में करने के लिए समुद्री सैन्य बेस बनाए रखे। उन्होंने अनेक उपनिवेशों को स्थापित किया, जिनमें से कुछ अभी भी वर्तमान में उनके कब्जे में हैं।

एक महत्वपूर्ण उपनिवेश का उदाहरण रूसी साम्राज्य का अलास्का उपनिवेश (Russian colonization of Alaska) है। 18वीं सदी में, रूसी साम्राज्यने अलास्का अञ्चल को अपने अधीन किया और यहां नियंत्रण स्थापित किया। वे अपने व्यापारी प्राथमिकताओं के लिए यहां अनमोल मांस, मोती और अन्य संसाधनों को खोजने आए। उपनिवेश की एक प्रमुख प्रभावशाली पोस्ट रूसी अलास्का कंपनी (Russian-American Company) थी, जिसने यहां नियंत्रण स्थापित किया और व्यापार की गतिविधियों को प्रशासित किया। हालांकि, बाद में 19वीं सदी में, रूस ने अपने आर्थिक मसलों और अन्य कारणों से अलास्का को संयुक्त राज्य अमेरिका को बेच दिया।

विदेशी उपनिवेशवाद के तत्वों के अलावा, रूसी इतिहास में भी आधिकारिक उपनिवेशवाद के रूप में घोषित कुछ क्षेत्रों के बारे में बात की जा सकती है। उदाहरण के लिए, कार्कीन का उपनिवेश (Colonization of Crimea) 18वीं सदी में हुआ था, जब रूस ने इस क्षेत्र को अपने अधीन किया। यहां पर रूसी साम्राज्यने महत्वपूर्ण नौसेना और समुद्री बंदरगाहों को बनाए रखा, जिससे उन्हें स्वतंत्र अभिगम और व्यापार के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान मिला। हालांकि, 1954 में, सोवियत संघ के अधीनस्थता के दौरान, कार्कीन को यूक्रेन को सौंप दिया गया, और 2014 में रूस ने इसे फिर से अपने अधीन किया है। इससे उठने वाले विवादों और अंतर्राष्ट्रीय टकरावों के कारण, यह क्षेत्र विशेष रूप से प्रसिद्ध हुआ है।

रूसी उपनिवेशवाद के विषय में एक और महत्वपूर्ण पहलू है उत्तरी अज़रबाइजान का उपनिवेश (Colonization of Northern Azerbaijan)। 19वीं सदी में, रूसी साम्राज्यने उत्तरी अज़रबाइजान क्षेत्र को अपने अधीन किया और यहां नियंत्रण स्थापित किया। इसका मुख्य उद्देश्य व्यापार, खनिज संसाधनों, और रणनीतिक गतिविधियों का नियंत्रण हासिल करना था। रूस ने यहां प्रशासनिक, सामरिक और आर्थिक क्षेत्रों में बड़ा दबदबा बनाया। आधिकारिक रूप से, यह क्षेत्र अब आज़रबाइजान गणराज्य का हिस्सा है, लेकिन कई विवादों और तनावों के चलते, यहां अब भी सामरिक समस्याएं हैं।

रूसी उपनिवेशवाद का एक और उदाहरण संयुक्त राष्ट्र संघ के दौरान हुआ, जब रूस सोवियत संघ के रूप में अनेक प्रदेशों को अपने अधीन किया। इस दौरान, रूस ने विभिन्न देशों के साथ सांघिक, आर्थिक और सामरिक संबंध बनाए। यह आकार में एक महत्वपूर्ण उपनिवेश के रूप में माना जा सकता है, जिसमें रूस ने विदेशी अधीनता की नई राष्ट्रीय प्रणाली का निर्माण किया। इस प्रक्रिया का परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद रूसी उपनिवेशवाद में कमी हुई है, लेकिन यह पहले के दौर के इतिहास में अहम् रूप से प्रभावशाली रहा है।

रूस में उपनिवेशवाद का अनुभव विभिन्न कारणों से प्रभावित हुआ है, जैसे कि भूगोलिक स्थिति, संसाधनों की विविधता, और राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक हितों की प्राथमिकता। इसके साथ-साथ, रूसी उपनिवेशवाद के बारे में विवादित मतभेद भी हैं, और विभिन्न दृष्टिकोण इसके बारे में अलग-अलग तथ्यों को पेश कर सकते हैं। इसलिए, इस सवाल का जवाब देने से पहले यह महत्वपूर्ण है कि आप इस विषय पर और गहराई से अध्ययन करें और विभिन्न संसाधनों से विचारों का आदान-प्रदान करें।

एशिया में विस्तार

रूस, या रूसी संघ (आधिकारिक नाम: रूसी संघ्यता) यूरोपीय और एशियाई महाद्वीपों पर स्थित एक देश है। यह एक भूमध्यसागरीय देश है, जो कि उत्तरी यूरोप और उत्तरी एशिया का विस्तार करता है। रूस का भूगोलिक विस्तार विश्व के सबसे बड़े देशों में से एक के रूप में माना जाता है।

रूस का एशियाई में विस्तार होता है जो कि साइबेरिया के नाम से जाना जाता है। साइबेरिया एक विस्तृत क्षेत्र है जो कि रूस के पूर्वी हिस्से को आवरण करता है। यह एक आर्थिक और जनसंख्या के हिसाब से महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जहां विभिन्न धर्म, भाषा और संस्कृति के लोग निवास करते हैं। साइबेरिया का भूभाग आर्कटिक माइक्रोरीज़्म क्षेत्र को भी समावेशित करता है, जो कि उत्तरी साइबेरिया में स्थित है और इसकी जलवायु बेहद ठंडी होती है।

रूस का एशियाई भूभाग विविध जलवायु और भूगर्भिक स्थानों के लिए जाना जाता है। यहां पर बाइकाल झील, जो विश्व का सबसे गहरा और पानी से भरा झील है, स्थित है। साथ ही, यहां पर सुपरवोल्केनो और भूकम्प गतिविधियों के क्षेत्र भी हैं। साइबेरिया की वनस्पति समृद्ध है और यहां विभिन्न प्रकार के वन, सदाबहार जंगल, ठंडे मैदानों, और गाढ़े जंगली भूमि मिलती है।

रूस के एशियाई भूभाग में अनेक जनजातियां और आदिवासी समुदायों की आबादी है, जिनमें याकूत, बूरियात, चूक्ची, एवेन्की, और कमी शामिल हैं। इन समुदायों की अपनी विशेष संस्कृति, भाषा, और जीवनशैली होती है। वे अपनी पारंपरिक गतिविधियों को बनाए रखते हैं और अपने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

एशियाई रूस का एक अन्य महत्वपूर्ण विषय उद्यानों की विविधता है। इस क्षेत्र में कई राष्ट्रीय निकुञ्ज, अभयारण्य, और अन्य संरक्षित क्षेत्र स्थित हैं, जैसे कि ज्वालामुखी उद्यान, लेनिन पीक राष्ट्रीय पार्क, बिग्नान नेशनल पार्क, और द सियाचिन ग्लेशियर नेशनल पार्क। यहां के उद्यानों में वन्य जीवन की बहुतायत होती है और वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए विशेष उपाय भी किए जाते हैं।

एशियाई रूस का एक महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था भी है, जो खनिज संसाधनों, ऊर्जा संसाधनों, और वनिज्यिक गतिविधियों पर आधारित है। साइबेरिया में विभिन्न खनिज संसाधनों, जैसे कि पेट्रोलियम, गैस, लकड़ी, और चांदी, की खुदाई की जाती है। इसके अलावा, यहां ऊर्जा स्रोतों, जैसे कि हाइड्रोपावर, विंड ऊर्जा, और भूकंप स्रोतों का उपयोग भी किया जाता है। वनिज्यिक गतिविधियाँ भी इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण अंग हैं, जैसे कि लकड़ी उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण, और मत्स्य पालन।

एशियाई रूस का विस्तार इतना व्यापक है कि इसमें विविधता का संघटित मिश्रण है। यहां पर संस्कृति, भाषा, धर्म, और जीवनशैली के संगम होते हैं और यहां के लोग अपने पारंपरिक और मौलिक मूल्यों को मान्यता देते हैं। इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा भी उन्नति के लिए अवसरों का संग्रहण करने के लिए दुनिया भर से लोगों को आकर्षित करता है।

इस प्रकार, रूस का एशियाई में विस्तार एक रोचक और महत्वपूर्ण विषय है। यह एक भूगोलिक, आर्थिक, जनसंख्या, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विशेष है और इसकी अध्ययन करके हम एशियाई रूस के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

पुर्तगाली और स्पेनिश अन्वेषण और उपनिवेशीकरण

पूर्वी और पश्चिमी दोनों गोलार्द्धों के यूरोपीय उपनिवेशीकरण की जड़ें पुर्तगाली अन्वेषण में हैं। इस खोज के पीछे आर्थिक और धार्मिक मकसद थे। आकर्षक मसालों के व्यापार के स्रोत का पता लगाकर , पुर्तगाली अपने लिए इसका लाभ उठा सकते थे। वे इस्लामिक ओटोमन साम्राज्य को घेरने के लिए , पूर्वी यूरोप में क्षेत्रों और उपनिवेशों को प्राप्त करने के लिए, प्रेस्टर जॉन के काल्पनिक ईसाई साम्राज्य के अस्तित्व की जांच करने में सक्षम होंगे ।

1415 में सेउटा की विजय के साथ यूरोप के बाहर पहला पैर जमा हुआ था । 15 वीं शताब्दी के दौरान, पुर्तगाली नाविकों ने मदीरा , अज़ोरेस और केप वर्डे के अटलांटिक द्वीपों की खोज की, जो विधिवत आबादी वाले थे, और पश्चिम अफ्रीकी तट के साथ उत्तरोत्तर आगे बढ़े जब तक बार्टोलोमू डायस ने यह प्रदर्शित नहीं किया कि 1488 में केप ऑफ गुड होप का चक्कर लगाकर अफ्रीका के चारों ओर नौकायन संभव था , 1498 में वास्को डी गामा के भारत पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 

पुर्तगालियों की सफलताओं ने 1492 में क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा एक मिशन के लिए स्पेनिश वित्तपोषण का नेतृत्व किया , जो पश्चिम में नौकायन करके एशिया के लिए एक वैकल्पिक मार्ग का पता लगाने के लिए था। जब कोलंबस ने अंततः कैरेबियन एंटिल्स में लैंडफॉल बनाया, तो उनका मानना ​​​​था कि वह भारत के तट पर पहुंच गए हैं, और जिन लोगों से उनका सामना हुआ, वे लाल त्वचा वाले भारतीय थे।

यही कारण है कि अमेरिकी मूल-निवासियों को भारतीय या लाल-भारतीय कहा गया है। सच में, कोलंबस एक ऐसे महाद्वीप पर आ गया था जो यूरोपियों, अमेरिका के लिए नया था। कोलंबस की पहली यात्राओं के बाद, नए क्षेत्रों और समुद्री मार्गों के लिए प्रतिस्पर्धी स्पेनिश और पुर्तगाली दावों को 1494 में टॉर्डेसिलस की संधि के साथ हल किया गया , जिसने यूरोप के बाहर दुनिया को व्यापार और अन्वेषण के दो क्षेत्रों में विभाजित किया, कैस्टिले और पुर्तगाल के इबेरियन साम्राज्यों के बीच उत्तर-दक्षिण मेरिडियन के साथ, केप वर्डे के पश्चिम में 370 लीग।

इस अंतरराष्ट्रीय समझौते के अनुसार, अमेरिका और प्रशांत महासागर का बड़ा हिस्सा स्पेनिश अन्वेषण और उपनिवेशीकरण के लिए खुला था, जबकि अफ्रीका, हिंद महासागर और अधिकांश एशिया पुर्तगाल को सौंपे गए थे। 

टॉर्डेसिलस की संधि द्वारा निर्दिष्ट सीमाओं को 1521 में परीक्षण के लिए रखा गया था जब फर्डिनेंड मैगेलन और उनके स्पेनिश नाविक (अन्य यूरोपीय लोगों के बीच), स्पेनिश क्राउन के लिए नौकायन करने वाले पहले यूरोपीय बने, जो प्रशांत महासागर को पार करने वाले पहले यूरोपीय बने, गुआम तक पहुंचे ।

फिलीपींस, जिसके कुछ हिस्सों को पुर्तगालियों ने पहले ही खोज लिया था, हिंद महासागर से नौकायन कर रहे थे। अब तक दोनों वैश्विक साम्राज्य, जो विरोधी दिशाओं से निकल चुके थे, आखिरकार दुनिया के दूसरी तरफ मिल गए थे। दोनों शक्तियों के बीच उत्पन्न होने वाले संघर्षों को अंततः 1529 में ज़रागोज़ा की संधि के साथ हल किया गया , जिसने एशिया में स्पेनिश और पुर्तगाली प्रभाव के क्षेत्रों को परिभाषित किया, दुनिया के दूसरी तरफ एंटी मेरिडियन या सीमांकन की रेखा की स्थापना की। 

16वीं शताब्दी के दौरान पुर्तगालियों ने पूर्व और पश्चिम दोनों ओर महासागरों में दबाव डालना जारी रखा। एशिया की ओर उन्होंने पहला सीधा संपर्क यूरोपीय और वर्तमान समय के देशों जैसे मोज़ाम्बिक, मेडागास्कर, श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया, पूर्वी तिमोर (1512), चीन और अंत में जापान में रहने वाले लोगों के बीच बनाया ।

विपरीत दिशा में, पुर्तगालियों ने विशाल क्षेत्र का उपनिवेश किया जो अंततः ब्रासील बन गया, और स्पेनिश विजयकर्ताओं ने न्यू स्पेन और पेरू के विशाल वायसराय की स्थापना की, और बाद में रियो डी ला प्लाटा (अर्जेंटीना) और न्यू ग्रेनाडा (कोलंबिया) की स्थापना की। एशिया में, पुर्तगालियों ने प्राचीन और अच्छी तरह से आबादी वाले समाजों का सामना किया, और अपने व्यापार मार्गों (जैसे गोवा, मलक्का और मकाऊ ) के साथ सशस्त्र तटीय व्यापारिक पदों से युक्त एक समुद्री साम्राज्य की स्थापना की, इसलिए उनके द्वारा लगे समाजों पर उनका अपेक्षाकृत कम सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा।

पश्चिमी गोलार्ध में, यूरोपीय उपनिवेशीकरण में बड़ी संख्या में बसने वालों, सैनिकों और प्रशासकों की भूमि के मालिक होने और अमेरिका के स्वदेशी लोगों (जैसा कि पुराने विश्व मानकों के अनुसार माना जाता है) का शोषण करने का इरादा शामिल था। इसका परिणाम यह हुआ कि नई दुनिया का उपनिवेशीकरण विनाशकारी था: देशी लोग यूरोपीय तकनीक, निर्दयता, या उनकी बीमारियों के लिए कोई मुकाबला नहीं थे, जिन्होंने स्वदेशी आबादी को नष्ट कर दिया।

स्वदेशी आबादी के स्पेनिश उपचार ने एक भयंकर बहस का कारण बना, वेलाडोलिड विवाद, इस बात पर कि क्या भारतीयों के पास आत्माएं हैं और यदि हां, तो क्या वे मानव जाति के मूल अधिकारों के हकदार थे। ए शॉर्ट अकाउंट ऑफ द डिस्ट्रक्शन ऑफ द इंडीज के लेखक बार्टोलोमे डी लास कास ने मूल लोगों के कारणों का समर्थन किया, और सिपुलेवेद ने इसका विरोध किया , जिन्होंने दावा किया कि अमेरिंडियन “प्राकृतिक दास” थे।

रोमन कैथोलिक चर्च स्पेनिश और पुर्तगाली विदेशी गतिविधियों में एक बड़ी भूमिका निभाई। डोमिनिकन, जीसस, और Franciscans, विशेष रूप से फ्रांसिस जेवियर एशिया और में जुनिपेरो सेरा उत्तरी अमेरिका में, इस प्रयास में विशेष रूप से सक्रिय थे। जेसुइट्स द्वारा बनाई गई कई इमारतें अभी भी खड़ी हैं, जैसे मकाऊ में सेंट पॉल का कैथेड्रल और पराग्वे में सेंटिसिमा त्रिनिदाद डी पराना, बाद में जेसुइट रिडक्शन का एक उदाहरण।

कैलिफ़ोर्निया के मिशनों और न्यू मैक्सिको के मिशनों की डोमिनिकन और फ्रांसिस्कन इमारतों को बहाल किया गया है, जैसे सांता बारबरा, कैलिफ़ोर्निया में मिशन सांता बारबरा और रैंचोस डी ताओस, न्यू मैक्सिको में सैन फ्रांसिस्को डी असिस मिशन चर्च। 

उपनिवेशवाद | Colonialism | 15वीं – 20वीं शताब्दी ई.

नक्शा 1750 में अमेरिका पर यूरोपीय शक्तियों द्वारा उपनिवेशित क्षेत्रों को दर्शाता है (उस समय मुख्य रूप से स्पेन, पुर्तगाल और फ्रांस)।

जैसा कि किसी भी उपनिवेशवाद में विशेष रूप से होता है, यूरोपीय या नहीं, पिछले या बाद में, स्पेन और पुर्तगाल दोनों ने अपने नए विदेशी उपनिवेशों से काफी मुनाफा कमाया: नए स्पेन में पोटोसी और ज़ाकाटेकस जैसी खानों से सोने और चांदी से स्पेनिश, विशाल मार्कअप से पुर्तगाली वे व्यापार बिचौलियों के रूप में मज़ा आया, particarlarly दौरान Nanban जापान व्यापार अवधि।

स्पेनिश राजशाही के खजाने में कीमती धातुओं की आमद ने इसे यूरोप में महंगे धार्मिक युद्धों को वित्तपोषित करने की अनुमति दी, जो अंततः इसकी आर्थिक पूर्ववत साबित हुई: धातुओं की आपूर्ति अनंत नहीं थी और बड़े प्रवाह ने मुद्रास्फीति और ऋण का कारण बना, और बाद में यूरोप के बाकी हिस्सों को प्रभावित किया। 

इबेरियन आधिपत्य के लिए उत्तरी यूरोपीय चुनौतियां

अमेरिका के लिए इबेरियन दावों की विशिष्टता को अन्य ऊपर और आने वाली यूरोपीय शक्तियों, मुख्य रूप से नीदरलैंड, फ्रांस और इंग्लैंड द्वारा चुनौती दी गई थी: इन राष्ट्रों के शासकों द्वारा लिया गया विचार फ्रांसिस I के उद्धरण द्वारा उद्धृत किया गया है । फ्रांस ने एडम की वसीयत में नई दुनिया से अपने अधिकार को छोड़कर इस खंड को दिखाने की मांग की।

इस चुनौती ने शुरू में स्पेनिश खजाने के बेड़े या तटीय बस्तियों पर समुद्री हमलों (जैसे फ्रांसिस ड्रेक द्वारा किए गए ) का रूप ले लिया । बाद में उत्तरी यूरोपीय देशों ने अपनी खुद की बस्तियां स्थापित करना शुरू कर दिया, मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में जो स्पेनिश हितों से बाहर थे, जैसे कि अब संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा का पूर्वी समुद्री तट, या कैरिबियन में द्वीप, जैसे अरूबा, मार्टीनिक और बारबाडोस, जिसे स्पेनियों ने मुख्य भूमि और बड़े द्वीपों के पक्ष में छोड़ दिया था। 

जबकि स्पेनिश उपनिवेशवाद के माध्यम से धर्म परिवर्तन और स्थानीय आबादी के शोषण पर आधारित था encomiendas (कई स्पेन अमेरिका में प्रवास अपनी सामाजिक स्थिति तरक्की के लिए, और शारीरिक श्रम में कोई दिलचस्पी नहीं कर रहे थे), उत्तरी यूरोपीय उपनिवेशवाद धार्मिक कारणों से उत्प्रवास उन से बल मिला था ( उदाहरण के लिए, मेफ्लावर यात्रा)।

उत्प्रवास का उद्देश्य कुलीन बनना या अपने विश्वास का प्रसार करना नहीं था बल्कि उपनिवेशवादियों की इच्छा के अनुसार संरचित एक नए समाज की शुरुआत करना था। 17 वीं शताब्दी का सबसे अधिक आबादी वाला प्रवास अंग्रेजी का था, जो डच और फ्रेंच के साथ युद्ध की एक श्रृंखला के बाद वर्तमान संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तट पर तेरह कालोनियों और न्यूफ़ाउंडलैंड और रूपर्ट की भूमि जैसे अन्य उपनिवेशों पर हावी हो गया। कनाडा में अब क्या है। 

हालाँकि, अंग्रेजी, फ्रेंच और डच स्पेनिश और पुर्तगाली की तुलना में लाभ कमाने के लिए अधिक विमुख नहीं थे, और जबकि अमेरिका में उनके निपटान के क्षेत्र स्पेनिश द्वारा पाई जाने वाली कीमती धातुओं, अन्य वस्तुओं और उत्पादों में व्यापार से रहित साबित हुए। जिसे यूरोप में बड़े पैमाने पर लाभ पर बेचा जा सकता था, अटलांटिक को पार करने का एक और कारण प्रदान किया, विशेष रूप से कनाडा से फ़र्स, वर्जीनिया में उगाए जाने वाले तंबाकू और कपास और कैरिबियन और ब्राजील के द्वीपों में चीनी।

स्वदेशी श्रम की भारी कमी के कारण, बागान मालिकों को इन श्रम प्रधान फसलों के लिए जनशक्ति के लिए कहीं और देखना पड़ा। उन्होंने पश्चिम अफ्रीका के सदियों पुराने दास व्यापार की ओर रुख किया और बड़े पैमाने पर अफ्रीकियों को अटलांटिक के पार ले जाना शुरू किया – इतिहासकारों का अनुमान है कि अटलांटिक दास व्यापार 10 से 12 मिलियन काले अफ्रीकी दासों को नई दुनिया में लाया। कैरिबियन के द्वीप जल्द ही अफ्रीकी मूल के दासों द्वारा आबाद होने लगे, जिन पर बागान मालिकों के एक सफेद अल्पसंख्यक द्वारा शासन किया गया था, जो एक भाग्य बनाने में रुचि रखते थे और फिर इसे खर्च करने के लिए अपने देश लौट आए। 

प्रारंभिक उपनिवेशवाद में कंपनियों की भूमिका

शुरू से ही, पश्चिमी उपनिवेशवाद को एक संयुक्त सार्वजनिक-निजी उद्यम के रूप में संचालित किया गया था। अमेरिका के लिए कोलंबस की यात्राओं को आंशिक रूप से इतालवी निवेशकों द्वारा वित्त पोषित किया गया था, लेकिन जबकि स्पेनिश राज्य ने अपने उपनिवेशों के साथ व्यापार पर एक सख्त लगाम बनाए रखी थी (कानून के अनुसार, उपनिवेश केवल मातृ देश में एक निर्दिष्ट बंदरगाह के साथ व्यापार कर सकते थे और खजाना वापस लाया गया था। विशेष काफिलों ), अंग्रेजी, फ्रेंच और डच दी क्या प्रभावी रूप से व्यापार कर रहे थे एकाधिकार करने के लिए संयुक्त स्टॉक कंपनियों जैसे ईस्ट इंडिया कंपनियों और हडसन बे कंपनी। 

इंपीरियल रूस के पास अमेरिका में कोई राज्य प्रायोजित अभियान या उपनिवेश नहीं था, लेकिन उसने पहले रूसी संयुक्त स्टॉक वाणिज्यिक उद्यम, रूसी अमेरिका कंपनी को चार्टर किया था , जिसने अपने क्षेत्रों में उन गतिविधियों को प्रायोजित किया था। 

भारत में यूरोपीय उपनिवेश

भारत में यूरोपीय उपनिवेश का इतिहास काफी पुराना है। प्रारंभिक रूप से, 1498 में पुर्तगाली भारतीय उपमहाद्वीप के कोझीकोड (कॉझिकोड) में अपना पैर रखने के बाद, यूरोपीय यात्री पहली बार भारत में पहुंचे। उनकी यात्रा के बाद, यूरोपीय शक्तियों के बीच मुकाबला शुरू हुआ और विभिन्न देशों के लोग भारत में अपना कब्जा जमाने लगे। डच, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, डेनिश, और अन्य यूरोपीय राष्ट्रों के लोगों ने भारत में प्रवेश किया। धीरे-धीरे, ये यूरोपीय लोग भारतीय राज्यों को अपने अधीन कर लिया और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनका शासन स्थापित किया गया।

1600 में, इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की जो भारत और पूर्वी एशिया के साथ व्यापार करने के लिए बनाई गई थी। 1612 में, अंग्रेज़ सूरत, भारत में पहुंचे। 19वीं शताब्दी तक, अंग्रेज़ ने भारत को नियंत्रित कर लिया था, और वे प्रायः सभी भारतीय राज्यों पर अपना व्यापारिक और सामरिक अधिकार जमाए रखते थे।

यह यूरोपीय उपनिवेश भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसमें यूरोपीय देशों के सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव का पता चलता है। इसके अलावा, यह उपनिवेश भारत और यूरोप के बीच व्यापार, विचार-विमर्श, और सांस्कृतिक आपसी तालमेल के लिए भी महत्वपूर्ण था।

अमेरिका में स्वतंत्रता (1770-1820)

1770 के बाद के पांच दशकों के दौरान, ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल ने अमेरिका में अपनी कई संपत्ति खो दी।

अमेरिका में स्वतंत्रता की लड़ाई (1770-1820) एक महत्वपूर्ण और गर्वशील अध्याय है। इस दौरान अमेरिकी महाद्वीप पर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई चली और अमेरिकी राष्ट्रीयता का निर्माण हुआ। यह युद्ध अमेरिकी क्रांति के मुख्यांशों में से एक था और यह उस समय के आधिकारिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रीयता की आधारशिला रखी गई।

इस दौरान कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं, जिनमें सम्राट जॉर्ज III के आदेश पर अमेरिकी मोहरे की प्रिंटिंग (1770) के विरोध के तहत बोस्टन में चाय के इंग्राजी कोष्ठ को दहन कर दिया गया। यह घटना बोस्टन संक्रमण के रूप में जानी जाती है और यह आरंभिक युद्ध का प्रारंभ माना जाता है।

1776 में, 13 अमेरिकी राज्यों के प्रतिनिधियों ने यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका की घोषणा की और तब से अमेरिकी स्वतंत्रता की लड़ाई एक आधिकारिक रूप लेने लगी। जीवन, स्वतंत्रता, और संपत्ति के अधिकार को लेकर विचारधारा में बदलाव आया और यह संविधान निर्माण के लिए रास्ता खोला।

इसके बाद कई युद्धों और आंदोलनों के दौरान अमेरिकी नेताओं ने अमेरिकी आजादी की लड़ाई को मजबूत किया, जैसे कि सारा टॉग्लबुर्ड, वॉली गाड्सन, नाथान हेल, और जॉन एडम्स। यह लड़ाई 1783 में पेरिस संधि के साथ समाप्त हुई, जिसमें ब्रिटेन ने अमेरिकी स्वतंत्रता को मान्यता दी।

स्वतंत्रता के बाद, अमेरिका ने अपने राष्ट्रीय व्यवस्था को स्थापित किया और 1787 में संविधान की संगठन की। इसके बाद की पचास वर्षों में, देश ने अपने स्वतंत्रता की वास्तविकता को स्थापित करने के लिए आरामदायक राष्ट्रीयतापूर्ण नीतियों को विकसित किया। इस समय में अमेरिका के संविधानिक पिता और विभिन्न राष्ट्रीय नेताओं ने एक नए राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिनमें जॉर्ज वॉशिंगटन, थॉमस ज़ेफरसन, और जॉन मार्शल शामिल थे।

इस पीरियड में स्वतंत्रता के बाद की अमेरिका में एक नई संस्कृति, राष्ट्रीय भावना, और स्वतंत्र वाणी का विकास हुआ। यह दौर संविधानिक सरकार, स्वतंत्र व्यापार, और वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के लिए महत्वपूर्ण था।

इस पीरियड में स्वतंत्रता के बाद की अमेरिका में एक नई संस्कृति, राष्ट्रीय भावना, और स्वतंत्र वाणी का विकास हुआ। यह दौर संविधानिक सरकार, स्वतंत्र व्यापार, और वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के लिए महत्वपूर्ण था।

स्वतंत्रता की इस पहली सदी में, अमेरिका ने अपने आदर्शों और मूल्यों के लिए लड़ाई लड़ी और अपने राष्ट्रीय विकास के लिए महत्वपूर्ण ठोस आधार रखा। यह स्वतंत्रता और आज़ादी के लिए लड़ने का परिणाम रहा और अमेरिका की संवृद्धि और समृद्धि के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।

ब्रिटेन और तेरह उपनिवेश

1763 में सात साल के युद्ध के समापन के बाद , ब्रिटेन दुनिया की प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा था, लेकिन खुद को कर्ज में डूबा हुआ पाया और एक वैश्विक साम्राज्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक नौसेना और सेना को वित्तपोषित करने के लिए संघर्ष कर रहा था। ब्रिटिश संसद उत्तर अमेरिकी उपनिवेशों से उठाने के करों के प्रयास अमेरिकियों के बीच डर है कि के रूप में “अंग्रेजों” उनके अधिकारों, और स्व-शासन के विशेष रूप से उनके अधिकारों, खतरे में थे उठाया।

1765 से, कराधान को लेकर संसद के साथ विवादों की एक श्रृंखला ने अमेरिकी क्रांति का नेतृत्व किया , पहले उपनिवेशों के बीच पत्राचार की अनौपचारिक समितियों के लिए, फिर समन्वित विरोध और प्रतिरोध के लिए, 1770 में एक महत्वपूर्ण घटना, बोस्टन नरसंहार के साथ । यूनाइटेड कालोनियों द्वारा एक स्थायी सेना का गठन किया गया था। और 4 जुलाई 1776 को द्वितीय महाद्वीपीय कांग्रेस द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा की गई थी।

एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ, संयुक्त राज्य अमेरिका, और सभी शाही अधिकारियों को निष्कासित कर दिया गया। अपने दम पर देशभक्तों ने एक ब्रिटिश आक्रमण सेना पर कब्जा कर लिया और फ्रांस ने नए राष्ट्र को मान्यता दी, सैन्य गठबंधन बनाया, ब्रिटेन पर युद्ध की घोषणा की, और बिना किसी प्रमुख सहयोगी के महाशक्ति को छोड़ दिया। अमेरिकी स्वतंत्रता के युद्ध , 1783 तक जारी रहा जब पेरिस की संधि पर हस्ताक्षर किए। ब्रिटेन ने उत्तर में ब्रिटिश संपत्ति, दक्षिण में फ्लोरिडा और पश्चिम में मिसिसिपी नदी से घिरे क्षेत्र पर संयुक्त राज्य की संप्रभुता को मान्यता दी। 

ब्रिटेन के तेरह उपनिवेश (Thirteen Colonies of Britain) एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और भूगोलिक क्षेत्र थे जो 17वीं और 18वीं सदी में उत्तरी अमेरिका में स्थापित किए गए थे। ये उपनिवेश ब्रिटेनी साम्राज्य का हिस्सा थे और बाद में अमेरिकी संघ के गठन के पश्चात् संयुक्त राज्यों का नींव बने।

ये तेरह उपनिवेश निम्नलिखित हैं:

  1. न्यू हैम्पशायर: न्यू हैम्पशायर क्षेत्र मुख्यतः पेशेवर व्यापार, चिड़ियाघर, और मात्स्यिकी के लिए प्रसिद्ध था।
  2. मासाचुसेट्स बे: मासाचुसेट्स बे क्षेत्र में बोस्टन नगर स्थित था जो अंग्रेजी स्वतंत्रता आंदोलन का महत्वपूर्ण केंद्र था।
  3. रोड आइलैंड: यह क्षेत्र गहन व्यापारिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध था और उत्पादन क्षेत्र के रूप में मशहूर था।
  4. कनेटिकट: कनेटिकट क्षेत्र में टेलीग्राफ, पाठशाला, और प्रसारण का विकास हुआ था।
  5. न्यू यार्क: न्यू यार्क नगर इस क्षेत्र का मुख्य केंद्र था और यह वित्तीय, व्यापारिक, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था।
  6. न्यू जर्सी: न्यू जर्सी में उद्यानों, पाठशालाओं, और व्यापारिक गतिविधियों का विकास हुआ था।
  7. पेन्सिलवेनिया: पेन्सिलवेनिया क्षेत्र में खनिज संसाधनों का उत्पादन और वित्तीय क्षेत्र के रूप में महत्वपूर्ण था।
  8. डेलावेयर: डेलावेयर क्षेत्र व्यापारिक और नौकायनिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध था।
  9. मैरिलैंड: मैरिलैंड में नौसेना और उद्यानों का विकास हुआ था।
  10. वर्जीनिया: वर्जीनिया क्षेत्र में गोल्ड खोदने की कार्यशैली और व्यापारिक गतिविधियों का विकास हुआ था।
  11. कारोलाइना: कारोलाइना क्षेत्र में कृषि, वाणिज्यिक गतिविधियाँ, और आयात-निर्यात का विकास हुआ था।
  12. दक्षिण कैरोलाइना: दक्षिण कैरोलाइना क्षेत्र में खनिज संसाधनों और विद्युत संयंत्रों का विकास हुआ था।
  13. जॉर्जिया: जॉर्जिया क्षेत्र में व्यापारिक गतिविधियाँ, सड़कों का निर्माण, और समुद्र यातायात का विकास हुआ था।

ये तेरह उपनिवेश ब्रिटेनी संघ की महत्वपूर्ण संपदा थे और विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और सांस्कृतिक उन्नति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिए। ये उपनिवेश अमेरिकी संघ के गठन की प्रेरणा बने और अमेरिकी क्रांति के महत्वपूर्ण पहलू थे। इनका विलय और संघीय संगठन ने अमेरिकी इतिहास को नया मोड़ दिया और नगरीय राजतंत्र का नींव रखा।

फ्रांस और हाईटियन क्रांति (1791-1804)

हाईटियन क्रांति , एक दास विद्रोह के नेतृत्व में Toussaint Ouverture के फ्रांसीसी उपनिवेश में सेंट Domingue , स्थापित हैती एक नि: शुल्क, काली के रूप में गणतंत्र , अपनी तरह का पहला। हैती दूसरा स्वतंत्र राष्ट्र बन गया जो संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद पश्चिमी गोलार्ध में एक पूर्व यूरोपीय उपनिवेश था।

इस गुलाम समाज में फ्रांसीसी क्रांति के सुधारों को कैसे लागू किया जाए, इस पर गोरों के बीच संघर्ष का लाभ उठाकर अफ्रीकी और अफ्रीकी मूल के लोगों ने खुद को गुलामी और उपनिवेशवाद से मुक्त कर लिया । हालांकि स्वतंत्रता की घोषणा 1804 में की गई थी, लेकिन 1825 तक इसे औपचारिक रूप से फ्रांस के राजा चार्ल्स एक्स द्वारा मान्यता नहीं दी गई थी । 

स्पेन और लैटिन अमेरिका में स्वतंत्रता संग्राम

17वीं शताब्दी के दौरान एक शाही शक्ति के रूप में स्पेन की क्रमिक गिरावट स्पेनिश उत्तराधिकार के युद्ध (1701-14) द्वारा तेज कर दी गई , जिसके परिणामस्वरूप इसने अपनी यूरोपीय शाही संपत्ति खो दी। अमेरिका में स्पेनिश साम्राज्य के लिए मौत की घंटी 1808 में नेपोलियन के इबेरियन प्रायद्वीप पर आक्रमण थी।

स्पेनिश सिंहासन पर अपने भाई जोसेफ की स्थापना के साथ , अमेरिका में मेट्रोपोल और उसके उपनिवेशों के बीच मुख्य टाई, स्पेनिश राजशाही थी। काट दिया गया, जिससे उपनिवेशवादियों ने एक घटते और दूर के देश में उनकी निरंतर अधीनता पर सवाल उठाया। चालीस साल पहले अमेरिकी क्रांति की घटनाओं पर नजर रखते हुए, क्रांतिकारी नेताओं ने स्पेन के खिलाफ स्वतंत्रता के खूनी युद्ध शुरू किए, जिनकी सेनाएं अंततः नियंत्रण बनाए रखने में असमर्थ थीं।

1831 तक, स्पेन को अमेरिका की मुख्य भूमि से बेदखल कर दिया गया था, जो दक्षिण में चिली और अर्जेंटीना से लेकर उत्तर में मैक्सिको तक फैले स्वतंत्र गणराज्यों का एक संग्रह छोड़ गया था। स्पेन की औपनिवेशिक संपत्ति क्यूबा , ​​प्यूर्टो रिको , फिलीपींस और प्रशांत क्षेत्र में कई छोटे द्वीपों तक कम हो गई थी, जिनमें से सभी को 1898 के स्पेनिश-अमेरिकी युद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका से हारना था या उसके तुरंत बाद जर्मनी को बेचना था। 

पुर्तगाल और ब्राजील

लैटिन अमेरिका में ब्राजील एकमात्र ऐसा देश था जिसने बिना रक्तपात के अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की। 1808 में नेपोलियन द्वारा पुर्तगाल पर आक्रमण ने राजा जोआओ VI को ब्राजील भागने और रियो डी जनेरियो में अपना दरबार स्थापित करने के लिए मजबूर किया था । 1821 में पुर्तगाल लौटने तक पुर्तगाल पर13 वर्षों तक ब्राजील (उपनिवेश और महानगर के बीच भूमिकाओं के इस तरह के उलटफेर का एकमात्र उदाहरण) पर शासन किया गया था।

उनके बेटे, डोम पेड्रो को ब्राजील का प्रभारी छोड़ दिया गया था और 1822 में उन्होंने स्वतंत्रता की घोषणा की। पुर्तगाल से और खुद ब्राजील के सम्राट। स्पेन के पूर्व उपनिवेशों के विपरीत, जिन्होंने गणतंत्रवाद के पक्ष में राजशाही को त्याग दिया था, इसलिए ब्राजील ने अपनी राजशाही, हाउस ऑफ ब्रागांजा के साथ अपने संबंध बनाए रखे ।

भारत (1858 से आगे)

1498 में यूरोपीय लोगों के लिए भारत के लिए एक नया समुद्री मार्ग खोजने के लिए वास्को डी गामा की समुद्री सफलता ने प्रत्यक्ष भारत-यूरोपीय वाणिज्य का मार्ग प्रशस्त किया। पुर्तगालियों ने जल्द ही गोवा, दमन, दीव और बॉम्बे में व्यापारिक चौकियां स्थापित कीं।

अगले आने वाले थे डच, अंग्रेज -जिन्होंने 1619 में सूरत के पश्चिमी-तट बंदरगाह में एक व्यापारिक-पोस्ट स्थापित किया- और फ्रांसीसी। भारतीय राज्यों के बीच आंतरिक संघर्षों ने यूरोपीय व्यापारियों को धीरे-धीरे राजनीतिक प्रभाव और उपयुक्त भूमि स्थापित करने का अवसर दिया।

यद्यपि इन महाद्वीपीय यूरोपीय शक्तियों को आने वाली शताब्दी के दौरान दक्षिणी और पूर्वी भारत के विभिन्न क्षेत्रों को नियंत्रित करना था, वे अंततः पांडिचेरी और चंद्रनगर की फ्रांसीसी चौकी , त्रावणकोर में डच बंदरगाह के अपवाद के साथ, भारत में अपने सभी क्षेत्रों को अंग्रेजों से खो देंगे। और गोवा, दमन और दीव के पुर्तगाली उपनिवेश।

भारत में अंग्रेज

अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के लिए 1617 में मुगल बादशाह जहांगीर द्वारा अनुमति दी गई थी।  धीरे-धीरे कंपनी के बढ़ते प्रभाव के नेतृत्व में विधि सम्मत मुगल बादशाह फर्रुख़ सियर उन्हें प्रदान करना dastaks या में शुल्क मुक्त व्यापार के लिए परमिट बंगाल 1717 में  बंगाल के नवाब सिराज उद दौला , वास्तविक बंगाल के शासक प्रांत ने इन परमिटों का उपयोग करने के ब्रिटिश प्रयासों का विरोध किया। यह करने के लिए नेतृत्व प्लासी की लड़ाई 1757 में, जिसमें सेनाओं ईस्ट इंडिया कंपनी, के नेतृत्व में रॉबर्ट क्लाइव, नवाब की सेना को हरा दिया।

यह भारत में अंग्रेजों द्वारा हासिल किए गए क्षेत्रीय निहितार्थों के साथ पहला राजनीतिक पैर जमाने वाला था। क्लाइव को कंपनी ने १७५७ में बंगाल के पहले गवर्नर के रूप में नियुक्त किया था। इसे मद्रास, वांडीवाश और पांडिचेरी में फ्रांसीसी पर ब्रिटिश जीत के साथ जोड़ा गया था, साथ ही सात साल के युद्ध के दौरान व्यापक ब्रिटिश सफलताओं के साथ, फ्रांसीसी प्रभाव को कम कर दिया था।

भारत में। 1764 में बक्सर की लड़ाई के बाद, कंपनी ने मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय से बंगाल में प्रशासन के नागरिक अधिकार हासिल कर लिए इसने अपने औपचारिक शासन की शुरुआत को चिह्नित किया, जो अंततः भारत के अधिकांश हिस्से को निगलना था और एक सदी से भी कम समय में मुगल शासन और राजवंश को समाप्त करना था।  

ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया। उन्होंने स्थायी बंदोबस्त नामक एक भूमि कराधान प्रणाली की शुरुआत की जिसने बंगाल में एक सामंती जैसी संरचना ( जमीरदारी ) की शुरुआत की।

1850 के दशक तक, ईस्ट इंडिया कंपनी ने अधिकांश भारतीय उप-महाद्वीप को नियंत्रित किया, जिसमें वर्तमान पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल थे । विभिन्न रियासतों और सामाजिक और धार्मिक समूहों के बीच पनप रही दुश्मनी का फायदा उठाते हुए उनकी नीति को कभी-कभी फूट डालो और राज करो के रूप में अभिव्यक्त किया गया था ।

ब्रिटिश कंपनी के उच्च हाथ वाले शासन के खिलाफ पहला बड़ा आंदोलन 1857 के भारतीय विद्रोह में हुआ , जिसे “भारतीय विद्रोह” या “सिपाही विद्रोह” या “स्वतंत्रता का पहला युद्ध” भी कहा जाता है। एक साल की उथल-पुथल के बाद, और ब्रिटिश सैनिकों के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों के सुदृढीकरण के बाद, कंपनी ने विद्रोह पर काबू पा लिया। विद्रोह के नाममात्र के नेता, अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को बर्मा में निर्वासित कर दिया गया था, उनके बच्चों का सिर काट दिया गया था और मुगल वंश को समाप्त कर दिया गया था।

इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी से सारी शक्ति ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरित कर दी गई , जिसने भारत के अधिकांश हिस्से को एक उपनिवेश के रूप में प्रशासित करना शुरू कर दिया; कंपनी की भूमि को सीधे नियंत्रित किया जाता था और शेष को रियासतों के शासकों के माध्यम से नियंत्रित किया जाता था । अगस्त 1947 में जब भारतीय उपमहाद्वीप को ब्रिटेन से आजादी मिली तब 565 रियासतें थीं। 

ब्रिटिश राज की अवधि के दौरान , भारत में अकाल , अक्सर अल नीनो सूखे और असफल सरकारी नीतियों के लिए जिम्मेदार थे, 1876-78 के महान अकाल सहित कुछ सबसे खराब रिकॉर्ड किए गए थे, जिसमें 6.1 मिलियन से 10.3 मिलियन लोग मारे गए थे और 1899-1900 का भारतीय अकाल , जिसमें 1.25 से 10 लाख लोग मारे गए।  तीसरा प्लेग महामारी से 19 वीं सदी के मध्य में चीन में शुरू किया था, सभी बसे हुए महाद्वीपों को प्लेग फैल रहा है और अकेले भारत में 10 लाख लोग मारे गए। लगातार बीमारियों और अकालों के बावजूद, भारतीय उपमहाद्वीप की जनसंख्या , जो 1750 में लगभग 1225 मिलियन थी, 1941 तक 389 मिलियन तक पहुंच गई थी। 

भारत में अन्य यूरोपीय साम्राज्य

अन्य यूरोपीय उपनिवेशवादियों की तरह, फ्रांसीसी ने 1668 में सूरत में एक कारखाने की स्थापना के साथ वाणिज्यिक गतिविधियों के माध्यम से अपना उपनिवेश बनाना शुरू किया। 1673 में फ्रांसीसियों ने भारत में बसना शुरू कर दिया, मुगल गवर्नर से चंद्रनगर में भूमि की खरीद के साथ शुरुआत की।

बंगाल का, उसके बाद अगले वर्ष बीजापुर के सुल्तान से पांडिचेरी का अधिग्रहण। दोनों ही भारत में फ्रांसीसियों द्वारा संचालित समुद्री वाणिज्यिक गतिविधियों के केंद्र बन गए। फ्रांसीसियों के पास माहे, करिकल और यानाओम में भी व्यापारिक पद थे। ताहिती और मार्टीनिक की स्थिति के समान, फ्रांसीसी औपनिवेशिक प्रशासनिक क्षेत्र द्वीपीय था, लेकिन, भारत में, फ्रांसीसी अधिकार ब्रिटिश-प्रभुत्व वाले क्षेत्र की परिधि पर अलग-थलग था।

अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत तक, फ्रांसीसी अंग्रेजों के प्रमुख यूरोपीय प्रतिद्वंद्वी बन गए थे। अठारहवीं शताब्दी के दौरान, भारतीय उपमहाद्वीप के लिए फ्रांसीसी नियंत्रण के आगे घुटने टेकना बहुत संभव था, लेकिन सात साल के युद्ध (1756-1763) में उन्हें हुई हार ने स्थायी रूप से फ्रांसीसी महत्वाकांक्षाओं को कम कर दिया। १७६३ की पेरिस की संधि ने मूल पांच को फ्रांसीसी के लिए बहाल कर दिया, जबकि यह स्पष्ट कर दिया कि फ्रांस इन क्षेत्रों से परे अपने नियंत्रण का विस्तार नहीं कर सकता है। [49]

भारत पर पुर्तगालियों के कब्जे की शुरुआत 20 मई 1498 को कालीकट के पास वास्को डी गामा के आगमन से होती है। इसके तुरंत बाद, अन्य खोजकर्ता, व्यापारी और मिशनरियों ने पीछा किया। 1515 तक, पुर्तगाली हिंद महासागर में सबसे मजबूत नौसैनिक शक्ति थे और मालाबार तट पर उनका प्रभुत्व था। 

नया साम्राज्यवाद (1870-1914)

1870 के दशक (लगभग स्वेज नहर और दूसरी औद्योगिक क्रांति का उद्घाटन ) और 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के फैलने के बीच यूरोपीय औपनिवेशिक विस्तार की नीति और विचारधारा को अक्सर ” नया साम्राज्यवाद ” के रूप में जाना जाता है । इस अवधि को “साम्राज्य की खातिर साम्राज्य”, विदेशी क्षेत्रीय अधिग्रहण के लिए आक्रामक प्रतिस्पर्धा और नस्लीय श्रेष्ठता के सिद्धांतों के उपनिवेशवादी देशों में उभरने की एक अभूतपूर्व खोज से अलग किया गया है, जिसने स्व-सरकार के लिए अधीनस्थ लोगों की फिटनेस से इनकार किया। 

इस अवधि के दौरान, यूरोप की शक्तियों ने अपनी विदेशी औपनिवेशिक संपत्ति में लगभग 8,880,000 वर्ग मील (23,000,000 वर्ग मील) जोड़ा। चूंकि यह 1880 के दशक के अंत तक पश्चिमी शक्तियों के कब्जे में नहीं था, इसलिए अफ्रीका “नए” साम्राज्यवादी विस्तार ( अफ्रीका के लिए हाथापाई के रूप में जाना जाता है ) का प्राथमिक लक्ष्य बन गया , हालांकि विजय अन्य क्षेत्रों में भी हुई – विशेष रूप से दक्षिण-पूर्व एशिया और पूर्वी एशियाई समुद्री तट, जहां जापान यूरोपीय शक्तियों के क्षेत्र के लिए हाथापाई में शामिल हो गया। 

बर्लिन सम्मेलन (1884-1885) ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के बीच शाही प्रतियोगिता औपनिवेशिक दावों के अंतरराष्ट्रीय मान्यता के लिए मापदंड के रूप में “प्रभावी कब्जे” को परिभाषित करने और लगाने को संहिताबद्ध, मध्यस्थता प्रत्यक्ष शासन , सशस्त्र बल के माध्यम से आम तौर पर पूरा किया।

जर्मनी में, बढ़ते पैन- जर्मनवाद को ऑलड्यूश वर्बैंड (“पैंजरमैनिक लीग”) में साम्राज्यवाद के साथ जोड़ा गया , जिसने तर्क दिया कि ब्रिटेन की विश्व शक्ति की स्थिति ने अंतरराष्ट्रीय बाजारों पर ब्रिटिशों को अनुचित लाभ दिया, इस प्रकार जर्मनी के आर्थिक विकास को सीमित कर दिया और इसकी सुरक्षा को खतरा पैदा कर दिया। 

यह पूछने पर कि क्या कॉलोनियों ने भुगतान किया, आर्थिक इतिहासकार ग्रोवर क्लार्क एक जोरदार “नहीं!” का तर्क देते हैं। वह रिपोर्ट करता है कि हर मामले में समर्थन लागत, विशेष रूप से उपनिवेशों के समर्थन और बचाव के लिए आवश्यक सैन्य प्रणाली उनके द्वारा उत्पादित कुल व्यापार से अधिक है। ब्रिटिश साम्राज्य के अलावा, वे अतिरिक्त आबादी के आप्रवास के लिए पसंदीदा स्थान नहीं थे। 

अफ्रीका के लिए हाथापाई

अफ्रीका में उपनिवेशवाद

अमेरिका और एशिया के बाद यूरोपीय उपनिवेशवाद की तीसरी लहर का लक्ष्य अफ्रीका था। कई यूरोपीय राजनेता और उद्योगपति अफ्रीका के लिए हाथापाई को तेज करना चाहते थे , इससे पहले कि उन्हें उनकी सख्त जरूरत थी, उपनिवेशों को सुरक्षित कर लिया।

रियलपोलिटिक के एक चैंपियन के रूप में , बिस्मार्क ने उपनिवेशों को नापसंद किया और सोचा कि वे समय की बर्बादी कर रहे हैं, लेकिन उनका हाथ अभिजात वर्ग और सामान्य आबादी दोनों के दबाव से मजबूर था, जो उपनिवेशवाद को जर्मन प्रतिष्ठा के लिए एक आवश्यकता मानते थे।

टोगोलैंड, समोआ, दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका और न्यू गिनी में जर्मन उपनिवेशों में कॉर्पोरेट वाणिज्यिक जड़ें थीं, जबकि पूर्वी अफ्रीका और चीन में समकक्ष जर्मन-प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में राजनीतिक उद्देश्यों के लिए अधिक बकाया था। अंग्रेजों ने अफ्रीका में भी दिलचस्पी ली, पूर्वी अफ्रीका कंपनी का उपयोग करके अब केन्या और युगांडा पर कब्जा कर लिया । ब्रिटिश ताज ने औपचारिक रूप से 1895 में पदभार संभाला और इस क्षेत्र का नाम बदलकर ईस्ट अफ्रीका प्रोटेक्टोरेट कर दिया।

बेल्जियम के लियोपोल्ड II ने व्यक्तिगत रूप से 1885 से 1908 तक कांगो मुक्त राज्य का स्वामित्व किया, जब देशी श्रमिकों के अपमानजनक व्यवहार के बारे में अंतरराष्ट्रीय घोटाले के दौर के बाद बेल्जियम सरकार को पूर्ण स्वामित्व और जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर किया गया। डच साम्राज्य धारण करने के लिए जारी रखा डच ईस्ट इंडीज, जो कुछ लाभदायक विदेशी उपनिवेशों से एक था।

उसी तरह, इटली ने 1899-90, इरिट्रिया और 1899 में सोमालीलैंड को प्राप्त करते हुए, ” सूर्य में अपनी जगह ” को जीतने की कोशिश की , और ” यूरोप के बीमार आदमी ” का लाभ उठाते हुए , ओटोमन साम्राज्य ने त्रिपोलिटानिया और साइरेनिका पर भी विजय प्राप्त की।

(आधुनिक लीबिया ) 1911 की लॉज़ेन की संधि के साथ। इथियोपिया की विजय , जो अंतिम अफ्रीकी स्वतंत्र क्षेत्र बना हुआ था, को 1935-36 में द्वितीय इटालो-एबिसिनियन युद्ध ( 1895-96 में पहला इटालो-इथियोपियाई युद्ध इटली के लिए हार में समाप्त हो गया था) तक इंतजार करना पड़ा।

पुर्तगाली और स्पेनिश औपनिवेशिक साम्राज्य छोटे थे, ज्यादातर अतीत उपनिवेशन की विरासत। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में लैटिन अमेरिकी क्रांतियों के दौरान उनके अधिकांश उपनिवेशों ने स्वतंत्रता हासिल कर ली थी।

एशिया में साम्राज्यवाद

एशिया में, द ग्रेट गेम , जो 1813 से 1907 तक चला, ने मध्य एशिया में वर्चस्व के लिए इंपीरियल रूस के खिलाफ ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध किया । पहले और दूसरे अफीम युद्ध (1839-1842, 1856-1860) से शुरू होकर चीन पश्चिमी प्रभाव के लिए खुला था । 1852-1854 में कमोडोर मैथ्यू पेरी की यात्राओं के बाद , जापान ने मीजी अवधि (1868-1912) के दौरान पश्चिमी दुनिया के लिए खुद को खोल दिया ।

साम्राज्यवाद बर्मा, इंडोनेशिया (नीदरलैंड ईस्ट इंडीज), मलाया और फिलीपींस में भी हुआ। बर्मा लगभग सौ वर्षों से ब्रिटिश शासन के अधीन था, हालाँकि, इसे हमेशा “शाही बैकवाटर” माना जाता था। यह इस तथ्य के लिए जिम्मेदार है कि बर्मा की स्पष्ट औपनिवेशिक विरासत नहीं है और यह राष्ट्रमंडल का हिस्सा नहीं है। शुरुआत में, 1820 के दशक के मध्य में, बर्मा को ब्रिटेन के जलडमरूमध्य बस्तियों में पिनांग से प्रशासित किया गया था।

हालांकि, इसे जल्द ही ब्रिटिश भारत के भीतर लाया गया, जिसका यह 1937 तक एक हिस्सा बना रहा।  बर्मा को भारत के एक प्रांत के रूप में शासित किया गया था, जिसे बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना जाता था, और बर्मा की राजनीतिक संस्कृति या संवेदनशीलता के लिए बमुश्किल कोई आवास बनाया गया था। जैसे ही सुधारों ने भारत को स्वतंत्रता की ओर ले जाना शुरू किया, बर्मा को आसानी से घसीटा गया। 

अंतर-युद्ध काल (1918-1939)

प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के बाद, जर्मन साम्राज्य और ओटोमन साम्राज्य की हार के पश्चात नए सीमांकन के माध्यम से आपसी समझौता हुआ। इसके परिणामस्वरूप, कई कोलोनियों को नई स्थापित नेशन्स लीग में स्थानांतरित कर दिया गया, जिससे इन विजयी देशों की स्थानिक शक्ति बहाल की गई।

साइक्स-पिको समझौता (1916) के माध्यम से मध्य पूर्व क्षेत्र को ब्रिटेन और फ्रांस के बीच विभाजित कर दिया गया। सामझौते के तहत, फ्रांस ने सीरिया और लेबनान को प्राप्त किया, जबकि इराक और फिलिस्तीन को अंग्रेजों ने हासिल किया।

1922 में, अरबी प्रायद्वीप का बड़ा हिस्सा सऊदी अरब में एक स्वतंत्र साम्राज्य के रूप में स्थापित किया गया। पश्चिमी तेल कंपनियों द्वारा आसानी से पहुंचने वाले कच्चे तेल के भंडार की खोज के कारण, यह क्षेत्र अत्यंत समृद्ध हुआ और उसके पश्चात 1970 के दशक तक पश्चिमी आर्थिक आधिपत्य पर नियंत्रण रखा।

यह तेल संपदा राज्यों को बहुत सामरिक, राजनैतिक और आर्थिक शक्ति प्रदान करने में मदद करती रही है। 1920 और 1930 के दशक में, इराक, सीरिया और मिस्र में स्वतंत्रता की आंदोलन शक्ति बढ़ी, हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश और फ्रांसीसी सत्ता स्थानिक रूप से इस क्षेत्र से वापस नहीं हटे, जब तक उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं किया गया।

जापानी साम्राज्यवाद

जापान के लिए, उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध आंतरिक उथल-पुथल का काल था, जिसके बाद तीव्र विकास का दौर आया। पश्चिमी प्रभाव के लिए सदियों तक बंद रहने के बाद, जापान को संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा खुद को मीजी युग (1868-1912) के दौरान पश्चिम के लिए खोलने के लिए मजबूर किया गया था ,

जिसमें तेजी से आधुनिकीकरण और यूरोपीय संस्कृति से उधार (कानून, विज्ञान, आदि) इसने, बदले में, जापान को आधुनिक शक्ति बनाने में मदद की, जो कि अब है, जिसे 1904-1905 के रुसो-जापानी युद्ध के रूप में जल्द ही प्रतीक बनाया गया था : इस युद्ध ने एक यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्ति के खिलाफ एक एशियाई शक्ति की पहली जीत को चिह्नित किया, और यूरोपीय आबादी के बीच व्यापक भय पैदा हुआ।

२०वीं शताब्दी के पहले भाग के दौरान, जबकि चीन अभी भी विभिन्न यूरोपीय साम्राज्यवादों के अधीन था, जापान एक साम्राज्यवादी शक्ति बन गया, जिसने इसे ” ग्रेटर ईस्ट एशिया सह-समृद्धि क्षेत्र ” कहा।

1894 में संधियों के अंतिम संशोधन के साथ, जापान को पश्चिमी राज्यों के साथ समानता के आधार पर राष्ट्रों के परिवार में शामिल माना जा सकता है। उसी समय से साम्राज्यवाद जापानी नीति में एक प्रमुख मकसद बन गया।

जापान ने 1895 से कोरिया और ताइवान पर शासन किया और शासन किया जब शिमोनोसेकी की संधि 1945 में संपन्न हुई जब जापान हार गया। 1910 में, कोरिया को औपचारिक रूप से जापानी साम्राज्य में मिला लिया गया था । कोरियाई के अनुसार, कोरिया का जापानी उपनिवेशीकरण विशेष रूप से क्रूर था, यहां तक ​​कि २०वीं सदी के मानकों के अनुसार भी। इस क्रूर उपनिवेश में कोरियाई ” आरामदायक महिलाओं ” का उपयोग शामिल था, जिन्हें जापानी सेना के वेश्यालयों में सेक्स स्लेव के रूप में सेवा करने के लिए मजबूर किया गया था। 

1931 में मंचूरिया में स्थित जापानी सेना इकाइयों ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण कर लिया और मंचुकुओ के कठपुतली राज्य का निर्माण किया । 1937 में चीन के साथ पूर्ण पैमाने पर युद्ध हुआ, जिसने जापान को एशियाई आधिपत्य (ग्रेटर ईस्ट एशिया को-समृद्धि क्षेत्र) के लिए एक अति महत्वाकांक्षी बोली की ओर आकर्षित किया, जिसके कारण अंततः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हार हुई और इसके सभी विदेशी क्षेत्रों का नुकसान हुआ (जापानी विस्तारवाद देखें) और जापानी राष्ट्रवाद)। कोरिया की तरह, चीनी लोगों के साथ जापानी व्यवहार विशेष रूप से क्रूर था जैसा कि नानजिंग नरसंहार द्वारा उदाहरण दिया गया था। 

दूसरा उपनिवेशवाद (1945-99)

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों ने गति प्राप्त करना शुरू कर दिया था, जिसने औपनिवेशिक सैनिकों को महानगरों के साथ-साथ लड़ते हुए देखा था, और चौदह बिंदुओं पर अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन का भाषण । हालांकि, यह द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक नहीं था कि वे पूरी तरह से जुटाए गए थे।

ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल और अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट के 1941 अटलांटिक चार्टर ने घोषणा की कि हस्ताक्षरकर्ता “सभी लोगों के सरकार के रूप को चुनने के अधिकार का सम्मान करेंगे जिसके तहत वे रहेंगे”। हालांकि चर्चिल ने बाद में दावा किया कि यह केवल ब्रिटिश साम्राज्य के बजाय नाजी कब्जे के तहत उन देशों पर लागू होता है, शब्दों को इतनी आसानी से वापस नहीं लिया गया था: उदाहरण के लिए, ब्रिटेन की सबसे महत्वपूर्ण उपनिवेश, भारत की विधान सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया था कि चार्टर चाहिए उस पर भी लागू करें। 

1945 में, संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की स्थापना तब हुई जब 50 देशों ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर हस्ताक्षर किए ,  जिसमें समान अधिकारों और लोगों के आत्मनिर्णय के सिद्धांत के संबंध में इसके आधार का एक बयान शामिल था। 1952 में, जनसांख्यिकीविद् अल्फ्रेड सॉवी ने फ्रांसीसी थर्ड एस्टेट के संदर्भ में ” थर्ड वर्ल्ड ” शब्द गढ़ा । 

अभिव्यक्ति ने उन राष्ट्रों को प्रतिष्ठित किया जिन्होंने शीत युद्ध के दौरान न तो पश्चिम और न ही सोवियत ब्लॉक के साथ गठबंधन किया था । बाद के दशकों में, उपनिवेशवाद इस समूह को मजबूत करेगा जिसका संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व किया जाने लगा।

तीसरी दुनिया का पहला अंतरराष्ट्रीय कदम 1955 बांडुंग सम्मेलन था , जिसका नेतृत्व भारत के लिए जवाहरलाल नेहरू , मिस्र के लिए जमाल अब्देल नासिर और यूगोस्लाविया (Yugoslavia) के लिए जोसिप ब्रोज़ टीटो ने किया था । दुनिया की आधी से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले 29 देशों को इकट्ठा करने वाले इस सम्मेलन ने 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का निर्माण किया।

यद्यपि अमेरिका ने पहले खुद को औपनिवेशिक साम्राज्यों का विरोध किया था, तीसरी दुनिया में सोवियत प्रभाव के बारे में शीत युद्ध की चिंताओं ने इसे लोकप्रिय संप्रभुता और उपनिवेशवाद की वकालत को कम करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार फ्रांस को प्रथम इंडोचीन युद्ध (1946-54) में वित्तीय सहायता मिली और अमेरिका ने अल्जीरियाई स्वतंत्रता संग्राम (1954–62) में हस्तक्षेप नहीं किया।

औपनिवेशीकरण अपने आप में एक रुक-रुक कर चलने वाली प्रक्रिया थी। 1960 में, कई देशों को स्वतंत्रता मिलने के बाद, संयुक्त राष्ट्र 99 सदस्य देशों तक पहुँच गया था: अफ्रीका का विघटन लगभग पूरा हो चुका था। 1980 में, संयुक्त राष्ट्र में 154 सदस्य देश थे, और 1990 में, नामीबिया की स्वतंत्रता के बाद , 159 राज्य। 1997 और 1999 में हांगकांग और मकाऊ ने संप्रभुता चीन को हस्तांतरित कर दी और अंततः यूरोपीय औपनिवेशिक युग का अंत हो गया।

सोवियत संघ और चीन की भूमिका

सोवियत संघ और चीन की भूमिका

सोवियत संघ उपनिवेशवाद आंदोलनों और दुनिया भर में कम्युनिस्ट पार्टियों कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की निंदा की एक मुख्य समर्थक थे।  जबकि बांडुंग 1955 सम्मेलन के बाद 1961 में बनाया गया गुटनिरपेक्ष आंदोलन , माना जाता है कि तटस्थ था, “तीसरी दुनिया” “प्रथम” और “द्वितीय” दुनिया, भू-राजनीतिक चिंताओं के साथ-साथ दोनों के विरोध में थी।

अपने नाटो यूरोपीय सहयोगियों के खिलाफ उपनिवेशवाद से मुक्ति आंदोलनों का समर्थन करने के लिए अमेरिका के इनकार ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को पूर्व की ओर तेजी से देखने के लिए प्रेरित किया। हालांकि, माओत्से तुंग के नेतृत्व में विश्व पटल पर चीन की उपस्थिति ने दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों में सोवियत और चीनी गुटों के बीच दरार पैदा कर दी, जो सभी साम्राज्यवाद का विरोध करते थे।

क्यूबा , सोवियत वित्त पोषण के साथ, अंगोला और मोज़ाम्बिक में वामपंथी स्वतंत्रता आंदोलनों में मदद करने के लिए लड़ाकू सैनिकों को भेजता है ।

विश्व स्तर पर, जवाहरलाल नेहरू (भारत), जोसिप ब्रोज़ टीटो (यूगोस्लाविया, आज के समय सर्बिआ और 5 अलग देश ), और जमाल अब्देल नासिर (मिस्र) के नेतृत्व में गठित गटनीरपेक्ष आंदोलन ने राष्ट्रों का एक ऐसा ब्लॉक बनाने की कोशिश की जो न तो संयुक्त राज्य अमेरिका और न ही सोवियत संघ पर निर्भर हो। हालांकि, अंततः सोवियत संघ की ओर झुक गया, जबकि छोटे स्वतंत्रता आंदोलनों, दोनों राजनीतिक आवश्यकताओं और वैचारिक प्राथमिकताओं के आधार पर, मॉस्को या बीजिंग के समर्थन में थे।

कुछ स्वतंत्रता आंदोलन विदेशी सहायता से पूरी तरह स्वतंत्र थे। 1960 और 1970 के दशक में, लियोनिद ब्रेज़नेव और माओ ज़ेडॉन्ग ने उन नई अफ्रीकी सरकारों को प्रभावशाली समर्थन दिया, जो कई एक-पक्षीय समाजवादी राज्य बन गए।

उत्तर उपनिवेशवाद

उत्तर-उपनिवेशवाद एक शब्द है जिसका उपयोग उपनिवेशवाद के बाद की अवधि में उपनिवेशवाद की निरंतर और परेशान करने वाली स्थिति और प्रभाव को पहचानने के लिए किया जाता है। यह शब्द वर्तमान दुनिया की परिचित संरचनाओं (सामाजिक, राजनीतिक, स्थानिक, असमान वैश्विक अन्योन्याश्रयता) को आकार देने में औपनिवेशिक मुठभेड़ों, बेदखली और सत्ता के चल रहे प्रभावों को संदर्भित करता है। उत्तर-उपनिवेशवाद अपने आप में उपनिवेशवाद के अंत पर प्रश्नचिह्न की भूमिका निभाता है।

उपनिवेशों का अन्त

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवादी प्रणाली का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो गया। अक्टूबर क्रांति के बाद, जो 1917 में रूस में हुई थी, व्यापक रूप से उपनिवेशवादी प्रणाली की अवशोषणा की शुरुआत हुई। 1945 के बाद, अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर उपनिवेशवाद के विरोधी प्रभाव हो गए थे। अमेरिका और सोवियत संघ ने इस दौरान पुराने प्रकार के उपनिवेशवाद का विरोध किया और आत्मनिर्धार के सिद्धांत को समर्थन किया। इस अवधि में यूरोप की स्थिति बेहद कमजोर थी।

दूरस्थ उपनिवेशों की आर्थिक लागतों को उठाने के कारण, संयुक्त राष्ट्र संघ ने विभिन्न राष्ट्रवादी आंदोलनों के प्रभाव में हो रहे उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया। इसके परिणामस्वरूप, 1947 से 1980 तक ब्रिटेन ने भारत, बर्मा, घाना, मलया और जिम्बाब्वे का कब्जा छोड़ना पड़ा।

इसी दौरान, 1949 में डच साम्राज्यवादियों को इंडोनेशिया से हटना पड़ा और पुर्तगाल ने 1974-75 में अपने उपनिवेशों को अफ्रीका में आज़ाद कर दिया। 1954 में इंडो-चीन क्षेत्र और 1962 में अल्जीरिया के रक्तरंजित संघर्ष के कारण फ़्रांस को घुटने टेकने पड़े। 1960 के दशक में भारत के प्रांत गोवा को पुर्तगाल ने अपने कब्ज़े से छोड़ दिया।


इन्हें भी देखें –

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