अपभ्रंश भाषा (तृतीय प्राकृत): इतिहास, विशेषताएँ, वर्गीकरण और काल निर्धारण

भारतीय आर्यभाषा-परिवार के इतिहास में अपभ्रंश भाषा का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह भाषा संस्कृत और प्राकृत जैसी प्राचीन भाषाओं तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के बीच की एक कड़ी के रूप में विकसित हुई। अपभ्रंश न तो पूर्णतः प्राकृत है और न ही आधुनिक भाषाओं के समान, परंतु दोनों के बीच संक्रमण की यह स्थिति भारतीय भाषाई विकास को समझने में आधारशिला का कार्य करती है। विद्वानों ने इस भाषा को ‘संधिकालीन भाषा’ (Transitional Language) की संज्ञा दी है।

अपभ्रंश को न केवल भाषा के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना गया है, बल्कि यह साहित्यिक दृष्टि से भी एक समृद्ध परंपरा का वाहक है। संस्कृत और प्राकृत साहित्य की तुलना में अपभ्रंश साहित्य में जन-जीवन, भावनाएँ और लोक संस्कृति अधिक स्पष्ट रूप में प्रकट होती हैं।

अपभ्रंश का समय काल

भाषाविदों के अनुसार, अपभ्रंश भाषा का समय काल लगभग 500 ई. से 1000 ई. तक का माना जाता है। यह वह काल है जब प्राकृत भाषाएँ धीरे-धीरे जनसंचार की भाषा बनने से हट रही थीं और उनके स्थान पर अपभ्रंश भाषाएँ उभर रही थीं। इस काल में अपभ्रंश भाषाओं का प्रयोग आम जनमानस में बढ़ गया था, और साहित्यिक रचनाएँ भी अपभ्रंश में लिखी जाने लगी थीं।

इस काल के बाद, 11वीं शताब्दी के बाद से धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषाएँ भी परिवर्तित होकर आधुनिक आर्य भाषाओं के रूप में सामने आने लगीं, जैसे कि हिन्दी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी आदि।

‘अपभ्रंश’ शब्द की उत्पत्ति एवं प्रयोग

‘अपभ्रंश’ शब्द का मूल संस्कृत से है, जिसका अर्थ होता है – भ्रष्ट या विकृत रूप। प्रारंभिक भाषा-वैज्ञानिकों और साहित्यकारों ने इस शब्द का प्रयोग ऐसे शब्दों और भाषिक रूपों के लिए किया जो संस्कृत या प्राकृत के मानक स्वरूप से भिन्न और विकृत प्रतीत होते थे।

प्राचीन ग्रंथों में अपभ्रंश का उल्लेख:

  1. भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग मिलता है। उन्होंने लिखा: “शब्दसंस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते।
    तमपभ्रंश मिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशिनम्॥
  2. पतंजलि के ‘महाभाष्य’ में भी ‘अपभ्रंश’ का प्रयोग ‘अपशब्द’ के समानार्थी रूप में किया गया है: “भयां सोऽपशब्दाः अल्पीयांसाः शब्दाः इति।
    एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽप्रभंशाः।
  3. भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में अपभ्रंश को ‘विभ्रष्ट’ कहा गया है।
  4. डॉ. भोलानाथ तिवारी और डॉ. उदयनारायण तिवारी के अनुसार, भाषा के अर्थ में ‘अपभ्रंश’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग 6वीं शताब्दी में चण्ड ने अपने ग्रंथ ‘प्राकृत लक्षण’ में किया।
  5. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रमाणिक प्रयोग बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जहाँ उन्होंने अपने पिता गुहसेन को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश का कवि बताया।

अपभ्रंश का साहित्यिक स्थान और मान्यता

प्राचीन साहित्य में अपभ्रंश को एक साहित्यिक भाषा के रूप में भी मान्यता प्राप्त हुई। कई आचार्यों ने इसे संस्कृत और प्राकृत के साथ एक महत्वपूर्ण काव्योपयोगी भाषा बताया:

  1. भामह (काव्यालंकार): “संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा।
  2. आचार्य दण्डी (काव्यादर्श): “तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृत प्राकृतं तथा।।
    अपभ्रंशश्च मिश्रञ्चेत्याहुशर्याश्चतुर्विधम्।
  3. उन्होंने अपभ्रंश को ‘आभीर’ भी कहा: “आभीरादि गिरथः काव्येष्वपभ्रंशः इति स्मृताः।
  4. आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने अपभ्रंश को ‘ण–ण भाषा’ कहा है, क्योंकि इस भाषा में ण ध्वनि का अत्यधिक प्रयोग हुआ।

अपभ्रंश के अन्य नाम

भाषा के इस संक्रमणकालीन रूप को विभिन्न नामों से जाना गया:

  • विभ्रष्ट
  • आभीर
  • अवहंस
  • अवहट्ट
  • पटमंजरी
  • अवहत्थ
  • औहट
  • अवहट आदि।

इन सभी नामों में भाषा की विविधता और क्षेत्रीयता की झलक मिलती है।

अपभ्रंश के भेद अथवा प्रकार

विभिन्न भाषाविदों ने अपभ्रंश के भिन्न-भिन्न भेद बताए हैं। यह वर्गीकरण भौगोलिक, सामाजिक या भाषिक आधारों पर किया गया है:

विद्वानअपभ्रंश के प्रकार
नमि साधुउपनागर, आभीर, ग्राम्य
मार्कण्डेयनागर, उपनागर, व्राचड
याकोबीपूर्वी, पश्चिमी, दक्षिणी, उत्तरी
तागरेपूर्वी, पश्चिमी, दक्षिणी
नामवर सिंहपूर्वी, पश्चिमी

डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी की मान्यता:

डॉ. चटर्जी ने अपभ्रंश को एक ‘स्थिति’ (stage) माना है। उनके अनुसार, प्रत्येक प्राकृत भाषा का एक अपना अपभ्रंश रूप रहा होगा, जैसे:

  • मागधी प्राकृत → मागधी अपभ्रंश
  • अर्धमागधी प्राकृत → अर्धमागधी अपभ्रंश
  • शौरसेनी प्राकृत → शौरसेनी अपभ्रंश
  • महाराष्ट्री प्राकृत → महाराष्ट्री अपभ्रंश

अपभ्रंश की ध्वनियाँ एवं वर्ण वर्गीकरण

डॉ. उदयनारायण तिवारी ने अपभ्रंश की ध्वनियों का निम्नलिखित वर्गीकरण किया:

स्वर (10 कुल):

  • ह्रस्व: अ, इ, उ, एँ, ओं
  • दीर्घ: आ, ई, ऊ, ए, ओ

व्यंजन (30 कुल):

  • कण्ठ्य: क, ख, ग, घ (4)
  • तालव्य: च, छ, ज, झ (4)
  • मूर्धन्य: ट, ठ, ड, ढ, ण (5)
  • दन्त्य: त, थ, द, ध, न (पूर्वी अपभ्रंश में प्रमुख) (5)
  • ओष्ठ्य: प, फ, ब, भ, म (5)
  • अन्तस्थ: य, र, ल, व (श – पूर्वी अपभ्रंश) (5)
  • ऊष्म: स, ह (2)

अपभ्रंश की भाषिक विशेषताएँ

अपभ्रंश भाषा की कुछ महत्त्वपूर्ण भाषिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  1. उकार बहुलता: इस भाषा में ‘उ’ ध्वनि का अत्यधिक प्रयोग मिलता है। इसीलिए इसे ‘उकार बहुला भाषा’ कहा गया।
  2. वियोगात्मकता: अपभ्रंश में विभक्तियों का प्रयोग कम होने लगा और उनके स्थान पर परसर्गों का प्रयोग बढ़ा।
  3. वचन और लिंग: इसमें केवल दो वचन (एकवचन और बहुवचन) और दो लिंग (पुल्लिंग और स्त्रीलिंग) पाए जाते हैं।
  4. स्वतंत्र व्याकरणीय रचना: अपभ्रंश की व्याकरणिक रचना प्राकृत से स्वतंत्र और अधिक लोचदार है।
  5. ध्वनि परिवर्तनों की प्रधानता: इसमें ध्वनि परिवर्तन अत्यंत स्वाभाविक रूप में होते हैं, जिससे नए शब्दों की रचना होती है।
  6. लिंग और वचन के चिह्नों का लोप: कई बार पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के बीच का अंतर धुंधला हो जाता है।
  7. समासों का विघटन: संस्कृत की तुलना में अपभ्रंश में समास कम होते हैं और टुकड़ों में वाक्य गठन होता है।

अपभ्रंश और अवहट्ट

‘अवहट्ट’ अपभ्रंश का ही परवर्ती रूप है। यह भाषा अपभ्रंश से विकसित होकर आधुनिक आर्य भाषाओं की ओर अग्रसर होती है। इस संबंध में डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने कहा है कि:

अवहट्ट आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं और अपभ्रंश के बीच की अंतिम अवस्था है।

‘अवहट्ट’ शब्द का प्रथम प्रयोग ज्योतिष्वर ठाकुर द्वारा ‘वर्णरत्नाकर’ ग्रंथ में मिलता है। इसका प्रयोग उन साहित्यिक काव्यों में होता है जो अपभ्रंश से आधुनिकता की ओर बढ़ रहे होते हैं।

निष्कर्ष

अपभ्रंश भाषा भारतीय भाषिक इतिहास का एक अभिन्न चरण है। यह भाषा एक ओर संस्कृत और प्राकृत जैसी उच्च और शास्त्रीय भाषाओं की परंपरा से जुड़ी हुई है, तो दूसरी ओर यह आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी भी है। साहित्य, व्याकरण, ध्वनि विज्ञान और सामाजिक दृष्टिकोण से इसका अध्ययन अत्यंत आवश्यक और उपयोगी है।

इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह भाषा अपने समय की जनसामान्य की भाषा थी, जिसमें लोक जीवन की झलक, सामाजिक परिवर्तन, और भाषाई विकास स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इसी कारण अपभ्रंश को केवल ‘भ्रष्ट रूप’ के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र और सृजनशील भाषा के रूप में देखा जाना चाहिए।


अंततः, अपभ्रंश भाषा ने भारतीय आर्यभाषाओं को जो स्वरूप दिया है, वह हमारी भाषिक सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है। संस्कृत की शास्त्रीयता और आधुनिक भाषाओं की जनप्रियता के बीच पुल बनाने का जो कार्य अपभ्रंश ने किया, वह अति महत्त्वपूर्ण है। अतः इसे भाषा विकास का संक्रमण नहीं, वरन् उत्थान मानना चाहिए।


अपभ्रंश भाषा पर प्रश्नोत्तरी

🔹 भाग – 1: वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Questions)

प्रश्न 1. अपभ्रंश भाषा का काल किस अवधि में माना जाता है?
a) 200 ई. – 500 ई.
b) 1000 ई. – 1500 ई.
c) 500 ई. – 1000 ई.
d) 1500 ई. – 1800 ई.

उत्तर: c) 500 ई. – 1000 ई.

प्रश्न 2. ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रथम प्रमाणिक प्रयोग कहाँ मिलता है?
a) वाक्यपदीयम्
b) काव्यादर्श
c) महाभाष्य
d) वर्णरत्नाकर

उत्तर: c) महाभाष्य

प्रश्न 3. अपभ्रंश भाषा को “ण–ण भाषा” किसने कहा?
a) भामह
b) दण्डी
c) किशोरीदास वाजपेयी
d) नामवर सिंह

उत्तर: c) किशोरीदास वाजपेयी

प्रश्न 4. ‘वर्णरत्नाकर’ ग्रंथ में ‘अवहट्ट’ शब्द का प्रयोग किसने किया?
a) रामचंद्र शुक्ल
b) ज्योतिष्वर ठाकुर
c) भर्तृहरि
d) याकोबी

उत्तर: b) ज्योतिष्वर ठाकुर

प्रश्न 5. निम्नलिखित में से कौन-सी ध्वनि ऊष्म वर्ग में आती है?
a) ट
b) स
c) ब
d) ल

उत्तर: b) स

प्रश्न 6. डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने किसे अपभ्रंश और आधुनिक आर्य भाषाओं की कड़ी बताया है?
a) प्राकृत
b) अवहट्ट
c) संस्कृत
d) विभ्रष्ट

उत्तर: b) अवहट्ट

प्रश्न 7. अपभ्रंश में कितने वचन होते हैं?
a) एक
b) दो
c) तीन
d) चार

उत्तर: b) दो

भाग – 2: लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 8. ‘अपभ्रंश’ शब्द का अर्थ क्या है?

उत्तर:
‘अपभ्रंश’ का अर्थ होता है – संस्कृत के मानक रूप से हटे हुए, संस्कारहीन, भ्रष्ट या विकृत भाषा-रूप।

प्रश्न 9. अपभ्रंश भाषा की दो प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर:

  1. अपभ्रंश को ‘उकार बहुला’ भाषा कहा गया है क्योंकि इसमें ‘उ’ ध्वनि का अत्यधिक प्रयोग होता है।
  2. यह वियोगात्मक भाषा है – विभक्तियों के स्थान पर परसर्गों का प्रयोग होने लगता है।

प्रश्न 10. अपभ्रंश के तीन अन्य नाम लिखिए।

उत्तर:
विभ्रष्ट, अवहट्ट, आभीर

प्रश्न 11. अपभ्रंश भाषा का प्रथम प्रयोग किस व्याकरणाचार्य ने किया था?

उत्तर:
भर्तृहरि ने ‘वाक्यपदीयम्’ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया, लेकिन इसका प्रथम प्रमाणिक प्रयोग पतंजलि के ‘महाभाष्य’ में मिलता है।

भाग – 3: दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 12. अपभ्रंश भाषा की प्रमुख विशेषताओं को विस्तार से समझाइए।

उत्तर:
अपभ्रंश भाषा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  1. उकार बहुलता – इसमें ‘उ’ ध्वनि का अत्यधिक प्रयोग होता है।
  2. वियोगात्मकता – विभक्तियों का प्रयोग कम होता है और स्वतन्त्र परसर्गों का प्रचलन बढ़ता है।
  3. दो वचन और दो लिंग – केवल एकवचन व बहुवचन और पुल्लिंग व स्त्रीलिंग का प्रयोग होता है।
  4. ध्वनि परिवर्तन – ध्वनियाँ स्वाभाविक रूप से बदलती हैं, जिससे शब्दों के रूप बदलते हैं।
  5. समासों की कमी – संस्कृत की अपेक्षा अपभ्रंश में समासों की संख्या कम है।
  6. लोकजीवन की अभिव्यक्ति – यह भाषा जनसामान्य की भाषा थी, जिसमें सामाजिक जीवन का अधिक वर्णन हुआ।
  7. व्याकरण में सरलता – अपभ्रंश व्याकरण में जटिलता नहीं होती, यह सरल और प्रयोगात्मक है।

प्रश्न 13. अपभ्रंश का वर्गीकरण विभिन्न विद्वानों द्वारा किस प्रकार किया गया है?

उत्तर:
विभिन्न विद्वानों द्वारा अपभ्रंश के वर्गीकरण निम्नलिखित हैं:

  • नमि साधु – उपनागर, आभीर, ग्राम्य
  • मार्कण्डेय – नागर, उपनागर, व्राचड
  • याकोबी – पूर्वी, पश्चिमी, दक्षिणी, उत्तरी
  • तागरे – पूर्वी, पश्चिमी, दक्षिणी
  • नामवर सिंह – पूर्वी, पश्चिमी

डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी के अनुसार, प्रत्येक प्राकृत का एक अपभ्रंश रूप रहा – मागधी प्राकृत → मागधी अपभ्रंश आदि।

प्रश्न 14. अपभ्रंश से आधुनिक आर्य भाषाओं के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
अपभ्रंश भाषा 6वीं से 11वीं शताब्दी तक मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है। यह भाषा संस्कृत और प्राकृत से विकसित होकर धीरे-धीरे अवहट्ट में बदली और अंततः आधुनिक भाषाओं का जन्म हुआ। उदाहरण के लिए:

  • अर्धमागधी अपभ्रंश → प्राचीन हिंदी (खड़ी बोली)
  • महाराष्ट्री अपभ्रंश → मराठी
  • शौरसेनी अपभ्रंश → ब्रज, कन्नौजी आदि
  • मागधी अपभ्रंश → भोजपुरी, मगही, मैथिली आदि

इस प्रकार, अपभ्रंश ने आधुनिक भारतीय भाषाओं की नींव रखी।


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