हिंदी साहित्य के इतिहास में 10वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी तक के काल को आदिकाल कहा जाता है, जिसे वीरगाथा काल के नाम से भी जाना जाता है। यह कालखंड भारतीय साहित्यिक परंपरा में अपनी ऐतिहासिकता, वीररस और धार्मिकता की प्रवृत्तियों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। “आदिकाल” की संज्ञा सर्वप्रथम सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दी थी, जबकि अन्य विद्वानों ने इसे विभिन्न नामों से संबोधित किया—ग्रियर्सन ने इसे चारण काल, मिश्र बंधु ने प्रारंभिक काल, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल, आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल, राहुल सांकृत्यायन ने सामंतकाल और रामकुमार वर्मा ने इसे संधिकाल व चारण काल कहा।
इस काल की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियाँ धार्मिकता, वीरगाथात्मकता और श्रृंगारिकता रही हैं। इस युग में रचित साहित्य मुख्यतः वीरता, ऐतिहासिक घटनाओं और नायक-नायिकाओं के आदर्श चरित्रों पर आधारित था। चंदबरदाई का “पृथ्वीराज रासो”, नरपति नाल्ह का “बीसलदेव रासो”, दलपत विजय का “खुमान रासो” जैसे ग्रंथों ने इस युग की पहचान को सशक्त किया। भाषाई दृष्टि से इस युग में राजस्थानी मिश्रित अपभ्रंश, मैथिली मिश्रित अपभ्रंश, तथा खड़ी बोली मिश्रित देशभाषा का प्रयोग हुआ। यह काल केवल वीरता और शौर्य की गाथाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें सिद्ध, नाथ, जैन, चारण और प्रकीर्णक साहित्य जैसे विविध साहित्यिक रूपों का भी योगदान रहा। आदिकाल का साहित्य न केवल हिंदी साहित्य की जड़ों को प्रकट करता है, बल्कि भारतीय संस्कृति और इतिहास को भी प्रतिबिंबित करता है।
आदिकाल (वीरगाथा काल) का परिचय | 1000 ई० -1350 ई०
हिंदी साहित्य का प्रारंभिक काल जिसे ‘आदिकाल’ कहा जाता है, लगभग 10वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक माना जाता है। यह काल हिंदी भाषा के उद्भव और विकास का प्रारंभिक चरण था, जिसमें साहित्यिक रचनाएँ मुख्यतः वीरगाथात्मक, धार्मिक और श्रृंगारिक प्रवृत्तियों पर आधारित थीं। इस काल को लेकर विद्वानों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ रही हैं।
आदिकाल की विभिन्न संज्ञाएँ
विभिन्न विद्वानों ने इस युग को अलग-अलग नामों से संबोधित किया है:
- जॉर्ज ग्रियर्सन ने इसे “चारण काल” कहा।
- मिश्र बंधु ने इसे “प्रारंभिक काल” कहा।
- महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे “बीज वपन काल” कहा।
- आचार्य शुक्ल ने इसे “वीरगाथा काल” की संज्ञा दी।
- राहुल सांकृत्यायन ने इसे “सामंत काल” कहा।
- रामकुमार वर्मा ने इसे “संधिकाल व चारण काल” कहा।
- हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे सीधे “आदिकाल” नाम से ही संबोधित किया।
इन नामों से यह स्पष्ट होता है कि इस काल की प्रकृति विविध रही है, किंतु सभी इस बात पर सहमत हैं कि यह युग हिंदी साहित्य का आदिकाल था।
आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
आदिकाल में तीन प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं:
- धार्मिकता
- वीरगाथात्मकता
- श्रृंगारिकता
इन प्रवृत्तियों ने इस काल के साहित्य को स्वरूप प्रदान किया और विभिन्न काव्य रूपों को जन्म दिया। इनमें से वीरगाथात्मक साहित्य को सर्वाधिक प्रमुखता प्राप्त हुई।
आदिकालीन रचनात्मक प्रवृत्तियाँ और काव्य-रूप
आदिकाल का साहित्यिक परिदृश्य मुख्यतः तीन प्रमुख रचनात्मक प्रवृत्तियों में विभाजित किया जा सकता है:
- ऐतिहासिक काव्य-रचनाएँ (वीरगाथात्मकता)
- शृंगारपरक काव्य-रचनाएँ (श्रृंगारिकता)
- लौकिक काव्य-रचनाएँ (धार्मिकता)
इन तीनों प्रवृत्तियों में ऐतिहासिक काव्य-रचनाएँ अर्थात वीरगाथात्मकता आदिकाल की सबसे प्रमुख विशेषता रही है। इस प्रवृत्ति में कवियों ने ऐतिहासिक व्यक्तियों, विशेषकर राजाओं और वीरों, को केंद्र में रखकर काव्य-निर्माण किया। इनमें उनके शौर्य, पराक्रम और वीरत्व का प्रायः अतिशयोक्तिपूर्ण एवं भावनात्मक चित्रण किया गया है।
वीरगाथात्मक साहित्य आदिकाल में दो रूपों में मिलता है:
- प्रबंधकाव्य के साहित्यिक रूप में – यह लंबी और विस्तृत रचनाएँ होती थीं, जिनमें कथा के रूप में राजा या वीर के जीवन और युद्धों का क्रमबद्ध चित्रण किया जाता था। इस प्रवृत्ति का सबसे प्रमुख उदाहरण है चंदबरदाई द्वारा रचित “पृथ्वीराज रासो”, जिसे आदिकाल का प्रथम महाकाव्य भी माना जाता है।
- वीरगीतों के रूप में – ये छोटी, गेय और लोकभाषा में रचित रचनाएँ होती थीं, जो प्रायः मौखिक परंपरा से जुड़ी होती थीं। इस शैली का प्रतिनिधि ग्रंथ है नरपति नाल्ह की रचना “वीसलदेव रासो”, जिसमें बीसलदेव जैसे वीर नरेशों के पराक्रम का जीवंत चित्रण मिलता है।
इस प्रकार, आदिकालीन काव्य-रचना न केवल साहित्यिक सौंदर्य की दृष्टि से समृद्ध थी, बल्कि यह ऐतिहासिक घटनाओं, राजाओं के शौर्य और सामाजिक मूल्यों का महत्वपूर्ण दस्तावेज भी सिद्ध होती है।
आदिकालीन भाषा की विशेषताएँ
इस युग की भाषा पूर्णतः विकसित हिंदी नहीं थी, अपितु हिंदी की पूर्ववर्ती बोलियों और अपभ्रंश के मिश्रण से उत्पन्न रूपों में थी। प्रमुख भाषिक प्रवृत्तियाँ थीं:
- राजस्थानी मिश्रित अपभ्रंश (डिंगल): वीरगाथात्मक रासक ग्रंथों में डिंगल भाषा का प्रयोग अधिक मिलता है।
- मैथिली मिश्रित अपभ्रंश: विद्यापति की पदावली और कीर्तिलता में यह भाषा स्पष्ट दिखाई देती है।
- खड़ीबोली मिश्रित देशभाषा: अमीर खुसरो की पहेलियों, मुकरियों और अन्य रचनाओं में इसका सुंदर प्रयोग मिलता है।
आदिकालीन साहित्य के प्रमुख रूप
आदिकाल का साहित्य मुख्यतः चार प्रकार में विभाजित किया गया है:
- सिद्ध-साहित्य तथा नाथ-साहित्य
- जैन-साहित्य
- चारण-साहित्य
- प्रकीर्णक साहित्य
1. सिद्ध-साहित्य और नाथ-साहित्य
सिद्ध-साहित्य:
सिद्ध कवि बौद्ध धर्म की वज्रयानी शाखा से संबंधित थे। ये कवि धार्मिक परंपराओं से अलग निरीश्वरवादी और लौकिक दृष्टिकोण रखते थे। प्रमुख सिद्ध कवियों में सरहप्पा, शबरप्पा, लुइप्पा, डोम्भिप्पा, कुक्कुरिप्पा (कणहपा) आदि प्रमुख हैं। सरहप्पा को प्रथम सिद्ध कवि माना जाता है।
नाथ-साहित्य:
नाथ-साहित्य आदिकालीन हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण धारा है, जिसका उद्भव सिद्धों के महासुखवाद के विरोधस्वरूप हुआ। इस परंपरा के प्रमुख प्रवर्तक गोरखनाथ माने जाते हैं, जिन्हें मिश्र बंधुओं ने हिंदी का प्रथम गद्य लेखक भी कहा है। नाथ पंथ का प्रभाव विशेष रूप से भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में देखने को मिलता है, जहाँ इसकी आध्यात्मिक और काव्य-परंपरा ने गहरी जड़ें जमाईं।
नाथ कवि मूलतः ईश्वरवादी थे। वे ईश्वर को घट-घट वासी, सर्वव्यापक और गुरु-स्वरूप मानते थे। इन्होंने योगमार्ग को जीवन-साधना का माध्यम बनाया और बाह्याडंबरों, नारी भोग, तथा वर्णाश्रम व्यवस्था का खुलकर विरोध किया। उन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाए गए पंचमकारों (मांस, मदिरा, मीन, मुद्रा, मैथुन) का भी खंडन किया और कठोर योग-साधना एवं संयम के जीवन को महत्व दिया।
नाथों की कुल संख्या नौ मानी जाती है, लेकिन इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध व्यक्ति गोरखनाथ हैं। इनकी प्रमुख रचना “गोरखबाणी” के नाम से जानी जाती है, जो योग, भक्ति और जीवन-दर्शन से परिपूर्ण है।
नाथ और सिद्ध, दोनों परंपराएँ हिंदी साहित्य के प्रारंभिक विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जहाँ सिद्ध कवियों की रचनाओं में काव्यात्मकता और लौकिक वैराग्य का स्वर मिलता है, वहीं नाथ साहित्य में आध्यात्मिक साधना, योग और गुरु-भक्ति की स्पष्ट प्रधानता दिखाई देती है। इन दोनों ने मिलकर हिंदी साहित्य को विषय-वस्तु और भाषा की दृष्टि से गहराई और विविधता प्रदान की।
2. जैन-साहित्य
जैसे बौद्ध साहित्य प्राचीन भारत की धार्मिक और सामाजिक स्थिति का दर्पण है, वैसे ही जैन साहित्य भी ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैन ग्रंथ मुख्यतः प्राकृत और संस्कृत में लिखे गए थे।
जैन ग्रंथों को ‘आगम’ कहा जाता है, जिनकी संख्या 12 मानी जाती है। इन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, 1 नंदि सूत्र, 1 अनुयोगद्वार और 4 मूलसूत्र सम्मिलित हैं। ये ग्रंथ श्वेतांबर परंपरा के आचार्यों द्वारा महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद रचित माने जाते हैं।
जैन साहित्य के गहन अध्येता अगरचंद नाहटा थे, जिन्होंने इस क्षेत्र में विशेष योगदान दिया।
3. चारण-साहित्य
चारण कवि राजाओं के दरबारों में रहते थे और युद्धों में भाग लेकर उनके शौर्य की गाथा रचते थे। इनकी रचनाओं में वीर रस और श्रृंगार रस की प्रमुखता पाई जाती है।
चारण साहित्य की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें ऐतिहासिक घटनाओं को वीरगाथात्मक शैली में अतिशयोक्ति के साथ वर्णित किया जाता था।
प्रमुख चारण रचनाएँ:
- पृथ्वीराज रासो – चंदबरदाई द्वारा रचित।
- बीसलदेव रासो – नरपति नाल्ह द्वारा रचित।
- खुमान रासो – दलपतविजय द्वारा रचित।
- आल्ह खंड – जगनिक द्वारा रचित।
डिंगल भाषा चारण साहित्य की विशिष्ट भाषा थी। राजस्थान, गुजरात, ब्रज और दिल्ली क्षेत्र में यह साहित्य प्रचलित था। ब्राह्मण, भट्ट, बन्दीजन आदि भी इस साहित्यिक परंपरा से जुड़े हुए थे।
4. प्रकीर्णक साहित्य
इस श्रेणी में वे रचनाएँ आती हैं जो चारण, जैन या सिद्ध परंपरा से भिन्न हैं, किंतु अपने विशेष काव्य सौंदर्य के कारण आदिकालीन साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं।
प्रमुख प्रकीर्णक कवि:
- अमीर खुसरो – खड़ी बोली में रचना करने वाले पहले कवि माने जाते हैं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ और कह-मुकरी शैली की रचनाएँ प्रसिद्ध हैं।
- विद्यापति – मैथिल कवि जिन्हें ‘अभिनव जयदेव’ कहा जाता है। उनकी पदावली श्रृंगारिकता की पराकाष्ठा है।
- अब्दुल रहमान – संदेश रासक के रचयिता, जिसमें प्रेम का सरस चित्रण मिलता है।
अपभ्रंश काव्य: हिंदी साहित्य का संक्रमण काल
हिंदी साहित्य के इतिहास में आठवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का समय अपभ्रंश काव्य का काल माना जाता है। यह काल संस्कृत और प्राचीन प्राकृत भाषाओं से विकसित हो रही हिंदी भाषा का संक्रमण काल था। इस समय अपभ्रंश भाषा साहित्य-सृजन का एक प्रमुख माध्यम बन गई थी और संपूर्ण भारतवर्ष में इसी भाषा में रचनाएँ हो रही थीं।
अपभ्रंश काव्य में धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक विषयों की प्रधानता रही। इस काल के साहित्य में मुख्यतः जैन धर्म के आदर्शों और सिद्धांतों का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयंभू माने जाते हैं। इन्होंने ‘रामायण’ की रचना की, जिसे अपभ्रंश साहित्य की एक उल्लेखनीय कृति माना जाता है। इसी प्रकार पुष्यदंत की रचना ‘महापुराण’ भी अपभ्रंश साहित्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इन दोनों ग्रंथों को न केवल हिंदी साहित्य में, बल्कि समस्त भारतीय साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त है।
अन्य महत्वपूर्ण अपभ्रंश कवियों में धनपाल, चंदमुनि, सरहपा, कण्हपा, हेमचंद्र, जिंदत्त, शालिभद्र, राजशेखर तथा अब्दुल रहमान जैसे रचनाकारों के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके काव्य में आध्यात्मिकता, नीति, भक्ति और रहस्यवाद का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
इसके अतिरिक्त, शाङ्गधर की ‘हम्मीर रासो’ तथा विद्यापति की ‘कीर्ति लता’, ‘कीर्ति पताका’, ‘पदावली’ और ‘गंगाकाव्यावली’ जैसे ग्रंथ भी इसी कालखंड में रचे गए और अपभ्रंश तथा आरंभिक हिंदी साहित्य के मध्य सेतु का कार्य करते हैं।
अपभ्रंश हिंदी के ठीक पूर्ववर्ती साहित्यिक भाषा थी। अपभ्रंश साहित्य ने भाषा और विषय दोनों स्तरों पर हिंदी को एक समृद्ध आधार प्रदान किया, जिससे आगे चलकर खड़ी बोली, ब्रज और अवधी जैसी प्रमुख हिंदी बोलियों का विकास संभव हुआ।
अपभ्रंश काव्य के प्रमुख कवि:
- स्वयंभू – प्रथम अपभ्रंश कवि।
- पुष्यदंत – ‘महापुराण’ के रचयिता।
- धनपाल, चंदमुनि, जिनदत्त, हेमचंद्र, शालिभद, कण्हपा, सरहपा – अन्य उल्लेखनीय कवि।
अपभ्रंश साहित्य में दो महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं:
- स्वयंभू रचित रामायण
- पुष्पदंत कृत महापुराण
देशभाषा काव्य: रासो साहित्य की वीरगाथात्मक परंपरा
हिंदी साहित्य के आदिकाल में देशभाषा में रचे गए वीरगाथात्मक साहित्य को सामूहिक रूप से ‘रासो साहित्य’ कहा जाता है। यह काव्य परंपरा भारत की लोकसंस्कृति, क्षेत्रीय भाषाओं और जनश्रुति पर आधारित है, जिसमें वीरों की गाथाएँ, युद्धकथाएँ और राजाओं के पराक्रम का वृहद चित्रण मिलता है। देशभाषा काव्य लोकगीतों, वीरगीतों और ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरित होता था, और इसमें वीर रस का विशेष महत्व था। इस साहित्य में प्रयुक्त छंद जैसे – आल्हा, दोहा, रासा, तोमर, नाराच, अरिल्ल, आदि उस युग की काव्यात्मकता को दर्शाते हैं।
1. आल्हखण्ड / परमाल रासो
‘आल्हखण्ड’ जिसे परमाल रासो भी कहा जाता है, देशभाषा काव्य की सबसे प्रसिद्ध कृति मानी जाती है। इसके रचयिता जगनिक माने जाते हैं, जो 1173 ई. में चंदेल राजा परमाल (1165–1203 ई.) के समकालीन थे। यह काव्य बुंदेलखंड के दो महान वीरों – आल्हा और ऊदल के 52 युद्धों की गाथा का वीररसपूर्ण चित्रण करता है। आल्हा छंद में रचित यह काव्य मध्यभारत में अत्यंत लोकप्रिय रहा।
जगनिक महोबा के जिझौतिया नायक परिवार से थे। उन्होंने एक ऐसे वीरगीतात्मक काव्य की रचना की जिसे जनता ने व्यापक रूप से अपनाया। हालांकि मूल ग्रंथ अब लुप्त है, किंतु इसकी कई बोलियों में विभिन्न संस्करण उपलब्ध हैं। 1865 ई. में फर्रूखाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने ‘आल्हखण्ड’ का संग्रह कराया जिसमें जिहुती हिंदवी भाषा का प्रमुखता से प्रयोग हुआ है।
2. खुमान रासो
‘खुमान रासो’ की रचना दलपत विजय नामक कवि ने की थी। यह ग्रंथ नवीं शताब्दी की रचना मानी जाती है और इसमें चित्तौड़ के नरेश खुमान के युद्धों का वर्णन है। यह वीरगाथात्मक ग्रंथ राजस्थानी हिंदी में लिखा गया है और इसमें दोहा, सवैया और कवित्त जैसे छंदों का प्रयोग हुआ है। इसकी प्रामाणिक पांडुलिपि पूना के संग्रहालय में सुरक्षित है और इसमें वीरता के साथ-साथ श्रृंगार रस का भी प्रयोग हुआ है। यह ग्रंथ लगभग 5000 छंदों का है।
3. बीसलदेव रासो
‘बीसलदेव रासो’ पुरानी पश्चिमी राजस्थानी की एक विशिष्ट वीरगाथा है। इसके रचयिता नरपति नाल्ह हैं, जो स्वयं को कभी ‘नरपति’ और कभी ‘नाल्ह’ नाम से संबोधित करते हैं। यह ग्रंथ चौदहवीं शताब्दी विक्रमी की रचना मानी जाती है। इसमें राजा बीसलदेव के जीवन, युद्धों और नाट्य-कौशल का वर्णन है। बीसलदेव संस्कृत के ज्ञाता थे और उन्होंने ‘हरकेलिविजय’ नामक संस्कृत नाटक शिलालेखों पर खुदवाया था। उनके दरबारी कवि सोमदेव ने ‘ललित विग्रह’ नामक नाटक की रचना की थी।
4. पृथ्वीराज रासो
‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी साहित्य का प्रथम महाकाव्य माना जाता है और इसके रचयिता चंदबरदाई (1148–1192 ई.) को हिंदी का प्रथम महाकवि माना जाता है। वे दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि और सामंत थे। यह ग्रंथ पृथ्वीराज की वीरता, शौर्य और मुहम्मद गोरी के साथ हुए युद्धों का अतिशयोक्तिपूर्ण और रोचक वर्णन करता है।
5. रणमल्ल छंद
‘रणमल्ल छंद’ की रचना श्रीधर नामक कवि ने 1397 ई. में की थी। इसमें राठौर राजा रणमल्ल की पाटन के सूबेदार जफर खां पर प्राप्त विजय का वर्णन किया गया है। यह काव्य भी वीररस प्रधान है और युद्ध की नाटकीयता को उभारता है।
6. जयचंदप्रकाश और जयमयंक जसचंद्रिका
इन दोनों ग्रंथों की रचना क्रमशः भट्ट केदार और मधुकर कवि द्वारा की गई थी। ये ग्रंथ राजा जयचंद के पराक्रम और प्रताप पर आधारित महाकाव्य थे। दुर्भाग्यवश ये दोनों काव्य आज उपलब्ध नहीं हैं। इनका उल्लेख दयालदास द्वारा रचित ‘राठौड़ाँ री ख्यात’ में मिलता है, जो बीकानेर के राजपुस्तक भंडार में सुरक्षित है। दयालदास ने कन्नौज तक की घटनाओं का वर्णन इन्हीं ग्रंथों के आधार पर किया है।
देशभाषा काव्य (रासो साहित्य) की मुख्य रचनाएँ:
- आल्ह खंड (परमाल रासो):
- जगनिक द्वारा रचित।
- बुंदेलखंड के सेनापति आल्हा और ऊदल की 52 लड़ाइयों का वर्णन।
- वीर रस की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध।
- आल्हा छंद का प्रमुख प्रयोग।
- पृथ्वीराज रासो:
- चंदबरदाई द्वारा रचित।
- दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की वीरता का चित्रण।
- हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है।
- बीसलदेव रासो:
- नरपति नाल्ह द्वारा रचित।
- प्रतापी राजा बीसलदेव के जीवन और वीरता की गाथा।
- खुमान रासो:
- दलपतविजय द्वारा रचित।
- चित्तौड़ नरेश खुमान के युद्धों और विवाहों का वर्णन।
- रणमल्ल छंद (1397 ई.):
- श्रीधर द्वारा रचित।
- राजा रणमल्ल की विजय का वर्णन।
- जयचंद प्रकाश और जयमयंक जस चंद्रिका:
- क्रमशः भट्ट केदार और मधुकर कवि द्वारा रचित महाकाव्य।
- राजा जयचंद की वीरता पर केंद्रित।
देशभाषा काव्य, विशेषतः रासो साहित्य, हिंदी के प्रारंभिक विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। इन ग्रंथों में न केवल वीर रस की प्रधानता है, बल्कि तत्कालीन समाज, भाषा, राजनीति और सांस्कृतिक चेतना का सजीव चित्रण भी मिलता है। आल्हा, पृथ्वीराज, बीसलदेव, खुमान जैसे पात्रों के माध्यम से यह साहित्य युगीन चेतना को अभिव्यक्त करता है और लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है।
आदिकाल की फुटकर रचनाएँ: विविधता और भाषा-प्रयोग की आरंभिक झलकियाँ
हिंदी साहित्य के आदिकाल (1000–1350 ई.) को अक्सर वीरगाथा और प्रबंध काव्य के युग के रूप में देखा जाता है, लेकिन इस काल में कुछ ऐसी फुटकर और विविध रचनाएँ भी मिलती हैं जो न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि उस समय की लोकभाषा, बोलचाल, सामाजिक संदर्भों और रचनात्मक प्रवृत्तियों की झलक भी प्रस्तुत करती हैं।
इस काल की फुटकर रचनाएँ मुख्यतः दो महत्त्वपूर्ण कवियों से जुड़ी हैं — अमीर खुसरो (1253–1325 ई.) और विद्यापति (1350–1448 ई.)। ये दोनों कवि आदिकाल के उत्तरार्ध में सक्रिय रहे और इन्होंने हिंदी की देशज भाषाओं में रचनाएँ कर साहित्य को नई दिशा दी।
1. अमीर खुसरो की फुटकर रचनाएँ
अमीर खुसरो दिल्ली सल्तनत के प्रसिद्ध कवि, संगीतकार, सूफ़ी और बहुभाषाविद् थे। उन्होंने अरबी, फ़ारसी, तुर्की के साथ-साथ हिंदवी (प्राचीन हिंदी) में भी सृजन किया। उनकी रचनाओं में जनभाषा की सजीवता, लोकगीतों का रस और उत्तर भारत की बोलियों का स्पष्ट प्रभाव मिलता है।
मुख्य फुटकर रचनाएँ:
- पहेलियाँ: खुसरो की पहेलियाँ सरल, रोचक और जनजीवन से जुड़ी होती हैं। इनमें प्रतीकों और रूपकों के माध्यम से दैनिक जीवन की वस्तुओं और घटनाओं को अभिव्यक्त किया गया है।
उदाहरण:
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा।
(उत्तर – आसमान) - मुकरी: यह एक रोचक शैली है जिसमें प्रश्नकर्ता किसी चीज़ का वर्णन करता है और उत्तरदाता को भ्रमित करता है। इसमें हास्य, बौद्धिक चुनौती और मौखिक परंपरा का अद्भुत मिश्रण मिलता है।
- दो सखुन: इन रचनाओं में दो पंक्तियों के माध्यम से गहरे अर्थ और व्यंग्य छिपे होते हैं। यह लोकसंवाद शैली का एक प्रकार है जिसमें प्रश्न और उत्तर की परंपरा होती है।
इन रचनाओं में पश्चिम भारत और दिल्ली क्षेत्र की लोकबोलियों का उपयोग हुआ है, जिससे हमें उस समय की भाषा, संस्कृति और जनमानस की गहराई से समझ मिलती है।
2. विद्यापति की पदावली
विद्यापति मिथिला (वर्तमान बिहार) के महान मैथिली कवि थे, जिन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश और मैथिली में रचनाएँ कीं। उनकी ‘पदावली’ श्रृंगार और भक्ति का ऐसा संकलन है जिसमें पूरब की लोकबोली, भावप्रवणता और नारी-मन की अभिव्यक्ति का अद्भुत मेल देखने को मिलता है।
विद्यापति के गीतों ने भक्तिकाल के प्रारंभिक कवियों, विशेषतः वैयक्तिक भक्ति धारा के रचनाकारों को प्रेरणा दी। उनकी भाषा में मिठास, बिंबात्मकता और लोकरस की प्रधानता है।
विद्यापति की विशेषताएँ:
- श्रृंगार रस में डूबी हुई राधा-कृष्ण की प्रेमगाथा
- मैथिली भाषा का प्रथम साहित्यिक प्रयोग
- लोकगीतों की शैली, प्रकृति और प्रेम का वर्णन
उनकी पदावली भावी भक्ति काव्यधारा का आधार बनी। तुलसीदास, सूरदास जैसे कवियों ने भी उस परंपरा से प्रेरणा ली।
3. प्राकृत और अपभ्रंश की छाया
आदिकाल की इन फुटकर रचनाओं पर प्राकृत और अपभ्रंश भाषा की परंपराओं का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। भले ही ये रचनाएँ प्राचीन हिंदी (देशज रूपों) में लिखी गई थीं, लेकिन इनकी शब्द संरचना, शैली और काव्यगत अभिव्यक्तियों में प्राकृत की रूढ़ियाँ भी यत्र-तत्र मिलती हैं।
आदिकाल की फुटकर रचनाएँ, विशेषकर अमीर खुसरो और विद्यापति के सृजन, हिंदी साहित्य के बहुआयामी विकास का संकेत देते हैं। ये रचनाएँ वीरगाथा साहित्य के समानांतर विकसित जनसाहित्य की प्रवृत्तियों को दर्शाती हैं। एक ओर जहां खुसरो की रचनाओं में पश्चिम और दिल्ली क्षेत्र की लोकसंस्कृति की झलक मिलती है, वहीं विद्यापति पूरब की रागात्मक और भावप्रधान भाषा का सशक्त प्रतिनिधित्व करते हैं। इन कवियों की रचनाओं ने आगे चलकर भक्तिकालीन साहित्य में जनभाषा और भाव की एकता को जन्म दिया।
निष्कर्ष
आदिकाल हिंदी साहित्य का वह युग है जिसने भाषा, शैली, विषयवस्तु और साहित्यिक प्रवृत्तियों की नींव रखी। यह युग जितना वीरता का प्रतीक है, उतना ही धार्मिक अनुभूतियों और श्रृंगारिक रसों का संवाहक भी है।
- यह युग वीरगाथा काल के नाम से सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ।
- राजा-रजवाड़ों के दरबारों, युद्धों, धर्म प्रचारकों, चारणों, नाथों और सिद्धों ने इस काल को साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध किया।
- भाषा की दृष्टि से यह युग हिंदी की यात्रा का प्राचीनतम चरण है, जिसमें अपभ्रंश, राजस्थानी, मैथिली, खड़ीबोली आदि भाषाई रूपों की छवियाँ दिखाई देती हैं।
इस प्रकार, आदिकाल हिंदी साहित्य का वह प्रस्थान बिंदु है जहाँ से साहित्यिक परंपराओं का विकास शुरू होता है और आगे चलकर भक्ति काल, रीतिकाल और आधुनिक युग में प्रस्फुटित होता है।
Hindi – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें-
- तत्सम और तद्भव शब्दों की सूची
- रस- परिभाषा, भेद और उदाहरण
- छंद : उत्कृष्टता का अद्भुत संगम- परिभाषा, भेद और 100+ उदाहरण
- अलंकार- परिभाषा, भेद और 100 + उदाहरण
- समास – परिभाषा, भेद और 100 + उदहारण
- विशेषण (Adjective)- भेद तथा 50+ उदाहरण
- उपसर्ग किसे कहते हैं? भेद और 100+ उदाहरण
- प्रत्यय किसे कहते हैं? भेद एवं 100+ उदाहरण