भारतीय उपमहाद्वीप विश्व की सबसे समृद्ध और विविध भाषिक परंपराओं में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। यहाँ बोली जाने वाली भाषाओं का विशाल समूह न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, बल्कि भाषावैज्ञानिक अनुसंधान के लिए भी एक अनूठा आधार प्रदान करता है। इन भाषाओं में भारतीय आर्यभाषाओं का स्थान सर्वोपरि है, जो प्राचीन वैदिक संस्कृत से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं तक एक लंबी ऐतिहासिक यात्रा को दर्शाती हैं।
इन्हीं भाषाओं की वर्तमान अवस्था को हम आधुनिक भारतीय आर्यभाषा के नाम से संबोधित करते हैं। इन भाषाओं का विकास, संरचना, इतिहास तथा विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण भारतीय भाषाविज्ञान का आधारभूत तत्व हैं। प्रस्तुत लेख में आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का परिचय, उत्पत्ति, विकास क्रम तथा प्रमुख भाषावैज्ञानिकों—हार्नले, ग्रियर्सन, चटर्जी, धीरेन्द्र वर्मा, भोलानाथ तिवारी, हरदेव बाहरी आदि—द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरणों का क्रमबद्ध, वैज्ञानिक और विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का परिचय
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का समयकाल सामान्यतः 1000 ईस्वी से वर्तमान समय तक माना जाता है। यह वह काल है जब भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन ‘प्राकृत’ और ‘अपभ्रंश’ भाषाएँ रूपांतरित होकर अपनी आधुनिक संरचना ग्रहण करने लगीं। इन भाषाओं में हिंदी, बंगला, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, मराठी, उड़िया, असमिया, सिन्धी आदि प्रमुख भाषाएँ शामिल हैं।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ भारतीय उपमहाद्वीप की उन विकसित भाषाओं का समूह हैं, जिनका उद्भव प्राचीन आर्यभाषाओं—विशेषकर प्राकृत और अपभ्रंश—से हुआ है। विद्वानों के अनुसार इन भाषाओं का समयकाल लगभग 1000 ईस्वी से लेकर वर्तमान समय तक प्रसारित माना जाता है। यही वह दौर है जब भाषाई संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, ध्वन्यात्मक रूप विन्यस्त हुआ, व्याकरण सरल हुआ तथा शब्दावली ने आधुनिक रूप ग्रहण किया। परिणामस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप में आज जो भाषाएँ बोली और लिखी जाती हैं, वे सभी मूलतः इन्हीं आधुनिक आर्यभाषाओं की श्रेणी में आती हैं।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का क्षेत्र बहुत व्यापक है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसका भूगोल केवल वर्तमान भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि 1947 से पूर्व के अविभाजित भारत तक विस्तृत माना जाता है, जिसमें आज के भारत, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश शामिल थे। अनेक विद्वान इस क्षेत्र में श्रीलंका और बर्मा (म्यांमार) तक को भी समाविष्ट करते हैं, क्योंकि ब्रिटिश शासन के पूर्व ये प्रदेश भारतीय सांस्कृतिक और भाषाई प्रभावक्षेत्र का अभिन्न भाग थे।
इन आर्यभाषाओं का विकास मुख्यतः अपभ्रंश भाषाओं से हुआ है। अपभ्रंश और प्राकृत में मौजूद ध्वनि-रूप, शब्द गठन, रूप-व्यवस्था और वाक्य क्रम आगे चलकर सुविकसित होकर आधुनिक भाषाई रूप में ढल गए। यही विकासक्रम समय के साथ हिंदी, बंगला, पंजाबी, गुजराती, मराठी, उड़िया, असमिया, सिन्धी, नेपाली आदि भाषाओं के रूप में सामने आया।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषता यह है कि इनमें—
- ध्वनियों की संरचना अपेक्षाकृत सरल और व्यवस्थित है,
- व्याकरणिक रूपों में नियमितता देखने मिलती है,
- शब्द भंडार में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अरबी, फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी के शब्द सम्मिलित होकर एक समृद्ध भाषिक रूप तैयार करते हैं।
इन भाषाओं का विकास केवल भाषाई दृष्टि से ही नहीं हुआ, बल्कि इनके साथ-साथ साहित्य, संस्कृति, धर्म, समाज, इतिहास और राजनीति में भी उल्लेखनीय परिवर्तन आए। आधुनिक आर्यभाषाएँ इस बदलते समाज की अभिव्यक्ति का माध्यम बनीं और आज भी करोड़ों लोगों के संप्रेषण का आधार हैं।
इस प्रकार, आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ भारतीय भाषाओं के इतिहास का सबसे सक्रिय, परिवर्तनशील और समृद्ध चरण हैं, जिनका निर्माण प्राचीन भाषाओं की परंपरा, मध्यकालीन संरचनाओं और वर्तमान की वैज्ञानिक चेतना—इन सभी के सम्मिलित प्रभाव से हुआ है।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा की मूल विशेषताएँ
- इन भाषाओं का मूल अपभ्रंश में निहित है।
- इनका भौगोलिक क्षेत्र 1947 से पूर्व के अविभाजित भारत तक विस्तृत माना जाता है।
- इस व्यापक क्षेत्र में आज का भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सम्मिलित हैं।
- कई विद्वान भारत के ऐतिहासिक स्वरूप में श्रीलंका और वर्मा (म्यांमार) को भी आर्यभाषीय क्षेत्र का हिस्सा मानते हैं।
- अंग्रेजों के आने से पूर्व ये सभी क्षेत्र सांस्कृतिक रूप से संयुक्त थे, जिसके कारण भाषिक परंपराएँ भी लगभग एक ही धारा में विकसित हुईं।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ आज के भारत की प्रमुख भाषाओं—हिन्दी, बंगाली, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उड़िया, कश्मीरी, सिंधी आदि—की आधारशिला हैं और भारतीय जनजीवन, प्रशासन, साहित्य एवं संस्कृति में अत्यंत केंद्रीय भूमिका निभाती हैं।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास-क्रम
आधुनिक आर्य भाषाएँ एक विशिष्ट ऐतिहासिक क्रम से गुज़री हैं—
(क) प्राकृत → अपभ्रंश → आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ
- प्राकृत काल
यह संस्कृत का जनभाषा रूप था, जो सरल, लोक-आधारित और ध्वन्यात्मक परिवर्तनों से युक्त था। - अपभ्रंश काल
लगभग 600 ई. से 1000 ई. तक का समय अपभ्रंश भाषाओं का उत्कर्ष काल माना जाता है। - आधुनिक आर्यभाषा काल
1000 ई. के बाद अपभ्रंश से क्षेत्रीय भाषाओं का उद्भव हुआ। यही भाषाएँ क्रमशः आधुनिक इंडो-आर्यन भाषाएँ बनीं।
यह क्रम दर्शाता है कि आधुनिक भाषाएँ सीधे संस्कृत से विकसित नहीं हुईं, बल्कि संस्कृत → प्राकृत → अपभ्रंश → आधुनिक भाषाएँ की विकास-श्रृंखला से निकली हैं।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण : एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय आर्यभाषाओं की संख्या, संरचना और विस्तार को देखते हुए कई भाषाविद्ोंने इनके वैज्ञानिक वर्गीकरण का प्रयास किया। इनमें प्रमुख हैं—
- डॉ. ए. एफ. आर. हार्नले (1880)
- डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन (Linguistic Survey of India)
- डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी
- डॉ. धीरेन्द्र वर्मा
- सीताराम चतुर्वेदी
- भोलानाथ तिवारी
- डॉ. हरदेव बाहरी
नीचे इन सभी वर्गीकरणों का क्रमबद्ध, विस्तृत एवं सरल विश्लेषण प्रस्तुत है।
1. डॉ. हार्नले का वर्गीकरण (1880)
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का सबसे पहला वैज्ञानिक वर्गीकरण डॉ. ए. एफ. आर. हार्नले ने प्रस्तुत किया। उन्होंने इन भाषाओं को चार मुख्य वर्गों में विभाजित किया—
(1) पूर्वी गौडियन
- पूर्वी हिन्दी
- बंगला
- असमी
- उड़िया
(2) पश्चिमी गौडियन
- पश्चिमी हिन्दी
- राजस्थानी
- गुजराती
- सिन्धी
- पंजाबी
(3) उत्तरी गौडियन
- गढ़वाली
- नेपाली
- पहाड़ी भाषाएँ
(4) दक्षिणी गौडियन
- मराठी
हार्नले के अनुसार भारतीय आर्यों की दो श्रेणियाँ थीं—
भीतरी आर्य (केन्द्र में)—जिन्होंने भाषाई रूप से शुद्ध स्वरूप बनाए रखा।
बाहरी आर्य (सीमांत क्षेत्रों में)—जिन पर स्थानीय प्रभाव अधिक पड़ा।
हार्नले का वर्गीकरण सरल और भौगोलिक-आधारित है, इसलिए यह भारतीय भाषाशास्त्र में आधारशिला माना जाता है।
2. डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन का वर्गीकरण
Linguistic Survey of India, Vol-1 (1920)
ग्रियर्सन ने भारत की भाषाओं का सबसे व्यापक सर्वेक्षण किया। उनका वर्गीकरण भाषाविज्ञान की दुनिया में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।
A. बाहरी उपशाखा
(क) उत्तरी-पश्चिमी समुदाय
- लहँदा
- सिन्धी
(ख) दक्षिणी समुदाय
- मराठी
(ग) पूर्वी समुदाय
- उड़िया
- बिहारी
- बंगला
- असमिया
B. मध्य उपशाखा
- पूर्वी हिन्दी
C. भीतरी उपशाखा
(क) केन्द्रीय समुदाय
- पश्चिमी हिन्दी
- पंजाबी
- गुजराती
- भीरनी
- खानदेशी
- राजस्थानी
(ख) पहाड़ी समुदाय
- पूर्वी पहाड़ी (नेपाली)
- मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी
- पश्चिमी पहाड़ी
ग्रियर्सन का वर्गीकरण व्यापकता, क्षेत्रीय संगति और भाषागत निकटता के कारण आज भी अत्यंत प्रामाणिक माना जाता है।
3. डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का वर्गीकरण
चटर्जी ने ग्रियर्सन के वर्गीकरण की ध्वन्यात्मक एवं व्याकरणगत आधारों पर आलोचना की और अधिक वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया, जो पाँच वर्गों में विभाजित है—
(1) उदीच्य (उत्तर-पश्चिमी)
- सिन्धी
- लहँदा
- पंजाबी
(2) प्रतीच्य (पश्चिमी)
- राजस्थानी
- गुजराती
(3) मध्य देशीय
- पश्चिमी हिन्दी
(4) प्राच्य (पूर्वी)
- पूर्वी हिन्दी
- बिहारी
- उड़िया
- असमिया
- बंगला
(5) दक्षिणात्य (दक्षिणी)
- मराठी
चटर्जी का वर्गीकरण भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अधिक वैज्ञानिक, ध्वन्यात्मक आधारों पर टिके होने के कारण अत्यंत सम्मानित है।
4. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का वर्गीकरण
उन्होंने चटर्जी के वर्गीकरण में कुछ सुधार करते हुए भाषाओं को निम्नलिखित पाँच समूहों में रखा—
(1) उदीच्य
- सिन्धी
- लहँदा
- पंजाबी
(2) प्रतीच्य
- गुजराती
(3) मध्य देशीय
- राजस्थानी
- पश्चिमी हिन्दी
- पूर्वी हिन्दी
- बिहारी
(4) प्राच्य
- उड़िया
- असमिया
- बंगला
(5) दक्षिणात्य
- मराठी
धीरेन्द्र वर्मा ने पहली बार हिन्दी की दोनों धाराओं—पूर्वी और पश्चिमी—को एक बड़े समूह में रखने का प्रयास किया।
5. सीताराम चतुर्वेदी का वर्गीकरण (परसर्गों के आधार पर)
यह वर्गीकरण अत्यंत रोचक है, क्योंकि चतुर्वेदी ने भाषाओं के संबंधसूचक परसर्ग (case markers) को आधार बनाया।
का-समुदाय
- हिन्दी
- पहाड़ी
- जयपुरी
- भोजपुरी
दा-समुदाय
- पंजाबी
- लहँदा
ज-समुदाय
- सिन्धी
- कच्छी
नो-समुदाय
- गुजराती
एर-समुदाय
- बंगाली
- उड़िया
- असमिया
यह वर्गीकरण भाषाओं की व्याकरणिक संरचना को समझने में अत्यंत सहायक है।
6. भोलानाथ तिवारी का वर्गीकरण
(अपभ्रंश के आधार पर)
तिवारी ने भाषाओं को उनके मूल अपभ्रंश के आधार पर वर्गीकृत किया—
1. शौरसेनी (मध्यवर्ती) अपभ्रंश
- पश्चिमी हिन्दी
- राजस्थानी
- पहाड़ी
- गुजराती
2. मागधी (पूर्वीय) अपभ्रंश
- बिहारी
- बंगाली
- उड़िया
- असमिया
3. अर्धमागधी (मध्य-पूर्वीय) अपभ्रंश
- पूर्वी हिन्दी
4. महाराष्ट्री अपभ्रंश
- मराठी
5. व्राचड-पैशाची अपभ्रंश (पश्चिमोत्तरी)
- सिन्धी
- लहँदा
- पंजाबी
यह वर्गीकरण आधुनिक भाषाओं को उनकी ऐतिहासिक जड़ों से जोड़ने का उत्कृष्ट प्रयास है।
7. डॉ. हरदेव बाहरी का वर्गीकरण
उन्होंने भाषाओं को दो बड़े वर्गों में विभाजित किया—
(A) हिन्दी-वर्ग
इसमें शामिल—
- मध्य पहाड़ी
- राजस्थानी
- पश्चिमी हिन्दी
- पूर्वी हिन्दी
- बिहारी
इन सभी को हिन्दी की उपभाषाएँ माना गया है।
(B) अहिन्दी वर्ग
- उत्तरी (नेपाली)
- पश्चिमी (पंजाबी, सिन्धी, गुजराती)
- दक्षिणी (सिंहली, मराठी)
- पूर्वी (उड़िया, बंगला, असमिया)
बाहरी का वर्गीकरण हिन्दी की विविध उपभाषाओं के भाषाई निकटता को दर्शाता है।
भारतीय आर्य भाषाओं का इतिहास
भारतीय आर्य भाषाओं का इतिहास अत्यंत प्राचीन और विस्तृत है, जिसकी जड़ें आर्यों के भारतीय उपमहाद्वीप में आगमन से जुड़ी मानी जाती हैं। भाषावैज्ञानिक इतिहास के संदर्भ में “भारत” का अर्थ केवल वर्तमान भारत तक सीमित नहीं था, बल्कि 1947 से पूर्व का सम्पूर्ण अविभाजित भारत—जिसमें आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश भी सम्मिलित थे—भी इसी नाम के अंतर्गत आता था। कुछ विद्वान तो प्राचीन भारत की सीमाओं को और विस्तृत मानते हुए श्रीलंका और बर्मा (वर्तमान म्यांमार) को भी भारतीय भाषाई क्षेत्र का भाग मानते हैं। अंग्रेज़ी शासन से पूर्व ये सभी प्रदेश सांस्कृतिक तथा भाषाई दृष्टि से भारतीय उपमहाद्वीप का ही अंग थे।
भारतीय आर्य भाषाओं का संगठित अध्ययन करते हुए जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने विख्यात ग्रंथ लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में इन भाषाओं को विभिन्न समुदायों में विभाजित किया। उनके वर्गीकरण के अनुसार—
- केन्द्रीय समुदाय में पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती और हिमालयी भाषाएँ आती हैं।
- मध्य समुदाय में उन्होंने केवल पूर्वी हिन्दी को स्थान दिया।
- पूर्वी समुदाय में बिहारी, उड़िया, बंगला और असमिया भाषाओं को सम्मिलित किया गया।
- दक्षिणी समुदाय में मराठी को प्रमुख भाषा माना गया।
- उत्तरी-पश्चिमी समुदाय में सिंधी, लहँदा और कश्मीरी का उल्लेख किया गया है।
इस प्रकार भारतीय आर्य भाषाओं का इतिहास केवल भाषाई विकास का इतिहास नहीं है, बल्कि व्यापक सांस्कृतिक, भौगोलिक और सामाजिक परिवर्तन का भी साक्षी है।
प्रमुख आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ: विशेषताएँ और परिचय
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ विविध बोलियों, भिन्न लिपियों और अलग-अलग भाषाई परंपराओं के साथ एक विशाल समूह बनाती हैं। नीचे प्रमुख भाषाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है—
1. सिन्धी
सिन्धी भाषा का मूल संस्कृत के ‘सिन्धु’ शब्द में निहित है। सिन्धु घाटी क्षेत्र—विशेषकर सिन्धु नदी के दोनों तटों—में यह भाषा व्यापक रूप से बोली जाती है।
- इसकी प्रमुख बोलियाँ हैं: विचोली, सिराइकी, थरेली, लासी और लाड़ी।
- सिन्धी की परंपरागत लिपि लंडा कही जाती है, हालांकि यह फ़ारसी और गुरुमुखी लिपियों में भी लिखी जाती है।
2. लहँदा
‘लहँदा’ का अर्थ ही है पश्चिमी, इसलिए इसे पश्चिमी पंजाबी भी कहा जाता है।
- इसके अन्य रूप—हिन्दकी, जटकी, मुल्तानी, चिभाली, पोठवारी—प्रचलित हैं।
- सिन्धी की तरह लहँदा की भी अपनी लंडा लिपि है, जिसका संबंध कश्मीर की शारदा लिपि से माना जाता है।
3. पंजाबी
पंजाबी भाषा का नाम ‘पंजाब’ (पाँच नदियों का देश) से लिया गया है।
- आरंभिक रूप में इसकी लिपि लंडा थी, जिसे सुधारकर गुरु अंगद ने आधुनिक गुरुमुखी लिपि का रूप दिया।
- पंजाबी की प्रमुख बोलियाँ हैं: माझी, डोगरी, दोआबी, राठी आदि।
4. गुजराती
गुजराती भाषा गुजरात क्षेत्र की प्रमुख आर्यभाषा है। इसका नाम गुर्जर जाति से जुड़ा माना जाता है।
- इसकी स्वयं की लिपि गुजराती लिपि है, जो कैथी लिपि से मिलती-जुलती है और जिसकी विशेषता है कि इसमें शिरोरेखा नहीं होती।
5. मराठी
मराठी महाराष्ट्र की प्रमुख भाषा है और इसका विकास दक्षिणी अपभ्रंश से हुआ माना जाता है।
- इसकी महत्वपूर्ण बोलियाँ हैं: कोंकणी, नागपुरी, कोष्टी, माहारी।
- लिखने के लिए मुख्यतः देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है, परंतु परंपरागत कार्यों में मोडी लिपि भी कभी-कभी प्रयुक्त होती है।
6. बंगला
बंगला भाषा मुख्यतः बंगाल क्षेत्र में बोली जाती है। इसका नाम ‘बंग + आल’ (स्थानवाचक प्रत्यय) से बना है।
- भारतीय भाषाओं में यूरोपीय आधुनिक विचारधारा का प्रथम प्रभाव बंगला पर पड़ा।
- यह भाषा बंगला लिपि में लिखी जाती है, जो प्राचीन देवनागरी की विकसित शैली मानी जाती है।
7. असमी
असमी या असमिया, असम प्रदेश की प्रमुख भाषा है।
- इसकी मुख्य बोली विश्नुपुरिया कही जाती है।
- असमी लिपि का आधार भी मुख्यतः बंगला लिपि से संबंधित है।
8. उड़िया
उड़िया (ओड़िया) भाषा का उद्भव प्राचीन उत्कल क्षेत्र से जुड़ा है।
- प्रमुख बोलियाँ हैं: गंजामी, सम्भलपुरी, भत्री।
- उड़िया लिपि की संरचना ब्राह्मी की उत्तरी शैली से विकसित हुई है तथा यह बंगला से कई समानताएँ रखती है, किन्तु अपनी विशिष्ट आकृति और गोलाकार वर्णों के कारण आसानी से पहचानी जा सकती है।
इन सभी भाषाओं ने मिलकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषा परिवार को समृद्ध, विविधतापूर्ण और सांस्कृतिक रूप से जीवंत बनाया है। इन्हीं भाषाओं के माध्यम से भारतीय समाज का साहित्य, संस्कृति और इतिहास निरंतर विकसित हुआ है।
निष्कर्ष
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का इतिहास एक विस्तृत और जटिल विकास-यात्रा का प्रतीक है। संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रंश से आधुनिक भाषाओं में रूपांतरण भारतीय भाषिक प्रवाह की अनूठी विशेषता है।
विभिन्न विद्वानों द्वारा किए गए वर्गीकरणों से निम्न निष्कर्ष उभरते हैं—
- भारतीय आर्यभाषाएँ भौगोलिक, व्याकरणिक, ऐतिहासिक और ध्वन्यात्मक दृष्टि से अत्यंत विविध हैं।
- पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी, दक्षिणी और मध्य क्षेत्रों में ये भाषाएँ विशिष्ट रूप धारण करती गईं।
- वर्गीकरणों में अनेक भिन्नताएँ होने पर भी सभी विद्वानों का मत है कि आधुनिक भाषाओं का मूल अपभ्रंश ही है।
- हिन्दी, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, असमिया, उड़िया आदि भाषाएँ एक ही भाषिक परंपरा की शाखाएँ हैं।
इस प्रकार आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक एकता, ऐतिहासिक निरंतरता और भाषिक विविधता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
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- प्राकृत भाषा (द्वितीय प्राकृत): उत्पत्ति, विकास, वर्गीकरण और साहित्यिक स्वरूप
- पालि भाषा (प्रथम प्राकृत): उद्भव, विकास, साहित्य और व्याकरणिक परंपरा
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- कुमाउनी भाषा: स्वरूप, इतिहास, उपबोलियाँ और भाषायी विशेषताएँ