ईरान और इज़राइल कैसे बने एक दूसरे के कट्टर दुश्मन ? इतिहास, वैचारिकता और भू-राजनीतिक संघर्ष की जटिल यात्रा

ईरान और इज़राइल की आपसी दुश्मनी विश्व राजनीति के उन चुनिंदा संघर्षों में से एक है जो समय के साथ न केवल गहराता गया है, बल्कि इसके प्रभाव वैश्विक स्तर पर भी परिलक्षित हुए हैं। यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें धर्म, इतिहास, क्षेत्रीय प्रभुत्व की चाह, वैश्विक शक्ति संतुलन और वैचारिक संघर्ष एक साथ उलझे हुए हैं। यद्यपि बीसवीं सदी के मध्य तक दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध अच्छे थे, परन्तु 1979 में ईरानी क्रांति के बाद स्थिति पूरी तरह बदल गई।

यह टकराव सिर्फ दो देशों की राजनीतिक असहमति नहीं है, बल्कि इसमें ऐतिहासिक, धार्मिक, वैचारिक, कूटनीतिक और सैन्य आयाम भी गहराई से जुड़े हुए हैं। कभी सहयोगी रहे ये दोनों देश अब कट्टर दुश्मन बन चुके हैं। इस लेख में हम इस जटिल और बहुपरतीय संघर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वर्तमान स्वरूप, प्रमुख घटनाक्रम, वैश्विक प्रभाव और भविष्य की संभावनाओं का विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन करेंगे।

Table of Contents

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: यहूदी-फ़ारसी संबंधों से दुश्मनी तक

प्राचीन मित्रता

ईरान, जिसे प्राचीन काल में फ़ारस कहा जाता था, और यहूदी सभ्यता के संबंध हजारों वर्षों पुराने हैं। जब छठी शताब्दी ईसा पूर्व में बेबीलोनियन साम्राज्य ने यरुशलम को नष्ट किया और यहूदियों को बंदी बना लिया था, तब फ़ारसी सम्राट कायरस महान (Cyrus the Great) ने यहूदियों को आज़ाद कर यरुशलम लौटने की अनुमति दी और यहूदी मंदिर पुनर्निर्माण का आदेश दिया। यह ऐतिहासिक घटना यहूदियों के लिए फारस को एक सहानुभूतिपूर्ण शक्ति के रूप में स्थापित करती है। यह संबंध वर्षों तक सौहार्दपूर्ण बना रहा।

20वीं शताब्दी में संबंध

1948 में जब इज़राइल की स्थापना हुई, तब ईरान ने मध्य-पूर्व के अन्य मुस्लिम देशों की तरह विरोध नहीं किया। बल्कि 1950 में ईरान ने इज़राइल को ‘डी फैक्टो’ मान्यता भी दे दी थी और दोनों देशों के बीच मजबूत व्यापारिक और खुफिया संबंध बने रहे। शाही ईरान के शासनकाल में इज़राइल और ईरान ऊर्जा, सैन्य और कृषि क्षेत्रों में सहयोगी थे।

इस्लामी युग और धार्मिक अंतर

7वीं सदी में इस्लाम के उदय और खलीफा शासन के बाद फ़ारस ने धीरे-धीरे शिया इस्लाम को अपनाया, जबकि यहूदी समुदाय अल्पसंख्यक बन गया। यद्यपि यहूदी समुदायों को “धिम्मी” (द्वितीय श्रेणी नागरिक) का दर्जा प्राप्त था, फिर भी दोनों समुदायों में हिंसक संघर्ष अपेक्षाकृत कम रहे।

इज़राइल का निर्माण और प्रारंभिक सहयोग

इज़राइल की स्थापना (1948)

1948 में जब इज़राइल का निर्माण हुआ, तो अधिकांश मुस्लिम देशों ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन ईरान उन चंद मुस्लिम देशों में था जिसने इज़राइल के अस्तित्व को स्वीकार किया। 1950 में ईरान ने इज़राइल को ‘डी फैक्टो’ मान्यता दी और दोनों देशों के बीच राजनयिक संपर्क कायम हुए।

गुप्त गठबंधन (1950–1979)

20वीं सदी के मध्य तक, खासकर 1960–70 के दशक में, ईरान और इज़राइल गुप्त सैन्य और व्यापारिक सहयोगी बन गए। ईरान, जो अमेरिका समर्थक शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के नेतृत्व में था, इज़राइल को तेल की आपूर्ति करता था और दोनों देश अरब राष्ट्रवाद के विरुद्ध एक-दूसरे के रणनीतिक साझेदार थे।

इस्लामी क्रांति और दुश्मनी की शुरुआत (1979)

खुमैनी युग की शुरुआत

1979 की इस्लामी क्रांति ईरान-इज़राइल संबंधों में एक निर्णायक मोड़ लेकर आई। अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में शाह की सत्ता समाप्त हुई और ईरान एक शिया इस्लामी गणराज्य में परिवर्तित हो गया। नई सरकार ने इज़राइल को “शैतान का अवतार” कहा और उसके साथ सभी राजनयिक संबंध समाप्त कर दिए। तेहरान स्थित इज़राइल का दूतावास बंद कर फलस्तीनी संगठन PLO को सौंप दिया गया।

वैचारिक टकराव

ईरानी शासन की वैचारिक दृष्टि में इज़राइल का अस्तित्व इस्लाम के विरुद्ध माना गया और उसका विनाश एक धार्मिक कर्तव्य। दूसरी ओर, इज़राइल को एकमात्र यहूदी राष्ट्र के रूप में अपनी सुरक्षा और पहचान की चिंता थी। दोनों देशों की विचारधाराएं एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी हो गईं — एक ओर शिया इस्लामी क्रांति, दूसरी ओर यहूदी लोकतंत्र।

ईरान और इज़राइल | टकराव के प्रमुख क्षेत्र

हिज़बुल्लाह और लेबनान

ईरान ने लेबनान में हिज़बुल्लाह नामक शिया उग्रवादी संगठन की स्थापना और पोषण किया, जिसने इज़राइल पर कई बार हमले किए। यह संगठन इज़राइल की उत्तरी सीमा पर स्थायी खतरे के रूप में खड़ा हो गया।

सीरिया में हस्तक्षेप

ईरान ने सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद का समर्थन किया जबकि इज़राइल ने ईरान समर्थित सैन्य ठिकानों पर हवाई हमले किए। सीरिया इज़राइल-ईरान संघर्ष का प्रमुख मैदान बन गया है।

गाज़ा और हमास

ईरान फलस्तीनी उग्रवादी संगठन हमास को आर्थिक और सैन्य सहायता देता रहा है। हमास द्वारा गाज़ा से इज़राइल पर किए गए रॉकेट हमलों में ईरान की भूमिका को इज़राइल एक रणनीतिक खतरे के रूप में देखता है।

यमन में हौथी विद्रोह

ईरान समर्थित हौथी विद्रोही यमन में सऊदी अरब और इज़राइल समर्थित बलों के खिलाफ लड़ते हैं। यह टकराव भी अप्रत्यक्ष रूप से ईरान-इज़राइल संघर्ष को और जटिल बनाता है।

वैचारिक द्वंद्व

ईरान एक इस्लामिक क्रांति का प्रतीक है जो अमेरिका और इज़राइल जैसे ‘पश्चिमी पूंजीवादी ताकतों’ को अपना दुश्मन मानता है। वहीं इज़राइल एक लोकतांत्रिक, पश्चिम समर्थक और सैन्य रूप से मजबूत राष्ट्र है। यह द्वंद्व सिर्फ भौगोलिक नहीं, वैचारिक भी है।

परमाणु कार्यक्रम और रणनीतिक चिंता

ईरान का परमाणु अभियान

2000 के दशक से ईरान का परमाणु कार्यक्रम अमेरिका, यूरोपीय संघ और इज़राइल के लिए चिंता का विषय बन गया। इन्हें आशंका है कि ईरान गुप्त रूप से परमाणु हथियार बना रहा है।

इज़राइल की प्रतिक्रिया

इज़राइल ने स्पष्ट किया है कि वह किसी भी कीमत पर ईरान को परमाणु हथियार नहीं बनाने देगा। 2010 में “Stuxnet” साइबर वायरस द्वारा ईरानी परमाणु संयंत्र को नुकसान पहुंचाया गया। 2020 में वैज्ञानिक मोहसिन फखरीज़ादे की हत्या के पीछे इज़राइल का हाथ माना जाता है।

वैश्विक गठबंधन और कूटनीतिक समीकरण

अमेरिका–इज़राइल संबंध

इज़राइल अमेरिका का सबसे मजबूत सहयोगी है। ट्रंप प्रशासन ने JCPOA (ईरान परमाणु समझौता) से बाहर निकलकर ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए। बाइडेन प्रशासन ने प्रयास किया कि समझौता फिर से बहाल हो, लेकिन इज़राइल ने इसका विरोध जारी रखा।

ईरान–रूस–चीन निकटता

ईरान ने अमेरिका और इज़राइल के विरोध में रूस और चीन से अपने रणनीतिक संबंध मजबूत किए हैं। सैन्य तकनीक, ऊर्जा और कूटनीति में यह त्रिकोण पश्चिमी गठबंधन के लिए चुनौती है।

अब्राहम समझौता और ईरान पर दबाव

2020 में अब्राहम समझौते के तहत इज़राइल ने UAE, बहरीन, मोरक्को और सूडान जैसे मुस्लिम देशों के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए। इन समझौतों से ईरान की “इज़राइल-विरोधी मुस्लिम एकता” की रणनीति को झटका लगा।

ईरान ने इन समझौतों की आलोचना करते हुए उन्हें “इस्लामी एकता के विरुद्ध” बताया। अब खाड़ी देशों और इज़राइल का परोक्ष गठबंधन ईरान के लिए नई कूटनीतिक चुनौती बन चुका है।

प्रमुख घटनाक्रम

1982–2000: लेबनान युद्ध और हिज़बुल्लाह

लेबनान में इज़राइल ने 1982 में सैन्य हस्तक्षेप किया, जिससे हिज़बुल्लाह का जन्म हुआ। ईरान ने इस संगठन को आर्थिक, वैचारिक और सैन्य समर्थन दिया। यह संगठन आज इज़राइल के लिए सबसे बड़ा शिया खतरा बना हुआ है।

2006 लेबनान युद्ध

हिज़बुल्लाह और इज़राइल के बीच यह युद्ध ईरानी हस्तक्षेप का परिणाम था। इस युद्ध ने क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ाया और इज़राइल के अंदर सुरक्षा चिंताओं को गहरा कर दिया।

2010–2020: ड्रोन और मिसाइल युद्ध

ईरान ने अपने क्षेत्रीय नेटवर्क के ज़रिये इज़राइल की सीमाओं पर मिसाइल, ड्रोन और कमांड केंद्र तैनात किए। इज़राइल ने बदले में सीरिया और इराक में ईरानी ठिकानों पर हमले किए।

2021–2025: साइबर युद्ध और गुप्त अभियानों का दौर

  • इज़राइल ने ईरान के न्यूक्लियर वैज्ञानिकों पर हमले किए।
  • ईरान ने इज़राइल की जल आपूर्ति प्रणाली और ऊर्जा ग्रिड पर साइबर अटैक किए।
  • दोनों देशों ने एक-दूसरे की खुफिया एजेंसियों पर वैश्विक स्तर पर हमले तेज़ किए।

वैश्विक दृष्टिकोण और मध्यस्थ प्रयास

अमेरिका की भूमिका

  • अमेरिका हमेशा से इज़राइल का समर्थक रहा है।
  • ट्रंप प्रशासन ने ईरान परमाणु समझौते (JCPOA) से बाहर निकलकर इज़राइल को खुला समर्थन दिया।
  • बाइडेन प्रशासन पुनः समझौते की ओर बढ़ा, लेकिन इज़राइल इसका विरोध करता रहा।

संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ

  • संयुक्त राष्ट्र ने बार-बार तनाव कम करने की अपील की।
  • यूरोपीय देश JCPOA को पुनर्जीवित करने में लगे हुए हैं।
  • लेकिन इज़राइल का रुख आक्रामक रहा है कि ईरान की मंशा विश्वास करने योग्य नहीं।

वर्तमान स्थिति (2025)

  • इज़राइल ने हाल ही में सीरिया में ईरान समर्थित ठिकानों पर हवाई हमले किए।
  • ईरान ने यमन, इराक और सीरिया से मिसाइल हमलों के लिए अपने सहयोगियों को सक्रिय किया।
  • जल क्षेत्र (जैसे कि होर्मुज जलडमरूमध्य) में भी टकराव की स्थिति बनी रहती है।

विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण

  • धार्मिक अंतर: शिया (ईरान) बनाम यहूदी राष्ट्र (इज़राइल)
  • राजनीतिक अंतर: लोकतांत्रिक (इज़राइल) बनाम थियोक्रेटिक गणराज्य (ईरान)
  • भूराजनीतिक रणनीति: दोनों ही देश एक-दूसरे को क्षेत्रीय प्रभुत्व में बाधक मानते हैं।
  • वैश्विक संबंध: ईरान रूस और चीन से नजदीक है, जबकि इज़राइल अमेरिका से।

हाल की घटनाएं (2020–2025)

  • ड्रोन और मिसाइल युद्ध: ईरान ने अपनी प्रॉक्सी सेनाओं के माध्यम से इज़राइल की सीमाओं पर मिसाइल और ड्रोन हमले तेज़ किए।
  • साइबर हमले: दोनों देशों ने एक-दूसरे की जल आपूर्ति प्रणाली, ऊर्जा ग्रिड और रक्षा नेटवर्क पर साइबर हमले किए।
  • गुप्त अभियानों का दौर: इज़राइल ने ईरान के सैन्य और परमाणु प्रतिष्ठानों पर गुप्त हमले किए; वहीं ईरान ने खाड़ी क्षेत्र में तेल टैंकरों को निशाना बनाया।

विश्लेषण: संघर्ष के आयाम

पहलूईरानइज़राइल
धार्मिक पहचानशिया इस्लामी गणराज्ययहूदी राष्ट्र
राजनीतिक स्वरूपधर्म आधारित थियोक्रेसीलोकतांत्रिक और पश्चिम समर्थक
वैचारिक दृष्टिकोणइस्लामिक क्रांति और पश्चिम विरोधीआत्मरक्षा, यहूदी अस्तित्व की सुरक्षा
वैश्विक गठबंधनरूस, चीन, सीरिया, हिज़बुल्लाह, हमासअमेरिका, यूरोपीय संघ, कुछ अरब देश (UAE आदि)
भू-राजनीतिक उद्देश्यपश्चिम एशिया में प्रभाव और इस्लामी नेतृत्वसुरक्षा सुनिश्चित करना और क्षेत्रीय प्रभुत्व

भविष्य की संभावनाएं

शांति की आशा

  • JCPOA जैसे समझौतों की पुनर्स्थापना क्षेत्र में तनाव कम कर सकती है।
  • भारत, तुर्की, या संयुक्त राष्ट्र जैसे तटस्थ देश मध्यस्थ की भूमिका निभा सकते हैं।

युद्ध का खतरा

  • यदि इज़राइल को यह संदेह हुआ कि ईरान परमाणु हथियार बनाने के कगार पर है, तो वह सैन्य हमला कर सकता है।
  • सीरिया, यमन, गाज़ा जैसे मोर्चे क्षेत्रीय युद्ध में बदल सकते हैं।

ईरान और इज़राइल का संघर्ष केवल दो देशों का टकराव नहीं है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर ऊर्जा सुरक्षा, सैन्य स्थिरता और सांस्कृतिक विचारधाराओं का टकराव है। जहां एक ओर ईरान इस्लामी क्रांति की वैचारिक विरासत को आगे बढ़ा रहा है, वहीं इज़राइल अपने अस्तित्व और सुरक्षा को प्राथमिकता दे रहा है।

इस दुश्मनी का समाधान केवल सैन्य या राजनीतिक उपायों से नहीं निकल सकता। इसके लिए आवश्यक है – पारस्परिक समझ, वैश्विक मध्यस्थता, ऐतिहासिक घावों का उपचार, और सबसे बढ़कर – मानवीय दृष्टिकोण।

यह संघर्ष तब तक खत्म नहीं होगा जब तक दोनों पक्षों में पारस्परिक स्वीकृति और विश्वास की नींव नहीं बनेगी। हालांकि इतिहास, राजनीति और धर्म के गहरे घावों के चलते यह राह अत्यंत कठिन प्रतीत होती है, फिर भी संवाद, समझ और वैश्विक मध्यस्थता से शांति की आशा को कभी नकारा नहीं जा सकता।

संघर्ष जितना पुराना है, समाधान उतना ही आधुनिक, विवेकपूर्ण और सहयोगपरक होना चाहिए।

History – KnowledgeSthali
Current Affairs – KnowledgeSthali


इन्हें भी देखें –

Leave a Comment

Table of Contents

Contents
सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.