शहीद ऊधम सिंह: अन्याय के विरुद्ध अमर प्रतिशोध की गाथा

शहीद–ए–आज़म सरदार ऊधम सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन वीरों में से एक थे, जिनका नाम जलियांवाला बाग नरसंहार के प्रतिशोध के साथ सदा के लिए अमर हो गया। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए ब्रिटिश हत्याकांड ने उनके जीवन की दिशा बदल दी और उन्होंने 21 वर्षों तक धैर्यपूर्वक अपने प्रतिशोध की योजना बनाई। अंततः 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में उन्होंने पंजाब के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’ड्वायर को गोली मारकर उस ऐतिहासिक अन्याय का बदला लिया।

ऊधम सिंह का जीवन बलिदान, साहस, धैर्य और राष्ट्रभक्ति की अद्भुत मिसाल है। 31 जुलाई 1940 को उन्हें लंदन की पेंटनविल जेल में फांसी दी गई, लेकिन उनकी शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को नई ऊर्जा दी। 1974 में उनके पार्थिव अवशेष भारत लाए गए और राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। आज पंजाब और हरियाणा में उनका शहादत दिवस सरकारी अवकाश के रूप में मनाया जाता है। यह लेख ऊधम सिंह के जन्म, बचपन, क्रांतिकारी गतिविधियों, ग़दर पार्टी से जुड़ाव, जलियांवाला बाग नरसंहार, लंदन मिशन, मुकदमे और अंतिम वक्तव्य तक की संपूर्ण गाथा प्रस्तुत करता है, जो हर भारतीय के हृदय में देशभक्ति की ज्योति प्रज्वलित करता है।

प्रधानमंत्री मोदी की श्रद्धांजलि और आज का संदर्भ

31 जुलाई 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मां भारती के अमर सपूत, शहीद ऊधम सिंह को उनकी 86वीं पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने कहा कि ऊधम सिंह का जीवन हमें यह सिखाता है कि राष्ट्र के सम्मान और न्याय के लिए किसी भी बलिदान से पीछे नहीं हटना चाहिए। आजादी के 78 वर्ष बाद भी, उनका बलिदान हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता किसी उपहार से नहीं, बल्कि संघर्ष, त्याग और साहस से प्राप्त होती है।

प्रारंभिक जीवन और बचपन की कठिनाइयाँ

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। जन्म नाम शेर सिंह था। उनके पिता, सरदार तेहल सिंह, एक रेलवे क्रॉसिंग पर चौकीदार थे। आर्थिक स्थिति कमजोर थी, लेकिन परिवार का वातावरण धार्मिक और अनुशासित था।

1907 में उनकी माता का निधन हो गया और 1909 में पिता भी चल बसे। अनाथ होने के कारण उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह को अमृतसर के सेंट्रल खालसा अनाथालय में लाया गया। यहीं उनका नाम ऊधम सिंह रखा गया और उन्हें प्राथमिक शिक्षा दी गई। अनाथालय के अनुशासन और देशभक्ति की कहानियों ने उनके भीतर क्रांतिकारी चेतना की नींव रखी।

जलियांवाला बाग नरसंहार: जीवन का निर्णायक मोड़

राजनीतिक पृष्ठभूमि

1919 में ब्रिटिश सरकार ने रौलट एक्ट लागू किया, जिसके तहत बिना मुकदमे के किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता था। यह काला कानून पूरे देश में विरोध का कारण बना।

13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था। अमृतसर के जलियांवाला बाग में हज़ारों लोग, जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल थे, रौलट एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण सभा कर रहे थे।

नरसंहार का दृश्य

ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर अपनी सेना के साथ बाग के एकमात्र संकरे प्रवेश द्वार पर पहुँचा। उसने बिना चेतावनी दिए सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दे दिया। लगभग 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं, जो तब तक चलती रहीं जब तक सैनिकों की गोलियां खत्म नहीं हुईं। आधिकारिक रिपोर्ट में 379 मौतें दर्ज की गईं, लेकिन वास्तविक संख्या 1000 से अधिक मानी जाती है।

ऊधम सिंह पर प्रभाव

उस दिन ऊधम सिंह भी वहाँ मौजूद थे। उन्होंने अपने चारों ओर लाशों का ढेर और खून से भीगी जमीन देखी। वे घायल और मरते हुए लोगों की मदद करते रहे, लेकिन असहायता का दर्द उन्हें भीतर से झकझोर गया। उसी क्षण उन्होंने प्रतिज्ञा की—“मैं इस अत्याचार का बदला जरूर लूँगा, चाहे इसमें कितने भी वर्ष लग जाएँ।”

ग़दर पार्टी और क्रांतिकारी गतिविधियाँ

ग़दर पार्टी का परिचय

ग़दर पार्टी 1913 में अमेरिका में स्थापित एक क्रांतिकारी संगठन था, जिसका उद्देश्य भारत को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त करना था। इसके सदस्य मुख्य रूप से विदेश में बसे पंजाबी मजदूर, किसान और विद्यार्थी थे।

ऊधम सिंह की सहभागिता

1924 में ऊधम सिंह अमेरिका पहुँचे और ग़दर पार्टी से जुड़ गए। उन्होंने वहाँ भारतीय मजदूरों को संगठित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रचार किया। उनका काम था—हथियार जुटाना, फंड इकट्ठा करना, और क्रांतिकारी साहित्य भारत भेजना।

भारत वापसी और पहली गिरफ्तारी

1927 में ऊधम सिंह हथियार और गोला-बारूद लेकर भारत लौटे, ताकि स्वतंत्रता सेनानियों को सहायता मिल सके। लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें रास्ते में गिरफ्तार कर लिया। अवैध हथियार रखने के आरोप में उन्हें पाँच वर्ष की कठोर कारावास की सज़ा मिली।

1931 में जेल से रिहा होने के बाद भी उन्होंने अपनी गतिविधियाँ बंद नहीं कीं। वे अभिनय, फोटोग्राफी और मजदूरी के बहाने ब्रिटिश पुलिस की निगाह से बचते रहे, लेकिन उनका असली मकसद ओ’ड्वायर तक पहुँचना था।

माइकल ओ’ड्वायर: प्रतिशोध का लक्ष्य

माइकल ओ’ड्वायर 1913 से 1919 तक पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था। उसने जलियांवाला बाग नरसंहार का न केवल समर्थन किया बल्कि डायर को प्रशंसा पत्र भी भेजा। ऊधम सिंह के लिए वह भारत की अपमान और पीड़ा का प्रतीक था।

लंदन मिशन और कैक्सटन हॉल की घटना

गुप्त योजना

1934 में ऊधम सिंह लंदन पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक झूठी पहचान अपनाई—राम मोहम्मद सिंह आज़ाद, जिससे वे सभी धर्मों के एकता संदेश को दर्शाना चाहते थे। उन्होंने वर्षों तक धैर्यपूर्वक ओ’ड्वायर पर नज़र रखी।

13 मार्च 1940 की सुबह

उन्हें सूचना मिली कि लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन का कार्यक्रम है, जिसमें ओ’ड्वायर भाषण देगा। ऊधम सिंह एक रिवॉल्वर छिपाकर हॉल में पहुँचे और कार्यक्रम के अंत में ओ’ड्वायर पर गोलियाँ चलाईं। दो गोलियाँ सीधे उसके दिल में लगीं और वह मौके पर ही मारा गया।

गिरफ्तारी और मुकदमा

गिरफ्तारी के बाद ऊधम सिंह ने किसी पछतावे का भाव नहीं दिखाया। अदालत में उन्होंने कहा—

“मैंने यह जानबूझकर किया। यह जलियांवाला बाग के शहीदों के लिए था। मैंने 21 साल इंतज़ार किया, क्योंकि मैं सही समय और सही जगह चाहता था।”

अदालत में अंतिम शब्द (अनुवाद)

“मैं मरने से नहीं डरता। मैं मर कर भी अपने देश के लोगों में आज़ादी की लौ जलाना चाहता हूँ। मेरा नाम इतिहास में रहेगा, क्योंकि मैं भारत की आत्मा का प्रतिनिधि हूँ।”

शहादत और पार्थिव अवशेष की वापसी

4 जून 1940 को उन्हें मृत्युदंड सुनाया गया। 31 जुलाई 1940 को लंदन की पेंटनविल जेल में फांसी दी गई।
1974 में, भारत सरकार के प्रयासों से उनका पार्थिव अवशेष भारत लाया गया और पंजाब के सुनाम में पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया।

विरासत और सम्मान

  • सरकारी अवकाश: पंजाब और हरियाणा में 31 जुलाई को शहादत दिवस के रूप में अवकाश।
  • स्मारक और संग्रहालय: अमृतसर और सुनाम में ऊधम सिंह के स्मारक।
  • सांस्कृतिक स्मरण: 2000 की फिल्म शहीद ऊधम सिंह और 2021 की सर्दार ऊधम ने उनकी गाथा को जीवंत किया।
  • डाक टिकट: भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में विशेष डाक टिकट जारी।

निष्कर्ष: आज के युवाओं के लिए संदेश

ऊधम सिंह का जीवन हमें सिखाता है कि न्याय के लिए संघर्ष में धैर्य और दृढ़ता आवश्यक हैं। उन्होंने 21 वर्ष तक अपने प्रतिशोध की ज्वाला को धैर्यपूर्वक सँभाला और सही समय पर उसे अंजाम दिया।
आज के समय में, जब अन्याय और असमानता के नए रूप सामने आते हैं, हमें ऊधम सिंह जैसे योद्धाओं की प्रेरणा लेकर साहस और निष्ठा से उनका सामना करना चाहिए।


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