खिलजी वंश | Khilji Dynasty | 1290ई. – 1320 ई.

खिलजी वंश दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला गुलाम वंश के बाद दूसरा वंश था। खिलजी वंश का शासन 1290 में शुरू हुआ और 1320 में समाप्त हुआ। खिलजी वंश का दिल्ली सल्तनत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस वंश का शासनकाल 30 वर्षों तक चला और इस अवधि में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ और सुधार हुए। खिलजी वंश के आगमन को एक क्रांति के रूप में देखा जाता है क्योंकि उनके आगमन ने प्रशासन में तुर्क अधिकारियों के प्रभाव को कम कर दिया। यह वंश अपने प्रशासनिक सुधारों, सैन्य अभियानों और सांस्कृतिक योगदान के लिए जाना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि तुर्कों की 64 शाखाएं हैं, जिनमें से एक शाखा का नाम खिलजी था। खिलजी शाखा अफगानिस्तान की हेललमंद घाटी में चौथी शताब्दी तक बस चुकी थी। इस क्षेत्र को खिलजी क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता था।

खिलजी वंश का संक्षिप्त परिचय

खिलजी वंश जिसको ख़लजी वंश भी कहा जाता था, मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था। खिलजी वंश ने दिल्ली की सत्ता पर 1290-1320 ई. तक शासन किया। यह दिल्ली सल्तनत का दूसरा राजवंश था। ख़िलजी क़बीला लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान में बसा हुआ था, लेकिन अपने पूर्ववर्ती गुलाम वंश की तरह यह राजवंश भी मूल रूप से तुर्किस्तान का था।

इसके शासक अपनी निष्ठाहीनता, निर्दयता और दक्षिण भारतीय हिंदू राज्यों पर अधिकार के लिए जाने जाते थे। खिलजी वंश के पहले सुल्तान जलालुद्दीन फिरोज, खिलजी गुलाम वंश के अंतिम कमज़ोर बादशाह कैकुबाद के लकवाग्रस्त हो जाने के बाद उसके उतराधिकारी तीन वर्षीय शमसुद्दीन क्युमर्स की हत्या कर के एक कुलीन गुट के सहयोग से सत्ता हथियाने में कामयाब हो जाता है। जलालुद्दीन खिलजी जब सुल्तान बना उस समय उसकी उम्र 70 वर्ष हो चुकी थी। उम्र में काफ़ी बड़ा होने और गैर तुर्क (अफ़ग़ानी क़बीले का) होने के कारण प्रारंभ में उसे तुर्क सरदारों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। जिस कारण वह राजधानी में घुसने का साहस नहीं कर पाया और उसने एक नए नगर किलोखरी से ही शासन किया।

जब उसने सबको अपने पक्ष में कर लिया तब दिल्ली के अन्दर प्रवेश किया और वहा से शासन करना शुरू किया। दक्षिण अभियान के तहत उसके भतीजे और दामाद जूना ख़ां ने दक्कन के हिन्दू राज्य देवगिरी पर चढ़ाई करके उसके ख़ज़ाने पर क़ब्ज़ा कर लिया। वहां से वापस लौटते समय उससे रास्ते में मिलने आये अपने चाचा और ससुर सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की 1296 ई. में हत्या कर दिया। इसके पश्चात वह खुद को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया तथा अलाउद्दीन खिलजी के नाम से 20 वर्ष तक शासन किया।

इस दौरान उसने रणथंभौर (1301), चित्तौड़ (1303) और मांडू (1305) पर क़ब्ज़ा किया और देवगिरि के समृद्ध हिन्दू राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। उन्होंने मंगोलों के आक्रमण का भी मुंहतोड़ जवाब दिया। अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर को 1308 में दक्षिण पर क़ब्ज़ा कर लिया, कृष्णा नदी के दक्षिण में होयसल वंश को उखाड़ फेंका और सुदूर दक्षिण में मदुरै पर अधिकार कर लिया। जब 1311 में मलिक काफूर दिल्ली लौटे, तो वह लूट के माल से लदे थे।

इसके बाद अलाउद्दीन और वंश का सितारा डूब गया। 1316 के आरंभ में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो गई। इसके पश्चात मलिक काफूर द्वारा सत्ता पर अधिकार करने की कोशिश में उसकी भी मृत्यु हो गयी। अंतिम ख़लजी शासक कुतुबुद्दीन मुबारक शाह की उनके प्रधानमंत्री खुसरो ख़ां ने 1320 में हत्या कर दिया। बाद में तुग़लक वंश के प्रथम शासक ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने खुसरो ख़ां से गद्दी छीन ली।

खिलजी वंश के महत्वपूर्ण शासक

खिलजी वंश के प्रमुख शासकों में अलाउद्दीन खिलजी का नाम सबसे प्रमुख है। उनके शासनकाल में सल्तनत ने कई सैन्य विजय प्राप्त की और प्रशासनिक सुधारों की शुरुआत की।

खिलजी वंश में 6 सुल्तान हुए, जिनके नाम क्रमशः निम्नलिखित हैं-

खिलजी वंश का दूसरा शासक रुकुनुद्दीन खिलजी बहुत ही अल्प समय के लिए शासक बना था। सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के हत्या के बाद जलालुद्दीन की विधवा और रुकुनुद्दीन की माँ ने रुकुनुद्दीन के सुल्तान होने की घोषणा कर दिया। परन्तु अलाउद्दीन के आने के बाद से दोनों माँ और बेटा दिल्ली छोड़कर मुल्तान चले गए। बहुत ही कम दिनों तक सुल्तान रहने के कारण बहुत से इतिहासकार खिलजी वंश के शासकों में इसका नाम नहीं लेते है, और खिलजी वंश पर राज्य करने वाले पांच शासकों का ही नाम बताते हैं।

1. जलालुद्दीन फिरोज खिलजी (1290-1296)

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी खिलजी वंश का संस्थापक था। खिलजी ने भारत में सत्ता स्थापना के बाद जलालुद्दीन की पदवी धारण की। उन्होंने अपने शासनकाल में दिल्ली सल्तनत की स्थिरता के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। जलालुद्दीन खिलजी ने बलबन के कार्यकाल में एक अच्छे सेनानायक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी। उसने कई अवसरों पर मंगोल आक्रमण को निष्क्रिय किया।

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी का वास्तविक नाम मलिक फिरोज खिलजी था। उसने 1290 से 1296 तक शासन किया। जलालुद्दीन खिलजी को एक उदार शासक के रूप में याद किया जाता है, इसलिए उसे ‘संत शासक’ भी कहा जाता है। उसके शासनकाल के दौरान सबसे महत्वपूर्ण प्रतिकार सिदी मौला का था, जिसे उसने फांसी दिया था।

जलालुद्दीन ने रणथंभौर किले पर घेरा डालने का प्रयास किया जो असफल रहा। रणथम्भौर किला उस समय का सबसे शक्तिशाली और सुदृढ़ किला माना जाता था। उस समय रणथंभौर के शासक हमीर देव थे।

जलालुद्दीन के समय 1292 ई. में अब्दुल्ला के नेतृत्व में मंगोलों ने आक्रमण किया। इसी के समय एक और मंगोल आक्रमण हलाकू के पौत्र उलूग खां के नेतृत्व मे हुआ। जलालुद्दीन के काल में लगभग 4 हजार मंगोल इस्लाम धर्म को स्वीकार कर दिल्ली के निकट मुगलपुर/मंगोलपुरी में बस गए, जो ‘नवीन मुसलमान’ कहे गए।

जलालुद्दीन ने अपने भतीजे अलाउद्दीन को हासी और कड़ा का इक्तेदार नियुक्त किया। अलाउद्दीन एक अत्यंत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने गुजरात और दक्षिण भारत पर आक्रमण करने की अनुमति जलालुद्दीन से मांगी। उसने 1293 में मिलसा (गुजरात) और 1294 में देवगिरि (महाराष्ट्र) पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान अलाउद्दीन को अत्यधिक संपत्ति मिली।

यह संपत्ति आदर्श रूप से राज्य के केंद्रीय खजाने में जमा की जानी चाहिए थी, हालांकि, उसने इसे अपने पास रखा। जब जलालुद्दीन ने पूछा, तो जलालुद्दीन को अलाउद्दीन ने कड़ा नामक स्थान पर बुलाया ताकि वह संपत्ति जमा कर सके। परन्तु, कड़ा में अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर खुद को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया।

हालाँकि कुछ इतिहासकारों के मुताबिक अलाउद्दीन खिलजी की जीत से खुश होकर सुल्तान जलालुद्दीन उससे मिलने कड़ा पहुचता है जहा पर एक षड्यंत्र के तहत अलाउद्दीन खिलजी उसकी हत्या कर सत्ता पर अपना अधिकार कर लेता है।

2. रूकनुद्दीन खिलजी (1296 ई.)

अलाउद्दीन खिलजी सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या धोखे से कर देता है। यह बात जब जलालुद्दीन खिलजी की विधवा मलका-ए-जहाँ को पता चलती है तो उसने रईसों से परामर्श किए बिना, अपने सबसे छोटे बेटे कादर खान को 1296 ई. में रुकनुद्दीन इब्राहिम की उपाधि के साथ नया राजा नियुक्त कर दिया। इस प्रकार रुकुनुद्दीन खिलजी सल्तनत का सुल्तान बन गया। परन्तु वह ज्यादा दिनों तक सुल्तान नहीं रहा। 

जब मलिका-ए-जहाँ ने सुना कि सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के सरदार अलाउद्दीन से मिल गए गए हैं, तो उसने अरकली से सहायता मांगी और उसे सिंहासन की पेशकश की, तथा उससे मुल्तान से दिल्ली आने का अनुरोध किया। परन्तु, अरकली ने उसकी सहायता के लिए आने से इनकार कर दिया।

सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करने और खुद को सुल्तान घोषित करने के बाद जब अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली की तरफ चल दिया। दिल्ली के निकट सीरी नामक जगह पर रुक्नुद्दीन ने अपनी सेना के साथ उसको घेर लिया। परन्तु, रुकनुद्दीन की सेना का एक हिस्सा आधी रात को अलाउद्दीन की सेना से जा कर मिल गया। जिससे निराश होकर रुकनुद्दीन खिलजी फिर पीछे हट गया और अपनी मां और वफादार सरदारों के साथ मुल्तान भाग गया। इसके बाद अलाउद्दीन ने शहर में प्रवेश किया, जहाँ सभी अमीरों और अधिकारियों ने उसके अधिकार को स्वीकार करते हुए उसको सुल्तान मान लिया। 21 अक्टूबर 1296 को, अलाउद्दीन को औपचारिक रूप से दिल्ली में सुल्तान घोषित किया गया।

3. अलाउद्दीन खिलजी (19 जुलाई 1296 – 4 जनवरी 1316)

अलाउद्दीन खिलजी खिलजी वंश के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली शासक था। उसने न केवल दिल्ली सल्तनत का विस्तार किया बल्कि कई प्रशासनिक और आर्थिक सुधार भी किया। उसके शासनकाल में दक्षिण भारत में भी सल्तनत का विस्तार हुआ।

अलाउद्दीन खिलजी का जन्म 1266-67 ई. में हुआ माना जाता है। उसके शिहाबुद्दीन खिलजी जलालुद्दीन फिरोज खिलजी के भाई थे। अलाउद्दीन के पिता शिहाबुद्दीन खिलजी की असमय मृत्यु हो जाने के बाद उसके चाचा जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने अपने पुत्र की तरह उसका देख-भाल किया। अलाउद्दीन खिलजी का शासनकाल 1296 से 1316 तक था। उसने 19 जुलाई 1296 ई. को अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके सत्ता प्राप्त किया। उसने जलालुद्दीन के पुत्रों को भी मार डाला। 21 अक्टूबर 1296 ई. को उसने दिल्ली में उसने अपना राजतिलक कराया। 

अलाउद्दीन खिलजी ने कई दमनकारी नीतियां अपनाई और अपने विद्रोहियों का निर्ममतापूर्वक सफाया कर दिया। जलालुद्दीन खिलजी की उदार प्रकृति और गैर-विस्तारवादी नीतियों के कारण, वंश के अधीन प्रांतीय शासकों ने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया था। इसलिए अब अलाउद्दीन के लिए उन क्षेत्रों को फिर से जीतना महत्वपूर्ण हो गया। इस समय तक, मंगोलों की एक बहुत ही मजबूत सेना अपने अत्यंत आक्रामक विस्तारवादी नीति के तहत आक्रमण करती रहती थी।

मंगोलों के इन हमलों का सामना करने के लिए, अलाउद्दीन को एक बड़ी सेना की आवश्यकता थी। इसके अलावा, उसको लोगों के बीच अपनी वैद्यता भी साबित करनी थी। अपनी वैधता साबित करने के लिए, तथा एक बड़ी सेना का निर्माण करने के लिए उसने लोगों के बीच काफी धन का वितरण किया। धीरे-धीरे, वह दिल्ली के लोगों को अपने प्रभाव में लाने में सफल हुआ साथ ही साथ एक विशाल सेना का निर्माण भी किया। फिर उसने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया। उसने मंगोलों के आक्रमण को भी निष्क्रिय किया।

अलाउद्दीन खिलजी अपने प्रथम अभियान के तहत अपने भाई उलूग खां और वजीर नुसरत खां के नेतृत्व मे गुजरात के हिंदू राजा कर्णदेव पर आक्रमण करके सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया तथा वहाँ स्थित अन्हिलवाड़ा से बड़ी मात्रा में सम्पत्ति लूटकर लाई गई। उसकी सेना ने बहुत से गुलामों को कैद कर के दिल्ली लाया गया जिसमे एक गुलाम का नाम काफूर था जिसको अलाउद्दीन खिलजी ने एक हजार दीनार देकर खरीद लिया।

अलाउद्दीन के इसी गुलाम काफूर ने अनेको युद्ध में अलाउद्दीन का साथ दिया। जिस कारण से अलाउद्दीन ने काफूर को मालिक नायब का पद दिया। उसके बाद से उसको मालिक काफूर कहा जाने लगा। एक हजार दीनार में खरीदने के कारण उसको हजार दिनारी भी कहा जाता था। अलाउद्दीन खिलजी के तीन सेनापति थे, जिसमे से एक मालिक काफूर भी था।

गुजरात विजय के बाद भी अलाउद्दीन खिलजी अपना अभियान जारी रखा तथा अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त किया। 1301 ई. में उसने रणथम्भौर को, 1303 ई. में चित्तौड़  को, 1309 ई. में सिवाना तथा जालौर को भी अपने अधीन कर लिया। अलाउद्दीन खिलजी इसके बाद भी नहीं रुका और उसने अपने विजय अभियान के क्रम में उज्जैन, धार, मांडू और चंदेरी को भी जीत लिया।

इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने मलिक काफूर के नेतृत्व में दक्षिणी अभियान की शुरूआत की। और 1307 ई. में देवगिरि को पुनः जीता तथा 1310 ई. में ओरंगल के काकतीय राज्य को ध्वस्त कर दिया। 1310 ई. में ही द्वारसमुद्र अभियान की शुरूआत किया। जिसके तहत वह 1311 ई. में द्वारसमुद्र की घेराबंदी करने में सफल हो गया और बल्लालदेव को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया।

इस प्रकार अलाउद्दीन की सेना 1311 ई. में अपार सम्पत्ति के साथ दिल्ली लौटी। अब दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला खिलजी वंश का विस्तार हिमालय से कन्याकुमारी तक हो चुका था।

1312 ई. के बाद अलाउद्दीन खिलजी को कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं हुई। 5 जनवरी, 1316 ई. को जलोदर रोग के कारण अलाउद्दीन का निधन हो गया।

अलाउद्दीन के राज्य में कवियों को आश्रय मिला हुआ था। अमीर खुसरो और अमीर हसन जैसे कवि उसके राज्य में थे। अलाउद्दीन इमारतें बनवाने का शौकीन था। उसने कई मस्जिदें भी बनवाई।

4. शहाबुद्दीन उमर (1316 ई.)

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात मलिक काफूर ने दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनने के लिए षड्यंत्र किया। उसने अलाउद्दीन खिलजी के नवजात शिशु शहाबुद्दीन उमर को 1316 ई. में दिल्ली सल्तनत का सुल्तान घोषित कर दिया, और स्वयं सत्ता का उपभोग करने लगा। लेकिन इसके कुछ समय पश्चात 1316 ई. में ही  मालिक काफूर की हत्या कर दी गई और उसके सौतेले भाई मुबारक खिलजी को शासक बनाया गया।

5. कुतुबद्दीन मुबारक खिलजी (1316 ई. से 1320 ई.)

अलाउद्दीन खिलजी के नवजात शिशु शहाबुद्दीन उमर के संरक्षक मालिक काफूर की 1316 ई. में हत्या हो जाने के पश्चात अलाउद्दीन खिलजी के तीसरे पुत्र और शहाबुद्दीन उमर के सौतेले भाई मुबारक खिलजी (पूरा नाम कुतुबद्दीन मुबारक खिलजी) को 19 अप्रैल 1316 ई. में दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनाया गया। अलाउद्दीन खिलजी की इस तीसरे पुत्र कुतुबद्दीन मुबारक खिलजी को इख्तियार अल-दीन के नाम से भी जाना जाता है।

गद्दी पर बैठने के बाद 1318 ई. में मुबारक खिलजी ने देवगिरि के राजा हरपाल देव पर चढ़ाई करके उनको पराजित कर दिया तथा देवगिरी के राजा हरपाल देव को बंदी बनाकर उनकी खाल उधड़वा दिया। उसके बाद वारंगल अभियान किया। उस समय इस समय वारंगल का सेनापति प्रताप रुद्रदेव था। अपने शासन काल में उसने गुजरात के विद्रोह का दमन किया। अपने अंतिम अभियान में मुबारक खिलजी पाण्डेय राजाओं को परास्त कर अपने अधीन कर लिया। इन विजयों के कारण उसका दिमाग फिर गया वह अपना समय सुरा तथा सुन्दरियों के साथ व्यतीत करने लगा तथा शासन की पूरी जिम्मेदारी उसके वजीर खुसरो खां सँभालने लगा। खुसरो खां हिन्दू धर्म से परिवर्तित मुस्लमान था।

मुबारक खिलजी की इन विजयों के अतिरिक्त अन्य किसी भी विजय का वर्णन नहीं मिलता है। क़ुतुबुद्दीन मुबारक़ ख़िलजी ने अपने सैनिकों को छः महीने का अग्रिम वेतन दिया था। विद्धानों एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की छीनी गयी जागीरें उन्हें वापस कर दिया। अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर दण्ड व्यवस्था एवं बाज़ार नियंत्रण आदि व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया।

क़ुतुबुद्दीन मुबारक़ ख़िलजी को नग्न स्त्री-पुरुषों के साथ रहना पसंद करता था। अपनी इसी आदत के कारण कभी-कभी वह राज्य दरबार में स्त्री का वस्त्र पहन कर आ जाता था। इतिहासकार ‘बरनी’ के अनुसार मुबारक खिलजी कभी-कभी निर्वस्त्र (नग्न) होकर भी दरबार में आता था।

मुबारक खिलजी के पिता अलाउद्दीन के समय 1305 ई. में जब अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर विजय प्राप्त की थी, उस समय उसकी सेना द्वारा वहा से कुछ व्यक्तियों को कैद कर के गुलाम के रूप में दिल्ली लाया गया। उन गुलामों को जबरजस्ती इस्लाम धर्म में परिवर्तित कराया गया। उन्ही गुलामों में से बरादु नामक एक हिंदू जाति के दो हिन्दू भाईयों को भी इस्लाम धर्म में परिवर्तित कराकर उनका नाम हसन और हुसामुद्दीन रखा गया।

दोनों भाइयों ने अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए सुल्तान के साथ निष्क्रिय समलैंगिकों के रूप में काम किया। सुल्तान मुबारक़ ख़िलजी ने हसन और उसके भाई हुसामुद्दीन दोनों के साथ समलैंगिक सम्बन्ध बनाये। उसने समलैंगिक साथी के रूप में हसन को प्राथमिकता दी। हसन के साथ सुल्तान का रिश्ता इतना गहरा बन गया था कि वह हसन के बिना रह नहीं पाता था। हसन की अनुपस्थिति में वह हुसामुद्दीन के साथ समलैंगिक सम्बन्ध बनता था। सुल्तान मुबारक खिलजी और हसन के समलैंगिक रिश्ते के बारे में सबको पता था। सुल्तान मुबारक खिलजी और हसन सार्वजनिक रूप से एक दूसरे से गले मिलते थे, तथा चुंबन का आदान-प्रदान भी करते थे।

इतिहासकार बरनी के अनुसार, सुल्तान मुबारक खिलजी हसन पर इतना मोहित हो गया था, कि वह एक पल के लिए भी उससे अलग नहीं होना चाहता था। सुल्तान मुबारक खिलजी ने हसन को मलिक काफूर की पूर्व जागीर सौपने के साथ-साथ खुसरो खां की उपाधि दी। तथा एक वर्ष अन्दर ही उसने खुसरो खाँ को पदोन्नत कर वजीर बना दिया।

उसने ‘अल इमाम’, ‘उल इमाम’ एवं ‘ख़िलाफ़़त-उल्लाह’ की उपाधियाँ धारण की थीं। उसने ख़िलाफ़़त के प्रति भक्ति को हटाकर अपने को ‘इस्लाम धर्म का सर्वोच्च प्रधान’ और ‘स्वर्ग तथा पृथ्वी के अधिपति का ‘ख़लीफ़ा घोषित किया था। साथ ही उसने ‘अलवसिक विल्लाह’ की धर्म की प्रधान उपाधि भी धारण किया था।

मुबारक खिलजी के शासनकाल के दौरान उसके वजीर खुसरो खां के प्रभाव में वृद्धि हुई और वह सुल्तान का विश्वासपात्र वजीर बन गया। मौका पाकर खुसरो खां ने 9 जुलाई,1320 ई. को मुबारक खिलजी की हत्या कर दी और स्वयं सुल्तान बन गया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का शासन समाप्त हो गया। कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का अंतिम शासक था। हालाँकि इसके बाद उसका वजीर खुसरों खां दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठता है, और 2 महीने (10 जुलाई 1320 ई. से 5 सितंबर 1320 ई.) तक खिलजी वंश के अंतर्गत ही शासन करता है, परन्तु वह अलाउद्दीन खिलजी का पुत्र (खिलजी वंश) नहीं था बल्कि एक गुलाम था। जिसको अलाउद्दीन खिलजी की सेना द्वारा मालवा पर विजय प्राप्त करने के बाद अन्य गुलामों के साथ कैद कर के दिल्ली लाया गया था।

कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी ने सन 1316 ई. से 1320 ई. तक दिल्ली में शासन किया। अपने शासन के दौरान मुबारक खिलजी ने कई उदारतापूर्ण कार्य किए। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बंदी बनाए गए सभी व्यक्तियों को उसने छोड़ दिया, लोगों से छीनी गई जमीन लौटा दी गई तथा सैनिकों का वेतन बढ़ा दिया। अपने शासनकाल के दौरान उसने दक्षिण भारत के देवगिरि राज्य को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।

6. नसिरूद्दीन खुसरो खां (10 जुलाई 1320 ई. – 5 सितंबर 1320 ई.)

नसीरुद्दीन खुसरो खान 10 जुलाई 1320 ई. से 5 सितंबर 1320 ई. तक लगभग दो महीने के लिये दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठ कर खिलजी वंश के अंतर्गत शासन करने वाला भारतीय था, जिसको उसका धर्म परिवर्तित करके हिन्दू से मुसलमान बनाया गया था। सुल्तान नासिरुद्दीन खुसरो खां मूल रूप से गुजरात क्षेत्र के बरादु नामक एक हिंदू जाति का था, जिसको 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की मालवा पर विजय के दौरान सेना ने पकड़ लिया था।

जिसके बाद उसको तथा उसके भाई को गुलाम के रूप में दिल्ली ला कर उनका हिन्दू धर्म परिवर्तित कर इस्लाम धर्म कुबूल कराया गया, तथा उसका नाम हसन एवं उसके भाई का नाम हिसामुद्दीन रखा गया। इसके पश्चात वह अलाउद्दीन खिलजी के तीसरे पुत्र मुबारक खिलजी का समलैंगिक साथी बन गया। 1316 ई. में सिंहासन पर बैठने के बाद, मुबारक शाह ने उन्हें “खुसरो खान” की उपाधि दी, और उनका बहुत समर्थन किया।

हसन से खुसरो खां बनने के बाद उसने 1317 में देवगिरी पर दिल्ली का नियंत्रण फिर से स्थापित करने के लिए एक सफल अभियान का नेतृत्व किया। अगले वर्ष, उसके नेतृत्व वाली सेना ने वारंगल को घेर लिया और वहां के काकतीय वंश के शासक प्रतापरुद्र को दिल्ली को कर देने के लिए मजबूर कर दिया। इस प्रकार खुसरो खां सुल्तान मुबारक खिलजी का भरोसा जितने में कामयाब हो गया और सुल्तान का अत्यंत विश्वासपात्र बन गया। इसके पश्चात सुल्तान ने उसे वजीर बना दिया।

इसके पश्चात खुसरो खां एक षड्यंत्र के तहत 9 जुलाई,1320 ई. को सुल्तान मुबारक खिलजी की हत्या करा देता है एवं उसकी की माँ झट्यपाली की भी हत्या करा देता है। इसके बाद उसने अपने विश्वासपात्र सैनिक बारादुस द्वारा पूर्व सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शेष बचे जीवित पुत्रों फरीद खान और अबू बक्र खान को भी मरवा डाला तथा अन्य तीन पुत्रों बहाउद्दीन खान, अली खान, और उस्मान खान को अंधा करके लाल महल में कैद कर दिया गया। उन्होंने अलाउद्दीन खिलजी की बहन के बेटे मलिक नुसरत को भी मार डाला ताकि किसी भी स्थिति में सिंहासन का कोई वारिस न बचे।

खुसरो खां ने सभी महत्वपूर्ण दरबारियों पर दबाव बनाकर उनका समर्थन लेते हुए 10 जुलाई 1320 को नसीरुद्दीन नाम के साथ स्वयं दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया। हालाँकि, लगभग दो महीने बाद ही 5 सितंबर 1320 ई. को कुलीन मलिक तुगलक के नेतृत्व वाले विद्रोहियों के एक समूह ने उसे सिंहासन से हटा दिया। इन विद्रोहियों के एक नेता गयासुद्दीन तुगलक (गयासुद्दीन तुगलक पहले कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी की सेना का सेनापति था) ने खुसरो खां की हत्या करके 08 सितम्बर 1320 ई. को खुद सिंहासन पर बैठ गया, और दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत एक नए वंश तुगलक वंश की स्थापना किया।

सुल्तान खुसरो खां ने अपने नाम का खुतबा पढवाया और अपने नाम के सिक्के भी ढलवाए। उसने पैगम्बर के सेनापति की उपाधि ग्रहण की थी। वह हिन्दू से परिवर्तित होकर मुसलमान बना था, इसलिए उसके शत्रुओं ने उसके विरूद्ध इस्लाम का शत्रु व इस्लाम खतरे में है, के नारे लगाये।

खिलजी वंश में प्रशासनिक सुधार

खिलजी वंश ने प्रशासन में कई सुधार किए जिससे तुर्क अधिकारियों का प्रभाव कम हुआ। उन्होंने एक मजबूत केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली स्थापित की और सैनिकों के वेतन में सुधार किया। इसके अलावा, अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियंत्रण और कीमतों की स्थिरता के लिए भी कई कदम उठाए।

खिलजी वंश का सांस्कृतिक योगदान

खिलजी वंश के शासनकाल में कला और संस्कृति को भी बढ़ावा मिला। इस अवधि में स्थापत्य कला का विकास हुआ और कई महत्वपूर्ण इमारतें और स्मारक बनाए गए। खिलजी वंश का दिल्ली सल्तनत के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है। उनके शासनकाल में प्रशासनिक सुधार, सैन्य विजय और सांस्कृतिक विकास हुए।


इन्हें भी देखें –

Leave a Comment

Contents
सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.