गीत : स्वर, ताल, लय और भावों की भारतीय परंपरा

गीत मानवीय भावनाओं को स्वर और ताल के माध्यम से अभिव्यक्त करने की एक अद्वितीय विधा है। यह साहित्य, संगीत और लोकजीवन का अभिन्न हिस्सा है। गीत में शब्द होते हैं जो लयबद्ध होकर सुरों के साथ गाए जाते हैं। इसे सुनने से अधिक गाया जाता है क्योंकि इसका उद्देश्य ही गेय प्रस्तुति है। गीत में एक मुखड़ा होता है, जिसे बार-बार दोहराया जाता है, और कई अंतरे होते हैं जो इसकी भावभूमि को विस्तारित करते हैं। भारतीय लोक-साहित्य, धार्मिक अनुष्ठानों और सामाजिक उत्सवों में गीत का विशेष स्थान है। यही कारण है कि गीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और सामूहिक भावनाओं की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है।

गीत के मुख्य तत्व

स्वर और ताल

गीत में सुरों का प्रयोग किया जाता है और इसे एक निश्चित ताल में बांधा जाता है। सुरों की मधुरता और ताल की नियमितता गीत को संगीतात्मक बनाती है। सुर, जो संगीत की आत्मा है, गीत में भावों को गहराई प्रदान करते हैं, जबकि ताल, जो समय का नियमन है, गीत को गति और लय देता है। ताल के बिना गीत की संरचना अधूरी मानी जाती है। भारत में तीनताल, एकताल, झूमरा, रूपक, दीपचंदी, कहरवा आदि तालों का प्रयोग विविध गीतों में किया जाता है।

शब्द और लय

गीत में शब्दों का चयन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। ये शब्द लय में बंधे होते हैं ताकि उनका उच्चारण सुरों के साथ सहजता से हो सके। गीत का साहित्य सरल भी हो सकता है और गहन भी। यह परिस्थिति, भाव, धार्मिकता, प्रेम, करुणा, उल्लास आदि भावों को शब्दों के माध्यम से प्रकट करता है। लय गीत को एक प्रवाह देती है, जिससे श्रोता भावों में डूब सकते हैं।

संरचना

गीत की संरचना में एक मुखड़ा और कई अंतरे होते हैं। मुखड़ा गीत की शुरुआत में आता है और प्रत्येक अंतरे के बाद दोहराया जाता है। यह दोहराव गीत में एक स्थिरता लाता है और श्रोता को भावों में स्थिर करता है। अंतरे गीत की कहानी या भाव को विस्तार देते हैं। कभी-कभी अंतरे में नया विचार प्रस्तुत किया जाता है, जबकि मुखड़ा पूरे गीत को जोड़ने वाला सूत्र होता है।

गेय पद्धति

गीत को सुनाया नहीं जाता, बल्कि गाया जाता है। इसकी रचना इस प्रकार की होती है कि वह स्वर और ताल के साथ ही पूरी अर्थवत्ता प्राप्त करती है। सुप्रसिद्ध गीतकार गोलेन्द्र पटेल ने कहा है कि “हृदय और मन के बीच जो तार है, उस पर मानवीय संवेदना के संघात से उत्पन्न आत्मस्वर गीत है।” अर्थात् गीत जीवन की आत्मा का स्वर है, जो सुरों में बंधकर भावों को व्यक्त करता है।

गीत के प्रकार

लोकगीत

लोकगीत भारतीय समाज का जीवंत स्वरूप हैं। ये विभिन्न समुदायों, जातियों और धार्मिक समूहों के बीच पीढ़ियों से प्रचलित हैं। होली के गीतों में रंगों का उत्सव झलकता है, कजरी में वर्षा ऋतु की विरह भावना, और सोहर में नवजात शिशु के स्वागत का उल्लास। लोकगीत समाज की सामूहिक चेतना का हिस्सा होते हैं, जो उत्सवों, विवाह, जन्म, मृत्यु, फसल आदि अवसरों पर गाए जाते हैं।

शास्त्रीय गीत

भारतीय शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी जैसे गीत शामिल हैं। ये शैलीगत रूप से अत्यंत परिष्कृत होते हैं और इनके गायन में विशिष्ट नियमों का पालन किया जाता है। ध्रुपद, जो प्राचीन संगीत का प्रतिनिधि है, गंभीर और गहराई लिए होता है। ख्याल में कल्पनाशक्ति का विस्तार होता है जबकि ठुमरी में भावुकता और शृंगार की प्रधानता होती है।

पर्वगीत

विशेष पर्वों पर गाए जाने वाले गीत पर्वगीत कहलाते हैं। छठ, होली, जन्माष्टमी, दिवाली जैसे अवसरों पर इन गीतों का प्रयोग होता है। ये गीत धार्मिक भक्ति और सांस्कृतिक उल्लास को एक साथ जोड़ते हैं। पर्वगीत समाज में एकता और उत्सवधर्मिता को बढ़ावा देते हैं।

निबद्ध गीत और उनकी शैली

आधुनिक काल में ध्रुपद, धमार, ठुमरी आदि निबद्ध संगीत का प्रचार है। गायन शैली के आधार पर ही एक गीत दूसरे से अलग होता है। उदाहरण के लिए ख्याल में तीनताल, एकताल, झूमरा का प्रयोग होता है, जबकि ध्रुपद में चारताल, तीव्रा, सूलफाक का और ठुमरी में दीपचंदी और जपताल का। शैली और ताल का घनिष्ठ संबंध गीत को विशिष्ट पहचान देता है।

गीत का ऐतिहासिक विकास

प्राचीन काल : निर्गीत और ध्रुवा

प्राचीन समय में गीत का स्वरूप अलग था। जिन गानों में सार्थक शब्दों की जगह निरर्थक अक्षरों का प्रयोग होता था, उन्हें निर्गीत या बहिर्गीत कहा जाता था। जैसे तनोम, तननन, दाड़ा दिड़ दिड़, दिग्ले झंटुं झंटुं आदि। आज का तराना इसी परंपरा का रूपांतर माना जाता है।

भरत के समय में गीत के आधारभूत पदसमूह को ध्रुवा कहा जाता था। नाटक में प्रयोग के अनुसार पांच प्रकार की ध्रुवा होती थीं: प्रावंशिकी, नैष्क्रामिकी, आक्षेपिकी, प्रासदिकी और अंतरा। ये पद नाट्यकला में प्रयोग होते थे और समय के साथ संगीत की आधारशिला बने।

प्रबंध का उद्भव

9वीं और 10वीं सदी में स्वर और ताल से बंधे गीत प्रबंध कहलाने लगे। प्रबंध का प्रारंभिक भाग उद्ग्राह कहलाता था, जिसे बार-बार दोहराया जाता था। यह गीत का स्थिर भाग था, जिसे छोड़ा नहीं जा सकता था। ध्रुव शब्द का अर्थ ही है ‘स्थिर’। आज इसे टेक कहा जाता है। अंतिम भाग आभोग कहलाता था और इनके बीच अंतरा आता था। जयदेव का गीतगोविंद प्रबंध का उत्कृष्ट उदाहरण है। लगभग चार सौ वर्षों तक प्रबंध गीत प्रचलित रहा। मंदिरों में आज भी प्राचीन प्रबंध सुनने को मिलते हैं।

ध्रुवपद का विकास

प्रबंध के बाद ध्रुवपद गीत का विकास हुआ। इसमें उद्ग्राह की जगह स्थायी आया। स्थायी का एक टुकड़ा बार-बार दोहराया जाता था। अंतरा, संचारी और आभोग इसके अन्य भाग थे। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने 15वीं सदी में ध्रुवपद को प्रोत्साहित किया। तानसेन जैसे महान गायक इसी परंपरा से जुड़े। यह चौताल, आड़ा चौताल, सूलफाक, तीव्रा आदि तालों में गाया जाता था।

ख्याल का उद्भव

14वीं सदी में अमीर खुसरो ने ख्याल गायकी का प्रारंभ किया। 15वीं सदी में जौनपुर के शर्की राजाओं के समय में इसका विकास हुआ और 18वीं सदी में मुहम्मद शाह के दरबार में यह लोकप्रिय हुआ। अदारंग और सदारंग जैसे गायक ख्याल की रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हुए। इसमें स्थायी और अंतरा होते हैं। अलाप, तान, बालतान, लयबाँट आदि से इसे सजाया जाता है।

ठुमरी, दादरा और टप्पा

ठुमरी में शृंगार प्रधान पद होते हैं। इसे पंजाबी ठेका, दीपचंदी आदि तालों में गाया जाता है। यह दो प्रकार की होती है: बोल आलाप की ठुमरी और बोल बाँट की ठुमरी। दादरा ताल में गाया जाने वाला दादरा गीत भी लोकप्रिय है। टप्पा, पंजाबी भाषा में मिलता है और इसकी तानों में द्रुत लय और विशिष्ट कंप देखने को मिलता है।

चतुरंग गीत

चतुरंग गीत में चार अंग होते हैं: बोल या साहित्य, तर्राना, सरगम और मृदंग/तबले के बोल। यह गीत शैली की विविधता को दर्शाता है।

साक्षर सरगम

इसमें सप्तस्वरों (स, रे, ग, म, प, ध, नि) के प्रथम सांकेतिक अक्षरों से गीत बनाया जाता है। जिस राग का सरगम होता है उसी राग के स्वर प्रयुक्त होते हैं।

स्वरावर्त, तर्राना और तिल्लाना

स्वरावर्त या स्वरसाहित्य में किसी राग का सरगम ताल में बंधता है। इसमें अर्थ नहीं होता। तर्राना में त नोम तनन तदेर दानि आदि अक्षरों का प्रयोग होता है। कर्णाटक संगीत में इसे तिल्लाना कहा जाता है। इसमें मृदंग या तबले के बोल भी सम्मिलित किए जाते हैं।

सादरा

ध्रुवपद अंग से विकसित सादरा गीत मध्य या द्रुत लय में गाया जाता है। यह जपताल में प्रस्तुत होता है और विशिष्ट लयबद्धता का उदाहरण है।

रागमलिका या रागसागर

एक गीत के विभिन्न पद या अंश जब अलग-अलग रागों में बंधे होते हैं तो उसे रागमलिका कहा जाता है। इसे हिंदुस्तानी संगीत में रागसागर कहा जाता है। इसमें विभिन्न रागों के नाम भी आते हैं और गीत का समग्र भाव एक सूत्र में बंधता है।

कीर्तन और कृति

कर्णाटक संगीत में कीर्तन और कृति का विशेष स्थान है। पल्लवी स्थायी जैसा होता है, अनुपल्लवी अंतरा जैसा। चरणम् अन्य पद होते हैं। त्यागराज, श्याम शास्त्री, मुथुस्वामी दीक्षितार जैसे महान रचनाकारों ने इन्हें समृद्ध किया। दीक्षितार की रचनाएँ ध्रुवपद से मिलती-जुलती हैं।

क्षेत्रीय गीत परंपराएँ

बंगाल में कीर्तन प्रबंध और ध्रुवपद पर आधारित होते हैं। वहाँ दोटुकी, लोफा, दासप्यारी, दशकुशि जैसे तालों का प्रयोग मिलता है। महाराष्ट्र में कीर्तनगान द्वारा कथा कही जाती है और भजन गाए जाते हैं। कर्णाटक शैली में पद्म गीत और जावड़ी गीत शृंगार रस में बंधे होते हैं।

गीत का महत्व

सामाजिक अभिव्यक्ति

गीत समाज की भावनाओं का दर्पण है। यह व्यक्ति के सुख-दुख, प्रेम-विरह, उत्सव और संघर्ष को प्रकट करता है। सामूहिक गान से सामाजिक एकता का निर्माण होता है और परंपराओं का संरक्षण होता है।

सांस्कृतिक परंपरा

गीत धार्मिक अनुष्ठानों, ज्ञान के प्रसार, त्योहारों और सांस्कृतिक समारोहों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह समाज की स्मृतियों को जीवित रखता है और नई पीढ़ियों को सांस्कृतिक विरासत से जोड़ता है।

आध्यात्मिकता और आत्मअनुभूति

गीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि आत्मा के स्पर्श का मार्ग है। इसमें मन की गहराइयों से उठती संवेदनाएँ स्वर और ताल के माध्यम से व्यक्त होती हैं। गोलेन्द्र पटेल के शब्दों में, गीत हृदय और मन के बीच की तार पर बजता आत्मस्वर है।

तालिका : प्रमुख गीतों के प्रकार, ताल और विशेषताएँ

गीत का प्रकारप्रमुख तालविशेषताएँ
ध्रुपदचारताल, तीव्रागंभीरता, गहराई, स्थायी-अंतरा संरचना
ख्यालतीनताल, एकताल, झूमराकल्पना, अलाप, तान, लयबाँट
ठुमरीदीपचंदी, जपतालशृंगार, भावुकता, बोल आलाप व बोल बाँट
दादरादादरा, कहरवासरल संरचना, मधुरता
टप्पाद्रुत लयतेज तानें, कंपयुक्त शैली
चतुरंगविभिन्न तालचार अंगों का समावेश
कीर्तनत्रिताल, कहरवाधार्मिकता, भक्ति, कथा का समावेश
कृतिविभिन्न तालजटिल स्वरसंगति, नृत्य के साथ
रागमलिका/रागसागरमिश्रित तालभिन्न रागों का संयोजन

उदाहरण : विभिन्न गीतों के मुखड़े और अंतरे

लोकगीत – कजरी
मुखड़ा:
“बरसन लागल बदरिया घनघोर, सजन घर नहीं आए…”
अंतरा:
“पपीहा बोले दूर कहीं, मनवा तरसत जाए…”

ध्रुपद
मुखड़ा:
“शंकर शंभु महादेव, करहु कृपा मुझ पर…”
अंतरा:
“भक्ति में डूबा मन, हर हर महादेव गाऊँ…”

ठुमरी
मुखड़ा:
“बिरहा की पीड़ा सह न पाऊँ…”
अंतरा:
“सजन बिन मोरा मन उदास, नैना बरसे जाएँ…”

ख्याल
मुखड़ा:
“प्रभु चरणन की आस, मन मोरा रे…”
अंतरा:
“तन मन समर्पित करूँ, हरि बिना न चैन…”

कीर्तन
मुखड़ा:
“राधे राधे जपो, मनवा रे…”
अंतरा:
“श्रीकृष्ण नाम ले, सुख पाओ रे…”

निष्कर्ष

गीत भारतीय संगीत और साहित्य की प्राचीन तथा समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी संरचना, ताल, लय, शब्द, शैली और भावों का समुच्चय भारतीय समाज की सांस्कृतिक पहचान है। लोक से लेकर शास्त्र तक, पर्व से लेकर भक्ति तक, गीत जीवन के हर पहलू में उपस्थित है। यह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, धार्मिक विश्वास और आत्मानुभूति का जीवंत स्वर है। पीढ़ियों से चली आ रही परंपराएँ आज भी गीत के माध्यम से सजीव हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेंगी।


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