गुप्त साम्राज्य ने तीसरी शताब्दी के मध्य से 550 ई. तक उत्तर-पूर्वी भारत में मगध राज्य पर शासन किया। 5वीं शताब्दी के संस्कृत कवि कालिदास ने गुप्तों को भारत के बाहर और अंदर परासिक, हूण, कम्बोज और अन्य सहित लगभग 21 राज्यों पर विजय प्राप्त करने का श्रेय दिया। मौर्य वंश के पतन के बाद नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय भी गुप्त साम्राज्य को दिया जाता है।
गुप्त साम्राज्य के समय में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। भारतीय इतिहास का यह साम्राज्य कला, विज्ञान, धर्मं, टेक्नोलॉजी (TECHNOLOGY) आदि के क्षेत्र में भारत के सभी साम्राज्यों से आगे था। गुप्त साम्राज्य के बारे में अथिक जानकारी साहित्य से मिलती है।
गुप्त साम्राज्य के तीन महत्वपूर्ण राजा हुए, चन्द्रगुप्त प्रथम , समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य )। गुप्त साम्राज्य के लोगों के द्वारा ही संस्कृत की एकता फिर एकजुट हुई। चंद्रगुप्त प्रथम ने 320 ईस्वी को गुप्त साम्राज्य की स्थापना की थी। यह वंश करीब 510 ईस्वी तक शासन में रहा।
गुप्त साम्राज्य का परिचय
- संस्थापक : श्रीगुप्त (240 ईस्वी-280 ईस्वी)
- वास्तविक संस्थापक : चन्द्रगुप्त प्रथम (319 ईस्वी-335 ईस्वी)
- शासन का समय : लगभग 510 ईस्वी तक
- प्रमुख शासक : चन्द्रगुप्त प्रथम , समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य )
गुप्त साम्राज्य (गुप्त वंश) का इतिहास
स्कंदगुप्त की मृत्य के प्रश्चात पुरुगुप्त राजा बना। पुरुगुप्त, कुमारगुप्त का पुत्र और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। पुरुगुप्त के तीन पुत्र थे कुमारगुप्त द्वितीय, बुधगुप्त और नरसिंहगुप्त बालादित्य। पुरुगुप्त के बाद उनका उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय राजा बने।
कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त ने गुप्त साम्राज्य पर शासन किया। उसके बाद नरसिंहगुप्त बालादित्य इस गुप्त साम्राज्य के आखरी शक्तिशाली राजा थे। नरसिंहगुप्त के प्रश्चात उनके पुत्र कुमारगुप्त तृतीय राजा बना। कुमारगुप्त तृतीय के प्रश्चात उनके पुत्र दामोदरगुप्त ने शासन किया। और, आखिर में महासेनगुप्त इस साम्राज्य में शसन किया था। लेकिन तब तक गुप्त राजवंश कमजोर हो गया था।
गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी तथा चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ था। मौर्याकाल की तीसरी शताब्दी ईस्वी में तीन राजवंशो का उदय हुआ था। जिनमे मध्य भारत में नाग शक्ति, दक्षिण भारत में वाकाटक शक्ति तथा पूर्वी भारत में गुप्त साम्राज्य की शक्ति प्रमुख थे।
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनः स्थापित करने का श्रेय गुप्त साम्राज्य को जाता है। गुप्त राजवंश प्राचीन भारत के सभी राजवंशों में से प्रमुख एक राजवंश था। इस गुप्त साम्राज्य का प्राचीन शुरुवाती राज्य आधुनिक भारत के उत्तर प्रदेश तथा बिहार है।
गुप्त साम्राज्य (गुप्त वंश) की उत्पत्ति
गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में रखी गयी थी, जबकि इसका उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त साम्राज्य (गुप्त वंश) का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद हर्ष के समय तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकी। हालाँकि कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का भरसक प्रयास किया।
मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात तीसरी शताब्दी ईसवी में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्ति, दक्षिण में वाकाटक तथा पूर्व में गुप्त साम्राज्य प्रमुख थे। इस वंशो में से गुप्त साम्राज्य ही एक ऐसा साम्राज्य था, जो राजनीतिक एकता को पुनः स्थापित करने में सफल रहा।
गुप्त शासको के नाम श्री, चन्द्र, समुद्र, स्कन्द आदि थे, गुप्त उनका उपनाम था, जो उनके वर्ण व जाति को परिभाषित करता था। गुप्त शासक वैश्य समुदाय से थे। इतिहास में जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वो श्रीगुप्त हैं। श्रीगुप्त द्वारा गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया गया था, जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग द्वारा 500 वर्षों के बाद किया गया।
गुप्त साम्राज्य (गुप्त वंश) के शासक
चौथी शताब्दी में उत्तर भारत में एक नए राजवंश का उदय हुआ। इस वंश का नाम गुप्तवंश था। इस साम्राज्य ने लगभग 300 वर्ष तक शासन किया। इस वंश के शासनकाल में अनेक क्षेत्रों का विकास हुआ। इस वंश के संस्थापक श्रीगुप्त थे। गुप्त साम्राज्य में श्रीगुप्त, घटोत्कच, चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त जैसे शासक हुए। इन शासकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :-
गुप्त वंश के राजा | गुप्त राजाओं के बारे में तथ्य |
श्रीगुप्त | गुप्त वंश के संस्थापक। शासनकाल 240 ई. से 280 ई. तक। ‘महाराजा’ की उपाधि का प्रयोग किया जाता था। |
घटोत्कच | श्री गुप्त का पुत्र। शासन काल 280 ईस्वी-319 ईस्वी। ‘महाराजा’ की उपाधि धारण की। |
चन्द्रगुप्त प्रथम | 320 ईस्वी से 335 ईस्वी तक शासन किया। गुप्त युग की शुरुआत की। उन्होंने ‘ महाराजाधिराज ‘ की उपाधि धारण की। लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह हुआ। गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक। |
समुद्रगुप्त | 335 ईस्वी से 380 ईस्वी तक शासन किया। वीए स्मिथ (आयरिश इंडोलॉजिस्ट और कला इतिहासकार) द्वारा ‘भारत का नेपोलियन’ कहा जाता है। उनके अभियानों का उल्लेख एरण शिलालेख (मध्य प्रदेश) में मिलता है। |
चंद्रगुप्त द्वितीय | 380-415 ईस्वी तक शासन किया। नवरत्न (उनके दरबार में 9 रत्न) । ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण किया। |
कुमारगुप्त प्रथम | 415 ईस्वी से 455 ईस्वी तक शासन किया। नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की। उन्हें शक्रादित्य भी कहा जाता था। |
स्कन्दगुप्त | 455 ईस्वी – 467 ईस्वी तक शासन किया । वैष्णव संप्रदाय के थे। स्कंदगुप्त कुमारगुप्त के पुत्र थे। हूणों के हमले को विफल कर दिया । लेकिन इससे उसके साम्राज्य के खजाने पर दबाव पड़ा। |
पुरुगुप्त | (467 ईस्वी – 473 ईस्वी) |
कुमारगुप्त द्वितीय | (473 ईस्वी – 476 ईस्वी) |
बुद्धगुप्त | (476 ईस्वी – 495 ईस्वी) |
नरसिंहगुप्त | (495 – ?) |
कुमारगुप्त तृतीय | – |
विष्णुगुप्त | गुप्त वंश का अंतिम ज्ञात शासक (540 ईस्वी – 550 ईस्वी)। |
वैन्यगुप्त | (550 – ?) गुप्त वंश के इन राजाओं के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। |
भानुगुप्त | गुप्त वंश के इन राजाओं के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। |
श्रीगुप्त (240 ईस्वी-280 ईस्वी)
गुप्त साम्राज्य के संस्थापक श्रीगुप्त थे। श्रीगुप्त ने ही गुप्त साम्राज्य की नीव राखी थी। श्रीगुप्त अपने राज्य का विस्तार करने के लिए कुछ खास कार्य नहीं किये । इनके बारे में इतिहास में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है। इस कारण से इनको केवल गुप्त साम्राज्य के संस्थापक के रूप में ही जाना जाता है। इतिहासकारों का कहना है कि गुप्त वंश के प्रथम राजा का नाम केवल “गुप्त” था और “श्री” की उपाधि उसने राजा बनने के बाद धारण की।
श्रीगुप्त सम्भवतः 240 ईस्वी से 275 ईस्वी तक मुरुण्डों के अधीन शासन करते थे। 275 ईस्वी में उन्होंने खुद को मुरुण्डों के अधीनता से स्वतंत्र कर लिया। 275 ईस्वी से श्रीगुप्त स्वतंत्र शासक के रूप में शासन करने लगे और महाराज की उपाधि धारण किये। इसलिए गुप्त साम्राज्य की शुरुआत कुछ इतिहासकारों द्वारा 240 ईस्वी मानी जाती है तो कुछ के द्वारा 275 ईस्वी मानी जाती है। श्रीगुप्त के बाद इनका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठता है।
घटोत्कच (280 ईस्वी-319 ईस्वी)
गुप्त साम्राज्य के शासक श्रीगुप्त के पश्च्यात उसका पुत्र घटोत्कच राजगद्दी पर बैठा। इसने महाराजा की उपाधि धारण की थी। उत्पन्न होते समय उसके सिर पर केश न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच रखा गया। कहा जाता है की वह अत्यन्त मायावी था जिस कारण वो जन्म लेते ही बड़ा हो गया था।
चन्द्रगुप्त प्रथम (320 ईस्वी-335 ईस्वी)
अपने पिता घटोत्कच के बाद सन् 320 ई. में चन्द्रगुप्त प्रथम राजा बने। कुषाणकाल में जब मगध की शक्ति और महत्ता समाप्त हो गई थी, उस समय चन्द्रगुप्त प्रथम ने उसे पुनः स्थापित किया। चन्द्रगुप्त प्रथम ने साकेत (अयोध्या) और प्रयागराज (इलाहाबाद) तक मगध का विस्तार किया। वह पाटलिपुत्र से शासन करते थे । उन्होंने लिच्छवी वंश की राजकुमारी से विवाह किया था।
इस विवाह के कारण मगध तथा लिच्छवियों के बीच सम्बन्ध अच्छे हुए और गुप्तवंश की प्रतिष्ठा बढ़ी। यहीं से उनका साम्राज्य विस्तार हुआ। चन्द्रगुप्त प्रथम ने सफलता पूर्वक लगभग पंद्रह वर्ष (320 ई. से 335 ई. तक) तक शासन किया। चन्द्रगुप्त प्रथम ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।
समुद्रगुप्त (335 ईस्वी-380 ईस्वी)
समुद्रगुप्त ने चन्द्रगुप्त के 15 वर्षो तक शासन करने के बाद उत्तराधिकारी के रूप में 335 ई0 में गुप्त वंश के शासक के रूप में सत्ता संभाली । समुद्रगुप्त ने करीब 50 वर्षो तक शासन किया। वह बहुत ही प्रतिभाशाली योद्धा था, अपनी बुद्धि और कौशक के बल पर उसने पूरे दक्षिण में सैन्य अभियान करके विन्ध्य क्षेत्र के बनवासी कबीलों को परास्त किया।
समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र था। जितने भी गुप्त शासक हुए उनमे सबसे महान शासक के रूप में समुद्रगुप्त को जाना जाता है । वह एक कुशल योद्धा के साथ साथ एक विद्वान, संगीतग्य और कवि भी था। एक कुशल शासक के रूप में भी समुद्रगुप्त ने अपनी पहचान बनाई। समुद्नगुप्त खुद हिन्दू धर्म का अनुयायी होते हुए भी बौद्ध और जैन धर्मों का सम्मान किया। और उन धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति उसने अपनाई।
इतिहास में समुद्रगुप्त का नाम एक विजेता और साम्राज्य निर्माता के रूप में लिया जाता है। उसके विजय अभियान के विषय में हमें ज्यादा जानकारी इलाहाबाद की प्रशस्ति से पता चलता है। इसके अलावा एरण अभिलेख और सिक्कों से भी समुद्रगुप्त के समय की जानकारी मिलती है। उस समय की अधिकांश प्रशस्तियाँ राजाओं के पूर्वजों के सम्बन्ध में जानकारी देती हैं।
इलाहाबाद प्रशस्ति के अलावा समुद्रगुप्त के बारे में चन्द्रगुप्त द्वितीय की “वंशावली” (पूर्वजों की सूची) से भी जानकारी मिलती है। इन तमाम स्रोतों से हमें पता चलता है की समुद्रगुप्त ने भी महाराजधिराज की उपाधि धारण की थी।
समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिसेण ने संस्कृत में प्रशस्ति लिखी है और बताया है कि समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के 9 राज्यों को हराया था। इन राज्यों में दिल्ली के साथ साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र भी सामिल थे , जिनको समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य में मिलाया था।
समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राज्यों को भी जीता था। ये राज्य थे – उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, पल्लव आदि. अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इन राज्यों के समर्पण के बाद समुद्रगुप्त ने इनका राज्य वापस कर दिया, परन्तु इस शर्त पर कि ये उसको नियमित कर और नजराना देते रहेंगे। इतना ही नहीं, समुद्रगुप्त ने मध्य भारत की जंगली जातियों को भी अपने अधीन कर लिया था ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) 380 ईस्वी-415 ईस्वी
समुद्रगुप्त के सफलतापूर्वक शासन करने के पश्चात समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय हुआ। चन्द्रगुप्त को विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है। इसका दूसरा नाम देवराज या देवगुप्त भी था। इनके बारे में जानकारी महरौली लौह स्तम्भ से मिलती है।
इतिहासकारों के अनुसार समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, जो समुद्रगुप्त का बड़ा पुत्र था। परन्तु रामगुप्त अत्यंत निर्बल एवं कायर था ऐसा माना जाता है कि राजगुप्त अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शक शासक को सौंपने के लिए तैयार हो गया था। और शक खेमे में अपनी पत्नी के साथ गया हुआ था । तब चन्द्रगुप्त ने शक खेमे घुसकर शक शासक को मार डाला। और बाद में चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त को भी मार डाला और ध्रुवदेवी से शादी करके खुद राजा बन गया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय के पश्चात् विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। उसकी अन्य उपलब्धियां विक्रमांक और परम्परागत थीं। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को भारत के महानतम सम्राटों में से एक माना जाता है, उसने अपने साम्राज्य का विस्तार वैवाहिक संबंधों और विजय दोनों से किया। ध्रुवदेवी और कुबेरनागा उसकी दो पत्नियाँ थीं। उसने मालवा, गुजरात व काठियावाड़ के बड़े भूभागों पर विजय प्राप्त की। इस विजय से उसे असाधारण धन की प्राप्ति हुई और गुप्त साम्राज्य की समृद्धि में वृद्धि हुई।
उसी के शासनकाल में संस्कृत के महानतम कवि व नाटककार कालीदास व बहुत से दूसरे वैज्ञानिक व विद्वान को फलने फूलने का मौका प्राप्त हुआ। चन्द्रगुप्त द्वितीय कला और साहित्य का महान संरक्षक था। उसके दरबार में विद्वानों की मंडली रहती थी, जिसे नवरत्न कहा जाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। उसने अपने यात्रा वृतान्त में मध्य प्रदेश को ब्राह्मणों का देश कहा है।
उदयगिरि, साँची, मथुरा के अभिलेख, महरौली (दिल्ली) के लौह-स्तम्भ अभिलेख और सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय की जानकारी के स्रोत हैं। इन स्रोतों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र के शकों को हराकर उनके क्षेत्रों को अधीन कर लिया।
इस सफलता से चन्द्रगुप्त द्वितीय को पश्चिमी समुद्रतट प्राप्त हुआ। भड़ौंच, कैम्बे और सोपारा के बंदरगाह पर चन्द्रगुप्त द्वितीय का नियंत्रण हो गया। इस प्रकार से गुप्त राजाओ ने पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार प्रारंभ कर दिया था। और अपने राज्य के वाणिज्य-व्यापार को बढ़ा सका। उसने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाई।
कुमारगुप्त प्रथम (415 ईस्वी – 455 ईस्वी)
चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद कुमारगुप्त प्रथम सन् 415 ई. में राजा बना। उसने शासनकाल की जानकारी भितरी अभिलेख, भिल्साद स्तम्भ अभिलेख, गढ़वा अभिलेख और मनकुवार मूर्ति अभिलेख से मिलती है। अपने दादा समुद्रगुप्त की तरह उसने भी अश्वमेघ यज्ञ के सिक्के जारी किये।
कुमारगुप्त ने चालीस वर्षों तक शासन किया। वह चन्द्रगुप्त का सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। इसके शासनकाल में शान्ति और सुव्यवस्था थी एवं साम्राज्य की उन्नति अपने चरमोत्कर्ष पर थी।
उस समय के अभिलेखों या मुद्राओं से पता चलता है कि उसने अनेक उपाधियाँ जैसे महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी। उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी।
स्कन्दगुप्त (455 ईस्वी-467 ईस्वी)
गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु सन 455 ई. में पुष्यमित्र के आक्रमण के समय हो जाती है, जिसके उपरांत उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। स्कंदगुप्त गुप्तवंश का अंतिम महत्वपूर्ण शासक था। वह एक वीर और पराक्रमी योद्धा था। सिंहासन पर बैठने के बाद स्कन्दगुप्त ने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की।
इसके शासनकाल में हूणों (मलेच्छों) का आक्रमण हुआ। इस समय हूणों ने उत्तर पश्चिम से कई बार आक्रमण किया था, लेकिन उसने अपने पराक्रम से हूणों को पराजित कर साम्राज्य की प्रतिष्ठा स्थापित की। इस कारण से स्कन्दगुप्त को शकरादित्य की उपाधि मिली थी। स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया। स्कन्दगुप्त ने 12 वर्ष तक शासन किया।
गुप्त शासकों ने साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की थी। इसका लाभ उठाकर हूणों ने भारत पर कई बार आक्रमण किया जिससे गुप्त साम्राज्य कमजोर हो गया और उसका पतन होने लगा। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद कई राज्यों का उदय हुआ जिनमें प्रमुख रूप से उत्तर भारत में कन्नौज के हर्षवर्धन का राज्य और दक्षिण भारत में वातापी के चालुक्य और काँचीपुरम के पल्लवों के राज्य थे ।
स्कंदगुप्त एक योग्य सैन्य संचालक होने के साथ ही एक कुशल प्रशासक भी था। स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं। इसका शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी।
466 ई. में एक चीनी राजदूत सम्राट स्कंदगुप्त के दरबार में आता है, जो उसके मैत्रीपूर्ण संबंधों के बारे में बताता है। और स्कंदगुप्त को सौ राजाओं के स्वामी की भी उपाधि से विभूषित करता है। स्कन्दगुप्त अपनी प्रजा से प्रेम करने वाला शासक था वो लगातार अपनी प्रजा के सुख-दुःख की चिन्ता करता रहता था। अभिलेख से ज्ञात होता है उसके शासन काल के दौरान भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया जिसे उसने बड़ी मात्रा में धन का व्यय करके 2 माह के भीतर उस बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।
स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया।गुप्त साम्राज्य के बाद के शासकों की कमजोरी का लाभ उठाकर एक ओर सामंतों ने सर उठाना शुरू किया, तो वही दूसरी ओर हूणों के आक्रमण ने गुप्तों की शक्ति को इतना कम कर दिया की स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य को कायम नहीं रखा जा सका।
गुप्त साम्राज्य की शासन प्रणाली
चीनी पर्यटक फाहियान ने गुप्त शासन प्रणाली की खुले शब्दों से प्रशंसा की है। विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर गुप्त काल की शासन प्रणाली का विवरण इस प्रकार है :-
केन्द्रीय शासन व्यवस्था : गुप्त साम्राज्य में शासक सबसे बड़ा अधिकारी होता था जो की केंद्र में रहता था । केन्द्र में शासक सबसे बड़ा अधिकारी था। मौर्य वंश के विपरीत गुप्त वंश के राजाओं ने परमेश्वर, महाराजधिराज जैसी शानदार पदवियाँ ग्रहण कीं। इससे पता चलता है कि उनका साम्राज्य बढ़ गया था तथा आसपास के छोटे-छोटे राजा उनके अधीन थे। राज्य के पास एक स्थायी सेना होती थी। सामंत समय-समय पर राज्य को सैनिक सहायता देते थे। राजा सेना, न्याय और कानून के लिए अन्तिम अधिकारी होता था।
चीनी पर्यटक फाह्यान के अनुसार गुप्त शासक बहुत योग्य थे। सारी जनता में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। देश में सुख-शान्ति थी। राज्य कर्मचारी भ्रष्ट नहीं थे। राज्य के संरक्षकों और सभी सेवकों को नकद वेतन मिलता था। फाह्यान के विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र एक भव्य नगर था।
वह इस नगर में अशोक के महल को देखकर बहुत हैरान हुआ। उसने इसमें 67 महलों को देवताओं द्वारा बनाया हुआ बताया है। राज्य हमेशा बड़े बेटे को नहीं मिलता था। राजा मंत्रिमण्डल की राय मानने को बाध्य नहीं था। गुप्त साम्राज्य में दण्ड विधान बहुत कठोर नहीं था। इसके साथ ही साथ गुप्तचर विभाग को भी समाप्त कर दिया था।
मन्त्रिमण्डल: केन्द्र में एक मन्त्रिमण्डल था। मंत्रियों का पद प्राय: वंश परम्परागत होता था। सभी महत्त्वपूर्ण विषयों में राजा मन्त्रियों से सलाह लेता था। सभी विभाग किसी न किसी मंत्री के पास होते थे। जिसके लिए मंत्री ही उत्तरदायी होता था।
प्रांतीय शासन व्यवस्था: गुप्त साम्राज्य में राजाओं ने शासन सुचारु रूप से चलाने के लिए अपने राज्य को कई प्रांतों में बांट रखा था। इन प्रान्तों को मुक्ति कहा जाता था। प्रांतीय शासक या प्रतिनिधि शासक मौर्य काल की तुलना में अधिक आजाद थे। इन प्रांतीय शासकों को हर काम के लिए राजा की आज्ञा की जरूरत नहीं लेनी पड़ती थी। प्रांतीय शासकों की नियुक्ति स्वयं सम्राट करता था। प्रांतीय शासकों का सम्बन्ध ज्यादातर राजकुल से ही होता था। प्रांतीय शासन लगभग केन्द्रीय शासन के अनुरूप ही था। जितने विभाग केन्द्र में थे उतने ही प्रांतों में थे।
जिले की शासन व्यवस्था : प्रांत (मुक्ति) को जिलों में बाटा गया था । जिले के लोग वहां के शासन प्रबन्ध में मदद करते थे।जिले को विषय कहा जाता था। और जिले के शासक को विषयपतिकहा जाता था । विषयपति की नियुक्ति प्रान्तीय शासक करता था। उसे सलाह देने के लिए जिला समितियां होती थीं, जिनमें न केवल सरकारी अधिकारी ही होते थे वरन नागरिक भी शामिल किए जाते थे।
नगरीय शासन व्यवस्था : गुप्तकाल में भी आज की तरह नगरों का प्रबन्ध म्युनिसिपिल कमेटी (नगरपालिका) ही करती थी। नगर का मुखिया नगरपति कहलाता था। नगर में रहने वाले लोग कुछ कर देते थे। करों की रकम को नगरपालिका उनकी भलाई में ही (जैसे सफाई, रोशनी आदि के प्रबन्ध पर ही) खर्च कर देती थी।
ग्रामीण शासन व्यवस्था : गुप्त काल में भी आज की तरह शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी। गाँव के मुखिया को ग्रामाध्यक्ष कहा जाता था। गांव का प्रबन्ध एवं न्याय कार्य पंचायत करती थी।
सेना की शासन व्यवस्था : गुप्त शासकों के पास एक स्थायी सेना हुआ करती थी। जरूरत पड़ने पर अपने सामंतों से भी सैनिक सहायता लिया जाता था। सेना में घोड़े अधिक महत्त्वपूर्ण होते थे, यद्यपि रथों तथा हाथियों का भी प्रयोग होता था। घुड़सवार अब तीरन्दाजी ही ज्यादा करते थे।
गुप्त काल के प्रमुख अधिकारी
गुप्त काल के प्रमुख अधिकारी | |
---|---|
1. कुमार अमात्य | सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी |
2. महा दंड नायक | न्यायाधीश |
3. महा – संधि विग्रहिक | युद्ध एवं शांति (संधि) का अधिकारी |
4. महा-बलाअधिकृत | सेनापति |
5. महा-अक्ष पटलीक | लेखा (accounts) विभाग का सर्वोच्च अधिकारी |
6. प्रतिहार | राज महल के अंदरूनी क्षेत्र का रक्षक |
7. महा प्रतिहार | सम्पूर्ण राज महल का रक्षक |
8. भाट | पुलिस अधिकारी |
9. पुस्त पाल | रजकीय दस्तावेजों का रक्षक |
10. सार्थवाह | व्यापारियों के निगम या समिति का मुखिया |
11. प्रथम कुलिक | प्रधान शिल्पी एवं शिल्प संघ का मुखिया |
12. प्रथम कायस्थ | प्रधान लिपिक (क्लर्क) |
13. भंडागाराधीकृत | राजकोष अधिकारी |
14. दंड पाशिक | पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी |
15. विनय स्थिति स्थापक | धर्म सम्बन्धी मामलों का प्रधान ,शिक्षा अधिकारी एवं लोगों के नैतिक आचरण पर दृष्टि रखने वाला अधिकरी |
16. महा पिल्पति | गज सेना का प्रधान |
17. रण भंडागरिक | सेना में रसद सामग्री की व्यवस्था करने वाला अधिकारी |
18. चाट | साधारण सैनिक |
19. भट-अश्वपति | घुड़सवार सेना का प्रधान अधिकारी |
20. नगर श्रेष्ठी | नगर का प्रधान सेठ |
गुप्त साम्राज्य की आय के संसाधन और स्रोत
कर: गुप्तकाल में भूमिकरों की संख्या ज्यादा थी। फाह्यान के अनुसार, राज्य की आमदनी का मुख्य साधन भूमिकर था जो उपज का 1/6 भाग होता था। इस भू-कर के अतिरिक्त किसानों को आती-जाती सेना को “राशन” तथा पशुओं को चारा भी देना पड़ता था। गांव में जो भी सरकारी अधिकारी रहता था उसे पशु अनाज आदि गांव के लोगों को ही देना पड़ता था। इस प्रकार की बेगार को विष्टि कहा जाता था।
किसान पशुओं को चराने के लिए भी कर देते थे। व्यापार और वाणिज्य कर भी राज्य की आमदनी के साधन थे, लेकिन इन करों की संख्या में कमी आ गई। चूँकि जुर्माने के रूप में अपराधियों को बड़ी-बड़ी रकमें देनी पड़ती थीं, इससे भी राज्य को बड़ी आय प्राप्त होती थी। इन सबके अलावा चुंगी भी आय का महत्वपूर्ण साधन था।
कृषि: चीनी यात्री फाह्यान से पता चलता है कि गुप्तकाल में भारतीय आर्थिक जीवन उन्नत था। लोगों में परस्पर दान देने की होड़ लगी होती थी। कृषि बहुत उन्नत स्थिति में थी। अनेक प्रकार के अनाजों के अलावा फल तथा तिलहन आदि की खेती की जाती थी। सरकार किसानों से भू-कर के रूप में उपज का 1/6 भाग लेती थी। परन्तु कुछ ब्राह्मणों तथा अधिकारियों को कर-मुक्त भूमि दी गई थी। इनमें से कई अधिकारियों को किसानों से कर वसूल करने का अधिकार भी था। कोसनो को मह्बुर करके उनसे बेगारी भी करायी जाती थी।
उद्योग- धन्धे: गुप्तकालीन भारतीय उद्योग धन्धों की स्थिति बहुत समृद्ध थी। लौह इस्पात उद्योग के साथ-साथ समुद्री-पोत निर्माण का उद्योग भी देश में उन्नत था। फाह्यान के अनुसार देश में सोने, चांदी आदि धातुओं की मूर्तियां बनाई जाती थीं। हाथी दांत से भी अनेक प्रकार की वस्तुएं तैयार की जाती थीं। विभिन्न प्रकार के शिल्पकारों के संघ बने हुए थे जिन्हें ‘गिल्ड या श्रेणी’ कहा जाता था। इस शिल्पकारों की संस्थाओं के पास काफी धन हुआ करता था जो वे जनता की भलाई के कार्यो पर व्यय किया करती थीं।
व्यापार: चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार मगध राज्य में अनेक ऐसे भी नगर हुआ करते थे जहाँ धनी व्यापारी रहते थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यापार बहुत विस्तृत था। व्यापार देश के एक कोने से दूसरे कोने तक होता था। सभी मार्ग सुरक्षित थे। जनता का नैतिक स्तर ऊंचा था। इसलिए लूटपाट कम होती थी।
गुप्त साम्राज्य में शान्ति एवं सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था थी, जिससे व्यापार को खूब बढ़ावा मिला। गंगा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों में बड़-बड़े नावों द्वारा माल लाया और ले जाया जाता था। व्यापारी वर्ग के लोग केवल धन कमाने में ही न लगे रहते थे बल्कि उनमें दान देने के लिए आपस में होड़ लगी रहती थी। परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी गुप्तकाल में विदेशी व्यापार का पतन होने लग गया था।
सन् 550 ई० तक भारत का पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ थोड़ा बहुत रेशम का व्यापार होता था। परन्तु इसी समय के आसपास पूर्वी रोमन साम्राज्य के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली। इससे भारत के निर्यात व्यापार पर बुरा प्रभाव पड़ा। और विदेशों में भारतीय रेशम के लिए मांग कमजोर पड़ गई थी।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है पांचवीं शताब्दी के मध्य में रेशम बुनकरों की श्रेणी (गिल्ड) पश्चिम भारत स्थित अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर मंदसौर चली गई। उन्होंने अपना मूल व्यवसाय छोड़कर अन्य पेशे अपनाए। गुप्तकाल में गंगा घाटी के अधिकांश शहरों का जो पहले बहुत ज्यादा समृद्ध थे, उनका विघटन शुरू हो गया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पाटलिपुत्र जैसा महत्वपूर्ण राजधानी नगर भी ह्वेनसांग के काल तक गाँव बन गया था।
मथुरा जैसा महत्वपूर्ण व्यापार-केन्द्र भी विधटन के चिन्ह प्रस्तुत करता है। कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा और उत्तर प्रदेश में गंगा घाटी के कई महत्त्वपूर्ण केन्द्र पर हूण के होने के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। सम्भव है कुछ शिल्पी गंगा घाटी छोड़कर मध्य भारत चले गये हों और वहां अधिक आसानी से अपना जीवन गुजारते होंगे । थोड़ा-बहुत व्यापार चीन, लंका, जावा सुमात्रा और तिब्बत आदि से भी होता था। भड़ोंच, सुपारा आदि बन्दगाहों से विदेशी व्यपार होता था। लेन-देन के लिए कई प्रकार के सिक्के चलते थे। मोती, बहुमूल्य पत्थर, कपड़े, मसाले, नील, दवाइयां आदि पदार्थ दूसरे देशों को भेजे जाते थे।
गुप्त साम्राज्य की न्यायिक व्यवस्था
मौर्य काल की अपेक्षा गुप्तकाल में न्याय व्यवस्था अधिक विकसित तथा उन्नत थी। इस काल में अनेक कानून की पुस्तकों को संकलित किया गया। कानूनों को सरल बना दिया गया था।
गुप्त शासकों ने भय उत्पन्न करने वाले साधन नहीं अपनाये। फाह्यान के अनुसार, अपराधियों को प्राय: मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। यदि कोई व्यक्ति बार-बार अपराध या राज विद्रोह करता था तो उसका दाहिना हाथ काट दिया जाता था। प्रायः जुर्माने देने की ही सजा सुनाई जाती थी। जनता नियमों का स्वेच्छा से पालन करती थी। राज्काय कानून की मर्यादा बनाये रखती थी । पुरोहितों की मदद से राजा मुकदमे का फैसला करता था।
गुप्त साम्राज्य की सामाजिक दशा
गुप्त साम्राज्य के लोग सादा जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ उच्च विचार रखते थे। उनका चरित्र एवं नैतिक स्तर बहुत उच्च था। फाह्यान लिखता है –
“चाण्डालों को छोड़कर देश भर में कहीं भी लोग किसी जीवित प्राणी को नहीं मारते हैं और न शराब और न नशीले पदार्थों का प्रयोग करते हैं, न प्याज-लहसुन खाते हैं। अन्तर्जातीय विवाहों के प्रमाण भी मिलते हैं। संयुक्त परिवार समाज का आधार था। लोग बहुत दान करते थे। लोगों के प्रयासों से सराएं और अस्पताल चलते थे। अस्पतालों में मुफ्त दवाइयां और चिकित्सा का प्रबन्ध था।”
कई दृष्टियों से इस काल में शूद्रों और औरतों की स्थिति सुधरी। इस काल में शूद्रों और औरतों को भी महाकाव्यों और पुराणों को सुनने की आज्ञा मिल गई थी।
वर्ण व्यवस्था : गुप्त साम्राज्य में ब्राह्मणों का समाज में बहुत आदर था। उन्हें बड़े पैमाने पर भूमि अनुदानों से मिलती थी। गुप्तकाल में भी भारतीय समाज परम्परागत चार वर्णों के साथ-साथ अनेक जातियों तथा उपजातियों में विभक्त था। दो कारणों से जातियाँ कई उपजातियों में बंट गईं। एक ओर बड़ी संख्या में विदेशियों को भारतीय समाज में आत्मसात् कर लिया गया, और विदेशियों के प्रत्येक समूह को एक प्रकार की हिन्दू जाति मान लिया गया। चूंकि विदेशी मुख्य रूप से विजेताओं के रूप में आये थे, इसलिए उन्हें समाज में क्षत्रियों का दर्जा दिया गया।
उदाहरण के लिए हूण लोगों को जो भारत में पांचवी शताब्दी के अन्त में आए, उन्हें आाखिरकार राजपूतों के छत्तीस कुलों में से एक कुल के रूप में शामिल कर लिया गया। आज भी कई राजपूत अपने नाम के साथ हूण लिखते हैं। जातियों की संख्या बढ़ने का एक अन्य कारण यह था कि अनेक कबीलाई जनगणों को भूमि अनुदानों द्वारा हिन्दू समाज में मिला लिया गया।
कबीलों के प्रधानों को प्रतिष्ठित मूल का कहा गया जबकि शेष कबीलाई जनता को निम्न मूल का बतलाया गया। इस तरह प्रत्येक कबीला हिन्दू समाज की एक जाति बन गया। परन्तु इस काल में अछूतों विशेषकर चण्डालों की संख्या वृद्धि हुई। चण्डाल भारतीय समाज में पांचवी शताब्दी ई.पू. में चर्चा में आये थे। पांचवीं शताब्दी ई.पू. उनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि उन्होंने चीनी पर्यटक फाह्यान का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया।
फाह्यान चण्डालों का वर्णन करते हुए लिखता है कि वे गांव के बाहर रहते थे तथा मांस का धंधा करते थे। जब भी चण्डाल नगर में आते थे तो वे एक विशेष प्रकार की आवाज करते हुए आते थे ताकि तथाकथित उच्च जाति के लोग स्वयं को उनसे दूर रख सकें। क्योंकि उन दिनों में ऐसा माना जाता था कि वे सड़क को अपवित्र कर देते हैं।
उच्च वर्णों के लोग यद्यपि सामान्यतया वर्ण-व्यवस्था द्वारा निर्धारित कार्य ही करते थे लेकिन वर्गों के आधार पर निर्धारित व्यवसाय के इस बन्धन में शिथिलता आने लग गयी थी। उदाहरणार्थ इस काल में ब्राह्मण राजवंशों के प्रमाण मिलते हैं जैसे “वाकाटक तथा कुटुम्ब”। ब्राह्मण राजा तथा योद्धा हो सकते थे।
कहा जाता है कि स्वयं गुप्त वंश के शासक वैश्य जाति के थे। लेकिन ब्राह्मण उन्हें क्षत्रिय मानने लगे। ब्राह्मणों ने गुप्त राजाओं को दैवी गुणों से युक्त बतलाया और गुप्त राजा ब्राह्मण व्यवस्था के महान समर्थक बन गये। ब्राह्मणों ने अनगिनत भूमि अनुदानों को प्राप्त कर बहुत ज्यादा सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। अब भी वर्ण भेद समाज में चल रहा था।
तत्कालीन विद्वान वराहमिहिर ने वृहत्संहिता में चारों वर्णों के लिए विभिन्न बस्तियों की व्यवस्था का समर्थन किया है. उसके अनुसार ब्राह्मण के घर में पांच, क्षत्रिय के घर में चार, वैश्य के घर भें तीन तथा शुद्र के घर में दो कमरे होने चाहिए। न्याय-व्यवस्था तथा दण्ड-विधान में भी वर्ण भेद पूर्णत: बना हुआ था। न्याय संहिताओं में कहा गया है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि से, वैश्य की जल से ओर शूद्र की विष से की जानी चाहिए।
दास प्रथा: निस्सन्देह इस काल में दास प्रथा प्रचलित थी लेकिन इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं कि गुप्त काल में यह कुप्रथा कमजोर हो गई थी। दास-मुक्ति के अनुष्ठान का विधान सबसे पहले नारद ने किया है। इस काल में दासों के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता था इसीलिए विदेशी यात्री इसके अस्तित्व का पता नहीं लगा सके।
स्त्रियों की स्थिति: गुप्तकालीन साहित्य और कला में नारी का आदर्शमय चित्रण किया गया है परन्तु व्यवहारिक रूप में उनकी स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक दयनीय हो गई। इसी काल में कन्याओं का अल्पायु में विवाह तथा (कुछ कुलीन लोगों में) सती प्रथा जैसी बुराइयां पुनः प्रचलित होने लगी। नारी को जन्म से मृत्यु तक पुरुष के नियन्त्रण में रहने के निर्देश दिये गये।
केवल उच्च वर्ग की स्त्रियों को प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी। प्राय: वे सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेती थीं। जो थोड़े-बहुत उदाहरण विदुषी तथा कलाकार महिलाओं को प्राप्त होते हैं वे अपवाद रूप में है। गुप्त साम्राज्य में पर्दा प्रथा का अधिक विकास नहीं हुआ था। विधवाओं को सामान्यतया पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। उनके लिए श्वेत वस्त्र धारण करना जरूरी था।
इस काल में वेश्या वृत्ति का भी उल्लेख मिलता है। देवदासियों का भी एक वर्ग था जो मन्दिरों के साथ सम्बद्ध था। लेकिन स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे। उनका पत्नी तथा विशेष परिस्थितियों में पिता की सम्पत्ति पुत्रविहीन पुरुष की कन्याओं के रूप में पाने का अधिकार होता था।
गुप्त काल में प्रमुख वैज्ञानिक | गणितज्ञ, खगोल शास्त्री एवं ज्योतिष शास्त्री
गुप्त काल के दौरान भारत विज्ञान और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों पर पहुंचा। आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त उस समय के प्रख्यात वैज्ञानिक थे जिन्होंने अपनी पुस्तकों में नए वैज्ञानिक सिद्धांतों की चर्चा की।
आर्यभट्ट
आर्यभट्ट का प्रसिद्ध ग्रंथ आर्यभट्टटियम है। इसमें उन्होंने कहा कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है, जिससे सूर्य और चंद्र ग्रहण होते हैं। आर्यभट्ट ही दुनिया के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यह पता लगाया कि पृथ्वी गोल है। आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली की भी चर्चा की। आर्यभट्ट का शून्य और दशमलव का सिद्धांत विश्व के लिए एक नवीन उपहार था। विश्व के गणितज्ञों में आर्यभट्ट का महत्वपूर्ण स्थान है।
वराहमिहिर
गुप्त काल के दूसरे प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी वराहमिहिर हैं। उन्होंने यूनानी और भारतीय ज्योतिष शास्त्र का समन्वय करते हुए रोमन और पोलिश नाम से नए सिद्धांत सामने रखे। उनकी 6 पुस्तकें हैं पंचसिद्धांतिका, विवाहपटल, योगमाया, बृहत्संहिता, बृहज्जातक (यह पुस्तक विज्ञान और कला का विश्वकोश मानी जाती है) और लघुजातक। वराहमिहिर ने ज्योतिष को तीन शाखाओं में विभाजित किया है – तंत्र (गणित और ज्योतिष), होरा (जन्मपत्र एवं राशिफल) और संहिता (फलित ज्योतिष)।
ब्रह्मगुप्त
ब्रह्मगुप्त भी गुप्त काल के गणितज्ञ थे, जिन्हें गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का जनक माना जाता है। वह तीन प्रसिद्ध पुस्तकों के लेखक हैं: ब्रह्मस्फुट, खंडर्वद्यक और ध्यानग्रह सिद्धांत। इन ग्रंथों के अरबी में अनुवाद के कारण भारतीय खगोल विज्ञान अरबों के पास आया। ब्रह्मगुप्त यह समझाने वाले पहले व्यक्ति थे कि पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारण प्रतिदिन सूर्योदय और सूर्यास्त होता है।
गुप्त काल में चिकित्सा विज्ञान
भारतीय चिकित्सा पद्धति -आयुर्वेद का जन्म भी वैदिक काल में ही हुआ । वेदों में, विशेष रूप से · अथर्ववेद में सात सौ से अधिक ऐसे श्लोक हैं, जो आयुर्वेद से संबंधित विषयों के हैं। इस विषय के महान लेखक का नाम वाग्भट्ट था।
वाग्भट्ट
आयुर्वेद में वाग्भट्ट का स्थान चरक और सुश्रुत से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस काल की दो प्रसिद्ध चिकित्सा कृतियाँ अष्टांग संग्रह और अष्टांग हृदय संहिता हैं, जो एक ही नाम वाग्भट्ट के तहत दो अलग-अलग लेखकों द्वारा लिखी गई हैं। उसी समय, जानवरों की बीमारियों के बारे में किताबें लिखी गईं। इनमें सबसे प्रसिद्ध पुस्तक हस्तआयुर्वेद है, जिसमें मुख्य रूप से हाथियों में होने वाले रोगों के उपचार के बारे में विवरण दिया गया है।
घोड़ों के बारे में अश्वशास्त्र नामक एक और पुस्तक लिखी गई है। इसके लेखक शालिहोत्र थे।
गुप्त काल में रसायन-धातुकर्म विज्ञान
गुप्त युग ने चिकित्सा विज्ञान के साथ रसायन-धातुकर्म विज्ञान में भी अभूतपूर्व प्रगति की। बौद्ध विद्वान नागार्जुन को महान रसायन वैज्ञानिक के रूप में भी जाना जाता है। महरौली के लौह स्तंभ 1500 साल पहले धातुकर्म विज्ञान में भारत की प्रगति का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। स्तंभ की ऊंचाई 7.32 मीटर है और इसका व्यास आधार पर 40 सेमी और शीर्ष पर 30 सेमी है। इसका वजन करीब 6 टन है। बारिश और धूप के बावजूद यह स्तंभ आज भी जंग रहित बना हुआ है।
गुप्तकालीन कला
एकमात्र चीज़ जो वास्तव में गुप्त युग को स्वर्ण युग कह सकती है वह कला है। जहां तक वास्तुकला का सवाल है, मंदिर निर्माण की कला गुप्त काल में शुरू हुई। प्रारंभ में अधिकांश मंदिर समतल थे। लेकिन धीरे-धीरे शिखर का सिलसिला शुरू हुआ। झाँसी के देवगढ़ में दशावतार मंदिर भारत में मंदिर वास्तुकला के इतिहास में शिखर का सबसे पहला उदाहरण है। यह मंदिर एक बड़े चबूतरे पर बना हुआ है। इस चबूतरे के चारो ओर सीढ़ियां थी। मंदिर के बाहरी हिस्से और स्तंभों को सजाया गया था, लेकिन अंदर का हिस्सा साधारण था। देवगढ़ का दशावतार मंदिर गुप्तकालीन मंदिर कला का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसका शिखर 40 फीट ऊंचा है।
गुप्तकाल मूर्तिकला के क्षेत्र में भी विशेष स्थान रखता है। गुप्त काल में मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केंद्र थे। प्राचीन भारत में मूर्तिकला की दो मुख्य शैलियाँ उभरीं। एक मथुरा शैली और दूसरी गांधार शैली। गुप्त काल की मूर्तियों से कुषाण काल की नग्नता और कामुकता पूरी तरह गायब हो गई और मूर्तियों में ऐसी वस्तुओं का उपयोग किया गया जो शारीरिक आकर्षण को छुपाती थीं। विशेष रूप से उल्लेखनीय बिहार के सुल्तानगंज से प्राप्त 7.5 फीट ऊंची गुप्त काल की तांबे की मूर्ति है।
गुप्तकाल के प्रमुख मन्दिर
गुप्तकाल के प्रमुख मन्दिर | |
---|---|
मन्दिर | स्थान |
1. भूमरा का शिव मन्दिर | सतना (मध्य प्रदेश) |
2. तिगवा का विष्णु मन्दिर | जबलपुर (मध्य प्रदेश) |
3. नचना-कुठार का पार्वती मन्दिर | पन्ना जिले का अजयगढ़ रियासत (मध्य प्रदेश) |
4. देवगढ़ का दशावतार मन्दिर | ललितपुर (उत्तर प्रदेश) |
5. खोह का मन्दिर | नागोद (मध्य प्रदेश) |
6. लड़खान का मन्दिर | एहोल के समीप (कर्नाटक) |
7. सिरपुर का लक्ष्मण मन्दिर | रायपुर के निकट सिरपुर या श्रीपुर (छत्तीसगढ़) |
8. भीतरगाँव का मन्दिर | कानपुर (उत्तर प्रदेश) |
गुप्त साम्राज्य में प्रशस्ति लेखन और चरित वर्णन
गुप्तकाल में प्रशस्ति लेखन का विकास हुआ। प्रशस्ति लेख एक विशेष रूप का अभिलेख होता था, जिसमें राजा की प्रसंशा की जाती थी। इन प्रशस्तियों में राजा की उपलब्धियों के साथ-साथ उनकी महानता के विषय में भी लिखा जाता था। हरिसेन, वत्सभट्टि, वासुल आदि प्रमुख प्रशस्ति लेखक थे।
इनकी प्रशस्तियाँ गुप्तकाल के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं. इसी प्रकार बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित और कादम्बरी से हर्षवर्धन काल के इतिहास की जानकारी मिलती है। रामपालचरित पाल शासक रामपाल के क्रियाकलापों का वर्णन करता है और तत्कालीन बंगाल की जानकारी देता है. चालुक्य राजा विक्रमादित्य पर एक पुस्तक लिखा गया जिसका नाम विक्रमांकदेवचरित रखा गया।
गुप्त काल के प्रमुख अभिलेख
गुप्त काल के प्रमुख अभिलेख | |
---|---|
शासक | प्राप्त अभिलेख |
1. समुद्रगुप्त | एरण प्रशस्ति, प्रयाग प्रशस्ति, नालंदा प्रशस्ति, तथा गया का ताम्र लेख |
2. चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य | उदयगिरि का प्रथम एवं द्वितीय गुफा लेख, गढ़वा का शिलालेख, सांची का शिलालेख, महरौली प्रशस्ति |
3. कुमारगुप्त प्रथम | गढ़वा का शिलालेख, विलसाड़ स्तंभ लेख, मथुरा का जैन मूर्ति लेख, मंदसौर शिलालेख, दामोदर ताम्र लेख |
4. स्कंद गुप्त | जूनागढ़ प्रशस्ति, सुप्रिया स्तंभ लेख, इंदौर ताम्र लेख, सारनाथ का बुद्ध मूर्ति लेख |
5. पूरु गुप्त | बिहार स्तंभ लेख, पहाड़पुर ताम्र लेख, एवं राजघाट स्तंभ लेख |
6. बुध गुप्त | सारनाथ बुद्ध मूर्ति लेख, दामोदर ताम्र लेख, एरण स्तंभ लेख, चंद्रपुर धाम लेख |
7. भानु गुप्त | एरण स्तंभ |
8. विष्णु गुप्त | दामोदरपुर का ताम्र लेख |
9. वैन्य गुप्त | टोपरा ताम्र लेख |
गुप्त साम्राज्य का पतन
दो शताब्दियों के निरन्तर उत्थान के पश्चात् शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य इस वंश के अन्तिम महान् शासक स्कन्दगुप्त की 467 ईस्वी में मृत्यु के पश्चात् पतन की दिशा में तेजी से उन्मुख हुआ ।
हलाकि स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों ने किसी न किसी रूप में 550 ईस्वी तक मगध पर अधिकार रख सकने में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके पश्चात् भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण युग का दावेदार गुप्त साम्राज्य सदा के लिये अस्त हो गया । गुप्त साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था। बल्कि अनेको कारण थे गुप्त साम्राज्य के पतन के ।
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण निम्नलिखित है :
- अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी।
- शासन-व्यवस्था का संघात्मक स्वरूप।
- उच्च पदों का आनुवंशिक होना।
- प्रान्तीय शासकों के विशेषाधिकार।
- वाह्य आक्रमण।
- बौद्ध धर्म का प्रभाव।
इस तरह इन सभी कारणों ने गुप्त साम्राज्य को हिला दिया तथा अन्ततोगत्वा उसका पतन हो गया। गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की समीक्षा करते हुये रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है- ‘गुप्त साम्राज्य के पतन में उन्हीं परिस्थितियों का योगदान रहा जो इसके पहले मौर्य साम्राज्य को तथा बाद में मुगल साम्राज्य को धराशायी करने में सहायक रहीं।’ गुप्त साम्राज्य का पतन प्राचीन भारतीय इतिहास की एक प्रमुख घटना थी। इसके साथ ही भारत का इतिहास, विभाजन तथा विकेन्द्रीकरण की दिशा में उन्मुख हुआ।
इन्हें भी देखें-
- समुद्रगुप्त SAMUDRAGUPTA | 335-380 ई.
- चन्द्रगुप्त प्रथम: एक प्रशस्त शासक |320-350 ई.
- चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-415)
- महाराजा विक्रमादित्य – एक महान सम्राट का गौरवमयी इतिहास (101ई.पू.-19ई.)
- सातवाहन वंश | SATVAHAN DYNASTY | 60 ई.पू. – 240 ईस्वी
- छत्रपति शिवाजी महाराज (1674 – 1680 ई.)
- History of Goa गोवा का इतिहास
- भारत की जनजातियाँ | Tribes of India
- भारत की नदी घाटी परियोजना | Nadi Ghati Pariyojana in India
- भारत की जनजातियाँ | Tribes of India
- Clause: Definition, Types and 50+ Examples
- Interjection: Definition, Types, and 100+ Examples
- Present Tense: Definition, Types, and 100+ Examples
- Past Tense: Definition, Types, and 100+ Examples
- Future Tense: Definition, Types, and 100+ Examples
Nice post
Thank You so much
Thanks for sharing!
welcome