गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों का प्रबंधन | एक आवश्यक चुनौती

प्रकृति ने मनुष्य को अनेक प्रकार के संसाधनों से सम्पन्न किया है। इनमें कुछ संसाधन ऐसे हैं जिन्हें हम बार-बार प्रयोग कर सकते हैं जैसे जल, वायु, सूर्य की ऊर्जा आदि; इन्हें पुनरुत्पादनीय संसाधन कहा जाता है। परंतु ऐसे भी संसाधन हैं जिन्हें एक बार उपयोग करने के बाद पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता या उनकी पुनः प्राप्ति में भूगर्भीय युगों का समय लग जाता है। इन संसाधनों को गैर-पुनरुत्पादनीय या अनवीनीकरणीय संसाधन (Non-renewable Resources) कहा जाता है। जैसे—कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, यूरेनियम आदि।

इन संसाधनों का महत्व अत्यधिक है, क्योंकि आधुनिक सभ्यता का संपूर्ण ढांचा इन पर निर्भर करता है। औद्योगिक उत्पादन, परिवहन, ऊर्जा उत्पादन और अन्य जीवनोपयोगी गतिविधियाँ इन्हीं पर आधारित हैं। लेकिन इन संसाधनों की सीमितता और समाप्त होने की आशंका हमें इनके सतत उपयोग और प्रभावी प्रबंधन की दिशा में सोचने के लिए विवश करती है।

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गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों की प्रकृति

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधन प्राकृतिक रूप से निर्मित होते हैं और इन्हें मानव द्वारा उत्पादित नहीं किया जा सकता। ये भूगर्भीय प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप लाखों वर्षों में विकसित होते हैं। जब इनका एक बार दोहन कर लिया जाता है, तो ये समाप्त हो जाते हैं या पुनः निर्मित होने में अत्यधिक समय लगता है।

इनकी उपलब्धता निश्चित और सीमित होती है, इसीलिए इनका विवेकपूर्ण प्रयोग अत्यंत आवश्यक है। यदि इन संसाधनों का अंधाधुंध दोहन होता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब मानवता को ऊर्जा संकट, औद्योगिक ठहराव और आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ेगा।

अनुकूलतम खनन दर का निर्धारण

एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि – “क्या हमारे गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधन एक दिन समाप्त हो जाएंगे?” इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि हम इन संसाधनों का उपयोग किस दर से कर रहे हैं। यदि खनन या दोहन की दर अनियंत्रित और तीव्र होगी, तो ये संसाधन अपेक्षाकृत शीघ्र समाप्त हो सकते हैं।

अतः इन संसाधनों के दोहन की अनुकूलतम दर (Optimal Rate of Extraction) को निर्धारित करना आवश्यक हो जाता है। यह दर ऐसी होनी चाहिए कि जिससे वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ भविष्य की आवश्यकताओं के लिए भी संसाधन सुरक्षित रहें।

आधुनिक अर्थशास्त्री इस प्रक्रिया को Hotelling’s Rule द्वारा समझाते हैं, जिसमें यह बताया गया है कि किसी गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधन का मूल्य समय के साथ बढ़ता है, क्योंकि उसकी उपलब्धता घटती जाती है। अतः इस प्रकार के संसाधनों के मूल्य निर्धारण में अवसर लागत (Opportunity Cost) का समावेश अत्यंत आवश्यक है।

खनन की इष्टतम दर: सतत खपत का आधार

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों के दोहन की एक इष्टतम दर (Optimum Rate) निर्धारित करना अत्यंत आवश्यक है, जिससे कि इन संसाधनों का उपयोग वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किया जा सके और साथ ही भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति की भी संभावना बनी रहे।

यदि खनिज तेल का दोहन लगातार बढ़ती दर से होता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब ये संसाधन समाप्त हो जाएंगे और उस समय आर्थिक गतिविधियों का संचालन कठिन हो जाएगा। अतः यह अनिवार्य है कि गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों का खनन, उपयोग और वितरण एक नियोजित और संतुलित दर से किया जाए।

अवसर लागत का सिद्धांत

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों के खनन में अवसर लागत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अवसर लागत का अर्थ होता है—किसी संसाधन के वर्तमान उपयोग से भविष्य में मिलने वाले संभावित लाभ का त्याग।

उदाहरण के लिए, यदि कोई कंपनी आज किसी खनिज तेल के भंडार का दोहन कर रही है, तो उसे यह सोचना होगा कि इस खनिज तेल की कीमत भविष्य में अधिक हो सकती है। इसलिए वर्तमान में खनन करने का निर्णय लेने से पहले यह विचार करना आवश्यक है कि भविष्य में यह संसाधन अधिक मूल्यवान हो सकता है, और वर्तमान में उसका उपयोग करना भविष्य के लाभ का त्याग हो सकता है।

इस प्रकार अवसर लागत का ध्यान रखकर ही खनन निर्णय लेना चाहिए। इससे संसाधनों का संरक्षण और दीर्घकालिक आर्थिक लाभ दोनों सुनिश्चित होते हैं।

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों का मूल्य निर्धारण

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों की कीमतें सामान्य वस्तुओं से भिन्न होती हैं। सामान्य वस्तुओं की कीमतें उनके उत्पादन की सीमांत लागत से निर्धारित होती हैं। परंतु गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों की कीमतें केवल सीमांत लागत पर निर्भर नहीं करतीं, बल्कि इनकी कमी और अवसर लागत भी कीमत निर्धारण में प्रमुख कारक होती हैं।

जब किसी संसाधन की उपलब्धता कम होती जाती है, और उसकी मांग बनी रहती है, तब उसका मूल्य लगातार बढ़ता है। इससे कंपनियाँ भी अपने खनन निर्णयों में सतर्कता बरतती हैं, ताकि वे वर्तमान लाभ और भविष्य के लाभ के मध्य संतुलन बना सकें।

टिकाऊ खपत और भावी पीढ़ियों की जिम्मेदारी

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों का उपयोग केवल वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं होना चाहिए, बल्कि सतत विकास के सिद्धांत के अंतर्गत भविष्य की पीढ़ियों की जरूरतों का भी ध्यान रखना चाहिए।

इस संदर्भ में, संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तुत “Brundtland Report” का उल्लेख आवश्यक है, जिसमें यह कहा गया कि – “सतत विकास वह विकास है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को इस प्रकार पूरा करता है कि भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को भी खतरा न हो।”

इसलिए सरकारों, उद्योगों और नागरिकों को मिलकर ऐसे नीतिगत उपाय अपनाने चाहिए जिससे इन संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित हो सके।

फर्म का पूर्ति आचरण और लाभ अधिकतमरण

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों के खनन में संलग्न फर्में सामान्य वस्तुओं की फर्मों से भिन्न आचरण करती हैं। सामान्य वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने से उत्पादन लागत भी बढ़ती है, लेकिन संसाधन मौजूद रहते हैं। परंतु गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों में ऐसा नहीं होता। हर खनन से स्टॉक घटता है।

इसलिए फर्में अपने लाभ को अधिकतम करने हेतु “वर्तमान कीमत”, “उपलब्ध स्टॉक” और “भविष्य की कीमत” का तुलनात्मक अध्ययन करके ही खनन का निर्णय लेती हैं।

टिकाऊ विकास और अंतरपीढ़ीय समानता

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों के उचित प्रबंधन की आवश्यकता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू अंतरपीढ़ीय समानता (Intergenerational Equity) है। इसका आशय यह है कि हमें इन संसाधनों का उपयोग इस प्रकार से करना चाहिए कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी इसका लाभ मिल सके।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  1. संसाधन बचत तकनीकों का विकास
    ऊर्जा कुशल मशीनों, ग्रीन बिल्डिंग्स, हाइब्रिड वाहनों जैसे तकनीकी नवाचारों को बढ़ावा देना चाहिए।
  2. वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का विकास
    जैसे – सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत, बायोमास, इत्यादि।
  3. कानूनी और संस्थागत ढांचा
    सरकारों को संसाधनों के सतत उपयोग हेतु कठोर नियम एवं निगरानी तंत्र स्थापित करना चाहिए।

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों की विशेषताएं

  1. सीमितता: ये संसाधन सीमित मात्रा में ही उपलब्ध होते हैं।
  2. पुनर्निर्माण में असमर्थता: इनका पुनः उत्पादन संभव नहीं होता या बहुत दीर्घकालिक होता है।
  3. भूगर्भीय समय: इनकी उत्पत्ति लाखों वर्षों में होती है।
  4. अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से मूल्यवान: सीमित आपूर्ति के कारण इनकी कीमत अधिक होती है।
  5. उद्योग और ऊर्जा पर निर्भरता: आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था का बड़ा हिस्सा इन संसाधनों पर निर्भर करता है।

संसाधनों के प्रबंधन की आवश्यकता

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों का उचित प्रबंधन आवश्यक इसलिए है क्योंकि –

  • इनकी आपूर्ति सीमित है।
  • अत्यधिक खपत से भावी पीढ़ियों के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है।
  • वैश्विक तापमान और पर्यावरणीय समस्याएं बढ़ सकती हैं।
  • इन संसाधनों की असमान वितरण व्यवस्था राजनीतिक और सामाजिक टकराव का कारण बन सकती है।

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों के संरक्षण के उपाय

  1. खनन की नियोजित नीति – खनन गतिविधियों को अनियंत्रित रूप से न किया जाए। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि खनन केवल वैज्ञानिक तरीकों से और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखते हुए हो।
  2. ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का विकास – सौर, पवन, जैव और जल ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना चाहिए ताकि खनिज तेल जैसे संसाधनों पर निर्भरता कम हो।
  3. उत्पादन में दक्षता – ऐसे औद्योगिक उपकरणों और तकनीकों का उपयोग किया जाए जो कम संसाधनों में अधिक उत्पादन करें।
  4. जन जागरूकता – लोगों को यह समझाना आवश्यक है कि गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधन सीमित हैं, अतः उनका संरक्षण एक सामाजिक जिम्मेदारी है।
  5. नवीकरणीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग – जहां भी संभव हो, नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग किया जाए और गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों की खपत को कम किया जाए।

चक्रीय संसाधन: एक समाधान

कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जो पुनः उपयोग किए जा सकते हैं, इन्हें चक्रीय संसाधन (Recyclable Resources) कहा जाता है। जैसे—लोहा, एल्यूमिनियम, कागज, प्लास्टिक आदि। इन संसाधनों को एक प्रक्रिया के माध्यम से पुनः प्रयोग योग्य बनाया जा सकता है।

चक्रीय संसाधनों का उपयोग गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों की खपत को कम कर सकता है और अपशिष्ट प्रबंधन को भी सुगम बनाता है। भारत सरकार ने भी “स्वच्छ भारत मिशन”, “मेक इन इंडिया” और “सर्कुलर इकॉनॉमी” जैसे अभियानों के माध्यम से चक्रीय संसाधनों के उपयोग को बढ़ावा दिया है।

चक्रीय संसाधनों (Recyclable Resources) की भूमिका

चक्रीय संसाधन वे होते हैं जिन्हें पुनः उपयोग में लाया जा सकता है। इनका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि ये गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों के खपत को कम करने में सहायक होते हैं।

उदाहरण:

  • लोहा, एल्युमिनियम: इन धातुओं को पुनः पिघलाकर पुनः उपयोग किया जा सकता है।
  • प्लास्टिक: विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा इसे दोबारा उपयोग में लाया जा सकता है।
  • जल संसाधन: गंदे जल का उपचार करके उसे कृषि या औद्योगिक उपयोग के लिए पुनः प्रयुक्त किया जा सकता है।

इन चक्रीय संसाधनों का विकास और उपयोग संसाधनों की सततता को बनाए रखने में सहायक है।

भारत में गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों की स्थिति

भारत में कोयला, बॉक्साइट, चूना पत्थर, क्रोमाइट, तांबा, लोहा, खनिज तेल आदि जैसे संसाधनों की उपस्थिति है। भारत में कुल ऊर्जा उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा कोयले पर आधारित है। लेकिन कोयले के भंडार सीमित हैं और 2040 के बाद यह संकट उत्पन्न कर सकते हैं।

सरकार ने इस संकट को समझते हुए नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण पहल की है। “राष्ट्रीय सौर मिशन”, “ऊर्जा संरक्षण अधिनियम”, और इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिए PLI योजनाएं इसी दिशा में प्रयास हैं।

भारत में खनिज संसाधनों की प्रचुरता है, परंतु बढ़ती जनसंख्या और औद्योगीकरण के चलते इनका अत्यधिक दोहन हो रहा है। कुछ प्रमुख तथ्य:

  • भारत विश्व में कोयला उत्पादन में चौथे स्थान पर है, परंतु यह खपत के लिहाज से आत्मनिर्भर नहीं है।
  • कच्चे तेल की खपत भारत की कुल ऊर्जा जरूरतों का 40% है, लेकिन भारत अपनी जरूरत का लगभग 85% आयात करता है।
  • देश में हर वर्ष हजारों हेक्टेयर वनभूमि खनिज परियोजनाओं के कारण समाप्त होती है।

ऐसी स्थिति में संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रबंधन ही एकमात्र उपाय है।

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों के प्रबंधन हेतु सुझाव

  1. राष्ट्रीय नीति
    एक स्पष्ट और कठोर प्राकृतिक संसाधन नीति बनाना जो सततता और समानता के सिद्धांतों पर आधारित हो।
  2. शिक्षा और जागरूकता
    लोगों को संसाधनों के संरक्षण और पुनर्चक्रण के बारे में जागरूक करना।
  3. नवाचार और अनुसंधान
    विज्ञान एवं तकनीक के माध्यम से संसाधन-दक्ष प्रणालियों का विकास।
  4. प्रोत्साहन और दंड प्रणाली
    उन कंपनियों को प्रोत्साहन देना जो सतत संसाधन प्रबंधन में योगदान दें, और संसाधनों के दुरुपयोग पर दंड लगाना।

निष्कर्ष

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधन प्रकृति की वह बहुमूल्य देन हैं जिन पर संपूर्ण आधुनिक जीवन-शैली निर्भर करती है। लेकिन इनकी सीमितता और अपूरणीयता हमें यह सिखाती है कि हम इनका उपयोग विवेकपूर्वक करें।

प्रभावी प्रबंधन, सतत नीति, वैज्ञानिक खनन, अवसर लागत का समावेश, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का विकास, और चक्रीय संसाधनों को प्रोत्साहित करके हम गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों का संरक्षण कर सकते हैं। यह न केवल वर्तमान पीढ़ी की भलाई है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी जिम्मेदार मानवता का प्रतीक है।

गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधन हमारे आर्थिक विकास के मेरुदंड हैं, परंतु इनका सीमित भंडार हमें चेतावनी देता है कि यदि अब भी हमने इनके उपयोग में विवेक नहीं अपनाया, तो आने वाली पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेंगी। संसाधनों का टिकाऊ, वैज्ञानिक, और न्यायसंगत प्रबंधन ही वह मार्ग है जिससे हम समृद्धि और संरक्षण का संतुलन स्थापित कर सकते हैं।

“प्रकृति ने हमें संसाधन दिए हैं, परंतु बुद्धिमानी से उनका उपयोग करना हमारी जिम्मेदारी है।”

Environmental Economics – KnowledgeSthali


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