गोदान उपन्यास | भाग 18 – मुंशी प्रेमचंद

18.
खन्ना और गोविन्दी में नहीं पटती। क्यों नहीं पटती, यह बताना कठिन है। ज्योतिष के हिसाब से उनके ग्रहों में कोई विरोध है, हालाँकि विवाह के समय ग्रह और नक्षत्र ख़ूब मिला लिये गये थे। काम-शास्त्र के हिसाब से इस अनबन का और कोई रहस्य हो सकता है, और मनोविज्ञान वाले कुछ और ही कारण खोज सकते हैं। हम तो इतना ही जानते हैं कि उनमें नहीं पटती। खन्ना धनवान हैं, रसिक हैं, मिलनसार हैं, रूपवान हैं अच्छे ख़ासे पढ़े-लिखे हैं और नगर के विशिष्ट पुरुषों में हैं। गोविन्दी अप्सरा न हो, पर रूपवती अवश्य है; गेहुँआ रंग लज्जाशील आँखें जो एक बार सामने उठकर फिर झुक जाती हैं, कपोलों पर लाली न हो पर चिकनापन है, गात कोमल, अंग-विन्यास, सुडौल, गोल बाँहें, मुख पर एक प्रकार की अरुचि, जिसमें कुछ गर्व की झलक भी है, मानो संसार के व्यवहार और व्यापार को हेय समझती है। खन्ना के पास विलास के ऊपरी साधनों की कमी नहीं, अव्वल दरजे का बंगला है, अव्वल दरजे का फ़र्नीचर, अव्वल दरजे की कार और अपार धन; पर गोविन्दी की दृष्टि में जैसे इन चीज़ों का कोई मूल्य नहीं। इस खारे सागर में वह प्यासी पड़ी रहती है। बच्चों का लालन-पालन और गृहस्थी के छोटे-मोटे काम ही उसके लिए सब कुछ हैं। वह इनमें इतनी व्यस्त रहती है कि भोग की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। आकर्षण क्या वस्तु है और कैसे उत्पन्न हो सकता है, इसकी ओर उसने कभी विचार नहीं किया। वह पुरुष का खिलौना नहीं है, न उसके भोग की वस्तु, फिर क्यों आकर्षक बनने की चेष्टा करे; अगर पुरुष उसका असली सौन्दर्य देखने के लिए आँखें नहीं रखता, कामिनियों के पीछे मारा-मारा फिरता है तो वह उसका दुर्भाग्य है। वह उसी प्रेम और निष्ठा से पति की सेवा किये जाती है जैसे द्वेष और मोह-जैसी भावनाओं को उसने जीत लिया है। और यह अपार सम्पत्ति तो जैसे उसकी आत्मा को कुचलती रहती है। इन आडम्बरों और पाखंडों से मुक्त होने के लिए उसका मन सदैव ललचाया करता है। अपने सरल और स्वाभाविक जीवन में वह कितनी सुखी रह सकती थी, इसका वह नित्य स्वप्न देखती रहती है। तब क्यों मालती उसके मार्ग में आकर बाधक हो जाती! क्यों वेश्याओं के मुजरे होते, क्यों यह सन्देह और बनावट और अशान्ति उसके जीवन-पथ में काँटा बनती! बहुत पहले जब वह बालिका-विद्यालय में पढ़ती थी, उसे कविता का रोग लग गया था, जहाँ दुख और वेदना ही जीवन का तत्व है, सम्पत्ति और विलास तो केवल इसलिए है कि उसकी होली जलायी जाय, जो मनुष्य को असत्य और अशान्ति की ओर ले जाता है। वह अब कभी-कभी कविता रचती थी; लेकिन सुनाये किसे? उसकी कविता केवल मन की तरंग या भावना की उड़ान न थी, उसके एक-एक शब्द में उसके जीवन की व्यथा और उसके आँसुओं की ठंडी जलन भरी होती थी — किसी ऐसे प्रदेश में जा बसने की लालसा, जहाँ वह पाखंडों और वासनाओं से दूर अपनी शान्त कुटिया में सरल आनन्द का उपभोग करे। खन्ना उसकी कविताएँ देखते, तो उनका मज़ाक़ उड़ाते और कभी-कभी फाड़कर फेंक देते। और सम्पत्ति की यह दीवार दिन-दिन ऊँची होती जाती थी और दम्पति को एक दूसरे से दूर और पृथक करती जाती थी। खन्ना अपने ग्राहकों के साथ जितना ही मीठा और नम्र था, घर में उतना ही कटु और उद्दंड। अक्सर क्रोध में गोविन्दी को अपशब्द कह बैठता, शिष्टता उसके लिए दुनिया को ठगने का एक साधन थी, मन का संस्कार नहीं। ऐसे अवसरों पर गोविन्दी अपने एकान्त कमरें में जा बैठती और रात की रात रोया करती और खन्ना दीवानखाने में मुजरे सुनता या क्लब में जाकर शराबें उड़ाता। लेकिन यह सब कुछ होने पर भी खन्ना उसके सर्वस्व थे। वह दलित और अपमानित होकर भी खन्ना की लौंडी थी। उनसे लड़ेगी, जलेगी, रोयेगी; पर रहेगी उन्हीं की। उनसे पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकती थी। आज मिस्टर खन्ना किसी बुरे आदमी का मुँह देखकर उठे थे। सबेरे ही पत्र खोला, तो उनके कई स्टाकों का दर गिर गया था, जिसमें उन्हें कई हज़ार की हानि होती थी। शक्कर मिल के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी थी और दंगा-फ़साद करने पर अमादा थे। नफ़े की आशा से चाँदी ख़रीदी थी; मगर उसका दर आज और भी ज़्यादा गिर गया था। राय साहब से जो सौदा हो रहा था और जिसमें उन्हें ख़ासे नफ़े की आशा थी, वह कुछ दिनों के लिए टलता हुआ जान पड़ता था। फिर रात को बहुत पी जाने के कारण इस वक़्त सिर भारी था और देह टूट रही थी। इधर शोफ़र ने कार के इंजन में कुछ ख़राबी पैदा हो जाने की बात कही थी और लाहौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मुक़दमा दायर हो जाने का समाचार भी मिला था। बैठे मन में झुँझला रहे थे कि उसी वक़्त गोविन्दी ने आकर कहा — भीष्म का ज्वर आज भी नहीं उतरा, किसी डाक्टर को बुला दो। भीष्म उनका सबसे छोटा पुत्र था, और जन्म से ही दुर्बल होने के कारण उसे रोज़ एक-न-एक शिकायत बनी रहती थी। आज खाँसी है, तो कल बुख़ार; कभी पसली चल रही है, कभी हरे-पीले दस्त आ रहे हैं। दस महीने का हो गया था! पर लगता था पाँच-छः महीने का। खन्ना की धारणा हो गयी थी कि यह लड़का बचेगा नहीं; इसलिए उसकी ओर से उदासीन रहते थे; पर गोविन्दी इसी कारण उसे और सब बच्चों से ज़्यादा चाहती थी।

खन्ना ने पिता के स्नेह का भाव दिखाते हुए कहा — बच्चों को दवाओं का आदी बना देना ठीक नहीं, और तुम्हें दवा पिलाने का मरज़ है। ज़रा कुछ हुआ और डाक्टर बुलाओ। एक रोज़ और देखो, आज तीसरा ही दिन तो है। शायद आज आप-ही-आप उतर जाय।
गोविन्दी ने आग्रह किया — तीन दिन से नहीं उतरा। घरेलू दवाएँ करके हार गयी।
खन्ना ने पूछा — अच्छी बात है बुला देता हूँ, किसे बुलाऊँ?
‘बुला लो डाक्टर नाग को। ‘
‘अच्छी बात है, उन्हीं को बुलाता हूँ, मगर यह समझ लो कि नाम हो जाने से ही कोई अच्छा डाक्टर नहीं हो जाता। नाग फ़ीस चाहे जितनी ले लें, उनकी दवा से किसी को अच्छा होते नहीं देखा। वह तो मरीज़ों को स्वर्ग भेजने के लिए मशहूर हैं। ‘
‘तो जिसे चाहो बुला लो, मैंने तो नाग को इसलिए कहा था कि वह कई बार आ चुके हैं। ‘
‘मिस मालती को क्यों न बुला लूँ? फ़ीस भी कम और बच्चों का हाल लेडी डाक्टर जैसा समझेगी, कोई मर्द डाक्टर नहीं समझ सकता। ‘
गोविन्दी ने जलकर कहा — मैं मिस मालती को डाक्टर नहीं समझती।
खन्ना ने भी तेज़ आँखों से देखकर कहा — तो वह इंगलैंड घास खोदने गयी थी, और हज़ारों आदमियों को आज जीवन-दान दे रही है; यह सब कुछ नहीं है?
‘होगा, मुझे उन पर भरोसा नहीं है। वह मरदों के दिल का इलाज कर लें। और किसी की दवा उनके पास नहीं है। ‘
बस ठन गयी। खन्ना गरजने लगे। गोविन्दी बरसने लगी। उनके बीच में मालती का नाम आ जाना मानो लड़ाई का अल्टिमेटम था। खन्ना ने सारे काग़ज़ों को ज़मीन पर फेंककर कहा — तुम्हारे साथ ज़िन्दगी तलख़ हो गयी। गोविन्दी ने नुकीले स्वर में कहा — तो मालती से ब्याह कर लो न! अभी क्या बिगड़ा है, अगर वहाँ दाल गले।
‘तुम मुझे क्या समझती हो? ‘
‘यही कि मालती तुम-जैसों को अपना ग़ुलाम बनाकर रखना चाहती है, पति बनाकर नहीं। ‘
‘तुम्हारी निगाह में मैं इतना ज़लील हूँ? ‘
और उन्हींने इसके विरुद्ध प्रमाण देने शुरू किया। मालती जितना उनका आदर करती है, उतना शायद ही किसी का करती हो। राय साहब और राजा साहब को मुँह तक नहीं लगाती; लेकिन उनसे एक दिन भी मुलाक़ात न हो, तो शिकायत करती है ….
गोविन्दी ने इन प्रमाणों को एक फूँक में उड़ा दिया — इसीलिए कि वह तुम्हें सबसे बड़ा आँखों का अन्धा समझती है, दूसरों को इतना आसानी से बेवक़ूफ़ नहीं बना सकती।
खन्ना ने डींग मारी — वह चाहें तो आज मालती से विवाह कर सकते हैं। आज, अभी …
मगर गोविन्दी को बिलकुल विश्वास नहीं है — तुम सात जन्म नाक रगड़ो, तो भी वह तुमसे विवाह न करेगी। तुम उसके टट्टू हो, तुम्हें घास खिलायेगी, कभी-कभी तुम्हारा मुँह सहलायेगी, तुम्हारे पुट्ठों पर हाथ फेरेगी; लेकिन इसलिए कि तुम्हारे ऊपर सवारी गाँठे। तुम्हारे जैसे एक हज़ार बुद्धू उसकी जेब में हैं। गोविन्दी आज बहुत बढ़ी जाती थी। मालूम होता है, आज वह उनसे लड़ने पर तैयार होकर आयी है। डाक्टर के बुलाने का तो केवल बहाना था। खन्ना अपनी योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकते थे!
‘तुम्हारे ख़याल में मैं बुद्धू और मूर्ख हूँ, तो ये हज़ारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते हैं? कौन राजा या ताल्लुक़ेदार है, जो मुझे दंडवत नहीं करता। सैकड़ों को उल्लू बना कर छोड़ दिया। ‘
‘यही तो मालती की विशेषता है कि जो औरों को सीधे उस्तरे से मूँड़ता है, उसे वह उलटे छुरे से मूँड़ती है। ‘
‘तुम मालती की चाहे जितनी बुराई करो, तुम उसकी पाँव की धूल भी नहीं हो। ‘
‘मेरी दृष्टि में वह वेश्याओं से भी गयी बीती है; क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है। ‘

दोनों ने अपने-अपने अग्नि-बाण छोड़ दिये। खन्ना ने गोविन्दी को चाहे दूसरी कठोर से कठोर बात कही होती, उसे इतनी बुरी न लगती; पर मालती से उसकी यह घृणित तुलना उसकी सहिष्णुता के लिए भी असह्य थी। गोविन्दी ने भी खन्ना को चाहे जो कुछ कहा होता, वह इतने गर्म न होते; लेकिन मालती का यह अपमान वह नहीं सह सकते। दोनों एक दूसरे के कोमल स्थलों से परिचित थे। दोनों के निशाने ठीक बैठे और दोनों तिलमिला उठे। खन्ना की आँखें लाल हो गयीं। गोविन्दी का मुँह लाल हो गया। खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान पकड़कर ज़ोर से ऐंठे और तीन-चार तमाचे लगा दिये। गोविन्दी रोती हुई अन्दर चली गयी। ज़रा देर में डाक्टर नाग आये और सिविल सर्जन एम. टाड आये और भिषगाचार्य नीलकंठ शास्त्री आये; पर गोविन्दी बच्चे को लिये अपने कमरे में बैठी रही। किसने क्या कहा, क्या तशख़ीश की, उसे कुछ मालूम नहीं। जिस विपत्ति की कल्पना वह कर रही थी, वह आज उसके सिर पर आ गयी। खन्ना ने आज जैसे उससे नाता तोड़ लिया, जैसे उसे घर से खदेड़कर द्वार बन्द कर लिया। जो रूप का बाज़ार लगाकर बैठती है, जिसकी परछाईं भी वह अपने ऊपर पड़ने नहीं देना चाहती । वह उस पर परोक्ष रूप से शासन करे। यह न होगा। खन्ना उसके पति हैं, उन्हें उसको समझाने-बुझाने का अधिकार है, उनकी मार को भी वह शिरोधार्य कर सकती है; पर मालती का शासन! असम्भव! मगर बच्चे का ज्वर जब तक शान्त न हो जाय, वह हिल नहीं सकती। आत्माभिमान को भी कर्तव्य के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। दूसरे दिन बच्चे का ज्वर उतर गया था। गोविन्दी ने एक ताँगा मँगवाया और घर से निकली। जहाँ उसका इतना अनादर है, वहाँ अब वह नहीं रह सकती। आघात इतना कठोर था कि बच्चों का मोह भी टूट गया था। उनके प्रति उसका जो धर्म था, उसे वह पूरा कर चुकी है। शेष जो कुछ है, वह खन्ना का धर्म है। हाँ, गोद के बालक को वह किसी तरह नहीं छोड़ सकती। वह उसकी जान के साथ है। और इस घर से वह केवल अपने प्राण लेकर निकलेगी। और कोई चीज़ उसकी नहीं है। इन्हें यह दावा है कि वह उसका पालन करते हैं। गोविन्दी दिखा देगी कि वह उनके आश्रय से निकलकर भी ज़िन्दा रह सकती है। तीनों बच्चे उस समय खेलने गये थे। गोविन्दी का मन हुआ, एक बार उन्हें प्यार कर ले; मगर वह कहीं भागी तो नहीं जाती। बच्चों को उससे प्रेम होगा, तो उसके पास आयेंगे, उसके घर में खेलेंगे। वह जब ज़रूरत समझेगी, ख़ुद बच्चों को देख आया करेगी। केवल खन्ना का आश्रय नहीं लेना चाहती। साँझ हो गयी थी। पार्क में रौनक़ थी। लोग हरी घास पर लेटे हवा का आनन्द लूट रहे थे। गोविन्दी हज़रतगंज होती हुई चिड़ियाघर की तरफ़ मुड़ी ही थी कि कार पर मालती और खन्ना सामने से आते हुए दिखायी दिये। उसे मालूम हुआ, खन्ना ने उसकी तरफ़ इशारा करके कुछ कहा और मालती मुस्करायी। नहीं, शायद यह उसका भ्रम हो। खन्ना मालती से उसकी निन्दा न करेंगे; मगर कितनी बेशर्म है। सुना है इसकी अच्छी प्रैकिटस है घर की भी सम्पन्न है फिर भी यों अपने को बेचती फिरती है। न जाने क्यों ब्याह नहीं कर लेती; लेकिन उससे ब्याह करेगा ही कौन? नहीं, यह बात नहीं। पुरुषों में भी ऐसे बहुत हो गये हैं, जो उसे पाकर अपने को धन्य मानेंगे; लेकिन मालती ख़ुद किसी को पसन्द करे। और व्याह में कौन-सा सुख रखा हुआ है। बहुत अच्छा करती है, जो ब्याह नहीं करती। अभी सब उसके ग़ुलाम हैं। तब वह एक की लौंडी होकर रह जायगी। बहुत अच्छा कर रही है। अभी तो यह महाशय भी उसके तलवे चाटते हैं। कहीं इनसे ब्याह कर ले, तो उस पर शासन करने लगें; मगर इनसे वह क्यों ब्याह करेगी? और समाज में दो-चार ऐसी स्त्रियाँ बनी रहें, तो अच्छा; पुरुषों के कान तो गर्म करती रहें। आज गोविन्दी के मन में मालती के प्रति बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। वह मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है। क्या मेरी दशा को देखकर उसकी आँखें न खुलती होंगी। विवाहित जीवन की दुर्दशा आँखों देखकर अगर वह इस जाल में नहीं फँसती, तो क्या बुरा करती है! चिड़ियाघर में चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविन्दी ने ताँगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ़ चली; मगर दो ही तीन क़दम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गये। अभी थोड़ी देर पहले लान सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिरकर एक क़दम और आगे रखा तो पाँव कीचड़ में सन गये। उसने पाँव की ओर देखा। अब यहाँ पाँव धोने के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गयी। पाँव धोकर साफ़ करने की नयी चिन्ता हुई। उसकी विचार-धारा रुक गयी। जब तक पाँव न साफ़ हो जायँ वह कुछ नहीं सोच सकती। सहसा उसे एक लम्बा पाईप घास में छिपा नज़र आया, जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जाकर पाँव धोये, चप्पल धोये, हाथ-मुँह धोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में लेकर पिया और पाइप के उस पार सूखी ज़मीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरन्त आ जाती है। कहीं वह वहीं बैठे-बैठे मर जाय, तो क्या हो? ताँगेवाला तुरन्त जाकर खन्ना को ख़बर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेंगे; लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आँखों पर रूमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे माँ से प्यारे हैं। यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूँद आँसू बहानेवाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आया, जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंछू न हुए थे, तब उसे सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था; आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलारकर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे। किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होतीं, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डालकर वह रो लेती; लेकिन नहीं, वह रोयेगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दुखी न बनायेगी, मेरे लिए वह जो कुछ ज़्यादा से ज़्यादा कर सकती थी, वह कर गयी? मेरे कर्मो की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोये? वह अब किसी के अधीन नहीं है, वह अपने गुज़र-भर को कमा सकती है। वह कल ही गाँधी-आश्रम से चीज़ें लेकर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखाकर कहेंगे — वह जा रही है खन्ना की बीबी; लेकिन इस शहर में रहूँ क्यों ? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमायेगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिज़ाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब ख़ुद अपना पालन करूँगी। सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ़ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक़्त वह सम्पूर्ण एकान्त चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी; मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गये। उस पर बच्चा भी रोने लगा था।

मेहता ने समीप आकर विस्मय के साथ पूछा — आप इस वक़्त यहाँ कैसे आ गयीं?
गोविन्दी ने बालक को चुप कराते हुए कहा — उसी तरह जैसे आप आ गये।
मेहता ने मुस्कराकर कहा — मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चुप कर दूँ।
‘आपने यह कला कब सीखी? ‘
‘अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी। ‘
‘अच्छा! परीक्षा के दिन क़रीब आ गये? ‘
‘यह तो मेरी तैयारी पर है। जब तैयार हो जाऊँगा, बैठ जाऊँगा। छोटी-छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़-पढ़कर आँखें फोड़ लिया करते हैं। यह तो जीवन-व्यापार की परीक्षा है। ‘
‘अच्छी बात है, मैं भी देखूँगी आप किस ग्रेड में पास होते हैं।
यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उन्होंने बच्चे को कई बार उछाला, तो वह चुप हो गया। बालकों की तरह डींग मारकर बोले — देखा आपने, कैसा मन्तर के ज़ोर से चुप कर दिया। अब मैं भी कहीं से बच्चा लाऊँगा। ‘
गोविन्दी ने विनोद किया — बच्चा ही लाइएगा, या उसकी माँ भी?
मेहता ने विनोद-भरी निराशा से सर हिलाकर कहा — ऐसी औरत तो कहीं मिलती ही नहीं।
‘क्यों, मिस मालती नहीं हैं? सुन्दरी, शिक्षित, गुणवती, मनोहारिणी; और आप क्या चाहते हैं? ‘
‘मिस मालती में वह एक बात भी नहीं है जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूँ। ‘
गोविन्दी ने इस कुत्सा का आनन्द लेते हुए कहा — उसमें क्या बुराई है, सुनूँ। भौंरे तो हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने सुना है, आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसन्द आती हैं। मेहता ने बच्चे के हाथों से अपनी मूँछों की रक्षा करते हुए कहा — मेरी स्त्री कुछ और ही ढंग की होगी। वह ऐसी होगी, जिसकी मैं पूजा कर सकूँगा।
गोविन्दी अपनी हँसी न रोक सकी — तो आप स्त्री नहीं, कोई प्रतिमा चाहते हैं। स्त्री तो ऐसी आपको शायद कहीं मिले।
‘जी नहीं, ऐसी एक देवी इसी शहर में है।
‘सच! ‘ मैं भी उसके दर्शन करती, और उसी तरह बनने की चेष्टा करती।
‘आप उसे खुब जानती हैं। वह एक लखपती की पत्नी है, पर विलास को तुच्छ समझती है; जो उपेक्षा और अनादर सह कर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है की उसकी प्रतिमा बनाकर पूजी जाय। ‘
गोविन्दी के हृदय में आनन्द का कम्पन हुआ। समझकर भी न समझने का अभिनय करती हुई बोली — ऐसी स्त्री की आप तारीफ़ करते हैं। मगर मेरी समझ में तो वह दया की पात्र है। वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती है, वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है।
मेहता ने आश्चर्य से कहा — आप उसका अपमान करती हैं।
‘लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है। ‘
‘वह आदर्श सनातन है और अमर है। मनुष्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है।
गोविन्दी का अन्तःकरण खिला जा रहा था। ऐसी फुरेरियाँ वहाँ कभी न उठी थीं। जितने आदमियों से उसका परिचय था, उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊँचा था। उनके मुख से यह प्रोत्साहन पाकर वह मतवाली हुई जा रही थी। उसी नशे में बोली — तो चलिए, मुझे उन के दर्शन करा दीजिए।
मेहता ने बालक के कपोलों में मुँह छिपाकर कहा — वह तो यहीं बैठी हुई हैं।
‘कहाँ, मैं तो नहीं देख रही हूँ।
‘उसी देवी से बोल रहा हूँ।
गोविन्दी ने ज़ोर से क़हक़हा मारा — आपने आज मुझे बनाने की ठान ली, क्यों?
मेहता श्रद्धानत होकर कहा — देवीजी, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं, और मुझसे ज़्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैं जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता हूँ, वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूँ, आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।
गोविन्दी की आँखों से आनन्द के आँसू निकल पड़े; इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति की सामना न करेगी। उसके रोम-रोम में जैसे मृदु-संगीत की ध्वनि निकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर कहा — आप दार्शनिक क्यों हुए मेहताजी? आपको तो कवि होना चाहिए था।
मेहता सरलता से हँसकर बोले — क्या आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है? दर्शन तो केवल बीच की मंज़िल है।
‘तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं; लेकिन आप यह भी जानते हैं, कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता? ‘
‘जिसे संसार दुःख कहता है, वहाँ कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि, ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहाँ ज़रा भी आकर्षण नहीं है, उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा, उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है। मैंने आपकी दो-चार कविताएँ पढ़ी हैं और उनमें जितनी पुलक, जितना कम्पन, जितनी मधुर व्यथा, जितना रुलानेवाला उन्माद पाया है, वह मैं ही जानता हूँ। प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप-जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनायी।
गोविन्दी ने हसरत भरे स्वर में कहा — नहीं मेहता जी, यह आपका भ्रम है। ऐसी नारियाँ यहाँ आपको गली-गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गयी बीती हूँ। जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, वह भी कोई स्त्री है। मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ कि मालती से यह कला सीखूँ। जहाँ मैं असफल हूँ, वहाँ वह सफल है। मैं अपने को भी अपना नहीं बना सकती, वह दूसरों को भी अपना बना लेती है। क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहीं?
मेहता ने मुँह बनाकर कहा — शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शान्त करता है?
गोविन्दी ने विनोद की शरण लेकर कहा — कुछ भी हो, मैं तो यह देखती हूँ कि पानी मारा-मारा फिरता है और शराब के लिए घर-द्वार बिक जाते हैं, और शराब जितनी ही तेज़ और नशीली हो, उतनी ही अच्छी। मैं तो सुनती हूँ, आप भी शराब के उपासक हैं?
गोविन्दी निराशा की उस दशा को पहुँच गयी थी, जब आदमी को सत्य और धर्म में भी सन्देह होने लगता है; लेकिन मेहता का ध्यान उधर न गया। उनका ध्यान तो वाक्य के अन्तिम भाग पर ही चिमटकर रह गया। अपने मद-सेवन पर उन्हें जितनी लज्जा और क्षोभ आज हुआ, उतना बड़े-बड़े उपदेश सुनकर भी न हुआ था। तर्को का उनके पास जवाब था और मुँह-तोड़; लेकिन इस मीठी चुटकी का उन्हें कोई जवाब न सूझा। वह पछताये कि कहाँ से कहाँ उन्हें शराब की युक्ति सूझी। उन्होंने ख़ुद मालती की शराब से उपमा दी थी। उनका वार अपने ही सिर पर पड़ा। लज्जित होकर बोले — हाँ देवीजी, मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें यह आसक्ति है। मैं अपने लिए उसकी ज़रूरत बतलाकर और उसके विचारोत्तेजक गुणों के प्रमाण देकर गुनाह का उज्रा न करूँगा, जो गुनाह से भी बदतर है। आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि शराब की एक बूँद भी कंठ के नीचे न जाने दूँगा।
गोविन्दी ने सन्नाटे में आकर कहा — यह आपने क्या किया मेहताजी! मैं ईश्वर से कहती हूँ, मेरा यह आशय न था। मुझे इसका दुःख है।
‘नहीं, आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपने एक व्यक्ति का उद्धार कर दिया। ‘
‘मैंने आपका उद्धार कर दिया। मैं तो ख़ुद आप से अपने उद्धार की याचना करने जा रही हूँ। ‘
‘मुझसे? धन्य भाग! ‘
गोविन्दी ने करूण स्वर में कहा — हाँ, आपके सिवा मुझे कोई ऐसा नहीं नज़र आता जिससे मैं अपनी कथा सुनाऊँ। देखिए, यह बात अपने ही तक रखिएगा, हालाँकि आपसे यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं। मुझे अब अपना जीवन असह्य हो गया है। मुझसे अब तक जितनी तपस्या हो सकी, मैंने की; लेकिन अब नहीं सहा जाता। मालती मेरा सर्वनाश किये डालती है। मैं अपने किसी शस्त्र से उस पर विजय नहीं पा सकती। आपका उस पर प्रभाव है। वह जितना आपका आदर करती है, शायद और किसी मर्द का नहीं करती। अगर आप किसी तरह मुझे उसके पंजे से छुड़ा दें, तो मैं जन्म भर आपकी ऋणी रहूँगी। उसके हाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा रहा है। आप अगर मेरी रक्षा कर सकते हैं, तो कीजिए। मैं आज घर से यह इरादा करके चली थी कि फिर लौटकर न आऊँगी। मैंने बड़ा ज़ोर मारा कि मोह के सारे बन्धनों को तोड़कर फेंक दूँ; लेकिन औरत का हृदय बड़ा दुर्बल है मेहता जी! मोह उसका प्राण है। जीवन रहते मोह तोड़ना उसके लिए असम्भव है। मैंने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखी; लेकिन आज मैं आपसे आँचल फैलाकर भिक्षा माँगती हूँ। मालती से मेरा उद्धार कीजिए। मैं इस मायाविनी के हाथों मिटी जा रही हूँ …
उसका स्वर आँसुओं में डूब गया। वह फूट-फूट कर रोने लगी। मेहता अपनी नज़रों में कभी इतने ऊँचे न उठे थे उस वक़्त भी नहीं, जब उनकी रचना को फ़्रांस की एकाडमी ने शताब्दी की सबसे उत्तम कृति कहकर उन्हें बधाई दी थी। जिस प्रतिमा की वह सच्चे दिल से पूजा करते थे, जिसे मन में वह अपनी इष्टदेवी समझते थे और जीवन के असूझ प्रसंगों में जिससे आदेश पाने की आशा रखते थे, वह आज उनसे भिक्षा माँग रही थी। उन्हें अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ कि वह पर्वत को भी फाड़ सकते हैं; समुद्र को तैरकर पार कर सकते हैं। उन पर नशा-सा छा गया, जैसे बालक काठ के घोड़े पर सवार होकर समझ रहा हो वह हवा में उड़ रहा है। काम कितना असाध्य है, इसकी सुधि न रही। अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या करनी पड़ेगी, बिलकुल ख़याल न रहा। आश्वासन के स्वर में बोले — मुझे न मालूम था कि आप उससे इतनी दुखी हैं। मेरी बुद्धि का दोष, आँखों का दोष, कल्पना का दोष। और क्या कहूँ, वरना आपको इतनी वेदना क्यों सहनी पड़ती!
गोविन्दी को शंका हुई। बोली — लेकिन सिंहनी से उसका शिकार छीनना आसान नहीं है, यह समझ लीजिए।
मेहता ने दृढ़ता से कहा — नारी-हृदय धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती है, कड़वापन भी। उसके अन्दर पड़नेवाले बीज में जैसी शक्ति हो।
‘आप पछता रहे होंगे, कहाँ से आज इससे मुलाक़ात हो गयी। ‘
‘मैं अगर कहूँ कि मुझे आज ही जीवन का वास्तविक आनन्द मिला है, तो शायद आपको विश्वास न आये! ‘
‘मैंने आपके सिर पर इतना बड़ा भार रख दिया। ‘

मेहता ने श्रद्धा-मधुर स्वर में कहा — आप मुझे लज्जित कर रही हैं देवीजी! मैं कह चुका, मैं आपका सेवक हूँ। आपके हित में मेरे प्राण भी निकल जायँ, तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा। इसे कवियों का भावावेश न समझिए, यह मेरे जीवन का सत्य है। मेरे जीवन का क्या आदर्श है, आपको यह बतला देने का मोह मुझसे नहीं रुक सकता। मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ, जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमज़ोरी और हँसने को हलकापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है, सरल, स्वच्छन्द, जहाँ कुत्सा, ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं। मैं भूत की चिन्ता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिन्ता हमें कायर बना देती है, भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवन की शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर, रूढ़ियों और विश्वासों और इतिहासों के मलवे के नीचे दबे पड़े हैं; उठने का नाम नहीं लेते, वह सामर्थ्य ही नहीं रही! जो शक्ति, जो स्फूर्ति मानव-धर्म को पूरा करने में लगनी चाहिए थी, सहयोग में, भाईचारे में, वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप-दादों का ऋण चुकाने की भेंट हो जाती है। और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है, इस पर तो मुझे हँसी आती है। वह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किये डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है; और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना है, और मोक्ष है। ज्ञानी कहता है, ओठों पर मुस्कराहट न आये, आँखों में आँसू न आये। मैं कहता हूँ, अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं है, कोल्हू है। मगर क्षमा कीजिए, मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया। अब देर हो रही है, चलिए, मैं आपको पहुँचा दूँ। बच्चा भी मेरी गोद में सो गया।

गोविन्दी ने कहा — मैं तो ताँगा लायी हूँ।
‘ताँगे को यहीं से विदा कर देता हूँ। ‘
मेहता ताँगे के पैसे चुकाकर लौटे, तो गोविन्दी ने कहा — लेकिन आप मुझे कहाँ ले जायँगे?
मेहता ने चौंककर पूछा — क्यों, आपके घर पहुँचा दूँगा।
‘वह मेरा घर नहीं है मेहताजी! ‘
‘और क्या मिस्टर खन्ना का घर है? ‘
‘यह भी क्या पूछने की बात है?
‘अब वह घर मेरा नहीं रहा। जहाँ अपमान और धिक्कार मिले, उसे मैं अपना घर नहीं कह सकती, न समझ सकती हूँ। ‘
मेहता ने दर्द-भरे स्वर में जिसका एक-एक अक्षर उनके अन्तःकरण से निकल रहा था, कहा — नहीं देवीजी, वह घर आपका है, और सदैव रहेगा। उस घर की आपने सृष्टि की है, उसके प्राणियों की सृष्टि की है, और प्राण जैसे देह का संचालन करता है। प्राण निकल जाय, तो देह की क्या गति होगी? मातृत्व महान् गौरव का पद है देवीजी! और गौरव के पद में कहाँ अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? माता का काम जीवन-दान देना है। जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति है, उसे इसकी क्या परवाह कि कौन उससे रूठता है, कौन बिगड़ता है। प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकती, उसी तरह प्राण को भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है। मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूँ? आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं। मैं तो यही कहूँगा कि …
गोविन्दी ने अधीर होकर कहा — लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूँ, नारी भी तो हूँ?
मेहता ने एक मिनट तक मौन रहने के बाद कहा — हाँ, हैं; लेकिन मैं समझता हूँ कि नारी केवल माता है, और इसके उपरान्त वह जो कुछ है, वह मातृत्व का उपक्तम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूँगा — जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी। आप मिस्टर खन्ना के विषय में इतना ही समझ लें कि वह अपने होश में नहीं हैं। वह जो कुछ कहते हैं या करते हैं, वह उन्माद की दशा में करते हैं; मगर यह उन्माद शान्त होने में बहुत दिन न लगेंगे, और वह समय बहुत जल्द आयेगा, जब वह आपको अपनी इष्टदेवी समझेंगे।
गोविन्दी ने इसका कुछ जवाब न दिया। धीरे-धीरे कार की ओर चली। मेहता ने बढ़कर कार का द्वार खोल दिया। गोविन्दी अन्दर जा बैठी। कार चली; मगर दोनों मौन थे। गोविन्दी जब अपने द्वार पर पहुँचकर कार से उतरी, तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखा, उसकी आँखें सजल हैं। बच्चे घर में से निकल आये और ‘ अम्माँ-अम्माँ ‘ कहते हुए माता से लिपट गये। गोविन्दी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्योति चमक उठी। उसने मेहता से कहा — इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद! — और सिर नीचा कर लिया। आँसू की एक बूँद उसके कपोल पर आ गिरी थी। मेहता की आँखें भी सजल हो गयीं — इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी-हृदय कितना दुखी है!


Next: गोदान उपन्यास | भाग 19 – मुंशी प्रेमचंद
Previous: गोदान उपन्यास | भाग 17 – मुंशी प्रेमचंद


इन्हें भी देखें –

Leave a Comment

सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.