भारत की भाषिक विविधता विश्वभर में अद्वितीय मानी जाती है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक, और मध्य भारत से पूर्वी भारत तक, हर क्षेत्र में भाषाओं और बोलियों का समृद्ध संसार बिखरा हुआ है। इन्हीं भाषाई धरोहरों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण, मधुर और विशिष्ट भाषा है—छत्तीसगढ़ी। यह बोली सिर्फ भाषा नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की धरती की आत्मा का स्वर, लोकजीवन की गूँज और जनजातीय-सांस्कृतिक परंपराओं का जीवंत दस्तावेज है।
छत्तीसगढ़ी को प्रायः पूर्वी हिन्दी की तीसरी प्रमुख बोली माना गया है, परंतु व्यवहारिक रूप में यह केवल ‘हिन्दी की बोली’ भर नहीं है; बल्कि यह एक सशक्त और स्वतंत्र भाषिक पहचान रखने वाली इंडो-आर्यन भाषा है। लगभग दो करोड़ से अधिक लोग इसे अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं। राज्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक संरचना में छत्तीसगढ़ी की भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण है कि इसे छत्तीसगढ़ की प्रमुख क्षेत्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त है।
इस लेख में हम छत्तीसगढ़ी भाषा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, बोलने का भू-क्षेत्र, भाषिक विशेषताओं, ध्वन्यात्मक गुणों, सांस्कृतिक महत्व, साहित्यिक परंपरा और आधुनिक स्वरूप का विस्तार से अध्ययन करेंगे।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य : दक्षिण कौशल का भाषिक विकास
छत्तीसगढ़ी भाषा जिस क्षेत्र में विकसित हुई, वह भूभाग प्राचीन काल में ‘दक्षिण कौशल’ के नाम से जाना जाता था। दक्षिण कौशल का उल्लेख रामायण और पुराणों में भी मिलता है। यह क्षेत्र धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से अत्यंत सक्रिय रहा है। यहाँ पर आर्य, अनार्य, जनजातीय और द्रविड़ीय संस्कृतियों का निरंतर घुलना-मिलना होता रहा, जिसका प्रभाव यहाँ की भाषा पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
छत्तीसगढ़ी का विकास मूलतः अर्धमागधी प्राकृत, अपभ्रंश, और बाद में विकसित पूर्वी हिन्दी के भाषा-वृत्त से हुआ। यह भाषा मध्य भारत के जनजातीय भाषाई प्रभाव—विशेषकर गोंडी, हल्बी और कुड़ुख—से भी प्रभावित रही है, जिससे इसके शब्द-भंडार, उच्चारण और स्वरूप में अनूठी विशेषताएँ आयी हैं।
छत्तीसगढ़ी का भू-क्षेत्र
छत्तीसगढ़ी मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ राज्य के अधिकांश भाग में बोली जाती है, परंतु इसका प्रभाव छत्तीसगढ़ से बाहर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों तक भी फैला हुआ है। प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं—
- रायपुर – छत्तीसगढ़ी का सांस्कृतिक व भाषाई केन्द्र
- दुर्ग – नगरीय और ग्रामीण दोनों रूपों में छत्तीसगढ़ी की प्रचलित बोली
- बिलासपुर – छत्तीसगढ़ी संस्कृति और लोकसाहित्य का बड़ा केंद्र
- राजनांदगाँव – जनजातीय और ग्रामीण छत्तीसगढ़ी का मिश्रित स्वरूप
- सारंगढ़ – पारंपरिक, शुद्ध छत्तीसगढ़ी का क्षेत्र
- नंदगाँव – छत्तीसगढ़ी और मराठी प्रभाव का मिश्रण
- खैरागढ़ – लोकगीतों–नृत्यों की भूमि, जहाँ छत्तीसगढ़ी का स्वर और भी मधुर है
- बालाघाट (मध्य प्रदेश) – छत्तीसगढ़ी की सीमावर्ती उपबोली
इन क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ी न केवल संचार का माध्यम है, बल्कि लोकजीवन, प्रशासन, शिक्षा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी व्यापक रूप से प्रयुक्त होती है। यह राज्य की ‘लिंगुआ-फ्रांका’ अर्थात् संपर्क भाषा के रूप में स्थापित है।
छत्तीसगढ़ी की ध्वन्यात्मक और भाषिक विशेषताएँ
छत्तीसगढ़ी की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसका ध्वन्यात्मक स्वरूप है, जिसके कारण इसे महाप्राण ध्वनियों की बोली कहा जाता है।
(1) महाप्राण ध्वनियों का व्यापक प्रयोग
छत्तीसगढ़ी में महाप्राण ध्वनियाँ सामान्य बोलचाल में अत्यधिक प्रयोग होती हैं।
उदाहरण—
- जन → झन
- दौड़ → धौड़
- ठंड → ठंढक
- चलो → छलो
महाप्राण ध्वनियों का यह ठसकयुक्त उच्चारण इस बोली की पहचान बन चुका है।
(2) शब्दों का सरलीकरण
छत्तीसगढ़ी बोलने में सरल, सहज और अत्यंत प्रवाहपूर्ण है। यहाँ शब्दों का रूप ‘तोड़कर’ या ‘सरल करके’ बोलने की परंपरा मिलती है।
- तुम्हारा → तोर
- हमारा → हमर
- कहाँ → કइँहा
- कैसे → કઇसे
इस प्रकार की संरचना बोली में आत्मीयता और सहजता का भाव निर्मित करती है।
(3) स्वरों का लंबा उच्चारण और नासिक्यता
छत्तीसगढ़ी के उच्चारण में लंबे स्वर और नासिक ध्वनियों का विशेष प्रयोग होता है।
उदाहरण—
- बा—ड़ा (बड़ा)
- खा—ना (खाना)
इस लयात्मकता के कारण छत्तीसगढ़ी सुनने में अत्यंत मधुर प्रतीत होती है।
(4) जनजातीय और द्रविड़ीय प्रभाव
यह भाषा विभिन्न आदिवासी भाषाओं—गोंडी, हल्बी, कुड़ुख, भुजिया, कोरवा आदि—के प्रभाव से समृद्ध हुई है।
इन भाषाओं से छत्तीसगढ़ी में—
- सैकड़ों शब्द
- अनेक उच्चारण
- कई व्याकरणिक संरचनाएँ
आयी हैं। जनजातीय प्रभाव के कारण छत्तीसगढ़ी की प्रकृति ग्रामीण, सहज और प्रकृतिनिष्ठ बनी रही है।
(5) शब्द-संग्रह और वाक्य संरचना
छत्तीसगढ़ी में प्रायः संक्षिप्त और छोटी वाक्य-रचना का प्रयोग होता है।
उदाहरण—
- का करथस? (क्या कर रहे हो?)
- कइसा लगिस? (कैसा लगा?)
- अब्बड़ बढ़िया! (बहुत अच्छा!)
इस सरलता के कारण यह बोली आसानी से सीखी और समझी जा सकती है।
छत्तीसगढ़ी और अन्य भाषाओं का प्रभाव
छत्तीसगढ़ की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ आसपास के राज्यों—महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, बिहार और मध्य प्रदेश—का सांस्कृतिक और भाषाई प्रभाव सदियों से रहा है।
इससे छत्तीसगढ़ी में—
- मराठी के शब्द
- उड़िया के कुछ रूप
- भोजपुरी और मगही के प्रभाव
- मध्य प्रदेश की मालवी-बघेली बोलियों की छाप
मिलती है।
उदाहरण—
- मराठी प्रभाव: मोर, तोरे, कइसा
- उड़िया प्रभाव : बउरा, भात, टेंगा
- जनजातीय प्रभाव : डोकरा-डोकरिन, लइका
यह मिश्रित स्वरूप ही छत्तीसगढ़ी को अनन्य बनाता है।
छत्तीसगढ़ी की उपबोलियाँ
छत्तीसगढ़ी अकेली बोली नहीं है, बल्कि इसके भीतर कई उप-बोलियाँ विकसित हुई हैं। इनमें प्रमुख हैं—
(1) हल्बी
दक्षिण छत्तीसगढ़ में बोली जाती है। यह द्रविड़ीय व इंडो-आर्यन मिश्रित बोली है।
(2) सरगुजिया
उत्तर छत्तीसगढ़ की बोली, जिसमें भोजपुरी और मगही का स्पष्ट प्रभाव मिलता है।
(3) खल्टाही
यह बोली बस्तर क्षेत्र में बोली जाती है। जनजातीय लहजा इसकी पहचान है।
इन उपबोलियों की विविधता छत्तीसगढ़ी भाषा के स्वरूप को और भी व्यापक बनाती है।
साहित्य और सांस्कृतिक महत्व
(1) लोकगीत और लोककथाएँ
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की दुनिया अत्यंत विशाल है।
- करमा गीत
- ददरिया
- पंथी गीत
- बिहाव गीत
- सुआ नृत्य गीत
इन लोकगीतों में प्रकृति, प्रेम, श्रम, उत्सव और जनजीवन की सच्चाई झलकती है।
(2) छत्तीसगढ़ी नाटक और रंगमंच
छत्तीसगढ़ में हर गाँव-गाँव में नाचा, जन्माष्टमी लीला, रामलीला जैसी रंगमंचीय परंपराएँ प्रचलित रही हैं। आधुनिक समय में कई कलाकारों ने छत्तीसगढ़ी नाटक को राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाया है।
(3) आधुनिक साहित्य का विकास
यद्यपि छत्तीसगढ़ी में लिखित साहित्य अपेक्षाकृत कम रहा है, परंतु 20वीं शताब्दी के अंत और 21वीं सदी में इसमें तीव्र विकास हुआ है।
- कविता
- कहानी
- उपन्यास
- नाटक
- गीत
- फिल्में
इन सभी क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ी ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।
देवनागरी लिपि और व्याकरण
छत्तीसगढ़ी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
इसके व्याकरण में—
- सरल संज्ञा-रूप
- लचीला क्रिया-विन्यास
- सीधी-सादी वाक्य-रचना
मिलती है।
उदाहरण—
मोर मन लगा हावय। (मेरा मन लगा है।)
वो मन घर गे रहिस। (वे लोग घर गए थे।)
आधुनिक समय में छत्तीसगढ़ी का सामाजिक महत्व
आज छत्तीसगढ़ी—
- स्कूलों
- प्रशासनिक कार्यक्रमों
- राजनीति
- मीडिया
- फिल्मों
- सोशल मीडिया
में व्यापक रूप से प्रयुक्त होती है।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों और गीतों ने यूट्यूब और सोशल मीडिया पर बड़ी लोकप्रियता हासिल की है। युवा वर्ग भी गर्व से इस भाषा का उपयोग कर रहा है।
संवैधानिक दर्जा : एक अधूरी यात्रा
यद्यपि छत्तीसगढ़ी को राज्य की क्षेत्रीय भाषा का दर्जा मिल चुका है, फिर भी इसे अभी तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है।
छत्तीसगढ़ी भाषा-समुदाय लगातार इसकी मांग कर रहा है कि भाषा को राष्ट्रीय भाषाओं की श्रेणी में स्थान मिले।
निष्कर्ष
छत्तीसगढ़ी केवल एक बोली नहीं, बल्कि एक समृद्ध भाषाई संसार है। महाप्राण ध्वनियों की विशिष्टता, स्वरों की लयात्मकता, जनजातीय प्रभाव की सुगंध, लोककथाओं और गीतों की मधुर परंपरा—ये सभी मिलकर छत्तीसगढ़ी को अन्य भाषाओं से अलग पहचान देते हैं।
यह भाषा मध्य भारत के करोड़ों लोगों की भावनाओं, विचारों और सांस्कृतिक गौरव की सशक्त अभिव्यक्ति है। आज जब भाषाओं के अस्तित्व को चुनौतियाँ मिल रही हैं, ऐसे समय में छत्तीसगढ़ी की लोकप्रियता, साहित्यिक प्रगति और युवाओं का जुड़ाव अत्यंत उत्साहवर्धक है।
छत्तीसगढ़ी अपने विशाल साहित्य, लोकशक्ति और मधुर उच्चारण के कारण आने वाले समय में और अधिक सशक्त रूप में उभरने की क्षमता रखती है। यह भाषा न केवल राज्य की पहचान है, बल्कि भारत की बहुरंगी भाषाई विरासत का अभिन्न हिस्सा भी है।
इन्हें भी देखें –
- पूर्वी हिन्दी : विकास, बोलियाँ, भाषिक विशेषताएँ और साहित्यिक योगदान
- बघेली भाषा : इतिहास, क्षेत्र, भाषिक विशेषताएँ और सांस्कृतिक महत्व
- अवधी भाषा : इतिहास, क्षेत्र, साहित्य, विशेषताएँ और महत्त्व
- पहाड़ी हिन्दी : उत्पत्ति, विकास, बोलियाँ और भाषाई विशेषताएँ
- मालवी भाषा : उद्भव, स्वरूप, विशेषताएँ और साहित्यिक परंपरा
- वागड़ी भाषा : इतिहास, स्वरूप, विशेषताएँ और सांस्कृतिक महत्ता
- मेवाती भाषा : इतिहास, बोली क्षेत्र, भाषाई संरचना, साहित्य और आधुनिक स्वरूप
- हाड़ौती भाषा: राजस्थान की एक समृद्ध उपभाषा का भाषिक और सांस्कृतिक अध्ययन