छायावादी युग का समय 1918 ई. से 1936 ई. के मध्य की कालावधि को माना जाता है। हालाँकि कुछ जगहों पर छायावाद का प्रारंभ 1920 ई. से माना जाता है। वहीं इलाचंद्र जोशी, शिवनाथ और प्रभाकर माचवे ने छायावाद का आरंभ लगभग 1912 ई. से 1914 ई. के मध्य माना है। द्विवेदी युगीन काव्य की प्रतिक्रिया में छायावाद का जन्म हुआ था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी लिखा है की ‘छायावाद का चलन द्विवेदी-काल की रुखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।’ छायावाद का सर्वप्रधान लक्षण आत्माभिव्यंजना है।
लिखित रूप में छायावाद शब्द के प्रथम प्रयोक्ता मुकुटधर पांडेय थे। मुकुटधर पाण्डेय ने ‘हिंदी में छायावाद’ लेख में सर्वप्रथम इसका प्रयोग किया। यह लेख जबलपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘श्री शारदा’ (1920 ई.) में चार किस्तों में प्रकाशित हुआ था। सुशील कुमार ने भी सरस्वती पत्रिका (1921 ई.) में ‘हिन्दी में छायावाद’ शीर्षक लेख लिखा था। यह लेख मूलतः संवादात्मक निबंध था। इस संवाद में सुशीला देवी, हरिकिशोर बाबू, चित्राकार, रामनरेश जोशी, पंत ने भाग लिया था।
आचार्य शुक्ल ने छायावाद का प्रवर्तक मुकुटधर पांडेय और मैथिलीशरण गुप्त को मानते हैं और नंददुलारे वाजपेयी पंत तथा उनकी कृति ‘उच्छ्वास’ (1920) से छायावाद का आरंभ माना है। वहीं इलाचंद्र जोशी और शिवनाथ ने ‘जयशंकर प्रसाद’ को छायावाद का जनक मानते हैं। विनयमोहन शर्मा, प्रभाकर माचवे ने ‘माखनलाल चतुर्वेदी’ को छायावाद का प्रवर्तक माना है।
छायावादी युग (1918 ई.-1936 ई.)
हिंदी साहित्य के इतिहास में छायावाद के वास्तविक अर्थ को लेकर विद्वानों में विभिन्न मतभेद है। छायावाद का अर्थ मुकुटधर पांडे ने “रहस्यवाद, सुशील कुमार ने “अस्पष्टता” महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “अन्योक्ति पद्धति” रामचंद्र शुक्ल ने “शैली बैचित्र्य “नंददुलारे बाजपेई ने “आध्यात्मिक छाया का भान” डॉ नगेंद्र ने “स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह”बताया है।
“द्विवेदी युग” के बाद के समय को छायावाद कहा जाता है। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” और सुमित्रानंदन पंत जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है। “द्विवेदी युग” की प्रतिक्रिया का परिणाम ही “छायावादी युग” है।
नामवर सिंह के शब्दों में, ‘छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो 1918 ई. से लेकर 1936 ई. (‘उच्छवास’ से ‘युगान्त’) तक लिखी गई।
सामान्य तौर पर किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो वह ‘छायावादी कविता’ है। उदाहरण के तौर पर पंत की निम्न पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं जो कहा तो जा रहा है छाँह के बारे में लेकिन अर्थ निकल रहा है नारी स्वातंत्र्य संबंधी :
कहो कौन तुम दमयंती सी इस तरु के नीचे सोयी, अहा
तुम्हें भी त्याग गया क्या अलि नल-सा निष्ठुर कोई।।
छायावादी युग में हिन्दी साहित्य में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। इस समय की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा “छायावादी युग” के चार प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
छायावाद के कवि
छायावादी युग में अनेकों कवियों ने अपना योगदान दिया। हालाँकि इनमे से छायावाद के चार प्रमुख कवि हैं, जिनके नाम निम्नलिखित हैं –
- जयशंकर प्रसाद
- सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
- सुमित्रानंदन पंत
- महादेवी वर्मा
- “छायावाद” का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली महादेवी वर्मा ही हैं।
रामकुमार वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर को भी “छायावाद” ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी।
अन्य कवियों में हरिकृष्ण “प्रेमी”, जानकी वल्लभ शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा, उदयशंकर भट्ट, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल “अंचल” के नाम भी उल्लेखनीय हैं।
रचना की दृष्टि से छायावाद के कवि
- समालोचक– आचार्य द्विवेदी जी, पद्म सिंह शर्मा, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डाक्टर रामकुमार वर्मा, श्यामसुंदर दास, डॉ रामरतन भटनागर आदि हैं।
- कहानी लेखक – प्रेमचंद, विनोद शंकर व्यास, प्रसाद, पंत, गुलेरी, निराला, कौशिक, सुदर्शन, जैनेंद्र, हृदयेश आदि।
- उपन्यासकार – प्रेमचंद, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, प्रसाद, उग्र, हृदयेश, जैनेंद्र, भगवतीचरण वर्मा, वृंदावन लाल वर्मा, गुरुदत्त आदि।
- नाटककार– प्रसाद, सेठ गोविंद दास, गोविंद वल्लभ पंत, लक्ष्मी नारायण मिश्र, उदय शंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि हैं।
- निबंध लेखक– आचार्य द्विवेदी, माधव प्रसाद शुक्ल, रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्यामसुंदर दास, पद्म सिंह, अध्यापक पूर्णसिंह आदि।
कवि क्रम अनुसार छायावादी रचनाएँ
- जयशंकर प्रसाद (1889-1936 ई.) के काव्य– “चित्राधार” (ब्रज भाषा में रचित कविताएँ), “कानन-कुसुम”, “महाराणा का महत्त्व”, “करुणालय”, “झरना”, “आंसू”, “लहर” और “कामायनी”।
- सुमित्रानंदन पंत (1900-1977ई.) के काव्य– “वीणा”, “ग्रंथि”, “पल्लव”, “गुंजन”, “युगांत”, “युगवाणी”, “ग्राम्या”, “स्वर्ण-किरण”, “स्वर्ण-धूलि”, “युगान्तर”, “उत्तरा”, “रजत-शिखर”, “शिल्पी”, “प्रतिमा”, “सौवर्ण”, “वाणी”, “चिदंबरा”, “रश्मिबंध”, “कला और बूढ़ा चाँद”, “अभिषेकित”, “हरीश सुरी सुनहरी टेर”, “लोकायतन”, “किरण वीणा”।
- सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” (1898-1961 ई.) के काव्य – “अनामिका”, “परिमल”, “गीतिका”, “तुलसीदास”, “आराधना”, “कुकुरमुत्ता”, “अणिमा”, “नए पत्ते”, “बेला”, “अर्चना”।
- महादेवी वर्मा (1907-1988 ई.) की काव्य रचनाएँ- “रश्मि”, “निहार”, “नीरजा”, “सांध्यगीत”, “दीपशिखा”, “यामा”।
- डॉ. रामकुमार वर्मा की काव्य रचनाएँ– “अंजलि”, “रूपराशि”, “चितौड़ की चिता”, “चंद्रकिरण”, “अभिशाप”, “निशीथ”, “चित्ररेखा”, “वीर हमीर”, “एकलव्य”।
- हरिकृष्ण “प्रेमी” की काव्य रचनाएँ– “आखों में”, “अनंत के पथ पर”, “रूपदर्शन”, “जादूगरनी”, “अग्निगान”, “स्वर्णविहान”।
छायावादी युग के कवियों को दो भागों में बांटा गया है-
- मुख्य छायावादी युग के कवि (मुख्य छायावादी काव्य धारा)
- राष्ट्रवादी सांस्कृतिक काव्य धारा के कवि।
छायावादी युग के कवियों में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, राम कुमार वर्मा, उदय शंकर भट्ट, वियोगी, लक्ष्मी नारायण मिश्र, जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ आते हैं। तथा राष्ट्रवादी सांस्कृतिक काव्य धारा के कवियों में माखन लाल चतुर्वेदी, सिया राम शरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि आते हैं।
मुख्य छायावादी काव्य धारा और राष्ट्रवादी सांस्कृतिक काव्य धारा। दोनों प्रकार के छायावादी कवि और उनकी रचनाएँ आगे दी गयी हैं-
1. छायावादी काव्य धारा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाओं का परिचय
छायावादी युग के अंतर्गत मुख्य छायावादी काव्य धारा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाओं का विवरण नीचे दिया गया है –
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय (1889-1936)
जयशंकर प्रसाद का जन्म 1889 ई. में काशी के प्रसिद्ध ‘सुंघनी साहू’ के परिवार में हुआ था तथा मृत्यु 1937 ई. में हुआ था। इनकी माता का नाम मुन्नीदेवी और पिता देवीप्रसाद था। प्रसाद जी के गुरु मोहिनीलाल थे। इनका बाल्यनाम/उपनाम ‘झारखंडी’ था और ब्रजभाषा में ‘कलाधर’ उपनाम से कविता करते थे, इनकी ब्रजभाषा की कविताएँ ‘चित्राधार’ (1918) में संकलित है।
जयशंकर प्रसाद को प्रथम कविता ‘सावन-पंचक’ सन् 1906 ई. में ‘भारतेन्दु’ पत्रिका में ‘कलाधर’ उपनाम से प्रकाशित हुई थी। ‘उर्वशी’ से लेकर ‘महाराणा का महत्व’ तक सभी रचनाएं द्विवेदी युगीन हैं। इनकी प्रथम छायावादी कविता ‘प्रथम प्रभात’ सन् 1918 ई. में प्रकाशित हुई जो 2 संग्रहों- ‘झरना’ और ‘कानन-कुसुम’ में संकलित है। ‘प्रथम प्रभात’ को हिंदी की पहली छायावादी कविता भी मानी जाती है। प्रसाद की प्रथम पुस्तकाकार रचना ‘उर्वशी’ है जो एक चंपूकाव्य है। खड़ी बोली में प्रसाद जी का प्रथम खड़ी बोली का काव्य संग्रह ‘कानन-कुसुम’ है। इनकी कृति ‘झरना’ को छायावाद का प्रथम काव्यसंग्रह माना जाता है। इसे ‘छायावाद की प्रथम प्रयोगशाला’ भी कहा जाता है।
जयशंकर प्रसाद कृत ‘आँसू’ 133 छन्दों का विरह प्रधान स्मृति काव्य है जिसे ‘हिन्दी का मेघदूत’ कहा जाता है। जिसके द्वितीय संस्करण में 64 छन्द जोड़े गए हैं। प्रसाद ने ‘आँसू’ में 14 मात्राओं का आनंद छंद या सखी छंद का प्रयोग भी किया है। ‘आँसू’ कविता में प्रसाद ने व्यक्तिगत वेदना से ऊपर उठकर करुणा या विश्व कल्याण की भावना की अभिव्यक्ति की है।
प्रसाद जी की ‘लहर’ एक गीतकाव्य है जिसमें मुक्त छंद में रचित ‘शेर सिंह का आत्मसमर्पण’, ‘पेशोला की प्रतिध्वनी’ और ‘प्रलय की छाया’ कविताएँ संकलित हैं। प्रसाद ने ‘प्रेम पथिक’ प्रथमत: ब्रजभाषा में सन् 1909 ई. में लिखा गया था जिसका बाद में परिवर्तित एवं परिवर्धित रूप में खड़ी बोली में प्रस्तुत सन् 1914 ई. में किया था।
प्रसाद जी को प्रेम और सौन्दर्य का कवि माना जाता है। इनकी रचनाओं में रहस्यवादी प्रवृत्ति मिलती है। आचार्य शुक्ल ने प्रसाद के संदर्भ में लिखा है कि, ‘इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहें तो कह सकते हैं कि इनकी मधुचर्या के मानस प्रकार के लिए रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यूँ कहें कि इनकी सारी प्रणयानुभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही।’
जय शंकर प्रसाद जी की रचनाएँ
- छायावादी रचनाएं: झरना (1918), आंसू (1925), लहर (1933), कामायनी (1935)।
- अन्य रचनाएं: उर्वशी (1909), वन मिलन (1909), प्रेम राज्य (1909), अयोध्या का उद्धार (1910), शोकोच्छवास (1910), वभ्रुवाहन (1911), कानन कुसुम (1913), प्रेम पथिक (1913), करुणालय (1913), महाराणा का महत्व (1914), चित्राधार (1918, ब्रज भाषा में रचित कविताएं)।
- प्रमुख कविताएँ: अशोक की चिंता, आँखों में अलख जगाने को, अब जागो जीवन के प्रभात, बीती विभावरी जाग री।
जयशंकर प्रसाद कृत ‘कामायनी’ महाकाव्य का संक्षिप्त विवरण
कामायनी महाकाव्य का अंगीरस शांत (निर्वेद) रस है। कामायनी में प्रसाद ने शैवदर्शन के अन्तर्गत आने वाले प्रत्यभिज्ञान दर्शन की मान्यताओं के अनुरूप समरसतावाद एवं आनंदवाद की स्थापना की है। कामायनी का उद्देश्य ही आनंदवाद की स्थापना है। मुख्य छंद ताटंक छंद है।
कामायनी के सर्ग
प्रसाद की अंतिम कृति ‘कामायनी’ है, जिसमें 15 सर्ग है। ‘कामायनी’ का चिंता सर्ग सर्वप्रथम अक्तूबर 1928 ई. में ‘सुधा’ के अंक में प्रकाशित हुआ था। कामायनी के 15 सर्ग हैं- 1. चिन्ता, 2. आशा, 3. श्रद्धा, 4. काम, 5. वासना, 6. लज्जा, 7. कर्म, 8. ईर्ष्या, 9. इडा, 10. स्वप्न, 11. संघर्ष, 12. निर्वेद, 13. दर्शन, 14. रहस्य, 15. आनन्द ।
‘कामायनी’ महाकाव्य के मुख्य पात्र और उनके प्रतीक
कामायनी’ महाकाव्य के मुख्य पात्र और उनके प्रतीक का विवरण नीचे सारणी में दिया गया है –
क्र.सं. | पात्र | प्रतीक |
---|---|---|
1. | मनु | मन |
2. | श्रद्धा | हृदय |
3. | इड़ा | बुद्धि |
4. | कुमार | मानव |
‘कामायनी’ के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के मत
- आचार्य शांतिप्रिय द्विवेदी ने ‘कामायनी’ को छायावाद का उपनिषद कहा है।
- आचार्य शुक्ल ने कामायनी के संदर्भ में लिखा है कि, ‘यदि मधुचर्या का अतिरेक और रहस्य की प्रवृत्ति बाधक न होती तो इस काव्य के भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती।’
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कामायनी की श्रद्धा को ‘विश्वास समन्वित रागात्मिक वृत्ति’ और इड़ा को ‘व्यावसायात्मिका बुद्धि’ कहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि, ‘इसमें (कामायनी) में अपने प्रिय ‘आनंद’ की प्रतिष्ठा दार्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती भूमिका बनाकर दी है।’
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कामायनी के संदर्भ में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा है कि, ‘यदि हम इस विशद काव्य की अंतर्योजना पर ध्यान न दें, समष्टि रूप में कोई समन्वित प्रभाव न ढूँढ़े, श्रद्धा, काम, लज्जा, इड़ा इत्यादि को अलग-अलग लें तो हमारे सामाने बड़ी रमणीय चित्रमयी कल्पना, अभिव्यंजना की अत्यंत मनोरम पद्धति आती है।’
- नगेंद्र ने ‘कामायनी’ को ‘मानव चेतना के विकास का महाकाव्य’ कहा है।
- गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ ने कामायनी को फैंटेसी माना है।
- नंद दुलारे वाजपेयी ने ‘कामायनी’ को नये युग का प्रतिनिधि काव्य माना है।
- दिनकर ने कामायनी के संदर्भ में ‘दोषरहित-दूषणसहित’ नामक निबंध लिखा है।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जीवन परिचय (1897-1962)
निराला का जन्म बंगाल प्रान्त में मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक रियासत में सन् 1899 ई. में हुआ था और मृत्यु इलाहाबाद (1961 ई.) में। इनका बचपन का नाम ‘सूर्य कुमार’ था। निराला जी ‘गरगज सिंह वर्मा’ छद्मनाम से भी जाने जाते हैं। निराला जी के पिता का नाम रामसहाय त्रिपाठी, पत्नी का मनोहरा देवी और पुत्री सरोज थी।
निराला जी का दार्शनिक आधार ‘अद्वैतवाद’ है। इन्होंने ‘मतवाला’ और ‘समन्वय’ नामक पत्रों का सम्पादन भी किया है। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का ‘निराला’ उपनाम, ‘मतवाला’ के तुक पर रखा गया था। निराला को ‘महाप्राण’ कवि भी कहा जाता है। निराला अपने समय में सर्वाधिक विवादस्पद कवि रहे लेकिन कालांतर में उतना ही अधिक निर्विवाद और सर्वग्राह्य सिद्ध हुए। रामविलास शर्मा ने निराला की प्रथम प्रकाशित रचना ‘भारत माता की बंदना’ (1920) को मानते हैं।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को हिन्दी में मुक्त छंद का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने ‘परिमल’ की भूमिका में लिखा है कि “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कमों के बंधन से छुटकाना पाना है और कविता की मुक्ति छंद के शासन से अलग हो जाना।” कुछ आलोचक मुक्त छंद को ‘रबर’ या ‘केंचुआ छंद’ कह कर निराला का उपहास उड़ाया था।
नामवर सिंह ने निराला को छंदों का गुरु कहा है। निराला ‘कवित्त’ को ‘हिन्दी का जातीय छंद’ मानते हैं। छंद और काव्य भाषा के संदर्भ में निराला ने लिखा है की, ‘जो गहन भाव, सीधी भाषा, सीधे छंद में चाहता है, वह धोखेबाज़ है।’ निराला का स्पष्ट मत था कि, ‘भावो की मुक्ति छंदों की भी मुक्ति चाहती है। यहाँ भाषा, भाव और छंद स्वछंद हैं’
निराला ओज, औदात्य और विद्रोह के कवि हैं, इनकी तुलना ऊपरी तौर पर अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैन से की जाती है। निराला अकुंठ एवं वयस्क श्रृंगार-दृष्टि तथा तृप्ति के कवि कहलाते हैं। आचार्य राम चंद्र शुक्ल के अनुसार, ‘बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा निरालाजी में है।’ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार निराला से बढ़कर स्वच्छंदतावादी कवि हिंदी में कोई नहीं है।
सरोज स्मृति निराला की सर्वाधिक व्यक्तिपक रचना है, जिसे कवि ने अपनी प्रिय पुत्री सरोज के देहावसान (पुत्री के शोक) पर लिखा था, आधुनिक हिन्दी काव्य का इसे प्रथम और सर्वश्रेष्ठ शोकगीत कहा जाता है।
निराला कृत ‘राम की शक्तिपूजा’ महाकाव्य का कथानक बंगला के ‘कृतवास रामायण से लिया गया है, यही मूल श्रोत है। निराला कृत ‘तुलसीदास’ 101 छंदों में रचित एक खंडकाव्य है, इस रचना में निराला ने तुलसीदास के माध्यम से भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा की है। रामचंद्र शुक्ल ने निराला कृत ‘तुलसीदास’ को ‘अंतर्मुख प्रबंध काव्य’ माना है। निराला के प्रिय कवि तुलसीदास जी ही हैं।
निराला ने हास्य और व्यंग्य की रचनाएँ भी प्रस्तुत की है। इन रचनाओं में “कुकुरमुत्ता’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है, यह व्यंग प्रधान कविता है। इस रचना में उन्होंने प्रतीक रूप से पूँजीवादी और श्रमिक वर्ग के जीवन की विषमता का चित्रण किया है। पूँजीवादी वर्ग का प्रतीक गुलाब और श्रमिक वर्ग का प्रतीक कुकुरमुत्ता है।
1936 ई. में प्रकाशित ‘गीतिका’ काव्य संग्रह निराला के श्रृंगारिक गीतों का संग्रह है। निराला जी ने ‘दिल्ली’ शीर्षक से कविता लिखी है।
निराला के काव्य संसार में प्रथम व अंतिम तथ्य
निराला के काव्य संसार में प्रथम व अंतिम तथ्य को नीचे दिया गया है –
प्रथम काव्य संग्रह | अनामिका (1923 ई.) |
अंतिम काव्य संग्रह | सांध्यकाकली (1969 ई.) |
प्रथम कविता | जूही की कली (1916 ई.) |
अंतिम कविता | पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है |
निराला की प्रथम कविता ‘जूही की कली’ को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तिरस्कारपूर्वक लौटा दिया था।
निराला की काव्य रचना का प्रौढ़ काल 1935-1938 ई. के बीच माना जाता है। निराला कविता को ‘कल्पना के कानन की रानी’ कहा है। निराला की भाषा संस्कृतनिष्ठ समास बहुल किंतु गेयता से युक्त भाषा है।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की रचनाएँ
- छायावादी रचनाएं: अनामिका (1923), परिमल (1930), गीतिका (1936), तुलसीदास (1938)
- अन्य रचनाएं: कुकुरमुत्ता (1942), अणिमा (1943), बेला (1946), नए पत्ते (1946), अर्चना 1950, आराधना (1953), गीत गुंज (1954), सांध्यकाकली (1969)
- प्रमुख कविताएँ: सरोजस्मृति (1935), राम की शक्ति पूजा (1936), सांध्यसुंदरी, अपरा, अधिवास, पंचवटी प्रसंग, भिक्षुक, बादलराग, विधवा, शेफालिका, जागो फिर एक बार, स्नेह निर्झर बह गया है, महाराज शिवाजी के पत्र, यमुना के प्रति, ‘वर दे वीणा वादिनी, वर दे’, महँगू महँगा रहा, रेखा, प्रेयसी, गर्म पकौड़ी, प्रेम संगीत, रानी और कानी, खजोहरा, मास्को डायलाग्स, स्फटिक शिला, विप्लवी बादल, बन-बेला आदि।
- अनुवाद: निराला ने स्वामी विवेकानंद की कविता ‘सखार प्रति’ को 1926 ई. में ‘सखा के प्रति’ शीर्षक से अनुवाद किया।
- निराला कृत ‘अनामिका’ में संकलित महत्वपूर्ण कविताएँ: सरोज स्मृति (1935 ई.), सम्राट एडवर्ड के प्रति, प्रेयसी, राम की शक्तिपूजा (1936 ई.), रेखा, तोड़ती पत्थर, सच है (1935 ई.)
- अनामिका नाम से निराला के दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए- पहला 1923 ई. में और दूसरा 1938 ई. में।
- निराला कृत ‘परिमल’ में संकलित महत्वपूर्ण कविताएँ: अधिवास, जुही की कली, बादल राग, विधवा, भिक्षुक, संध्या सुन्दरी, पंचवटी प्रसंग
सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय (1900-1977)
सुमित्रानंदन पंत का जन्म कौशानी, अल्मोड़ा (1900 ई.) में हुआ था और मृत्यु 1977 ई. इलाहाबाद में। सुमित्रानंदन पंत के पिता का नाम गंगादत्त पंत था। पंत जी का बचपन का नाम ‘गुसाई दत्त’ था।इनका प्रथम कविता संग्रह ‘गिरजे का घंटा’ है जो 1916 ई. में प्रकाशित हुआ था। पंत जी को ‘संवेदनशील इन्द्रिय बोध का कवि’ कहा जाता है। सुमित्रानंदन पंत मूल रूप में अरविन्द दर्शन से प्रभावित थे। छायावादी कवियों में तत्काल स्वीकार्य और लोकप्रिय होने वाले कवि थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छायावादी कवियों में पंत जी को सर्वाधिक महत्व दिया है।
सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते हैं। पंत जी कोमल कल्पना के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। पंत जी ने अपने जीवन के 1945-1959 काल को ‘नव मानवता का स्वप्न काल’ कहा है। छायावादी कवियों में युगबोध के अनुसार अपनी काव्यभूमि का विस्तार करते रहना पंत के काव्य चेतना की विशेषता रही है। नंद दुलारे वाजपेयी के अनुसार ‘नवीन हिंदी कविता में सबसे श्रेष्ठ सृष्टि-प्रतिभा लेकर सुमित्रानंदन पंत का विकास हुआ था। हिंदी के क्षेत्र में पंत की कल्पना की शक्ति अजेय, उनका नवनवोन्मेष अप्रितम है।’
सुमित्रानंदन पंत की प्रथम छायावादी रचना ‘उच्छ्वास’ है तथा अन्तिम छायावादी रचना ‘गुंजन’ है। पंत ने ‘लोकायतन’ नामक महाकाव्य महात्मा गाँधी के जीवन पर लिखा है। पंत जी की महत्वपूर्ण कविताओं का संकलन ‘चिदम्बरा’ शीर्षक से प्रकाशित है। इस पर इन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। पंत जी को ‘कला और बूढ़ा चाँद’ संग्रह पर 1961 में ‘अकादमी पुरस्कार’ प्रदान किया गया है और ‘लोकायतन’ काव्य संग्रह पर ‘सोवियत लैंड पुरस्कार’ मिला है।
सुमित्रानंदन कृत ‘पल्लव’ की भूमिका को छायावाद का घोषणा पत्र (मेनोफेस्टो) माना जाता है। पंत जी ने ‘पल्लव’ को ‘कल्पना का विह्वल बाल’ कहा है। इसकी भूमिका में भाषा, अलंकार, छन्द, शब्द चयन पर विचार व्यक्त किए गए हैं। इस कृति में पंत जी ने ‘लाक्षणिक साहस’ दिखाया है।
पन्त की ‘परिवर्तन’ कविता अत्यन्त मार्मिक एवं उच्चकोटि की दार्शनिक कविता है। ‘मौन निमन्त्रण’ कविता में रहस्यवादी प्रवृत्ति है। उन्होंने प्रकृति का चित्रण आलम्बन रूप में किया है। मूर्त के लिए अमूर्त उपमान देने की प्रवृत्ति पंत के काव्य में देखी जा सकती है।
सुमित्रानंदन पंत जी की रचनाएँ
- पंत और बच्चन की सम्मिलित रचनाओं का संग्रह ‘खादी के फूल’ है।
- छायावादी रचनाएं: उच्छवास (1920), ग्रन्थि (1920), वीणा (1927), पल्लव (1928), गुंजन (1932)
- प्रगतिवादी रचनाएं: युगान्त (1936), युगवाणी (1939), ग्राम्या (1940)
- अन्तश्चेतनावादी रचनाएं: स्वर्ण किरण (1947), स्वर्ण धूलि (1947), वाणी, युग पथ (1949)
- नवमानवतावादी रचनाएं: उत्तरा (1949), कला और बूढ़ा चांद (1959), अतिमा (1955), लोकायतन (1964, महाकाव्य), चिदम्बरा
- काव्य नाटक: रजत शिखर, शिल्पी, सौवर्ण, अतिमा, मधुवन, युग पुरुष, छाया, मानसी, ज्योत्स्ना
- प्रमुख कविताएँ: नौका विहार, परिवर्तन, भावी पत्नी के प्रति, पर्वत-प्रदेश में पावस, बादल, छाया, एकतारा, मौन निमंत्रण, सांध्य तारा, भावी पत्नी के प्रति, बापू, बापू के प्रति, मार्क्स के प्रति, साम्राज्यवाद, ताज, प्रथम रश्मि, ज्योति भारत आदि।
- अनुवाद: मधुज्वाल (1938)
महादेवी वर्मा का जीवन परिचय (1907-1988)
महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद (1907 ई.) में हुआ था और मृत्यु इलाहाबाद (1987 ई.) में हुआ था। इनके पिता का नाम गोविन्द प्रसाद था। महादेवी वर्मा का दार्शनिक आधार सर्वात्मवाद (बौद्ध दर्शन) है। महादेवी वर्मा को ‘हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणा पाणि’ भी कहा जाता है।
छायावादी कवियों में महादेवी वर्मा शुद्ध रहस्यवादी हैं। रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है की, ‘छायावादी कहे जाने वाले कवियों में महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं।’ दीपक और बादल महादेवी वर्मा के प्रिय प्रतीक है। महादेवी जी के गीतों में अज्ञात सत्ता के प्रति प्रणय निवेदन है, इसलिए उन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है। उनके काव्य में विरह की प्रधानता है जो लौकिक न होकर अलौकिक विरह है।
महादेवी जी ने अपनी वेदना को ‘मधुमय पीड़ा’ कहा है। महादेवी के अनुसार ‘दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जिसमें सारे संसार को एक सूत्र में बांध रखने की क्षमता है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने महादेवी के संदर्भ में लिखा है कि, ‘इस वेदना को लेकर उन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।’
महादेवी वर्मा कृत ‘यामा’ में उनके नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्यगीत (4 कविता संग्रह) के महत्वपर्ण गीतों का संकलन किया गया है। इनका काव्य मूलतः ‘गीत काव्य’ है। महादेवी वर्मा के अनुसार ‘सुख-दुख की भावावेशमयी अवस्था विशेष का गिने-चुने शब्दों में स्वर-साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है।’
महादेवी वर्मा को ‘यामा’ पर ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ और ‘नीरजा’ पर ‘सेक्सरिया पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है। महादेवी वर्मा कृत ‘सप्तपर्णा’ में ऋग्वेद के मंत्रों का हिन्दी काव्यानुवाद संकलित है। महादेवी के प्रथम काव्य-संकलन ‘नीहार’ की भूमिका अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने सन् 1930 ई० में लिखी थी।
महादेवी वर्मा की ब्रजभाषा और आरम्भिक खड़ी बोली की कविताओं का संकलन सन् 1984 ई० में ‘प्रथम आयाम’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। महादेवी वर्मा ने ‘हिमालय’ संकलन का संपादन किया जिसमें हिमालय से संबद्ध पुराने और नये कवियों की चुनी हुई रचनाओं को संग्रहीत किया है। महादेवी जी हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए ‘साहित्यकार संसद’ की स्थापना किया था।
महादेवी वर्मा जी की रचनाएँ
- काव्य संग्रह: नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1935), सांध्यगीत (1936), यामा (1940), दीपशिखा (1942), सप्तपर्णा (1960)
- प्रमुख कविताएँ: जाग बेसुध जाग, जाग तुझको दूर जाना, पंथ होने दो अपरचित, हे धरा के अमर सुत! तुझको अशेष प्रणाम!
छायावादी काव्य धारा के कवि और उनकी रचनाओं की सूची
क्र. सं. | छायावाद के कवि (रचनाकार) | कालावधि (ई.) | छायावाद की रचनाएँ |
---|---|---|---|
1. | जयशंकर प्रसाद | 1889-1936 | उर्वशी, वनमिलन, प्रेमराज्य, अयोध्या का उद्धार, शोकोच्छवास, बभ्रुवाहन, कानन कुसुम, प्रेम पथिक, करुणालय, महाराणा का महत्व, झरना, आँसू, लहर, कामायनी (झरना, आँसू, लहर, कामायनी छायावादी कविता है)। |
2. | सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ | 1897-1962 | अनामिका, परिमल, गीतिका, तुलसीदास, सरोज स्मृति (कविता), राम की शाक्ति पूजा (कविता) |
3. | सुमित्रानंदन पंत | 1900-1977 | उच्छ्वास, ग्रन्थि, वीणा, पल्लव, गुंजन (छायावादयुगीन); युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, रजतशिखर, उत्तरा, वाणी, पतझर, स्वर्ण काव्य, लोकायतन |
4. | महादेवी वर्मा | 1907-1988 | नीहार, रश्मि, नीरजा व सांध्य गीत (सभी का संकलन ‘यामा’ नाम से) |
5. | उदयशंकर भट्ट | 1898-1966 | राका, मानसी, विसर्जन, युगदीप, अमृत और विष, यथार्थ और कल्पना, तक्षशिला, विश्वमित्र, मत्स्यगंधा, विसर्जन, अमृत और विष |
6. | मोहनलाल महतो वियोगी | 1899-1990 | निर्माल्या (1926), एक तारा, कल्पना (1935) |
7. | लक्ष्मीनारायण मिश्र | 1903 | अन्तर्जगत् |
8. | डॉ. रामकुमार वर्मा | 1905 -1990 | रूपराशि (1931), निशीथ, चित्ररेखा (1935), आकाशगंगा, अंजलि, चंद्रकिरण, एकलव्य, वीर हमीर, चितौड़ की चिंता |
9. | उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ | 1910 -1989 | प्रात: दीप, ऊर्मियां, बरगद की बेटी, चांदनी रात और अजगर, दीप जलेगा |
6. | जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ | अनुभूति, अन्तर्ध्वनि | |
10. | गोपाल सिंह नेपाली | 1913-1963 | पंछी, रागिनी, उमंग (1934) |
11. | केदारनाथ मिश्र | 1907 -1984 | चिर स्पर्श, सेतुबंध |
12. | आरसी प्रसाद सिंह | 1911 | कलापी (1938), संचयिता (1942), जीवन और यौवन (1944), नई दिशा (1944), पांचजन्य (1945), प्रेमगीत (1954) |
13. | ठाकुर गुरुभक्त सिंह | नूरजहाँ (प्रबंध काव्य), सरस सुमन, कुसुमकुंज, वंशीध्वनि, वनश्री | |
14. | पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश’ | 1915 -1974 | दूब के आँसू, तू युवक है, धरती पर उतरो, एक युग बीत गया |
छायावाद युग में प्रयोग होने वाले विविध काव्य रूप
- मुक्तक काव्य – सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य।
- गीति काव्य – ‘करुणालय (प्रसाद), ‘पंचवटी प्रसंग‘ (निराला), ‘शिल्पी‘ व ‘सौवर्ण रजत शिखर‘ (पंत)
- प्रबंध काव्य -‘कामायनी‘ व ‘प्रेम पथिक‘ (प्रसाद), ‘ग्रंथि’, ‘लोकायतन‘ व ‘सत्यकाम‘ (पंत), ‘तुलसीदास’ (निराला)
- लंबी कविता – ‘प्रलय की छाया‘ व ‘शेर सिंह का शस्त्र समर्पण‘ (प्रसाद); ‘सरोज स्मृति‘ व ‘राम की शक्ति पूजा’ (निराला); ‘परिवर्तन‘ (पंत)
मुक्तक काव्य
मुक्तक, काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीर एवं रहीम के दोहे; मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई।
मुक्तक शब्द का अर्थ है ‘अपने आप में सम्पूर्ण’ अथवा ‘अन्य निरपेक्ष वस्तु’ होना. अत: मुक्तक काव्य की वह विधा है जिसमें कथा का कोई पूर्वापर संबंध नहीं होता। प्रत्येक छंद अपने आप में पूर्णत: स्वतंत्र और सम्पूर्ण अर्थ देने वाला होता है।
क्र. सं. | मुक्तक काव्य (रचना) | कवि (रचनाकार) |
---|---|---|
1. | अमरुकशतक | अमरुक |
2. | आनन्दलहरी | शंकराचार्य |
3. | आर्यासप्तशती | गोवर्धनाचार्य |
4. | ऋतुसंहार | कालिदास |
5. | कलाविलास | क्षेमेन्द्र |
6. | गण्डीस्तोत्रगाथा | अश्वघोष |
7. | गांगास्तव | जयदेव |
8. | गाथासप्तशती | हाल |
9. | गीतगोविन्द | जयदेव |
10. | घटकर्परकाव्य | घटकर्पर या धावक |
11. | चण्डीशतक | बाण |
12. | चतुःस्तव | नागार्जुन |
13. | चन्द्रदूत | जम्बूकवि |
14. | चन्द्रदूत | विमलकीर्ति |
15. | चारुचर्या | क्षेमेन्द्र |
16. | चौरपंचाशिका | बिल्हण |
17. | जैनदूत | मेरुतुंग |
18. | देवीशतक | आनन्दवर्द्धन |
19. | देशोपदेश | क्षेमेन्द्र |
20. | नर्ममाला | क्षेमेन्द्र |
21. | नीतिमंजरी | द्याद्विवेद |
22. | नेमिदूत | विक्रमकवि |
23. | पञ्चस्तव | श्री वत्सांक |
24. | पवनदूत | धोयी |
25. | पार्श्वाभ्युदय काव्य | जिनसेन |
26. | बल्लालशतक | बल्लाल |
27. | भल्लटशतक | भल्लट |
28. | भाव विलास | रुद्र कवि |
29. | भिक्षाटन काव्य | शिवदास |
30. | मुकुन्दमाल | कुलशेखर |
31. | मुग्धोपदेश | जल्हण |
32. | मेघदूत | कालिदास |
33. | रामबाणस्तव | रामभद्र दीक्षित |
34. | रामशतक | सोमेश्वर |
35. | वक्रोक्तिपंचाशिका | रत्नाकर |
36. | वरदराजस्तव | अप्पयदीक्षित |
37. | वैकुण्ठगद्य | रामानुज आचार्य |
38. | शतकत्रय | भर्तृहरि |
39. | शरणागतिपद्य | रामानुज आचार्य |
40. | शान्तिशतक | शिल्हण |
41. | शिवताण्डवस्तोत्र | रावण |
42. | शिवमहिम्नःस्तव | पुष्पदत्त |
43. | शीलदूत | चरित्रसुंदरगणि |
44. | शुकदूत | गोस्वामी |
45. | श्रीरंगगद्य | रामानुज आचार्य |
46. | समयमातृका | क्षेमेन्द्र |
47. | सुभाषितरत्नभण्डागार | शिवदत्त |
48. | सूर्यशतक | मयूर |
49. | सौन्दर्यलहरी | शंकराचार्य |
50. | स्तोत्रावलि | उत्पलदेव |
51. | हंसदूत | वामनभट्टबाण |
52. | लाल शतक (दोहे) | अशर्फी लाल मिश्र |
2. राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्य-धारा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं
राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्य-धारा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं नीचे दी गयी हैं –
माखनलाल चतुर्वेदी
माखनलाल चतुर्वेदी का का जन्म गाँव बाबई, होशंगाबाद (म. प्र.) में हुआ था। चतुर्वेदी जी का उपनाम ‘एक भारती की आत्मा’ है। इनकी प्रथम रचना ‘रसिक मित्र’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इन्होंने प्रभा, प्रताप तथा कर्मवीर जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया है। चतुर्वेदी जी की प्रसिद्ध कविता ‘कैदी और कोकिला’, ‘पुष्प की अभिलाषा’ आदि है। इनकी रचनाओं का प्रधान स्वर राष्ट्रप्रेम और आत्मोत्सर्ग है। माखनलाल चतुर्वेदी को ‘हिम तरंगिनी’ कृति पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
माखनलाल चतुर्वेदी जी की रचनाएँ
हिमकिरीटिनी (1943), हिमतरंगिनी (1949), माता (1951), समर्पण (1956), वेणु लो गूंजे धरा, युगचरण, मरण ज्वार, बीजुरीकाजर आँच रही, धूम वलय, पुष्प की अभिलाषा (कविता)।
सियाराम शरण गुप्त
सियाराम शरण गुप्त जी मूलतः गाँधीवादी कवि थे। इनका जन्म चिरगाँव, झाँसी में हुआ था। ये मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई (अनुज) थे। गुप्त जी की प्रथम कविता ‘इन्दु’ में सन् 1910 ई. में प्रकाशित हुई थी। इनकी रचनाओं में राष्ट्रप्रेम, अहिंसा, सत्य एवं करुणा जैसे मूल्य प्रमुखता से व्याप्त हैं। इनकी ‘एक फूल की चाह’ कविता काफी प्रसिद्ध है।
सियाराम शरण गुप्त जी की रचनाएँ
मौर्य विजय (1914), अनाथ (1917), दूर्वादल (1924), विषाद (1925), आर्द्रा (1927), आत्मोत्सर्ग (1931), पाथेय (1933), मृण्मयी (1936), बापू (1937), उन्मुक्त (1940), दैनिकी (1942), नकुल (1946), नोआखाली, जयहिंद।
बालकृष्ण शर्मा
बालकृष्ण शर्मा का का जन्म भयाना गाँव, ग्वालियर में हुआ था। ये ‘नवीन’ उपनाम से कविता लिखते थे। इनका प्रथम काव्य संग्रह ‘कुंकुम’ है। नवीन जी ने उर्मिला खण्डकाव्य की रचना ब्रज भाषा में किया है। नवीन जी ने गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान पर ‘प्राणार्पण’ नामक खंड काव्य की रचना की।
बालकृष्ण शर्मा जी की रचनाएँ
कुंकुम (1939), रश्मि रेखा (1951), अपलक (1951), क्वासि (1952), उर्मिला (खण्डकाव्य, 1957), हम विषपायीजनम के (1964), विनोबा स्तवन, विस्मृता, प्राणार्पण।
सुभद्रा कुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। झाँसी की रानी उनकी प्रसिद्ध कविता है। वे राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं। इनको स्वाधीनता संग्राम में अनेको बार जेल यातनाएं सहनी पड़ी। इन्होने अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया है। सुभद्रा कुमारी चौहान ने कुल 46 कहानियां लिखी हैं। ये अपनी व्यापक कथा दृष्टि से लोकप्रिय कथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में सुप्रतिष्ठित हैं।
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म प्रयाग जिले के निहालपुर गाँव में हुआ था। इनकी प्रसिद्ध कविताएँ निम्न हैं- झाँसी की रानी, झण्डे की इज्जत में, स्वदेश के प्रति, जालियाँ वाला बाग में बसंत, राखी की चुनौती आदि हैं। इनकी कविताओं में भारत के सांस्कृतिक गौरव एवं राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। सुभद्रा जी ने पारिवारिक संबंधों को लेकर भी काफी कविताएँ लिखी हैं। राष्ट्र प्रेम वाली कविताओं में विशेष रूप से असहयोग आंदोलन के वीरों का चित्रण हुआ है। 15 फरवरी 1948 को एक कार दुर्घटना में इनका आकस्मिक निधन हो गया था।
सुभद्रा कुमारी चौहान जी की रचनाएँ
पहला कहानी संग्रह – ‘बिखरे मोती’ सुभद्रा कुमारी चौहान जी का पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंछलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम्ब के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल मिलाकर 15 कहानियां हैं।
दूसरा कहानी संग्रह – दूसरा कहानी संग्रह 1934 में प्रकाशित हुआ। इस कथा संग्रह में उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, व वेश्या की लड़की कुल मिलाकर 9 कहानियां हैं।
तीसरा कहानी संग्रह –‘सीधे साधे चित्र’ सुभद्रा कुमारी चौहान जी का तीसरा व अंतिम कहानी संग्रह है। इस कथा संग्रह में सीधे-साधे चित्र, रूपा, कैलाशी नानी, बिआहा, कल्याणी, दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी, मंगला, हींगवाला, राही, तांगे वाला, एवं गुलाबसिंह कुल मिलाकर 14 कहानियां हैं।
कहानी संग्रह
- बिखरे मोती (1932) – भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंछलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम्ब के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, ग्रामीणा।
- उन्मादिनी (1934) – उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्त, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, वेश्या की लड़की।
- सीधे-साधे चित्र (1947) – सीधे-साधे चित्र, रूपा, कैलाशी नानी, बिआहा, कल्याणी, दो साथी, प्रोफेसर मित्रा, दुराचारी, मंगला, हींगवाला, राही, तांगे वाला, गुलाबसिंह।
कविता संग्रह
- मुकुल
- त्रिधारा
- प्रसिद्ध कविताएं – स्वदेश के प्रति, झंडे की इज्जत में, झांसी की रानी, सभा का खेल, बोल उठी बिटिया मेरी, वीरों का कैसा हो बसंत, जलियांवाला बाग में बसंत इत्यादि।
बाल-साहित्य
- झाँसी की रानी
- कदम्ब का पेड़
- सभा का खेल
सुभद्रा कुमारी चौहान जी की 46 कहानियां
1. बिखरे मोती, 2. अंगूठी की खोज, 3. अनुरोध, 4. अभियुक्ता, 5. अमराई, 6. असमंजस, 7. आहुति, 8. उन्मादिनी, 9. एकादशी, 10. कदम्ब के फूल, 11. कल्याणी, 12. कान के बुंदे, 13. किस्मत, 14. कैलाशी नानी, 15. ग्रामीणा, 16. गुलाब सिंह, 17. गौरी, 18. चढ़ा-दिमाग, 19. जम्बक की डिबिया, 20. ताँगेवाला, 21. तीन बच्चे, 22. थाती, 23. दृष्टिकोण, 24. दुराचारी, 25. देवदासी, 26. दुनिया, 27. दो सखियां, 28. नारी-हृदय, परिवर्तन, 29. प्रोफेसर मित्रा, 30. पवित्र, 31. ईर्ष्या, 32. पापी पेट, 33. बड़े घर की बात, 34. बिआहा, 35. भग्नावशेष, 36. मछुए की बेटी, 37. मंगला, 38. मंझली रानी, 39. राही, 40. रुपा, 41. वेश्या की लड़की, 42. सुभागी, 43. सोने की कंठी, 44. हींगवाला, 45. होली, 46. एक्सीडेंट।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने स्वयं को ‘छायावाद की ठीक पीठ पर’ आने वाला माना है। दिनकर की पहली रचना ‘प्रणभंग’ है। इनकी कविताओं में ओज, औदात्य एवं वीर रस की प्रधानता है। इनके काव्य में प्रगतिवादी भावनाएं भी दिखाई पड़ती हैं। दिनकर को उर्वसी गीतनाट्य पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ है, यह श्रृंगार प्रधान काव्य है। इसमें कामाध्यात्म का निरूपण पुरुरवा एवं उर्वसी के माध्यम से किया गया है।
दिनकर जी ने ‘कुरुक्षेत्र’ रचना में ‘युद्ध और शांति’ की समस्या पर विचार किया है। वहीं ‘रश्मिरथी’ कर्ण के जीवन पर आधारित महाकाव्य है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की रचनाएँ
रेणुका (1935), हुंकार (1940), रसवन्ती (1940), द्वंद्वगीत (1940), कुरुक्षेत्र (1946), सामधेनी (1947), उर्वशी (गीतिनाट्य, 1961), रश्मिरथी (महाकाव्य, 1952), परशुराम की प्रतीक्षा (1963), इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, दिल्ली, नीम के पत्ते, नील कुसुम, हारे के हरिराम, प्रणभंग, हुंकार, उर्वशी, नील कुसुम, कोयला और कवित्व, मृत्ति तिलक।
- अनुदित काव्य – आत्मा की आँखें (डी. एच. लारेंस की 70 कविताओं का अनुवाद), सीपी और शंख।
- गद्य रचनाएँ – संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज, विवाह की समस्याएं, दिनकर की डायरी।
सोहनलाल द्विवेदी
सोहन लाल द्विवेदी हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। सोहन लाल द्विवेदी जी को राष्ट्रकवि की उपाधि से अलंकृत किया गया है। इनकी रचनाएँ ऊर्जा और चेतना से भरपूर हैं। द्विवेदी जी ने बालोपयोगी रचनाएँ भी लिखीं हैं। 1969 में भारत सरकार ने सोहन लाल द्विवेदी जी को पद्मश्री उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया था।
इनका जन्म 22 फरवरी 1906 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले की बिन्दकी तहसील के ग्राम सिजौली नामक स्थान पर हुआ था। सोहनलाल द्विवेदी हिंदी काव्य-जगत की अमूल्य निधि थे। उन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया तथा संस्कृत का भी अध्ययन किया। राष्ट्रीयता से संबन्धित कविताएँ लिखने वालो में इनका स्थान मूर्धन्य है। महात्मा गांधी पर इन्होंने अनेकों भाव पूर्ण रचनाएँ लिखी है, जो हिन्दी जगत में अत्यन्त लोकप्रिय हुई हैं।
सोहनलाल द्विवेदी जी की रचनाएँ
भैरवी, वासवदत्ता, कुणाल, चित्रा, प्रभाती, युगधारा, पूजा-गीत, युगारम्भ, वासंती, बांसुरी, मोदक, बालभारती, पूजागीत सेवाग्राम, कुणाल, चेतना, दूधबतासा।
श्यामनारायण पाण्डेय
श्याम नारायण पाण्डेय का जन्म श्रावण कृष्ण पञ्चमी सम्वत् 1964, (1907 ई.) में ग्राम डुमराँव, जिला मऊ, उत्तर प्रदेश में हुआ। अपनी आरम्भिक शिक्षा के बाद ये संस्कृत अध्ययन के लिए काशी चले गये। यहीं रहकर काशी विद्यापीठ से उन्होंने हिन्दी में साहित्याचार्य किया। डुमराँव में अपने घर पर रहते हुए ईसवी सन् 1991 ई. में 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
श्यामनारायण पाण्डेय की ‘हल्दीघाटी’ महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित प्रबंध काव्य है और ‘जौहर’ पद्मिनी के जौहर की कथा पर आधारित काव्य है। श्यामनारायण पाण्डेय मूलतः राष्ट्रीय चेतना और वीर रस के कवि हैं।
श्यामनारायण पाण्डेय जी की रचनाएँ
हल्दीघाटी, जौहर, तुमुल, रूपान्तर, आरती, जय-पराजय, गोरा-वध, जय हनुमान, राणा ! तू इसकी रक्षा कर, शिवाजी (महाकाव्य), त्रेता के दो वीर।
राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्य-धारा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाओं की सूची
कवि | रचनाएँ |
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माखनलाल चतुर्वेदी (1889-1968) | हिमकिरीटिनी (1943), हिमतरंगिनी (1949), माता (1951), समर्पण (1956), वेणु लो गूंजे धरा, युगचरण, मरण ज्वार, बीजुरीकाजर आँच रही, धूम वलय, पुष्प की अभिलाषा (कविता)। |
सियारामशरण गुप्त (1895-1963) | मौर्य विजय (1914), अनाथ (1917), दूर्वादल (1924), विषाद (1925), आर्द्रा (1927), आत्मोत्सर्ग (1931), पाथेय (1933), मृण्मयी (1936), बापू (1937), उन्मुक्त (1940), दैनिकी (1942), नकुल (1946), नोआखाली, जयहिंद। |
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (1897-1960) | कुंकुम (1939), रश्मि रेखा (1951), अपलक (1951), क्वासि (1952), उर्मिला (खण्डकाव्य, 1957), हम विषपायीजनम के (1964), विनोबा स्तवन, विस्मृता, प्राणार्पण। |
सुभद्राकुमारी चौहान (1905-1948) | त्रिधारा, नक्षत्र, मुकुल (1931), बिखरे मोती (1932), उन्मादिनी (1934), सीधे-साधे चित्र (1947), सभा का खेल, कदम्ब का पेड़, झाँसी की रानी। |
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | रेणुका (1935), हुंकार (1940), रसवन्ती (1940), द्वंद्वगीत (1940), कुरुक्षेत्र (1946), सामधेनी (1947), उर्वशी (गीतिनाट्य, 1961), रश्मिरथी (महाकाव्य, 1952), परशुराम की प्रतीक्षा (1963), इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, दिल्ली, नीम के पत्ते, नील कुसुम, हारे के हरिराम, प्रणभंग, हुंकार, उर्वशी, नील कुसुम, कोयला और कवित्व, मृत्ति तिलक। |
अनुदित काव्य | आत्मा की आँखें (डी. एच. लारेंस की 70 कविताओं का अनुवाद), सीपी और शंख। |
गद्य रचनाएँ | संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज, विवाह की समस्याएं, दिनकर की डायरी। |
सोहनलाल द्विवेदी (1905) | भैरवी, वासवदत्ता, कुणाल, चित्रा, प्रभाती, युगधारा, पूजा-गीत, युगारम्भ, वासंती, बांसुरी, मोदक, बालभारती। |
श्यामनारायण पांडेय | हल्दीघाटी, जौहर, त्रेता के दो वीर। |
जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द (1907-1986) | जीवन संगीत (1940), नवयुवक के गान, बलिपथ के गीत, भूमि की अनुभूति, पंखुरियां। |
महेशचंद्र प्रसाद | कांग्रेस-शतक (1936)। |
छायावादी युग में ब्रजभाषा के कवि और उनकी काव्य रचनाएँ
छायावादी युग में कवियों का एक वर्ग ऐसा भी था, जो सूरदास, तुलसीदास, सेनापति, बिहारी और घनानंद जैसी समर्थ प्रतिभा संपन्न काव्य-धारा को जीवित रखने के लिए ब्रजभाषा में काव्य रचना कर रहे थे।
“भारतेंदु युग” में जहाँ ब्रजभाषा का काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया, वहीं छायावाद आते-आते ब्रजभाषा में गौण रूप से काव्य रचना लिखी जाती रहीं। इन कवियों का मत था कि ब्रजभाषा में काव्य की लंबी परम्परा ने उसे काव्य के अनुकूल बना दिया है।
छायावादी युग में ब्रजभाषा में काव्य रचना करने वाले कवियों में रामनाथ जोतिसी, रामचंद्र शुक्ल, राय कृष्णदास, जगदंबा प्रसाद मिश्र “हितैषी”, दुलारे लाल भार्गव, वियोगी हरि, बालकृष्ण शर्मा “नवीन”, अनूप शर्मा, रामेश्वर “करुण”, किशोरीदास वाजपेयी, उमाशंकर वाजपेयी “उमेश” प्रमुख हैं।
रामनाथ जोतिसी की रचनाओं में “रामचंद्रोदय” मुख्य है। इसमें रामकथा को युग के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है। इस काव्य पर केशव की “रामचंद्रिका” का प्रभाव लक्षित होता है। विभिन्न छंदों का सफल प्रयोग हुआ है।
रामचंद्र शुक्ल, जो मूलत: आलोचक थे, ने “एडविन आर्नल्ड” के आख्यान काव्य “लाइट ऑफ़ एशिया” का “बुद्धचरित” शीर्षक से भावानुवाद किया। शुक्ल जी की भाषा सरल और व्यावहारिक है।
राय कृष्णदास कृत “ब्रजरस”, जगदम्बा प्रसाद मिश्र “हितैषी” द्वारा रचित “कवित्त-सवैये” और दुलारेलाल भार्गव की “दुलारे-दोहावली” इस काल की प्रमुख व उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।
वियोगी हरि की “वीर सतसई” में राष्ट्रीय भावनाओं की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है।
बालकृष्ण शर्मा “नवीन” ने अनेक स्फुट रचनाएँ लिखीं। लेकिन इनका ब्रजभाषा का वैशिष्टय “ऊर्म्मिला” महाकाव्य में लक्षित होता है, जहाँ इन्होंने उर्मिला का उज्ज्वल चरित्र-चित्रण किया है।
अनूप शर्मा के चम्पू काव्य “फेरि-मिलिबो” (1938) में कुरुक्षेत्र में राधा और कृष्ण के पुनर्मिलन का मार्मिक वर्णन है।
रामेश्वर “करुण” की “करुण-सतसई” (1930) में करुणा, अनुभूति की तीव्रता और समस्यामूलक अनेक व्यंग्यों को देखा जा सकता है।
किशोरी दास वाजपेयी की “तरंगिणी” में रचना की दृष्टि से प्राचीनता और नवीनता का सुंदर समन्वय देखा जा सकता है।
उमाशंकर वाजपेयी “उमेश” की रचनाओं में भी भाषा और संवेदना की दृष्टि से नवीनता दिखाई पड़ती है।
“इन रचनाओं में नवीनता और छायावादी काव्य की सूक्ष्मता प्रकट हुई है, यदि इस भाषा का काव्य परिमाण में अधिक होता तो यह काल ब्रजभाषा का छायावाद साबित होता।”
कवि | रचनाएँ |
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रामनाथ ज्योतिषी (1874) | रामचन्द्रोदय काव्य (1936) |
रामचंद्र शुक्ल (1884-1941) | बुद्धचरित (1922) |
रायकृष्णदास (1892) | ब्रजरज (1936) |
दुलारेलाल भार्गव (1895) | दुलारे दोहावली |
वियोगी हरि (1896-1988) | वीर सतसई (1927), चरखा स्तोत्र |
किशोरीदास वाजपेयी (1898-1981) | तरंगिणी (1936) |
अनूप शर्मा (1899-1965) | फेरि मिलिबौ (1938), चम्पूकाव्य, सिद्धार्थ, वर्द्धमान |
जगदम्बा प्रसाद ‘हितैषी’ | कवित्त-सवैये |
रामेश्वर करुण (1901) | करुण सतसई (1930) |
प्रेम और मस्ती का काव्य (व्यक्तिवादी कवि)
हरिवंश राय बच्चन
हरिवंश राय बच्चन प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन के पिता हैं। इनको हिन्दी साहित्य में ‘हालावाद’ का प्रवर्तक माना जाता है। ‘हाला’ शब्द को हरिवंश राय बच्चन जी ने ‘व्यवस्था विरोध’ के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया है। इनके मधुकाव्य पर उमर खैय्याम का प्रभाव सर्वाधिक पड़ा है। बच्चन जी को हिन्दी का ‘बायरन’ भी कहा जाता है। इनकी रचनाओं में प्रेम एवं मस्ती, वैयक्तिक अनुभूतियों का चित्रण, प्रणयानुभूति की मधुर अभिव्यक्ति, सरल भाषा का प्रयोग परिलक्षित होता है।
रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’
रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ को हिन्दी में मांसलवाद का प्रवर्तक माना जाता है। इनकी कविताओं में शारीरिक प्रेम की प्रधानता है। ‘अंचल’ जी के परवर्ती काव्य में प्रगतिवादी भावना है।
नरेन्द्र शर्मा
नरेन्द्र शर्मा की कविताओं में विरह की आकुलता दिखाई देती है। शर्मा जी सहज-सरल कविता के पक्षधर हैं। नरेंद्र शर्मा का सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-संग्रह ‘प्रवासी के गीत’ (1938) है।
इस प्रकार छायावादी युग में और भी व्यक्तिवादी कवि हैं, जिनका विवरण नीचे सारणी में दिया गया है –
कवि | रचनाएँ |
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भगवतीचरण शर्मा (1903-1981) | मधुकण (1932), प्रेम-संगीत (1937), मानव (1940), एक दिन |
हृदयनारायण ‘हृदयेश’ (1905) | स्फुट गीत |
हरिवंशराय बच्चन (1907-2003) | मधुशाला (1935), मधुबाला (1936), मधुकलश (1937), निशानिमंत्रण (1938), एकान्तसंगीत (1939), आकुल अंतर (1943), सतरंगिनी (1945), हलाहल (1946), बंगाल का अकाल (1946), सूत की माला (1948), खादी के फूल (1948), मिलनयामिनी (1950), प्रणय पत्रिका (1955), धारा के इधर-उधर (1957), आरती और अंगारे (1958), बुद्ध और नाच घर (1958), त्रिभंगिमा (1961), चार खेमे चौसठ खूँटे (1962), दो चट्टानें (1965), जाल समेटा, जनगीता (अनुवाद) |
हरिकृष्ण प्रेमी | अग्निगान, वन्दना के बाल, आखों में, अनन्त के पथ पर |
नरेन्द्र शर्मा (1913-1991) | शूल फूल (1934), कर्णफूल (1936), प्रभातफेरी (1938), प्रवासी के गीत (1938), पलाशवन (1939), मिट्टी और फूल (1942), कामिनी (1942), हंसमाला (1946), रक्तचंदन (1949), अग्निशस्य (1951), कदलीवन (1953), उत्तरज्य (1965), द्रौपदी (1946, खण्डकाव्य), सुवर्णा, प्यासा निर्झर, बहुत रात सोये, मनोकामिनी |
रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ (1915-1996) | मधुलिका (1938), अपराजिता (1939), किरणबेला (1941), करील (1942), लाल चूनर (1944), वर्षान्त के बादल (1954), विरामचिह (1957) |
जानकी वल्लभ शास्त्री (1916) | रूप-अरूप (1940), तीर तरंग (1944), शिप्रा (1945), मेघगीत (1950), अवंतिका (1953) |
विद्यावती कोकिल | अंकुरिता, माँ, सुहागिन, पुनर्मिलन, आरती |
सुमित्रा कुमारी सिन्हा | विहाग, आशा पर्व, पंथिनी, बोलों के देवता |
छायावादी युग के हास्य-व्यंग्यकार कवि और उनकी रचनाएँ
कवि | रचनाएँ |
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ईश्वरी प्रसाद शर्मा | चना चबेना (1924) |
हरिशंकर शर्मा | पिंजरापोल, चिड़ियाघर |
कान्तानाथ पाण्डेय ‘चोंच’ | चोंच चालीसा, पानी पांडे, जय महाकवि सांड |
शिवरत्न शुक्ल ‘बलई’ | परिहास प्रमोद (1930) |
चतुर्भुज चतुरेश | हँसी का फव्वारा |
ज्वालाराम नागर ‘विलक्षण’ | छायापथ |
छायावाद से सम्बंधित प्रमुख आलोचनात्मक ग्रंथ
क्र. सं. | आलोचक | आलोचना ग्रंथ |
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1. | शंभुनाथ सिंह | छायावाद युग |
2. | नामवर सिंह | छायावाद |
3. | डॉ. देवराज | छायावाद का पतन |
4. | रामचंद्र शुक्ल | काव्य में रहस्यवाद |
5. | नंददुलारे वाजपेयी | जयशंकर प्रसाद |
6. | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त |
7. | गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ | कामायनी: एक पुनर्विचार |
8. | बच्चन सिंह | क्रांतिकारी कवि निराला |
9. | दूधनाथ सिंह | निराला एक आत्महंता आस्था |
10. | रामविलास शर्मा | निराला की साहित्य साधना (3 खंड) |
11. | शाचीरानी गुर्टू | सुमित्रानंदन पंत: काव्य-कला और जीवन दर्शन |
छायावाद युग की विशेषताएं
छायावाद युग की विशेषताएं निम्नलिखित हैं –
- आत्माभिव्यक्ति अर्थात ‘मैं’ शैली/उत्तम पुरुष शैली।
- आत्म-विस्तार/सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति।
- प्रकृति प्रेम।
- नारी प्रेम एवं उसकी मुक्ति का स्वर।
- अज्ञात व असीम के प्रति जिज्ञासा (रहस्यवाद)।
- सांस्कृतिक चेतना व सामाजिक चेतना/मानवतावाद।
- स्वच्छंद कल्पना का नवोन्मेष।
- विविध काव्य-रूपों का प्रयोग।
- काव्य-भाषा–ललित-लवंगी कोमल कांत पदावली वाली भाषा।
- मुक्त छंद का प्रयोग।
- प्रकृति संबंधी बिम्बों की बहुलता।
- भारतीय अलंकारों के साथ-साथ अंग्रेजी साहित्य के मानवीकरण व विशेषण विपर्यय अलंकारों का विपुल प्रयोग।
छायावाद से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- जयशंकर प्रसाद ने ‘रहस्यवाद’ एवं ‘यथार्थवाद और छायावाद’ शीर्षक से चर्चित लेख भी लिखा है।
- ‘छायावाद की छानबीन’ (1927 ई.) शीर्षक लेख कृष्णदेव प्रसाद गौड़ का है।
- प्रसिद्ध राष्ट्रगान ‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ (1924 ई.) के रचयिता श्यामलाल पार्षद हैं, जिसको काट-छाँट कर संपादित पुरुषोत्तमदास टंडन ने किया था। इसको पहली बार कानपुर कांग्रेस के समय 1925 ई. में ध्वजोत्तोलन पर गाया गया था।
- ‘त्रिधारा’ काव्य-संग्रह में सुभद्राकुमारी चौहान, केशव प्रसाद पाठक, माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाएँ संकलित हैं।
- वियोगी हरि को ‘वीर सतसई’ रचना पर 1928 ई. में ‘मंगला प्रसाद पारितोषित’ मिला था।
- रामचन्द्र शुक्ल ने एडविन अर्नाल्ड के काव्य ‘लाइट ऑफ एशिया’ का ‘बुद्धचरित’ शीर्षक से ब्रजभाषा में अनुवाद किया।
- ‘पाखंड प्रतिषेध’ शुक्ल जी की स्फुट कविताओं का संग्रह है।
- हरिशंकर शर्मा कत ‘पिंजरा पोल’ और ‘चिड़ियाघर’ गद्य-रचना है इसमें कुछ व्यंग्यात्मक कविताएँ संकलित हैं।
इन्हें भी देखें –
- हिंदी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास
- निपात | परिभाषा, प्रकार तथा 50 + उदाहरण
- पद परिचय – परिभाषा, अर्थ, प्रकार और 100 + उदाहरण
- छंद : उत्कृष्टता का अद्भुत संगम- परिभाषा, भेद और 100+ उदाहरण
- भारत की जलवायु | Climate of India
- हिमालयी नदी प्रणाली | अपवाह तंत्र | Himalayan River System
- विश्व एवं भारत के प्रमुख पुरस्कार एवं सम्मान | Awards and Honors
- Photoshop: A graphics editing software
- Java Programming Language: A Beginners Guide
- Wh- Word and Wh- Question
- Article: Definition, Types, and 100+ Examples