त्रिभाषा नीति भारतीय शिक्षा व्यवस्था में भाषाई संतुलन बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का एक प्रयास है। हाल ही में तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच इस नीति को लागू करने को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया है। केंद्र सरकार ने इसे समग्र शिक्षा निधि अनुदान से जोड़ दिया है, जिससे तमिलनाडु सरकार ने इसे राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप बताते हुए विरोध किया है। इस लेख में हम त्रिभाषा नीति के उद्देश्यों, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, संवैधानिक प्रावधानों, समर्थन और विरोध के तर्कों तथा संभावित समाधान पर विस्तृत चर्चा करेंगे।
त्रिभाषा नीति क्या है?
त्रिभाषा नीति भारतीय शिक्षा प्रणाली में छात्रों को भाषाई विविधता से जोड़ने और बहुभाषिकता को प्रोत्साहित करने के लिए बनाई गई थी। इस नीति के अंतर्गत स्कूलों में तीन भाषाओं को पढ़ाया जाता है:
- पहली भाषा: मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, जिससे छात्र अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहते हैं।
- दूसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा या अंग्रेज़ी होती है, जबकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों में यह हिंदी या अंग्रेज़ी होती है।
- तीसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेज़ी या एक अन्य आधुनिक भारतीय भाषा होती है, जबकि गैर-हिंदी राज्यों में यह अंग्रेज़ी या कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा होती है।
त्रिभाषा नीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत एक बहुभाषी देश है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। भाषाई विविधता को बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से भारत में त्रिभाषा नीति लागू की गई थी। यह नीति शिक्षा प्रणाली में भाषाई समावेशन को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी। इसका मूल उद्देश्य नागरिकों को कम से कम तीन भाषाओं में दक्ष बनाना था – एक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, दूसरी हिंदी या संघीय भाषा, और तीसरी अंग्रेज़ी या कोई अन्य विदेशी भाषा।
त्रिभाषा नीति का इतिहास स्वतंत्रता के बाद गठित विभिन्न भाषा आयोगों और शैक्षिक नीतियों से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा, तमिलनाडु जैसे राज्यों में इस नीति के विरोध और संवैधानिक प्रावधानों के कारण भाषा को लेकर कई विवाद उत्पन्न हुए हैं।
राधाकृष्णन आयोग (1948-49)
राधाकृष्णन आयोग ने स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारतीय शिक्षा प्रणाली में भाषाई नीति को लेकर महत्वपूर्ण सिफारिशें दी थीं। आयोग ने यह सुझाव दिया कि नागरिकों को अपनी क्षेत्रीय भाषा, संघीय भाषा (हिंदी) और अंग्रेज़ी का ज्ञान होना चाहिए। इसका उद्देश्य शिक्षा और प्रशासन में भाषाई संतुलन स्थापित करना था।
कोठारी आयोग (1964-66)
शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने के लिए गठित कोठारी आयोग ने त्रिभाषा नीति को लागू करने की सिफारिश की थी। इस नीति के तहत:
- छात्रों को अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा सीखनी होगी।
- हिंदी को संघीय भाषा के रूप में अपनाया जाएगा।
- अंग्रेज़ी या कोई अन्य विदेशी भाषा सीखने का विकल्प दिया जाएगा।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968)
भारत सरकार ने पहली बार 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा नीति को स्कूली शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाया। इसका उद्देश्य छात्रों को बहुभाषी दक्षता प्रदान करना और भाषाई विविधता को बनाए रखना था।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और संशोधन (1992)
इस नीति में त्रिभाषा नीति को बरकरार रखा गया, लेकिन राज्यों को इसे लागू करने में अधिक स्वतंत्रता प्रदान की गई। यह सुनिश्चित किया गया कि छात्र हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा एक अन्य भारतीय भाषा सीखें। हालाँकि, दक्षिण भारतीय राज्यों, विशेष रूप से तमिलनाडु, ने हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने का विरोध किया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) और त्रिभाषा फार्मूला
नई शिक्षा नीति 2020 में त्रिभाषा नीति को अधिक लचीला बनाया गया। इसके तहत:
- हिंदी को अनिवार्य नहीं किया गया।
- छात्रों को अपनी मातृभाषा, हिंदी/अंग्रेज़ी और एक अन्य भारतीय भाषा सीखने का अवसर दिया गया।
- कम से कम दो भाषाएँ भारतीय मूल की होनी चाहिए।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध और दो-भाषा नीति
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का एक लंबा इतिहास रहा है। हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने के प्रयासों का राज्य में लगातार विरोध किया गया।
1937 का हिंदी विरोध आंदोलन
1937 में, मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन मुख्यमंत्री सी. राजगोपालाचारी ने हिंदी को स्कूली शिक्षा में अनिवार्य करने का प्रस्ताव रखा। इसका जस्टिस पार्टी ने कड़ा विरोध किया, जिससे राज्य में बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए। इन विरोध प्रदर्शनों में कई लोगों की गिरफ्तारी हुई, और अंततः सरकार को यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा।
1960 के दशक में हिंदी विरोध आंदोलन
1960 के दशक में जब केंद्र सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की प्रक्रिया शुरू की, तो तमिलनाडु में तीव्र विरोध हुआ। 1965 में यह आंदोलन हिंसक हो गया और इस दौरान आत्मदाह की घटनाएँ भी दर्ज की गईं। इसके परिणामस्वरूप, केंद्र सरकार को हिंदी को अनिवार्य बनाने की योजना को टालना पड़ा।
1968 में तमिलनाडु की दो-भाषा नीति
तमिलनाडु सरकार ने 1968 में अपनी दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेज़ी) को लागू किया और स्कूली शिक्षा में हिंदी को शामिल करने से इनकार कर दिया। यह नीति आज भी तमिलनाडु में लागू है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) और तमिलनाडु का विरोध
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत केंद्र सरकार ने त्रिभाषा फार्मूले को लागू करने का प्रयास किया। हाल ही में, केंद्र सरकार ने घोषणा की कि जब तक तमिलनाडु त्रिभाषा नीति को स्वीकार नहीं करेगा, तब तक समग्र शिक्षा योजना के तहत मिलने वाली 2,150 करोड़ रुपये की धनराशि नहीं दी जाएगी। तमिलनाडु सरकार ने इसे राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप बताते हुए कड़ा विरोध किया।
भारतीय संविधान में भाषा संबंधी प्रावधान
भारतीय संविधान में भाषाओं की विविधता को संरक्षित करने और भाषाई विवादों को हल करने के लिए कई महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं।
अनुच्छेद 343
यह अनुच्छेद हिंदी को भारत की संघीय आधिकारिक भाषा घोषित करता है, लेकिन प्रशासनिक कामकाज के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग जारी रखने की अनुमति देता है।
अनुच्छेद 346
यह अनुच्छेद राज्यों और केंद्र के बीच आधिकारिक संचार भाषा का निर्धारण करता है।
अनुच्छेद 347
यदि किसी राज्य की जनसंख्या का बड़ा भाग किसी विशेष भाषा को आधिकारिक भाषा बनाने की माँग करता है, तो राष्ट्रपति उसे मान्यता दे सकते हैं।
अनुच्छेद 350A
सरकार को प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में प्रदान करने का निर्देश देता है। यह प्रावधान भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
अनुच्छेद 351
यह अनुच्छेद केंद्र सरकार को हिंदी भाषा के विकास के लिए आवश्यक निर्देश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।
त्रिभाषा नीति के समर्थन और विरोध में तर्क
समर्थन में तर्क
- त्रिभाषा नीति देश की भाषाई विविधता के बावजूद एकता बनाए रखने का साधन है।
- यह क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देती है।
- मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने से छात्रों की सीखने की क्षमता में सुधार होता है।
- संवैधानिक रूप से, शिक्षा समवर्ती सूची में आती है, इसलिए केंद्र सरकार को शिक्षा संबंधी नीतियाँ बनाने का अधिकार है।
विरोध में तर्क
- दक्षिण भारतीय राज्यों का मानना है कि यह हिंदी को जबरन लागू करने का प्रयास है।
- हिंदी को अतिरिक्त भाषा के रूप में सीखने का दबाव गैर-हिंदी भाषी छात्रों के लिए कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।
- शिक्षकों की कमी के कारण अन्य भारतीय भाषाओं को पर्याप्त बढ़ावा नहीं मिल पाता।
- राज्यों को अपनी भाषाई नीतियाँ तय करने का अधिकार होना चाहिए।
संभावित समाधान और आगे की राह
- राज्यों को उनकी भाषाई और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार अधिक स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।
- हिंदी भाषी राज्यों में भी दक्षिण भारतीय और पूर्वोत्तर की भाषाओं को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
- अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य, संस्कृति और शैक्षिक सामग्री को बढ़ावा देना चाहिए।
- त्रिभाषा नीति को सफल बनाने के लिए शिक्षकों की संख्या और गुणवत्ता में सुधार करना आवश्यक है।
त्रिभाषा नीति भारतीय शिक्षा प्रणाली में भाषाई समावेशन और बहुभाषिक दक्षता को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी। हालाँकि, इसके क्रियान्वयन में कई चुनौतियाँ और विवाद उत्पन्न हुए, विशेष रूप से तमिलनाडु जैसे राज्यों में।
संविधान में भाषाई विविधता को संरक्षित करने के कई प्रावधान मौजूद हैं, जो विभिन्न भाषाई समूहों के अधिकारों की रक्षा करते हैं। हालाँकि, त्रिभाषा नीति को लागू करने को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच मतभेद जारी हैं।
आने वाले वर्षों में, भारत को ऐसी भाषा नीति विकसित करने की आवश्यकता होगी जो राष्ट्रीय एकता और भाषाई विविधता के बीच संतुलन स्थापित कर सके।
त्रिभाषा नीति का उद्देश्य बहुभाषिकता को बढ़ावा देना और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना है। हालाँकि, तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसका विरोध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से बना हुआ है। शिक्षा नीति में राज्यों की स्वतंत्रता और संघीय ढांचे को बनाए रखना आवश्यक है। इसके लिए केंद्र और राज्यों के बीच संवाद और सहयोग की आवश्यकता है ताकि देश की भाषाई विविधता को संरक्षित रखते हुए शिक्षा प्रणाली को सुदृढ़ किया जा सके।
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