दृश्य काव्य : परिभाषा, स्वरूप, भेद, उदाहरण और साहित्यिक महत्त्व

भारतीय साहित्य की परंपरा अत्यंत समृद्ध और बहुआयामी है। यहां केवल वाचिक साहित्य (जो पढ़ा और सुना जाता है) ही नहीं, बल्कि ऐसा साहित्य भी विकसित हुआ है जिसे आँखों से देखा और अनुभव किया जा सकता है। इस दृश्य अनुभव से उत्पन्न काव्य को दृश्य काव्य (Drishya Kavya) कहा जाता है। यह केवल पठन-पाठन तक सीमित न होकर मंचन, अभिनय, नृत्य, संगीत और संवादों के माध्यम से सजीव रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

दृश्य काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसमें रस और भाव की अनुभूति प्रत्यक्ष रूप से होती है। पाठक नहीं, बल्कि दर्शक इसका केंद्र होता है। इस प्रकार दृश्य काव्य की अवस्थिति मंच और मंचीय कला से जुड़ी है।

भरतमुनि का नाट्यशास्त्र दृश्य काव्य की आधारशिला माना जाता है, जिसमें कहा गया है कि नाट्य कला लोक-शिक्षा, मनोरंजन और धर्म-प्रचार का साधन है। दृश्य काव्य की परंपरा वैदिक संवादात्मक सूक्तों से लेकर आधुनिक रंगमंच और फ़िल्मों तक फैली हुई है।

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दृश्य काव्य की परिभाषा और स्वरूप

आचार्यों के अनुसार, जिस साहित्य को आँखों के सामने घटित होते हुए देखा जाए और जिसमें पात्रों, संवादों तथा घटनाओं के माध्यम से रस-भावों का आस्वाद हो, वही दृश्य काव्य कहलाता है।

  • यहाँ शब्द मात्र नहीं, बल्कि अभिनय (Acting), अंगिकाभिनय (Gestures), सात्विक भाव (Emotions) और मंचीय गतिशीलता का भी महत्त्व होता है।
  • दृश्य काव्य को समझने के लिए इसे केवल साहित्यिक दृष्टि से नहीं, बल्कि नाट्यशास्त्रीय दृष्टि से भी देखना आवश्यक है।
  • आचार्यों के अनुसार “जिस साहित्य को आँखों से देखकर, प्रत्यक्ष दृश्यों के माध्यम से रस-भाव की अनुभूति की जाए, वही दृश्य काव्य है।”
  • इसकी मूल विशेषता मंचीयता (Theatricality) है।
  • इसमें अभिनय, हाव-भाव, वाणी, नृत्य और संगीत सभी का सम्मिलन होता है।

दृश्य काव्य के प्रमुख भेद

भारतीय आचार्यों ने दृश्य काव्य को मूलतः दो प्रमुख भागों में विभाजित किया है—

  1. रूपक
  2. उपरूपक

1. रूपक काव्य

रूपक की परिभाषा

संस्कृत आचार्यों ने रूपक की परिभाषा देते हुए कहा है—
“तद् उपारोपात् तु रूपम्।”
अर्थात् जब पात्र, कथानक और रस के तारतम्य से सजीव रूप में प्रस्तुति होती है, तभी रूपक की रचना मानी जाती है।

  • स्वरूप : व्यापक और विस्तृत कथा, पात्रों की गहनता, रस और भाव का समन्वय।

रूपक और नाटक का संबंध

  • रूपक का सबसे प्रमुख भेद नाटक है।
  • प्रायः नाटक को ही रूपक का पर्याय माना जाता है।
  • भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में रूपक के लिए नाटक शब्द का ही प्रयोग मिलता है।

रूपक के भेद

भारतीय आचार्यों ने रूपक के दस भेद स्वीकार किए हैं, जिनमें प्रमुख हैं—

  1. नाटक
  2. प्रकरण
  3. भाषा
  4. प्रहसन
  5. डिम
  6. व्यायोग
  7. समवकार
  8. वीथी
  9. अंक
  10. ईहामृग

इनमें से प्रत्येक का अपना स्वरूप और साहित्यिक उद्देश्य है।

अग्नि पुराण के अनुसार रूपक के भेद

अग्नि पुराण में रूपक को और भी विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें रूपक के 28 भेद बताए गए हैं—

  • नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाव, वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सदृक, शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिक, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशका, काव्य, श्रीनिगदित, नाट्यरूपक, रासक, उल्लाव्यक और प्रेक्षण।

यह विविधता भारतीय नाट्य परंपरा की समृद्धि और व्यापकता को दर्शाती है।

2. उपरूपक काव्य

उपरूपक की परिभाषा और स्वरूप

रूपक की तुलना में उपरूपक छोटे, सरल और सीमित रूप के होते हैं। इनमें अभिनय, कथानक और रस की गहराई तो होती है, परंतु वह व्यापकता नहीं होती जो रूपक में दिखाई देती है।

  • स्वरूप : रूपक की तुलना में लघु और सरल।
  • इसमें कथानक संक्षिप्त होता है और मंचन छोटा, किंतु रस-भाव का संचार समान रूप से होता है।

उपरूपक के भेद

अग्नि पुराण में उपरूपक के 18 भेद बताए गए हैं—

  • नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सदृक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लासटय, काव्य, प्रेक्षणा, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिंपल, विलासिका, दुर्मल्लिका, परकणिका, हल्लीशा और भणिका।

कुछ विद्वान इसके अंतर्गत गद्य, पद्य और चंपू को भी शामिल करते हैं।

दृश्य काव्य का विकास और इतिहास

भारतीय संस्कृति में दृश्य काव्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन है।

  • वैदिक काल में ही संवादात्मक सूक्तों के माध्यम से मंचन की नींव पड़ चुकी थी।
  • रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में नाटकीयता और संवादों का जो स्वरूप मिलता है, उसने बाद के नाटककारों को प्रेरित किया।
  • भरतमुनि का नाट्यशास्त्र दृश्य काव्य की आधारशिला है। इसमें नाटक के प्रकार, रस, भाव, अभिनय, नृत्य और संगीत सभी की विस्तृत चर्चा है।
  • संस्कृत नाटकों में कालिदास, भास, भवभूति, शूद्रक आदि कवियों ने रूपक परंपरा को समृद्ध किया।

दृश्य काव्य की विशेषताएँ

  1. मंचीयता – दृश्य काव्य का अस्तित्व तभी है जब वह मंच पर प्रस्तुत हो।
  2. दर्शक-केंद्रितता – इसका उद्देश्य पाठक नहीं बल्कि दर्शक की संवेदना को छूना है।
  3. रस-भाव की प्रत्यक्ष अनुभूति – दृश्य काव्य में रस केवल कल्पना से नहीं, बल्कि जीवंत अभिनय से अनुभव होता है।
  4. अभिनय और संगीत का संगम – दृश्य काव्य में भाषा के साथ-साथ आवाज़, हाव-भाव और लय भी उतने ही महत्त्वपूर्ण होते हैं।
  5. कथानक और संवाद – कथा केवल बताई नहीं जाती, बल्कि पात्रों द्वारा जीकर दिखाई जाती है

दृश्य काव्य और भारतीय समाज

भारतीय समाज में दृश्य काव्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहा। यह—

  • शिक्षा का माध्यम बना।
  • धर्म और नीति के प्रसार का साधन रहा।
  • लोक-जीवन की समस्याओं को उजागर करता रहा।
  • सामाजिक एकता और संस्कृति संरक्षण में सहायक बना।

उदाहरण के लिए—

  • नाट्यशास्त्र में कहा गया है कि नाटक में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी का समावेश होना चाहिए।
  • कालिदास के नाटक केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि जीवन मूल्यों के प्रतिबिंब भी हैं।

दृश्य काव्य का आधुनिक परिप्रेक्ष्य

आज के समय में दृश्य काव्य का स्वरूप बदल चुका है।

  • पारंपरिक संस्कृत नाटक अब सीमित मंचन में दिखाई देते हैं, लेकिन उनकी आत्मा आधुनिक रंगमंच और थिएटर में जीवित है।
  • हिंदी, उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं के नाटककारों ने दृश्य काव्य की परंपरा को नया रूप दिया है।
  • आज फ़िल्म और टेलीविजन को भी व्यापक अर्थों में दृश्य काव्य का आधुनिक स्वरूप माना जा सकता है, क्योंकि यह भी प्रत्यक्ष दृश्य और अभिनय के माध्यम से ही रसास्वादन कराता है।

दृश्य काव्य (रूपक और उपरूपक) के प्रमुख उदाहरण

1. संस्कृत नाटक (रूपक के उदाहरण)

  1. कालिदास
    • अभिज्ञानशाकुंतलम् – नायक दुष्यंत और शकुंतला की प्रेमकथा। इसमें शृंगार और करुण रस का अद्भुत मिश्रण है।
    • मालविकाग्निमित्रम् – प्राचीन प्रेमकथा का नाट्य रूप।
    • विक्रमोर्वशीयम् – राजा पुरूरव और अप्सरा उर्वशी की कथा।
  2. भवभूति
    • उत्तररामचरितम् – राम और सीता की करुण कथा, करुण रस का उत्कर्ष।
    • मालती-माधव – प्रेम और नीति का संगम।
  3. भास
    • स्वप्नवासवदत्तम् – राजनीतिक और प्रेम संबंधी द्वंद्व।
    • प्रतिज्ञायौगंधरायणम् – राजनीतिक पृष्ठभूमि वाला नाटक।
  4. शूद्रक
    • मृच्छकटिकम् – चारुदत्त और वसंतसेना की कथा, सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण।

2. प्रकरण, प्रहसन और व्यायोग के उदाहरण

  • प्रकरण – भास का प्रतिज्ञायौगंधरायणम्
  • प्रहसन – हास्यप्रधान छोटे नाटक, जैसे भट्टनायक का भागवताजुकम्
  • व्यायोग – युद्धप्रधान नाटक, जैसे उरुभंगम् (भास द्वारा रचित)।

3. उपरूपक के उदाहरण

उपरूपक आकार में छोटे होते हैं, इनमें नृत्य, संगीत और संक्षिप्त कथानक का अधिक महत्व होता है।

  • नाटिका – कालिदास की मालविकाग्निमित्रम्
  • रासक – गुजरात और राजस्थान में रासलीलाओं का मंचन।
  • प्रेक्षणा – लोक-नाट्य शैलियों में छोटे नाटक जैसे भवाई (गुजरात), नौटंकी (उत्तर भारत)।

4. लोकनाट्य और भारतीय भाषाओं के उदाहरण

  • हिंदी – भारतेंदु हरिश्चंद्र का अंधेर नगरी चौपट राजा (प्रहसन का उत्कृष्ट उदाहरण)।
  • मराठी – तमाशा
  • बंगाली – जात्रा
  • तमिल – तेरुक्कूट्टू
  • असम – अंकिया नाट (शंकरदेव द्वारा)।

5. आधुनिक काल के उदाहरण

  • मोहन राकेश – आधे-अधूरे (आधुनिक पारिवारिक यथार्थ का चित्रण)।
  • धर्मवीर भारती – अंधा युग (महाभारत के युद्धोत्तर संदर्भ में गहन नाटकीय प्रस्तुति)।
  • विजय तेंदुलकर – घाशीराम कोतवाल (मराठी में, राजनीतिक व्यंग्य का उदाहरण)।

दृश्य काव्य के उदाहरण : तालिका रूप में

श्रेणीउदाहरणरचनाकार / क्षेत्रविशेषता / टिप्पणी
संस्कृत नाटक (रूपक)अभिज्ञानशाकुंतलम्कालिदासशृंगार व करुण रस का अद्भुत संयोजन
मालविकाग्निमित्रम्कालिदासनाटिका रूप का उत्कृष्ट उदाहरण
विक्रमोर्वशीयम्कालिदासप्रेम कथा व पौराणिक संदर्भ
उत्तररामचरितम्भवभूतिकरुण रस की चरम अभिव्यक्ति
मालती-माधवभवभूतिप्रेम और नीति का संतुलन
स्वप्नवासवदत्तम्भासराजनीतिक और प्रेम का मिश्रण
प्रतिज्ञायौगंधरायणम्भासप्रकरण नाटक, राजनीति पर आधारित
उरुभंगम्भासव्यायोग (वीर रस प्रधान)
मृच्छकटिकम्शूद्रकसामाजिक जीवन और यथार्थ चित्रण
अन्य संस्कृत रूपकभागवताजुकम्भट्टनायकप्रहसन (हास्यप्रधान)
उपरूपकमालविकाग्निमित्रम् (नाटिका रूप)कालिदासउपरूपक का उदाहरण
रासकगुजरात/राजस्थानरासलीला, नृत्यप्रधान
प्रेक्षणालोक-नाट्य शैलीलघु नाट्य रूप, मनोरंजन
लोकनाट्यभवाईगुजरातसामाजिक व्यंग्य
नौटंकीउत्तर भारतलोकप्रिय लोक-नाट्य
जात्राबंगालधार्मिक व सामाजिक विषय
तमाशामहाराष्ट्रनृत्य-संगीत प्रधान
अंकिया नाटअसम (शंकरदेव)धार्मिक व भक्तिपरक
तेरुक्कूट्टूतमिलनाडुलोकनाट्य शैली
आधुनिक हिंदी नाटकअंधेर नगरी चौपट राजाभारतेंदु हरिश्चंद्रप्रहसन, सामाजिक व्यंग्य
आधे-अधूरेमोहन राकेशआधुनिक पारिवारिक यथार्थ
अंधा युगधर्मवीर भारतीमहाभारत-युद्ध के बाद का वैचारिक नाटक
अन्य भारतीय भाषाएँघाशीराम कोतवालविजय तेंदुलकर (मराठी)राजनीतिक व्यंग्य
तुगलकगिरीश कर्नाड (कन्नड़)ऐतिहासिक व राजनीतिक नाटक

सारांश

  • संस्कृत नाट्य परंपरा – कालिदास, भास, भवभूति और शूद्रक के नाटक।
  • लोक-नाट्य परंपरा – रासलीला, नौटंकी, जात्रा, तमाशा आदि।
  • आधुनिक हिंदी रंगमंच – भारतेंदु हरिश्चंद्र, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती।
  • भारतीय भाषाओं का रंगमंच – विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड आदि।

यानी, दृश्य काव्य केवल संस्कृत साहित्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय नाट्यकला और आधुनिक रंगमंच दोनों में समान रूप से विद्यमान है।

निष्कर्ष

दृश्य काव्य भारतीय साहित्य की एक जीवंत धारा है जो केवल पढ़ने या सुनने तक सीमित नहीं है, बल्कि उसे देखने और अनुभव करने से उसकी पूर्णता होती है। यह साहित्य और कला का ऐसा संगम है जिसमें रस, भाव, अभिनय और संगीत सभी मिलकर दर्शक को आत्मानुभूति की चरम सीमा तक ले जाते हैं।

  • रूपक और उपरूपक इसके दो प्रमुख भेद हैं।
  • रूपक में नाटक का विशेष स्थान है, जबकि उपरूपक छोटे और सरल रूप में साहित्य और नाट्य का संगम प्रस्तुत करते हैं।
  • अग्नि पुराण में इनके अनेक भेदों का उल्लेख मिलता है, जो इस परंपरा की समृद्धि को दर्शाता है।

आज भले ही दृश्य काव्य के रूप बदल गए हों, पर उसकी मूल आत्मा—रस और भाव की प्रत्यक्ष अनुभूति—आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यही कारण है कि दृश्य काव्य भारतीय संस्कृति की आत्मा और समाज की सामूहिक चेतना का दर्पण माना जाता है।

संदर्भ (References)

  1. भरतमुनि — नाट्यशास्त्र
  2. अग्नि पुराण — दृश्य काव्य और उपरूपक के भेद
  3. कालिदास — अभिज्ञानशाकुंतलम्, मालविकाग्निमित्रम्
  4. भवभूति — उत्तररामचरितम्
  5. शूद्रक — मृच्छकटिकम्
  6. हजारी प्रसाद द्विवेदी — हिंदी साहित्य का इतिहास
  7. विश्वनाथ त्रिपाठी — नाट्य और काव्य की परंपरा

इन्हें भी देखें –

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