दो बैलों की कथा | कहानी – मुंशी प्रेमचंद

“दो बैलों की कथा” में मुंशी प्रेमचंद ने दो बैलों, हीरा और मोती, की कहानी को बताया है। यह कहानी एक गांव में घटित होती है, जहां बैलों का मालिक झूरी नामक व्यक्ति हैं। झूरी उन दोनों बैलों का देखभाल बहुत ही स्नेह पूर्वक करता है परन्तु उसकी पत्नी उन बैलों के प्रति उपेक्षा और गुस्सा रखती है। एक दिन उन बैलों को झूरी के ससुराल भेजना पड़ता है, बैलों को ले जाने के लिए झूरी की पत्नी का भाई गया आता है, और बैलों को उसके साथ भेजना पड़ता है।

बैलों को लगता है कि उनका मालिक उन्हें बेच दिया है, और वे उसके चंगुल से भागकर अपने घर लौटना चाहते हैं। इसके बाद कहानी में उनके जीवन के अनुभव और उनके संघर्षों का वर्णन होता है। अंत में, बैलों की यात्रा उन्हें उनके पहले मालिक झूरी के पास वापस पहुंचाती है, जहां उन्हें उनकी देखभाल और स्नेह पुनः मिलने लगता है।

दो बैलों की कथा | कहानी – मुंशी प्रेमचंद

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।

गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है। किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सडी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा।

उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ॠषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कदाचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।

देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर ग़म खा जाते हैं, फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल समाने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है, और वह है ‘बैल’।

जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में ‘बछिया के ताऊ’ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अडियल बैल भी देखने में आता है और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।

झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे – देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों से साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।

दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे- विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।

जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते उस वक़्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्याद-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिनभर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था।

संयोग की बात है, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमें बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकडकर आगे से खींचता तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुँकरते।

अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते- तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते, हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?

संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिनभर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाए गए, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नए आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे। दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गए।

जब गाँव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने ज़ोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा: पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं। झूरी प्रात: सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों ही गर्दनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड से भरे हैं और दोनों की ऑंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है। झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद् हो गया। दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था।

घर और गाँव के लड़के जमा हो गए और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड, कोई चोकर, कोई भूसी।

एक बालक ने कहा- ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।

दूसरे ने समर्थन किया- इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए।

तीसरा बोला- बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।

इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ। झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली- कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहां काम न किया, भाग खड़े हुए। झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका- नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?
स्त्री ने रोब के साथ कहा- बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।

झूरी ने चिढ़ाया- चारा मिलता तो क्यों भागते? स्त्री चिढ़ी- भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं, तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ? कहाँ से खली और चोकर मिलता है, सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खाएँ चाहे मरें। वही हुआ। मजूर को बड़ी ताकीद कर दी गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए।

बैलों ने नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्या खाएँ? आशा भरी ऑंखों से द्वार की ओर ताकने लगे। झूरी ने मजूर से कहा- थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?
‘मालिकन मुझे मार ही डालेंगी।’
‘चुराकर डाल आ।’
‘ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।’
दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता।
दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।

संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी। दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा! नाँद की तरफ ऑंखें तक न उठाईं।

दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डण्डे जमाए, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होती तो दोनों पकड़ाई में न आते।

हीरा ने मूक भाषा में कहा- भागना व्यर्थ है।
मोती ने उत्तर दिया- तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।
‘अबकी बड़ी मार पड़ेगी।’
‘पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहाँ तक बचेंगे।’

‘गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ हैं। ‘मोती बोला- कहो तो दिखा दूँ कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।
हीरा ने समझाया- नहीं भाई! खड़े हो जाओ।
‘मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।’
‘नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।’मोती दिल में ऐंठकर रह गया।

गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिए निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गई।

उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का बास है। लड़की भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी। दोनों दिन भर जोते जाते, डण्डे खाते, अड़ते। शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की ऑंखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा- अब तो नहीं सहा जाता हीरा!
‘क्या करना चाहते हो?’
‘एकाध को सीगों पर उठाकर फेंक दूँगा।’
‘लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ न हो जाएगी?’
‘तो मालकिन को न फेंक दूँ। वही तो उस लडकी को मारती है।’
‘लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।’
‘तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। बताओ, तुड़ाकर भाग चलें।’
‘हाँ, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?’
‘इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोड़ा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।

‘रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।सहसा घर का द्वार खुला और वही बालिका निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूँछें खड़ी हो गईं।

उसने उनके माथे सहलाए और बोली- खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएँ। उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खड़े रहे। मोती ने अपनी भाषा में पूछा- अब चलते क्यों नहीं?
हीरा ने कहा- चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आएगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।

सहसा बालिका चिल्लाई- दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौड़ो।गया हडबडाकर भीतर से निकला और बैलों को पकडने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा।

दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौड़ते चले गए। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नए-नए गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए?हीरा ने कहा- ‘मालूम होता है, राह भूल गए।’
‘तुम भी बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।’
‘उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड़ दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़ें?

तुम भी तो बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।’

‘उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड़ दे लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़ें!’

दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खड़ी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है।

जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनो ने डकार ली। फिर सींग मिलाये, और एक दूसरे को ठेलने लगें। मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा
दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आया। सँभलकर उठा और फिर मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा-खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

अरे! वह क्या! कोई साँड़ डौंकता चला आ रहा है। हाँ, साँड़ ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बगलें झॉक रहे हैं। साँड़ पूरा हाथी है। उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है; लेकिन न भिड़ने पर भी तो जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयकर सूरत है!

मोती ने मूक भाषा में कहा-बुरे फंँसे। जान कैसे बचेगी। कोई उपाय सोचो।

हीरा ने चिन्तित स्वर में कहा-अपने घमंड में भूला हुआ हैं। आरजू-विनती न सुनेगा।

‘भाग क्यों न चलें।’

‘भागना कायरता है।’

‘तो फिर यहीं मरो। बन्दा तो नौ-दो ग्यारह होता है।’

‘और जो दौड़ाये?’

“वो फिर कोई उपाय सोचो जल्द!’

‘उपाय यही है कि उस पर दोनो जनें एक साथ चोट करें। मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पड़ेगी, तो भाग खड़ा होगा। ज्योंही मेरी ओर झपटे तुम बगल से उसके पेट में सींग धुसेड़ देना। जान जोखिम है; पर दूसरा उपाय नहीं है।’

दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साँड़ को कभी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजुरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था। ज्योंही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया। साँड़ उसकी तरफ मुड़ा, तो हीरा ने रगेदा। साँड़ चाहता था कि एक एक करके दोनों को गिरा लें। पर यह दोनों उस्ताद थे। उसे यह अवसर न देते थे।

एक बार साँड़ झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला, कि मोती ने बगल से पाकर उसके पेट में सींग भोंक दी। साँड़ क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग चुभा दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा, और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि साँड़ बेदम होकर गिर पड़ा। तब दोनों ने उसे छोड़ दिया।

दोनो मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे।

मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा-मेरा जी चाहता था कि बचा को मार ही डालूँ।

हीरा ने तिरस्कार किया-गिरे हुए वैरी पर सींग न चलाना चाहिए।

‘यह सब ढोंग है। वैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।’

‘अब घर कैसे पहुंचेगे, यह सोचो।’

‘पहले कुछ खा ले, तो सोचे।

सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मना करता रहा; पर उसने एक न सुनी। अभी दो-ही-चार ग्रास खाये थे कि दो आदमी लाठियाँ लिये दौड़ पड़े, और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेंड़पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड़ में धँसने लगे। भाग न सका। पकड़ लिया गया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, वो लौट पड़ा। फॅसेंगे तो दोनो साथ फँसेंगे। रख वालों ने उसे भी पकड़ लिया।

प्रातःकाल दोनों मित्र कॉंजीहौस में बन्द कर दिये गये।

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा सबका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी है। इससे तो गया फिर भी अच्छा था। वहाँ कई भैसे थीं; कई बकरियों, कई घोड़े, कई गधे पर किसी के सामने चारा न था;
सब जमीन पर मुरदों की तरह पड़े थे। कई तो इतने कमजोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाये ताकते रहे; पर कोई चारा लेकर आता न दिखायी दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की; पर इससे क्या तृप्ति होती!

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी। मोती से बोला-अब तो नहीं रहा जाता मोती!

मोती ने सिर लटकाये हुए जवाब दिया-मुझे तो मालूम होता है, प्राण निकल रहे हैं।

‘इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।’

‘आओ दीवार तोड़ डालें।’

‘मुझसे तो अब कुछ न होगा।’

‘बस, इसी बूते पर अकड़ते थे!’

‘सारी अकल निकल गयी।’

बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा। उसने दौड़-दौड़कर दीवार पर चोटें की और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा।

उसी समय काँजीहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का यह उजड्डपन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया।

मोती ने पड़े-पड़े कहा-आखिर मार खाई, क्या मिला?

‘अपने बूते-भर जोर तो मार लिया।’

‘ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गये।’

‘जोर तो मारता हो जाऊँगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जायँ।’ ‘जान से हाथ धोना पड़ेगा।’

‘कुछ परवाह नहीं। यो भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती, तो कितनी जान बच जातीं। इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जायँगे।’

‘हाँ, यह बात तो है। अच्छा तो लो, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।

मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और हिम्मत बढ़ी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानों किसी द्वन्द्वी से लड़ रहा है। आखिर कोई दो घंटे की जोर आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गयी उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पड़ी।

दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोड़ियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैसे भी खिसक गयी; पर गधे अभी तक ज्यों-के-यों खड़े थे।

हीरा ने पूछा-तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?

एक गधे ने कहा-जो कहीं फिर पकड़ लिये जाय?

‘तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।’

‘हमें तो डर लगता है। हम यहीं पड़े रहेंगे।’

आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे, भागें या न भागें। और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था, जब वह हार गया तो, हीरा ने कहा-तुम जाओ, मुझे मुझे यहीं पड़ा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाय।

मोती ने आँखों में आँसू लाकर कहा–तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे। आज तुम विपत्ति में पड़ गये, तो मै तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊँ? हीरा ने कहा-बहुत मार पड़ेगी। लोग समझ जायेंगे, यह तुम्हारी शरारत है।

मोती गर्व से बोला-जिस अपराध के लिए तम्हारे गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पड़े, तो क्या चिन्ता। इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियो की जान बच गयी। वह सब तो आशीर्वाद देंगे।

यह कहते हुए मोती ने दोनो गधों को सींगों से मार-मारकर बाड़े के बाहर निकाला और तब अपने बन्धु के पास आकर सो रहा।

भोर होते ही मुंशी और चौकीदार और अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने को जरूरत नहीं। बस इतना ही काफी है कि मोती को खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया गया।

एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहाँ बंधे पड़े रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनो इतने दुर्बल हो गये थे कि उठा तक न जाता था। ठठरियाँ निकल आयी थीं।

एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गये। तब दोनों मित्र निकाले गये और उनकी देख-भाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीदार होता?

सहसा एक दढ़ियल आदमी जिसकी आँखें लाल थीं, और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उँगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अन्तरज्ञान से दोनों मित्रों के दिल काँप उठे। वह कौन है और उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई सन्देह न हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को भीत नेत्रों से देखा, और सिर झुका लिया। हीरा ने कहा-गया के घर से नाहक भागे। अब जान न बचेगी।

मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया-कहते हैं, भगवान् सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?

‘भगवान् के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उनके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान् ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचायेंगे!

‘यह आदमी छुरी चलायेगा। देख लेना।’

‘तो क्या चिन्ता है। मांस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जायँगी।

नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी! बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे; पर भय के मारे गिरते-पड़ते भागे जाते थे क्योकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डडा जमा देता था।

राह में गाय बैलों का एक रेवड़ हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता था, कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका; पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं!

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ, कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग़ वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज़ होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गयी। अहा! यह लो! अपना ही हार आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे। हाँ, यही कुआँ है।

मोती ने कहा-हमारा घर नगीच आ गया।

हीरा बोला-भगवान् की दया है। ‘मैं तो अब घर भागता हूँ।’

‘यह जाने देगा!’

‘इसे मै मार गिराता हूँ।’

‘नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जायेंगे।’

दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये। दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलो को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। एक झूरो का हाथ चाट रहा था।

दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड़ ली।

भूरी ने कहा-मेरे बैल हैं।

‘तुम्हारे बैल कैसे? मै मवेशीखाने से नीलाम लिये आता हूँ।’

मै तो समझता हूँ, चुराये लिये आते हो। चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मै बेचूंँगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख़तियार है!

‘जाकर थाने में रपट कर दूंँगा।’

‘मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं।’

दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका; पर खडा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था। दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा या, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयो शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गाँव के लोग तमाशा देखते थे, और हँसते थे। जब दढ़ियल हारकर चला गया, तो मोती अकड़ता हुआ लौटा।

हीरा ने कहा-मै डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।

‘अगर वह मुझे पकड़ता, तो मैं बे-मारे न छोड़ता।’

‘अब न आयेगा।’

‘आयेगा तो दूर ही से खबर लूँगा। देखू कैसे ले जाता है!’

‘जो गोली मरवा दे?’

‘मर जाऊँगा; पर उसके काम तो न आऊँगा।’

‘हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता।’

‘इसी लिए कि हम इतने सीधे होते हैं।’

जरा देर में नौदों में खली, भूसा, चोकर, दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खड़ी दोनों को सहला रहा था और बीसों लड़के तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था।

उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिये।

दो बैलों की कथा – मुंशी प्रेमचंद | कहानी का सारांश 

मुंशी प्रेमचंद जी द्वारा लिखी गयी “दो बैलों की कथा” नामक कहानी दो बैल हीरा और मोती की है जिनको झुरी ने बड़े ही प्यार से पाला था। एक बार किसी कारणवश झुरी को उन बैलों को अपने ससुराल में झुरी के साले गया के पास छोड़ना पड़ता है। लेकिन हीरा और मोती को लगता है कि उनके मालिक ने उन्हें गया को बेच दिया है, इसलिए वे जल्दी से उसके चंगुल से छूट के अपने घर जाना चाहते थे। रात को जब गया उन्हें चारा देके सो जाता है तब वें दोनों रस्सी तोड़ के झुरी के पास आ जाते है।

उन्हें देख के झुरी बहुत खुश होता है लेकिन उसकी पत्नी को बहुत गुस्सा आता है और वह उन्हें कामचोर समझती है। वह उन दोनों बैलों को पुनः गया के हवाले कर देती है। दूसरी बार जब गया उन्हें फिर ले के जाता है तो उनपर अति क्रोधित होने के कारण उन्हें बहुत सताने लगता है। उन्हें खाना पीना देना बंद कर देता है और जो कुछ देता भी था उसे वह न तो ढंग से खाते और न ही हल चलाते थे।

गया अपने बैलों को अच्छे चारे डालता और हीरा मोती को सिर्फ भूसी खाने को दे देता था। उस घर में एक छोटी बच्ची जो उन्हें कुछ रोटियां खिलाती थी, एक रात उनको खोल देती है ताकि वो दोनो उस कैद से भाग जाएं। वे दोनों काफ़ी देर दौड़ने के बाद एक अनजान जगह पहुंच जाते है और वहां मटर के खेत में हरे भरे मटर खाने लगते है।

उतने में कुछ लोग उन्हें घेर लेते है और काँजीहौस में कैद कर देते है। काफी दिन वहां भी अनेकों यातनाओं को सहने के बाद उनको एक कसाई के हाथों बेच दिया जाता है। उसके साथ चलते-चलते जब वे अपने घर के रास्ते को पहचान लेते है तो वो दौड़ते हुए झुरी के पास पहुंचते है और झुरी की पत्नी भी उन्हें प्यार से चूम लेती हैं।

“दो बैलों की कथा” कहानी के पात्रों का परिचय और चरित्र चित्रण

हीरा और मोती

ये दो बैल कहानी के मुख्य पात्र हैं। वे गांव में गायों के समान रहते हैं, जिन्हें गांव वाले बस एक पशु मानते हैं। उनकी जिंदगी की उपेक्षा और उनके साथ निर्दयता का वर्णन किया गया है। उनका संघर्ष, उनकी स्वतंत्रता की लालसा, और उनकी मालिक के प्रति भरोसा के भाव को बखूबी प्रकट किया गया है।

झूरी

झूरी कहानी के मुख्य नायक हैं, जिसने हीरा और मोती को अपने बच्चों की तरह पाला है। उसकी दया और समझदारी का वर्णन किया गया है, जो उन्हें अपने मालिकों के प्रति वफादार बनाती है। झूरी की भूमिका में उसका संघर्ष और सम्मानित व्यवहार विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।

झुरी की पत्नी

झुरी एक सामान्य गांव वाला है, जिसे बैलों के प्रति प्रेम है। उसकी पत्नी, हालात के कारण, उन बैलों को बड़े गुस्से से देखती है और उन्हें कामचोर समझती है। उनके द्वारा बैलों के साथ व्यवहार का विवरण उनके रोल को समझाने में महत्वपूर्ण है।

बच्ची

एक छोटी सी बच्ची है, जो बैलों को सहायता करती है और उन्हें रोटियां खिलाती है। उसका संघर्ष और उसकी साहसिकता का वर्णन उसके चरित्र को समृद्ध करता है।

“दो बैलों की कथा” कहानी की समीक्षा

“दो बैलों की कथा” एक गहरी और प्रेरणादायक कहानी है, जो मानवीय और नैतिक मूल्यों को स्पष्ट करती है। यह कहानी बैलों के माध्यम से मानवता की अनूठी पहलू को प्रकट करती है, जो हमें जीवन की मूल सीख सिखाती है। गांव के वातावरण में घटित इस कहानी में प्रेमचंद ने साहित्यिक रूप से अपनी कला का प्रदर्शन किया है, जिसे पढ़कर हमें गहरे सोचने पर आमंत्रित किया जाता है।

“दो बैलों की कथा” कहानी में प्रयोग किये गए कुछ कठिन शब्दों के अर्थ

  • निरापद – सुरक्षित
  • पछाई –  पालतू पशुओं की एक नस्ल
  • गोईं – जोड़ी
  • कुलेले – क्रीडा
  • विषाद – उदासी
  • पराकाष्ठा – अंतिम सीमा
  • पगहिया – पशु बांधने की रेसिपी
  • रगेदना – खदेड़ना
  • गराँव – रस्सी
  • टिटकार – मुंह से निकलने वाला टिक-टिक शब्द
  • मसहलत – हितकर
  • साबिका – वास्ता/सरोकार
  • काँजीहौस – मवेशी खाना
  • रेवड़ – पशुओं का झुंढ
  • थान – पशुओं की बांधे जाने वाली ज़गह
  • उछाह – उत्सव/आनंद

इन्हें भी देखें –

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