भारतीय उपमहाद्वीप की भाषिक विविधता अत्यंत समृद्ध और जटिल है। उत्तर भारत के भाषायी परिदृश्य में विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और उससे सटे क्षेत्र सदियों से अनोखी भाषिक विन्यास के केंद्र रहे हैं। इसी क्षेत्र से हिन्दी की दो महत्त्वपूर्ण उपबोलियाँ उभरीं—कौरवी बोली और नगरी/नागरी बोली।
जहाँ कौरवी बोली लोकजीवन, बोलचाल और सांस्कृतिक परिवेश से गहराई से जुड़ी रही है, वहीं नगरी बोली ने आधुनिक मानक हिन्दी की नींव बनाकर शिक्षण, साहित्य और प्रशासनिक भाषा के रूप में स्वयं को स्थापित किया।
इन दोनों बोलियों का विकास केवल भाषा-विज्ञान का विषय नहीं है, बल्कि उत्तर भारत के सामाजिक–सांस्कृतिक इतिहास और औपनिवेशिक तथा उत्तर-औपनिवेशिक भारत की भाषा-नीति का भी प्रतिनिधित्व करता है। आज जब हम हिन्दी की मानकीकरण यात्रा को समझते हैं, तब कौरवी और नगरी बोली दोनों ही अपरिहार्य कड़ियाँ बनकर उभरती हैं।
इस लेख में हम इन दोनों बोलियों के भौगोलिक विस्तार, भाषिक विशेषताओं, सांस्कृतिक प्रभाव, परस्पर संबंध तथा आधुनिक हिन्दी में इनके योगदान को विस्तार से समझेंगे। साथ ही हम यह भी स्पष्ट करेंगे कि “नगरी बोली” और “नागरी बोली” दो अलग भाषाएँ नहीं हैं, बल्कि एक ही बोली के दो रूप हैं, जो आगे चलकर “खड़ी बोली” के नाम से स्थापित हुई।
कौरवी बोली का परिचय
कौरवी बोली (Kauravi Boli) हिन्दी की पश्चिमी उपबोलियों में सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। कई भाषा-शोधों में यह प्रतिपादित किया गया है कि आधुनिक मानक हिन्दी की जड़ें कौरवी और उससे संबंधित बोलियों में ही निहित हैं। यह बोली लोकजीवन से गहराई से जुड़ी, स्वाभाविक, सहज और बोलचाल में प्रशस्त मानी गई है।
कौरवी/खड़ी बोली का प्रारंभिक विकास
उत्तर भारतीय भाषाई परंपरा में कौरवी बोली का स्थान अत्यंत पुराना और महत्वपूर्ण माना जाता है। भाषाविदों के अनुसार इसका क्रमिक विकास 10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच हुआ। इसी काल में दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र—जैसे सरधना, मेरठ, मुरादाबाद और सहारनपुर—एक साझा भाषाई संस्कृति के केंद्र बने। ब्रज, अवधी और हरियाणवी जैसी बोलियाँ पहले से मौजूद थीं; उन्हीं के बीच कौरवी ने एक नई, अपेक्षाकृत सरल और साफ़-सुथरी भाषा-धारा के रूप में अपना रूप बनाना शुरू किया।
बाद के शताब्दियों में यही कौरवी अपने विकसित, व्यवस्थित और साहित्यिक स्वरूप में खड़ी बोली के नाम से जानी गई।
भौगोलिक आधार और बोलचाल का व्यापक क्षेत्र
कौरवी बोली का विस्तार मुख्यतः दिल्ली–मेरठ–सहारनपुर की पट्टी में देखा जाता है। यह वही इलाका है जिसमें आज भी सबसे शुद्ध और प्राकृत रूप से खड़ी बोली बोली जाती है।
आमतौर पर भाषावैज्ञानिक मेरठ क्षेत्र की खड़ी बोली को मानक मानते हैं, क्योंकि न उच्चारण में बाधक ध्वनियाँ अधिक हैं और न ही शब्दों में अनावश्यक जटिलता। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर और देहरादून से लेकर हरियाणा के करनाल और अम्बाला तक, इसके स्वरूप में थोड़े-बहुत क्षेत्रीय अंतर नज़र आते हैं, पर मूल लहजा बरकरार रहता है।
कौरवी का भौगोलिक क्षेत्र
कौरवी मुख्यतः निम्न क्षेत्रों में बोली जाती थी और आज भी इसके अवशेष स्पष्ट सुनाई देते हैं—
- पश्चिमी उत्तर प्रदेश
(मेरठ, बागपत, मुज़फ़्फ़रनगर, गौतमबुद्ध नगर, गाजियाबाद आदि) - दिल्ली और उसके आसपास का क्षेत्र
(पुरानी दिल्ली की बोलचाल में कौरवी की छाप आज भी दिखती है) - हरियाणा के कुछ हिस्से
(विशेषकर दक्षिणी और पूर्वी हरियाणा)
इन इलाकों में सांस्कृतिक घनिष्ठता और ऐतिहासिक आदान–प्रदान की वजह से कौरवी काफी एकरूप ढंग से विकसित हुई।
कौरवी बोली की भाषिक पहचान
कौरवी बोली की सबसे बड़ी विशेषता उसकी स्वाभाविकता, खुलापन और बोलचाल के निकटता है। इसका सम्पूर्ण स्वरूप ग्रामीण जीवन, लोक-संस्कृति और देसी व्यवहार की सहज अभिव्यक्ति लिए हुए है, इसलिए इसमें औपचारिकता की अपेक्षा अपनत्व और सरलता अधिक दिखाई देती है।
1. ध्वन्यात्मक (Phonetic) विशिष्टताएँ
कौरवी बोली के उच्चारण में एक प्रकार का खुलापन और सहजता पाई जाती है। ध्वनियाँ जटिल न होकर क्षेत्रीय प्रभाव के अनुरूप सरल रूप में प्रकट होती हैं।
(क) द्वित्व व्यंजन का प्रयोग
कौरवी में कई शब्दों में व्यंजनों के दुगुने उच्चारण देखने को मिलते हैं—
- बेट्टी (बेटी)
- गड्डी / गाड़ी
इस प्रकार का उच्चारण भाषा में एक विशिष्ट ठहराव और लयात्मकता उत्पन्न करता है।
(ख) मूर्धन्य ‘ल’ का उपयोग
कौरवी में लंबे समय तक ‘ळ’ / ‘ल़’ जैसी मूर्धन्य ध्वनियों का प्रयोग प्रचलित रहा—
- जंगल
- बाळा / बाला
यह विशेषता कौरवी को पुरानी देसी बोलियों की परंपरा से जोड़ती है।
(ग) ध्वन्यात्मक रूपांतरण
कौरवी के ग्रामीण लहजे में कुछ ध्वनियों के रूपांतरण विशेष रूप से मिलते हैं—
| मानक ध्वनि | कौरवी रूप |
|---|---|
| न → ण | खाणा, जाणा |
| भ → ब | बई, सबी, कबू |
ये रूप आज कम सुनाई देते हुए भी कौरवी की भाषिक जड़ों के महत्वपूर्ण संकेतक हैं।
2. क्रिया रूपों की सरलता
कौरवी में क्रियारूप खड़ी बोली की अपेक्षा बोलचाल के अधिक निकट होते हैं।
उदाहरण—
| खड़ी बोली | कौरवी |
|---|---|
| मैं गया था | मैं गयो था |
| मैं गई थी | मैं गई थी |
क्रिया-रूपों में यह परिवर्तन बोली को अधिक स्वाभाविक, बोलचालपूर्ण और प्रवाहयुक्त बनाता है।
3. शब्दावली में देसी (तद्भव) शब्दों का प्रभुत्व
कौरवी की शब्दावली ग्रामीण जीवन और लोक-परिवेश से गहराई से जुड़ी है। विशेषतः—
- खेत–खलिहान
- पशुपालन और श्रम जीवन
- घरेलू कार्य व ग्रामीण संस्कृति
इनसे सम्बंधित तद्भव और स्थानीय शब्दों का आधिक्य कौरवी को वास्तविक जनभाषा का रूप प्रदान करता है।
4. संवाद शैली
कौरवी की वाक्य संरचना छोटी, स्पष्ट और तेज़ प्रवाह वाली होती है। बोली का संवाद रूप सीधेपन और अपनत्व से भरा रहता है—
उदाहरण—
- “कहाँ जा रहो?”
- “कित्ता काम कर ले?”
- “कौनू बात न है।”
यह शैली अनौपचारिक दैनिक बातचीत और ग्रामीण जीवन की सहज भाषा का प्रतिनिधित्व करती है।
कौरवी बोली देसी जड़ों से उत्पन्न ध्वन्यात्मक विशिष्टताओं, सरलीकृत क्रियारूपों, ग्रामीण परिवेश की शब्दावली और बोलचाल प्रधान संवाद शैली के कारण हिंदी क्षेत्र की एक जीवंत और विशिष्ट बोली के रूप में पहचान रखती है। इसमें देहाती सहजता और शहरी स्पष्टता दोनों की संगति देखने को मिलती है, जिसकी वजह से यह भाषा न केवल सुगम बल्कि श्रवण-सुखद भी प्रतीत होती है।
आधुनिक हिन्दी और उर्दू पर कौरवी का गहरा प्रभाव
खड़ी बोली ने धीरे-धीरे अपना मार्ग साहित्य, प्रशासन और शिक्षा—तीनों क्षेत्रों में बनाया। 19वीं–20वीं सदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानों ने इसी बोली को आधुनिक साहित्य की मुख्य धारा के रूप में स्थापित किया।
उधर उर्दू ने इसी बोलचाल को फारसी-अरबी शब्दावली के साथ मिलाकर अपनी सुंदर साहित्यिक परंपरा तैयार की।
यानी कौरवी से विकसित खड़ी बोली ही वह साझा आधार बनी, जिस पर—
- आधुनिक हिन्दी
- आधुनिक उर्दू
दोनों खड़ी हुईं।
स्वतंत्रता के बाद यही बोली भारत की राजभाषा—हिन्दी—के रूप में आधिकारिक रूप से स्वीकार की गई।
कौरवी का सांस्कृतिक महत्व
कौरवी केवल एक बोली नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत है। इसमें—
- लोकगीतों
- किस्सों, दंतकथाओं
- कहावतों
- लोकसंवाद और कथनशैली
की समृद्ध परंपरा देखी जाती है।
क्योंकि कौरवी भौगोलिक रूप से ब्रज भाषा और खड़ी बोली के बीच का मध्य क्षेत्र है, इसलिए इसे दोनों के बीच एक संक्रमणीय बोली भी माना गया। यही संक्रमणीय स्वरूप आगे चलकर आधुनिक हिन्दी के निर्माण में पुल का काम करता है।
नगरी (नागरी) बोली : आधुनिक हिन्दी की रीढ़
नगरी बोली (Nagari Boli), जिसे लेखन में कई बार “नागरी बोली” भी कहा गया है, वास्तव में वही बोली है जिसे बाद में “खड़ी बोली” कहा जाने लगा। यही बोली आगे चलकर आधुनिक मानक हिन्दी का आधार बनी।
नगरी बोली: नाम, स्वरूप और ऐतिहासिक संदर्भ
नगरी बोली शब्द को अक्सर एक स्वतंत्र बोली समझ लिया जाता है, जबकि वस्तुतः इसका मूल संबंध लिपि से अधिक है, न कि किसी अलग बोलचाल से।
नगरी बोली का वास्तविक अर्थ
प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साहित्य में “नागरी” शब्द का प्रयोग देवनागरी लिपि में लिखित भाषा के लिए होता था। इसलिए जब खड़ी बोली को साहित्यिक रूप देकर देवनागरी में लिखा जाने लगा, तो विद्वान इसे “नागरी बोली” कहने लगे।
यानी:
नगरी/नागरी बोली = देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली खड़ी बोली का नाम
यह कभी भी कौरवी या खड़ी बोली से अलग कोई भाषा नहीं थी, बल्कि उसी का साहित्यिक, शास्त्रीय या लिखित रूप था।
भौगोलिक और साहित्यिक उपयोग
खड़ी बोली के जिस क्षेत्र में यह बोली बोलचाल में प्रमुख थी, वहीं इसका साहित्यिक रूप ‘नागरी’ परंपरा के रूप में उभर आया।
19वीं सदी के भाषा-विज्ञान, व्याकरण और साहित्यिक आलोचना ग्रंथों में “नागरी बोली” और “नगरी बोली”—दोनों ही रूप सामान्यतः खड़ी बोली के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
इसी कारण आधुनिक हिन्दी की आरंभिक पुस्तकों और व्याकरणों में यह नाम बार-बार मिलता है।
आधुनिक हिन्दी में नगरी बोली का योगदान
भारतीय संविधान में हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली भाषा घोषित किया गया है।
यहाँ “देवनागरी” उसी ऐतिहासिक “नागरी” परंपरा की ही निरंतरता है।
इस प्रकार खड़ी बोली का साहित्यिक रूप—जो देवनागरी में लिखा गया—“नागरी हिन्दी” के रूप में स्थापित होता चला गया और आज तक मानक रूप में उपयोग हो रहा है।
नगरी बोली का भौगोलिक विस्तार
नगरी बोली मुख्यतः इन क्षेत्रों में बोली जाती थी—
- दिल्ली (पुराना केन्द्र)
- मेरठ
- सहारनपुर
- रोहतक
- पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिले
समय के साथ जैसे-जैसे मुद्रण, शिक्षा और प्रशासन में मानकीकरण बढ़ा, नगरी बोली पूरे उत्तर भारत में मानक हिन्दी के रूप में स्थापित हो गई।
नगरी बोली की भाषिक विशेषताएँ
नगरी बोली की वह विशेषताएँ जिन्होंने इसे आधुनिक हिन्दी की आधारशिला बनाया—
- व्याकरणिक व्यवस्थितता
व्याकरण बेहद संगठित, नियमबद्ध और स्पष्ट है। - ध्वन्यात्मकता का स्पष्ट होना
किसी वर्ण का उच्चारण और उसका लिखित रूप लगभग समान रहता है।
(जैसे—‘क’, ‘ख’, ‘ग’ का उच्चारण एवं लेखन स्थिर है) - मानकीकृत वाक्य संरचना
शिक्षा, साहित्य और प्रशासन के लिए एकदम उपयुक्त—
जैसे: “मैं बाजार जा रहा हूँ।” / “उन्होंने पत्र लिखा।” - तत्सम और तद्भव का संतुलन
आधुनिक हिन्दी की शब्दावली का केंद्र-बिंदु यही संतुलन है।- तत्सम: मानव, विकास, समाज
- तद्भव: मनवा/मनुआ → मनुष्य
दोनों का संतुलित प्रयोग नगरी बोली की विशिष्टता है।
नागरी बोली का सांस्कृतिक और साहित्यिक महत्त्व
नगरी बोली की प्रमुख उपलब्धियाँ—
- आधुनिक हिन्दी साहित्य का लगभग पूरा निर्माण इसी बोली में हुआ।
(भारतेंदु युग, द्विवेदीयुग, छायावाद, प्रगतिवाद—सब इसी पर आधारित) - पत्रकारिता, शिक्षा, आलोचना और प्रशासनिक भाषा के रूप में स्थापित।
- स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रभाषा-चर्चा में नगरी बोली को केंद्रीय स्थान मिला।
इन्हीं सब कारणों से नगरी बोली को “आधुनिक हिन्दी की रीढ़” माना जाता है।
कौरवी और नगरी बोली : एक तुलनात्मक दृष्टि
इन दोनों बोलियों को समझने के लिए एक सरल तुलना अत्यंत उपयोगी है—
| विशेषता | कौरवी बोली | नगरी (खड़ी) बोली |
|---|---|---|
| प्रकृति | लोक/क्षेत्रीय | मानक/औपचारिक |
| प्रयोग क्षेत्र | पश्चिमी UP, दिल्ली-हरियाणा | दिल्ली, मेरठ, पश्चिमी UP |
| व्याकरण | अपेक्षाकृत लचीला | अत्यंत व्यवस्थित और नियमबद्ध |
| शब्दावली | देसी, तद्भव शब्द प्रधान | तद्भव + तत्सम का संतुलन |
| सांस्कृतिक भूमिका | लोकगीत, किस्सागोई, मौखिक परंपरा | आधुनिक साहित्य, शिक्षा, प्रशासन |
यह तुलना स्पष्ट करती है कि कौरवी और नगरी बोली दोनों ने अपनी-अपनी भूमिका में हिन्दी को समृद्ध किया—
कौरवी ने मौखिक संस्कृति दी, नगरी ने लिखित मानक।
कौरवी, खड़ी बोली और नगरी बोली: एक स्पष्ट तुलना
| विशेषता | कौरवी | खड़ी बोली | नगरी/नागरी बोली |
|---|---|---|---|
| मूल प्रकृति | लोक/क्षेत्रीय भाषा | विकसित, मानकीकृत बोली | खड़ी बोली का साहित्यिक-लिपि रूप |
| क्षेत्र | पश्चिमी UP, दिल्ली, हरियाणा | दिल्ली–मेरठ–सहारनपुर | वही क्षेत्र; लिखित रूप में व्यापक |
| ध्वनि/व्याकरण | द्वित्व व्यंजन, ‘ण’, ‘ब’, मूर्धन्य ‘ल’ | सुसंगत, संतुलित, साफ़ | देवनागरी-लिखित रूप |
| साहित्यिक स्थान | सीमित | आधुनिक हिन्दी-उर्दू का आधार | देवनागरी में लिखित आधुनिक हिन्दी |
कौरवी, खड़ी बोली और नगरी—इन तीनों शब्दों में भले अंतर दिखाई देता हो, पर इनकी जड़ें एक ही ऐतिहासिक धारा से निकलती हैं। कौरवी स्थानीय भाषिक धरातल थी, खड़ी बोली उसका मानकीकृत रूप बनी, और जब इसे देवनागरी में साहित्यिक भाषा के रूप में अपनाया गया, तो इतिहास-लेखन में इसे “नगरी” या “नागरी बोली” कहा गया।
इसी क्रम से आधुनिक हिन्दी और उर्दू—दोनों महान भाषाओं—का विकास हुआ और आज भारत की राजभाषा के रूप में खड़ी बोली आधारित हिन्दी पूरे देश में स्वीकृत है।
क्या “नगरी बोली” और “नागरी बोली” अलग हैं?
यह सबसे आम भ्रम है कि “नगरी बोली” और “नागरी बोली” दो अलग-अलग बोलियाँ हैं।
लेकिन वास्तविकता है—
दोनों एक ही बोली हैं।
इन दोनों में केवल लेखन/उच्चारण का अंतर है, न कि भाषिक भिन्नता।
“नागरी” शब्द का मूल अर्थ
“नागरी” शब्द मूल रूप से “नगर” से बना है—
- नगर → नागरी (नगर की भाषा / शहर की बोली)
समय के साथ इसका उच्चारण कहीं “नगरी”, कहीं “नागरी” बन गया।
साहित्य और इतिहास में प्रमाण
- कई पुराने भाषा-विज्ञान ग्रंथों में “नागरी बोली” लिखा गया है।
- कई नए शोधों में “नगरी बोली” लिखा मिल जाता है।
- दोनों का अर्थ खड़ी बोली के प्रारंभिक/ऐतिहासिक रूप से ही है।
दो अलग बोलियाँ नहीं
ठीक वैसा ही जैसे—
- “संस्कृत” → “संस्कारी/संस्करी”
- “अवधी” → “आउधी”
- “ब्रज” → “ब्रज/ब्रजभाषा”
इसी तरह—
- नगरी बोली
- नागरी बोली
दोनों एक ही बोली का दो प्रकार का लेखन/उच्चारण हैं।
कौरवी और नगरी बोली का आधुनिक हिन्दी पर प्रभाव
इन दोनों बोलियों ने मिलकर आधुनिक हिन्दी के विकास में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कौरवी का योगदान
- दिल्ली–हरियाणा–पश्चिमी UP की बोलचाल में इसकी स्पष्ट छाप
- कई लोकगीत, कहावतें, गाथाएँ सीधे कौरवी से आधुनिक हिन्दी में आईं
- कई तद्भव शब्द आज भी हिन्दी का हिस्सा हैं
(जैसे—“कित्ता”, “कौनू”, “लड़का-लड़की”, “घर-बार” आदि)
कौरवी ने जन-भाषा का दायरा दिया।
नगरी बोली का योगदान
- आधुनिक साहित्य की भाषा
- मानक हिन्दी की व्याकरण का आधार
- शिक्षा, मीडिया और प्रशासन की मुख्य भाषा
- मुद्रण और प्रकाशन ने इसी को बढ़ावा दिया
नगरी बोली ने मानकीकरण का आधार दिया।
दोनों बोलियों का समागम
- दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में कौरवी और नगरी सदियों तक परस्पर प्रभाव में रहीं।
- इससे हिन्दी को ऐसी स्थिरता मिली जो बाद में बड़े भाषा-समूह के लिए आवश्यक थी।
आधुनिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से स्थिति
आधुनिक भाषाविज्ञान कौरवी और नगरी को “पश्चिमी हिन्दी भाषाओं” की दो प्रमुख शाखाएँ मानता है।
- कौरवी = पश्चिमी हिन्दी की लोक-आधारित उपबोली
- नगरी/नागरी = पश्चिमी हिन्दी की मानकीकरण-केंद्रित उपबोली
- खड़ी बोली = नगरी/नागरी बोली का विकसित रूप
इस दृष्टि से—
नगरी बोली = खड़ी बोली का ऐतिहासिक रूप
और
नागरी बोली = नगरी बोली का ही दूसरा लेखन रूप
दोनों एक ही हैं, इसलिए भ्रम की कोई आवश्यकता नहीं।
भाषा-इतिहास की दृष्टि से महत्व
- 19वीं सदी में जब हिंदी-उर्दू विवाद उभरा, तब “नागरी बोली” का महत्व बढ़ा।
- नागरी लिपि में लिखी बोली को “नागरी बोली” कहा गया।
- इसने आधुनिक हिन्दी के पुनर्निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई।
निष्कर्ष
कौरवी और नगरी बोली उत्तर भारत की भाषिक विरासत के दो अपरिहार्य स्तंभ हैं। दोनों बोलियाँ भौगोलिक रूप से समीप और सांस्कृतिक रूप से जुड़ी होने के बावजूद अपनी विशिष्ट पहचान भी रखती हैं। कौरवी बोली लोकजीवन, ग्रामीण परिवेश और मौखिक परंपराओं की सशक्त वाहक रही, जबकि नगरी बोली ने आधुनिक हिन्दी के लिखित, साहित्यिक और औपचारिक रूप को आकार दिया।
जहाँ कौरवी ने भावनात्मक जड़ें प्रदान कीं, वहीं नगरी बोली ने भाषा को अक्षर, व्याकरण और मानक का स्थायित्व दिया। दोनों के मिलन ने हिन्दी को वह रूप दिया जिसे आज करोड़ों लोग मातृभाषा, संवाद भाषा और प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात, “नगरी बोली” और “नागरी बोली” दो अलग-अलग भाषाएँ नहीं हैं, बल्कि एक ही बोली के दो नाम—दो उच्चारण—दो रूप—जो आज “खड़ी बोली” के नाम से जानी जाती है और आधुनिक हिन्दी की रीढ़ बनी हुई है।
इस प्रकार, कौरवी और नगरी दोनों ही न केवल भाषाई धरोहर हैं, बल्कि हिन्दी की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक यात्रा के जीवंत अध्याय भी हैं।
इन्हें भी देखें –
- खड़ी बोली: आधुनिक हिंदी की आधारशिला – उत्पत्ति, क्षेत्र, विशेषताएँ, साहित्य और नामकरण
- हरियाणी (हरियाणवी) बोली : इतिहास, क्षेत्र, भाषिक विशेषताएँ, शब्दकोश, साहित्य और संस्कृति
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- बुंदेली – बुंदेली बोली – बुंदेलखंडी भाषा – पश्चिमी हिन्दी : उत्पत्ति, क्षेत्र, विशेषताएँ और भाषिक वैभव
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