नवगीत आधुनिक युग की एक प्रमुख काव्यधारा है, जिसकी जड़ें हिन्दी साहित्य की गीतिकाव्य परंपरा में गहराई से समाई हुई हैं। गीतिकाव्य की यह परंपरा आदिकाल से ही विद्यमान रही है। इसकी प्रारंभिक झलक विद्यापति और अमीर खुसरो की रचनाओं में देखी जा सकती है। भक्तिकाल में, विशेषतः कृष्णभक्त कवियों जैसे सूरदास, नंददास और मीराबाई के पद अत्यंत गेय और भावपूर्ण रहे हैं।
रीतिकाल में गीतों के साथ-साथ नृत्य और संगीत जैसी कलाओं का बहुआयामी विकास हुआ। यह परंपरा भारतेन्दु युग तक गीतिकाव्य की जड़ों से पोषित होती रही। द्विवेदी युग में कविता इतिवृत्तात्मक और गद्यात्मक स्वरूप की ओर अग्रसर हुई, जिससे गेयता का अभाव दिखाई देता है। फिर भी प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा जैसे कवियों ने इस काल में भी प्रभावशाली गीतों की रचना की।
छायावाद के पश्चात हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, नरेन्द्र शर्मा, भगवतीचरण वर्मा, केदारनाथ मिश्र ‘प्रधान’, गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, योगेन्द्र दत्त शर्मा तथा उमाकांत ‘मालवीय’ ने गीत परंपरा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
वर्तमान समय में भारतेन्दु मिश्र, धनंजय, कुँवर बेचैनी पाल ‘असीम’, विज्ञान आदि कवियों के नवगीत मर्मस्पर्शी हैं, जो सामाजिक सरोकारों से जुड़ते हुए आशावाद और मानवता का स्वर बनकर उभरे हैं। इस प्रकार नवगीत हिन्दी कविता की एक सशक्त, समकालीन और संवेदनशील धारा के रूप में विकसित हुआ है।
नवगीत का उद्भव और नामकरण
1950 के बाद हिन्दी गीत की चेतना में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन देखा गया। गीतों का स्वर अब नये जीवन, प्रगति, आस्था और विश्वास की ओर उन्मुख हो गया। इस नयी चेतना को ध्यान में रखते हुए इसे विभिन्न नामों से पहचाना गया जैसे — ‘नया गीत’, ‘आज का गीत’, ‘आधुनिक गीत’, और ‘नये गीत’।
‘नवगीत’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 1958 में ‘गीतांगिनी’ के माध्यम से किया। उन्हीं की पत्रिका ‘आईना’ ने नवगीत को एक उर्वर भूमि प्रदान की, जिससे इस काव्यधारा को दिशा और पहचान मिली।
नवगीत का कालखंड : उद्भव से विकास तक
नवगीत की समय-सीमा को लेकर साहित्यिक आलोचकों में कुछ मतांतर ज़रूर मिलते हैं, लेकिन समग्र रूप से यह स्वीकार किया गया है कि नवगीत का आरंभिक स्वर 1950 के दशक के उत्तरार्ध में स्पष्ट रूप से उभरने लगता है। यह वह समय था जब छायावाद और प्रगतिवाद के प्रभाव के बाद नई कविता आंदोलन के समानांतर गीत की परंपरा को नए संदर्भों में ढालने की आवश्यकता अनुभव की गई।
प्रारंभिक संकेत
नवगीत की जमीन 1940 और 1950 के दशकों में तैयार होने लगती है, जब गीतकार पारंपरिक भावुकता से हटकर सामाजिक, राजनीतिक और अस्तित्वगत यथार्थ की ओर उन्मुख होने लगते हैं। यद्यपि उस समय तक “नवगीत” शब्द का स्पष्ट प्रयोग नहीं हुआ था, पर गीतों की संरचना, संवेदना और शिल्प में बदलाव दिखने लगता है।
स्थापना और विकास
- 1958 में प्रकाशित शंभुनाथ सिंह का संग्रह ‘तार-सप्तक’ में नवगीत के स्वर मुखर रूप में दिखाई देते हैं।
- 1960 के दशक में ‘नवगीत दशक’ (संपा. शंभुनाथ सिंह) के प्रकाशन के साथ नवगीत को औपचारिक पहचान मिलती है।
- 1970–1980 के दशकों में यह विधा व्यापक रूप से स्थापित हो जाती है और एक सशक्त काव्यधारा के रूप में विकसित होती है।
काल-सीमा की रूपरेखा
- भूमिका काल (1945–1960) : पारंपरिक गीत से भिन्न नए गीत का आत्मसंघर्ष।
- स्थापन काल (1960–1970) : नवगीत का नामकरण और औपचारिकता।
- विकास काल (1970–1990) : विविधता, वैचारिक गहराई और प्रयोगशीलता का विस्तार।
- परिपक्वता काल (1990 के बाद) : नवगीत का स्थायित्व और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति।
इस प्रकार नवगीत की समय-सीमा को यदि व्यापक रूप से देखें तो इसका आरंभिक रूप 1940 के दशक के अंत में दिखाई देता है, और 1958 के बाद इसे एक संगठित काव्यधारा के रूप में पहचान मिलती है, जो आज भी निरंतर विकसित हो रही है।
नवगीत का विकास
नवगीत का आधुनिक विकास तीन प्रमुख कालखंडों में विभाजित किया जा सकता है:
- प्रथम स्तर (1950 से 1960 तक)
- द्वित्तीय स्तर (1960 से 1970 तक)
- तृतीय स्तर (1970 से अब तक)
1. प्रथम स्तर (1950 से 1960 तक): नवरोमानियत और यथार्थबोध
इस कालखंड में नवगीत स्वतंत्र भारत के नव-निर्माण की चेतना से प्रभावित रहा। यह युग ‘नवरोमानियत’ और ‘यथार्थोन्मुखता’ से भरा हुआ था।
इस दौर के नवगीतों में:
- आशावाद,
- नेहरूवादी विकास दृष्टिकोण से प्रभावित स्वर,
- सामाजिक रूढ़ियों व परंपराओं के प्रति विद्रोह और आक्रोश,
- तथा आधुनिक चेतना से जुड़ी नई सोच देखने को मिलती है।
नवगीतकारों की नई पीढ़ी ने आधुनिकता के प्रभाव को आत्मसात करते हुए गीतों में नयी संवेदनाएँ जोड़ीं।
2. द्वितीय स्तर (1960 से 1970 तक): नगरबोध, यांत्रिकता और अस्तित्ववाद
इस स्तर पर नवगीतों में बदलती हुई नगर चेतना और नगरीय जीवन के अनुभव अधिक मुखर हुए।
प्रमुख विशेषताएँ:
- जीवन में आयी यांत्रिकता,
- अजनबीपन, संत्रास, विसंगतियाँ और कुंठा,
- सहज ग्राम्य बोध का समावेश,
- तथा अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव।
यह कालखंड व्यक्तिगत और सामाजिक यथार्थ के टकराव को उजागर करता है, जहाँ आधुनिकता और परंपरा के बीच द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न होती है।
3. तृतीय स्तर (1970 से वर्तमान तक): सामाजिक विघटन और चेतना की गहराई
इस काल में नवगीत और भी अधिक यथार्थपरक, गंभीर और सामाजिक सरोकारों से जुड़ा दिखाई देता है।
मुख्य प्रभाव:
- राजनीतिक और सामाजिक अक्रांतता,
- लोकतंत्र का खोखलापन,
- परिवर्तन के प्रति निराशा,
- आपातकाल का आतंक,
- परिवारों में विघटन,
- तथा मानव-मन की कुंठा, ऊब, घुटन, अजनबीपन और अनास्था।
इस काल में नवगीतकारों ने अस्तित्ववाद की वैयक्तिक अनुभूतियों को सामाजिक स्वरूप प्रदान किया। जीवन की जटिलताओं, विघटन और मानसिक तनावों को उन्होंने सशक्त काव्य अभिव्यक्ति दी।
नवगीत का यह त्रिस्तरीय विकास स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि यह मात्र गीत विधा नहीं, बल्कि समाज, राजनीति, जीवन और व्यक्ति की संवेदना को प्रतिबिंबित करने वाली सशक्त और समकालीन काव्यधारा है। इसकी विशेषता यही है कि यह समय के साथ स्वयं को रूपांतरित करती रही है और हर दौर की चेतना को अपने भीतर समाहित करती रही है।
नवगीत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान
1975 में, वीरेन्द्र मिश्र ने इलाहाबाद के साहित्यकार सम्मेलन में ‘नयी कविता, नये गीत: मूल्यांकन की समस्याएं’ विषय पर अपना विचार-पत्र पढ़ा, जिसने नवगीत के सैद्धांतिक आधार को विस्तार दिया।
इसी दौरान ‘लहर’ पत्रिका के संपादक प्रकाश जैन द्वारा प्रकाशित कवितांक ने गीत के नये तेवरों को स्पष्ट किया। साथ ही, महेन्द्र शंकर की पत्रिका ‘वासंती’ द्वारा आयोजित ‘नये गीत: नये स्वर’ श्रृंखला ने नवगीत की गति को और भी बल प्रदान किया।
नवगीत के प्रमुख संकलन
नवगीत की पहचान और प्रसार में अनेक स्वतंत्र तथा समवेत संकलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इनमें प्रमुख हैं:
- ‘गीतांगिनी’
- ‘कविता’ (1964)
- ‘गीत – एक’ (1966)
- ‘गीत – दो’ (1967)
- ‘सातवें दशक के उभरते नवगीतकार’ (1967)
- ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ (1969)
- ‘नवगीत दशक – एक’ (1972)
- ‘नवगीत दशक – दो’ (1973)
- ‘नवगीत दशक – तीन’ (1974)
- ‘यात्रा में साथ-साथ’ (1984)
इन संकलनों ने नवगीत को एक स्वतंत्र और सशक्त काव्यधारा के रूप में स्थापित किया।
नवगीत की विशेषताएँ और काव्यधर्मिता
नवगीत, अपनी सृजन प्रक्रिया में निरंतर सजग और सक्रिय रहा है। इसे कई विद्वानों ने छायावाद और नयी कविता के बीच की सेतु रचना माना है। यह छायावादी गीतों की कल्पनाश्रित, मादक, और वैयक्तिकता की भूमि को छोड़कर जीवन के खुरदरे यथार्थ को स्वर देने लगा। वहीं दूसरी ओर, यह नयी कविता के नीरस, नागरीकरण और यांत्रिक परिवेश — जिसमें विघटन, अजनबीपन, घुटन, अनास्था, संत्रास, और पराजय का चित्रण था — उससे हटकर एक मानवीय समन्वय की स्थापना करता है।
नवगीत मानव के चेतनात्मक स्तर पर प्राकृतिक और स्नेहिल आयामों के माध्यम से ऐसा समन्वय प्रस्तुत करता है जो मस्तिष्क को उद्बुद्ध करता है और हृदय को रस से आप्लावित करता है।
प्रमुख नवगीत कवि और उनकी रचनाएँ
नवगीत के इतिहास को समृद्ध करने में अनेक कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन रचनाकारों ने नवगीत को केवल साहित्यिक स्वर नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय संवेदनाओं का गहन माध्यम बनाया है। उनकी रचनाएँ न केवल काव्य सौंदर्य से भरपूर हैं, बल्कि वे समय, समाज और व्यक्ति के अंतर्द्वंद्व को भी प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं।
प्रमुख नवगीतकार एवं उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ
कवि का नाम | प्रमुख रचना / गीत |
---|---|
शंभुनाथ सिंह | माध्यम मैं, जहाँ दर्द नीला है |
रामदरश मिश्र | मेरे प्रिय गीत |
कुँवर बेचैन | भीतर साँकल-बाहर साँकल |
अनुप अशेष | वह मेरे गाँव की हँसी थी |
मयंक श्रीवास्तव | सहसा हुआ घर |
देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’ | पथरीले शोर में, कुहरे की प्रत्यांचा |
वीरेन्द्र मिश्र | अविराम चल मधुवंती |
योगेन्द्रदत्त शर्मा | खुशबुओं के दंश |
जहीर कुरेशी | एक टुकड़ा धूप |
महेश्वर तिवारी | हरसिंगार कोई तो हो |
ठाकुरप्रसाद सिंह | वंशी और मादल |
उमाकांत मालवीय | एक चावल नेह रीधा |
बुद्धिनाथ मिश्र | जाल फेंक रे मछेरे |
श्रीराम सिंह ‘शलभ’ | पाँच जोड़ बाँसुरी |
पाल भसीन | खुशबुओं की सौगात |
नचिकेता | आदमकद खबरें |
विद्यासागर वर्मा | कोहरे का गाँव |
रमेश रंजक | हरापन नहीं टूटेगा |
नवगीत साहित्य में प्रमुख रचनाकारों की भूमिका एवं कालानुक्रमिक विकास
नवगीत हिन्दी साहित्य की एक समकालीन और सशक्त काव्यधारा है, जो समाज, व्यक्ति और समय की जटिलताओं को सहज, सरस और लयात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। इस विधा ने छायावाद की सौंदर्यता और नयी कविता की संवेदनशीलता का संगम करते हुए एक विशिष्ट काव्य परंपरा का निर्माण किया है।
नवगीत को उसकी परिपक्वता और पहचान दिलाने में अनेक रचनाकारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके गीतों में जहाँ एक ओर ग्राम्य जीवन की सादगी है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक जीवन की जटिल अनुभूतियाँ भी। ये रचनाकार न केवल अपने-अपने समय के प्रतिनिधि हैं, बल्कि नवगीत की ऐतिहासिक यात्रा को दिशा देने वाले स्तंभ भी हैं।
निम्नलिखित वर्गीकरण में इन नवगीतकारों को संकलनों एवं कालक्रम के आधार पर इस तरह प्रस्तुत किया गया है, जिससे उनके साहित्यिक योगदान की स्पष्टता और ऐतिहासिक प्रासंगिकता सहज रूप में समझी जा सके।
1. संकलनों के आधार पर वर्गीकरण
नवगीत साहित्य में अनेक सामूहिक गीत-संकलनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन संकलनों के माध्यम से कवियों की रचनाएँ व्यापक रूप से प्रकाशित और चर्चित हुईं। नीचे प्रमुख संकलनों के अंतर्गत सम्मिलित कवियों और उनकी रचनाओं को दर्शाया गया है:
गीतांगिनी (1958)
- शंभुनाथ सिंह – जहाँ दर्द नीला है
- देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’ – कुहरे की प्रत्यांचा
गीत – एक (1966) / गीत – दो (1967)
- वीरेन्द्र मिश्र – अविराम चल मधुवंती
- योगेन्द्रदत्त शर्मा – खुशबुओं के दंश
पाँच जोड़ बाँसुरी (1969)
- श्रीराम सिंह ‘शलभ’ – पाँच जोड़ बाँसुरी
- पाल भसीन – खुशबुओं की सौगात
नवगीत दशक – एक / दो / तीन (1972–74)
- रामदरश मिश्र – मेरे प्रिय गीत
- कुँवर बेचैन – भीतर साँकल–बाहर साँकल
- उमाकांत मालवीय – एक चावल नेह रीधा
- बुद्धिनाथ मिश्र – जाल फेंक रे मछेरे
- महेश्वर तिवारी – हरसिंगार कोई तो हो
यात्रा में साथ–साथ (1984)
- रमेश रंजक – हरापन नहीं टूटेगा
- विद्यासागर वर्मा – कोहरे का गाँव
- जहीर कुरेशी – एक टुकड़ा धूप
2. कालक्रमानुसार वर्गीकरण (रचनात्मक सक्रियता के आधार पर)
यह वर्गीकरण कवियों की सक्रियता की कालावधि और नवगीत आंदोलन में उनके योगदान को ध्यान में रखकर किया गया है:
प्रथम चरण (1950–1960)
- शंभुनाथ सिंह – माध्यम मैं, जहाँ दर्द नीला है
- देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’ – पथरीले शोर में, कुहरे की प्रत्यांचा
- वीरेन्द्र मिश्र – अविराम चल मधुवंती
- ठाकुरप्रसाद सिंह – वंशी और मादल
द्वितीय चरण (1960–1970)
- रामदरश मिश्र – मेरे प्रिय गीत
- कुँवर बेचैन – भीतर साँकल–बाहर साँकल
- योगेन्द्रदत्त शर्मा – खुशबुओं के दंश
- श्रीराम सिंह ‘शलभ’ – पाँच जोड़ बाँसुरी
- उमाकांत मालवीय – एक चावल नेह रीधा
- पाल भसीन – खुशबुओं की सौगात
- बुद्धिनाथ मिश्र – जाल फेंक रे मछेरे
तृतीय चरण (1970–वर्तमान)
- महेश्वर तिवारी – हरसिंगार कोई तो हो
- रमेश रंजक – हरापन नहीं टूटेगा
- विद्यासागर वर्मा – कोहरे का गाँव
- जहीर कुरेशी – एक टुकड़ा धूप
- अनुप अशेष – वह मेरे गाँव की हँसी थी
- मयंक श्रीवास्तव – सहसा हुआ घर
- नचिकेता – आदमकद खबरें
नवगीतकारों का योगदान
उपरोक्त नवगीतकारों की रचनाएँ नवगीत के इतिहास को नई ऊँचाइयाँ प्रदान करती हैं। इनके गीतों में:
- समकालीन जीवन की पीड़ा,
- आशा और संघर्ष की अनुभूति,
- ग्राम्य और नगरीय जीवन का समन्वय,
- तथा लोकसंवेदना और मानवीय मूल्यों का स्वर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
इन कवियों की लेखनी में अपार संभावनाएँ निहित हैं, जो नवगीत को निरंतर समृद्ध और प्रासंगिक बनाए रखती हैं।
नवगीत साहित्य में प्रमुख रचनाकारों की भूमिका एवं कालानुक्रमिक विकास
तालिका: नवगीतकार, उनकी रचनाएँ, प्रमुख संकलन और कालखंड
क्रम | कवि का नाम | प्रमुख रचना | संबंधित संकलन | कालखंड |
---|---|---|---|---|
1 | शंभुनाथ सिंह | माध्यम मैं, जहाँ दर्द नीला है | गीतांगिनी (1958) | प्रथम चरण (1950–60) |
2 | देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’ | पथरीले शोर में, कुहरे की प्रत्यांचा | गीतांगिनी (1958) | प्रथम चरण (1950–60) |
3 | वीरेन्द्र मिश्र | अविराम चल मधुवंती | गीत – एक / गीत – दो | प्रथम चरण (1950–60) |
4 | ठाकुरप्रसाद सिंह | वंशी और मादल | स्वतंत्र संग्रह | प्रथम चरण (1950–60) |
5 | रामदरश मिश्र | मेरे प्रिय गीत | नवगीत दशक | द्वितीय चरण (1960–70) |
6 | कुँवर बेचैन | भीतर साँकल–बाहर साँकल | नवगीत दशक | द्वितीय चरण (1960–70) |
7 | योगेन्द्रदत्त शर्मा | खुशबुओं के दंश | गीत – दो | द्वितीय चरण (1960–70) |
8 | श्रीराम सिंह ‘शलभ’ | पाँच जोड़ बाँसुरी | पाँच जोड़ बाँसुरी (1969) | द्वितीय चरण (1960–70) |
9 | उमाकांत मालवीय | एक चावल नेह रीधा | नवगीत दशक | द्वितीय चरण (1960–70) |
10 | पाल भसीन | खुशबुओं की सौगात | पाँच जोड़ बाँसुरी | द्वितीय चरण (1960–70) |
11 | बुद्धिनाथ मिश्र | जाल फेंक रे मछेरे | नवगीत दशक | द्वितीय चरण (1960–70) |
12 | महेश्वर तिवारी | हरसिंगार कोई तो हो | नवगीत दशक / स्वतंत्र संग्रह | तृतीय चरण (1970–वर्तमान) |
13 | रमेश रंजक | हरापन नहीं टूटेगा | यात्रा में साथ–साथ (1984) | तृतीय चरण (1970–वर्तमान) |
14 | विद्यासागर वर्मा | कोहरे का गाँव | यात्रा में साथ–साथ (1984) | तृतीय चरण (1970–वर्तमान) |
15 | जहीर कुरेशी | एक टुकड़ा धूप | यात्रा में साथ–साथ (1984) | तृतीय चरण (1970–वर्तमान) |
16 | अनुप अशेष | वह मेरे गाँव की हँसी थी | समवेत / नवीन संकलन | तृतीय चरण (1970–वर्तमान) |
17 | मयंक श्रीवास्तव | सहसा हुआ घर | नवीन संकलन / पत्रिका | तृतीय चरण (1970–वर्तमान) |
18 | नचिकेता | आदमकद खबरें | नवीन संकलन | तृतीय चरण (1970–वर्तमान) |
📝 नोट:
- प्रथम चरण (1950–1960): नवगीत का आरंभिक और नवरोमानियत से युक्त यथार्थनिष्ठ दौर।
- द्वितीय चरण (1960–1970): यांत्रिकता, अजनबीपन, नगरबोध और अस्तित्ववाद से प्रभावित।
- तृतीय चरण (1970–वर्तमान): सामाजिक-राजनीतिक विघटन, पारिवारिक संकट, और गहन संवेदना की अभिव्यक्ति।
नवगीत का साहित्यिक योगदान
नवगीत ने छायावाद की रोमानियत को आत्मसात करते हुए, नयी कविता की स्नेहित लयबद्धता और सहज बोधगम्यता के साथ समाज से टूटते सम्बन्धों को फिर से जोड़ने का कार्य किया।
उसने कविता की दुरूहता की जगह, स्नेहिल भाव- संवेदना द्वारा व्यक्ति के अंतर्मन को झंकृत और झकझोरने का सफल प्रयास किया है। इस प्रकार नवगीत केवल एक शैली नहीं, बल्कि समकालीन मनुष्य की चेतना का संवेदनशील और प्रतिबद्ध स्वर बनकर उभरा है।
नवगीत की प्रवृत्तियाँ
नवगीत हिन्दी कविता की एक ऐसी विधा है, जो यथार्थ की ज़मीन पर खड़ी होकर भारतीय जीवन की संवेदनाओं और मूल्यों को स्वर देती है। इसकी प्रवृत्तियाँ अनेक स्तरों पर देखी जा सकती हैं — ग्राम्य जीवन से जुड़ाव, भारतीयता की चेतना, सामाजिक प्रतिबद्धता और आत्मगौरव की भावना इसके केंद्रीय तत्व हैं।
1. ज़मीन से जुड़ी काव्यधारा
नवगीत की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति इसका ग्राम्य जीवन और ज़मीन से जुड़ाव है। यह ऐसी कविता नहीं है जो विदेशी विचारधाराओं या वादों पर आधारित हो, बल्कि यह स्वदेशी अनुभवों, लोक-संवेदना और जनमानस की अभिव्यक्ति है। जहाँ अन्य कविता आंदोलन पश्चिमी विचारधाराओं से प्रभावित रहे, वहीं नवगीत भारतीय मिट्टी से जन्मी चेतना का स्वर है।
2. आत्मनिर्भरता और भारतीयता का गौरव
नवगीतकारों में भारतीय दर्शन, संस्कृति और मूल्यों के प्रति गहन आस्था रही है। वे अपनी पहचान को ‘पूर्ण मनुष्य’ के रूप में स्वीकार करते हैं और किसी भी प्रकार की बाहरी बैसाखियों पर निर्भर नहीं होते।
कुँवर बेचैन की रचना ‘पिन बहुत सारे’ में यह चेतना मुखर होती है:
“जिन्होंने खरीदी है।
दूर से, विदेशों से टूटी बैसाखियाँ
वे सब तो कहलाए
बुद्धिमान, तगड़े, हम पूरे आदमी
अपने ही पाँव खड़े
फिर भी तो घोषित है – लंगड़े।”
यह कविता नवगीत की स्वाभिमानी और स्वदेशी चेतना को दर्शाती है — जहाँ कवि अपने मूल्यों और आत्मनिर्भरता पर गर्व करता है।
3. सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव
नवगीत की एक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है सामाजिक प्रतिबद्धता। यह कविता केवल भावुकता या व्यक्तिगत अनुभवों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि समाज के व्यापक सरोकारों, पीड़ाओं और बदलावों को स्वर देती है।
नवगीतकार आधुनिकीकरण के दौर में बनते-बिगड़ते मनोभावों, संकटों, और चेतनात्मक अनुभवों को पकड़ते हैं और उसे लोकजीवन से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं। इस प्रक्रिया में नवगीत एक विराट सामाजिक अनुभव की कविता के रूप में सामने आता है।
4. भारतीय जीवनमूल्यों की प्रतिष्ठा
नवगीतकारों में भारतीय जीवन-दृष्टि, पारंपरिक मूल्यों और सांस्कृतिक चेतना के प्रति आस्था की स्पष्ट झलक मिलती है। उनके लिए कविता केवल कलात्मक साधना नहीं, बल्कि एक संवेदनशील सामाजिक संवाद है, जो भारतीय परिवेश से गहराई से जुड़ा है।
नवगीत और सामाजिक यथार्थ
1. यथार्थ-बोध की आधारभूमि
नवगीत कविता की उन आधुनिक धाराओं में से एक है जो दैहिक रोमान और काल्पनिक आख्यान से बाहर निकलकर जीवन के वास्तविक और विसंगत पक्षों की प्रस्तुति करती है। यह काव्यधारा भारतीय सामाजिक संरचना, विषमता, पीड़ा और संघर्ष की सच्ची अभिव्यक्ति के रूप में उभरी।
नवगीत की सौंदर्यमयता इसी यथार्थ चित्रण से उत्पन्न होती है, और इसी ने उसे “नवगीत” के रूप में एक स्वतंत्र पहचान दी।
वीरेन्द्र मिश्र अपने गीत ‘गीतम’ में इस प्रवृत्ति को कुछ इस प्रकार प्रकट करते हैं:
“दूर होती जा रही है कल्पना,
पास आती जा रही है ज़िंदगी।”
यहाँ कल्पना से दूरी और जीवन की यथार्थता के निकटता का स्पष्ट संकेत मिलता है।
2. जनमानस से जुड़ाव और दयाबोध
नवगीत पुराने भावबोध से अलग होकर आमजन के जीवन से जुड़ गया। यह न केवल यथार्थ को दिखाता है बल्कि उसमें दयाबोध भी प्रकट करता है — एक करुणा-प्रधान दृष्टिकोण, जो मानवीय पीड़ा को आत्मसात करता है।
वीरेन्द्र मिश्र आगे लिखते हैं:
“पीर तेरी कर रही गमगीन मुझको
और उससे भी अधिक
तेरे नयन का नीर रानी
और उससे भी अधिक
हर पाँव की जंजीर रानी।”
यहाँ पीड़ा, आँसू और बंधनों के प्रतीकों के माध्यम से सामाजिक असमानताओं की व्यंजना की गई है।
3. सामाजिक विषमता और नारी शोषण की अभिव्यक्ति
ठाकुर प्रसाद सिंह अपने गीत ‘वंशी और बादल’ में वर्ण-व्यवस्था, सामाजिक भेदभाव और नारी शोषण को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं:
“मेरे घर के पीछे चन्दन है, लाल चन्दन है।
तुम उपर टोले की, मैं निचले गाँव की
राहें बन जाती हैं रे, कड़ियाँ पाँव की
समझो कितना मेरे प्राणों पर बन्धन है
आ जाना बन्दन है लाल चन्दन है।”
इस गीत में:
- ‘लाल चन्दन’ — प्रेम और इच्छा का प्रतीक
- ‘कड़ियाँ पाँव की’ — वर्णव्यवस्था और सामाजिक बंधन का प्रतीक
- ‘बन्धन’ — मनुष्यता की विडंबना का चित्र
यह चित्रण नारी के प्रति शोषण और वर्गीय भेद को स्पष्ट करता है।
4. सामाजिक अव्यवस्था से उपजा विद्रोह
नवगीतकारों ने समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मशीनीकरण, विषमता, भ्रष्टाचार और राजनीतिक दमन को गीतों में स्वर दिया। द्वितीय और तृतीय नवगीत कालखंडों में यह विद्रोह और भी मुखर हुआ।
ओम प्रभाकर की कविता ‘पुष्प-रचित’ में तीव्र आक्रोश देखा जा सकता है:
“खण्डहर मरुस्थल, बीहड़ जंगल से होकर हम
आये जिस ठौर वियाबान है – अँधेरा है,
बंजर, कुंठा, अकाल, त्रास, भुखमरी, चिन्ता
की धरती को काले क्षितिजों ने घेरा है,
अभिशापित देश यहाँ, कभी कुछ नहीं होगा
चाहे कितने दधीचि अस्थि–बीज बो जाएँ।”
यह क्रोध और हताशा का स्वर, समाज की निष्क्रियता के प्रति विद्रोह की चरम अभिव्यक्ति है।
5. आज़ादी के बाद मोहभंग की स्थिति
स्वतंत्रता के बाद जिस सुख, विकास और समानता के स्वप्न देखे गए थे, वे पूरे नहीं हो सके। नवगीतकारों में इस स्थिति से गहरा मोहभंग उत्पन्न हुआ।
देवेंद्र शर्मा ‘इन्द्र’ अपने गीत ‘पथरीले शोर’ में लिखते हैं:
“जाने अनजाने में हमने यह भूल की,
देखे सुख के सपने छाँव में बबूल की।
झूठे निकले सारे आश्वासन,
व्यर्थ हुई साधना।
हिला नहीं प्रभुता का सिंहासन,
निष्फल आराधना।
तट पर हम खड़े खड़े यादें बुनते रहे-
टूटे जलयान के खण्डित मस्तूल की।”
यहाँ छली हुई आशाओं और सत्ता की अडिगता पर गहरा व्यंग्य है।
6. संवेदनात्मक विविधता और मूल्यबोध
नवगीत मात्र वैयक्तिक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की व्यापक स्थितियों का दस्तावेज भी है। इसमें:
- आधुनिकता और मोहभंग,
- नगरबोध और ग्राम्य जीवन,
- औद्योगीकरण और मानवीकरण,
- नैतिक मूल्यों का क्षरण,
- मूल्यहीन राजनीति और सामाजिक दमन — सबको अभिव्यक्ति मिली है।
इसमें वैयक्तिक पीड़ा का सामाजिक विस्तार है, जो नवगीत को मूल्यसंपन्न और जनसरोकारों से युक्त काव्यधारा बनाता है।
नवगीत की सामाजिक यथार्थवादी प्रवृत्ति उसे विशिष्ट बनाती है। यह केवल गीतात्मक सौंदर्य नहीं, बल्कि समाज के हाशिये पर खड़े व्यक्ति की पीड़ा, विरोध और आशा का स्वर है। नवगीतकार यथार्थ को केवल चित्रित नहीं करते, बल्कि मानवता के पक्ष में हस्तक्षेप करते हैं। यही संवेदनशील प्रतिबद्धता नवगीत को आज के समय में अत्यंत प्रासंगिक और ज़रूरी बनाती है।
नवगीत में ग्राम-बोध: स्मृति, आत्मीयता और विसंगति
1. ग्राम्य जीवन के प्रति आत्मीय जुड़ाव
नवगीतकारों का झुकाव गाँव और ग्राम्य संस्कृति की ओर विशेष रूप से रहा है। गाँव उनके लिए केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्मृति, आत्मीयता और रिश्तों का केंद्र रहा है। यह मोहग्रस्तता नवगीतों में बार-बार उभरती है।
गाँव को नवगीतकार संस्कृति का जीवित प्रतीक मानते हैं, और उसमें व्याप्त भोलेपन, मासूमियत तथा पारिवारिक संरचना को बचाए रखने की आकांक्षा रखते हैं।
अनूप अशेष का यह नवगीत उसी चेतावनी का स्वर है:
“घर की किल्लत, भूख-बिमारी
हँस कर सह जाना
भैया! शहर नहीं आना।”
(नवगीत दशक)
यह आग्रह गाँव में बने रहने का नहीं, बल्कि शहरीकरण से होने वाले मूल्य-हानि के प्रति सावधान करने का है।
2. ग्राम-बोध बनाम शहरीकरण
नवगीतकार स्वयं भले शहरी जीवन जीते हों, परंतु उनके गीतों में ग्राम की स्मृतियाँ सजीव रूप में उपस्थित रहती हैं। गाँव उनके लिए संवेदनात्मक धरातल है, जबकि शहर विसंगति, बिखराव और मूल्यहीनता का प्रतीक बन जाता है।
माधवेन्द्र प्रसाद इस संबंध में लिखते हैं:
“नवगीतकार जिस सौंदर्य का सृजन करता है वह शहरीकरण के खोखलेपन तथा ग्राम्य जीवन के स्मृतिमूलक आत्मपरिवेश से अनुप्रणित है।”
इस दृष्टि में गाँव:
- रिश्तों की मिठास
- जीवन की सादगी
- सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक है।
जबकि शहर:
- संघर्ष का स्थल
- परिवार विघटन
- आत्मीयता का क्षरण है।
3. गाँव की वर्तमान स्थिति: अकेलापन और खालीपन
नवगीतकारों की ग्राम-संवेदना केवल सौंदर्य और स्मृति तक सीमित नहीं है, बल्कि गाँव की वर्तमान यथार्थता को भी चित्रित करती है — जहाँ अब केवल बुज़ुर्ग बचे हैं, और जवान पीढ़ी शहरों की ओर पलायन कर गई है।
अनूप अशेष का गीत ‘वह मेरे गाँव की हँसी थी’ इस पीड़ा को व्यक्त करता है:
“बूढ़े दिन हैं, गाँव अकेले, लड़के शहर
खेतों में कच्चे उजियारे, उनको बोए कौन?
थकी पुरानी देह, धूप को बेचे आधे-पौन,
नीम तले लेटे सन्नाटे फिर दोपहर – गये।”
यह चित्र शारीरिक थकावट, अकेलेपन और जीवन की जर्जरता का है।
4. विस्थापन और आंतरिक द्वंद्व
शहरों में रोज़गार और सुख-सुविधाओं की चाह ने ग्रामीणों को भले पलायन के लिए विवश किया हो, परंतु गाँव से उनका भावनात्मक रिश्ता नहीं टूटा। वे गाँव को त्यागकर भी आत्मतः उससे अलग नहीं हो पाते।
शिवबहादुर सिंह भदौरिया की “नवगीत दशक” का गीत इस द्वंद्व को उजागर करता है:
“गाँव से भागा लेकिन यहाँ भी नहीं सँवरा,
चलते क्षण नाई जो दिखा गया आरसी।
व्यर्थ रही, अक्षत सब झूठा था ज्योतिषी,
शनि प्रकोप पहले-सा ही
ज्यों का त्यों ठहरा।”
शहर भी उन्हें अपनाता नहीं, और गाँव छूट चुका होता है — यही है नवगीतकार का विस्थापन बोध।
5. गाँव का सांस्कृतिक महत्त्व और विघटन
गाँव जहाँ संस्कार, आत्मीयता और जीवन-मूल्य का संरक्षक है, वहीं अब वह भी बदलाव, टूटन और आर्थिक दबाव से अछूता नहीं रहा।
मयंक श्रीवास्तव अपने गीत ‘सहमा हुआ घर’ में लिखते हैं:
“गाँव नंगा कर दिया है कारखानों ने,
और खुशियाँ छीन कर रख ली सयानों ने।”
योगेन्द्रदत्त शर्मा के शब्दों में:
“गाँव जब पीछे शहर से छूट जाता है,
बस्तियों में काँच-सामन टूट जाना है।”
(खुशबुओं के देश)
यह ग्राम्य संस्कृति का विघटन और नवगीतकार की असहाय पीड़ा है।
6. नवगीत में ग्राम-बोध: एक निष्कर्ष
नवगीतों में ग्राम-बोध केवल सौंदर्यपरक स्मृति नहीं, बल्कि आधुनिकता के दबाव में जीवनमूल्यों की लड़ाई भी है। नवगीतकार:
- एक ओर गाँव की आत्मीयता को बचाए रखना चाहता है,
- दूसरी ओर शहर की व्यावहारिकता को स्वीकार भी करता है,
- परंतु मूल्य-परिवर्तन को लेकर चिंतित है।
इस द्वंद्व को ही नवगीत की भावनात्मक ऊँचाई और यथार्थबोध का आधार कहा जा सकता है।
नवगीत में ग्राम-बोध न केवल विषयवस्तु है, बल्कि उसकी संवेदना और दृष्टिकोण का मूल स्वरूप है। यह एक प्रकार से आधुनिकता और परंपरा के बीच खड़े भारतीय मन का सांस्कृतिक संघर्ष है, जो गाँव की स्मृति में अपनी पहचान खोजता है, और शहर की भीड़ में अपनी आत्मा।
नवगीत में नगर-बोध: आधुनिक जीवन की विडंबनाओं का यथार्थ चित्रण
1. नगर: नकारात्मक मूल्यों का प्रतीक
नवगीतों में शहर एक ऐसे स्थान के रूप में उभरता है, जहाँ
- सांस्कृतिक ह्रास,
- पारिवारिक विघटन,
- संवेदनहीनता,
- उपभोक्तावाद,
- नकलीपन,
- शोषण और घुटन,
- और अजनबियत जैसे भाव प्रमुख हैं।
नवगीतकार शहर को आधुनिक यंत्रवादी जीवन का दुष्परिणाम मानते हैं और उसके विरुद्ध एक वैकल्पिक सौंदर्य दृष्टि की तलाश करते हैं।
राजेन्द्र गौतम के शब्दों में:
“ध्वंसक अणु-अस्त्रों के आतंक के साये में, यांत्रिक युग के भयावह तनाव में, भौतिकता के विस्फोट से मानवीय संबंधों की खंडितता के बीच, आदर्शो के टूट-बिखर जाने वाले खोखलेपन के दौरान, अनिश्चय की अंधेरो, सुरंगों से गुजरते हुए, मुखौटाधारी राजनीति के परिहास – नाटक के बीच तथा मूल्यों की भित्ति को भरभराकर गिरते देखते हुए भी जीवन में सौंदर्य की एक नवीन सौंदर्य की खोज ही मानवीय विश्वास की उपलब्धि की एक मात्र राह हो सकती थी और यह खोज जिस प्रकार के सौंदर्य तक इस पीढ़ी को ले गयी, उसकी मूल सरंचना का सौंदर्य की ’कैमिस्ट्री’ से भिन्न होना भी अपरिहार्य था, सम्भवत: इसीलिए नवगीतकार ने मशीनी कोलाहल के बीच लयों का संधान किया है, तनावों के बीच संवेगों को अभिव्यक्ति दी है, एक- रस भौतिकता के बीच प्राणवान बिम्बों का सर्जन किया है, बिखराव और टूटन के बीच शिल्प को संश्लिष्टीकृत रुप दिया है।”
2. यांत्रिक जीवन और मध्यवर्गीय पीड़ा
शहर में जी रहा व्यक्ति मशीन बन चुका है।
सम्बंधों की ऊष्मा, प्रकृति का सौंदर्य, और अंतर्मन की सहजता – सब शहरी आपा-धापी में खो गए हैं।
माहेश्वर तिवारी का गीत ‘हरसिंगार कोई तो हो’ इस पीड़ा को दर्शाता है:
“शहर हो गए, सारे गुलमोहर, अमलतास,
भीड़ महानगर हो गये।
सुबहें जगीं, जली अँगीठियाँ
धुआँ पहनने लगे मकान,
चीखों से भर गई दिशायें,
शोर पहन सुन्न हुए कान,
सोय कमरे उठकर सफर हो गये।”
यहाँ भीड़, धुआँ, शोर और चीखें शहर की संवेदनहीनता और विकृत सामाजिक संरचना का प्रतीक बनती हैं।
3. आधुनिकता की विडंबना: विज्ञान और विकास का खोखलापन
नवगीतकारों ने आधुनिक विज्ञान और शहरी विकास पर तीखा व्यंग्य किया है।
सड़कों की गंदगी, कूड़ा-कचरा, असंवेदनशील भीड़ और सड़ता हुआ परिवेश – इन सबसे “विकास की साक्षी” का व्यंग्य उभरता है।
देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’ लिखते हैं:
“अंडे प्याज मुँग फलियों
केलों के छिलकों, व्यक्त निरोधों
और रद्दी कागज के टुकडों,
सिगरेट के खाली डिब्बों से
अटी- पटी ये लम्बी सडकें
ये साक्षी है वैज्ञानिक विकास की।”
(कुहरे की प्रत्यांचा)
4. मुखौटाधारी शहरी समाज और संबंधों की जड़ता
शहर के लोगों का आचरण बाहरी मुस्कान और भीतर की क्रूरता का द्वंद्व रचता है।
औपचारिकता, स्वार्थ, धोखा और संवेदनहीनता इस जीवन को खोखला बना देते हैं।
श्रीकृष्ण तिवारी का ‘सन्नाटे की झील’ गीत इस द्वैध को दर्शाता है:
“बाहर से हँसते है लोग
अन्दर से रोते है लोग
जाने यह कैसी आबोहवा
जाने यह कैसे लोग,
आँखों में बर्फीली झील,
ओठों पर बारूदी फास,
कानों में जंगल का शोर,
बहरा है मन का आकाश।”
यह संवेदनहीन आधुनिक मानव की आत्मा की थकावट और भावशून्यता का चित्रण है।
5. शहर: घुटन, उलझन और नैतिकता का संकट
शहर अब पत्थरों का शहर बन गया है —
जहाँ स्वच्छ हवा नहीं, केवल धुएँ के छल्ले हैं,
जहाँ संबंधों में घुटन है, और
नैतिकता, करुणा, प्रेम जैसी बातें अब शब्दकोश तक सीमित हो गई हैं।
शांति सुमन का गीत ‘ओ प्रतीक्षित’ इन विषमताओं को सामने लाता है:
“यह शहर पत्थरों का शहर
टूटी हुई सुबह यहाँ
झुकी हुई शाम
जेलों से दफ्तर तक
शापित आराम
गाठों सी गालियों में भरी-भरी बदबू
साफ हवा की जगह पियें सभी जहर
पत्थरों का शहर।
घुटते सम्बधों की
चर्चा बदनाम,
धुएँ के छल्लों-सा
जीना नाकाम
मकड़ी के जालों-सी बिछी हुई उलझनें
सतही शर्तो से सब दबे हुए पहर
पत्थरों का शहर।”
6. शहर बनाम गाँव: नवगीतकार का द्वंद्व
शहरी जीवन से घृणा, असंतोष, थकावट के बावजूद नवगीतकार उससे पूरी तरह अलग नहीं हो पाता।
वह उसकी गति में शामिल भी होता है,
पर बार-बार ग्राम्य स्मृतियों में लौटता है —
वहाँ वह संवेदनाओं का पुनराविष्कार करता है।
7. नवगीतों में नगर-बोध की विशेषताएँ
बिंदु | वर्णन |
---|---|
मुख्य प्रतीक | घुटन, औपचारिकता, टूटन, मुखौटे, शोर, प्रदूषण |
भावनात्मक प्रतिक्रिया | असंतोष, निराशा, व्यंग्य, बिखराव |
संवेदनशील चित्रण | संबंधों की जड़ता, संवेदना का क्षरण |
द्वंद्व | शहर की विवशता बनाम गाँव की स्मृति |
कवियों का प्रयास | जीवन की असह्यता में भी सौंदर्य तलाशना |
नवगीत में नगर-बोध केवल शहर का भौतिक चित्रण नहीं,
बल्कि आधुनिक जीवन की संकटग्रस्त आत्मा की पुकार है।
यह मनुष्य के संवेदनात्मक, नैतिक, और सांस्कृतिक ह्रास को उजागर करता है —
और सौंदर्य के पुनर्निर्माण की बेचैनी से भर जाता है।
नवगीत में प्रकृति-प्रेम: ग्राम्य संवेदना की आत्मीय अभिव्यक्ति
1. ग्राम्य परिवेश और प्रकृति का अंतर्संबंध
नवगीतकारों के लिए गाँव मात्र एक स्थान नहीं, बल्कि संवेदनात्मक जड़ है।
वहाँ की प्रकृति – खेत, नदी, हवा, तिथियाँ, ऋतुएँ –
गीतों की आत्मा बन जाती है।
गाँव प्रती निष्ठा, सांस्कृतिक परंपरा, और प्रकृति से आत्मीय जुड़ाव नवगीतों की मूल प्रवृत्तियों में है।
2. स्वतंत्र विषय के रूप में प्रकृति
नवगीत में प्रकृति केवल प्रसंगवश नहीं आती,
बल्कि कई रचनाकारों ने उसे मुख्य विषय बनाकर
रागात्मक, रोमांटिक, और मानवीय भावनाओं से जोड़ा है।
प्रमुख रचनाकार:
- रामदरश मिश्र
- रवीन्द्र भ्रमर
- रामनरेश पाठक
- शंभुनाथ सिंह
- ठाकुरप्रसाद सिंह
इनके गीतों में प्रकृति संयोग-वियोग, उल्लास, उन्माद, और मन की संवेदनाओं को प्रतिबिंबित करती है।
3. शंभुनाथ सिंह का ‘कातिक की धरती’
(गीत: ‘माध्यम मैं’)
“रोम-रोम में छबि है छाँई,
त्रिवली-सी है खिंची हराई,
सोही-सी रूप लुनाई,
अंग-अंग से झरती
कातिक की धरती।”
इस गीत में कातिक महीने की धरती को
संवेदना, रूप, रंग और रस में डुबोकर
पूरी धरती को सजीव सौंदर्य का रूप बना दिया गया है।
4. प्रकृति चित्रण की कलात्मक विशेषताएँ
नवगीतों में प्रकृति का चित्रण केवल बाह्य सौंदर्य तक सीमित नहीं,
बल्कि उसमें काव्यात्मक अलंकरण एवं मानवीकरण की बारीकियाँ भी देखी जा सकती हैं:
- आलंबन – मन के भावों से प्रकृति को जोड़ना
- उद्दीपन – स्मृति या भाव जाग्रत करने वाली प्राकृतिक वस्तुएँ
- अलंकरण और प्रतीक – रूपकों के माध्यम से प्रकृति को चित्रित करना
- मानवीकरण – प्रकृति को मनुष्य की तरह व्यक्त करना
उदाहरण:
“छौने आकाश के धरती पर झुके – झुके
क्षिप्रा तट, मेघदूत रुके – रुके।”
यहाँ आकाश, धरती, नदी और बादल सब जैसे एक सजीव प्रेमकथा में बदल जाते हैं।
5. लोकजीवन और प्रकृति का समन्वय
प्रकृति का चित्रण नवगीतों में अक्सर लोकजीवन के साथ जुड़ा होता है।
यह प्रकृति कृत्रिम नहीं, बल्कि ग्रामीण संवेदना से उपजी हुई है।
रमेश रंजक के गीत ‘गीत विहग उतरा’ में लोक व प्रकृति का सुंदर समन्वय मिलता है:
“बिखर गई पुरवा की अलकें
सारे घट में
फैल गई एक लहर गर्भ गर्भ अंतर में
अकुलाए यादों के फूल।”
यहाँ पुरवा (हवा) की अलकें, और गर्भ की लहरें –
आत्मा की गहराइयों में उतरती हैं।
6. नवगीत में प्रकृति: सौंदर्य और संवेदना का सेतु
पक्ष | विशेषताएँ |
---|---|
भूमि | गाँव, खेत, नदी, ऋतु, मौसम |
काव्य गुण | उल्लास, वियोग, स्मृति, आत्मीयता |
शैली | प्रतीकात्मकता, मानवीकरण, अलंकरण |
भाव-संवेदना | ग्राम्य संस्कृति से गहरी आत्मीयता |
प्रभाव | मन और प्रकृति के अदृश्य रिश्तों का स्पर्श |
नवगीतों में प्रकृति एक मूक पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि भावों की सजीव वाहिका है।
यह ग्राम्य संस्कृति, आत्मीय स्मृतियों और भारतीय जीवन दृष्टि का प्रतिबिंब है।
नवगीतकारों ने प्रकृति के माध्यम से जीवन की कोमल अनुभूतियों, सौंदर्यबोध और मानवीयता को व्यक्त किया है।
नवगीत में प्रणय-बोध: यथार्थ, स्मृति और आत्मीयता का समन्वय
1. छायावाद से भिन्न आधुनिक प्रणय-बोध
नवगीत में प्रणय का चित्रण छायावाद की कल्पनाशीलता और रहस्यात्मकता से भिन्न होकर यथार्थपरक, आत्मीय और संवेदनात्मक बन गया है।
- छायावाद में जहाँ प्रकृति और प्रेम के चित्रण में रूपात्मक सौंदर्य था,
वहीं नवगीत में प्रणय का संबंध सहजीवन, संघर्ष, और सामाजिक यथार्थ से है। - यहाँ नारी भोग्या नहीं, बल्कि सहधारिणी और जीवन की शक्ति-स्रोत बनकर आती है।
📝 नवगीत की प्रणयी नारी की विशेषताएँ:
गुण | विवरण |
---|---|
सहधारिणी | जीवन की समस्याओं को मिल-बाँटकर हल करती है |
स्वावलंबिनी | पुरुष पर आश्रित नहीं, समान भागीदार |
संवेदना की वाहिका | करुणा, आस्था, दया, विश्वास की प्रतीक |
ऊर्जास्रोत | प्रेरणा देने वाली सशक्त स्त्री |
2. प्रणय में भावनात्मक गहराई और आत्मीयता
राजेन्द्र गौतम के नवगीत ‘गीत पर्व आया है’ में नारी के प्रति यही आत्मीय दृष्टि देखी जा सकती है:
“देह कंचन की नहीं,
वासना भींगी,
तुम भावनाओं का
मधुर आधार भी तो हो।”
इसमें स्त्री देह की वस्तु नहीं,
बल्कि संवेदनात्मक आधार है –
प्रेम का आध्यात्मिक रूप, न कि केवल शारीरिक आकर्षण।
3. आधुनिक जीवन और प्रणय की विसंगति
शहरीकरण और आधुनिक जीवन शैली ने प्रणय संबंधों में विलगाव, संशय और यांत्रिकता ला दी है।
जहीर कुरेशी के नवगीत ‘एक टुकड़ा धूप’ में यह पीड़ा स्पष्ट है:
“पत्नी निकली सुबह
शाम को दफ्तर से लौटी,
पति का नाइट शिफ्ट
सात दिन में फिर से लौटी।”
- यहाँ संपर्क का अभाव और
- समय का टकराव
प्रणय को भावनात्मक टकराव में बदल देता है।
4. स्मृतिमूलक प्रणय और अतीत की छाया
आज के व्यस्त और विसंगतिपूर्ण समय में नवगीतकार वर्तमान में प्रणय के क्षण नहीं खोज पाता,
बल्कि स्मृति में बसे पुराने प्रेम क्षणों में आश्वस्ति तलाशता है।
बुद्धिनाथ मिश्र (“जाल फेंक रे मछेरे”) लिखते हैं:
“ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाँहें
और मेरे गुलमुहर के दिन
आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन”
- कोंपलें, गुलमुहर, पल-छिन जैसे बिंब
स्मृति और सौंदर्य के क्षणिक लेकिन गहन अनुभव को उजागर करते हैं।
5. यांत्रिकता और भोगवाद के बीच प्रेम का संघर्ष
वर्तमान में रिश्तों में उपयोगितावाद और भौतिकवादी दृष्टिकोण ने प्रणय की भावनात्मक गहराई को खोखला कर दिया है।
जहीर कुरेशी ‘नवगीत दशक’ में लिखते हैं:
“रिश्तों की सड़कें
अब जाती नहीं भावना तक,
आज आदमी पर होता है
कम्प्यूटर का शक,
गाते फिरते हैं ‘रिकॉर्ड’ से
अपने दुखड़े लोग।”
- यहाँ प्रणय सजीव स्पर्श नहीं,
रिकॉर्डेड भावनाओं का कृत्रिम प्रदर्शन बन गया है।
6. देह के माध्यम से प्रेम तक की यात्रा
कुछ नवगीतों में प्रणय के फ्रायडीय आयाम भी दृष्टिगोचर होते हैं –
जहाँ ‘देह’ प्रवेश द्वार है, किंतु उद्देश्य गहरे प्रेम और आत्म-संवाद तक पहुँचना होता है।
शान्ति सुमन (‘परछाईं टूटती’) लिखती हैं:
“घंटों इस तरह दिखती हुई
अजन्ता याद आती,
आँख मुँदे प्रशंसा पिए
उँगलियाँ थिरकाती,
अलग-क्षण के अलग ये किस्से
नींद ही खो गई।”
- यह निजता में डूबा एकांत प्रेम क्षण है,
जो अब केवल स्मृति बन कर रह गया है।
7. प्रणय की विफलता, तटस्थता और छटपटाहट
योगेन्द्रदत्त शर्मा ‘खुशबुओं के दंश’ में प्रेम की विफलता और हताशा को बहुत गहरे और सौंदर्यपूर्ण चित्रों से दर्शाते हैं:
“अब न लौटेंगे कभी
उन्माद के वे पल सुहाने!
खो गये वे मेध उन्मन।
ध्वस्त-क्षत अमराइयाँ हैं।
मौन पेड़ों की शिखा पर
डूबती परछाइयाँ हैं।
झील थक कर सो गई हैं
सो गई उन्मन मुहाने।”
- ये पंक्तियाँ मन के क्षत-विक्षत बागों का चित्र हैं,
जहाँ अब सिर्फ मौन और स्मृति है।
8. यथार्थवादी प्रणय: भावना और ठंडेपन का द्वंद्व
मधुर कमल (‘महुआ और महावर’) में
प्रणय के ठंड़ेपन से उपजे आक्रोश और अधूरी कामनाओं को स्वर देते हैं:
“कब तलक तुम
बर्फ-सी लेटी रहोगी,
रूबरू हो।
आज थोड़ी
आँच तो सुलगे।”
- यह अश्लीलता नहीं,
बल्कि जीवन की यांत्रिकता से उपजी उदासी और
मानव संवेदना की पुकार है।
प्रणयबोध की विशेषताएँ (सारांश रूप में)
तत्व | नवगीतों में स्वरूप |
---|---|
नारी का चित्रण | सहधर्मिणी, स्वावलंबी, संवेदना की वाहक |
प्रेम का स्वरूप | स्मृतिमूलक, यथार्थपरक, गहरा और आत्मीय |
आधुनिक समस्याएँ | यांत्रिकता, शिफ्ट जीवन, बाजारवाद |
प्रमुख प्रतीक | गुलमुहर, कोंपलें, अमराइयाँ, परछाइयाँ |
प्रमुख रचनाकार | जहीर कुरेशी, शांति सुमन, मधुर कमल, बुद्धिनाथ मिश्र, योगेन्द्रदत्त शर्मा |
नवगीत में प्रणय कोई आदर्श कल्पना नहीं,
बल्कि जीवन की जटिलताओं में पलने वाला अनुभव है।
यहाँ प्रेम की स्मृति है, यथार्थ है,
कभी संघर्ष, कभी छटपटाहट, और कभी गहरी आत्मीयता।
प्रणयबोध, नवगीत को उसकी मानवीय ऊष्मा और आधुनिकता से जूझती संवेदना प्रदान करता है।
जिजीविषा और नवगीत में सौंदर्य-बोध की चेतना
नवगीत केवल भावनात्मक या प्रकृति चित्रण तक सीमित नहीं रहा है, अपितु यह जीवन के संघर्ष, विषमता, अन्याय और निराशा के बीच भी आशा की किरण खोजने वाली कविता विधा है। नवगीतों में जिजीविषा – अर्थात जीवन के प्रति एक अकथनीय ललक, जूझने और जिंदा रहने की जिद – को एक विशेष सौंदर्य-बोध के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह सौंदर्य केवल कोमलता या सजावट नहीं, बल्कि विद्रोह, प्रतिकार और परिवर्तन की आकांक्षा से उपजा है।
1. नवगीत: नये सौंदर्य-बोध का काव्य
माधवेंद्रप्रसाद के अनुसार नवगीत में शिल्प और कथ्य दोनों स्तरों पर नवता है। यह काव्य जीवन की विसंगतियों को उजागर करता है – ऊपर से सब सामान्य प्रतीत होते हुए भी भीतर गहरी गड़बड़ियाँ हैं, जिन्हें नवगीतकार तोड़ना चाहता है।
माधवेंद्र प्रसाद के अनुसार –
“नवगीत नये सौंदर्य-बोध का काव्य है जिसे शिल्प और कथ्य दोनों स्तरों पर नवता प्राप्त हुई है। जिजीविषा का सौंदर्य भाव – प्रवणता का निदर्शक है… नवगीत में वर्तमान जीवन का विसंगति-बोध है। ऊपर से सब ठीक लग रहा है, लेकिन भीतर गड़बड़ है। शीशे की दीवार की तरह… नवगीतकार इसे तोड़ना चाहता है क्योंकि मूल्यहीनता का प्रारंभ, जिसकी परिणति निराशा में होती है, यहीं से होता है।”
इसी भावना को माहेश्वर तिवारी ने ‘हरसिंगार कोई तो हो’ में व्यक्त किया है—
“कोई तो हाथों में
पत्थर ले
तोड़े शीशे की दीवार को।”
यह नवगीतकारों की ‘कसमसाहट’ और ‘विद्रोह’ का प्रतीक है—जहाँ निराशा भी है, तो आशा भी। वह ‘टूटा’ है, ‘परायापन’ उसे सालता है, परंतु ‘मृत-गीत’ वह कभी नहीं गाता।
2. अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध
नवगीतकार उस विसंगत समाज की विडंबनाओं से टकराने की हिम्मत करता है जहाँ सब कुछ “कोई फर्क नहीं” में ढल चुका है। डॉ. सुरेश की पंक्तियाँ निराशाजनक यथार्थ को स्वर देती हैं:
डॉ. सुरेश ने ‘नवगीत दशक’ में इस विद्रोही स्वर को यूँ व्यक्त किया है—
“कन्धे कुली बोझ शहजादे
कोई फर्क नहीं,
राजे कभी कभी महाराजे
कोई फर्क नही
अखबारों की रँगी सुर्खियाँ
बड़बोलों की बात
सूरज सोया गोदाम में
ठहरी काली रात
झूठी कसमें
झूठे वादे कोई फर्क नहीं”
यह उदासीनता और व्यवस्था का पतन नवगीतकार के भीतर प्रतिरोध का स्वर जगाता है। वह पार जंगल के नये सूर्यों को देखता है—संभावना की वह किरण जो उसे निराशा से बाहर निकालती है।
3. जिजीविषा, कवि की बेचैनी और परिवर्तन की पुकार
अन्यायपूर्ण स्थिति नवगीतकार को भीतर तक व्याकुल कर देती है। वह इसके विरोध में ‘तन कर खड़ा’ होना चाहता है। अब उसे पार जंगल के नये सूर्यों की संभावना दिखाई देने लगी है, जो उसे निराशा के गर्त से बाहर निकालती है।
वस्तुतः अराजक तंत्र ने लोगों की आत्मीयता, सहजता, उल्लास, आकांक्षा, उमंग, उत्साह और प्रेरणा—सभी को संदिग्ध कर दिया है। आम आदमी के पास अपनी समस्याओं से जूझते हुए जीवन को किसी तरह घसीटने के अलावा कुछ नहीं बचा। नवगीतकार ने इन समस्याओं को न केवल देखा है, बल्कि स्वयं भोगा है। यही उनके अनुभव की प्रामाणिकता है।
कुमार रवीन्द्र ने ‘आहत है वन’ में इस बेचैनी और आशा का स्वर इस प्रकार व्यक्त किया—
“पुष्पों की / नयी कथा
सुनते आकाश।
टेसू को साथ लिये
घूमते फलाश
मन में फिर जगा रहे धूप के सवाल।”
यही जिजीविषा कवि को परिवर्तन की पुकार करने के लिए प्रेरित करती है।
4. जनवादी चेतना और नवगीत का दृष्टिकोण
प्रगतिशीलता ने जनवादी चेतना को जगाया, जिसका प्रभाव बाद में प्रयोगवाद, नई कविता और साठोत्तरी कविता में दिखा। किंतु नवगीत में यह चेतना पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग की वर्गीय चेतना के रूप में नहीं आई। सत्ता पर काबिज लोग—चाहे वे जनता के प्रतिनिधि ही क्यों न हों—नवगीतकार की दृष्टि में शोषक थे।
इसके विपरीत, पूरी जनता—चाहे वह मध्यमवर्ग हो, ग्राम-शहर के संक्रमित लोग हों या जीवन की नवता के पक्षधर—नवगीत में पीड़ित मानव के रूप में चित्रित हुई। यहाँ आर्थिक कारण से अधिक मूल्यगत त्रास और सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया मुखर हुई, क्योंकि नवगीत पारंपरिक मानव-मूल्यों और सांस्कृतिक धरोहर की चेतना से उपजा था।
5. सांस्कृतिक विघटन पर क्रोध और संघर्ष का आह्वान
जब इन मूल्यों पर आघात हुआ, तो नवगीतकार क्रुद्ध हो उठा। नचिकेता ने ‘आदमकद खबरें’ में यह तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की—
“अंधे अंधियारे का,
गला हम दबोच लें।”
देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ के अनुसार यह समय ‘वंशी’ बजाने का नहीं, बल्कि संघर्ष का है। उन्होंने ‘कुहरे की प्रत्यांचा’ में लिखा—
“वंशी को गिरवी रख
ले आये शंख।”
यह ‘शंख’ युद्ध और संघर्ष का प्रतीक है।
6. अमूर्त व्यवस्था के विरुद्ध चेतावनी और जनजागरण
लोकतांत्रिक व्यवस्था में पनपे शोषकों के विरुद्ध यह नवगीतकार की अगाज है। यद्यपि उसके सामने शत्रु या विपक्ष स्पष्ट नहीं है, फिर भी वह अमूर्त हो चुकी व्यवस्था और उसके प्रतिनिधियों पर आघात करना चाहता है।
वह जनता को चेताता है कि जनशक्ति के माध्यम से ही अव्यवस्था में परिवर्तन संभव है। अब परिवर्तन की प्रतीक्षा उससे नहीं होती, इसलिए वह जनता को अपने अधिकारों के प्रति सजग करने की पुकार करता है।
7. जनता को जागृत करने की पुकार
नवगीतकार जनता को अपने अधिकारों के प्रति सजग करता है। सत्यनारायण की रचना “तुम ना नहीं कर सकते” जनता को संगठित संघर्ष हेतु प्रेरित करती है।
सत्यनारायण ने ‘तुम ना नहीं कर सकते’ में चेताया—
“जुल्म का चक्कर और तवाही कितने दिन
कितने दिन?
हम पर तुम पर सर्द सिपाही कितने दिन
कितने दिन?
बदलेगा अब तो यह आल्बम बदलेगा,
फिर हौवा बदलेगा, आदम बदलेगा
यह गोली, बन्दूक, सिपाही कितने दिन ?
कितने दिन?”
यह जिजीविषा पुरातन और जड़ को उखाड़ फेंकने की ताकत रखती है।
8. संघर्ष और परिवर्तन की दिशा
नवगीतकार सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के विघटन से आहत होते हैं और उन्हें पुनर्स्थापित करने की चेतना रखते हैं।
शंभूनाथ सिंह कहते हैं—
“ये उगी जंगली झाड़ियाँ काट दें।
आँख की चार जलती मशाले लिये।
सूर्य की भूमिका है निभाती कहो।”
कुँवर बेचैन ‘पिन बहुत सारे’ में दासता की जड़ें काटने और आस्था की कड़ी तोड़ने का संकल्प व्यक्त करते हैं—
“आज तक इतिहास में जो भी पली हो,
दासता के वृक्ष की जड़ खोखली हो,
लीक मरघट के मिटानी है हमें,
वे आग की लपटें बुझानी है हमें,
अस्थियाँ जीवित जहाँ अपनी जली हों आस्था की
उस कड़ी को तोड़ना है।
रुख हमें / उन रास्तों का मोड़ना है
पीढ़िया जिन पर बिना समझे चली हों।”
9. नवगीत की जिजीविषा का सौंदर्य
नवगीतकार की जिजीविषा सभी मनुष्यों की चेतना है—जीवन के प्रति ललक, आस्था, संघर्ष में विश्वास और परिवर्तन की पुकार। यही नवगीत का सच्चा सौंदर्य है, जो अन्याय के अंधेरे में भी आशा की मशाल जलाए रखता है।
नवगीतों में जिजीविषा केवल एक भाव नहीं बल्कि आंदोलन है, जो जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी संघर्ष, सुधार और सौंदर्य की खोज करता है। यह नवगीतकार की वैचारिक प्रतिबद्धता, मानवीय मूल्यबोध और सृजनात्मक दृष्टि का दर्पण है। यही कारण है कि नवगीत आज भी जीवन की वास्तविकता से जुड़कर पाठक को झकझोरता है, चेताता है और प्रेरित करता है।
नवगीत की वैचारिक प्रतिबद्धता: विविध दृष्टियों का समन्वय
नवगीत केवल भावों की कविता नहीं, बल्कि अपने समय और समाज से जुड़ी एक सशक्त वैचारिक संवेदना का स्वर है। यह परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व में स्थित एक ऐसी काव्य-प्रवृत्ति है जो न तो पूरी तरह शहरी है, न पूरी तरह ग्रामीण – बल्कि दोनों का अनुभव लेकर, उनकी अंतर्विरोधी स्थितियों को उजागर करती है। यद्यपि नवगीत किसी एक निश्चित वैचारिक पंथ का अनुकरण नहीं करता, फिर भी इसके भीतर सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक प्रतिबद्धता के स्वर स्पष्ट देखे जा सकते हैं।
1. नवगीत: लोक जीवन और शहरी संक्रमण का सम्यक् बोध
- नवगीत का मूल स्वर ग्रामीण लोकजीवन की आत्मीयता और शहरी यथार्थ की विसंगतियों से उपजा है।
- यह भारतीय परंपरा, संस्कृति और मूल्यबोध से गहराई से जुड़ा है, फिर भी यह आधुनिक जीवन की जटिलताओं और यांत्रिकता का भी आलोचक है।
- नवगीतकार गाँव की आत्मीयता, मिट्टी की गंध और संबंधों की ऊष्मा के पक्षधर हैं, वहीं शहर की अजनबियत, बनावटीपन और उपभोक्तावाद से असंतुष्ट।
“ग्रामीण संस्कृति के प्रति लगाव और शहरी ऊब का द्वंद्व ही नवगीत की पहचान बन गया है।”
2. नवगीत और वैचारिक स्वतंत्रता
- नवगीतकार किसी पूर्वनिश्चित वैचारिक ढांचे के अंतर्गत रचना नहीं करता।
- उसका सौंदर्यबोध, जीवन के सहज अनुभवों से उत्पन्न होता है, न कि किसी मतवाद से।
- वैचारिकता को सीमित कटघरे में बाँधने वाली प्रवृत्तियों से नवगीत सदा बचता आया है।
“नवगीतकारों ने किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के तहत गीत नहीं लिखे और लिखा भी न जाए क्योंकि जीवन का सौंदर्य उसकी आत्मा में निहित होता है।”
3. विचारों की विविधता और आत्मगत दृष्टिकोण
- नवगीत के क्षेत्र में अनेक मत और प्रवृत्तियाँ रही हैं, परंतु उनमें कोई एक निश्चित वैचारिक एकरूपता नहीं है।
- हर नवगीतकार अपनी निजी संवेदना, अनुभव और विचार के अनुरूप रचना करता है – यही उसकी ताकत और सीमा दोनों है।
- इस प्रवृत्ति को एक पंक्ति में समेटा जा सकता है:
“अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग।”
4. विचारात्मक प्रतिबद्धता के प्रमुख आयाम
हालाँकि नवगीत पूरी तरह किसी वैचारिक आंदोलन से नहीं जुड़ा, फिर भी इसके भीतर तीन प्रमुख वैचारिक स्वर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं:
क. सामाजिक विचार:
- समाज में व्याप्त विषमता, टूटते संबंध, जातीय-सांप्रदायिक विद्वेष, और शोषण के प्रति नवगीतकार की संवेदना स्पष्ट दिखती है।
- सामाजिक अन्याय और विघटन के विरुद्ध स्वर उठाना नवगीत का दायित्व रहा है।
ख. राजनीतिक विचार:
- व्यवस्था के प्रति असंतोष, शासक वर्ग की विफलताओं, सत्ता के दमन और जन आकांक्षाओं की उपेक्षा – ये सभी राजनीतिक विचारधाराओं के अंतर्गत नवगीत में अभिव्यक्त होते हैं।
- नवगीत सीधे सत्ता से टकराने का साहस करता है, भले ही वह किसी दलविशेष से नहीं जुड़ा हो।
ग. दार्शनिक प्रतिबद्धता:
- जीवन, मृत्यु, परिवर्तन, समय, और अस्तित्व जैसे दार्शनिक प्रश्नों को नवगीत अपने तरीके से उठाता है।
- जीवन की क्षणभंगुरता के साथ-साथ उसकी अनंत संभावनाओं को स्वीकार करने वाली दृष्टि इसमें निहित होती है।
नवगीत की वैचारिक प्रतिबद्धता कोई बँधी-बंधाई विचारधारा नहीं, बल्कि समसामयिक जीवन के विविध आयामों से उपजी एक सजीव चेतना है। यह चेतना सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक क्षेत्रों में सक्रिय होते हुए भी किसी एक मतवाद से बँधी नहीं है। यही इसकी खुली सोच और व्यापक दृष्टि की पहचान है, जो नवगीत को आज भी प्रासंगिक बनाए रखती है। आगे सामाजिक विचार, राजनितिक विचार और दार्शनिक प्रतिबद्धता तीनों का विवरण दिया गया है –
नवगीत में सामाजिक विचार: संकटबोध और आशावाद का द्वंद्व
नवगीत केवल व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह उस सामाजिक चेतना का दस्तावेज़ है जो समकालीन परिवेश की विसंगतियों, यांत्रिकता, और अजनबीपन को गहराई से महसूस करता है। नवगीतकारों ने समाज में व्याप्त निर्जीवता, किंकर्तव्यविमूढ़ता, और सांस्कृतिक विघटन को अपनी रचनाओं का केंद्र बनाया है।
1. सामाजिक यथार्थ और व्यवस्था-बोध
नवगीतकार समाज की व्यावस्थित बुनावट पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। वे स्वयं को इस स्थिति के लिए उत्तरदायी मानते हैं, लेकिन यह स्वीकारोक्ति दुखी आत्मा की प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति है।
देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ लिखते हैं –
“खदबदाते
क्रोध की असहायता में
कसाई के ठिये पर लटके
हम जिम्मेदार है
इस व्यवस्था के
शैल से गिर झाड़ पर अटके।“
यह आक्रोश व्यवस्था के प्रति है, लेकिन इसके भीतर एक आशावाद भी छिपा है कि परिवर्तन संभव है।
2. मूल्यगत परिवर्तन की चेतना
नवगीतकारों ने देखा है कि पुराने मूल्य ढह रहे हैं, और नए मूल्य आकार ले रहे हैं। हालांकि इन नए मूल्यों के प्रति वे संदेहशील हैं, फिर भी वे उनकी आहट को महसूस करते हैं।
देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ की पंक्तियाँ –
“ढ़ह रही परम्परा की / ऊँची मीनारें,
नए-नए मूल्यों की / उठती दीवारें।”
3. अनिश्चय और दिशाहीनता की स्थिति
समाज की वर्तमान अवस्था को लेकर नवगीतकारों में एक अनिश्चितता और भ्रम की स्थिति है। वे यह नहीं समझ पा रहे कि जो व्यवस्था है, वह किस दिशा में जा रही है।
वे लिखते हैं –
“मेरे घर में खड़ी व्यवस्था
इतनी घटिया है
पता नहीं चलता
इसकी सही दिशा क्या है।”
4. भाव की प्रधानता, विचार की सीमाएँ
नवगीत में विचार नहीं, भाव प्रधान है। यही कारण है कि नवगीतकार सामाजिक समस्याओं की व्याख्या तो करते हैं, परंतु उनका स्पष्ट समाधान प्रस्तुत नहीं करते।
यह एक सांस्कृतिक विमर्श है, जिसमें सामाजिक समस्याएँ तो हैं, पर उनका समाधान नहीं।
5. सामाजिक आशावाद की झलक
नवगीतकार वर्तमान की विसंगतियों से दुखी अवश्य हैं, किंतु उनमें आशा की ज्योति भी जलती रहती है। वे मानते हैं कि जो आज निर्बल है, वह कल शक्तिशाली होगा।
दर्पण के बिंब में –
“आज जो छोटा है,
निर्बल है,
कल बढ़कर मजबूत होगा,
अपने चौड़े पत्तों से
धूप-थके लोगों को छाँह देगा।”
6. सभ्यता-संकट और मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना
नवगीतकारों ने अनुभव किया है कि शहरीकरण, स्वार्थपरता, और अर्थ-लालसा से मानवीय संवेदनाएँ क्षीण होती जा रही हैं। युध्द और विनाश का भय भी उनकी कविता में है।
वे लिखते हैं –
“आती है मृत्यु-गंध / देशों के पार से।”
7. मानवता की विजय और प्रेम का पक्ष
नवगीतकार केवल अंधकार नहीं दिखाते। वे मानते हैं कि प्रेम, करुणा, सहानुभूति ही मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी है।
कुँवर बेचैन की ‘पिन बहुत सारे’ की पंक्तियाँ –
“जिसके मन में प्यार वही तो
सबसे बड़ा अमीर है,
माना उसकी मुट्ठी में
दुख-दर्दों की जागीर है
बाँटे प्रीत-बसन सदैव से
मन की फटी-कमीज ने।”
नवगीतकार किसी विशेष वाद या मत के अनुयायी नहीं होते, फिर भी उनकी रचनाओं में एक गहन सामाजिक प्रतिबद्धता दिखाई देती है। वे अपने समय की विसंगतियों को पहचानते हैं, उन्हें अभिव्यक्ति देते हैं, और आशा के बीज बोते हैं। यही उनकी कविता की ताक़त और नवगीत की सामाजिक प्रतिबद्धता का प्रमाण है।
नवगीत में राजनीतिक विचार: स्वतंत्रता के मोहभंग से जन-संघर्ष तक
नवगीतों में राजनीति एक गंभीर विषय के रूप में उभरती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के मोहभंग, लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन, और सत्ता-संचालन की निरंकुशता ने नवगीतकारों को गहराई से प्रभावित किया। नवगीतों में राजनीति का चित्रण मात्र तात्कालिक घटनाओं का विवरण नहीं, बल्कि जनता की पीड़ा, संघर्ष और असंतोष की भावनात्मक प्रस्तुति है।
1. स्वतंत्रता के बाद मोहभंग
नवगीतकारों के लिए आज़ादी कोई उत्सव नहीं रही, बल्कि एक छलावा बन गई। स्वशासन से अपेक्षाएं टूट गईं, और शासन तंत्र पर पूँजीवादी मानसिकता का कब्ज़ा हो गया।
“स्वतंत्र भारत का सुखद सपना टूट चुका है।”
सत्ता पर पूँजीवादियों का अधिपत्य,
आम जनता के साधनों का दुरुपयोग –
“जनता बेचैन हो उठी।”
2. लोकतंत्र का खोखलापन
लोकतंत्र के नाम पर जन-प्रतिनिधित्व का अपमान और वोटों की खरीद-फरोख्त नवगीतों में तीव्र आलोचना का विषय बने। जनता गूँगी, बहरी भीड़ में तब्दील हो गई है।
उमाकांत मालवीय (‘सुबह रक्त पलाश की’) –
“भीड़ की जरुरत है-
भीड़ जो अंधी हो
गूँगी हो, बहरी हो
भीड़-
जो बंधे हुए पानी सी ठहरी हो
भीड़-
जो मिट्टी के माधों की मूरत हो।”
यह लोकतंत्र की वास्तविक विफलता का कविता में रूपायन है।
3. महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ और उनका प्रभाव
नवगीतों में अनेक ऐतिहासिक राजनीतिक घटनाएँ झलकती हैं –
- भारत-पाक विभाजन
- भारत-चीन युद्ध
- आपातकाल (1975-77)
- जे. पी. आंदोलन
- इंदिरा गांधी की हत्या
- राजीव गांधी की हत्या
- कश्मीर, पंजाब, असम की समस्याएँ
इन घटनाओं ने कवियों को गहरे तक झकझोर दिया और नवगीतों में राजनीतिक आक्रोश और निराशा को जन्म दिया।
4. आपातकाल और तानाशाही की आलोचना
1970 के दशक की आपातकालीन राजनीति नवगीतों का एक प्रमुख विषय बनी। सत्ता का तानाशाही रूप, संविधान का उल्लंघन, और जनता का दमन – इन सबकी गूंज कई कविताओं में मिलती है।
अनुप अशेष (‘लौट आयेंगे सगुन पक्षी’) –
“बैठी है बस्ती एड़ी पर
जूते फटे उतार
दहशत पनप रही कोखों में
कुर्सी पर तलवार।”
यहां लोकतंत्र के नाम पर चल रही तानाशाही सत्ता की भयावहता को दर्शाया गया है।
5. राजनीतिक आंदोलनों की विफलता और थकान
कुछ नवगीतकारों को राजनीतिक आंदोलनों से हताशा भी है। उन्हें लगता है कि ये संघर्ष भी सत्ता परिवर्तन के सिवा कुछ नहीं कर पाए।
देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’ (‘कुहरे की प्रत्यांचा’) –
“बंद करो गर्जन-तर्जन
चुप भी बैठो
कौन सुनेगा ओ
अब बुढ़े शेर तुम्हें।”
यहाँ युवा आंदोलनों की निष्फलता पर कटाक्ष है।
6. अस्थिरता और लोकतंत्र की कमज़ोर नींव
जनता सरकार के गठन के बावजूद, स्थायित्व और विश्वास की कमी थी। यह अस्थिरता और लोकतंत्र की कमजोर नींव कवियों के लिए चिंता का विषय बनी।
कुँवर बेचैन (‘भीतर साँकल–बाहर साँकल’) –
“यह सर्दियों की भोर है
कैसे चढ़ेगी सीढ़ियाँ
सब कह रहे हैं यह सुबह
दिल की बहुत
कमजोर है।”
यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमज़ोर शुरुआत का प्रतीक है।
नवगीत में राजनीतिक विचार किसी एक विचारधारा के समर्थन में नहीं, बल्कि जन-आक्रोश, असंतोष, और सतत् पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति हैं। ये कवि किसी दल विशेष का प्रचार नहीं करते, बल्कि जनता की ओर से बोलते हैं, उस लोकतंत्र की बात करते हैं जो सत्ता के दंभ में कहीं खो गया है।
नवगीतों का यह राजनीतिक पक्ष उन्हें केवल सौंदर्य से नहीं, संवेदनशीलता और सक्रियता से भी भर देता है। वे सत्ता से सवाल करते हैं, न्याय की मांग करते हैं, और जनभावना को स्वर देते हैं।
नवगीत में दार्शनिक प्रतिबद्धता: भारतीय चिंतन और आधुनिक विसंगतियाँ
नवगीत अपने मूल में भाव प्रधान काव्य विधा है, फिर भी इसमें दार्शनिक चेतना का स्पष्ट संकेत मिलता है। नवगीतकारों ने जहाँ एक ओर राजनीतिक और सामाजिक संकटों की भावपूर्ण अभिव्यक्ति की है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारतीय लोकतंत्र, लोक, जीवन-मूल्य और आध्यात्मिक सोच को भी अपने काव्य का विषय बनाया है। यह दार्शनिक दृष्टि आधुनिक विचारधाराओं से संवाद करती है, परंतु अपनी जड़ें भारतीय चिंतन परंपरा में गहराई से जमाए रहती है।
1. भारतीय लोकतंत्र और लोकमूल्य की चिंता
नवगीतकार किसी एक वाद से बंधे नहीं हैं, परंतु वे आधुनिकता के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की नैतिक चुनौतियों और लोकमूल्यों के पतन को लेकर चिंतित अवश्य दिखाई देते हैं। यह चिंता उनके गीतों में एक भावनात्मक बोध के रूप में उभरती है, जो राजनीति से ऊपर उठकर दार्शनिक स्तर पर प्रश्न उठाती है।
“भारतीय लोकतंत्र का यह संकट भाव की गहराई में जाकर नवगीतकार को उद्वेलित करता है।”
2. आधुनिकता और विदेशी विचारधाराओं के प्रति प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण
नवगीत आधुनिक युग की देन है, अतः इसमें आधुनिक विचारधाराओं का स्वाभाविक प्रयोग भी हुआ है, जैसे –
- मार्क्सवाद
- मनोविश्लेषणवाद
- अस्तित्ववाद
लेकिन नवगीतकारों की दृष्टि इन विचारों पर आलोचनात्मक और प्रतिक्रियात्मक रही है। वे इन वादों से सहमत नहीं होते, बल्कि भारतीय मूल्यों के टूटने की प्रतिक्रिया में इन्हें स्वीकार करते हैं।
“विदेशी विचारधाराएँ नवगीतकार के लिए समाधान नहीं, एक असंतोष का कारण बनती हैं।”
3. मार्क्सवाद और जनसरोकार
हिन्दी साहित्य पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव पड़ा है। नवगीतकारों ने शोषित वर्ग, मेहनतकश जनता, वंचितों के जीवन को अपने गीतों में जगह दी है। हालाँकि नवगीत इस वाद के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध नहीं है, लेकिन उसमें जनसंवेदना और सामाजिक न्याय की आकांक्षा को स्पष्ट देखा जा सकता है।
4. मनोविश्लेषणवाद और साहित्य की सीमाएँ
सिगमंड फ्रायड के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांतों का असर भी नवगीत पर पड़ा, विशेष रूप से कुंठा और काम-चेतना के संदर्भ में। लेकिन नवगीतकारों ने इसे भारतीय साहित्यिक संवेदना के अनुकूल नहीं माना।
“फ्रायड के पशुत्व को महत्व देने से साहित्य दूषित हुआ है।”
“निजी अनुभूतियों को जबरन जन-सरोकार का जामा पहनाया गया।”
इस आलोचना के पीछे नवगीतकार की यह स्पष्ट मंशा रही है कि भारतीय साहित्य का आधार आत्मा और मूल्यों पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल कुंठित मनःस्थितियों पर।
5. अस्तित्ववाद और मानव जीवन की विसंगतियाँ
अस्तित्ववाद के प्रभाव से नवगीत में ऊब, घुटन, अनास्था, पीड़ा, संत्रास, आत्मपरायापन जैसे भावों की अभिव्यक्ति हुई। लेकिन यह प्रभाव स्थायी समाधान की ओर नहीं ले जाता।
“मानव की जिजीविषा संदिग्ध प्रतीत होने लगी।”
“साहित्य के समाज से खारिज हो जाने के पीछे यही प्रवृत्तियाँ कारण बनीं।”
नवगीत इन प्रवृत्तियों को मात्र एक क्षणिक प्रभाव के रूप में स्वीकार करता है और उससे बाहर निकलकर भारतीय चेतना की ओर लौटता है।
6. भारतीय चिंतन के प्रति प्रतिबद्धता
कुँवर बेचैन अपने गीतों में विदेशी वादों को ठुकराकर भारतीयता के पक्ष में खड़े होते हैं।
‘पिन बहुत सारे’ –
“जिन्होंने खरीदी है
दूर से, विदेशों से
टूटी बैसाखियाँ
वे सब तो कहलाए
बुद्धिमान, तगड़े
हम पूरे आदमी
अपने ही पाँव खड़े
फिर भी तो घोषित है – लंगड़े।”
यह व्यंग्य मात्र नहीं, बल्कि एक दार्शनिक चेतावनी है – आत्मबल और स्वदेशी चिंतन की महत्ता को न भूलो।
7. जीवन की क्षणभंगुरता और दार्शनिक बोध
नवगीतों में जीवन को लेकर एक गंभीर दार्शनिक दृष्टि भी है –
जीवन क्षणिक है, परंतु उसी क्षण में प्रेम, सत्य, आत्मिक सुख की खोज की जानी चाहिए।
कुँवर बेचैन (‘पिन बहुत सारे’) –
“साँसों का तो इस दुनिया में
आने-जाने का काम है
और जिन्दगी भी
ज्ञानी की भाषा में
मोहमाया है।”
यहाँ भारतीय दर्शन की अस्थायी जीवन-दृष्टि और मोहमाया का भाव स्पष्ट झलकता है।
नवगीत में अस्तित्ववादी अनुभूतियाँ: जीवन के अकेलेपन और संवेदना की अभिव्यक्ति
नवगीत मुख्यतः भावप्रधान काव्य है, जिसमें वैचारिक प्रतिबद्धता की अपेक्षा मानव जीवन की संवेदनात्मक अनुभूतियाँ अधिक मुखर होती हैं। यद्यपि नवगीत किसी एक वाद या दर्शन से बंधा नहीं है, तथापि अस्तित्ववाद की गूंज उसमें स्पष्ट रूप से सुनाई देती है। नवगीतकारों ने ऊब, अकेलापन, टूटन, बेगानापन, यांत्रिकता, अजनबीपन और जीवन की निरर्थकता जैसी अस्तित्ववादी अनुभूतियों को भाव और बिंबों के माध्यम से अत्यंत प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है।
1. ऊब और जीवन की निस्सारता
नवगीत दशक में जीवन के प्रति ऊब और अनाकर्षण को इस प्रकार प्रकट किया गया है:
“मन न लगे मेले में
और अकेले जी ऊबे
वहाँ निहारू अधिक
किरन लिए अनगिन”
यहाँ ‘मेलों’ जैसे सामाजिक जीवन में भी मन का न लगना, एक अंतर्द्वंद्व और ऊब का प्रतीक बनकर आता है, जो अस्तित्ववादी अनुभूति का आधार है।
2. अकेलापन और मानसिक द्वंद्व
हरसिंगार कोई तो ही में अकेलेपन की गहन अनुभूति अत्यंत सहजता से प्रस्तुत हुई है:
“ताना जाले सा अकेलापन
कहाँ तक झेले अकेलापन”
यह अकेलापन सामाजिक जीवन में रहते हुए भी एक आंतरिक निर्वासन का अनुभव कराता है – जो अस्तित्ववाद का मूल भाव है।
इसी भाव की पुनरावृत्ति ‘सन्नाटे की झील’ में और भी विस्तार के साथ आती है:
“एक जंगल की नदी सा
लाल-पीली रोशनी में
यह भटकता मन किसे सौंपूँ
हर तरफ आकाश सा फैला
अकेलापन कहाँ बाँहूँ।”
3. टूटन और अस्थिरता की पीड़ा
हरापन नहीं टूटेगा नवगीत में जीवन की नीतियों, प्रतिबद्धताओं और संबंधों की बार-बार टूटती हुई स्थायित्वहीनता को इस रूप में दर्शाया गया है:
“मुझे हर तीसरे दिन
नीतियों का मुल बुलाता है
शाम कहती है कहो क्या बात है
एक शीशा टूट जाता है।”
यहाँ “शीशा टूटना” केवल बिंब नहीं, बल्कि जीवन की अस्थिरता, भंगुरता और मानसिक क्लेश का प्रतीक है।
4. बेगानापन और आत्मपरायापन
नवगीत अर्धशती में अपने ही सायों के बेगाने लगने की अनुभूति किसी गहरे अजनबीपन और आत्मविछिन्नता को दर्शाती है:
“कितने बेगाने लगते हैं थे अपने ही साये
सपने हमें यहाँ तक लाये।”
यह जीवन में सपनों के पीछे भागने और अंततः स्वयं से ही अपरिचित हो जाने की अस्तित्ववादी विडंबना है।
5. यांत्रिकता और संवेदनहीन समाज
नवगीत दशक में समाज की यांत्रिकता को गहरे बिंबों में बाँधा गया है:
“बाबा आदम से गुम हुए सभी
तोड़ते जमीन कुछ तलाशते
रूढ़ हो गयी सारी मुद्राएँ
अर्थ जरा जर जर से काँपते
कितना यांत्रिक आदत सा लगता
डूब रहा सूरज या हो विहान।”
यहाँ यांत्रिकता केवल जीवनशैली की नहीं, बल्कि भावनाओं, अभिव्यक्तियों और मूल्यों की जड़ता को दर्शाती है – जो आधुनिक अस्तित्ववाद की सबसे गंभीर चिंता है।
6. अजनबीपन और संगीहीनता
जहाँ दर्द नीला है शीर्षक नवगीत में अजनबीपन का दर्द गहरे रूप में उभरता है:
“कोई हमसफर नहीं है
कोई हमजुबां नहीं है
न पता है मंजिलों का
कोई रास्ता नहीं है।
जो पकड़ के बाँह मेरी
लिये जा रही कहीं पर
परछाई है किसी की
मेरी संगीनी नहीं है।”
यह अकेलापन और दिशाहीनता एक आध्यात्मिक और सामाजिक विघटन को दर्शाता है, जहाँ व्यक्ति केवल परछाइयों के साथ जी रहा होता है। – “परछाई है किसी की, मेरी संगीनी नहीं है।”
7. जीवन की प्रतिबद्धता ही नवगीत का दर्शन
नवगीत अस्तित्ववाद की इन अनुभूतियों को स्वीकार करता है, लेकिन वाद की सीमाओं में नहीं बंधता। उसका आग्रह किसी वैचारिक प्रतिबद्धता से नहीं, बल्कि मानव जीवन, संवेदना और सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता से है। वह जीवन की ऊब, टूटन और अकेलेपन को केवल निराशा में नहीं छोड़ता, बल्कि उससे उबरने की जिजीविषा और संघर्षशीलता भी दर्शाता है।
“नवगीत की वैचारिक प्रतिबद्धता जीवन के प्रति है, न कि किसी दर्शन के प्रति।”
इस प्रकार नवगीत एक ओर जहाँ अस्तित्ववाद की अंतर्द्वंद्वात्मक अनुभूतियों को आत्मसात करता है, वहीं दूसरी ओर भारतीय चेतना में विश्वास और पुनर्निर्माण की संभावना को भी जीवित रखता है।
नवगीत का शिल्प सौंदर्य: भाषा, लोकबोध और अभिव्यंजना कौशल
नवगीत अपने स्वरूप और संवेदना में जितना आधुनिक है, उतना ही वह ग्राम्य चेतना, लोकसंस्कृति और भाषिक सहजता से भी संपन्न है। इसका शिल्प ऐसा है, जिसमें प्रतीकों, बिंबों, मिथकीय तत्वों के साथ-साथ लोक भाषा, ग्राम-बोध और सांस्कृतिक शब्दावलियों का समावेश हुआ है। नवगीतकारों ने अपने अनुभवों को संवेदनात्मक गहराई और भाषिक परिपक्वता के साथ प्रस्तुत करते हुए नवगीत को प्रभावशाली बना दिया है।
1. ग्राम्य भाषा और लोकबोध से संवलित भाषा
नवगीत की भाषा सामान्यत: ग्राम जीवन के अनुभवों से जुड़ी हुई होती है। यह भाषा केवल विषयवस्तु तक सीमित नहीं है, बल्कि उसकी शैल्पिक सरंचना और छंद विधान में भी ग्राम्य चेतना का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है।
ठाकुर प्रसाद सिंह का काव्यसंग्रह ‘वंशी और मादल’ इसका स्पष्ट उदाहरण है, जिसमें संथाल परगना के लोकजीवन को न केवल विषय के रूप में लिया गया है, बल्कि उसकी भाषा और शिल्प में भी गाँव की सहजता झलकती है।
उदाहरण स्वरूप, इन ग्राम्य शब्दों का नवगीत में सजीव प्रयोग हुआ है:
उपले पाथना, कसम खाना, लबादे, चौरा, कागा, आस, असर, कोल्हू, ओसार, हिपरा, सुन्नर, बाँझिन, कुलच्छित, भात, भेड़ियाधसान, गर्दखोर, सिवान, डाभर आदि।
2. तत्सम शब्दों का कलात्मक प्रयोग
नवगीत में संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों का प्रयोग भी मिलता है, जो उसकी भाषा को प्रांजलता और सांस्कृतिक गहराई प्रदान करता है। ये शब्द नवगीत की विषयवस्तु को वेदना, दार्शनिकता और प्रतीकात्मकता से भर देते हैं:
स्त्रष्टा, नाराशंसी, ऋत्विक, निमिष, प्रज्ञा, स्वास्तिक, चक्रावर्तित, वैश्वानर, ऋतुमती, पुष्पधन्वा, पद्मगंधा, धूम्रवलयांकित आदि।
3. अभिव्यंजना कौशल और बिंब विधान
नवगीत का एक प्रमुख शिल्प तत्व है उसका अभिव्यंजना कौशल, जिसमें अप्रस्तुत योजना, मिथकीय संरचना, प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता का अत्यंत सटीक प्रयोग होता है।
रामदरश मिश्र की रचना ‘मेरे प्रिय गीत’ में अप्रस्तुत योजना का उत्कृष्ट उदाहरण है:
“अंधी है धूप यहाँ, प्यासा है पानी
चूस रही फूलों को बर्रे रानी
सारे मौसम चुप हैं किसके डर से?”
यहाँ धूप, पानी, बर्रे और मौसम जैसे प्रतीकों के माध्यम से राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों की आलोचना अत्यंत गहराई से की गई है।
4. लोकधुनों और क्षेत्रीय शब्दों का प्रयोग
कई नवगीतकारों ने लोकधुनों एवं क्षेत्रीय शब्द रूपों का भी प्रयोग किया है, जिससे गीतों में सांगीतिकता और जन-संवेदना की उपस्थिति बढ़ जाती है।
शंभुनाथ सिंह ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की कौव्वाली शैली का प्रयोग किया, वहीं अन्य गीतकारों ने अमवा, पछुआँ, कोइलिया, परदेशी, पियवा, टिकोरा, नवनवा, चिरइया, सजनवाँ जैसे शब्दों का गीतों में प्रयोग कर लोक जीवन को आत्मसात किया।
बुद्धिनाथ मिश्र की रचना ‘जाल फेंक दे मछेरे’ में लोकगंध इस प्रकार व्यक्त होती है:
“बौरायी कि अमवा की डार
पिया नहीं आये।
एक तो बैरिन मेरी
सनकी उमरिया
दूजी बसंती बयार
पिया नहीं आये।”
5. शहरी संवेदना और विसंगतियों की प्रस्तुति
यद्यपि नवगीत ग्राम्य जीवन से जुड़ा है, परंतु शहरी जीवन की विसंगतियाँ और मूल्यहीनता भी नवगीतों में तीव्रता से अभिव्यक्त हुई हैं। नगरों की चमक-दमक के पीछे छिपी संवेदनहीनता और नैतिक पतन को नवगीतकारों ने व्यंग्यात्मक शैली में उकेरा है।
उदाहरणस्वरूप:
“शील-शरम सब यहाँ बिकाऊ
बम्बईया बाना।”
“लाजो दिल्ली में बसकर
शरमाना भूल गयी है।”
इन गीतों में नगरी सभ्यता की असंवेदनशीलता, बाजारवाद और सांस्कृतिक विघटन को सशक्त अभिव्यक्ति मिली है।
6. संवेदनात्मक शिल्प की पूर्णता
नवगीत का शिल्प भाषिक प्रयोग, लोकबोध, प्रतीकों, बिंबों, छंद एवं संगीतात्मकता के समन्वय से बना है। यह न तो केवल लोकगीत है, न ही आधुनिकतावादी विमर्श का बंधक। इसमें नवता और परंपरा, गाँव और शहर, संस्कृति और विसंगति – सब एक साथ चलते हैं।
नवगीत की यह शिल्पिक विशेषता ही उसे आधुनिक हिंदी काव्यधारा में स्वतंत्र और सशक्त विधा के रूप में स्थापित करती है।
नवगीत की दार्शनिक प्रतिबद्धता किसी आयातित विचारधारा में नहीं, बल्कि भारतीय चिंतन परंपरा, मानव मूल्यों, और लोक-आस्था में निहित है।
वह आधुनिक विचारधाराओं से संवाद करता है, पर आत्मा से भारतीय बना रहता है। नवगीत में विचार नहीं, भाव का दर्शन है – जो मनुष्य को संघर्षों के बीच भी जीवन से प्रेम करना सिखाता है।
इसलिए नवगीत की दार्शनिक प्रतिबद्धता, भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी हुई है – एक पूर्ण मानव की तलाश में।
नवगीतधारा के प्रमुख स्वर
नवगीत हिन्दी काव्यधारा की एक सशक्त एवं संवेदनशील विधा है, जिसका विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के बीच हुआ। इस विधा ने भारतीय लोकचेतना, ग्राम्य जीवन, विसंगतियों और आधुनिकता के अंतर्विरोधों को गहराई से स्वर प्रदान किया। नवगीत को उसकी पहचान, गहराई और सांस्कृतिक आत्मा प्रदान करने में अनेक नवगीतकारों का योगदान रहा है। इन नवगीतकारों ने भाषा, शिल्प, संवेदना और विषयवस्तु – हर स्तर पर नवगीत को समृद्ध किया।
1. शंभुनाथ सिंह
नवगीत आंदोलन के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने न केवल ‘नवगीत दशक’ जैसे महत्वपूर्ण संकलन का संपादन किया, बल्कि नवगीत को वैचारिक गहराई और सामाजिक चेतना प्रदान की।
उनकी रचनाओं में प्रकृति, अकेलापन, सामाजिक यथार्थ और सांस्कृतिक आत्मबोध प्रमुख हैं।
उदाहरण – “कातिक की धरती”, “सन्नाटे की झील” जैसी रचनाएँ नवगीत की उच्चतम संवेदनात्मक उपलब्धियाँ हैं।
2. कुँवर बेचैन
नवगीत को दार्शनिक गहराई और जीवन की क्षणभंगुरता का भावबोध देने वाले प्रमुख रचनाकार।
उनकी कविता ‘पिन बहुत सारे’ में आधुनिकता के विरोधाभासों और भारतीय चिंतन की गहराई व्यक्त होती है।
उन्होंने नवगीत में विदेशी वादों के प्रभाव के प्रति सजग दृष्टिकोण अपनाया और भारतीयता को स्वर दिया।
प्रमुख भाव – आत्मगौरव, मूल्य बोध, आत्मचिंतन।
3. देवेंद्र कुमार ‘इंद्र’
नवगीत को भाव-सघनता और बिंबात्मकता देने वाले कवि।
उनकी भाषा में सरलता और सौंदर्य का संतुलन है।
उन्होंने ग्रामीण संवेदना को अत्यंत सशक्त रूप से प्रस्तुत किया।
4. जहीर कुरैशी
इनकी नवगीत रचनाओं में मानवीय वेदना और सामाजिक विषमता को अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति मिली है।
इनकी भाषा में तीव्र सामाजिक आलोचना और मानवीय करूणा का सुंदर संगम है।
5. राजेन्द्र गौतम
नवगीत को आधुनिक मनुष्य की चिंताओं और संघर्षों से जोड़ने वाले नवगीतकार।
उन्होंने नवगीत को शहरी संवेदना और आधुनिक यथार्थ के बीच संतुलन के साथ प्रस्तुत किया।
6. लोलार्क दिवेदी
इनके गीतों में प्रकृति, लोकसंस्कृति और मानवीय संवेदनाएं प्रमुख हैं।
वे नवगीत में छंद, लय और लोकध्वनियों का सुंदर संयोजन करते हैं।
7. उमाकान्त तिवारी
इनकी रचनाओं में दार्शनिकता और सामाजिक यथार्थ का समावेश देखा जा सकता है।
इन्होंने नवगीत को चिंतनपरकता के साथ जोड़ा।
8. पाल भसीन
नवगीत को शहरी जीवन की विसंगतियों और सामाजिक संघर्षों से जोड़ने वाले प्रमुख रचनाकार।
उनकी भाषा में स्पष्टता और शैली में तीव्र व्यंग्य मिलता है।
9. गुलाब सिंह
इन्होंने नवगीत में प्रकृति और जीवन के बीच संबंध, और आंतरिक संवेदना का सुंदर चित्रण किया है।
10. हरीश निगम
इनके नवगीतों में सामाजिक चेतना और भावनात्मक गहराई का संतुलन है।
विषय चयन में नवीनता और भाषा में सादगी इनकी विशेषता रही है।
11. श्रीकृष्ण तिवारी
इनके नवगीतों में आध्यात्मिकता, प्रेम और लोक जीवन की गहराई है।
इन्होंने नवगीत को संवेदनशील और विचारशील अभिव्यक्ति दी।
12. वीरेन्द्र मिश्र
नवगीत को उन्होंने लोकभाषा और लोकध्वनियों के माध्यम से लोक से जोड़ा।
उनकी कविताओं में ग्राम्य सौंदर्य, प्रकृति प्रेम और यथार्थबोध प्रमुख हैं।
13. रमेश रंजक
इनकी रचनाओं में प्रकृति, प्रेम और लोकजीवन की अत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है।
गीतों में संगीतात्मकता और भावनात्मक गहराई इनकी विशेषता है।
उदाहरण – “गीत विहग उतरा”, जिसमें स्मृति, पुरवा और अन्तर का सुंदर बिंब मिलता है।
14. अन्य उल्लेखनीय नवगीतकार
इनके अतिरिक्त भी अनेक नवगीतकार हैं जिन्होंने इस विधा को निरंतर समृद्ध किया है। जैसे –
रामदरश मिश्र, रामनरेश पाठक, बुद्धिनाथ मिश्र, रविन्द्र भ्रमर, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, जगदीश व्योम, आदि।
नवगीत को उसकी पहचान दिलाने में इन नवगीतकारों का साहित्यिक योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है। इन्होंने नवगीत को केवल छंदबद्ध कविता नहीं रहने दिया, बल्कि उसे आधुनिक जीवन, ग्राम्य चेतना, राजनीतिक यथार्थ, और सांस्कृतिक विमर्श का सार्थक माध्यम बनाया। उनके नवगीत न केवल भाव की दृष्टि से समृद्ध हैं, बल्कि शिल्प और भाषा के स्तर पर भी अभिनव प्रयोग प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि आज भी नवगीत एक जीवंत, प्रासंगिक और संघर्षशील विधा के रूप में प्रतिष्ठित है।
नवगीत: एक संवेदनशील युगबोध का काव्यात्मक पुनर्पाठ — निष्कर्ष
नवगीत हिंदी साहित्य की वह विशिष्ट काव्यधारा है, जिसने आधुनिक युगबोध को ग्राम्य जीवन की सहजता, शहरी विसंगतियों और राजनीतिक-सामाजिक चेतना के साथ समन्वित करते हुए गहन रूप में व्यक्त किया है। यह न केवल छायावादी और प्रगतिवादी धारणाओं के बाद उपजे यथार्थ को स्वर देता है, बल्कि व्यक्ति की अंतर्व्यथा, समाज की टूटन, अस्तित्व की ऊब और राजनीतिक विघटन को भी बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत करता है।
नवगीत में विचारधारा के नाम पर किसी एक वाद की प्रतिबद्धता नहीं, बल्कि जीवन के प्रति गहरी जिम्मेदारी की झलक मिलती है। इसकी मूल संवेदना लोक जीवन, भारतीय सांस्कृतिक चेतना और जीवन के जटिल यथार्थ में निहित है। चाहे वह दार्शनिक अंतर्दृष्टि हो या अस्तित्ववादी पीड़ा, चाहे लोकशब्दों से रची हुई भाषा हो या शहरी भाषिक प्रतीक—नवगीत हर जगह एक सजीव, तात्कालिक और प्रामाणिक अनुभव को रचता है।
राजनीतिक मोहभंग, लोकतांत्रिक विकृतियाँ, भीड़ का बेगानापन, विदेशी विचारधाराओं के प्रभाव और अस्तित्ववादी मानसिकता—इन सबके बीच नवगीत उस कवि की आवाज़ बनकर उभरता है जो समाज की गूंगी-बहरी भीड़ में भी ‘गीत’ के माध्यम से प्रतिरोध, चेतना और सच्चाई का स्वर उठाता है।
इस विधा को आगे बढ़ाने में जिन प्रमुख नवगीतकारों का योगदान रहा—जैसे शंभुनाथ सिंह, कुँवर बेचैन, देवेंद्र कुमार ‘इंद्र’, उमाकांत तिवारी, रमेश रंजक, हरीश निगम आदि—उन्होंने नवगीत को केवल शैली नहीं, बल्कि एक वैचारिक-सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में स्थापित किया।
इस प्रकार, नवगीत न तो मात्र गीत है, न ही केवल विचार। यह जीवन की जटिलता में सहेजे गए दर्द, आशा, संघर्ष और संवेदना का वह काव्य है जो परंपरा और आधुनिकता के बीच पुल का कार्य करता है — एक जीवंत, संवेदनशील और सशक्त साहित्यिक अभिव्यक्ति।
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