पर्यावरणीय अर्थशास्त्र: अर्थ एवं क्षेत्र | Environmental Economics: Meaning and Scope

पर्यावरण, मानव जीवन की आधारशिला है। यह न केवल जीवन का स्रोत है, बल्कि उसके संरक्षण और सतत विकास का माध्यम भी है। जल, वायु, भूमि, वनस्पति, जीव-जंतु एवं सूक्ष्मजीवों का यह समुच्चय एक परस्पर संबंधित और परस्पर निर्भर प्रणाली का निर्माण करता है, जिसे हम ‘पर्यावरण’ कहते हैं। इस पर्यावरण में किसी एक तत्व का असंतुलन, पूरे जैविक और भौतिक तंत्र को प्रभावित कर सकता है। यही कारण है कि पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

भारत की सांस्कृतिक परंपरा में भी पर्यावरण को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, मनुस्मृति, उपनिषद और पुराणों में प्रकृति के विभिन्न तत्वों को वंदनीय बताया गया है। यही नहीं, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और इस्लाम जैसे धार्मिक मतों में भी पर्यावरण के प्रति आदर और संरक्षण की भावना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि पर्यावरणीय संतुलन के बिना जीवन की उत्पत्ति और विकास संभव नहीं है। वर्तमान युग में, जब औद्योगीकरण, नगरीकरण, वाणिज्यिक कृषि और वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, तो ऐसे में पर्यावरणीय अर्थशास्त्र का अध्ययन अत्यधिक प्रासंगिक हो गया है।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र का अर्थ

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र (Environmental Economics) अर्थशास्त्र की वह शाखा है जो पर्यावरण और आर्थिक गतिविधियों के मध्य अंतर्संबंधों का विश्लेषण करती है। इसका प्रमुख उद्देश्य यह समझना है कि आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करते हुए पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण कैसे किया जा सकता है। यह पारंपरिक अर्थशास्त्र से भिन्न इसलिए है क्योंकि यह प्राकृतिक संसाधनों के मूल्यांकन, उनके सतत उपयोग और प्रदूषण नियंत्रण की रणनीतियों को विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से देखता है।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र के अंतर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन एवं उपभोग से पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है और उसे कैसे न्यूनतम किया जा सकता है। यह न केवल आर्थिक नीति निर्धारण में सहायता करता है, बल्कि सतत विकास (Sustainable Development) की दिशा में भी मार्गदर्शन प्रदान करता है।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र का क्षेत्र (Scope of Environmental Economics)

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। इसमें विभिन्न उपक्षेत्र सम्मिलित होते हैं जो इस प्रकार हैं:

1. प्राकृतिक संसाधनों का मूल्यांकन

इसमें जल, वन, खनिज, मिट्टी, ऊर्जा स्रोत आदि के आर्थिक मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया शामिल होती है। कई बार ये संसाधन बाज़ार में उपलब्ध नहीं होते, अतः इनके अप्रत्यक्ष मूल्यांकन की आवश्यकता होती है।

2. पर्यावरणीय प्रदूषण का मूल्यांकन

वायु, जल, मृदा आदि के प्रदूषण से समाज को जो हानि होती है, उसका आर्थिक मूल्यांकन किया जाता है। इसमें स्वास्थ्य हानि, कृषि उत्पादन में गिरावट, जैव विविधता का नुकसान आदि शामिल होते हैं।

3. सतत विकास की नीति

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र सतत विकास को बढ़ावा देने वाली नीतियों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है, ताकि संसाधनों का उपयोग वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भावी पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षित रखा जा सके।

4. प्रदूषण नियंत्रण के उपकरण

इस क्षेत्र में कर (Taxes), सब्सिडी (Subsidies), उत्सर्जन परमिट (Emission Permits), और पर्यावरणीय विनियमन (Regulations) जैसे आर्थिक उपकरणों का विश्लेषण किया जाता है, ताकि पर्यावरणीय क्षति को कम किया जा सके।

5. पर्यावरणीय नीति और योजना निर्माण

सरकारी नीतियों का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है और उन्हें कैसे अधिक टिकाऊ बनाया जा सकता है, यह भी पर्यावरणीय अर्थशास्त्र के अध्ययन का विषय है।

6. पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र (Ecological Economics) से संबंध

हालाँकि पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र एक पृथक क्षेत्र है, परंतु पर्यावरणीय अर्थशास्त्र का इससे गहरा संबंध है। दोनों ही पर्यावरण को आर्थिक क्रियाकलापों के केन्द्र में रखने का प्रयास करते हैं।

भारत में पर्यावरण संरक्षण की परंपरा

भारत में पर्यावरण की अवधारणा प्राचीन काल से ही रही है। ऋग्वेद की ऋचाओं में पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश को पंचमहाभूत माना गया है। इन्हें देवतुल्य समझा गया और इनकी आराधना की गई। अथर्ववेद में वृक्षों को पूजनीय बताया गया है। मनुस्मृति में राजा को पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी दी गई है।

जैन धर्म में यह नियम है कि हरे पेड़-पौधों को क्षति नहीं पहुँचानी चाहिए। इस्लाम धर्म में जल को दूषित करना पाप माना गया है और ऐसा करने वालों के लिए दंड का प्रावधान है। इन सभी परंपराओं से स्पष्ट होता है कि पर्यावरणीय संतुलन केवल वैज्ञानिक नहीं, अपितु सांस्कृतिक और नैतिक विषय भी है।

आधुनिक युग में पर्यावरणीय संकट

औद्योगिक क्रांति के पश्चात आर्थिक विकास की दौड़ में पर्यावरण की उपेक्षा हुई है। वनों की कटाई, कोयला व खनिज संसाधनों का अत्यधिक दोहन, औद्योगिक कचरा, रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग, प्लास्टिक प्रदूषण, नदी-तालाबों का अतिक्रमण आदि ने पारिस्थितिकी संतुलन को बाधित किया है।

जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत में छेद, जैव विविधता में गिरावट और मानव स्वास्थ्य पर पड़ता नकारात्मक प्रभाव आज वैश्विक चिंता का विषय बन चुके हैं। ऐसे में पर्यावरणीय अर्थशास्त्र न केवल समस्या की पहचान करता है, बल्कि उसका समाधान भी सुझाता है।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र की उपयोगिता

  1. नीति निर्माण में सहयोग: यह सरकार को ऐसी नीतियाँ बनाने में सहायता करता है जो पर्यावरण के अनुकूल हों।
  2. निजी और सामाजिक लागत का विश्लेषण: यह बताता है कि एक आर्थिक क्रिया की वास्तविक लागत क्या है, जिसमें सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति भी शामिल होती है।
  3. प्रदूषण नियंत्रण उपायों का आर्थिक मूल्यांकन: कौन-से उपाय कम लागत में अधिक प्रभावी हैं, इसका निर्णय संभव होता है।
  4. नवीन तकनीकों के विकास को प्रोत्साहन: यह स्वच्छ और हरित तकनीकों को बढ़ावा देता है।
  5. सतत विकास को गति: पर्यावरणीय अर्थशास्त्र सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होता है।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र: चुनौतियाँ और संभावनाएँ

चुनौतियाँ:

  • प्राकृतिक संसाधनों का मूल्यांकन कठिन कार्य है।
  • विकास बनाम पर्यावरण का संघर्ष निरंतर बना हुआ है।
  • अल्पकालिक लाभ की लालसा दीर्घकालिक पर्यावरणीय नुकसान को नजरअंदाज कर देती है।
  • नीति निर्माताओं एवं उद्योगों में जागरूकता का अभाव।
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वय की कमी।

संभावनाएँ:

  • हरित कर प्रणाली को लागू कर सरकार राजस्व भी कमा सकती है और प्रदूषण भी नियंत्रित कर सकती है।
  • पर्यावरणीय लेखांकन (Environmental Accounting) को संस्थागत रूप दिया जा सकता है।
  • युवाओं को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाकर सतत जागरूकता फैलाई जा सकती है।
  • वैश्विक संधियों और समझौतों के माध्यम से सामूहिक प्रयास किए जा सकते हैं।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र केवल एक शैक्षणिक विषय नहीं, बल्कि यह जीवन और प्रकृति के सह-अस्तित्व का विज्ञान है। यह एक ऐसी दृष्टिकोण प्रदान करता है जो आर्थिक विकास को पर्यावरण संरक्षण के साथ समरस कर सके। वर्तमान में जब पर्यावरणीय संकट विकराल रूप ले रहे हैं, तब यह अत्यंत आवश्यक है कि हम आर्थिक योजनाओं में पर्यावरणीय विचारों को एकीकृत करें।

यदि मानव जाति को अपने अस्तित्व को बनाए रखना है, तो उसे पर्यावरणीय संतुलन की महत्ता को समझते हुए अपने कार्यकलापों को पुनः परिभाषित करना होगा। पर्यावरणीय अर्थशास्त्र हमें यही सिखाता है कि “प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व ही समृद्धि की कुंजी है।”

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