यह लेख पर्यावरण के विभिन्न तत्वों एवं घटकों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जो पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन और मानव जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। इसमें अवस्थिति, उच्चावच, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, जैविक कारक, मृदा, जलराशियाँ और खनिज जैसे प्रमुख पर्यावरणीय तत्वों को क्रमबद्ध, विस्तारपूर्वक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाया गया है। लेख में यह बताया गया है कि किस प्रकार पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति, स्थलाकृति, जलवायु की दशाएं, वनस्पति का प्रकार, जीव-जंतुओं की उपस्थिति, मृदा की गुणवत्ता, जल संसाधनों की उपलब्धता और खनिज पदार्थों की उपस्थिति मिलकर किसी क्षेत्र की पर्यावरणीय विशेषताओं को परिभाषित करते हैं।
यह आलेख न केवल छात्रों, शोधकर्ताओं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों के लिए उपयोगी है, बल्कि आम पाठकों के लिए भी जानकारीपूर्ण और रोचक है। इसमें पर्यावरणीय कारकों के परस्पर संबंधों, प्रभावों, चुनौतियों और संरक्षण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की दृष्टि से यह लेख एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। यदि आप पर्यावरण विज्ञान, भूगोल या पारिस्थितिकी से संबंधित किसी भी अध्ययन या परियोजना के लिए जानकारी ढूंढ़ रहे हैं, तो यह लेख आपके लिए अत्यंत उपयोगी और व्यापक संदर्भ सामग्री के रूप में कार्य करेगा।
पर्यावरण (Environment)
पर्यावरण वह समग्र प्रणाली है जिसमें जीवधारी और निर्जीव तत्व एक दूसरे के साथ निरंतर अंतःक्रिया करते हैं। यह एक ऐसा व्यापक पारिस्थितिक तंत्र है जो पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक सभी परिस्थितियाँ प्रदान करता है। पर्यावरण के तत्व, जिन्हें पर्यावरणीय घटक भी कहा जाता है, वे कारक होते हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जीवों के जीवन को प्रभावित करते हैं। पर्यावरणीय तत्वों की यह अंतःक्रिया ही पृथ्वी पर जीवन को संभव बनाती है। इस लेख में हम पर्यावरण के प्रमुख तत्वों पर विस्तृत चर्चा करेंगे, जिनमें अवस्थिति, उच्चावच, जल, वायु, मृदा आदि प्रमुख हैं।
पर्यावरण के तत्वों (घटकों) की परिभाषा
पर्यावरण के तत्व अथवा घटक वे प्राकृतिक या मानवीय कारक हैं जो जीवधारियों को प्रभावित करते हैं और उनकी जीवन प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। ये तत्व पारिस्थितिक तंत्र के अंग हैं और किसी भी जीव के अस्तित्व, विकास और व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालते हैं। पर्यावरण के तत्वों को दो मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है:
- जैविक तत्व (Biotic Components): जैसे- मानव, पशु, पौधे, सूक्ष्मजीव आदि।
- अजैविक तत्व (Abiotic Components): जैसे- वायु, जल, तापमान, मृदा, सूर्य का प्रकाश आदि।
हालांकि, इन तत्वों को और भी सूक्ष्म वर्गों में विभाजित किया गया है जिनका अध्ययन भूगोलवेत्ता व पर्यावरण वैज्ञानिक करते हैं। पर्यावरण के इन्हीं प्रमुख तत्वों पर हम नीचे विस्तार से चर्चा करेंगे।
1. अवस्थिति (Location)
अवस्थिति एक ऐसा महत्वपूर्ण कारक है जिसका पर्यावरण के रूप में भौगोलिक अध्ययन किया जाता है। अवस्थिति स्थित होती है, परन्तु समय के साथ उसकी सापेक्षिक महत्ता परिवर्तित होती रहती है। हटिंग्टन ने अवस्थिति का महत्त्व स्पष्ट करते हुए बताया है कि,
“ग्लोब-आकृति की गतिशील पृथ्वी पर अवस्थिति भूगोल को समझने के लिए कुंजी है।”
अवस्थिति भौगोलिक दृष्टिकोण से पर्यावरण का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्व है। यह किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति को दर्शाती है और यह निर्धारित करती है कि कोई देश या क्षेत्र किस अक्षांश, देशांतर, समुद्र तल, महाद्वीपीय सीमा या पड़ोसी देशों के सापेक्ष कहाँ स्थित है। इसकी तीन प्रमुख उपश्रेणियाँ हैं:
- ज्यामितीय अवस्थिति (Geometric Location)
- सामुद्रिक एवं स्थलीय स्थिति (Occanic and Continental Location) और
- निकटवर्ती देशों के सन्दर्भ में स्थिति (Vicinal Location)।
इनका विस्तृत विवरण निम्नानुसार है :-
(i) ज्यामितीय अवस्थिति (Geometric Location)
ज्यामितीय अवस्थिति से तात्पर्य किसी क्षेत्र की अक्षांशीय और देशांतरिय स्थिति से होता है। यह स्थिति किसी स्थान के तापमान, दिन और रात की अवधि, ऋतुओं की विविधता तथा प्रकाश की उपलब्धता पर प्रभाव डालती है।
उदाहरण: भारत की भौगोलिक स्थिति 8°4′ से 37°6′ उत्तरी अक्षांश तथा 68°7′ से 97°25′ पूर्वी देशांतर के मध्य है। यह स्थिति ही भारत को विविध जलवायु और पारिस्थितिक तंत्र प्रदान करती है, जैसे कि हिमालय की ठंडी जलवायु, थार मरुस्थल की शुष्कता और केरल की आर्द्रता।
इसी प्रकार भारत के राजस्थान राज्य की भूसन्दर्भ स्थिति 23°3′ से 30°12′ उत्तरी अक्षांश व 69°30′ से 78°17′ पूर्वी देशान्तरों के मध्य है।
(ii) सामुद्रिक एवं स्थलीय स्थिति (Maritime and Continental Location)
समुद्र से घिरे हुए तथा समुद्र के सहारे स्थित भौगोलिक प्रदेशों में सामुद्रिक स्थिति का प्रभाव पड़ता है, जबकि महाद्वीपीय स्थिति में प्रदेश विशेष का समुद्र से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इसमें राज्य स्थल आवृत्त (Land locked) होते हैं तथा समुद्री तट का लाभ नहीं मिलता। जिन देशों की स्थिति समुद्री तटों में घिरी रहती है, वहाँ समुद्री संसाधनों पर आधारित व्यवसाय अधिक विकसित होते हैं।
किसी क्षेत्र की समुद्र से निकटता या दूरी का उसकी जलवायु, कृषि, व्यापार तथा परिवहन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
- सामुद्रिक स्थिति वाले देश या क्षेत्र जैसे भारत का पश्चिमी तट या जापान – समुद्री संसाधनों से समृद्ध होते हैं और इन क्षेत्रों की जलवायु अपेक्षाकृत सम होती है।
- स्थलीय या महाद्वीपीय स्थिति में स्थित प्रदेश जैसे मध्य एशिया के देश – अपेक्षाकृत अधिक चरम जलवायु का अनुभव करते हैं क्योंकि वहाँ समुद्र का ताप नियंत्रक प्रभाव नहीं होता।
(iii) समीपवर्ती देशों के सन्दर्भ में स्थिति (Vicinal Location)
समीपवर्ती देशों से तात्पर्य किसी देश की सीमाओं से लगे हुए अन्य देशों से है। समीपवर्ती देशों की प्रकृति और संख्या किसी देश के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को प्रभावित करती है।
उदाहरण: भारत की सीमाएँ पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और म्यांमार से लगती हैं। ये सभी पड़ोसी देश भारत की रणनीतिक स्थिति, व्यापारिक नीतियों और सांस्कृतिक विविधता पर प्रभाव डालते हैं।
वल्केनबर्ग ने समीपवर्ती स्थिति की महत्ता पर बल देते हुए कहा था कि – “राज्य के समीप स्थित देशों की संख्या एवं प्रकार का प्रभाव राज्य के विकास पर पड़ता है।”
2. उच्चावच (Relief)
उच्चावच का आशय धरातलीय सतह की ऊँचाई और नीचाई से है। यह भी पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण तत्व है, जो किसी क्षेत्र की जलवायु, कृषि, जल प्रवाह, जैव विविधता और मानव बस्ती के वितरण को प्रभावित करता है। धरातलीय आकृतियों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है:
(i) पर्वत (Mountains)
पर्वतीय क्षेत्र वातावरण को शीतल बनाते हैं, साथ ही वर्षा की प्रवृत्ति को भी प्रभावित करते हैं। वायुमंडलीय हवाएं जब पर्वतों से टकराती हैं, तो वे ऊपर उठकर संघनन करती हैं और वर्षा कराती हैं। ऐसा माना जाता है कि भारत में हिमालय पर्वत न होता तो सम्पूर्ण उत्तरी भारत सहारा तुल्य मरुस्थलीय परिस्थितियों से युक्त रहता है।
उदाहरण: हिमालय पर्वत भारत की उत्तरी सीमाओं को प्राकृतिक सुरक्षा तो प्रदान करता ही है, साथ ही भारतीय मानसून को रोककर उत्तर भारत में पर्याप्त वर्षा सुनिश्चित करता है।
(ii) पठार (Plateaus)
पठारी भाग धरातल के मुख्य भू-आकार हैं। इनके द्वारा पृथ्वी का एक विशाल भाग आवृत्त है। यह क्षेत्र धरातल से एकदम ऊँचा उठा हुआ समतल सतह वाला भाग होता है, जहाँ चोटियों का अभाव पाया जाता है। पठार क्षेत्र भी मानव जीवन के लिए कठोर परिस्थितियाँ प्रदान करता है। आर्थिक क्रियाओं के लिए पठारी क्षेत्र को उपयुक्त नहीं माना जाता। पठारी क्षेत्र ऊँचाई पर स्थित समतल भूमि होती है, जिसके कारण इन क्षेत्रों में कृषि कठिन होती है लेकिन खनिज संसाधनों की दृष्टि से ये अत्यंत समृद्ध होते हैं।
उदाहरण: छत्तीसगढ़ और झारखंड के पठार खनिजों की खान कहे जाते हैं। हालांकि मानव बसावट के लिए यह क्षेत्र कठोर होते हैं।
(iii) मैदान (Plains)
मैदानी भाग मानव जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता है। मैदानी क्षेत्रों में आर्थिक व्यवसायों के लिए भी अनुकूल दशायें उपलब्ध है। मैदानी क्षेत्र कृषि के लिए अत्यंत उपयुक्त होते हैं। यहाँ जलस्रोतों की उपलब्धता अधिक होती है और मिट्टी भी उपजाऊ होती है। विदित है कि विश्व की प्रमुख सभ्यताएँ मैदानों में ही विकसित हुई हैं।
उदाहरण: गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान भारत के प्रमुख कृषि क्षेत्रों में से एक है। यहाँ सभ्यता और संस्कृति का भी गहन विकास हुआ है।
3. जलवायु (Climate)
भूमण्डल की जलवायु पर्यावरण को नियंत्रित करने वाला प्रमुख घटक है। जलवायु से प्राकृतिक वनस्पति, मिट्टी, जलराशि तथा जीव-जन्तु प्रभावित होते है। कुमारी सैम्पले ने कहा है कि,
“पर्यावरण के सभी भौगोलिक कारकों में जलवायु सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक है। सभ्यता के आरम्भ और उद्भव में जहाँ तक आर्थिक विकास का सम्बन्ध रहता है, जलवायु एक वृहत् शक्तिशाली तत्व है।”
जलवायु मानव की मानसिक एवं शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव डालती है। प्रो. एल्सवर्थ हटिंग्टन के अनुसार,
“मानव पर प्रभाव डालने वाले तत्वों में जलवायु सर्वाधिक प्रभावशील है क्योंकि यह पर्यावरण के अन्य कारक को भी नियंत्रित करता है।”
जलवायु पर्यावरण को प्रभावित करने वाला एक अत्यंत निर्णायक तत्व है। यह न केवल मानवीय क्रियाओं को प्रभावित करता है बल्कि वनस्पति, मिट्टी और जलराशियों को भी नियंत्रित करता है।
- जलवायु के पांच प्रमुख तत्व हैं:
(i) वायुमण्डलीय तापमान (Temperature) एवं सूर्यताप (Insolation)
(ii) वायुभार (Atmospheric pressure)
(iii) वायु की गति (पवनें – Winds)
(iv) आर्द्रता (Humidity)
(v) वर्षा (Precipitation)
इन सभी तत्वों का समष्टि प्रभाव किसी स्थान की जलवायु को परिभाषित करता है।
पृथ्वी पर मानव चाहे स्थल पर या समुद्र पर, मैदान में या पर्वत पर, वनों में या मरुस्थल में कहीं पर भी रहे व अपने आर्थिक कार्य करे, उसे जलवायु प्रभावित करती है। तापमान जलवायु के महत्वपूर्ण कारक के रूप में वनस्पति को सर्वाधिक प्रभावित करता है। अनेक वनस्पति क्रियायें, जैसे- प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis), हरितलवक (Chlorophy) बनना, श्वसन तथा गर्मी प्राप्त कर अंकुरण आदि प्रभावित होती है। वनस्पति की प्रकृति एवं वितरण भी तापमान से प्रभावित होता है।
4. प्राकृतिक वनस्पति (Natural Vegetation)
वनस्पति को जलवायु का नियंत्रक माना जाता है। यह तापमान को नियंत्रित रखती है तथा वायुमण्डलीय आर्द्रता को सन्तुलित रखने का कार्य करती है। पेड़-पौधे विभिन्न स्रोतों से सृजित कार्बन-डाई आक्साइड को अवशोषित कर वातावरण को शुद्ध रखने में सहायता करते हैं। संक्षेप में, प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में मानवीय विकास के लिए आवश्यक होते हैं।
प्राकृतिक वनस्पति जलवायु, उच्चावच तथा मृदा के सामंजस्य से पारिस्थितिकीय अनुक्रम (Eco-logical Succession) के अनुसार अस्तित्व में आती है। प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के महत्वपूर्ण कारक के रूप में पारिस्थितिक तन्त्र को सर्वाधिक प्रभावित करती है, जिसे जलवायु सर्वाधिक नियंत्रित करती है। वनस्पति पारिस्थितिकी तंत्र की आधारशिला होती है। यह न केवल वातावरण को शुद्ध रखती है बल्कि तापमान और आर्द्रता को संतुलित करती है। वनस्पति के विकास में जलवायु (Climate), मृदा (Soils), जलापूर्ति (Water supply), प्रकाश (Light) और पवन (Winds) जैसे कारकों की भूमिका होती है।
- वनस्पति कार्बन-डाई-ऑक्साइड को अवशोषित कर ऑक्सीजन उत्सर्जित करती है।
- यह भूमि अपरदन को रोकने, वर्षा कराने और पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाए रखने में सहायक होती है।
- जैव विविधता के संरक्षण में भी वनस्पति की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
5. जैविक कारक (Biotic Factors)
पर्यावरण में जीवधारियों की भूमिका अत्यंत जटिल एवं महत्वपूर्ण होती है। इसमें मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, सूक्ष्म जीव आदि सम्मिलित होते हैं। ये जैविक घटक प्राकृतिक वातावरण से अनुकूलन करते हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध विभिन्न जीव-जन्तु और पशु, मनुष्य के आर्थिक कार्यों को प्रभावित करते है। जन्तुओं में गतिशीलता की दृष्टि से वनस्पति से श्रेष्ठता होती है। वे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार प्राकृतिक वातावरण से अनुकूलन (Adaptation) कर लेते है। जीव-जन्तुओं में स्थानान्तरणशीलता का गुण होने के कारण वे अपने अनुकूल दशाओं वाले पर्यावरण में प्रवास (Migration) भी कर जाते हैं। फिर भी इन पर पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगत होता है।
समान दशाओं वाले वातावरण के प्रदेश में जन्तुओं में भिन्त्रता मिलती है। जन्तुओं के सामान्य वर्ग पर्यावरणीय लक्षणों के अनुसार ही विकसित होते है। जैसे घास के मैदानों में चरने वाले (Grazing) पशु रहते है। जबकि वनों में मुख्य रूप से पेड़-पोधों की टहनियों खाने वाले (brolosing) पशु रहते हैं। पृथ्वी पर जीव-जन्तुओं का वितरण वनस्पति की प्रभावशीलता के अनुसार होते हैं। संक्षेप में, पृथ्वी पर विभित्र प्रकार की जलवायु दशाओं एवं वनस्पति जगत के प्रकार के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जन्तु पाये जाते हैं।
- जीव-जंतु अपनी जीवनशैली के अनुसार प्रवास (Migration), संतानोत्पत्ति, आहार तथा आश्रय के लिए स्थान का चयन करते हैं।
- इनका वितरण जलवायु, वनस्पति एवं स्थलाकृति पर निर्भर करता है।
- उदाहरणस्वरूप, घास के मैदानों में चरने वाले पशु, और वनों में पत्तियाँ खाने वाले पशु पाये जाते हैं।
यह जैविक विविधता न केवल पारिस्थितिकी तंत्र का आधार है बल्कि यह खाद्य श्रृंखला को संतुलित रखने में भी सहायता करती है।
6. मृदा कारक (Edaphic Factors)
मृदा धरती की सतह का वह ऊपरी परत है जो पादपों को जीवन देती है और मानव क्रियाओं का आधार बनती है। मृदा धरातलीय सतह का ऊपरी आवरण होता है जो सामान्यतः कुछ सेन्टीमीटर से लेकर एक दो मीटर तक गहरा होता है। मृदा में वनस्पति पैदा होती है तथा जीव-जन्तु इस पर अपना आश्रय बनाते है। मानव अपनी क्रियाएँ मृदा पर करता है और इसे निरन्तर प्रभावित करता है। सामान्यतः उपजाऊ मृदा क्षेत्रों में मानव सभ्यता अनुर्वर क्षेत्रों की उपेक्षा उच्च रहती है।
भारत में उत्तरी गंगा, ब्रहापुत्र का मैदान इसी दृष्टि से थार के रेगिस्तान से भित्र है। पृथ्वी पर प्राचीन सभ्यताएँ भी उर्वर मृदा क्षेत्रों में ही पनपी है। भूमध्यसागरीय जलवायु में लाल भूरी मृदाओं के हैं। मृदा एक खुला तन्त्र है जो पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में शैल पदार्थों जलवायु तथा जीव-जगत एवं प्राणियों से अंतः क्रिया करती है। क्षारीय तथा अम्लीय मृदा पौधों की वृद्धि में बाधक होती है। वर्तमान समय में मृदा की प्रमुख समस्या मृदाक्षरण है जो तीव्र वन विनाश के कारण उत्पत्र हुई है। पर्यावरण के तत्व के रूप में मृदा पादपों को जीवन प्रदान कर कृषि व्यवस्था में सहायता करती है, अतः मृदा का संरक्षण (Conservation) आवश्यक है।
- मृदा का निर्माण जलवायु, चट्टानों, जैविक तत्वों, वनस्पति और समय के सम्मिलन से होता है।
- उपजाऊ मृदा सभ्यताओं के विकास में सहायक रही है – जैसे गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान।
- क्षारीय और अम्लीय मृदाएं पौधों की वृद्धि में बाधा डालती हैं।
- वर्तमान में मृदाक्षरण (Soil Erosion) एक गम्भीर समस्या है, जिसका समाधान वनों का संरक्षण एवं स्थायी कृषि प्रणाली द्वारा किया जा सकता है।
7. जलराशियाँ (Water Bodies)
जल ही जीवन का मूल स्रोत है। जलराशियाँ जैसे महासागर, समुद्र, नदियाँ, झीलें, तालाब आदि पर्यावरण के संतुलन में गहन भूमिका निभाती हैं। जल राशियाँ मानव जीवन का आधार है। विभिन्न भू-आकृतियों की भांति जल राशियाँ भी पर्यावरण को प्रभावित करती है।
जीन ब्रुंश के शब्दों में,
“जल एक महत्वपूर्ण आर्थिक सम्पत्ति है। वास्तविकता यह है कि मानव के लिए कोयला स्वर्ण से भी अधिक मूल्यवान सम्पत्ति है। सभी जगह जल क्षेत्र मानवीय क्रियाकलापो पर प्रभुत्व रखते हैं।”
प्राकृतिक जल राशियों के अन्तर्गत महासागर, सागर, नदियाँ, झीलें तथा जलाशयो को सम्मिलित किया जाता है। जल चक्र इनके नियमित परिसंचरण में सहयोग करता है। महासागर एक महत्वपूर्ण जल-राशि के रूप में सम्पूर्ण जीवमण्डलीय पारिस्थितिकी तंत्र को नियंत्रित करता है। स्थलीय जलराशियो और जनसंख्या के वितरण में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जल राशियों के द्वारा ही विभिन्न प्रकार के उच्चावच निर्मित होते हैं। महासागर एवं सागर प्रमुख जलराशियों के रूप में जलवायु को प्रभावित करते हैं।
- जलवायु को नियंत्रित करने, वायुमंडलीय संतुलन बनाए रखने और जैविक जीवन के लिए उपयुक्त आवास प्रदान करने में जलराशियाँ सहायक होती हैं।
- नदियों और झीलों के समीपवर्ती क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व अधिक होता है और सभ्यताएं विकसित होती हैं।
- समुद्र व्यापार, मत्स्य पालन, नमक उत्पादन आदि के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
8. खनिज तत्व (Mineral Elements)
खनिज भी पर्यावरण का एक अनिवार्य भाग माने जाते हैं, विशेष रूप से आर्थिक दृष्टिकोण से। खनिजों की उपलब्धता किसी क्षेत्र के औद्योगीकरण और शहरीकरण को प्रेरित करती है।
- खनिजों की अत्यधिक दोहन से वन क्षेत्र कम होते हैं और पर्यावरणीय अवनयन की स्थिति उत्पन्न होती है।
- खनिज क्षेत्रों में सामाजिक-सांस्कृतिक असंतुलन, विस्थापन, प्रदूषण और पारिस्थितिक अस्थिरता बढ़ती है।
- अतः खनिजों का विवेकपूर्ण उपयोग और पुनर्चक्रण (Recycling) अत्यंत आवश्यक है।
पर्यावरण के तत्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और मिलकर पारिस्थितिक तंत्र की रचना करते हैं। इन तत्वों की परस्पर क्रियाएं ही जीवन को संभव बनाती हैं। अवस्थिति और उच्चावच जैसे तत्व यह निर्धारित करते हैं कि किसी क्षेत्र में जीवन की कौन-कौन सी गतिविधियाँ होंगी, वहाँ किस प्रकार की जलवायु होगी, और कौन-से संसाधन उपलब्ध होंगे।
पर्यावरण के ये सभी तत्व – अवस्थिति, उच्चावच, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, जैविक कारक, मृदा, जलराशियाँ और खनिज – परस्पर गहन रूप से जुड़े हुए हैं। इनका संतुलन ही पृथ्वी पर जीवन की निरंतरता का आधार है। वर्तमान समय में जब पर्यावरणीय संकट बढ़ रहे हैं, तब इन घटकों के संरक्षण, प्रबंधन और विवेकपूर्ण उपयोग की आवश्यकता अत्यधिक है।
वर्तमान समय में यह आवश्यक हो गया है कि हम पर्यावरणीय तत्वों को समझकर उनके संतुलन को बनाए रखने का प्रयास करें। तभी हम सतत विकास और पर्यावरणीय स्थिरता की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। पर्यावरण का अध्ययन न केवल एक वैज्ञानिक विषय है, बल्कि यह मानव अस्तित्व से जुड़ा हुआ एक बुनियादी प्रश्न भी है।
पर्यावरण के तत्वों को समझना केवल शैक्षणिक या वैज्ञानिक विषय नहीं है, बल्कि यह हमारी आजीविका, स्वास्थ्य, और भविष्य की स्थिरता से भी गहराई से जुड़ा हुआ विषय है।
Environmental Economics – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें –
- पर्यावरणीय अध्ययन का क्षेत्र | Scope of Environmental Studies
- पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा | Meaning and Definition of Environment
- पर्यावरणीय अर्थशास्त्र की अवधारणा | Concept of Environmental Economics
- पर्यावरणीय अर्थशास्त्र: अर्थ एवं क्षेत्र | Environmental Economics: Meaning and Scope
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