हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं गौरवशाली युग के रूप में प्रतिष्ठित है। यह काल आदिकाल के उपरांत आता है और इसे ‘पूर्व-मध्यकाल’ या ‘मध्यकाल का प्रारंभिक भाग’ भी कहा जाता है। विभिन्न विद्वानों ने इसकी समयावधि को लेकर कुछ भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किए हैं। सामान्यतः इसे 1350 ई. से लेकर 1650 ई. तक माना जाता है, किंतु कुछ विद्वान इसकी सीमा 1375 वि.सं. से 1700 वि.सं. तक मानते हैं।
इस युग को हिंदी साहित्य का ‘स्वर्णकाल’ कहा गया है। प्रसिद्ध भाषाविद् जॉर्ज ग्रियर्सन ने इसे स्वर्ण युग की संज्ञा दी है, वहीं श्यामसुंदर दास ने भी इसे सर्वोत्तम युग माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को ‘भक्ति काल’ कहा, जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘लोक जागरण का युग’ कहा है। यह वह युग है जिसमें हिंदी साहित्य को श्रेष्ठ कवि और उच्चकोटि की रचनाएं प्राप्त हुईं, जिसने सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना को एक नई दिशा दी।
भक्ति आंदोलन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एवं उसका विस्तार
हिंदी साहित्य का भक्तिकाल न केवल साहित्यिक दृष्टि से एक स्वर्णिम युग माना जाता है, बल्कि यह सामाजिक चेतना, आध्यात्मिक जागरण और सांस्कृतिक समरसता का अद्भुत उदाहरण भी है। यह काल भारतीय समाज में व्याप्त ऊंच-नीच, जाति-पांति, धार्मिक अंधविश्वास और सामाजिक असमानता के विरुद्ध एक क्रांतिकारी प्रतिक्रिया था, जिसका मूल आधार था – ईश्वर की निष्कलुष भक्ति और आत्मा की मुक्ति।
दक्षिण भारत में भक्ति परंपरा की शुरुआत
भक्ति आंदोलन की शुरुआत भारत के दक्षिणी भागों से हुई थी। यहाँ तमिलनाडु में आलवार और नायनार नामक भक्तों की दो प्रमुख धाराएँ थीं। आलवार भक्त विष्णु के अनन्य उपासक थे। इनमें से कई तथाकथित ‘नीची’ जातियों से संबंध रखते थे, परंतु उनकी भक्ति-भावना और अनुभवजन्य ज्ञान उन्हें समाज में विशिष्ट स्थान दिलाते थे। उन्होंने ईश्वर के प्रति अगाध प्रेम को ही मोक्ष का साधन माना और सामाजिक बंधनों को नकारते हुए भक्ति को सार्वभौमिक बनाया।
रामानुजाचार्य और उनका योगदान
आलवारों के पश्चात दक्षिण भारत में भक्ति परंपरा को दार्शनिक आधार प्रदान किया रामानुजाचार्य ने। वे विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रणेता थे और उन्होंने ईश्वर और आत्मा के सह-अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भक्ति को जीवन का मुख्य उद्देश्य बताया। रामानुजाचार्य की परंपरा में आगे चलकर उत्तर भारत में एक महान संत का जन्म हुआ – स्वामी रामानंद।
स्वामी रामानंद: भक्ति का लोकतंत्रीकरण
रामानंद ने भक्ति की परंपरा को उत्तर भारत में जन-जन तक पहुँचाया। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे न केवल धार्मिक गुरु थे, बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जात-पांत और ऊँच-नीच के भेद को पूरी तरह नकारते हुए हर जाति और वर्ग के लोगों को भक्ति की राह पर चलने की प्रेरणा दी। उनका प्रसिद्ध कथन –
“जाति-पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”
भक्ति आंदोलन को सामाजिक क्रांति में परिवर्तित करने का आधार बना। उनके शिष्यों में कबीर, रैदास, पीपा, धन्ना, सेना, सूरदास आदि नाम शामिल हैं, जो विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों से आते थे।
भक्ति की धारा का उत्तर भारत में प्रसार
रामानंद और उनके शिष्यों की प्रेरणा से उत्तर भारत में भक्ति की गंगा प्रवाहित होने लगी। यह आंदोलन न केवल धार्मिक क्षेत्र तक सीमित रहा, बल्कि उसने साहित्य, संगीत, समाज और दर्शन को भी गहराई से प्रभावित किया। अब धर्म केवल कर्मकांड या जातिगत अधिकार का विषय नहीं रहा, बल्कि आत्मिक शुद्धि और प्रेम का माध्यम बन गया।
वल्लभाचार्य और पुष्टि मार्ग
रामानंद के समकालीन महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग की स्थापना की, जिसमें कृष्ण के बाल रूप की लीलाओं की उपासना को प्रमुखता दी गई। उन्होंने श्रीकृष्ण के ‘निष्काम प्रेम’ पर आधारित भक्ति का प्रचार किया। वल्लभाचार्य के उपदेशों को उनके शिष्यों – विशेषकर अष्टछाप के कवियों – ने मधुर पदों और रचनाओं में पिरोकर जनसामान्य तक पहुँचाया। इन कवियों में सूरदास, नंददास, परमानंद, कृष्णदास आदि प्रमुख थे।
माध्व, निंबार्क और अन्य संप्रदाय
भक्ति आंदोलन की विविधता में और अधिक रंग भरते हुए अन्य संप्रदायों जैसे माध्वाचार्य के द्वैतवाद और निंबार्काचार्य के द्वैता-द्वैतवाद ने भी गहरे प्रभाव डाले। ये सभी संप्रदाय मिलकर भक्ति के अनेक रूपों और स्वरूपों को जनता के सामने लाए।
नाथ योगियों और कबीर की संत परंपरा
इसी काल में नाथ संप्रदाय का भी प्रभाव दिखता है। यह परंपरा योग-साधना और ध्यान पर केंद्रित थी, जिससे प्रभावित होकर संत परंपरा का जन्म हुआ। इस परंपरा के प्रमुख कवि थे – संत कबीरदास। कबीर ने सामाजिक ढकोसलों, पाखंड, और धार्मिक आडंबरों का तीखा विरोध करते हुए ‘सहज योग’ और ‘निर्गुण ब्रह्म’ की भक्ति पर बल दिया। वे सीधे-सादे दोहों और साखियों के माध्यम से आम जनमानस से जुड़ गए।
सूफी काव्यधारा और हिंदू-मुस्लिम समरसता
इस काल में मुस्लिम कवियों ने भी भक्ति भावना से प्रेरित होकर सूफी मत को अपनाया। सूफीवाद का आधार प्रेम, एकता, और मानवता था – जो कि हिंदू भक्ति आंदोलन के मूल्यों से बहुत अधिक भिन्न नहीं था। सूफी कवियों ने प्रेम को ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना और प्रेमाख्यानात्मक रचनाओं की रचना की। प्रमुख सूफी कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी, मुल्ला दाउद, और कुतुबन प्रमुख हैं। इनकी रचनाएँ जैसे ‘पद्मावत’, ‘चंदायन’, और ‘मृगावती’ आज भी सूफी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
भक्ति काल की काव्यधाराएँ
भक्ति काल को उसके साहित्यिक स्वरूप के आधार पर मुख्यतः चार काव्यधाराओं में विभाजित किया जाता है। ये चारों धाराएँ दो प्रमुख भक्ति धाराओं — सगुण भक्ति काव्यधारा और निर्गुण भक्ति काव्यधारा — के अंतर्गत आती हैं।
- सगुण भक्ति काव्यधारा (भगवान के साकार रूप, जैसे – राम और कृष्ण की उपासना)
- रामाश्रयी शाखा (रामभक्ति काव्यधारा)
- कृष्णाश्रयी शाखा (कृष्णभक्ति काव्यधारा)
- निर्गुण भक्ति काव्यधारा (निराकार, निराकार ब्रह्म की उपासना)
- ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य धारा)
- प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य धारा)
1. सगुण भक्ति काव्यधारा
सगुण भक्ति काव्यधारा के कवि ईश्वर को साकार रूप में मानते थे और राम या कृष्ण के रूप में उनकी उपासना करते थे। इसे दो शाखाओं में बाँटा गया है:
i. रामाश्रयी शाखा (राम भक्ति काव्य)
इस शाखा के कवियों ने भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में चित्रित किया। प्रमुख कवि हैं:
- तुलसीदास – इन्होंने रामकथा को अवधी भाषा में प्रस्तुत किया और ‘रामचरितमानस’ जैसे अमर ग्रंथ की रचना की। इनके अन्य ग्रंथ हैं – दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान बाहुक, राम लला नहछू आदि। तुलसीदास ने लोकभाषा में भक्ति को जन-जन तक पहुँचाया।
- नाभादास – ये तुलसीदास के समकालीन थे। भक्तमाल इनकी प्रमुख रचना है जिसमें भक्ति कालीन संतों का वर्णन है।
- स्वामी अग्रदास – रामानंद परंपरा के कवि, जिनकी ध्यानमंजरी और रामध्यानमंजरी विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
ii. कृष्णाश्रयी शाखा (कृष्ण भक्ति काव्य)
इस शाखा में भगवान कृष्ण को बाल, सखा और प्रेमी रूप में प्रस्तुत किया गया है। रचनाएं अधिकतर ब्रजभाषा में लिखी गई हैं।
- सूरदास – अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध। सूरसागर, साहित्य लहरी और सूर सारावली इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। इन्होंने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को गहराई से चित्रित किया।
- कुंभनदास – अष्टछाप के वरिष्ठ कवि। इनके पदों में भगवत्प्रेम की सरलता और निष्काम भक्ति स्पष्ट दिखाई देती है।
- नंददास – कृष्णभक्ति के एक प्रमुख कवि। रासपंचाध्यायी, मानमंजरी, भँवरगीत इनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
- रसखान – इनका असली नाम सैय्यद इब्राहीम था। इन्होंने इस्लाम होते हुए भी श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व मान लिया। इनकी रचनाएं सुजान रसखान और प्रेमवाटिका में संकलित हैं।
- मीराबाई – राजस्थान की राजकुमारी जिन्होंने सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ते हुए कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। इनके पदों में प्रेम, समर्पण और आध्यात्मिक पीड़ा की झलक मिलती है। मीराबाई पदावली में इनके गीत संकलित हैं।
2. निर्गुण भक्ति काव्यधारा
निर्गुण भक्ति काव्यधारा में ईश्वर को निराकार, निरगुण और अज्ञेय माना गया है। यह धारा भी दो शाखाओं में विभाजित है:
i. ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य धारा)
इसमें मुख्यतः संत कवियों द्वारा रचित साहित्य आता है। ये संत समाज में व्याप्त धार्मिक रूढ़ियों, कर्मकांडों और पाखंडों का विरोध करते थे।
- कबीरदास – निर्गुण संत काव्यधारा के सबसे प्रमुख कवि। इन्होंने हिंदू-मुस्लिम दोनों समाजों की रूढ़ियों पर तीखे प्रहार किए। इनकी वाणी बीजक में संकलित है। वे अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं, जो आज भी जन-जन की जुबान पर हैं।
- नामदेव – महाराष्ट्र के संत, जो हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में भजन गाते थे। इन्होंने जात-पात और पाखंड का विरोध किया।
- रामानंद – यद्यपि ये सगुण उपासक थे, परंतु इनके अनेक शिष्य निर्गुण परंपरा के कवि बने। इनका नाम दोनों धाराओं में एक सेतु के रूप में देखा जाता है।
ii. प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य धारा)
इस धारा में सूफी कवियों द्वारा लिखित प्रेमाख्यानात्मक रचनाएं आती हैं। इन रचनाओं में ईश्वर से प्रेम को मानवीय प्रेम के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।
- मलिक मुहम्मद जायसी – सूफी कवि, जिनकी रचना पद्मावत हिंदी साहित्य की क्लासिक रचनाओं में गिनी जाती है। यह प्रेम, त्याग और भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है।
- मुल्ला दाउद – इन्होंने चंदायन की रचना की, जो प्रेमाख्यानक परंपरा की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति है।
- कुतुबन – इनकी रचना मृगावती है। यह एक प्रेमाख्यानक काव्य है जो अवधी भाषा में लिखा गया था।
रामाश्रयी शाखा (रामभक्ति काव्यधारा) के प्रमुख कवि
1. गोस्वामी तुलसीदास
रामभक्ति काव्यधारा के शीर्षस्थ कवि गोस्वामी तुलसीदास किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने संस्कृत में रची गई रामकथा को जनभाषा अवधी में ‘रामचरितमानस’ के रूप में प्रस्तुत कर घर-घर में लोकप्रिय बना दिया। उनकी काव्य शैली में भक्ति, नीति, दर्शन और समाज सुधार के तत्वों का अद्भुत संगम मिलता है। तुलसीदास का जन्मकाल विवादित है, परंतु सामान्यतः उन्हें 16वीं शती का कवि माना जाता है। उन्होंने हिंदी साहित्य को 13 महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की सौगात दी, जिनमें प्रमुख हैं:
- रामचरितमानस
- विनय पत्रिका
- कवितावली
- गीतावली
- दोहावली
- हनुमान बाहुक
- रामलला नहछू
- रामाज्ञा प्रश्न
- जानकी मंगल
- पार्वती मंगल
- वैराग्य संदीपनी
- बरवै रामायण
- कृष्ण गीतावली
इन रचनाओं के माध्यम से तुलसीदास ने राम को एक मर्यादा पुरुषोत्तम, समाज सुधारक, और दार्शनिक के रूप में चित्रित किया।
2. नाभादास
नाभादास स्वामी अग्रदास के शिष्य थे और एक साधुसेवी भक्त कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका काल लगभग संवत् 1657 (1600 ई.) के आसपास माना जाता है। वे तुलसीदास की मृत्यु के पश्चात भी जीवित रहे और संतों के जीवन और भक्ति को वर्णित करने के लिए प्रसिद्ध ग्रंथ भक्तमाल की रचना की। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं:
- भक्तमाल
- रामाष्टयाम
- रामचरित संग्रह
3. स्वामी अग्रदास
स्वामी अग्रदास, रामानंद परंपरा के संत कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे। इनका समय 16वीं शती का मध्य भाग माना जाता है (लगभग 1556 ई.)। इन्होंने रामभक्ति की भावधारा को गूढ़ साधनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनकी चार प्रमुख रचनाएं उपलब्ध हैं:
- हितोपदेश उपखाणाँ बावनी
- ध्यानमंजरी
- रामध्यानमंजरी
- राम-अष्ट्याम
कृष्णाश्रयी शाखा (कृष्णभक्ति काव्यधारा) के प्रमुख कवि
1. सूरदास
सूरदास कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। ये जन्मांध थे और इनका जन्म 1478 ई. तथा निधन 1573 ई. में हुआ। सूरदास ने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को ब्रज भाषा में अद्भुत माधुर्य के साथ प्रस्तुत किया। उनकी रचनाएं गेय होती हैं, जिससे वे जन-जन में लोकप्रिय हुए। उनकी प्रमुख रचनाएं हैं:
- सूरसागर (12 स्कंधों में रचित; मूलतः सवा लाख पदों का संग्रह था, पर वर्तमान में लगभग 45,000 पद प्राप्त होते हैं। इसका आधार श्रीमद्भागवत पुराण है।)
- सूर सारावली (1103 पदों का संग्रह)
- साहित्य लहरी
2. कुंभनदास
कुंभनदास अष्टछाप के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इनका जन्म 1468 ई. में गोवर्धन (मथुरा) में हुआ और मृत्यु 1582 ई. में हुई। इन्होंने कृष्ण के प्रति निष्काम भक्ति को अभिव्यक्त किया। उनके पद अधिकतर फुटकल रूप में ही मिलते हैं, परंतु उनमें उच्च भावाभिव्यक्ति और सरलता है।
3. नंददास
नंददास 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रमुख कृष्ण भक्त कवि हैं। इनका जन्म 1513 ई. में हुआ तथा मृत्यु 1583 ई. में मानी जाती है। इनकी भाषा ब्रज है और शैली भावपूर्ण तथा माधुर्य युक्त। नंददास की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:
- रासपंचाध्यायी
- सिद्धांत पंचाध्यायी
- अनेकार्थ मंजरी
- मानमंजरी
- रूपमंजरी
- विरहमंजरी
- भँवरगीत
- गोवर्धनलीला
- श्यामसगाई
- रुक्मिणीमंगल
- सुदामाचरित
- भाषादशम-स्कंध
- पदावली
4. रसखान
रसखान मुस्लिम कवि थे, जिनका वास्तविक नाम सैय्यद इब्राहीम था। उनका जन्म 1533 से 1558 ई. के बीच हरदोई (उत्तर प्रदेश) में हुआ। वे कृष्णभक्ति में पूरी तरह लीन हो गए थे और ब्रजभूमि तथा श्रीकृष्ण के प्रेम में जीवन समर्पित कर दिया था। उन्हें “प्रेम रस की खान” कहा जाता है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
- सुजान रसखान
- प्रेमवाटिका
5. मीराबाई
मीरा, 15वीं–16वीं शती की एक ऐसी कवयित्री थीं जिन्होंने समाज की परंपराओं को चुनौती देते हुए स्त्री स्वातंत्र्य का प्रतीक रूप अपनाया। उनका जन्म 1498 ई. में तथा मृत्यु 1547 ई. में मानी जाती है। उन्होंने श्रीकृष्ण को अपना पति स्वीकार करते हुए सांसारिक बंधनों को त्यागकर भक्ति को सर्वोच्च बना दिया। उनके ससुराल ने उनकी भक्ति को अस्वीकार किया, किंतु मीरा डिगी नहीं और समर्पित भक्ति का उदाहरण बन गईं। उनके सभी पद गेय (गाया जाने योग्य) हैं और वे मीराबाई पदावली में संकलित हैं।
इस प्रकार, रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी शाखाओं के इन प्रमुख कवियों ने भक्तिकाल की सगुण धारा को समृद्ध किया और उसे समाज के हर वर्ग तक पहुँचाया। इनकी रचनाएँ आज भी भक्तों के हृदय में जीवित हैं और हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्यधारा) के प्रमुख कवि
1. कबीरदास
कबीरदास संत परंपरा के प्रमुख और सबसे प्रभावशाली कवियों में से एक हैं। इनके जन्म और जीवन के बारे में प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, परंतु जनश्रुतियों के अनुसार इनका जन्म 1398 ई. में तथा मृत्यु 1518 ई. में मानी जाती है। कहा जाता है कि कबीर का पालन-पोषण नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति ने किया था, जिन्हें वे एक तालाब के किनारे मिले थे। कबीर के गुरु रामानन्द थे।
कबीर निरक्षर माने जाते हैं, परंतु उनकी वाणी अत्यंत प्रभावशाली, गूढ़ अर्थ वाली और जनमानस के अनुकूल रही है। उनके शिष्यों ने उनकी वाणियों को संग्रहित कर ‘बीजक’ नामक ग्रंथ तैयार किया।
कबीर ने धार्मिक आडंबर, मूर्तिपूजा, जात-पात, कर्मकांड तथा सामाजिक कुरीतियों का तीखा विरोध किया और सत्य, प्रेम, और मानवता पर आधारित निर्गुण भक्ति का प्रचार किया।
2. रामानन्द
स्वामी रामानन्द संत काव्य धारा के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं। इनका काल निश्चित नहीं है, परंतु इन्हें 15वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। इन्होंने भक्ति को संस्कृत और विशेष वर्गों की सीमा से बाहर निकाल कर आम जनता तक पहुँचाया। रामानन्द, रामानुजाचार्य परंपरा के शिष्य थे और काशी इनके कर्मभूमि रही।
कहा जाता है कि कबीर, रैदास, पीपा, धन्ना, सैना, सुरसुरानंद, परसा और भावनाथ इनके प्रमुख शिष्य थे। रामानन्द ने भक्ति में भाषा और जाति की सीमाओं को तोड़ने का कार्य किया।
3. नामदेव
संत नामदेव महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत-कवि थे, जिनका जन्म 1267 ई. में नरसी बान्ध (सतारा) में हुआ था। इनके गुरु संत विसोबा खेचर थे। नामदेव ने मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं में भक्ति गीतों की रचना की। उन्होंने धर्म में व्याप्त रूढ़ियों, जातिगत भेदभाव और पाखंड का विरोध किया। नामदेव का भक्ति मार्ग प्रेम और भजन के माध्यम से ईश्वर तक पहुँचने का रहा। गुरु ग्रंथ साहिब में भी नामदेव के पद सम्मिलित हैं।
प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्यधारा) के प्रमुख कवि
1. मलिक मुहम्मद जायसी
मलिक मुहम्मद जायसी सूफ़ी काव्य परंपरा के प्रमुख कवि हैं। इनका जन्म 1492 ई. के आसपास उत्तर प्रदेश के जायस (रायबरेली) में हुआ था। इनका मूल नाम मलिक शेख मुंसफी था। सूफ़ी परंपरा के अनुरूप इन्होंने प्रेम को आध्यात्मिक अनुभव का माध्यम माना और रूपक कथा के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति की व्याख्या की।
इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
- पद्मावत (सबसे प्रसिद्ध प्रेमाख्यान काव्य)
- अखरावट
- आखिरी कलाम
- चित्ररेखा
इनकी भाषा अवधी है और शैली रूपक, प्रतीक और सूफ़ी रहस्यवाद से ओतप्रोत है।
2. मुल्ला दाउद
मुल्ला दाउद सूफ़ी प्रेमाख्यान परंपरा के एक प्रमुख कवि थे। इन्होंने 1379 ई. में ‘चंदायन’ नामक काव्य की रचना की, जो प्रेमाख्यानक परंपरा का दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस काव्य में प्रेम को ईश्वर प्राप्ति का साधन बताया गया है। यह अवधी में लिखा गया है।
3. कुतुबन
कुतुबन ने 1503 ई. में अवधी भाषा में ‘मृगावती’ नामक सूफ़ी प्रेमकाव्य की रचना की। वे चिश्ती सम्प्रदाय के संत शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के सुल्तान हुसैनशाह के आश्रय में रहते थे। ‘मृगावती’ में प्रेम और भक्ति के सूफ़ी तत्वों को कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है।
भक्तिकाल की फुटकर रचनाएँ और कवि
1. छीहल – पंचसहेली
राजस्थानी कवि छीहल ने संवत् 1575 में ‘पंचसहेली’ नामक रचना की, जिसमें पाँच सखियों की विरह वेदना का वर्णन किया गया है। भाषा राजस्थानी मिश्रित है, और यह रचना साहित्यिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं मानी जाती।
2. लालचदास – हरिचरित, भागवत दशम स्कंध भाषा
रायबरेली निवासी लालचदास, पेशे से हलवाई थे। इन्होंने संवत् 1585 में ‘हरिचरित’ और संवत् 1587 में ‘भागवत दशम स्कंध भाषा’ की रचना की। ये रचनाएँ अवधी मिश्रित भाषा में हैं तथा दोहा-चौपाई छंदों में लिखी गई हैं। ‘दशम स्कंध भाषा’ का उल्लेख फ्रांसीसी विद्वान गार्सां द तासी ने भी किया है।
3. कृपाराम – हिततरंगिणी
कृपाराम द्वारा रचित ‘हिततरंगिणी’ (संवत् 1598) एक प्राचीन रस-रीति ग्रंथ है। इसमें दोहों के माध्यम से रसों का विवेचन किया गया है। यह रीति साहित्य की प्रारंभिक कड़ी मानी जाती है।
4. नरहरि बंदीजन – रुक्मिणीमंगल, छप्पय नीति, कवित्तसंग्रह
महापात्र नरहरि बंदीजन का जन्म संवत् 1562 में हुआ था। उन्हें यह उपाधि मुग़ल सम्राट अकबर के दरबार से मिली थी। वे असनी, फतेहपुर के निवासी थे। उनके प्रमुख ग्रंथ हैं:
- रुक्मिणीमंगल
- छप्पय नीति
- कवित्तसंग्रह
उनकी शैली नीति, भक्ति और श्रृंगार का सुंदर मिश्रण प्रस्तुत करती है।
5. नरोत्तमदास – सुदामाचरित्र, ध्रुवचरित
नरोत्तमदास सीतापुर (उ.प्र.) के वाड़ी ग्राम के निवासी थे। उन्होंने ‘सुदामाचरित्र’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की जिसमें सुदामा की गरीबी और भक्ति को मार्मिक रूप से चित्रित किया गया है। साथ ही उन्होंने ‘ध्रुवचरित’ भी लिखा है।
6. आलम – माधवानल कामकंदला
आलम अकबरकालीन मुसलमान कवि थे जिन्होंने ‘माधवानल कामकंदला’ नामक प्रेमकथा को दोहा-चौपाई शैली में प्रस्तुत किया। यह ग्रंथ भक्ति और श्रृंगार रस की सम्मिलित छाया प्रस्तुत करता है।
7. मनोहर – शतप्रश्नोत्तरी
मनोहर, एक कछवाहा सरदार और अकबर के दरबारी कवि थे। वे फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इन्होंने नीति और श्रृंगार पर आधारित रचना ‘शतप्रश्नोत्तरी’ लिखी। इनके शृंगारिक दोहे सरस, भावपूर्ण एवं फारसी प्रभावयुक्त हैं।
8. बलभद्र मिश्र – नखशिख, दूषणविचार
बलभद्र मिश्र, प्रसिद्ध कवि केशवदास के बड़े भाई और ओरछा निवासी थे। उन्होंने ‘नखशिख’ नामक श्रृंगार काव्य लिखा जिसमें नायिका के अंगों का अलंकारिक वर्णन है। इसके अतिरिक्त उनकी अन्य रचनाएँ हैं:
- दूषणविचार
- बलभद्री व्याकरण
- हनुमन्नाटक
- गोवर्धन सतसई टीका
इस प्रकार, भक्तिकाल की संत, सूफ़ी, और फुटकर काव्यधारा में विविधता, व्यापकता और आध्यात्मिक गहराई है। इन सभी कवियों ने अपनी-अपनी शैली में भक्ति और प्रेम को समाज के सामने प्रस्तुत कर हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी।
भक्तिकाल के अन्य कवि
1. महाराज टोडरमल
महाराज टोडरमल मुग़ल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक प्रमुख मंत्री थे। इनका जन्म 1 जनवरी 1500 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जनपद स्थित लहरपुर में हुआ था। ये जाति से खत्री थे। अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था, विशेषकर भूमि पैमाइश और राजस्व प्रणाली की स्थापना में टोडरमल का विशेष योगदान रहा। कुछ समय तक वे बंगाल के सूबेदार भी रहे। इनका निधन 8 नवम्बर 1589 को लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुआ।
टोडरमल स्वयं कवि न होते हुए भी कविता में रुचि रखते थे। इनकी रचनाएं मुख्यतः फुटकर कवित्तों के रूप में मिलती हैं। इनके कवित्त सामाजिक कटाक्ष और व्यंग्य से परिपूर्ण होते हैं, जैसे—
जार को विचार कहाँ, गनिका को लाज कहाँ,
गदहा को पान कहाँ, ऑंधारे को आरसी।
निगुनी को गुन कहाँ, दान कहाँ दारिद को।
सेवा कहाँ सूम की अरंडन की डार सी।
मदपी को सुचि कहाँ, साँच कहाँ लंपट को,
नीच को बचन कहाँ स्यार की पुकार सी।
टोडर सुकवि ऐसे हठी तौ न टारे टरै,
भावै कहाँ सूधी बात भावै कहाँ फारसी।
2. महाराज बीरबल
बीरबल, जिनका मूल नाम ‘महेशदास’ था, अकबर के प्रिय दरबारी और नवरत्नों में से एक थे। उनका संबंध मुग़ल शासन से अत्यंत निकट था और वे अपनी चतुराई, हास्यबुद्धि, और तत्काल निर्णय क्षमता के लिए प्रसिद्ध थे। उनके जीवन पर आधारित अनेक रोचक कथाएँ प्रचलित हैं। बीरबल कवि भी थे, पर उनकी कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं मिलती। भरतपुर के एक संग्रह में उनके कई सौ कवित्त संकलित हैं। काव्य में वे अपना नाम ‘ब्रह्म’ रखते थे। उनके काव्य में व्यंग्य, श्रृंगार और अलंकारों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण—
उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर,
उरग पै केकिन के लपटै लहकि हैं।
केकिन के सुरति हिए की ना कछू है, भए,
एकी करी केहरि, न बोलत बहकि है।
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,
बैहर बहत बड़े जोर सो जहकि हैं।
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,
दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है।
3. गंग कवि
गंग, अकबर के दरबार के प्रसिद्ध कवि थे। रहीम खानखाना जैसे विद्वानों से उन्हें विशेष स्नेह प्राप्त था। उनका मूल नाम गंग ब्रह्मभट्ट था। उनके जन्म और परिवार के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। गंग के वीर और श्रृंगार रस से परिपूर्ण अनेक कवित्त उपलब्ध हैं, पर कोई स्वतंत्र ग्रंथ अब तक नहीं मिला है। कहा जाता है कि उन्हें किसी राजा ने हाथी से कुचलवा दिया था, और मरते समय उन्होंने निम्न दोहा कहा—
कबहुँ न भड़घआ रन चढ़े, कबहुँ न बाजी बंब।
सकल सभाहि प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग॥
उनके काव्य में वाग्वैदग्ध्य, हास्य, अतिशयोक्ति और अन्योक्ति की प्रचुरता मिलती है। एक सुंदर उदाहरण—
बैठी थी सखिन संग, पिय को गवन सुन्यो,
सुख के समूह में बियोग-आगि भरकी।
गंग कहै त्रिाविधा सुगंधा कै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की।
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहँ,
लागत ही औरे गति भई मानसर की।
जलचर जरे और सेवार जरि छार भयो,
तल जरि गयो, पंक सूख्यो भूमि दरकी॥
4. जमाल कवि
जमाल एक सहृदय मुस्लिम कवि थे जो भारतीय काव्य परंपरा से भलीभाँति परिचित थे। इनका रचनाकाल संवत् 1627 के आसपास माना जाता है। उनके नीति और श्रृंगार संबंधी दोहे राजस्थानी क्षेत्रों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। उनकी कविता में चित्ताकर्षक अलंकार, प्रतीकात्मकता और पहेलियों का प्रयोग मिलता है। उदाहरण—
पूनम चाँद, कुसूँभ रँग नदी तीर द्रुम डाल।
रेत भीत, भुस लीपणो ए थिर नहीं जमाल॥
बालपणे धौला भया, तरुणपणे भया लाल।
वृद्ध पणे काला भया, कारण कोण जमाल॥
5. केशवदास
केशवदास हिन्दी रीति काव्य परंपरा के प्रथम और प्रमुख कवि माने जाते हैं। इनका जन्म संवत् 1612 (1555 ई.) में ओरछा (मध्यप्रदेश) में हुआ। ये सनाढ्य ब्राह्मण थे, इनके पिता काशीनाथ और पितामह कृष्णदत्त थे। केशव ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह की सभा में रहते थे।
केशव चमत्कारवादी काव्य प्रवृत्ति के पोषक थे, जो अलंकारों को प्रधानता देते थे। उन्होंने स्वयं कहा है—
जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्ता॥
इनके सात प्रमुख ग्रंथ हैं:
- कविप्रिया – अलंकार विषयक ग्रंथ
- रसिकप्रिया – रस और श्रृंगार विवेचन पर आधारित
- रामचंद्रिका – रामकथा पर आधारित खंडकाव्य
- वीरसिंहदेव चरित – वीररसप्रधान ग्रंथ
- विज्ञानगीता – ज्ञानप्रधान रचना
- रतनबावनी – नीति कथाओं पर आधारित
- जहाँगीरजसचंद्रिका – जहाँगीर के यश का वर्णन
केशव की भाषा ब्रजभाषा है और वे वर्णनकौशल, उपमा, उत्प्रेक्षा, और संज्ञा अलंकारों के विशेषज्ञ माने जाते हैं।
1. अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना (संवत् 1610)
अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना प्रसिद्ध मुगल सेनानायक और हिन्दी काव्य के मर्मज्ञ कवि थे। ये मुगल सरदार बैरम खाँ के पुत्र थे और अकबर के प्रमुख सेनानायकों तथा मंत्रियों में से एक रहे। वे संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के विद्वान थे तथा हिन्दी काव्य के गहरे ज्ञाता थे।
उन्होंने अनेक युद्धों का नेतृत्व किया। एक समय जहाँगीर ने युद्ध में धोखा देने के कारण उनकी जागीर जब्त कर ली और उन्हें कैद कर दिया। कैद से छूटने के बाद वे दरिद्र हो गए, पर उनकी दानशीलता बनी रही — उन्होंने ‘गंग’ नामक कवि को 36 लाख रुपये दान किए।
वे अपनी असहायता के क्षणों में दुखी होते थे, जब किसी याचक की वे सहायता नहीं कर पाते थे। इसी भाव को उन्होंने इस दोहे में व्यक्त किया:
"तबही लौं जीबो भलो देबौ होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति उचित न होय रहीम॥"
गोस्वामी तुलसीदास जी से उनका गहरा स्नेह था। एक घटना के अनुसार, एक ब्राह्मण जब विवाह हेतु धन के लिए तुलसीदास जी के पास पहुँचा तो उन्होंने रहीम के लिए यह पंक्ति लिखी:
"सुरतिय नरतिय नागतिय यह चाहत सब कोय।"
रहीम ने उत्तर में यह पंक्ति जोड़कर ब्राह्मण को बहुत धन देकर विदा किया:
"गोद लिये हुलसी फिरै तुलसी सो सुत होय।"
उन्होंने बाबर की आत्मकथा ‘वाक़यात-ए-बाबरी’ का तुर्की से फारसी में अनुवाद किया।
उनकी रचनाएँ जैसे ‘रहीम काव्य’ (हिन्दी-संस्कृत मिश्रित), ‘खेट कौतुकम्’ (संस्कृत-फारसी मिश्रित ज्योतिष ग्रंथ), और संस्कृत श्लोक उनकी विद्वता का प्रमाण हैं।
2. कादिरबख़्श (संवत् 1635)
कादिरबख़्श पिहानी, जिला हरदोई के निवासी थे और सैयद इब्राहीम के शिष्य थे। उनकी कोई प्रमुख पुस्तक प्राप्त नहीं होती, परंतु उनके फुटकर कवित्त प्रसिद्ध हैं। उनकी भाषा सरल, चलती हुई होती थी और लोकजीवन की सच्चाइयों को अभिव्यक्त करती थी।
उनका यह प्रसिद्ध कवित्त आज भी लोगों की जुबान पर है:
"गुन को न पूछै कोऊ, औगुन की बात पूछै,
कहा भयो दई! कलिकाल यों खरानो है।
पोथी औ पुरान ज्ञान ठट्ठन में डारि देत,
चुगुल चबाइन को मान ठहरानो है।
कादिर कहत यासों कछु कहिबे को नाहिं,
जगत की रीत देखि चुप मन मानो है।
खोलि देखौ हियो सब ओरन सों भाँति भाँति,
गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है।"
3. सैयद मुबारक अली बिलग्रामी (संवत् 1640)
सैयद मुबारक अली बिलग्रामी हिन्दी, फारसी, अरबी और संस्कृत के विद्वान थे। वे हिन्दी में विशेषतः श्रृंगार रस की रचना के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने नायिका के अंगों का अत्यंत विस्तार से वर्णन किया। ‘अलकशतक’ और ‘तिलशतक’ उनके मुख्य ग्रंथ हैं, जिनमें एक-एक अंग पर सौ-सौ दोहे लिखे हैं। उनकी शैली में उत्प्रेक्षा अलंकार की प्रचुरता है, जैसे इस दोहे में:
"परी मुबारक तिय बदन अलक ओप अति होय।
मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोय॥
चिबुक कूप में मन परयो छबिजल तृषा विचारि।
कढ़ति मुबारक ताहि तिय अलक डोरि सी डारि॥"
4. बनारसीदास (संवत् 1643 – 1698)
बनारसीदास जौनपुर के जैन जौहरी थे और आमेर में भी निवास करते थे। उनके पिता का नाम खड़गसेन था। उन्होंने आत्मकथात्मक ग्रंथ ‘अर्धकथानक’ लिखा जिसमें उन्होंने अपने जीवन का वृत्तांत संवत् 1698 तक दिया।
- पहले वे श्रृंगार रस की कविता करते थे, पर ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने अपनी पुरानी कविताएँ गोमती में फेंक दीं।
- जैनधर्म संबंधी कई ग्रंथों का सार हिन्दी में प्रस्तुत किया।
- प्रमुख रचनाएँ:
- अर्धकथानक
- बनारसी विलास
- नाटक समयसार
- नाममाला
- मोक्षपदी, कल्याणमंदिर भाषा, वेदनिर्णय पंचाशिका आदि।
5. सेनापति (संवत् 1646 के आसपास)
सेनापति अनूपशहर के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम गंगाधर और गुरु हीरामणि दीक्षित थे। वे हिन्दी साहित्य में ऋतु वर्णन और भक्ति भावपूर्ण रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी रचनाएँ ‘कवित्तरत्नाकर’ में संगृहीत हैं। उनका यह प्रसिद्ध कवित्त भक्ति की अद्भुत भावना को दर्शाता है:
"आपने करम करि हौं ही निबहौंगे
तौ तौ हौं ही करतार, करतार तुम काहे के?"
6. पुहकर कवि (संवत् 1673)
पुहकर मैनपुरी के परतापुर निवासी कायस्थ कवि थे। बाद में वे गुजरात के सोमनाथ क्षेत्र के भूमिगाँव में रहने लगे। जहाँगीर के शासनकाल में उन्हें किसी कारण से आगरा में कैद कर लिया गया। उन्होंने वहीं कारागार में ‘रसरतन’ नामक ग्रंथ की रचना की, जिससे प्रसन्न होकर बादशाह ने उन्हें मुक्त कर दिया।
7. सुंदर (संवत् 1688)
सुंदर ग्वालियर के ब्राह्मण और शाहजहाँ के दरबारी कवि थे।
- बादशाह ने उन्हें कविराय और फिर महाकविराय की पदवी प्रदान की।
- उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
- सुंदरशृंगार (नायिकाभेद पर आधारित ग्रंथ)
- सिंहासन बत्तीसी
- बारहमासा
8. लालचंद या लक्षोदय (संवत् 1700)
लालचंद मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह की माता जांबवती जी के प्रधान श्रावक हंसराज के भतीजे थे। उन्होंने ‘पद्मिनीचरित्र’ नामक एक प्रबंध काव्य की रचना की, जिसमें राजा रत्नसेन और पद्मिनी की कथा राजस्थानी मिश्रित भाषा में वर्णित है।
कथा के अनुसार, रत्नसेन की रानी प्रभावती ने अपमानजनक ढंग से कहा कि यदि मेरा बनाया भोजन अच्छा नहीं लगता तो पद्मिनी ब्याह लाओ। इस पर रत्नसेन ने उत्तर दिया:
"तब तड़की बोली तिसे जी राखी मन धारि रोस।
नारी आणों काँ न बीजी द्यो मत झूठो दोस
हम्मे कलेवी जीणा नहीं जी किसूँ करीजै बाद।
पदमणि का परणों न बीजी जिमि भोजन होय स्वाद
इसपर रत्नसेन यह कहकर उठ खड़ा हुआ,
राणो तो हूँ रतनसी परणूँ पदमिनि नारि।"
इन साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य के विभिन्न रसों और विषयों को समृद्ध किया। किसी ने श्रृंगार को अलंकारिक भाषा में व्यक्त किया तो किसी ने भक्ति और जीवनबोध को सरल लेकिन प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया। संस्कृत, फारसी, अरबी और ब्रजभाषा का सामंजस्य उनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। ये कवि न केवल अपने युग के साहित्यिक प्रतिनिधि थे, बल्कि लोकजीवन, धर्म, दर्शन और राजनीति के दर्पण भी थे।
आख्यान काव्य
आख्यान काव्य हिन्दी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है, जिसमें किसी ऐतिहासिक, पौराणिक या कल्पित कथा को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ लोकजीवन को नैतिक आदर्शों और धार्मिक भावनाओं से जोड़ना होता है। आख्यान काव्य में वर्णनात्मक शैली होती है और इसमें किसी पात्र या घटना के माध्यम से एक गाथा कही जाती है।
आख्यान काव्य का प्रमाण हमें ऋग्वेद की संहिताओं में ही मिलने लगता है, जिसमें पुराण-कथाएँ वर्णित हैं। अथर्ववेद में आख्यानों और पुराणों का उल्लेख मौखिक परंपरा से हटकर लिखित रूप में मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि इस विधा की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। यह परंपरा हिन्दी साहित्य में मध्यकाल तक आते-आते समृद्ध हो गई। इस काल में आख्यान काव्य की रचनाओं में धार्मिकता, भक्ति, नीति, प्रेम और वीरता जैसे विविध रसों का समावेश दिखाई देता है।
निम्नलिखित हिन्दी साहित्य के प्रमुख आख्यान काव्य हैं, जिनका विवरण नीचे दिया गया है:
1. सत्यवती कथा – ईश्वरदास
यह आख्यान एक काल्पनिक वृत्तांत पर आधारित है, परंतु इसकी रचना इस ढंग से की गई है कि वह ऐतिहासिक या पौराणिक आख्यान सा प्रतीत होता है। इस रचना में कथा के साथ-साथ नीति, प्रेम और समाजिक दृष्टिकोण का भी समावेश है।
2. अर्ध्दकथानक – बनारसीदास
यह हिन्दी का एकमात्र आत्मकथात्मक आख्यान काव्य है, जिसकी रचना संवत् 1698 में प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदास ने की थी। इसमें लेखक ने अपने जीवन के अनुभवों, धार्मिक झुकाव और वैराग्य की अवस्था का चित्रण किया है। यह आत्मकथात्मक आख्यान हिन्दी साहित्य में एक अनूठा और ऐतिहासिक महत्व रखता है।
3. रामचरितमानस – गोस्वामी तुलसीदास
यह आख्यान काव्य हिन्दी साहित्य का अमूल्य रत्न है। इसमें तुलसीदास ने वाल्मीकि रामायण की कथा को अवधी भाषा में अत्यंत भक्तिभाव से प्रस्तुत किया है। यह केवल एक आख्यान नहीं, अपितु हिन्दू समाज के धार्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक जीवन का आदर्श ग्रंथ है।
4. ढोला मारू रा दूहा – प्राचीन लोककवि
राजस्थानी लोकसंस्कृति का यह प्रसिद्ध आख्यान प्रेम और वीरता की कथा है। इसमें ढोला और मारू की प्रेमगाथा गायी गई है, जो लोकगीतों और लोकपरंपरा में आज भी जीवित है।
5. हरिचरित्र – लालचदास
यह आख्यान भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के विविध प्रसंगों का वर्णन करता है। इसमें भक्तिभाव के साथ-साथ कृष्ण के बाल्यलीला, रासलीला आदि का सुंदर वर्णन मिलता है।
6. लक्ष्मणसेन पद्मावती कथा – दामो कवि
इस आख्यान काव्य में राजा लक्ष्मणसेन और पद्मावती की कथा को काव्यबद्ध किया गया है। इसकी शैली रोचक और भावपूर्ण है।
7. रुक्मिणीमंगल – नरहरि और नंददास
दोनों कवियों ने रुक्मिणी और श्रीकृष्ण के विवाह प्रसंग को आधार बनाकर रचनाएँ की हैं। दोनों की काव्यशैली में भक्ति, श्रृंगार और नीति का सुंदर संगम मिलता है।
8. माधवानल कामकंदला – आलम
यह आख्यान प्रेम और त्याग पर आधारित है। माधवानल और कामकंदला की कथा में प्रेम की गहराई और सामाजिक मर्यादा का उल्लेख मिलता है। यह एक प्रकार से नीति और प्रेम का मिश्रण है।
9. सुदामाचरित्र – नरोत्तमदास
यह आख्यान श्रीकृष्ण और उनके मित्र सुदामा की कथा पर आधारित है। इसमें भक्ति, विनय और मित्रता का उत्कृष्ट चित्रण हुआ है।
10. रसरतन – पुहकर कवि
यह आख्यान कारागार में लिखा गया था जब पुहकर जहाँगीर द्वारा बंदी बना दिए गए थे। इसकी रचना संवत् 1673 में हुई और यह अत्यंत मार्मिक और भावनात्मक काव्य है।
11. रामचंद्रिका – केशवदास
केशवदास द्वारा रचित यह आख्यान काव्य रामकथा पर आधारित है, परंतु इसकी शैली विशुद्ध रीति कालीन है। इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता है और कथा को अलंकारिक भाषा में कहा गया है।
12. पद्मिनीचरित्र – लालचंद
यह आख्यान रानी पद्मिनी और राजा रत्नसेन की कथा को प्रस्तुत करता है। इसमें पद्मिनी की वीरता, सौंदर्य और चरित्र की गरिमा का सुंदर वर्णन हुआ है।
13. वीरसिंहदेवचरित – केशवदास
यह आख्यान काव्य ओरछा नरेश वीरसिंहदेव के जीवन पर आधारित है। इसमें वीर रस की प्रमुखता है और राजा के युद्धों तथा पराक्रम का वर्णन मिलता है।
14. कनकमंजरी – काशीराम
यह आख्यान रूपक शैली में है जिसमें एक सुंदर कथा के माध्यम से भक्ति और नीति का संदेश दिया गया है।
15. बेलि क्रिसन रुकमणी री – राजा पृथीराज (जोधपुर)
यह आख्यान काव्य जोधपुर के राठौड़ शासक पृथीराज द्वारा रचित है। इसमें श्रीकृष्ण और रुक्मिणी की कथा को वर्णित किया गया है। इसकी भाषा और शैली में राजस्थानी प्रभाव प्रमुख है।
आख्यान काव्य हिन्दी साहित्य की एक जीवंत विधा है, जिसमें ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक और प्रेमकथाएँ इस ढंग से प्रस्तुत की जाती हैं कि वे न केवल पाठक का मनोरंजन करती हैं, अपितु उसमें भावनात्मक और नैतिक चेतना भी उत्पन्न करती हैं। ये काव्य न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को भी अक्षुण्ण बनाए रखने में सहायक हैं।
भक्ति काल की विशेषताएं एवं सामाजिक उपलब्धियाँ
- सामाजिक जागरण – इस युग के कवियों ने समाज में फैली विषमताओं, छुआछूत, जातिवाद और पाखंड का खुला विरोध किया। जातिवाद, ऊँच-नीच, भेदभाव को नकार कर समानता और भाईचारे की भावना को बल दिया।
- भाषा का विकास – खड़ी बोली, ब्रज, अवधी, बुंदेली, राजस्थानी आदि लोक भाषाओं में रचनाएँ लिखकर आम जनता को साहित्य से जोड़ा गया।
- धार्मिक सहिष्णुता – भक्ति काल ने धार्मिक एकता और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया। हिंदू और मुस्लिम संतों ने एक ईश्वर की भक्ति को ही प्रमुख माना।
- धर्म और आस्था का लोकतंत्रीकरण – ईश्वर केवल पंडितों और पुरोहितों की बपौती नहीं रहा, बल्कि हर व्यक्ति को उसकी भक्ति का अधिकार मिला।
- स्त्री चेतना – मीराबाई जैसे कवियों ने स्त्रियों की स्वतंत्रता, आत्मविश्वास और भक्ति की स्वतंत्र पहचान बनाई।
- गान-परंपरा – इस युग की अधिकांश रचनाएं गेय हैं। भजनों, कीर्तन और पदों के माध्यम से भक्ति जन-जन तक पहुँची।
- संप्रदायिक विविधता – इस काल में वैष्णव, शैव, सूफी, नाथपंथी आदि अनेक धाराओं का समन्वय दिखाई देता है।
निष्कर्ष
भक्ति काल का साहित्य केवल एक धार्मिक या साहित्यिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह एक जन-आंदोलन था जिसने भारतीय समाज को एक नई दिशा दी। इस काल में भक्त कवियों ने जिस प्रेम, भक्ति, समरसता और समानता का संदेश दिया, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। राम, कृष्ण, अल्लाह या निराकार – सभी रूपों में भक्तों ने ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा, प्रेम और समर्पण को प्रस्तुत किया और एक ऐसी सांस्कृतिक धारा प्रवाहित की जिसने भारत को आध्यात्मिक समरसता और सांस्कृतिक एकता से ओतप्रोत किया।
यही कारण है कि भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है – एक ऐसा युग जहाँ साहित्य और समाज, धर्म और दर्शन, कला और काव्य – सभी एक स्वर में गूंजे – “हरि बिनु रहै न कोऊ!”
भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत से हुई। दक्षिण के आलवार और नायनार भक्तों ने ईश्वर भक्ति के माध्यम से समाज में फैले जात-पात, ऊँच-नीच और धार्मिक पाखंडों के विरुद्ध आवाज उठाई। आलवारों में कई संत तथाकथित नीची जातियों से संबंधित थे। वे अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, परंतु उनमें अनुभव और भक्ति की गहराई थी। इन संतों ने अपने गीतों और भजनों के माध्यम से सामाजिक एकता और आध्यात्मिक चेतना को जागृत किया।
इन संतों के पश्चात रामानुजाचार्य ने भक्ति को दर्शन से जोड़ा और ‘विशिष्टाद्वैतवाद’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसी परंपरा में रामानंद का नाम आता है, जिनका उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन को मजबूत करने में अत्यंत योगदान रहा।
रामानंद ने जातिवाद के बंधनों को तोड़ते हुए सभी जातियों के लोगों को भक्ति के अधिकार से जोड़ दिया। उन्होंने कहा:
“जाति-पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”
उनकी शिष्य परंपरा में अनेक महान संत एवं कवि हुए, जैसे कबीर, रैदास, पद्मावती, धन्ना, पीपा, आदि। दक्षिण की इस भक्तिगंगा को रामानंद और उनकी शिष्य मंडली ने उत्तर भारत में प्रवाहित किया, जिससे समस्त भारत एक व्यापक भक्ति आंदोलन से गुजरा। इस युग के कवि आज भी प्रेरणा के स्रोत हैं। उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस समय थीं। तुलसीदास, कबीर, सूरदास, मीरा, जायसी, रसखान जैसे कवियों की वाणी आज भी मानवता को जोड़ने का कार्य करती है।
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