पृथ्वी, सौरमंडल में स्थित एक अद्भुत ग्रह है, जिसकी उत्पत्ति आज से लगभग पाँच अरब वर्ष पहले हुई मानी जाती है। पृथ्वी पर जीवन के उत्पन्न होने से पहले इस ग्रह में अनेक भौतिक व रासायनिक बदलाव हुए, जिनके परिणामस्वरूप वायु, जल, मिट्टी, वनस्पति तथा अन्य महत्वपूर्ण तत्व उत्पन्न हुए। इन सभी प्राकृतिक तत्वों से मिलकर एक अद्भुत पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण हुआ, जो आज मानव सहित लाखों-करोड़ों प्रजातियों को पोषण प्रदान कर रहा है।
पृथ्वी पर जब जीवन की उत्पत्ति हुई तो सर्वप्रथम वनस्पति, फिर जीव-जंतु और अंत में मनुष्य का विकास हुआ। अन्य प्राणियों से इतर, मनुष्य की विशेषता उसकी बुद्धि, विवेक, कौशल और अद्भुत रचनात्मकता है। अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में मनुष्य के मस्तिष्क का विकास कहीं अधिक हुआ। उसकी सोचने, समझने, रचने और बदलने की क्षमता अद्वितीय रही है। अपनी इस अद्वितीय क्षमता के बल पर, मनुष्य ने न केवल प्रकृति में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग किया, बल्कि नए-नए संसाधनों की खोज की और उन्हें बदलकर, रूपांतरित करके अपनी आवश्यकता के अनुसार उपयोग में लिया।
औद्योगिक क्रांति के आगमन के साथ, संसाधनों के उपभोग में तेजी आई। एक ओर जहाँ इसने मानव जीवन को सरल और सुखद बनाया, वहीं दूसरी ओर इस अविवेकपूर्ण उपभोग ने पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ना शुरू कर दिया। इस युग में मानव सभ्यता के विकास के लिए आर्थिक और औद्योगिक प्रगति पर विशेष जोर दिया गया, जिसका मुख्य आधार था प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन।
आज, जब हमारी जनसंख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, इस परिप्रेक्ष्य में आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसाधनों का उपयोग कई गुना बढ़ गया है। परिणामस्वरूप, वायु, जल, भूमि, वन, खनिज आदि प्राकृतिक संसाधनों के सीमित होने और उनके दूषित होने से उत्पन्न समस्याएँ दिन-प्रतिदिन विकराल रूप लेती जा रही हैं। इस स्थिति ने विश्व के वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक संगठनों को इस ओर सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि किस तरह इन संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए ताकि भविष्य में पृथ्वी पर एक संतुलित पर्यावरण बनाए रखा जा सके।
विकास और औद्योगिक क्रांति के प्रभाव
इतिहास में औद्योगिक क्रांति के दौरान तकनीकी प्रगति हुई, जिससे मनुष्य के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग संभव हुआ। इस काल में आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक विकास को प्राथमिकता दी गई, और औद्योगिक विकास के लिए संसाधनों के दोहन को अनिवार्य माना गया।
तेजी से होती इस प्रगति के कारण जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इससे आवश्यकताओं और उपभोग में तेजी से इजाफा हुआ। उपभोग में इस वृद्धि ने संसाधनों के अविवेकपूर्ण इस्तेमाल को जन्म दिया, जिससे वायु, पानी, मिट्टी समेत समस्त पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ा। प्रदूषण के इस गहराते संकट ने वैज्ञानिकों, विचारकों और साधारण जनता को सोचने पर मजबूर कर दिया कि किस तरह इस विकराल समस्या का समाधान किया जाए।
संसाधन की परिभाषा
अंग्रेजी शब्द “Resource” दो शब्दों Re (पुनः) तथा Source (स्रोत) से मिलकर बना है। इसका अर्थ है “वह साधन जो पुनः मिल सकता है” या “पुनः पूर्ति योग्य स्रोत”। इस तरह प्राकृतिक संसाधन से अभिप्राय उन सभी भौतिक तत्वों, साधनों और उपहारों से है, जो प्रकृति में उपलब्ध होते हैं, और जिन पर मनुष्य, पशु-पक्षी, तथा अन्य जीव-जन्तु निर्भर रहते हैं।
संसाधन केवल वही नहीं होते जो हमारी आंखों से दिखाई दें, बल्कि वे अदृश्य रूप में भी होते हैं, जैसे मानवीय इच्छाएँ, सामाजिक कौशल, सांस्कृतिक ज्ञान, परंपराएँ, नैतिक मूल्य आदि। दृश्यमान संसाधनों में वायु, जल, खनिज, वनस्पति, भूमि, ऊर्जा के स्रोत शामिल होते हैं। अदृश्य संसाधनों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक संबंध, आर्थिक अवसर और कौशल जैसी चीजें आती हैं।
संसाधनों का अर्थ
‘संसाधन’ शब्द अंग्रेजी शब्द “Resource” से लिया गया है, जो “Re” यानी पुनः, तथा “Source” यानी साधन या उपाय शब्दों से मिलकर बना है। इस शब्द का अर्थ है कि संसाधन प्रकृति में मौजूद वे तत्व हैं, जिन पर कोई जैविक समुदाय लंबे समय तक निर्भर रह सके, और जिनकी पुनःपूर्ति या पुनर्निर्माण करने की क्षमता हो।
संसाधनों के उदाहरण
- अक्षय संसाधन: जैसे सूर्य, वायु, पानी, जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है।
- पुनरुत्पादनीय संसाधन: जैसे वनस्पति, जिन्हें पुनः उत्पन्न किया जा सकता है।
- अ-नवीकरणीय संसाधन: जैसे खनिज तथा जीवाश्म ईंधन, जो एक बार समाप्त हो जाने पर फिर से उत्पन्न नहीं हो सकते।
संसाधनों के रूप
संसाधन मुख्यतः दो रूपों में मिलते हैं:
- दृश्यमान संसाधन: जल, भूमि, खनिज, वनस्पति, इत्यादि।
- अदृश्य संसाधन: मानव स्वास्थ्य, इच्छा शक्ति, सामाजिक सामंजस्य, ज्ञान, आर्थिक विकास।
प्राकृतिक संसाधनों का महत्व
मानव सभ्यता के विकास में प्राकृतिक संसाधनों की भूमिका केंद्रीय रही है। प्राचीन काल से लेकर आज के आधुनिक युग तक, प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहना हमारी आवश्यकता भी है और अनिवार्यता भी। इन संसाधनों के उचित उपयोग से मानव समाज ने कृषि, उद्योग, ऊर्जा उत्पादन, परिवहन, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में प्रगति की है।
प्राकृतिक संसाधनों के बिना मानव जीवन की कल्पना करना असंभव है। जल से हमारी प्यास बुझती है, भोजन मिलता है; ऊर्जा से विकास होता है; वन हमें ऑक्सीजन व वनस्पति प्रदान करते हैं; तथा खनिज संसाधनों से औद्योगिक विकास गति पकड़ता है।
यदि हम इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हमें ज्ञात होता है कि प्राचीन सभ्यताएँ उन्हीं स्थलों पर फली-फूलीं, जहाँ पानी, उपजाऊ मिट्टी, खनिज, जंगल और अन्य प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में मौजूद थे।
संसाधनों की वर्तमान स्थिति
तेजी से बढ़ती जनसंख्या, उपभोक्तावाद, और अविवेकपूर्ण औद्योगिकरण से आज हमारे संसाधन खतरे में हैं। वैश्विक तापमान में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, मृदा क्षरण, वनों की कटाई, जल स्रोतों का प्रदूषण, तथा वायु की गुणवत्ता में गिरावट इसी असंतुलन के परिणाम हैं।
संसाधनों के संरक्षण के उपाय
आज आवश्यकता है कि हम अपनी सोच में बदलाव लाएँ। हमें चाहिए कि हम सतत विकास के सिद्धांत पर जोर दें — ऐसा विकास जो आज की जरूरतों को पूरा करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के लिए संसाधनों को सुरक्षित रखे।
संरक्षण के कुछ प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं:
- अक्षय ऊर्जा का उपयोग – सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत जैसी स्वच्छ ऊर्जा स्रोत अपनाएँ।
- जल संरक्षण – वर्षा जल संग्रहण, जल पुनर्चक्रण जैसी तकनीकों से पानी के दुरुपयोग को कम करें।
- वन संरक्षण – वनों की कटाई रोकें, वृक्षारोपण अभियान चलाएँ।
- अपशिष्ट प्रबंधन – कचरे को कम करने, पुनर्चक्रण करने और पुन: उपयोग करने पर जोर दें।
- जन जागरूकता – लोगों को शिक्षा, प्रचार-प्रसार के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाए।
प्राकृतिक संसाधन हमारे जीवन के अभिन्न हिस्से हैं। मानव विकास, आर्थिक प्रगति, सामाजिक उन्नति सभी इन संसाधनों पर निर्भर हैं। हमें इस तथ्य को कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारी आवश्यकताएँ जितनी महत्वपूर्ण हैं, उतना ही महत्वपूर्ण भविष्य की पीढ़ियों के लिए इस प्रकृति रूपी खजाने को सुरक्षित रखना है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के बिना मानव सभ्यता का विकास संभव नहीं है। हमें चाहिए कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वच्छ, सुरक्षित और संतुलित पर्यावरण छोड़ें। इसके लिए आवश्यकता है हमारी सामूहिक जिम्मेदारी की — हम सभी को मिलकर संसाधनों के उपयोग में मितव्ययिता, वैज्ञानिकता और संवेदनशीलता अपनानी होगी। आज आवश्यकता है एक नए दृष्टिकोण की, जिसमें मनुष्य अपनी सोच में बदलाव लाए, केवल उपभोग नहीं बल्कि संरक्षण के भाव से कार्य करे, ताकि आने वाली पीढ़ियों को एक सुंदर, स्वच्छ और सुरक्षित पर्यावरण मिल सके।
Environmental Economics – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें –
- 51वां G-7 शिखर सम्मेलन और भारत की भूमिका
- बिहार में भारत की पहली मोबाइल आधारित ई-वोटिंग प्रणाली
- अंतर्राष्ट्रीय बिग कैट एलायंस (IBCA) | वैश्विक संरक्षण में भारत की अगुवाई
- संसाधन (Resources) | परिभाषा, विशेषताएँ, महत्व एवं सतत विकास
- पर्यावरण के अध्ययन का महत्व | Importance of the Study of Environment
- पर्यावरण के तत्व एवं घटक | Components of Environment
- आधुनिक मुद्रा सिद्धांत (वर्तमान दृष्टिकोण) | Modern Monetary Theory
- मुद्रा: प्रकृति, परिभाषाएँ, कार्य, और विकास | Money: Nature, Definitions, Functions, and Evolution
- मुद्रा एवं सन्निकट मुद्रा | Money and Near Money
- मुद्रा एवं मुद्रा मूल्य | Money and Value of Money
- मुद्रा के प्रकार | Kinds of Money