प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषाओं के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है। 1 ई. से 500 ई. तक प्रचलित इस भाषा को ‘द्वितीय प्राकृत’ कहा गया है। यह वह काल था जब संस्कृत अपने साहित्यिक और धार्मिक गौरव में प्रतिष्ठित हो चुकी थी, और आम जनमानस की भाषा एक सरल, बोलचाल पर आधारित, स्वाभाविक भाषिक स्वरूप में प्रकट हो रही थी — जिसे ‘प्राकृत’ कहा गया। यह न केवल जनभाषा थी, बल्कि साहित्य, नाट्य और धार्मिक उपदेशों की भी सशक्त माध्यम बनी।
प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति और मूल
1. प्राचीनतम जनभाषा के रूप में प्राकृत:
नामि साधु के अनुसार, ‘प्राकृत’ शब्द ‘प्राक्’ (पूर्व) और ‘कृत’ (बना हुआ) से मिलकर बना है। इसका आशय है — पूर्व में बनी हुई या मूलभूत भाषा। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि प्राकृत उस भाषा का प्रतिनिधित्व करती है जो मूल, सहज और जनसंचार की प्रारंभिक प्रणाली थी।
नामि साधु ने काव्यालंकार की टीका में यह भी लिखा:
“प्राकृतेति सकल-जगज्जन्तूनां व्याकरणादि मिरनाहत संस्कारः सहजो वचन व्यापारः प्रकृति: प्रकृति तत्र भवः सेव वा प्राकृतम्।”
इस उद्धरण में उन्होंने प्राकृत को व्याकरण रहित सहज वचन व्यापार बताया है — एक ऐसी भाषा जो सभी जीवों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।
2. संस्कृत से उत्पन्न प्राकृत:
प्राचीन ग्रंथों और वैयाकरणों की एक धारा यह मानती है कि प्राकृत भाषा संस्कृत से उत्पन्न हुई। हेमचन्द्र, मार्कण्डेय, वासुदेव, लक्ष्मीधर आदि विद्वानों ने अपने-अपने ग्रंथों में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि संस्कृत ही प्राकृत की जननी है।
- “प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं प्राकृतम्।” — हेमचन्द्र
- “प्रकृतेः संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्।” — सिंह देवमणि
- “कृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता।” — लक्ष्मीधर
इन सभी मतों में संस्कृत को प्रकृति (मूल) तथा प्राकृत को उसकी विकृति (उपज) के रूप में देखा गया है। यह भाषाई परिवर्तन समय के साथ उच्च संस्कृति से जनभाषा की ओर एक संक्रमण के रूप में प्रस्तुत होता है।
द्वितीय प्राकृत – साहित्यिक प्राकृत का स्वरूप
1 ई. से 500 ई. के मध्य विकसित प्राकृत भाषाएँ ‘द्वितीय प्राकृत’ कही जाती हैं। इस युग की प्राकृत भाषाओं को ‘साहित्यिक प्राकृत’ भी कहा गया क्योंकि इस दौर में प्राकृत साहित्य और नाट्यकला के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान प्राप्त करती है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में पहली बार प्राकृत भाषाओं के स्वरूप, प्रकार और प्रयोजन पर विचार किया गया।
प्राकृत भाषाओं का वर्गीकरण: भरतमुनि की दृष्टि
भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में 7 मुख्य प्राकृत भाषाओं और 7 गौण विभाषाओं का उल्लेख किया:
मुख्य प्राकृत भाषाएँ:
- मागधी
- अवन्तिजा
- प्राच्या
- सूरसेनी (शौरसेनी)
- अर्धमागधी
- बाहलीक
- दाक्षिणात्य (महाराष्ट्री)
गौण विभाषाएँ:
- शाबरी
- आभीरी
- चाण्डाली
- सचरी
- द्राविड़ी
- उद्रजा
- वनेचरी
ये सभी भाषाएँ सामाजिक वर्गों, क्षेत्रीय परिस्थितियों और नाट्य प्रयोजनों के अनुसार प्रयोग में लाई जाती थीं।
प्राकृत वैयाकरण और व्याकरण ग्रंथ
प्राकृत भाषा का व्याकरणिक अध्ययन सर्वप्रथम वररुचि (7वीं शताब्दी) द्वारा किया गया। उनके ग्रंथ प्राकृत प्रकाश में प्राकृत के चार मुख्य भेद बताए गए:
- महाराष्ट्री
- पैशाची
- मागधी
- शौरसेनी
इसके बाद हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में तीन और भेद जोड़े:
- आर्षी (अर्धमागधी)
- चूलिका पैशाची
- अपभ्रंश
हेमचन्द्र को प्राकृत का ‘पाणिनि’ कहा गया है। उन्होंने द्वयाश्रय काव्य की रचना करके अपने व्याकरण को सजीव उदाहरणों से समृद्ध किया।
मुख्य साहित्यिक प्राकृत भाषाएँ
1. महाराष्ट्री प्राकृत: आदर्श साहित्यिक भाषा
महाराष्ट्री को सबसे अधिक परिष्कृत एवं मानक प्राकृत माना गया है। इसका उद्गम महाराष्ट्र से जुड़ा है, परंतु इसका क्षेत्र ‘महान् राष्ट्र’ तक विस्तृत रहा — जिसमें मध्यप्रदेश, राजपुताना आदि शामिल हैं।
विशेषताएँ:
- भरतमुनि ने दाक्षिणात्य प्राकृत का पर्याय महाराष्ट्री को माना।
- अवन्ति और बाह्लीक भाषाएँ भी इसमें सम्मिलित समझी गईं।
- डॉ. हार्नले, जॉर्ज ग्रियर्सन, जूल ब्लाक ने इसे मराठी की जननी बताया है।
- डॉ. मनमोहन घोष व डॉ. सकुमार सेन ने इसे शौरसेनी का विकसित रूप कहा है।
प्रसिद्ध ग्रंथ:
- गाहा सतसई (राजा हाल)
- सेतुबन्ध (प्रवरसेन)
- गउडवहो (वाक्पति)
- वज्जालग्ग (जयवल्लभ)
- कुमारपाल चरित (हेमचन्द्र)
आचार्य दण्डी ने कहा —
“महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः।”
2. शौरसेनी प्राकृत: नाट्य गद्य की भाषा
शौरसेनी मथुरा और आसपास के क्षेत्र की भाषा रही है। यह मध्यदेश की भाषा मानी जाती है और नाटकों में मुख्यतः गद्य के लिए प्रयुक्त होती थी।
भरतमुनि ने लिखा:
“शोरसैनम् समाश्रित्य भाषा कार्य तु नाटके।”
शौरसेनी के आधार:
| विद्वान | आधार |
|---|---|
| वररुचि | संस्कृत |
| रामशर्मन | महाराष्ट्री |
| पुरुषोत्तम | संस्कृत व महाराष्ट्री |
वररुचि ने शौरसेनी को ही प्राकृत प्रकाश में मूल प्राकृत माना है।
3. पैशाची प्राकृत: भूतभाषा या ग्राम्य भाषा
पैशाची भाषा को निम्नवर्गीय पात्रों के संवाद हेतु प्रयुक्त किया गया। इसे ‘भूत भाषा’, ‘पिशाच भाषा’, ‘ग्राम्य भाषा’ आदि नामों से भी जाना गया है।
स्थान और प्रभाव:
- जॉर्ज ग्रियर्सन ने इसे अफगानिस्तान/उत्तर-पश्चिम पंजाब की भाषा माना।
- दरद भाषाओं से प्रभावित माना गया।
प्रकार:
- कैकय पैशाची
- शौरसेन पैशाची
- पाचाल पैशाची
वैयाकरण दृष्टिकोण:
- लक्ष्मीधर: राक्षसों, पिशाचों और नीच पात्रों के संवाद में प्रयुक्त।
- दण्डी: इसे ‘भूतवचन’ कहा।
4. मागधी प्राकृत: मगध की राजभाषा
मागधी बिहार की मगध जनपद की भाषा रही है। शाकारी, चाण्डाली और शाबरी इसके उपरूप माने जाते हैं। यह भाषा बुद्ध के समय अत्यंत प्रचलित थी और बौद्ध साहित्य में इसका प्रमुख स्थान रहा।
प्रयोग क्षेत्र:
- अश्वपाल, अंत:पुर सेवक आदि।
- अश्वघोष के नाटकों में प्रारंभिक प्रयोग मिलता है।
मार्कण्डेय के अनुसार मागधी की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है।
5. अर्धमागधी प्राकृत: जैन परंपरा की प्रमुख भाषा
अर्धमागधी, शौरसेनी और मागधी के मध्यवर्ती भूभाग की भाषा रही है — विशेषकर अयोध्या और कोसल के क्षेत्र में।
विशेषताएँ:
- महावीर के धर्मोपदेश इसी भाषा में थे।
- इसे जैन ग्रंथों में ‘ऋषि भाषा’, ‘आर्ष भाषा’ कहा गया।
डॉ. ग्रियर्सन: इसे मध्यदेश और मगध के बीच की भाषा बताया।
डॉ. जैकोबी: इसे जैन महाराष्ट्री कहा।
प्रयोग: प्रमुख रूप से जैन धर्म के सूत्रों और उपदेशों में।
प्राकृत भाषा का महत्व और निष्कर्ष
प्राकृत भाषा केवल एक ऐतिहासिक भाषिक स्तर नहीं है, बल्कि वह भारतीय जनजीवन की सांस्कृतिक चेतना की गूंज है। इसकी विशेषता इसकी सरलता, प्राकृतिकता और जनसुलभता में निहित है। चाहे साहित्य हो, नाटक, धर्म या समाज — प्राकृत ने अपनी जड़ें हर क्षेत्र में गहरी जमाई हैं।
इसका सबसे बड़ा योगदान यह है कि इसने संस्कृत के शास्त्रीय वातावरण को जनसाधारण के हृदय से जोड़ा। यही कारण है कि जैन, बौद्ध, और लोक साहित्य के लगभग सभी आरंभिक ग्रंथ प्राकृत में रचे गए।
प्राकृत न केवल भाषाई विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है, बल्कि भारतीय भाषाओं की जननी भी है — जिनमें आज की हिंदी, मराठी, गुजराती आदि भाषाएँ शामिल हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यदि संस्कृत आत्मा है, तो प्राकृत उसकी जीवंत सांस है — जिसने समाज की धड़कनों को अपने सहज शब्दों में अभिव्यक्त किया।
प्राकृत भाषा प्रश्नोत्तरी (Quiz on Prakrit Language)
खंड – A: वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Multiple Choice Questions)
- ‘प्राकृत’ शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है?
A. व्याकरण आधारित भाषा
B. पूर्व में बनी भाषा
C. मिश्रित भाषा
D. अनौपचारिक भाषा
उत्तर: B. पूर्व में बनी भाषा - ‘प्राकृत प्रकाश’ के रचयिता कौन हैं?
A. भट्टिकवि
B. वररुचि
C. हेमचन्द्र
D. दण्डी
उत्तर: B. वररुचि - निम्न में से कौन-सी भाषा को सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक प्राकृत माना गया है?
A. मागधी
B. पैशाची
C. शौरसेनी
D. महाराष्ट्री
उत्तर: D. महाराष्ट्री - ‘गाथा सप्तशती’ किस प्राकृत में रचित है?
A. पैशाची
B. शौरसेनी
C. महाराष्ट्री
D. मागधी
उत्तर: C. महाराष्ट्री - निम्न में से कौन-सी भाषा जैन धर्म के ग्रंथों की भाषा मानी जाती है?
A. मागधी
B. अर्धमागधी
C. पैशाची
D. चूलिका पैशाची
उत्तर: B. अर्धमागधी - ‘भूतभाषा’ किस प्राकृत भाषा का पर्यायवाची है?
A. मागधी
B. शौरसेनी
C. पैशाची
D. महाराष्ट्री
उत्तर: C. पैशाची - भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में कुल कितनी मुख्य प्राकृत भाषाओं की चर्चा की है?
A. पाँच
B. सात
C. आठ
D. नौ
उत्तर: B. सात - ‘प्राकृत व्याकरण’ के रचयिता हेमचन्द्र को किस उपाधि से सम्मानित किया गया है?
A. प्राकृताचार्य
B. भाषाशास्त्री
C. प्राकृत का पाणिनि
D. व्याकरणशिरोमणि
उत्तर: C. प्राकृत का पाणिनि
खंड – B: सत्य / असत्य (True / False)
- अर्धमागधी का प्रयोग मुख्यतः बौद्ध ग्रंथों में हुआ।
उत्तर: ❌ असत्य (यह जैन ग्रंथों में हुआ) - ‘सेतुबन्ध’ ग्रंथ महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है।
उत्तर: ✅ सत्य - पैशाची भाषा को नीच पात्रों की भाषा माना गया है।
उत्तर: ✅ सत्य - शौरसेनी भाषा दक्षिण भारत की प्राकृत भाषा मानी जाती है।
उत्तर: ❌ असत्य (यह मध्य भारत – मथुरा क्षेत्र की थी) - ‘प्राकृत सर्वस्व’ ग्रंथ के रचयिता वासुदेव हैं।
उत्तर: ❌ असत्य (यह मार्कण्डेय द्वारा रचित है)
खंड – C: लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)
- प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति दो मतों में कैसे समझाई गई है?
- ‘प्राकृत प्रकाश’ ग्रंथ का महत्व क्या है?
- अर्धमागधी प्राकृत को ‘आर्ष’ भाषा क्यों कहा गया?
- भरतमुनि के अनुसार मुख्य प्राकृत भाषाओं के नाम लिखिए।
- शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत में क्या प्रमुख अंतर हैं?
खंड – D: दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)
- प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति और विकास पर प्रकाश डालिए।
- भरतमुनि द्वारा उल्लिखित प्राकृत भाषाओं का वर्गीकरण समझाइए।
- हेमचन्द्र द्वारा वर्गीकृत प्राकृत भाषाओं का विवेचन कीजिए।
- महाराष्ट्री प्राकृत का साहित्यिक महत्व स्पष्ट कीजिए।
- पैशाची भाषा की विशेषताओं एवं उपयोग का वर्णन कीजिए।
खंड – C: लघु उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर (Short Answer Questions with Answers)
1. प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति दो मतों में कैसे समझाई गई है?
उत्तर:
प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर दो मत प्रचलित हैं:
- प्राकृतिक भाषा का मत: नामि साधु के अनुसार “प्राक् + कृतम् = प्राकृत”, अर्थात् पहले से बनी हुई, सहज रूप से उत्पन्न जनभाषा। यह संस्काररहित प्राकृतिक वाक्य विन्यास है।
- संस्कृत से उत्पत्ति का मत: कई वैदिक एवं साहित्यिक विद्वानों (हेमचन्द्र, लक्ष्मीधर आदि) ने माना कि प्राकृत, संस्कृत की विकृति अथवा सरल रूप है। जैसे – “प्रकृतेः संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्।”
2. ‘प्राकृत प्रकाश’ ग्रंथ का महत्व क्या है?
उत्तर:
‘प्राकृत प्रकाश’ प्रसिद्ध वैयाकरण वररुचि द्वारा रचित है। यह प्राकृत भाषा का पहला व्यवस्थित व्याकरण ग्रंथ माना जाता है। इसमें प्राकृत भाषा के चार प्रमुख रूपों – महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची – का उल्लेख है। यह ग्रंथ 12 परिच्छेदों में विभक्त है और प्राकृत भाषाओं के रूपांतरण नियमों को स्पष्ट करता है।
3. अर्धमागधी प्राकृत को ‘आर्ष’ भाषा क्यों कहा गया?
उत्तर:
अर्धमागधी को ‘आर्ष’ (ऋषियों की भाषा) इसीलिए कहा गया क्योंकि यह भगवान महावीर के धर्मोपदेशों की भाषा रही है। जैन ग्रंथों की मूल रचनाएँ इसी में हुई हैं। जैन समुदाय इसे ऋषिभाषा, आदिभाषा और आर्षी नामों से भी अभिहित करता है।
4. भरतमुनि के अनुसार मुख्य प्राकृत भाषाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में सात मुख्य प्राकृत भाषाओं का उल्लेख किया है:
- मागधी
- शौरसेनी (सूरसेनी)
- महाराष्ट्री (दाक्षिणात्य)
- अर्धमागधी
- प्राच्या
- अवन्तिजा
- बाह्लीक
5. शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत में क्या प्रमुख अंतर हैं?
उत्तर:
| विशेषता | शौरसेनी | महाराष्ट्री |
|---|---|---|
| क्षेत्रीय आधार | शूरसेन (मथुरा क्षेत्र) | महाराष्ट्र एवं दक्षिण भारत |
| साहित्यिक प्रयोग | नाट्य गद्य | काव्य एवं पद्य |
| व्याकरणीय आधार | संस्कृत मिश्रण अधिक | अधिक स्वतंत्र विकास |
| प्रयोग | नाटकों की संवाद भाषा | उच्च कोटि की काव्य भाषा |
| विकास की दिशा | उत्तर भारत | दक्षिण भारत |
खंड – D: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों के उत्तर (Long Answer Questions with Answers)
1. प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति और विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्राकृत भाषाएँ भारत की मध्यकालीन आर्यभाषाएँ हैं, जो संस्कृत और आधुनिक भाषाओं के मध्यवर्ती सेतु के रूप में खड़ी हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में दो मत हैं:
- प्राकृतिक उत्पत्ति का मत: यह मान्यता है कि प्राकृत भाषाएँ सहज जनभाषाएँ हैं, जो संस्कृत से स्वतंत्र रूप से विकसित हुईं।
- संस्कृत से उत्पत्ति का मत: इस मत में प्राकृत को संस्कृत की सरल, प्रचलित और जनसुलभ विकृति माना गया है।
प्रमुख प्राकृत भाषाओं में – मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, अर्धमागधी आदि आती हैं।
प्राकृत का प्रयोग नाटकों, काव्य और धार्मिक साहित्य (विशेषतः जैन और बौद्ध ग्रंथों) में हुआ।
विकास की दिशा:
- संस्कृत से → प्राकृत → अपभ्रंश → आधुनिक भारतीय भाषाएँ
इस प्रकार, प्राकृत भाषाएँ भाषाविकास की महत्वपूर्ण कड़ी रही हैं, जिन्होंने जनसामान्य को साहित्य और धर्म से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई।
2. भरतमुनि द्वारा उल्लिखित प्राकृत भाषाओं का वर्गीकरण समझाइए।
उत्तर:
भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में प्राकृत भाषाओं को दो वर्गों में बाँटा:
✅ मुख्य प्राकृत भाषाएँ (7):
- मागधी
- शौरसेनी
- महाराष्ट्री (दाक्षिणात्य)
- अर्धमागधी
- प्राच्या
- अवन्तिजा
- बाह्लीक
✅ गौण विभाषाएँ (7):
- शाबरी
- आभीरी
- चाण्डाली
- सचरी
- द्राविड़ी
- उद्रजा
- वनेचरी
इन भाषाओं का प्रयोग नाटकों में पात्रों के स्तर, जाति और क्षेत्रीय भिन्नताओं के अनुसार किया गया। जैसे – रानी मागधी में बोलेगी, सेविकाएं शौरसेनी में, राक्षस पैशाची में आदि।
3. हेमचन्द्र द्वारा वर्गीकृत प्राकृत भाषाओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
आचार्य हेमचन्द्र, जिन्हें “प्राकृत का पाणिनि” कहा जाता है, ने अपने ‘प्राकृत व्याकरण’ में निम्नलिखित सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का उल्लेख किया:
- महाराष्ट्री
- शौरसेनी
- मागधी
- पैशाची
- अर्धमागधी (आर्षी)
- चूलिका पैशाची
- अपभ्रंश
हेमचन्द्र ने व्याकरण की स्पष्टता के लिए ‘द्वयाश्रय काव्य’ शैली में उदाहरण दिए और भाषा की प्रकृति के अनुसार वर्गीकरण किया।
विशेषता:
- चूलिका पैशाची को आचार्य दण्डी ने ‘भूतभाषा’ कहा।
- अर्धमागधी को जैन साहित्य में व्यापक रूप से प्रयोग किया गया।
- अपभ्रंश को उन्होंने प्राकृत का विकसित रूप माना।
4. महाराष्ट्री प्राकृत का साहित्यिक महत्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
महाराष्ट्री प्राकृत को सभी प्राकृत भाषाओं में सर्वोत्कृष्ट माना गया है। इसे ‘आदर्श’, ‘मानक’ और ‘परिनिष्ठित’ प्राकृत कहा गया।
मुख्य विशेषताएँ:
- भरतमुनि ने इसे ‘दाक्षिणात्य’ के अंतर्गत रखा।
- डॉ. हार्नले के अनुसार ‘महाराष्ट्र’ का अर्थ ‘महान राष्ट्र’ है, जिसमें मध्यप्रदेश, राजपुताना आदि क्षेत्र आते हैं।
- जॉर्ज ग्रियर्सन व जूल ब्लाक ने इसे मराठी भाषा की जननी माना।
प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ:
- गाथा सप्तशती – राजा हाल
- सेतुबन्ध (रावणवहो) – प्रवरसेन
- गौडवध – वाक्पति
- वज्जालग्ग – जयवल्लभ
- कुमारपाल चरित – हेमचन्द्र
महाराष्ट्री ने काव्य, नीति, श्रृंगार और धार्मिक साहित्य को अत्यंत समृद्ध किया और भारतीय काव्य परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।
5. पैशाची भाषा की विशेषताओं एवं उपयोग का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पैशाची प्राकृत को पैशाचिका, ग्राम्यभाषा, भूतभाषा आदि नामों से भी जाना जाता है। यह एक प्राचीन जनभाषा थी, जिसका प्रयोग अधिकतर नीच, राक्षसी, पिशाच जैसे पात्रों के संवाद में होता था।
मुख्य विशेषताएँ:
- क्षेत्र: जॉर्ज ग्रियर्सन के अनुसार पैशाची का क्षेत्र उत्तर-पश्चिम भारत (पंजाब, अफगानिस्तान) रहा है।
- प्रयोग: नाटकों में राक्षस, पिशाच आदि पात्रों की भाषा; धार्मिक व ग्राम्य संवादों में।
- प्रकार: मार्कण्डेय ने तीन प्रकार बताए – कैकयी पैशाची, शौरसेन पैशाची, पाचाल पैशाची।
- साहित्य: चूलिका पैशाची को आचार्य दण्डी ने ‘भूतभाषा’ कहा।
महत्त्व:
पैशाची भाषा ने उस समय के समाज के विविध वर्गों और कल्पनाओं को व्यक्त करने में अहम भूमिका निभाई। यह भाषा अब लुप्तप्राय है, लेकिन इसकी व्याकरणीय एवं नाटकीय भूमिका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान है।
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