गंगा व यमुना के दक्षिण में उभरा हुआ विशाल भूखंड भारत का प्रायद्वीपीय पठार कहलाता है। भारत का प्रायद्वीपीय पठार मोटे तौर पर एक अनियमित त्रिभुजाकार आकृति वाला भूखंड है। प्रायद्वीपीय पठारी प्रदेश गोण्डवाना भूमि का एक अंग है। यहाँ पर पहले ऊँचे ऊँचे पर्वत हुआ करते थे। ये पर्वत लाखों वर्षों की मौसम-क्रिया से पूर्णतया प्रभावित होने के कारण इनका अपरदन होने लगा, और ये पर्वत अनेक छोटे-छोटे पठारों में विभाजित हो गये हैं। यहां पर संकरी और चौड़ी नदी घाटियां भी हैं।
प्रायद्वीपीय पठार (Peninsular Plateau)
इन पठारों की समुद्र तल से औसत ऊंचाई लगभग 600 से 900 मीटर है। इनका विस्तार उत्तर में राजस्थान से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी अंतरीप तक 1,700 कि.मी. लंबाई में और 1,400 कि.मी. की चौड़ाई तक है। इन क्षेत्रों के अंतर्गत कई राज्यों के भू-भाग आते हैं- मध्य प्रदेश, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी विहार, महाराष्ट्र, ओडीशा, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल आदि।
प्रायद्वीपीय पठार गोंडवानालैंड के टूटने एवं उसके उत्तर दिशा में प्रवाह के कारण बना था। इस प्रकार से यह प्राचीनतम भू-भाग पैंजिया का एक टुकड़ा है। पुराने क्रिस्टलीय, आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों से इसका निर्माण हुआ है। सामान्य तौर से प्रायद्वीप की ऊँचाई पश्चिम से पूर्व की ओर कम होती चली जाती है, इस कारण से प्रायद्वीपीय पठार की अधिकांश नदियों का बहाव पश्चिम से पूर्व की ओर होता है।
प्रायद्वीपीय भारत के पठार के उत्तरी हिस्से का ढाल उत्तर की तरफ अर्थात् गंगा घाटी की तरफ है, यही कारण है कि चम्बल, बेतवा, दामोदर एवं सोन नदियां उत्तर-पूरब की दिशा में प्रवाहित होते हुए गंगा और यमुना नदी में मिल जाती हैं। जबकि दक्षिणी भाग में इसका ढाल पश्चिम से पूर्व की ओर हैं जो गोदावरी, कृष्णा, महानदी, कावेरी नदियों के प्रवाह से स्पष्ट है।
प्रायद्वीपीय नदियों में नर्मदा एवं ताप्ती नदियाँ अपवाद हैं, क्योंकि इनके बहने की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर होती है। इन नदियों को उलटी दिशा में बहने वाली नदियाँ भी कहते है। ऐसा भ्रंश घाटी से होकर बहने के कारण है। प्रायद्वीपीय पठार को ‘ पठारों का पठार’ भी कहते हैं, क्योंकि यह अनेक पठारों से मिलकर बना है।
प्रायद्वीपीय पठार की अधिकांश नदियों का उद्गम पश्चिमी घाट से होता है। पूर्वी घाट कई स्थानों पर कटा हुआ है। यहाँ पर चोटियाँ अपरदन की शिकार हैं, इस कारण इनकी ऊंचाई कम है। लगभग सभी नदियों का प्रवाह मार्ग होने के कारण इस क्षेत्र का व्यापक कटाव हुआ है, जिनमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि का अपरदन कार्य प्रमुख है। पूर्वी घाट में जवादि हिल्स, पलकोंडा रेंज, मल्यागिरि रेंज आदि स्थित है। पश्चिमी व पूर्वी घाट का मिलन बिंदु नीलगिरि की पहाड़ियां है।
प्रायद्वीपीय पठार (Peninsular Plateau) की सीमा
प्राकृतिक दृष्टि से इसकी उत्तरी सीमा अरावली, कैमूर तथा राजमहल पहाड़ियों द्वारा बनती है। जबकि पूरब में इसकी सीमा पूर्वी घाट तथा पश्चिम में इसकी सीमा पश्चिमी घाट है। यह पठार हिमालय पर्वत श्रेणी के निर्माण से पहले काफी व्यापक रूप से फैला हुआ था। हिमालय का निर्माण इनके बहुत बाद हुआ। इन पठारों ने हिमालय के मोड़ों को भी प्रभावित कर दिया है। पठार के उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व दिशा में आगे की ओर निकले हुए भाग के कारण हिमालय दक्षिण की ओर मुड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। यह पठार कई जगहों से काफी कटा हुआ तथा अनेक छोटे-छोटे पठारों और पहाड़ियों में विभाजित हो चुका है।
प्रायद्वीपीय पठार के विस्तार एवं उसकी सीमा से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- महाद्वीप का वह हिस्सा जो तीन तरफ से महासागरों से घिरा है, भू-भाग के ऐसे क्षेत्र को प्रायद्वीप कहा जाता हैं।
- प्रायद्वीपीय भारत पूरब में बंगाल की खाड़ी, दक्षिण में हिन्द महासागर एवं पश्चिम में अरब सागर से घिरा हुआ है।
- प्रायद्वीपीय भारत का भाग पठारी होने के कारण इसे प्रायद्वीप भारत का पठार (Peninsular Plateau) कहा जाता हैं।
- प्रायद्वीपीय भारत पर पर्वत की तरह ऊँची-ऊँची चोटी नहीं है, किन्तु यहाँ चट्टानों का समतल उठा हुआ भाग है।
- प्रायद्वीपीय भारत का पठार गोंडवाना लैंड का ही भाग है।
- प्रायद्वीपीय भारत का पठार (Peninsular Plateau) अफ्रीका से टूटकर उत्तर-पूरब की ओर प्रवाहित हुआ। इसके उत्तर-पूरब में प्रवाहित होने के कारण ही टेथिस सागर में जमें मलबों पर दबाव पड़ने के कारण हिमालय पर मोड़दार पर्वतों का निर्माण हुआ।
- प्रायद्वीपीय भारत अभी भी उत्तर-पूरब की ओर प्रवाहमान है। जिसके कारण हिमालय की ऊंचाई अभी भी बढ़ रही है।
- प्रायद्वीपीय भारत का पठार (Peninsular Plateau) विवर्तनिक रूप से स्थिर है। जिसके कारण प्रायद्वीपीय भारत में सामान्यत: भूकम्प नहीं आते हैं।
- पृथ्वी के अन्दर होने वाली हलचल को विवर्तनिकी कहा जाता हैं।
- प्रायद्वीपीय भारत के उत्तर-पश्चिमी सिरे पर अरावली पहाड़ियाँ स्थित हैं। इसके उत्तर-पूर्वी सिरे पर राजमहल की पहाड़ियां स्थित हैं।
- प्रायद्वीपीय भारत का पठार (Peninsular Plateau) उत्तर-पश्चिम में अरावली पर्वत तथा पूरब में राजमहल की पहाड़ियों से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैला हुआ है।
- मेघालय में शिलांग पठार भी प्रायद्वीपीय भारत के पठार का ही उत्तर-पूर्वी विस्तार है। शिलांग पठार राजमहल पहाड़ियों का ही पूरब दिशा की ओर विस्तार है।
- प्रायद्वीपीय भारत के पठार (Peninsular Plateau) के उत्तरी हिस्से का ढाल उत्तर की तरफ अर्थात् गंगा घाटी की तरफ है, यही कारण है कि चम्बल, बेतवा एवं सोन नदियां उत्तर-पूरब की दिशा में प्रवाहित होते हुए गंगा और यमुना नदी में मिल जाती हैं|
- चम्बल और बेतवा नदी इटावा के पास यमुना नदी में मिलती है।
- सोन नदी पटना के पास गंगा नदी में मिल जाती है।
- यमुना नदी प्रयागराज (इलाहाबाद) में गंगा नदी में मिलती है।
- सतपुड़ा पहाड़ी के दक्षिण में प्रायद्वीपीय भारत के पठार का ढाल पूरब की तरफ हो जाता है, यही कारण है कि महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियां पूरब की तरफ प्रवाहित होते हुए बंगाल की खाड़ी में अपना जल गिराती है।
- सतपुड़ा पहाड़ी के उत्तर में नर्मदा नदी की भ्रंशघाटी तथा दक्षिण में तापी नदी की भ्रंश घाटी स्थित है।
- प्रायद्वीपीय भारत के पठार के पश्चिमी शिरे पर दो भ्रंश स्थित हैं, जिनमें एक भ्रंश सतपुड़ा के उत्तर में तथा दूसरा भ्रंश सतपुड़ा के दक्षिण में स्थित है।
- नीचे धंसे हुए अवतलित क्षेत्र को भ्रंश कहते हैं।
- सतपुड़ा के उत्तरी भ्रंश में नर्मदा नदी प्रवाहित होती है, इसलिए इसे नर्मदा भ्रंश घाटी कहते हैं।
- सतपुड़ा के दक्षिण में तापी/ताप्ती नदी प्रवाहित होती है, इसलिए इसे तापी/ताप्ती भ्रंश घाटी कहते हैं।
- नर्मदा और तापी भ्रंश घाटियों का ढाल पश्चिम की तरफ है, यही कारण है कि नर्मदा और तापी नदियां प्रायद्वीपीय भारत के सामान्य ढाल के विपरीत पश्चिम दिशा में प्रवाहित होती है।
- नर्मदा और तापी नदियां खंभात की खाड़ी में अर्थात् अरब सागर में अपना जल गिराती हैं।
- तापी नदी के मुहाने से लेकर पश्चिमी तट के साथ-साथ केरल के कार्डामम पहाड़ी तक पश्चिमी घाट पर्वत का विस्तार है, जबकि पूर्वी तट के साथ-साथ पूर्वी घाट पर्वत का विस्तार है।
- पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट की पर्वत श्रेणियां दक्षिण भारत में आपस में मिल जाती हैं जिसके कारण एक पर्वतीय गाँठ का निर्माण होता है, इस पर्वतीय गाँठ को नीलगिरी पर्वत कहते हैं।
- पश्चिमी घाट नीलगिरी पर्वत के दक्षिण तक व्याप्त है, नीलगिरी पर्वत के दक्षिण में पश्चिमी घाट पर्वत को अन्नामलाई पहाड़ी और कार्डामम पहाड़ी के नाम से जाना जाता है।
- प्रायद्वीपीय भारत के पठार की सबसे दक्षिणी पहाड़ी कार्डामम पहाड़ी या इलायची पहाड़ी है।
- नीलगिरी पर्वत का विस्तार तीन राज्यों में है- तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक।
प्रायद्वीपीय पठारों के नाम और उनका विवरण
नर्मदा, सोन, आदि कई नदियों द्वारा इस पठार को अनेक छोटे-छोटे पठारों में बांट दिया गया है। नर्मदा के उत्तर में मालवा का पठार तथा दक्षिण में दक्कन का पठार स्थित है। सोन नदी के पूर्व में छोटानागपुर पठार स्थित है। इसके अलावा और भी पठार हैं जो विभिन्न नदियों के समीप पाये जाते हैं। कुछ प्रमुख प्रायद्वीपीय पठारों के नाम और उनका विवरण निम्नलिखित हैं :-
- पूर्वी पठार
- छोटानागपुर का पठार
- छत्तीसगढ़ बेसिन / महानदी बेसिन।
- दंडकारण्य का पठार
- उत्तर पूर्वी पठार
- मेघालय का पठार
- दक्कन का पठार
- दक्कन ट्रैप
- कर्नाटक का पठार
- आंध्र (तेलंगाना) का पठार
- मेवाड़ का पठार
- मालवा का पठार
- बुन्देलखंड का पठार
- बाघेलखण्ड का पठार
पूर्वी पठार के नाम और उनका विवरण
इसके अंतर्गत निम्नलिखित क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है-
- छोटानागपुर का पठार
- छत्तीसगढ़ बेसिन / महानदी बेसिन।
- दंडकारण्य का पठार
छोटानागपुर का पठार
छोटानागपुर का पठार बिहार व झारखंड के गया, हजारीबाग और रांची आदि क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसकी औसत ऊंचाई 700 मीटर है। महानदी, स्वर्ण रेखा, सोन और दामोदर आदि इस पठार की मुख्य नदियां हैं। ये नदियाँ गहरी घाटियों में प्रवाहित होकर अलग-अलग दिशाओं में फैल जाती हैं। सोन नदी पठार के उत्तर-पश्चिम से बहकर गंगा नदी में मिल कर उसमे समाहित हो जाती है। दामोदर नदी पठार के मध्य भाग में पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है। महानदी इसकी दक्षिणी सीमा पर है। यह दक्षिण-पूर्व में प्रवाहित होती है। इस पठार की उत्तरी सीमा पर राजमहल पहाड़ियां हैं।
छोटानागपुर का पठार कई भागों में बंटा हुआ है। दामोदर नदी के उत्तर में कई पठार और पहाड़ियों के समूह मिलते हैं, जिनमें हजारीबाग तथा कोडरमा के पठार प्रमुख हैं। दामोदर नदी के दक्षिण में रांची का पठार स्थित है। रांची का पठार सामान्यतया समतल ही है, कुछ निचली पहाड़ियों को छोड़कर यहां पर ग्रेनाइट व नीस की चट्टानें पाई जाती हैं। इस समतल भाग पर ही रांची नगर अवस्थित है। इस नगर से नदियां चारों दिशाओं में प्रवाहित होती हैं।
दामोदर घाटी अब एक भ्रंश के रूप में उपलब्ध है, जिसमें गोण्डवाना लैंड के समय के निक्षेप हैं। इस पठार पर खनिज पदार्थ बहुत अधिक मात्रा में मिलते हैं। यहां पर भारत के प्रमुख खनिज बॉक्साइट, अभ्रक और कोयला आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त टंगस्टन, क्रोमाइट, चूना-पत्थर, चिकनी मिट्टी, क्वार्टज़, इमारती पत्थर, तांबा आदि की भी यहाँ प्रचुरता हैं। वन संपदा की दृष्टि से इस पठार का विशेष महत्व है। यहां पर सागवान, शीशम, साल, जामुन, सेमल व बांस आदि भी बहुतायत में पाये जाते हैं। खाद्यान्नों में चावल की खेती पहाड़ी ढालों व नदी घाटियों में की जाती है।
छत्तीसगढ़ बेसिन / महानदी बेसिन
- छत्तीसगढ़ बेसिन का विस्तार छत्तीसगढ़ एवं ओडिशा राज्यों में है, जिसका निर्माण अवतलन की प्रक्रिया द्वारा हुआ है।
- छत्तीसगढ़ बेसिन, छोटानागपुर के रॉची पठार को दण्डकारण्य पठार से अलग करता है तथा स्वयं महानदी के द्वारा छोटानागपुर पठार के राँची पठार से अलग होता है।
- यहाँ पर महानदी तथा उसकी सहायक नदियाँ-शिवनाथ, हसदो, मांड, ईब आदि प्रवाहित होती हैं।
- छत्तीसगढ़ बेसिन में गोंडवाना क्रम की संरचना पाई जाती है, जिसके कारण ही यहाँ कोयला भंडार की प्रचुर उपलब्धता है।
दंडकारण्य का पठार
- इसका विस्तार ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना तक है। अतः यह भारत के मध्यवर्ती भाग में स्थित है।
- यह अत्यंत ही ऊबड़-खाबड़ एवं अनुपजाऊ क्षेत्र है, लेकिन खनिज संसाधनों के भंडार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
- गोदावरी की सहायक नदी इंद्रावती का उद्गम इसी क्षेत्र से होता है।
- भारत में टिन धातु दंडकारण्य पठार में स्थित बस्तर क्षेत्र में पाई जाती है।
उत्तर-पूर्वी पठार के नाम और उनका विवरण
- मेघालय का पठार
- दक्कन का पठार
- दक्कन ट्रैप
- कर्नाटक का पठार
- आंध्र (तेलंगाना) का पठार
मेघालय का पठार
मेघालय का पठार का निर्माण गोंडवाना काल के निक्षेपों से हुआ है। मेघालय के पठार का उत्तरी ढाल लम्बवत है जहां से ब्रह्मपुत्र नदी बहती है तथा दक्षिणी ढाल धीमा है। मेघालय एक पर्वतीय राज्य है, जिसमें घाटियों और पठारों तथा ऊंची-नीची भूमि वाले क्षेत्र हैं। यहाँ पर भूगर्भीय सम्पदा भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। यहां पर मुख्यतः आर्कियन पाषाण संरचनाएं हैं। इन पाषाण शृंखलाओं में कोयला, चूना पत्थर, यूरेनियम और सिलिमैनाइट जैसे बहुमूल्य खनिज पदार्थों के भण्डार हैं। मेघालय में अनेकों नदियां भी बहती हैं इनमे से अधिकांश वर्षा आश्रित और मौसमी नदियाँ हैं। इन नदियों द्वारा गहरी गॉर्ज रूपी घाटियां एवं ढेरों नैसर्गिक जल प्रपात का निर्माण हुआ है।
मेघालय के पठार क्षेत्र की ऊंचाई 150 मी. (490 फीट) से 1,961 मी. (6,434 फीट) के मध्य है। पठार के मध्य भाग में खासी पर्वतमाला के भाग हैं जो इस पठार की अधिकतम ऊंचाई है। इसके बाद दूसरे स्थान पर जयन्तिया पर्वतमाला का पूर्वी भाग आता है। मेघालय का उच्चतम स्थान शिलाँग पीक (चोटी) है। यहाँ पर बड़ा वायु सेना स्टेशन है। यह खासी पर्वत का भाग है और यहां से शिलांग शहर का मनोहारी एवं विहंगम दृश्य दिखाई देता है। शिलांग पीक की ऊंचाई 1,961 मी. (6,434 फीट) है। पठार का पश्चिमी भाग गारो पर्वत में है और जयादातर समतल है। गारो पर्वतमाला का उच्चतम शिखर नोकरेक पीक है जिसकी ऊंचाई 1,515 मी. (4,970 फीट) है।
मेघालय का पठार के महत्वपूर्ण तथ्य
- उत्पत्ति एवं संरचना की दृष्टि से मेघालय का पठार, प्रायद्वीपीय पठार ( छोटानागपुर का पठार ) का ही पूर्वी विस्तार है, जो ‘राजमहल-गारो गैप’ अथवा ‘मालदा गैप’ के द्वारा अलग हुआ है।
- इस पठार में पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमशः गारो, खासी, जयंतिया तथा मिकिर आदि पहाड़ियाँ अवस्थित हैं, जो प्राचीन चट्टानों से बनी हैं।
- गारो, खासी, जयंतिया इस पठार में निवास करने वाली प्रमुख जनजातियाँ हैं।
- खासी पर्वतीय क्षेत्र का’कीप’रूपी स्वरूप में अवस्थित होने के। कारण ही यहाँ औसत से अधिक वर्षा होती है। यही कारण है कि यहाँ खासी पहाड़ी के दक्षिण में स्थित’मॉसिनराम’एवं’चेरापूंजी’विश्व में सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में गिने जाते हैं।
- यहाँ धारवाड़ संरचना से निर्मित’शिलॉन्ग रेंज’सबसे ऊँचा पर्वतीय क्षेत्र है, इसलिये इसे’शिलॉन्ग के पठार’के नाम से भी जाना जाता है। इस क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी ‘नॉकरेक’ ( मेघालय में अवस्थित ) है।
- औसत से अधिक वर्षा होने के कारण ही यहाँ ‘लैटेराइट मिट्टी’ तथा सदाबहार वनों का विकास हुआ है।
दक्कन का पठार
इस पठार का विस्तार तापी नदी के दक्षिण में त्रिभुजाकार रूप में है-
- इसके अंतर्गत निम्नलिखित क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है।
- दक्कन ट्रैप
- कर्नाटक का पठार
- आंध्र (तेलंगाना) का पठार
दक्कन का पठार, भारत का सबसे बड़ा पठार है। यह पठार त्रिकोणीय है तथा इसका विस्तार 7,005,000 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला हुआ है। उत्तर में इसकी ऊंचाई 3000 मीटर तथा पश्चिम में 900 मीटर है। दक्कन का पठार को महाराष्ट्र पठार भी कहते हैं। इस पठार के अंतर्गत महाराष्ट्र मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात तथा आंध्र प्रदेश राज्यों के भू-भाग आते हैं। इसकी उत्तरी सीमा पर ताप्ती नदी है और पश्चिम सीमा पर पश्चिमी घाट। यह पठार बेसाल्ट चट्टानों से बना हुआ है। इन चट्टानों में खनिजों की प्रचुरता है तथा लोहा, अभ्रक, मैग्नेसाइट तथा बॉक्साइट इत्यादि खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। गोदावरी नदी इसे दो भाग में विभाजित करती है-
- आंध्र (तेलंगाना) का पठार
- कर्नाटक का पठार।
दक्कन टैप
- महाराष्ट्र में बेसाल्ट चट्टान से निर्मित संरचना होने के कारण यहाँ’काली मिट्टी का विकास हुआ है इसलिये यह क्षेत्र कपास के उत्पादन की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
- इसका विस्तार 16°उत्तरी अक्षांश के उत्तर से लेकर उत्तर-पूर्व में नागपुर तक है।
- इसी पठारी क्षेत्र से गोदावरी नदी अपवाहित होती है।
- सतमाला,अजंता,बालाघाट और हरिश्चंद्र इत्यादि पहाड़ियों का विस्तार भी इसी पठारी क्षेत्र में है।
आंध्र (तेलंगाना) का पठार
तेलंगाना पठार गोदावरी नदी के उत्तरी भाग में स्थित है। यह भाग वनों से आच्छादित है। यहां पर वर्धा नदी बहती है। इसके दक्षिणी भाग पर उर्मिल मैदान है, जिन पर सिंचाई के लिए तालाब बनाने हेतु उपयुक्त भूमि है। इसका निचला भाग समतल होने के कारण यहाँ पर बड़े-बड़े नगर मिलते हैं। हैदराबाद और सिकंदराबाद नगर इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
तेलंगाना पठार से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- आंध्र के पठार के अंतर्गत रायलसीमा का पठार तथा तेलंगाना के पठार’को शामिल किया जाता है।
- कृष्णा नदी बेसिन के दक्षिण के पठारी क्षेत्र को रायलसीमा का पठार कहते हैं, जहाँ वेलीकोंडा, पालकोंडा और नल्लामलाई पर्वतों का विस्तार है, जबकि कृष्णा नदी बेसिन के उत्तर में स्थित पठारी क्षेत्र को तेलंगाना का पठार कहते हैं।
- तेलंगाना के पठार का ऊपरी हिस्सा पठारी है तथा दक्षिणी हिस्सा उपजाऊ मैदान है।
- कृष्णा और गोदावरी नदी बेसिन के मध्य में कोल्लेरू झील अवस्थित है, जो एशिया की सबसे बड़ी दलदली भूमि है।
कर्नाटक का पठार
कर्नाटक पठार को 600 मी. की ऊंचाई वाली समुच्च रेखा दो भागों में विभाजित करती है- उत्तरी भाग एवं दक्षिणी भाग। उत्तरी भाग पर कृष्णा नदी व तुंगभद्रा नदी बहती हैं। यहां पर घाट-प्रभा व माल-प्रभा नाम की नदियां कृष्णा नदी में उसके दाएं भाग पर मिलती हैं। कर्नाटक पठार के दक्षिणी भाग को मैसूर पठार नाम से जानते हैं। यह दक्षिण भारत का उच्च सीमा वाला पठार है। सामान्यतया इसका ढाल पूरब की ओर है, जबकि उत्तरी भाग का ढाल उत्तर की ओर है।
इसके पश्चिम में पश्चिमी घाट और पूरब में पूर्वी घाट स्थित हैं। इसकी दक्षिणी सीमा का निर्माण नीलगिरि पहाड़ियों द्वारा होता है। तथा इसका पश्चिमी भाग मालवाड़ के नाम से जाना जाता है, जो एक पहाड़ी क्षेत्र है। इसकी औसत ऊंचाई 1000 मी. है। इस पहाड़ी क्षेत्र में काफी कटाव हैं। इसके ढाल काफी तेज और नदी घाटियां गहरी हैं। यह भाग वनों से पूर्णरूपेण आच्छादित है। पूरब की ओर का भाग उर्मिल मैदान वाला भाग है। मैसूर पठार की प्रमुख नदी कावेरी नदी है। यहां पर ग्रेनाइट पहाड़ियां मिलती हैं, जो नीचे धंसी हुई होती हैं।
कर्णाटक का पठार से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- कर्नाटक के पठारी क्षेत्र में पश्चिमी घाट से संलग्न पर्वतीय एवं पठारी क्षेत्र को ‘मलनाड’ कहते हैं। बाबा बूदान यहाँ का सबसे ऊँचा पर्वतीय क्षेत्र है। मुल्लयानगिरी (मुलनगिरी) इसकी सबसे ऊँची चोटी मन जाता है। जबकि ऑक्सफोर्ड एटलस में कुद्रेमुख को बाबा बूदान की सबसे ऊँची चोटी दर्शाया गया है।
- मलनाड से संलग्न पूर्व में अपेक्षाकृत कम ऊँचे पठारी क्षेत्र को मैदान कहते हैं, जिसमें औसत से अधिक ऊँचे मैदानी क्षेत्र को बंगलूरू का पठारएवं मैसूर का पठार के नाम से जाना जाता है।
- कर्नाटक में धारवाड़ संरचना का विकास होने के कारण पठारी क्षेत्र धात्विक खनिज संसाधनों के भंडार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
- यहाँ लौह अयस्क का सर्वाधिक भंडार है, जिसके लिये बाबा बूदान पर्वतीय क्षेत्र अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- मैसूर के पठार में ही कावेरी नदी का अपवाह क्षेत्र है।
- कृष्णा, कावेरी, तुंगभद्रा, शरावती व भीमा यहाँ की प्रमुख नदियाँ हैं। शरावती नदी पर भारत का महत्त्वपूर्ण जलप्रपात है, जिसे जोग या गरसोप्पा जलप्रपात कहते हैं। इसे महात्मा गांधी जलप्रपात भी कहते हैं।
- कुंचीकल जलप्रपात भारत का सबसे ऊँचा जलप्रपात है। इसकी ऊंचाई 455 मी है। यह जल प्रपात शिमोगा जिले ( कर्नाटक ) में वाराही नदी पर स्थित है।
मेवाड़ का पठार
यह अरावली पर्वत से निकलने वाली बनास नदी के अपवाह क्षेत्र में आता है। बनास नदी चंबल नदी की एक महत्त्वपूर्ण सहायक नदी है। मेवाड़ का पठार का उत्तरी भाग समतल है। यह बनास व उसकी सहायक नदियों की समतल भूमि है। चम्बल भी मेवाड़ से ही होकर गुजरती है। मेवाड़ के दक्षिणी भाग में अरावली पर्वतमाला है। अरावली पर्वतमाला बनास व उसकी सहायक नदियों को साबरमती व माही से अलग करती है।
मेवाड़ के पठार का विस्तार राजस्थान व मध्य प्रदेश में है। अरावली इसके उत्तर- पश्चिम क्षेत्र में स्थित है। इस कारण यहाँ उच्च गुणवत्ता वाले पत्थर के भण्डार पाए जाते हैं। इन पत्त्थरों का प्रयोग लोग गढ़ निर्माण में करते है। मेवाड़ क्षेत्र उष्णकटिबंधीय शुष्क क्षेत्र में आता है। यहाँ पर उत्तर पूर्व में अधिकतया वर्षा का स्तर 660 मिमी/वर्ष है। जबकि 90% वर्षा जून से सितम्बर महीने के बीच पड़ती है। जो दक्षिण पश्चिम मानसून के कारण होती है।
मालवा का पठार
मालवा का पठार लावा द्वारा निर्मित काली मिट्टी का पठार है। यह विन्ध्य पहाड़ियों के आधार पर स्थित है एवं इसका आकार त्रिभुजाकार है। इसके पूर्व में बुदेंलखंड और उत्तर पश्चिम में अरावली पहाड़ियाँ स्थित है। इसकी ढाल उत्तर पूर्व की तरफ गंगा घाटी की ओर है। इसमें पारवती, बेतवा, माहि, चम्बल एवं काली सिंध आदि नदियाँ प्रवाहित होते हुए यमुना में मिल जाती हैं। इस पठार के दक्षिणी ओर दकन का पठार है, जिसका बहुत ज्यादा अपरदन हो चुका है। इसके उत्तर में नदियों के कछारी निक्षेप तथा यमुना के खादर क्षेत्र स्थित है।
मालवा का पठार भौतिक बनावट के अनुसार उत्तर की आरे विंध्य उच्छृंग तथा दक्षिण की ओर की दकन लावा के पठार में बंटा हुआ है। विंध्य की पहाड़ियों पर सागौन के वन हैं। इसके सामान्य तथा ऊँचे क्षेत्रों मे गाँव तथा नगर बसे हुए हैं। इस पठार में 25 इंच तक वर्षा होती है। परन्तु यह वर्षा अनिश्चित होती है। यहाँ की लावा द्वारा निर्मित काली मिट्टी पर ज्वार, गेहूँ, चना, तिलहन तथा कपास पैदा होती है। इंदौर, ग्वालियर, सीहोर, भोपाल तथा उज्जैन यहाँ के प्रसिद्ध नगर हैं। मालवा मध्यप्रदेश के लगभग 28% भाग का निर्माण करता है। इसका विस्तार,भोपाल, गुना, रायसेन, सागर, विदिशा, देवास, सीहोर, उज्जैन, शाजापुर, इंदौर, रतलाम, धार, झाबुआ, मंदसौर, राजगढ़ तथा नीमच जिले तक है।
मालवा का पठार की औसतन ऊंचाई 250 मीटर है, जिस पर कहीं-कहीं उर्मिल मैदान मिलते हैं। इन मैदानों में चपटी पहाड़ियां भी स्थित हैं। उत्तर में ग्वालियर की पहाड़ियां इसके प्रमुख उदहारण हैं। इस पठार की उत्तरी व उत्तर-पूर्वी सीमा पर बुंदेलखण्ड व बाघेलखण्ड के पठार स्थित हैं। पठार के उत्तर भाग को चंबल और उसकी सहायक नदियों ने बीहड़ खडु में परिवर्तित कर दिया है।
मालवा का पठार से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- मालवा का पठार अरावली पर्वत के दक्षिण में तथा विंध्य पर्वत के उत्तर में स्थित है। अर्थात् मालवा पठार का विस्तार अरावली पर्वत एवं विंध्य पर्वत के मध्य में है।
- मालवा पठार का ढाल उत्तर की तरफ है, इसी कारण से चम्बल, बेतवा एवं काली सिंध नदियाँ उत्तर की दिशा में प्रवाहित होती हैं।
- मालवा पठार का निर्माण ज्वालामुखी से निकले हुए लावा से हुआ है, इस कारण से मालवा पठार पर काली मिट्टी पायी जाती है।
- मालवा पठार से मुख्य रूप से चम्बल नदी, बेतवा नदी और काली सिंध नदी निकलती है।
- चम्बल तथा उसकी सहायक नदियों ने मालवा पठार को अपरदित कर दिया है, जिसके कारण यहाँ घाटीनुमा आकृति पायी जाती है।
- चम्बल तथा उसकी सहायक नदियों ने मालवा पठार को अपरदित करके बिहड़ खड्ड में परिवर्तित कर दिया है, ऐसे अपरदन को अवनालिका अपरदन, खड्ड अपरदन या नाली अपरदन कहते हैं।
बुन्देलखंड का पठार
यह पठार ग्वालियर पठार व विंध्याचल श्रेणी के बीच में फैला हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग 300-600 मीटर के मध्य है। इसे बाघेलखंड का पठार भी कहते हैं। प्राचीनतम बुंदेलखण्ड नीस से निर्मित है और इस पर सोपानी वेदिकाएं भी मिलती हैं। इसके इर्द-गिर्द ग्रेनाइट तथा बलुआ पत्थर के टीले एवं पहाड़ियां भी मिलती हैं।
बुन्देलखंड का पठार के महत्वपूर्ण तथ्य
- इसका विस्तार ग्वालियर के पठार और विंध्याचल श्रेणी के बीच मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश राज्यों में है।
- इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश के सात जिले (जालौन,झाँसी,ललितपुर,चित्रकूट,हमीरपुर,बाँदा,महोबा ) तथा मध्य प्रदेश के सात जिले ( दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह, सागर, विदिशा ) आते हैं।
- यहाँ की ग्रेनाइट व नीस चट्टानी संरचना में अपक्षय व अपरदन की क्रिया होने के कारण लाल मृदा का विकास हुआ है।
- बुंदेलखंड के पठार में यमुना की सहायक चंबल नदी के द्वारा बने महाखड्डों को ‘उत्खात भूमि का प्रदेश’कहते हैं।
- बुंदेलखंड क्षेत्र सूखा प्रभावित क्षेत्र होने के कारण केंद्रीय उच्च भूमि का आर्थिक दृष्टि से एक पिछड़ा क्षेत्र है।
- मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित बघेलखंड का पठार केंद्रीय उच्च भूमि को पूर्वी पठार से अलग करता है।
बाघेलखण्ड का पठार
बाघेलखण्ड का पठार, विंध्यन श्रेणी के कैमूर और भारनेर पहाड़ियों के पूर्व में स्थित है। इसके उत्तर में सोनपुर पहाड़ियां तथा दक्षिण में रामगढ़ पहाड़ियां हैं। बाघेलखण्ड का मध्य भाग क्रमशः ऊंचा होता हुआ पूरब से पश्चिम की ओर फैल गया है। यहां पश्चिमी भाग में बलुआ पत्थर व चूने का पत्थर तथा पूर्वी भाग में ग्रेनाइट की चट्टानें पाई जाती हैं।
प्रायद्वीपीय पठार की पर्वत श्रेणियां
प्रायद्वीपीय पठार की पर्वत श्रेणियों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है-
विंध्याचल पर्वत श्रेणी
विंध्याचल श्रेणी का विस्तार अव्यवस्थित रूप में है। यह नर्मदा नदी के साथ-साथ पश्चिम की ओर गुजरात से आरंभ होकर उसके समानांतर पूर्व दिशा में बढ़ती हुई उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मुड़ जाती है तथा अंततः उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर तक अपना विस्तार प्राप्त करती है। विंध्याचल पर्वतमाला-विंध्याचल, भारनेर, कैमूर तथा पारसनाथ की पहाड़ियों का सम्मिलित रूप है। विंध्याचल पर्वत में परतदार चट्टानें (लाल व बलुआ पत्थरों से युक्त) मिलती हैं। विंध्याचल पर्वत ही उत्तरी और दक्षिण भारत को एक-दूसरे से स्पष्ट रूप से अलग करता है। इस पर्वत की औसत ऊंचाई 900 मीटर है।
विंध्याचल पर्वत श्रेणी के महत्वपूर्ण तथ्य
- इसका विस्तार गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा छत्तीसगढ़ तक है। इसे गुजरात में ‘जोबट हिल’ और बिहार में ‘कैमूर हिल’ कहते हैं।
- विध्यन श्रेणी के दक्षिण में नर्मदा नदी घाटी है, जो विंध्यन पर्वत को सतपुड़ा पर्वत से अलग करती है।
- विंध्यन श्रेणी, कई पहाड़ियों की एक पर्वत श्रेणी है, जिसमें विंध्याचल, कैमूर तथा पारसनाथ की पहाड़ियाँ पाई जाती हैं।
- लाल बलुआ पत्थर और चूना पत्थर के चट्टान से निर्मित इस संरचना में धात्विक खनिज संसाधनों का अभाव है, परंतु भवन निर्माण के पदार्थों के भंडार की दृष्टि से इसका आर्थिक महत्त्व सबसे अधिक है।
- यह पर्वत श्रेणी उत्तरी भारत और प्रायद्वीपीय भारत की मुख्य जल विभाजक भी है क्योंकि यह गंगा नदी के अपवाह क्षेत्र को प्रायद्वीपीय भारत के अपवाह क्षेत्र से अलग करती है।
सतपुड़ा पर्वत श्रेणी
यह पर्वतमाला नर्मदा और ताप्ती नदियों के बीच पश्चिम में राजपीपला की पहाड़ियों से आरंभ होकर छोटानागपुर के पठार तक विस्तृत है। महादेव और मैकाल पहाड़ियां भी सतपुड़ा पर्वतमाला के अंतर्गत ही हैं। सतपुड़ा पर्वतमाला का भौगोलिक विस्तार 21° से 24° उत्तरी अक्षांश के बीच है और इसकी औसत ऊंचाई 760 मीटर है। 1350 मीटर ऊंची धूपगढ़ चोटी सतपुड़ा की सबसे ऊंची चोटी है। यह चोटी महादेव पहाड़ी पर स्थित है। सतपुड़ा की अमरकंटक चोटी (1,066 मीटर) से ही नर्मदा नदी का उद्गम होता है। सतपुड़ा पर्वतमाला के अंतर्गत जबलपुर के समीप धुंआधार जल-प्रपात सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सतपुड़ा से संगमरमर की चट्टानें प्राप्त होती हैं।
सतपुड़ा पर्वत श्रेणी के महत्वपूर्ण तथ्य
- यह भारत के मध्य भाग में स्थित है, जिसका विस्तार गुजरात से होते हुए मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र की सीमा से लेकर छत्तीसगढ़ एवं छोटानागपुर के पठार तक है।
- यह पश्चिम से पूर्व राजपीपला की पहाड़ी, महादेव पहाड़ी एवं मैकाल श्रेणी के रूप में फैली हुई है।
- इस पर्वत श्रेणी की सर्वोच्च चोटी का नाम धूपगढ़ है, जिसकी ऊंचाई 1350 मी है। यह महादेव पर्वत पर स्थित है।
- मैकाल श्रेणी की सर्वोच्च चोटी का नाम अमरकंटक है। इसकी ऊंचाई 1065 मी है। (कुछ अन्य स्रोतों में इसकी कई अलग अलग ऊँचाइयाँ दी गई हैं। ) यहाँ से नर्मदा व सोन नदी का उद्गम हुआ है।
- यह एक ब्लॉक पर्वत है। इसका निर्माण मुख्यत: ग्रेनाइट एवं बेसाल्ट चट्टानों से हुआ है। यह पर्वत श्रेणी नर्मदा और तापी नदियों के बीच जलविभाजक का कार्य करती है।
अरावली पर्वत श्रेणी
अरावली पर्वत श्रेणी अहमदाबाद के समीप राजस्थान के मरुस्थल की पूर्वी सीमा से लेकर उत्तर-पूर्व में दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम तक विस्तृत है। अरावली पर्वतमाला की कुल लंबाई लगभग 880 किलोमीटर है। आबू के निकट गुरुशिखर (1,772 मी.) अरावली की सबसे ऊंची चोटी है। अरावली की औसत ऊंचाई 300 से 900 मीटर के बीच है। अरावली श्रेणी जल विभाजक के रूप में कार्य करती है। इसके पश्चिम की ओर माही तथा लूनी नदियां निकलती हैं, जो अरब सागर में गिरती हैं। पूर्व की ओर मुख्य रूप से बनास नदी निकलती है, जो चंबल की सहायक नदी का कार्य करती है। ये सभी नदियां अस्थाई (मौसमी) हैं।
अरावली पर्वत श्रेणी से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- प्रायद्वीपीय भारत के पठार के उत्तर-पश्चिमी सिरे पर अरावली पर्वत का विस्तार है।
- अरावली पर्वत का विस्तार गुजरात के पालनपुर से लेकर उत्तर-पूरब की तरफ दिल्ली के मजनूटीला के पास तक है। इसकी लम्बाई लगभग 800 किमी है।
- यह प्राचीनतम मोड़दार ‘अवशिष्ट पर्वत’ का उदाहरण है। यह राजस्थान बांगर को केंद्रीय उच्च भूमि से अलग करने वाली संरचना है। इसकी उत्पत्ति प्री-कैब्रियन काल में हुई थी। अरावली की अनुमानित आयु 570 मिलियन वर्ष मानी जाती है।
- अरावली संरचना पश्चिमी भारत का मुख्य’जल विभाजक’ है। यह राजस्थान मैदान के अपवाह क्षेत्र को गंगा के मैदान के अपवाह क्षेत्र से अलग करती है।
- लूनी नदी इस पर्वत से निकलने वाली राजस्थान मैदान की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नदी है जो राजस्थान बांगर और थार मरुस्थल से होते हुए गुजरात के कच्छ के रण में विलीन हो जाती है। इसलिये यह एक अन्तः स्थलीय अपवाह तंत्र का उदाहरण है।
- अरावली से निकलने वाली सुकरी और जवाई नदियाँ लूनी नदी की। अरावला से निकलने वाला सुकरा आर ज महत्त्वपूर्ण सहायक नदियाँ हैं।
- अरावली पर्वतमाला पश्चिमी भारत की एक मुख्य जलवायु विभाजक भी हैं। यह पूरब के अपेक्षाकृत अधिक वर्षा वाले क्षेत्र को, पश्चिम के अर्द्ध शुष्क और शुष्क प्रदेश से अलग करती है।
- उत्तर-पश्चिम भारत में यह क्षेत्र खनिज संसाधनों, जैसे-तांबा, सीसा, जस्ता, अभ्रक तथा चूना पत्थर के भंडार की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- अरावली पर्वत का सर्वोच्च शिखर ’गुरु शिखर’ है। यह राजस्थान में माउंट आबू के समीप स्थित है।
- इसी आबू पहाड़ी में जैनियों का प्रसिद्ध धर्मस्थल दिलवाड़ा जैन मंदिर स्थित है। जबकि अन्य शिखर कुंभलगढ़ है।
- अरावली पर्वत की अधिकतम लम्बाई राजस्थान राज्य में है।
- अरावली पर्वत का दक्षिणी भाग जर्गा पहाड़ियों के नाम से जाना जाता है।
- दिल्ली के पास अरावली पर्वत को दिल्ली रिज के नाम से जाना जाता है।
- अरावली पर्वत का सर्वोच्च शिखर गुरूशिखर है
- आरावली पर्वत विश्व का सबसे प्राचीन वलित पर्वत है।
- बनास नदी अरावली को पश्चिम से पूरब दिशा में पार करती है और चम्बल नदी में मिल जाती है।
प्रायद्वीपीय पठार के घाट
प्रायद्वीपीय पठार के घाट को दो भागों में विभाजित किया जाता है, इनके नाम व विवरण निम्नलिखित हैं:-
- पश्चिमी घाट या सह्याद्री
- पूर्वी घाट
पश्चिमी घाट या सह्याद्री (Western Ghats)
पश्चिमी घाट, दक्कन का पठार की पश्चिमी सीमा से पश्चिमी तट के समानांतर फैला हुआ है। इसका विस्तार उत्तर में ताप्ती नदी घाटी से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक 1,600 किमी की लंबाई तक है। भौगोलिक संरचना की दृष्टि से पश्चिमी घाट को तीन वर्गों में विभक्त किया जाता है-
- उत्तरी सह्याद्री
- मध्य सह्याद्री
- दक्षिण सह्याद्री
उत्तरी सह्याद्री
उत्तरी सह्याद्री, ताप्ती नदी से शुरू होकर मालप्रभा नदी के उद्गम स्थल तक 650 किमी की लंबाई में विस्तृत है। उत्तरी सह्याद्री की औसत ऊंचाई 550 मी है। यहीं से गोदावरी, भीमा, कृष्णा एवं उर्रा नदियों का उद्गम होता है। कलसुबाई (1,646 मी), सालहेर (1,567 मी) तथा महाबलेश्वर (1,438 मी) उत्तरी सह्याद्री की प्रमुख चोटियां हैं। थालघाट (581 मी) और भोरघाट (680 मी) उत्तरी सह्याद्री के दो प्रमुख दर्रे हैं। मुम्बई से कोलकाता का मार्ग भोरघाट दर्रे से ही बनता है।
मध्य सह्याद्री
मध्य सह्याद्री, मालप्रभा नदी के उद्गम स्थल से लेकर पालघाट दर्रे के बीच 650 किमी की लंबाई में फैला हुआ है। यह भाग काफी उबड़-खाबड़ तथा वनों से आच्छादित है। मध्य सह्याद्री की औसत ऊंचाई 1,220 मी है। कुद्रेमुख (1,892 मी) और पुष्पगिरि (1,794 मी) यहां की प्रमुख चोटियां हैं। मध्य सह्याद्रि की चट्टानें ग्रेनाइट और नीस प्रकार की हैं। इसके पूर्व की ओर तुंगभद्रा और कावेरी नदियाँ प्रवाहित होती हैं।
दक्षिण सह्याद्री
दक्षिण सह्याद्री, नीलगिरि पहाड़ियों से लेकर कन्याकुमारी तक 290 किमी की लंबाई में फैला हुआ है। इस भाग में नीलगिरि पहाड़ी के साथ-साथ अन्नामलाई की पहाड़ी भी हैं। अन्नाईमुड़ी (2,695 मी) दक्षिणी सह्याद्री की सबसे ऊंची चोटी है। दक्षिणी सह्याद्री के उत्तर-पूर्व में पालनी की पहाड़ियां तथा दक्षिण में इलायची की पहाड़ियां हैं।
पश्चिमी घाट की प्रमुख पहाड़ियों का क्रम ( उत्तर से दक्षिण )
- नीलगिरी पहाड़ी
- अन्नामलाई पहाड़ी
- इलायची पहाड़ी ( कार्डमम पहाड़ी )
पश्चिमी घाट के महत्वपूर्ण तथ्य
- पश्चिमी घाट का विस्तार अरब सागर तट के समांतर लगभग 1600 किमी की लंबाई में है।
- पश्चिमी घाट को सह्याद्रि भी कहा जाता है। इस क्षेत्र की औसत ऊँचाई लगभग 1000 मी से 1300 मी है। महाबलेश्वर, कलसूबाई, हरिश्चंद्र आदि यहाँ की प्रमुख चोटियाँ हैं।
- यह उत्तर में तापी नदी के मुहाने ( महाराष्ट्र-गुजरात की सीमा ) से गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल, तथा तमिलनाडु के कन्याकुमारी अंतरीप तक फैला हुआ है।
- यह वास्तविक पर्वत श्रेणी नहीं है। इसका निर्माण प्रायद्वीपीय भारत के गोंडवानालैंड के विभंजन से निर्मित कगार तथा स्थल के एक खंड के अरब सागर में अवसंवलन के कारण हुआ है। इसका पश्चिमी ढाल तीव्र एवं खड़ा है जबकि पूर्वी ढाल मंद एवं सीढ़ीनुमा है।
- महाबलेश्वर के पास ही गोदावरी, भीमा और कृष्णा आदि नदियों का उद्गम स्थान है। यहाँ की नदियाँ अपने मुहाने पर ज्वारनदमुख (एस्चुरी) का निर्माण करती है।
- पश्चिमी घाट पर्वतीय श्रृंखला को विश्व में सर्वाधिक संपन्न जैव विविधता वाली श्रेणी में रखा जाता है। यूनेस्को ने 2012 में इस क्षेत्र को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था।
पूर्वी घाट (Eastern Ghats)
पूर्वी घाट का विस्तार 1,300 किमी की लंबाई में महानदी से लेकर नीलगिरि की पहाड़ियों तक फैला हुआ है। पूर्वी घाट की औसत ऊंचाई 615 मी है। पूर्वी घाट के के अंतर्गत दक्षिण से उत्तर की ओर निल्गीती, पल्कोंदा, अन्नामलाई, जावदा और शिवराय नाम की पहाड़ियां मिलती है। गोदावरी और कृष्णा नदियों के डेल्टा के बीच पूर्वी घाट का स्तर समान हो गया है।
विशाखापट्टनम पूर्वी घाट का सबसे ऊंचा स्थल है इसकी ऊंचाई 1,680 मी है। और इसके बाद महेंद्रगिरि दूसरी सबसे ऊंची चोटी है, जिसकी ऊंचाई 1,501 मी है। पूर्वी घाट का निर्माण चार्कोनाइट्स और खोंडालाइट्स चट्टानों से हुआ है। पूर्वी घाट में चंदन के वन भी मिलते हैं। कावेरी नदी द्वारा निर्मित होजेकल जल-प्रपात पूर्वी घाट में ही है।
पूर्वी घाट के प्रमुख पहाड़ियों का क्रम ( उत्तर से दक्षिण )
- आंध्रप्रदेश राज्य
- नल्लामलाई पहाड़ी
- वेलीकोंडा पहाड़ी
- पालकोंडा पहाड़ी
- नगारी पहाडी
- तमिलनाडु राज्य
- जवादी पहाड़ी
- शेवरॉय पहाड़ी
- पंचमलाई पहाड़ी
- सिरुमलाई पहाड़ी
पूर्वी घाट के महत्वपूर्ण तथ्य
- भारत का पूर्वी घाट एक असतत् श्रृंखला के रूप में ओडिशा से लेकर तमिलनाडु तक विस्तृत है।
- गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी तथा पलार आदि बड़ी नदियों द्वारा विच्छेदित होकर एवं अत्यधिक अपरदन के कारण पूर्वी घाट की औसत ऊँचाई पश्चिमी घाट की अपेक्षा कम (लगभग 1100 मी) है।
- पूर्वी घाट के मध्य भाग में दो समानांतर पहाड़ियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से पूर्वी पहाड़ियों को वेलीकोंडा श्रेणी और पश्चिमी पहाड़ियों को पालकोंडा श्रेणी कहा जाता है।
- पूर्वी घाट में कॅटीले शिखर, तीव्र ढाल सहित अत्यधिक विषम एवं उबड़-खाबड़ पहाड़ी क्षेत्रों का निर्माण हुआ है जिसे जवादी, शेवरॉय आदि पहाड़ियों के रूप में देखा जा सकता है जो अंत में नीलगिरी में मिल जाते हैं।
प्रायद्वीपीय भारत के प्रमुख दर्रे
प्रायद्वीपीय भारत के प्रमुख दर्रे निम्नलिखित हैं –
थाल घाट दर्रा | महाराष्ट्र | मुंबई-नासिक |
भोर घाट दर्रा | महाराष्ट्र | मुंबई-पुणे |
पाल घाट दर्रा | केरल | पलक्कड़-कोयंबटूर(नीलगिरी और अन्नामलाई पहाड़ियों के मध्य) |
सेनकोटा गैप | केरल | तिरुवनंतपुरम्-मदुरै |
दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्र
- दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्र के अंतर्गत केरल एवं तमिलनाडु की सीमा पर स्थित नीलगिरी, अन्नामलाई, कार्डमम तथा तमिलनाडु में स्थित पालनी पहाड़ियाँ आदि आती हैं।
- डोडाबेटा, नीलगिरी पर्वत की सबसे ऊँची चोटी है, जबकि माकुर्ती (Makurti) इसकी दूसरी सबसे ऊँची चोटी है। प्रसिद्ध पर्यटन स्थल उडगमंडलम या ऊटी नीलगिरी में ही अवस्थित है।
- अन्नामलाई पर्वत की चोटी अनाईमुडी जिसकी ऊंचाई 2695 मी है, दक्षिण भारत की सबसे ऊँची चोटी है। जबकि कार्डमम, प्रायद्वीपीय भारत का दक्षिणतम पर्वतीय क्षेत्र है एवं यह केरल व तमिलनाडु की सीमाओं पर स्थित है।
- नीलगिरी और अन्नामलाई के बीच पालघाट दर्रा स्थित है। यह दर्रा पल्लकड़ को कोयंबटूर से जोड़ता है। जबकि अन्नामलाई और कार्डमम के बीच सेनकोटा दर्रा अवस्थित है। यह तिरुवनंतपुरम को मदुरै से जोड़ता है। प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोडाईकनाल, पालनी पहाड़ियों में ही स्थित है।
- केरल के नीलगिरी पर्वतीय क्षेत्र में स्थित शांत घाटी (Silent Valley) सर्वाधिक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक है।
पर्वत | अवस्थिति |
नीलगिरी पर्वत | केरल-तमिलनाडु |
अन्नामलाई पर्वत | केरल-तमिलनाडु |
कार्डमम पर्वत | केरल-तमिलनाडु |
पालनी पर्वत | तमिलनाडु |
शेवरॉय पर्वत | तमिलनाडु |
जवादी पर्वत | तमिलनाडु |
पालकोंडा पर्वत | आंध्रप्रदेश |
वेलीकोंडा पर्वत | आंध्रप्रदेश |
नल्लामलाई पर्वत | आंध्र प्रदेश, तेलंगाना |
प्रायद्वीपीय भूखंड भूगर्भिक रूप से अत्यंत समृद्ध हैं तथा यहां अनेक प्रकार के धात्विक व अधात्विक खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। खनिज पदार्थों का सबसे बड़ा अंश छोटानागपुर पठार में पाया जाता है।
प्रायद्वीपीय पठार के महत्व Importance of Peninsular Plateau
प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध प्रायद्वीपीय क्षेत्र भारत देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रायद्वीपीय भारत का महत्व इसकी भौगोलिक स्थिति और चट्टान संरचनाओं द्वारा प्रदान किए गए लाभों से है।
प्रायद्वीप की बेसाल्ट चट्टानों से प्राप्त होने वाली काली मिट्टी कपास और गन्ना की फसलों के लिए अत्यंत उपयोगी होती है। प्रायद्वीप स्थलाकृति जल-विद्युत शक्ति के उत्पादन के लिए भी अनुकूल मानी जाती हैं। क्योंकि अधिकांशतः प्रायद्वीपीय नदियां अपने प्रवाह मार्ग में अनेक प्रपात बनाती हैं। परन्तु इन नदियों की मौसमी प्रकृति के कारण जल-विद्युत उत्पादन की क्षमता काफी सीमित हो जाती है।
विन्ध्य पहाड़ियां उत्तर एवं दक्षिण भारत के मध्य एक प्राकृतिक जल विभाजक का कार्य करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप विंध्याचल के दक्षिण में स्थित भू-भाग के लोगों ने अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान (क्षेत्रीय विभेदों सहित) विकसित की है। भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र में धात्विक और अधात्विक दोनों प्रकार के खनिज भारी मात्रा में पाए जाते हैं। यह भौगोलिक क्षेत्र लोहा, मैंगनीज, तांबा, बॉक्साइट, क्रोमियम, अभ्रक, सोना, चांदी, जस्ता, सीसा, पारा, कोयला, हीरा, कीमती पत्थर, संगमरमर, निर्माण सामग्री और सजावटी पत्थरों जैसे खनिज अयस्कों से भरा पड़ा है। भारत का लगभग 98 प्रतिशत गोंडवाना कोयला भंडार प्रायद्वीपीय क्षेत्र में ही है।
प्रायद्वीपीय भारत का एक बड़ा हिस्सा काली मिट्टी/ रेगुर मिट्टी से ढका हुआ है। कपास, बाजरा, मक्का, दालें, संतरे और खट्टे फल सभी रेगुर मिट्टी में अच्छी तरह उगते हैं। चाय, कॉफ़ी, रबर, काजू, मसाले, तम्बाकू, मूंगफली और तिलहन सभी दक्षिण प्रायद्वीपीय भारत के कुछ क्षेत्रों में उगाए जाते हैं। प्रायद्वीपीय भारत के दक्षिणी और पूर्वी भागों में आर्कियन, धारवाड़, कडप्पा और विंध्य संरचनाओं के बड़े क्षेत्रों की मिटटी में समय बितने के साथ बदलाव हुआ, और ये समय के साथ लाल, भूरी और लेटराइट मिट्टी प्राप्त कर ली है। यही मिट्टी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नींव हैं।
घने उष्णकटिबंधीय नम पर्णपाती और अर्ध-सदाबहार वन पश्चिमी घाट, नीलगिरी और पूर्वी घाट को कवर करते हैं। सागौन, साल, चंदन, आबनूस, महोगनी, बांस, बेंत, शीशम, आयरनवुड और लॉगवुड जैसे बृक्षों के साथ वन उत्पादों की एक विस्तृत श्रृंखला इन जंगलों में पाई जाती हैं। बंगाल की खाड़ी में पूर्व की ओर बहने वाली नदियाँ घाटियों, झरनों, रैपिड्स और मोतियाबिंद की एक श्रृंखला प्रदान करती हैं। इनका उपयोग जल विद्युत उत्पन्न करने के लिए किया गया है।
पश्चिमी घाट से निकलने वाली नदियाँ जल विद्युत उत्पादन और कृषि फसलों और बगीचों की सिंचाई के लिए उत्कृष्ट अवसर प्रदान करती हैं। यहाँ के हिल स्टेशन ऊटी, उधगमंडलम, कोडैकोनल, महाबलेश्वर, खंडाला, मेथेरोन, पचमढ़ी और माउंट आबू सबसे महत्वपूर्ण हिल स्टेशनों और हिल रिसॉर्ट्स में से हैं। ये पर्यटन के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है तथा यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता भी अत्यंत मनोरम है। सागौन और ईंधन की लकड़ी के अलावा, पश्चिमी और पूर्वी घाट के जंगल औषधीय पौधों से समृद्ध हैं। प्रायद्वीप के पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में कई अनुसूचित जनजातियाँ निवास करती हैं। द्रविड़ संस्कृति विंध्य के दक्षिण में प्रमुख है।