भारतीय भाषाओं की समृद्ध परंपरा में क्षेत्रीय भाषाएँ एवं बोलियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। वे केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक पहचान, सांस्कृतिक धरोहर तथा ऐतिहासिक निरंतरता का प्रतीक भी हैं। इन्हीं में से एक है बघेली, जिसे प्राचीन परंपरा और विशिष्ट भाषाई स्वरूप के कारण विशेष महत्व प्राप्त है। बघेली को कभी-कभी बधेली, बघेलखंडी या अवधी की एक दक्षिणी शाखा के रूप में भी सम्बोधित किया जाता है। यद्यपि भाषा-वैज्ञानिकों में इसके वर्गीकरण को लेकर मतभेद हैं—कुछ इसे हिंदी की उपभाषा मानते हैं, तो कुछ इसे एक स्वतंत्र भाषा का दर्जा देते हैं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि बघेली का अपना समृद्ध शब्दकोश, ध्वनि-संरचना, व्याकरणिक शैली और सांस्कृतिक विरासत है।
बघेली का ऐतिहासिक विकास
बघेली भाषा का उद्भव मध्य भारत के विंध्य क्षेत्र में हुआ माना जाता है। यह क्षेत्र पहले कुर्मांचल और बाद में बघेलखंड नाम से प्रसिद्ध हुआ। इतिहास के अनुसार इस क्षेत्र में बघेल राजपूतों का शासन रहा, जिनके नाम पर भाषा का नाम “बघेली” पड़ा।
भाषाविदों का अनुमान है कि बघेली का निर्माण प्राकृत, विशेषकर अर्धमागधी और शौरसेनी, से हुआ और मध्यकाल में इसका रूप अवधी के निकट विकसित हुआ। यही कारण है कि बघेली ध्वन्यात्मक और व्याकरणिक संरचना में अवधी से अत्यंत समानता रखती है। कुछ विद्वान इसे पूर्वी हिंदी समूह की भाषा मानते हैं, जिसमें अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेलखंडी और भोजपुरी भी शामिल हैं।
बघेली का भौगोलिक विस्तार
बघेली भाषा मुख्य रूप से भारत के मध्य प्रदेश में बोली जाती है। इसके प्रमुख क्षेत्र निम्न हैं—
- रीवा (Rewa)
- सतना
- पन्ना
- जबलपुर
- दमोह
- माण्डला
मध्य प्रदेश के अतिरिक्त यह भाषा पड़ोसी राज्यों में भी पाई जाती है, जैसे—
- उत्तर प्रदेश — मिर्जापुर, बांदा, हमीरपुर क्षेत्र
- छत्तीसगढ़ — उत्तर और मध्य भाग
यह सम्पूर्ण क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से विंध्य-पठार कहलाता है, जहाँ प्राकृतिक विविधता, घने जंगल, खनिज संसाधन और जनजातीय समाज का गहरा प्रभाव बघेली की शब्द-संपदा और ध्वन्यात्मक संरचना में स्पष्ट दिखाई देता है।
भाषावैज्ञानिक स्थिति और पहचान
बघेली को भाषावैज्ञानिक रूप से एक इंडो-आर्यन भाषा माना जाता है। यह इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का हिस्सा है। भारत में कई दशकों तक इसे केवल हिंदी की बोली माना जाता रहा, लेकिन वर्तमान युग में यह भाषा सांस्कृतिक, साहित्यिक और सामाजिक रूप से अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने की दिशा में अग्रसर है।
यद्यपि प्रशासनिक रूप से यह हिंदी की उपबोली मानी जाती है, लेकिन भाषा-विशेषज्ञों के अनुसार यह अपनी ध्वनि, व्याकरण और शब्दकोश की विशिष्टताओं के कारण स्वतंत्र भाषा की पात्रता रखती है।
बघेली की भाषिक विशेषताएँ
बघेली भाषा की संरचना, व्याकरण, ध्वनि और शब्दावली में कई रोचक गुण पाए जाते हैं। इनमें प्रमुख हैं—
(1) अवधी के ‘व’ का ‘ब’ में रूपांतरण
बघेली में कई शब्दों में अवधी और मानक हिंदी के “व” का प्रयोग “ब” के रूप में होता है। उदाहरण—
| अवधी / हिंदी | बघेली रूप |
|---|---|
| आवा | आबा |
| सवा | सभ |
| हवा | हबा |
| बनाने | बानइ |
इस रूपांतरण से भाषा में एक प्रकार की स्थानीय मधुरता और लय उत्पन्न होती है।
(2) विशेषणों में ‘हा’ प्रत्यय का प्रयोग
बघेली में विशेषणों के साथ ‘हा’ प्रत्यय जोड़ा जाता है। इसका उद्देश्य वस्तु की विशेषता या गुण को अधिक स्पष्ट बनाना है।
उदाहरण —
| हिंदी | बघेली |
|---|---|
| मोटा | मोटहा |
| मीठा | मीठहा |
| कठोर | कठहा |
| अधिक | अधिकहा |
यह ध्वनि-संयोजन भाषा को ग्रामीण और प्राकृतिक जीवन से जोड़ता है।
(3) जनजातीय शब्दावली का प्रभाव
बघेलखंड क्षेत्र में गोंड और अन्य जनजातियों की सशक्त उपस्थिति रही है। परिणामस्वरूप बघेली में अनेक शब्द गोंडी और अन्य आदिवासी भाषाओं से आए हैं।
जैसे—
- दउरी — बाँस की टोकरी
- टुर्रा — पगडी का एक रूप
- करचुली — लकड़ी की चम्मच
- गोरई — एक स्थानीय मछली
यह शब्दावली बघेली को ग्रामीण, प्राकृतिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाती है।
(4) ध्वनि और लयात्मकता
बघेली एक धीमी, कोमल और सुरमयी बोली है। इसे बोलते समय स्वर ध्वनियाँ अधिक समय तक खिंचती हैं, जिससे यह गीतात्मक और गेय प्रतीत होती है। कई लोकगीतों, आल्हाओं और पारंपरिक कथाओं में इसकी लय स्पष्ट सुनाई देती है।
(5) क्रियारूपों की सरलता
बघेली में क्रिया-रूप सरल होते हैं, जैसे—
| हिंदी | बघेली |
|---|---|
| जा रहा हूँ | जात हौं |
| खाता हूँ | खइत हौं |
| आएंगे | आइहे |
बघेली साहित्य और लोकपरंपरा
बघेली भाषा की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी हैं। इसके लोकगीत, किस्से, कहावतें और रीति-रिवाज जीवन के हर पहलू से जुड़े हैं। कुछ प्रमुख लोकरूप हैं—
- कजरी
- फाग
- करमा नृत्य
- राई नृत्य
- बघेली आल्हा-गायन
लोककथा-परंपरा विशेष रूप से मजबूत है। बघेली समाज में विवाह, खेती, त्योहारों और ऋतु परिवर्तन के अवसर पर विशिष्ट गीत गाए जाते हैं।
आधुनिक समय में बघेली की स्थिति
आज के समय में बघेली भाषा दो चुनौतियों का सामना कर रही है—
- मानक हिंदी का बढ़ता प्रभाव
- भाषाई अस्मिता का अभाव
नई पीढ़ी विद्यालयों, प्रशासन और मीडिया में हिंदी का प्रयोग अधिक करती है, जबकि बघेली केवल घर-परिवार और स्थानीय समाज तक सीमित होती जा रही है। इसके बावजूद डिजिटल मीडिया, लोककला संस्थानों और भाषा आंदोलन की बदौलत इसका पुनरुत्थान हो रहा है।
संरक्षण और भविष्य की संभावनाएँ
यदि बघेली को साहित्य, शिक्षा और तकनीकी प्लेटफॉर्मों पर उचित स्थान मिलता है, तो यह भाषा न केवल संरक्षित रह सकती है, बल्कि व्यापक सामाजिक पहचान भी बना सकती है। बघेली में पहले से ही लोकगीत, कविताएँ, धार्मिक कथाएँ और कहावतों का विशाल भंडार मौजूद है। आवश्यकता केवल भाषा मानकीकरण, दस्तावेजीकरण और नए साहित्य निर्माण की है।
निष्कर्ष
बघेली केवल एक बोली नहीं, बल्कि बघेलखंड की आत्मा है। यह प्रकृति, संस्कृति, भावना और इतिहास की भाषा है। चाहे इसे अवधी की शाखा माना जाए या एक स्वतंत्र भाषा—इसकी पहचान और गरिमा अप्रतिम है। इसकी ध्वनि संरचना, व्याकरण, जनजातीय प्रभाव और लोककला इसे विशिष्ट बनाते हैं। आधुनिक समय में इसके संरक्षण और पुनर्जीवन की आवश्यकता पहले से अधिक है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ न केवल इसे सुनें, बल्कि इसमें सोचें, लिखें और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहें।
**“भाषाएँ मिटती नहीं — वे केवल छोड़ी जाती हैं।”
बघेली को छोड़ना नहीं, संजोना हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है।**
इन्हें भी देखें –
- पहाड़ी हिन्दी : उत्पत्ति, विकास, बोलियाँ और भाषाई विशेषताएँ
- मालवी भाषा : उद्भव, स्वरूप, विशेषताएँ और साहित्यिक परंपरा
- वागड़ी भाषा : इतिहास, स्वरूप, विशेषताएँ और सांस्कृतिक महत्ता
- मेवाती भाषा : इतिहास, बोली क्षेत्र, भाषाई संरचना, साहित्य और आधुनिक स्वरूप
- हाड़ौती भाषा: राजस्थान की एक समृद्ध उपभाषा का भाषिक और सांस्कृतिक अध्ययन
- अवधी भाषा : इतिहास, क्षेत्र, साहित्य, विशेषताएँ और महत्त्व
- छत्तीसगढ़ी भाषा : इतिहास, क्षेत्र, विशेषताएँ, साहित्य और सांस्कृतिक महत्व
- पूर्वी हिन्दी : विकास, बोलियाँ, भाषिक विशेषताएँ और साहित्यिक योगदान