भारत का राजनीतिक एकीकरण | 1947 – 1961

भारत का राजनीतिक एकीकरण भारतीय उपमहाद्वीप में विभाजित रियासतों और प्रदेशों को एक संगठित राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया को दर्शाता है। इस प्रक्रिया में 1947 के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति के दौरान और उसके बाद, विभिन्न रियासतों, प्रदेशों और साम्राज्यों को भारतीय संघ में सम्मिलित किया गया। सरदार वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन की महत्वपूर्ण भूमिका इस एकीकरण में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह एकीकरण भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की नींव को मजबूत करने में सहायक सिद्ध हुआ।

भारत के स्वतंत्र होने के बाद उसका राजनीतिक एकीकरण करना आसान कार्य नहीं था। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, भारत अनेक स्वतंत्र रियासतों में विभाजित था। 15 अगस्त 1947 की तारीख, जब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, लार्ड लुई माउण्टबेटन द्वारा विशेष रूप से चुनी गई थी। यह तिथि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान द्वारा आत्मसमर्पण करने की दूसरी वर्षगांठ थी। 15 अगस्त 1945 को, जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया था, उस समय माउण्टबेटन बर्मा के जंगलों में सेना के साथ थे। इसी वर्षगांठ को यादगार बनाने के लिए माउण्टबेटन ने 15 अगस्त 1947 को भारत की आजादी के लिए चुना था।

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भारत का राजनीतिक एकीकरण में सरदार पटेल का अद्वितीय योगदान

स्वतंत्रता के बाद, भारत को राजनीतिक रूप से एकीकृत करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। उस समय देश में लगभग 562 देशी रियासतें थीं, जो विभिन्न प्रकार की प्रशासनिक और राजनीतिक संरचनाओं के तहत कार्य कर रही थीं। इन रियासतों को भारतीय संघ में मिलाना आवश्यक था ताकि एक संगठित और समृद्ध राष्ट्र का निर्माण हो सके। सरदार वल्लभभाई पटेल, जो उस समय देश के उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री थे, ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने अपनी कुशल नेतृत्व क्षमता और कूटनीति का उपयोग करते हुए इन रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित किया।

पटेल ने इन रियासतों को शांतिपूर्ण ढंग से भारत में मिलाने के लिए प्रोत्साहित किया, और जहां आवश्यक हुआ, वहां सैन्य बल का भी प्रयोग किया। कई रियासतों के शासक भारत में विलय करने को लेकर अनिश्चित थे, लेकिन पटेल की दृढ़ता और रणनीतिक कुशलता के कारण, अधिकांश रियासतें भारतीय संघ में विलय के लिए सहमत हो गईं। इस प्रकार, उन्होंने भारत को एक सूत्र में बांधकर एक एकीकृत राष्ट्र का स्वरूप प्रदान किया।

हालांकि, कुछ रियासतों को भारत में सम्मिलित होने में समय लगा। भोपाल की रियासत ने भारत संघ का हिस्सा बनने के लिए दो साल का समय लिया। अंततः, पटेल की नेतृत्व क्षमता और दृढ़ संकल्प के परिणामस्वरूप, सभी प्रमुख रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बन गईं। सरदार पटेल के इस महान कार्य के कारण, उन्हें ‘लौह पुरुष’ के रूप में भी याद किया जाता है। उनका योगदान भारतीय राजनीतिक एकीकरण में अमूल्य है और एक कुशल प्रशासक के रूप में उनकी विरासत आज भी देश में सम्मान के साथ याद की जाती है।

भारत का राजनीतिक एकीकरण | एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

1947 में भारत की आजादी प्राप्ति के दौरान, भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 562 देशी रियासतें थीं। सरदार वल्लभभाई पटेल, जो तब अंतरिम सरकार में उपप्रधानमंत्री और देश के गृहमंत्री थे, ने इन रियासतों के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के समय, भारत के पहले गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबैटन ने जो प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू के सामने रखा था, उसमें प्रावधान था कि भारत के 565 रजवाड़े भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में विलय का चयन कर सकते हैं, या वे चाहें तो स्वतंत्र भी रह सकते हैं। इस प्रस्ताव के अनुसार, इन 565 रजवाड़ों में से अधिकांश प्रिंसली स्टेट्स थे, जो ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का हिस्सा थे।

सरदार पटेल और वी.पी. मेनन के कुशल नेतृत्व और कूटनीति के परिणामस्वरूप, भारत के हिस्से में आए रजवाड़ों ने एक-एक करके भारतीय परिसंघ में शामिल होने के विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। वास्तव में, पटेल और मेनन ने इन हस्ताक्षरों को सुनिश्चित करने में बड़ी भूमिका निभाई। अधिकांश रियासतों ने स्वेच्छा से भारतीय परिसंघ में शामिल होने की स्वीकृति दी थी, लेकिन कुछ प्रमुख रियासतों ने प्रारंभ में संकोच किया।

इनमें जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और भोपाल का उल्लेखनीय स्थान है। जूनागढ़ ने पाकिस्तान में मिलने की घोषणा की थी, जबकि कश्मीर स्वतंत्र रहने की सोच रहा था। हैदराबाद भी स्वतंत्र रहना चाहता था। पटेल और मेनन ने इन रियासतों के साथ जटिल बातचीत की और उन्हें भारतीय संघ में शामिल होने के लिए राजी किया। इनके विलय के लिए उनको सेना की सहायता भी लेनी पड़ी। किन्तु भोपाल के विलय के लिए सेना की आवाध्यकता नहीं पड़ी।

जूनागढ़ का भारत में विलय

जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान के साथ विलय का निर्णय लिया, जिससे स्थानीय जनता और राजनीतिक नेतृत्व में भारी विरोध हुआ। इस विरोध के चलते भारतीय सेना ने हस्तक्षेप किया और जूनागढ़ का भारत में विलय हुआ।

हैदराबाद का भारत में विलय

हैदराबाद, जो देश का सबसे बड़ा और सबसे धनी रियासत था, के निजाम ने भी स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया। इससे वहां के हिंदू बहुसंख्यक आबादी में असंतोष फैला। ‘ऑपरेशन पोलो’ के माध्यम से भारतीय सेना ने हैदराबाद पर नियंत्रण किया और इसे भारत में सम्मिलित किया गया।

कश्मीर का भारत में विलय

कश्मीर का मामला सबसे जटिल था। महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर को स्वतंत्र रखने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन पाकिस्तान समर्थित कबायलियों के हमले के बाद, उन्होंने भारत से सहायता मांगी। इस शर्त पर कि कश्मीर का भारत में विलय होगा, भारतीय सेना ने कश्मीर में प्रवेश किया और आक्रमणकारियों को पीछे हटाया। इस प्रकार, कश्मीर का विलय भारत में हुआ।

भोपाल का भारत में विलय

भोपाल का विलय भारत में सबसे अंत में हुआ। भोपाल के नवाब ने स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई थी, लेकिन पटेल और मेनन को विश्वास था कि अंततः भोपाल का विलय भारत में होगा। बिना किसी सैन्य हस्तक्षेप के, भोपाल ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और भारतीय संघ का हिस्सा बना।

भोपाल का विलीनीकरण एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी, जो नवाब हमीदुल्लाह खान की जटिल राजनीतिक स्थिति और देश की आंतरिक राजनीति में उनके प्रभाव के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस घटना ने भारत के राजनीतिक एकीकरण की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ा और भारतीय संघ की एकता और अखंडता को मजबूत किया। पटेल और मेनन की सूझबूझ और कूटनीति ने सुनिश्चित किया कि सभी रियासतें, चाहे वे कितनी भी बड़ी या महत्वपूर्ण क्यों न हों, भारतीय संघ का हिस्सा बनें।

भोपाल का इतिहास

भोपाल रियासत, जहां नवाब हमीदुल्लाह खान शासक थे, मध्य प्रदेश के भोपाल, सीहोर और रायसेन क्षेत्रों तक फैली हुई थी। इस रियासत की स्थापना 1723-24 में औरंगजेब की सेना के बहादुर अफगान योद्धा दोस्त मोहम्मद खान ने सीहोर, आष्टा, खिलचीपुर और गिन्नौर को जीत कर की थी। 1728 में दोस्त मोहम्मद खान की मृत्यु के बाद उनके बेटे यार मोहम्मद खान ने भोपाल रियासत के पहले नवाब के रूप में शासन किया।

ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत प्रिंसली स्टेट का दर्जा

मार्च 1818 में, जब नजर मोहम्मद खान नवाब थे, तब एंग्लो भोपाल संधि के तहत भोपाल रियासत भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य की प्रिंसली स्टेट बन गई। 1926 में हमीदुल्लाह खान ने भोपाल रियासत के नवाब का पद संभाला। अलीगढ़ विश्वविद्यालय से शिक्षित नवाब हमीदुल्लाह दो बार 1931 और 1944 में चेम्बर ऑफ प्रिंसेस के चांसलर बने, और भारत विभाजन के समय भी वे ही चांसलर थे। आजादी का मसौदा घोषित होते ही उन्होंने 1947 में चांसलर पद से त्यागपत्र दे दिया, क्योंकि वे रजवाड़ों की स्वतंत्रता के पक्षधर थे।

नवाब हमीदुल्लाह का द्वंद्व

नवाब हमीदुल्लाह खान 14 अगस्त 1947 तक इस उलझन में थे कि वे क्या निर्णय लें। जिन्ना ने उन्हें पाकिस्तान में सेक्रेटरी जनरल का पद देकर वहां आने की पेशकश की थी, जबकि दूसरी ओर रियासत के प्रति उनके लगाव ने उन्हें असमंजस में डाल रखा था। 13 अगस्त को उन्होंने अपनी बेटी आबिदा सुल्तान को भोपाल रियासत का शासक बनने को कहा ताकि वे पाकिस्तान जाकर सेक्रेटरी जनरल का पद संभाल सकें, लेकिन आबिदा ने इससे इनकार कर दिया।

भोपाल का विलय और नवाब का राजनीतिक प्रभाव

भोपाल का विलीनीकरण सबसे अंत में हुआ। इसके पीछे एक कारण यह भी था कि नवाब हमीदुल्लाह, जो चेम्बर ऑफ प्रिंसेस के चांसलर थे, का देश की आंतरिक राजनीति में बड़ा दखल था। वे नेहरू और जिन्ना दोनों के घनिष्ठ मित्र थे, जिससे विलय की प्रक्रिया प्रभावित हुई। मार्च 1948 में नवाब हमीदुल्लाह ने भोपाल के स्वतंत्र रहने की घोषणा की। मई 1948 में उन्होंने भोपाल सरकार का एक मंत्रिमंडल घोषित कर दिया, जिसके प्रधानमंत्री चतुरनारायण मालवीय थे।

विद्रोह और विलीनीकरण

1948 आते-आते भोपाल रियासत में विलीनीकरण को लेकर विद्रोह पनपने लगा। स्थानीय जनता और राजनीतिक नेतृत्व में असंतोष फैल गया। इसके साथ ही, सरदार पटेल और वी.पी. मेनन की जोड़ी भी दबाव बनाने लगी। इस समय तक भारत सरकार के लिए यह आवश्यक हो गया था कि भोपाल रियासत का भी विलीनीकरण हो।

अक्टूबर 1948 में, विलीनीकरण के पक्ष में चतुर नारायण मालवीय भी उतर चुके थे, जिनके नेतृत्व में प्रजामंडल विलीनीकरण आंदोलन का मुख्य दल बन चुका था। अक्टूबर 1948 में नवाब हज पर चले गये और दिसम्बर 1948 में, भोपाल के इतिहास में विलीनीकरण के खिलाफ एक शक्तिशाली प्रदर्शन हुआ, जिसमें कई प्रदर्शनकारी गिरफ्तार किए गए, जैसे कि भाई रतनकुमार, ठाकुर लाल सिंह, और डॉ॰ शंकर दयाल शर्मा। पूरे भोपाल में बंदिशें लगी थीं, और राज्य की पुलिस आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए पानी फेंक रही थी।

23 जनवरी 1949 को, डॉ॰ शंकर दयाल शर्मा को आठ माह के लिए जेल भेज दिया गया। इन सबके बीच वीपी मेनन एक बार फिर से भोपाल आए मेनन ने नवाब को स्पष्ट शब्दों में कहा कि भोपाल स्वतंत्र नहीं रह सकता, भौगोलिक, नैतिक और सांस्कृतिक नजर से देखें तो भोपाल मालवा के ज्यादा करीब है इसलिए भोपाल को मध्यभारत का हिस्सा बनना ही होगा।

बढ़ते हुए दबाव और पंडित चतुर नारायण मालवीय का विलीनीकरण के पक्ष में बढ़ती हुई इच्छा के कारण 29 जनवरी 1949 को नवाब ने मंत्रिमंडल को बर्खास्त करते हुए सत्ता के सारे सूत्र एक बार फिर से अपने हाथ में ले लिए। इसके विरोध में पंडित चतुरनारायण मालवीय इक्कीस दिन के उपवास पर बैठ चुके थे।

भारत का राजनीतिक एकीकरण

इन सभी घटनाओं के बीच, वीपी मेनन भोपाल में रुके हुए थे। वे लाल कोठी (वर्तमान राजभवन) में ही रहकर इस पूरी प्रक्रिया पर नजर रखे हुए थे। अंतत: 30 अप्रैल 1949 को, नवाब ने विलीनीकरण के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। सरदार पटेल ने नवाब को लिखे पत्र में कहा – मेरे लिए ये एक बड़ी निराशाजनक और दुःख की बात थी कि आपके अविवादित हुनर तथा क्षमताओं को आपने देश के उपयोग में उस समय नहीं आने दिया जब देश को उसकी जरूरत थी।

1 जून 1949 को, भोपाल रियासत भारत का हिस्सा बन गई, और केंद्र द्वारा नियुक्त चीफ कमिश्नर श्री एनबी बैनर्जी ने कार्यभार संभाल लिया। नवाब को एक वार्षिक वित्तीय भत्ता के रूप में 11 लाख रुपये दिए गए। इससे भोपाल का विलीनीकरण पूरा हो गया, जो 1724 से 1949 तक के नवाबी शासन का अंत हुआ। लगभग 225 साल पुराने (1724 से 1949) नवाबी शासन का प्रतीक रहा तिरंगा (काला, सफेद, हरा) लाल कोठी से उतारा गया और भारत संघ का तिरंगा (केसरिया, सफेद, हरा) चढ़ाया गया।

अंतत: 1 जून 1949 को भोपाल रियासत, भारत का हिस्सा बन गई, केंद्र द्वारा नियुक्त चीफ कमिश्नर श्री एनबी बैनर्जी ने कार्यभार संभाल लिया और नवाब को मिला 11 लाख सालाना का प्रिवीपर्स। भोपाल का विलीनीकरण हो चुका था। लगभग 225 साल पुराने (1724 से 1949) नवाबी शासन का प्रतीक रहा तिरंगा (काला, सफेद, हरा) लाल कोठी से उतारा जा रहा था और भारत संघ का तिरंगा (केसरिया, सफेद, हरा) चढ़ाया जा रहा था।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ने रियासतों को यह विकल्प दिया कि वे भारत या पाकिस्तान अधिराज्य (डामिनियम) में शामिल हो सकती हैं या एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य के रूप में स्वंय को स्थापित कर सकती हैं।

तत्कालीन समय में लगभग 500 से ज़्यादा रियासतें लगभग 48% भारतीय क्षेत्र एवं 28% जनसंख्या की कवर करती थीं। ये रियासते वैधानिक रूप से ब्रिटिश भारत के भाग नहीं थें, लेकिन ये ब्रिटिश क्राउन के पूर्णत: अधीनस्थ थीं। ये रियासते, राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों एवं अन्य उपनिवेशी शक्तियों के उदय को नियंत्रित करने में, ब्रिटिश सरकार के लिये एक सहायक के रूप में थीं। सरदार वल्लभ भाई पटेल (भारत के पहले उपप्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री) को V.P. मेनन की सहायता से रियासतों के एकीकरण का कार्य सौंपा गया।

राजाओं के बीच राष्ट्रवाद का आह्वान शामिल न होने पर अराजकता की आशंका जताते हुए, पटेल ने राजाओं को भारत में शामिल करने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने ‘प्रिवी पर्स’ (एक भुगतान, जो शाही परिवारों को भारत के साथ विलय पर हस्ताक्षर करने पर दिया जाना था) की अवधारणा को भी पुनर्स्थापित किया। कुछ रियासतों ने भारत में शामिल होने का निर्णय किया, तो कुछ ने स्वतंत्र रहने का, वहीं कुछ रियासतें पाकिस्तान का भाग बनना चाहती थीं।

रियासतें जो भारत में शामिल नहीं होना चाहती थी

कुछ रियासतें ऐसी थी जो भारत में शामिल न होकर पाकिस्तान में शामिल होना चाहती थी। कुछ रियासतें ऐसी भी थी जो स्वतंत्र रियासत के रूप में रहना चाहती थी, वे न तो भारत में शामिल होना चाहती थीं और न ही पाकिस्तान में। परन्तु इन रियासतों को अंततः भारत में शामिल होना पड़ा। इन रियासतों के भारत में शामिल होने की वजह को संक्षिप्त में आगे दिया गया है –

त्रावनकोर

दक्षिण तटीय राज्य, त्रावनकोर, उन प्रथम रियायतों में से एक था जिसने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार किया था एवं कॉन्ग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्त्व पर प्रश्नचिह्न लगाया था। ऐसा कहा जाता है कि सर सी.पी. अबयर (त्रावनकोर के दीवान) ने यू.के. सरकार के साथ गुप्त संधि भी कर ली थी। यू.के की सरकार स्वतंत्र त्रावनकोर के पक्ष में थी क्योंकि यह क्षेत्र मोनोजाइट नामक खनिज से समृद्ध था, जो ब्रिटेन को नाभकीय हथियारों की दौड़ में बढ़त दिला सकता था। लेकिन केरल समाजवादी पार्टी के एक सदस्य द्वारा उनकी हत्या के असफल प्रयास के बाद, सी.पी. अय्यर ने भारत से जुड़ने का फैसला किया और 30 जुलाई, 1947 को त्रावनकोर भारत में शामिल हो गया।

जोधपुर

एक राजपूत रियासत, जहाँ का राजा हिंदू था और अधिकांश जनसंख्या हिंदू थी, असाधारण रूप से पाकिस्तान की ओर झुकाव रखता था। युवा एवं अनुभवहीन राजा हनवंत सिंह ने यह अनुमान लगाया कि पाकिस्तान के साथ उसकी रियासत की सीमा लगने के कारण वह पाकिस्तान से ज़्यादा अच्छे तरीके से सौदेबाज़ी कर सकता है। जिन्ना ने महाराज को अपनी सभी मांगों को सूचीबद्ध करने के लिये एक हस्ताक्षरित खाली पेपर दे दिया था। इन्होंने सैन्य एवं कृषकों की सहायता से हथियारों के निर्माण और आयात के लिये कराची बंदरगाह तक मुफ्त पहुँच का प्रस्ताव भी रखा।

इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए , पटेल ने तुरंत राजा से संपर्क किया और उसे पर्याप्त लाभों एवं प्रस्तावों का आश्वासन दिया। पटेल ने आश्वस्त किया कि हथियारों के आयात की अनुमति होगी। जोधपुर को काठियावाड़ से रेल के माध्यम से जोड़ा जाएगा, साथ ही अकाल के दौरान अनाज की आपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी। 11 अगस्त, 1947 को महाराजा हनवंत सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये, इस प्रकार जोधपुर रियासत का भारतीय अधिराज्य में एकीकरण हो गया।

भोपाल

यह एक और रियासत थी जिसने संप्रभु एवं स्वतंत्र रहने की घोषणा की। यहाँ एक मुस्लिम नवाब, हमीदुल्ला खान, अधिसंख्यक हिंदू जनसंख्या पर शासन करता था। वह मुस्लिम लीग का करीबी मित्र एवं कॉग्रेंस का घोर विरोधी था। हालाँकि, उसने माउंटबेटन को लिखा कि कि वह एक स्वतंत्र रियासत चाहता है किंतु माउंटबेटन ने उसे उत्तर देते हुए लिखा कि ‘‘कोई की शासक अपने नजदीकी अधिराज्य (डामिनियम) से भाग नहीं सकता है।” जुलाई 1947, जब अधिकांश राजाओं ने भारत में शामिल होने का निर्णय लिया, तो अंतत: भोपाल के नवाब ने भी विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।’’

हैदराबाद

यह सभी रियासतों में सबसे बड़ी एवं सबसे समृद्धशाली रियासत थी, जो दक्कन पठार के अधिकांश भाग को कवर करती थी। इस रियासत की अधिसंख्यक जनसंख्या हिंदू थी, जिस पर एक मुस्लिम शासक निजाम मीर उस्मान अली, शासन करता था। इसने एक स्वतंत्र राज्य की मांग की एवं भारत में शामिल होने से मना कर दिया। इसने जिन्ना से मदद का आश्वासन प्राप्त किया और इस प्रकार हैदराबाद को लेकर कशमकश एवं उलझनें समय के साथ बढ़ती गईं।

पटेल एवं अन्य मध्यस्थों के निवेदनों एवं धमकियाँ निजाम के मानस पर कोई फर्क नहीं डाल सकीं और उसने लगातार यूरोप से हथियारों के आयात को जारी रखा। परिस्थितियाँ तब भयावह हो गईं, जब सशस्त्र कट्टरपंथियों ने हैदराबाद की हिंदू प्रजा के खिलाफ़ हिंसक वारदातें शुरू कर दीं। 13 सितंबर, 1948 के ‘ऑपरेशन पोलों के तहत भारतीय सैनिकों को हैदराबाद भेजा गया। 4 दिन तक चले सशस्त्र संघर्ष के बाद अंतत: हैदराबाद भारत का अभिन्न अंग बन गया। बाद में निजाम के आत्मसमर्पण पर उसे पुरस्कृत करते हुए हैदराबाद राज्य का गवर्नर बनाया गया।

जूनागढ़

गुजरात के दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक रियासत, जो 15 अगस्त, 1947 तक भारत में शामिल नहीं हुई थी, की अधिकांश जनसंख्या हिंदू एवं राजा मुस्लिम था। 15 सितंबर, 1947 को नवाब मुहम्मद महाबत खानजी ने पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया और तर्क दिया कि जूनागढ़ समुद्र द्वारा पाकिस्तान से जुड़ा है। दो राज्यों के शासक मंगरोल एवं बाबरियावाड जो जूनागढ़ के अधीन थे, ने प्रतिक्रिया स्वरूप जूनागढ़ से स्वतंत्रता एवं भारत में शामिल होने की घोषणा की। इसकी अनुक्रिया में जूनागढ़ के नवाब ने सैन्यबल का प्रयोग कर इन दोनों राज्यों पर कब्जा कर लिया, परिणामस्वरूप पड़ोसी राज्यों के राजाओं ने भारत सरकार से मदद की अपील की।

भारत सरकार मानती थी कि यदि जूनागढ़ को पाकिस्तान में शामिल होने की अनुमति दे दी गई तो सांप्रदायिक दंगे और भयावह रूप धारण कर लेंगे, साथ ही बहुसंख्यक हिंदू जनसंख्या, जो कि 80% है, इस फैसले को स्वीकार नहीं करेगी। इस कारण भारत सरकार ने ‘‘जनमत संग्रह’’ से विलय के मुद्दे के समाधान का प्रस्ताव रखा। इसी दौरान भारत सरकार ने जूनागढ़ के लिये ईंधन एवं कोयले की आपूर्ति को रोक दिया एवं भारतीय सेनाओं ने मंगरोल एवं बाबरियावाड पर कब्ज़ा कर लिया।

पाकिस्तान, भारतीय सेनाओं की वापसी के शर्त के साथ ‘जनमत संग्रह’ के लिये सहमत हो गया, लेकिन भारत ने इस शर्त को खारिज कर दिया। 7 नवंबर, 1947 को जूनागढ़ की अदालत ने भारत सरकार को राज्य का प्रशासन अपने हाथ में लेने के लिये आमंत्रित किया। जूनागढ़ के दीवान सर शाह नवाज भुट्टो (सुप्रसिद्ध जुल्फीकार अली भुट्टो के पिता), ने हस्तक्षेप के लिये भारत सरकार को आमंत्रित करने का निर्णय लिया। फरवरी, 1948 को ‘जनमत संग्रह’ कराया गया, जो लगभग सर्वसम्मति से भारत में विलय के पक्ष में गया।

कश्मीर

एक ऐसी रियासत जहाँ की बहुसंख्यक जनसंख्या मुस्लिम थी, जबकि राजा हिंदू था। राजा हरि सिंह ने पाकिस्तान या भारत में शामिल होने के लिये विलय पत्र पर कोई निर्णय न लेते हुए ‘मौन स्थिति’ बनाए रखी। इसी दौरान, पाकिस्तानी सैनिकों एवं हथियारों से लैस आदिवासियों ने कश्मीर में घुसपैठ कर हमला कर दिया। महाराजा ने भारत सरकार से मदद की अपील की। राजा ने शेख अब्दुल्ला को अपने प्रतिनिधि के रूप में सहायता के लिये दिल्ली भेजा।

26 अक्तूबर, 1947 को राजा हरि सिंह ने ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके तहत संचार, रक्षा एवं विदेशी मामलों को भारत सरकार के अधिकार क्षेत्र में लाया गया। 5 मार्च, 1948 को महाराजा हरि सिंह ने अंतरिम लोकप्रिय सरकार की घोषणा की जिसके प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला बने। 1951 में राज्य संविधान सभा निर्वाचित हुई एवं 31 अक्तूबर, 1951 में इसकी पहली बार बैठक हुई। 1952 में, दिल्ली समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसके तहत भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर को ‘विशेष दर्जा’ प्रदान किया गया।

6 फरवरी, 1954 को, जम्मू-कश्मीर की संविधान ने भारत संघ के साथ विलय का अनुमोदन किया। जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 3 के अनुसार, जम्मू -कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 370 के तहत, 5 अगस्त, 2019 को भारत के राष्ट्रपति ने संवैधानिक आदेश, 2019 की उद्घोषणा की जिसमें जम्मू-कश्मीर को दिये गए ‘विशेष राज्य’ के दर्जे को खत्म कर दिया गया।

गोवा

वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत और पुर्तगाल के बीच संबंध सौहार्दपूर्ण ढंग से शुरू हुए तथा वर्ष 1949 में राजनयिक संबंध स्थापित हुए। भारत के पश्चिमी तट पर गोवा, दमन और दीव, दादरा एवं नगर हवेली के अपने परिक्षेत्रों के आत्मसमर्पण करने से पुर्तगाल के इनकार के बाद वर्ष 1950 में द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट आई।दमन और दीव, दादरा एवं नगर हवेली को वर्ष 1961 में भारतीय मुख्य भूमि के साथ मिला लिया गया। गवा को भारत की मुख्य भूमि के साथ मिलाने के लिए गोवा मुक्ति संग्राम चलाया गया था

पुर्तगाल ने वर्ष 1951 में गोवा को एक औपनिवेशिक अधिकार क्षेत्र के रूप में नहीं, बल्कि एक विदेशी प्रांत के रूप में दावा करने के लिये अपने संविधान में परिवर्तन कर दिया। इस कदम का उद्देश्य स्पष्ट रूप से गोवा को नवगठित उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) सैन्य गठबंधन का हिस्सा बनाना था। इसका उद्देश्य भारत द्वारा हमले की स्थिति में संधि के सामूहिक सुरक्षा खंड को लागू करना था।

वर्ष 1955 तक दोनों राष्ट्रों के राजनयिक संबंधों पर संकट छाया रहा, जिससे संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई और इसने भारतीय सैन्य बलों द्वारा गोवा की मुक्ति की शुरुआत की एवं वर्ष 1961 में भारतीय परिक्षेत्रों पर पुर्तगाली शासन को समाप्त कर दिया।वर्ष 1961 में पुर्तगालियों के साथ राजनयिक प्रयासों की विफलता के बाद भारत सरकार द्वारा ऑपरेशन विजय चलाकर 19 दिसंबर को दमन और दीव तथा गोवा को भारतीय मुख्य भूमि के साथ मिला लिया गया। इसने गोवा में पुर्तगाली विदेशी प्रांतीय शासन के 451 वर्षों का अंत कर दिया।

भारत का राजनीतिक एकीकरण

भारतीय रियासतें एवं उनका एकीकरण वर्ष

भारतीय रियासते एकीकरण वर्ष
त्रावनकोर1947
जोधपुर1947
भोपाल1949
हैदराबाद1948
जूनागढ़1948
काश्मीर1947
गोवा1961

रियासतों का चार चरणीय एकीकरण

रियासतों के एकीकरण के तहत उनका विलय चार चरणों के तहत हुआ। इन चार चरण निम्न हैं, जिनकी चर्चा नीचे की गई है –

  • विलयन (Merger)
  • लोकतंत्रीकरण (Democratization)
  • केंद्रीकरण तथा संविधानीकरण (Centralization and Constitution)
  • पुनर्गठन (Re-organization)

विलयन (Merger)

यह प्रक्रिया आस-पास के महान राष्ट्रों और आसपास के कई छोटे राज्यों के शासकों द्वारा विलय की वाचाओं के निष्पादन के साथ शुरू हुई ताकि उन्हें “राजसी संघ” बनाने के लिए सेना में शामिल होने के लिए राजी किया जा सके।ग्वालियर, इंदौर और अठारह कम राज्यों के एकीकरण के परिणामस्वरूप 28 मई, 1948 को मध्य भारत बना। पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ, जिसमें पटियाला, कपूरथला, जींद, नाभा, फरीदकोट, मलेरकोटला, नालरगढ़ और कलसिया शामिल थे, की स्थापना हुई। 15 जुलाई 1948 को पंजाब में।अगले साल छह अतिरिक्त राज्य सौराष्ट्र की रियासत में शामिल हो गए, इस प्रक्रिया में पटेल के प्रयासों को उनके मूल गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में सफलता मिली, जहां जनवरी 1948 में 222 राज्य एकजुट हुए।

जनतंत्रीकरण (Democratization)

राज्य विभाग ने सरदार पटेल की सलाह ली और विलय की गई रियासतों के राजप्रमुखों को संविधान के अनुसार शासन करने के लिए बाध्य करने वाले एक विशेष अनुबंध पर हस्ताक्षर करके इसे अमल में लाया।इसका तात्पर्य यह था कि उनका अधिकार, व्यवहार में, पूर्व ब्रिटिश प्रांतों के राज्यपालों के बराबर था, जिससे उनके क्षेत्र के निवासियों को शेष भारत के समान जिम्मेदार सरकार का स्तर दिया गया था।

इस दृष्टिकोण के परिणाम को संक्षेप में, राज्यों पर भारत सरकार द्वारा सर्वोच्चता के अधिक व्यापक दावे के रूप में वर्णित किया गया है। कांग्रेस का विचार हमेशा से यह रहा था कि एक स्वतंत्र भारत सर्वोच्च अधिकार के रूप में कार्यभार संभालेगा, भले ही यह अंग्रेजों के इस दावे के खिलाफ था कि सत्ता के हस्तांतरण के साथ सर्वोपरिता समाप्त हो जाएगी।

केंद्रीकरण और संविधान (Centralization and Constitution)

मेनन, दिल्ली में राज्य विभाग और रियासतों के राजप्रमुखों के साथ एक बैठक के बाद, राजप्रमुखों ने विलय के नए उपकरणों पर हस्ताक्षर किए, भारत सरकार को भारत सरकार की सातवीं अनुसूची में शामिल सभी मामलों से संबंधित कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया। पुरानी रियासतों और पूर्व ब्रिटिश प्रांतों के बीच एक प्रमुख अंतर जो कि लोकतंत्रीकरण द्वारा अनसुलझा रह गया था, वह यह था कि पिछली रियासतों ने केवल तीन विषयों को कवर करने वाले सीमित साधनों पर हस्ताक्षर किए थे, जो उन्हें अन्य सरकारी नीतियों से बचाते थे।

संविधान द्वारा संघीय सरकार को एक महत्वपूर्ण संख्या में अतिरिक्त शक्तियां प्रदान की गईं, जिसमें कहा गया है कि, “उनका शासन सामान्य नियंत्रण में होगा, और इस तरह के विशेष निर्देशों का पालन करेगा, यदि कोई हो, जैसा कि समय से हो सकता है राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर दिया जाना चाहिए।

”अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के अपवाद के साथ, भाग सी राज्य पिछले मुख्य आयुक्तों के प्रांत और केंद्रीय प्रशासन के तहत अन्य क्षेत्र थे।पार्ट बी राज्यों और पार्ट ए राज्यों के बीच एकमात्र वास्तविक अंतर यह था कि पार्ट बी राज्यों के राज्यपाल राजप्रमुख थे, जिन्हें संघीय सरकार द्वारा चुने गए राज्यपालों के विपरीत, विलय की वाचा के अनुसार चुना गया था।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि पिछले ब्रिटिश प्रांतों के रूप में केंद्र सरकार के सामने उनकी कानूनी स्थिति थी, सभी रियासतों के संघों, साथ ही मैसूर और हैदराबाद ने भारत के संविधान को राज्य के संविधान के रूप में अपनाने का फैसला किया। केंद्र सरकार को पूर्व रियासतों पर उसी स्तर का नियंत्रण प्रदान करने के लिए कोशिश किया गया जैसा कि उसने पूर्व ब्रिटिश प्रांतों पर किया था।

भाग ए राज्य भाग बी राज्यभाग सी राज्यभाग डी राज्य
ब्रिटिश भारत के 9 गवर्नर प्रान्तविधायिकाओं के साथ 9 रियासते ब्रिटिश भारत के 10 मुख्य आयुक्तों के प्रान्त और रियासतेंअंडमान और निकोबार द्वीप समूह

पुन: संगठन (Re-organization)

पूर्व रियासतों की भूमि अब पूरी तरह से भारत में समाहित हो गई है और उन भूमि के समान है जो कानूनी और व्यावहारिक रूप से ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करती थीं।राजकुमारों के निजी अधिकार, जैसे प्रिवी पर्स, शुल्क-मुक्त स्थिति और प्रथागत सम्मान, 1971 में समाप्त होने से पहले बने रहे।

देशी रियासतों का एकीकरण | मुद्दे व चिंताएं

भारत पर अपने शासन के अंत के साथ, अंग्रेजों ने रियासतों पर अपने राजतंत्र के अंत की घोषणा की। ब्रिटिश सरकार का मानना ​​था कि ये सभी राज्य भारत या पाकिस्तान में शामिल होने या पूरी तरह से स्वतंत्र रहने के लिए स्वतंत्र हैं। इसने राष्ट्रीय एकता को बाधित किया।

रियासतें | The Princes

जबकि कुछ लोग पीढ़ियों से अपने परिवारों द्वारा शासित राज्यों के नुकसान से परेशान थे, अन्य लोग प्रशासनिक संस्थानों के नुकसान से परेशान थे कि उन्होंने बनाने में बहुत समय और प्रयास लगाया था और जिसे वे प्रभावी मानते थे।बहुत से लोग निराश थे कि उनके राज्यों को स्वतंत्रता और निरंतर अस्तित्व का आश्वासन नहीं मिला, जिसकी उन्होंने उम्मीद की थी क्योंकि वे मानते थे कि विलय के उपकरण स्थायी हैं। उदाहरण के लिए, कई लोगों को विदेश में राजनयिक पदों पर नियुक्त किया गया था, जिनमें कृष्ण कुमारसिंह भवसिंह गोहिल भी शामिल हैं, जो अब मद्रास राज्य के राज्यपाल के रूप में कार्य करते हैं।

औपनिवेशिक एन्क्लेव | Colonial Enclave

1961 में अंगोला में विद्रोह के पुर्तगाली दमन ने भारतीय जनमत को कट्टरपंथी बना दिया और राजनयिक समझौते के लिए नेहरू के चल रहे समर्थन के बावजूद, भारत सरकार पर सैन्य बल का उपयोग करने के लिए दबाव तेज कर दिया। भारत ने 1951 में अपने संविधान में संशोधन करके भारत में केंद्र शासित प्रदेश पांडिचेरी की संपत्ति को पुर्तगाली प्रांतों में बनाया क्योंकि इसने राष्ट्रीय गौरव के स्रोत के रूप में उनके स्वामित्व को बनाए रखा।

पांडिचेरी और कराईकल में मतदाताओं ने अक्टूबर 1954 में आयोजित एक जनमत संग्रह में विलय को मंजूरी दे दी, और भारत गणराज्य ने 1 नवंबर को सभी चार परिक्षेत्रों (पांडिचेरी, यनम, माहे और करिकल) का वास्तविक अधिकार ग्रहण कर लिया।एक समझौते पर बातचीत करने के अमेरिकी प्रयास की विफलता के बाद, भारतीय सेना ने 18 दिसंबर को पुर्तगाली भारत में प्रवेश किया और वहां पुर्तगाली सैनिकों पर विजय प्राप्त की।

जुलाई 1954 में दादरा और नगर हवेली में एक विद्रोह के परिणामस्वरूप पुर्तगाली संप्रभुता को उखाड़ फेंका गया था।पुर्तगालियों ने दमन से सेना भेजने का प्रयास किया ताकि एन्क्लेव को फिर से हासिल किया जा सके, लेकिन भारतीय सैनिकों ने उन्हें रोक दिया।पुर्तगाल ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में एक शिकायत दर्ज कर एन्क्लेव में सैनिकों को भेजने की अनुमति मांगी, लेकिन अदालत ने 1960 में इस मामले को खारिज कर दिया, यह फैसला करते हुए कि भारत को पुर्तगाल के अनुरोध को अस्वीकार करने का अधिकार है।

सिक्किम का मुद्दा | Sikkim issue

ब्रिटिश काल के दौरान भूटान को भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा के बाहर एक संरक्षक के रूप में माना जाता था 1949 में, भारत सरकार और भूटान सरकार ने एक मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसने इस प्रणाली को बनाए रखा और कहा कि भूटान अपने विदेश मामलों का प्रबंधन करते समय भारत सरकार की सलाह का पालन करेगा। भारत ने 1947 के बाद नेपाल और भूटान के साथ नई संधियों पर बातचीत की।

भारत के लिए क्षेत्र के रणनीतिक महत्व को देखते हुए, भारत सरकार ने 1950 में उनके साथ एक व्यापक संधि पर हस्ताक्षर करने से पहले सिक्किम के चोग्याल के साथ एक स्टैंडस्टिल समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसने प्रभावी रूप से सिक्किम को भारत से स्वतंत्र एक संरक्षक में बदल दिया।चोग्याल के विरोधियों ने जबरदस्त जीत हासिल की, और एक नया संविधान स्थापित किया गया जिसमें भारत गणराज्य के साथ सिक्किम की संबद्धता को निर्धारित किया गया था।

सिक्किम विधानसभा ने 10 अप्रैल, 1975 को एक प्रस्ताव जारी किया, जिसमें राज्य के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण का आग्रह किया गया था।14 अप्रैल 1975 को हुए एक जनमत संग्रह में सिक्किम को इस प्रस्ताव के पक्ष में 97% मत प्राप्त हुए। भारतीय संसद ने तब सिक्किम को भारत के 22वें राज्य के रूप में मान्यता देने के लिए संविधान में बदलाव किया।सिक्किम को पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता दी गई थी, लेकिन अंतिम विश्लेषण में भारत रक्षा, विदेश मामलों, संचार और कानून व्यवस्था का प्रभारी था।

औपनिवेशिक युग के दौरान सिक्किम को ऐतिहासिक रूप से भारत की सीमाओं के भीतर के रूप में देखा जाता था क्योंकि यह अन्य रियासतों की तुलना में एक ब्रिटिश आश्रित था।

अलगाववाद और उप-राष्ट्रवाद | Separatism and Sub-nationalism

राज्यों को विलय समझौते या परिग्रहण के संशोधित साधन पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता नहीं थी।इसके बजाय, कश्मीर से संबंधित कानून बनाने की शक्ति भारत को संविधान के अनुच्छेद 5 द्वारा प्रदान की गई थी।अन्य प्रांतों के साथ पूर्व रियासतों के एकीकरण ने भी कुछ मुद्दों को जन्म दिया है। अलगाववादी आंदोलन महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में भी मौजूद हैं, जिसमें पूर्व नागपुर राज्य और बरार क्षेत्र शामिल हैं।

भारत का राजनीतिक एकीकरण- सरदार बल्लभ भाई पटेल की भूमिका

भारत आज सरदार वल्लभभाई पटेल की दूरदर्शिता, रणनीति, कूटनीति और व्यावहारिक दृष्टिकोण के लिए उनका बहुत बड़ा ऋणी है। वह भारत संघ बनाने और नए स्वतंत्र राष्ट्र के बाल्कनीकरण को रोकने के लिए 565 रियासतों को एक साथ लाने के प्रभारी थे।

रियासतों का विलय करने के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल भारत जो कि भारत के पहले उप प्रधान मंत्री और गृह मंत्री थे, उन्होंने वप्पला पंगुन्नी मेनन (वी.पी. मेनन) के साथ मिलकर रियासतों को भारत में शामिल करने के लिए राजी करने के प्रयास में लगे रहे। मामूली क्लर्क से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले मेनन अपनी लगन, निष्ठा और असाधारण प्रतिभा के बल पर भारत के अंतिम वायसरायों और गर्वनर जनरल के राजनीतिक सलाहकार और भारत सरकार के देशी राज्यों के मामलों के सचिव रहे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने उस समय “प्रिवी पर्स” को एक उपन्यास विचार के रूप में पेश किया।

भारत का राजनीतिक एकीकरण | 1947 - 1961

इस विचार के अनुसार, यदि राज्य भारत में शामिल होने के लिए सहमत होते हैं, तो उन्हें संघ से एक बड़ा भुगतान प्राप्त होगा।रियासतों को भारत संघ में मिलाने के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कई उपयोगी कदम उठाए। संघ में शामिल होने का निर्णय लेने वाले पहले राज्य बीकानेर, बड़ौदा और राजस्थान के कुछ अन्य राज्य थे।दूसरी ओर कई अतिरिक्त सरकारें पाकिस्तान के साथ एकजुट होना चाहती थीं, जबकि कुछ और स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में अस्तित्व में रहना चाहती थीं।

कुछ रियासतें अंततः इस तरह से पाकिस्तान में शामिल हो जाती हैं। एक हिंदू शासक ने “जोधपुर” के “राजपूत” रियासत पर शासन किया, जिसमें एक बड़ी हिंदू आबादी भी थी।राज्य अजीब तरह से पाकिस्तान की ओर झुक रहा है, फिर भी।जोधपुर के राजकुमार हनवंत सिंह को पाकिस्तान के जिन्ना से एक हस्ताक्षरित खाली चेक मिला। इसके अतिरिक्त, उन्होंने उसे “कराची पोर्ट” तक पहुंच प्रदान की।जैसे ही “भारत के लौह पुरुष” के रूप में जाने जाने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल ने यह देखा, उन्होंने तुरंत “जोधपुर के राजा” हनवंत सिंह, “उचित लाभ के साथ एक राशि का वादा किया।

भारत में “जोधपुर” राज्य को शामिल करने के लिए सबसे अधिक काम सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था। सरदार वल्लभभाई पटेल राज्य को खोना नहीं चाहते थे क्योंकि “काठियावाड़ रेल” “जोधपुर” से जुड़ा हुआ है और भारत अकाल के दौरान उस मार्ग से विभिन्न अनाज वितरित करेगा।चूंकि अधिकांश राष्ट्रों के पास भारी मात्रा में धन है, इसलिए सरदार वल्लभभाई पटेल ने रियासतों को भारत संघ में एकीकृत करने के लिए कुशलता से काम किया, जिससे देश को बहुत अधिक धन प्राप्त हुआ। इसके साथ-साथ, विभिन्न राज्य भारत के रुझान, आयात और निर्यात सहित कई महत्वपूर्ण कार्यों में शामिल थे।

500 से अधिक रियासतों का एकीकरण और मेनन की भूमिका

मामूली क्लर्क से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले मेनन अपनी लगन, निष्ठा और असाधारण प्रतिभा के बल पर भारत के अंतिम वायसरायों और गर्वनर जनरल के राजनीतिक सलाहकार और भारत सरकार के देशी राज्यों के मामलों के सचिव रहे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने उस समय “प्रिवी पर्स” को एक उपन्यास विचार के रूप में पेश किया।

15 अगस्त 1947 को जब ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत देश आजाद हुआ तो उसके साथ ही लगभग 565 देशी राज्य, जिनकी पैंरामौंटसी या सार्वभौम सत्ता ब्रिटिश ताज में निहित थी, ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त हो गए थे।

विदित है कि 1857 की गदर के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर अपने अधीन किया तो अंग्रेजों ने देशी शासकों का राज्यहरण कर अपने में मिलाने के बजाय संधि के जरिये उनके साथ सुरक्षा और सहयोग की गारण्टी के बदले उनकी पैरामौंटसी ब्रिटिश ताज में निहित करना शुरू कर दिया था।

इस संधि के तहत सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार जैसे कुछ विषयों को अपने हाथ में लेकर ब्रिटिश शासन ने बाकी सारे अधिकारों समेत अपने राज्य में शासन करने का अधिकार देशी शासकों को दे दिया था। लेकिन भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत भारत को स्वतंत्रता मिलने के साथ ही देशी शासकों के साथ अंग्रेजी शासन की वह संधि भी समाप्त हो गई थी, इसलिए सार्वभौम सत्ता को पुनः वापस पा चुके राज्यों को भारत संघ में मिलाना अत्यंत कठिन कार्य था जिसे सरदार वल्लभ भाई पटेल, उनके अधीन देशी राज्यों के मामलों के सचिव वीपी मेनन और स्वयं गर्वनर जनरल माउंटबेटन ने बेहद चुतराई, हिम्मत और दृढ़ इच्छा शक्ति से संभव बनाया।

जम्मू-कश्मीर का घटनाक्रम हमारे सामने है। सिक्कम को बड़ी मुश्किल से चीन ने भारत का अंग माना, मगर उसी अरुणाचल का भारत के साथ होना अभी भी नहीं पचता है। अगर सरदार पटेल और वीपी मेनन की जोड़ी माउंटबेटन के सहयोग और जवाहर लाल नेहरू के वरदहस्त से उस समय भारत के एकीकरण में कामयाब नहीं होती तो आज भारत एक मजबूत राष्ट्र के रूप में नहीं होता।

भारत जब आजाद हुआ तो उस समय गृहमंत्री सरदार पटेल और मेनन ने बहुत ही चतुराई से ऐसा  इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन का संधिपत्र तैयार किया जिस पर देशी राज्यों के शासक जल्दी सहमत हो गए और हैदारबाद, त्रावणकोर और गोवा जैसे जो राज्य सहमत नहीं हुए उन्हें सहमत होने के लिए विवश कर दिया गया। इस संधि के तहत देशी शासकों को सुरक्षा, यातायात, संचार और वैदेशिक मामलों के अलावा पूर्ण स्वायत्तता दी गई जिससे वे भारत गणराज्य के साथ बने रहने के लिए पाबंद हो गए।

महाराजा हरिसिंह के साथ हुई यही संधि आज जम्मू-कश्मीर के मामले में भारत के पास एक पुख्ता दस्तावेज है। उसके बाद धीरे-धीरे ऐसा वातावरण तैयार किया गया कि उनका राजा-महाराजाओं वाला प्रोटोकाल तो रहने दिया मगर खर्च चलाने के लिण् प्रिवीपर्स की व्यवस्था कर राज्यों का पूर्ण विलय कर दिया।

माउंटबेटन और इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन

माउंटबेटन द्वारा हस्ताक्षरित इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन की संधि से पहले राजाओं से स्टैंड स्टिल संधि पर हस्ताक्षर करवा लिए गए थे जिस पर भारत सरकार की ओर से वीपी मेनन के ही हस्ताक्षर थे। उस समय पटेल ने देशी शासकों का ध्यान राष्ट्रभक्ति की ओर आकर्षित करते हुए कहा था कि, ‘‘ हम इतिहास के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण युग में हैं और आपस में मिलकर हम देश को पुनः उन्नति के शिखर तक पहुंचा सकते हैं।

एकता के अभाव में हम नई विपत्तियों में फंस सकते हैं। एकता के सूत्र में न बंधे तो घोर अव्यवस्था फैलेगी जो कि छोटे-बड़े सभी को नष्ट कर देगी।’’ इसके बाद 25 जुलाई 1947 को ‘चैम्बर और प्रिंसेज’ की बैठक में माउंटबेटन ने सरदार पटेल का यही अनुरोध दुहराते हुए साफ कहा कि अब ब्रिटिश सरकार देशी राज्यों की मदद के लिए नहीं आएगी और इन राज्यों की जो व्यवस्था ब्रिटिश सरकार के साथ थी वही अगर नई भारत सरकार के साथ नहीं बनाई गई तो ऐसी अव्यवस्था फैलेगी जिसका सबसे बुरा प्रभाव देशी राज्यों पर पड़ेगा।

माउंटबेटन ने साफ कहा था कि जिस प्रकार राजा अपनी प्रजा को छोड़कर नहीं जा सकते उसी प्रकार आप अपने पड़ोसी भारत गणराज्य को छोड़ कर अन्यत्र जाने की नहीं सोच सकते। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी साफ कहा दिया था कि भारत किसी भी देशी राज्य को सव्तंत्र रहने की मान्यता नहीं देगा और अगर किसी विदेशी सरकार ने ऐसा किया तो उसे भारत के साथ शत्रुतापूर्ण कार्यवाही माना जाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि 15 अगस्त 1947 तक जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर जैसे कुछ बड़े राज्यों को छोड़ कर लगभग 136 राज्यों ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन संधि पर हस्ताक्षर कर लिए थे।

इस प्रकार, सरदार पटेल ने लगभग 562 देशी रियासतों को भारतीय संघ में मिलाकर भारत को मौजूदा स्वरूप दिया। उनके प्रयासों ने न केवल एक संगठित राष्ट्र का निर्माण किया बल्कि भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की नींव को भी मजबूत किया। कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें सदैव उनके अद्वितीय योगदान के लिए श्रद्धांजलि अर्पित करता रहेगा।

भारत का राजनीतिक एकीकरण से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य

  • भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ने रियासतों को यह विकल्प दिया कि वे भारत या पाकिस्तान अधिराज्य (डामिनियम) में शामिल हो सकती हैं या एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य के रूप में स्वंय को स्थापित कर सकती हैं।
  • तत्कालीन समय में लगभग 500 से ज़्यादा रियासतें लगभग 48% भारतीय क्षेत्र एवं 28% जनसंख्या की कवर करती थीं।
  • ये रियासते वैधानिक रूप से ब्रिटिश भारत के भाग नहीं थें, लेकिन ये ब्रिटिश क्राउन के पूर्णत: अधीनस्थ थीं।
  • ये रियासते, राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों एवं अन्य उपनिवेशी शक्तियों के उदय को नियंत्रित करने में, ब्रिटिश सरकार के लिये एक सहायक के रूप में थीं।
  • सरदार वल्लभ भाई पटेल (भारत के पहले उपप्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री) को V.P. मेनन की सहायता से रियासतों के एकीकरण का कार्य सौंपा गया।
  • राजाओं के बीच राष्ट्रवाद का आह्वान शामिल न होने पर अराजकता की आशंका जताते हुए, पटेल ने राजाओं को भारत में शामिल करने का हर संभव प्रयास किया।
  • उन्होंने ‘प्रिवी पर्स’ (एक भुगतान, जो शाही परिवारों को भारत के साथ विलय पर पर हस्ताक्षर करने पर दिया जाना था) की अवधारणा को भी पुनर्स्थापित किया।
  • कुछ रियासतों ने भारत में शामिल होने का निर्णय किया, तो कुछ ने स्वतंत्र रहने का, वहीं कुछ रियासतें पाकिस्तान का भाग बनना चाहती थीं।

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सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.