महाराणा प्रताप का नाम भारतीय इतिहास में हमेशा उनकी वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिए लिया जाता रहेगा। महाराणा प्रताप उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वह अत्यंत पराक्रमी और एक शूरवीर योद्धा थे, जिन्होंने आखिरी दम तक मुगलों के साथ संघर्ष किया और कभी भी हार नहीं मानी।
वह तिथि धन्य है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर ‘मेवाड़-मुकुट मणि’ राणा प्रताप का जन्म हुआ। वे अकेले ऐसे वीर थे, जिसने मुग़ल बादशाह अकबर की अधीनता किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं की। वे हिन्दू कुल के गौरव को सुरक्षित रखने में सदा तल्लीन रहे। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी सम्वत् कैलेण्डर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ, शुक्लपक्ष तृतीया को मनाई जाती है।
महाराणा प्रताप का जन्म तथा परिचय
राजस्थान के कुम्भलगढ़ में राणा प्रताप का जन्म सिसोदिया राजवंश के महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जीवत कँवर के घर 9 मई, 1540 ई. को हुआ था।
रानी जीवत कँवर का नाम कहीं-कहीं जैवन्ताबाई भी उल्लेखित किया गया है। वे पाली के सोनगरा राजपूत अखैराज की पुत्री थीं। प्रताप का बचपन का नाम ‘कीका’ था। मेवाड़ के राणा उदयसिंह द्वितीय की 33 संतानें थीं। उनमें प्रताप सिंह सबसे बड़े थे। स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी। प्रताप बचपन से ही ढीठ तथा बहादुर थे। बड़ा होने पर वे एक महापराक्रमी पुरुष बनेंगे, यह सभी जानते थे। सर्वसाधारण शिक्षा लेने से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उनकी रुचि अधिक थी।
महाराणा प्रताप का विवाह
महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ग्यारह विवाह किये थे। महाराणा प्रताप की पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों व पुत्रियों के नाम निम्नलिखित हैं-
क्र.सं. | पत्नी का नाम | पुत्र/पुत्रियाँ |
---|---|---|
1. | महारानी अजब्धे पंवार | अमरसिंह और भगवानदास |
2. | अमरबाई राठौर | नत्था |
3. | शहमति बाई हाडा | पुरा |
4. | अलमदेबाई चौहान | जसवंत सिंह |
5. | रत्नावती बाई परमार | माल, गज, क्लिंगु |
6. | लखाबाई | रायभाना |
7. | जसोबाई चौहान | कल्याणदास |
8. | चंपाबाई जंथी | कल्ला, सनवालदास और दुर्जन सिंह |
9. | सोलनखिनीपुर बाई | साशा और गोपाल |
10. | फूलबाई राठौर | चंदा और शिखा |
11. | खीचर आशाबाई | हत्थी और राम सिंह |
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक
महाराणा प्रताप के समय में दिल्ली पर मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था। हिन्दू राजाओं की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजाओं को अपने नियंत्रण में लाना, यह मुग़लों की नीति थी। अपनी मृत्यु से पहले राणा उदयसिंह ने अपनी सबसे छोटी पत्नी के बेटे जगमल को राजा घोषित किया, जबकि प्रताप सिंह जगमल से बड़े थे। महाराणा प्रताप अपने छोटे भाई के लिए अपना अधिकार छोड़कर मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे, किंतु सभी सरदार राजा के निर्णय से सहमत नहीं हुए।
अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमल को सिंहासन का त्याग करना पड़ेगा। महाराणा प्रताप ने भी सभी सरदार तथा लोगों की इच्छा का आदर करते हुए मेवाड़ की जनता का नेतृत्व करने का दायित्व स्वीकार किया। इस प्रकार बप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति की उज्ज्वल पताका, राजपूतों की आन एवं शौर्य का पुण्य प्रतीक, राणा साँगा के पावन पौत्र महाराणा प्रताप (विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15) तारीख़ 1 मार्च सन 1573 ई. को सिंहासनासीन हुए। उनका राज्याभिषेक गोगुंदा में हुआ।
महाराणा प्रताप और चेतक
भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के अलावा हिन्दी कवि श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता ‘चेतक की वीरता’ में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ़ की गई है।
हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊँचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुग़ल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुग़ल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी।
हल्दीघाटी
उदयपुर से नाथद्वारा जाने वाली सड़क से कुछ दूर हटकर पहाड़ियों के बीच स्थित हल्दीघाटी इतिहास प्रसिद्ध वह स्थान है, जहाँ 1576 ई. में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। इस स्थान को ‘गोगंदा’ भी कहा जाता है। अकबर के समय के राजपूत नरेशों में महाराणा प्रताप ही ऐसे थे, जिन्हें मुग़ल बादशाह की मैत्रीपूर्ण दासता पसन्द न थी। इसी बात पर उनकी आमेर के मानसिंह से भी अनबन हो गई थी, जिसके फलस्वरूप मानसिंह के भड़काने से अकबर ने स्वयं मानसिंह और सलीम (जहाँगीर) की अध्यक्षता में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भारी सेना भेजी।
‘हल्दीघाटी की लड़ाई’ 18 जून, 1576 ई. को हुई थी। राजपूताने की पावन बलिदान-भूमि के समकक्ष, विश्व में इतना पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं है। उस शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं। भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम इतिहास और वीरकाव्य का परम उपजीव्य है।
मानसिंह से भेंट
शोलापुर की विजय के बाद मानसिंह वापस हिन्दुस्तान लौट रहा था। तब उसने राणा प्रताप से, जो इन दिनों कमलमीर में थे, मिलने की इच्छा प्रकट की। कमलमीर उदयपुर के निकट 3568 फुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ एक ऐतिहासिक स्थान है। यहाँ प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् अपनी राजधानी बनाई थी।
चित्तौड़गढ़ के विध्वंस (1567 ई.) के पश्चात् उनके पिता राणा उदयसिंह ने उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया था, किंतु प्रताप ने कमलमीर में रहना ही ठीक समझा, क्योंकि यह स्थान पहाड़ों से घिरा होने के कारण अधिक सुरक्षित था। कमलमीर की स्थिति को उन्होंने और भी अधिक सुरक्षित करने के लिए पहाड़ी पर कई दुर्ग बनवाए। अकबर के प्रधान सेनापति आमेर नरेश मानसिंह और प्रताप की प्रसिद्ध भेंट यहीं हुई थी, जिसके बाद मानसिंह रुष्ट होकर चला गया और मुग़ल सेना ने मेवाड़ पर चढ़ाई की।
महाराणा प्रताप का युद्धमय जीवन
सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके राणा प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी। महाराणा प्रताप ने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने पिछोला तालाब के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि वर्षा में आश्रय लिया जा सके।
इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार अपना जीवन व्यतीत किया था। प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली। फिर भी, उन्होंने अपनी थोड़ी सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर देना पड़ा।
कुशल प्रशासक
महाराणा प्रताप प्रजा के हृदय पर शासन करने वाले शासक थे। उनकी एक आज्ञा हुई और विजयी सेना ने देखा कि उसकी विजय व्यर्थ है। चित्तौड़ भस्म हो गया, खेत उजड़ गये, कुएँ भर दिये गये और ग्राम के लोग जंगल एवं पर्वतों में अपने समस्त पशु एवं सामग्री के साथ अदृश्य हो गये। शत्रु के लिये इतना विकट उत्तर, यह उस समय महाराणा की अपनी सूझ थी।
अकबर के उद्योग में राष्ट्रीयता का स्वप्न देखने वालों को इतिहासकार बदायूँनी आसफ ख़ाँ के ये शब्द स्मरण कर लेने चाहिये कि- “किसी की ओर से भी सैनिक क्यों न मरे, थे वे हिन्दू ही और प्रत्येक स्थिति में विजय इस्लाम की ही थी।” यह कूटनीति थी अकबर की और महाराणा इसके समक्ष अपना राष्ट्रगौरव लेकर अडिग भाव से उठे थे।
महाराणा प्रताप को चेतक की प्राप्ति
जब महाराणा प्रताप किशोर अवस्था में थे, तब एक बार राणा उदयसिंह ने उनको राजमहल में बुलाया और दो घोड़ों में से एक का चयन करने के लिए कहा। एक घोड़ा सफ़ेद था और दूसरा नीला। जैसे ही महाराणा प्रताप ने कुछ कहा, उसके पहले ही उनके भाई शक्तिसिंह ने पिता से कहा कि उसे भी एक घोड़ा चाहिए।
महाराणा प्रताप को नील अफ़ग़ानी घोड़ा पसंद था, लेकिन वे सफ़ेद घोड़े की ओर बढ़ते हैं और उसकी तारीफ़ करते जाते हैं। उन्हें सफ़ेद घोड़े की ओर बढ़ते हुए देख कर शक्तिसिंह तेज़ी से घोड़े की ओर जाकर उसकी सवारी कर लेते हैं। उनकी यह शीघ्रता देखकर उदयसिंह वह सफ़ेद घोड़ा शक्तिसिंह को दे देते हैं और नील अफ़ग़ानी घोड़ा महाराणा प्रताप को मिल जाता है। इसी नीले घोड़े का नाम ‘चेतक’ था, जो महाराणा प्रताप को बहुत प्रिय था।
हल्दीघाटी युद्ध तथा चेतक
हल्दीघाटी (1576) के युद्ध में राणा प्रताप के प्रिय घोड़े चेतक ने अहम भूमिका निभाई थी। हल्दीघाटी में चेतक की समाधि बनी हुई है, जहां स्वयं प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह संस्कार किया था। कहा जाता है कि चेतक भी महाराणा प्रताप की तरह ही बहादुर था। चेतक अरबी नस्ल का घोड़ा था। वह लंबी-लंबी छलांगे मारने में माहिर था। वफ़ादारी के मामले में चेतक की गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ घोड़ों में की गई है। वह हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का अनूठा सहयोगी था।
हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊँचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुग़ल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुग़ल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका।
महाराणा प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी। वह अरबी नस्ल वाला नीले रंग का घोड़ा था। राजस्थान में लोग उसे आज भी उसी सम्मान से याद करते हैं, जो सम्मान वे महाराणा को देते हैं। वीरगति के बाद महाराणा ने स्वयं चेतक का अंतिम संस्कार किया था। हल्दीघाटी में उसकी समाधि है। मेवाड़ में लोग चेतक की बहादुरी के लोकगीत गाते हैं।
चेतक की वीरता-श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित प्रसिद्ध कविता
श्याम नाराणय पांडेय की चेतक पर लिखी कविता भी महाराणा प्रताप की तरह अजर-अमर लोगों के बीच शब्दों में अजर-अमर है। यह कविता कभी भारत के सरकारी स्कूलों के पाठयक्रम का हिस्सा हुआ करती थी।
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था।
राणाप्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था।।
जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था।।
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणाप्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर, वह आसमान का घोड़ा था।।
था यहीं रहा अब यहाँ नहीं, वह वहीं रहा था यहाँ नहीं।
थी जगह न कोई जहाँ नहीं, किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं।।
कौशल दिखलाया चालों में , उड गया भयानक भालों में।
निर्भिक गया वह ढ़ालों में , सरपट दौडा करवालों में ।।
बढ़ते नद-सा वह लहर गया, फिर गया गया फिर ठहर गया।
विकराल वज्रमय बादल-सा, अरि की सेना पर घहर गया।।
भाला गिर गया गिरा निसंग, हय टापों से खन गया अंग।
बैरी समाज रह गया दंग, घोड़े का ऐसा देख रंग।।
— श्याम नारायण पाण्डेय
‘चेतक की वीरता’ रचनाकार श्याम नारायण पाण्डेय
चेतक की वीरता पूरी कविता नीचे लिखी हुई है –
बकरों से बाघ लड़े¸ भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से।
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸ पैदल बिछ गये बिछौनों से।।1।।
हाथी से हाथी जूझ पड़े¸ भिड़ गये सवार सवारों से।
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸ तलवार लड़ी तलवारों से।।2।।
हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸ कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे।
लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸ भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।3।।
क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸ तलवार हाथ की तड़प–तड़प।
हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸ लेती थी बैरी वीर हड़प।।4।।
क्षण पेट फट गया घोड़े का¸ हो गया पतन कर कोड़े का।
भू पर सातंक सवार गिरा¸ क्षण पता न था हय–जोड़े का।।5।।
चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸ लेकर अंकुश पिलवान गिरा।
झटका लग गया¸ फटी झालर¸ हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।।6।।
कोई नत–मुख बेजान गिरा¸ करवट कोई उत्तान गिरा।
रण–बीच अमित भीषणता से¸ लड़ते–लड़ते बलवान गिरा।।7।।
होती थी भीषण मार–काट¸ अतिशय रण से छाया था भय।
था हार–जीत का पता नहीं¸ क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।।8
कोई व्याकुल भर आह रहा¸ कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर¸ कोई चिल्ला अल्लाह रहा।।9।।
धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸ कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸ मुरदे बह गये निशान नहीं।।10।।
मेवाड़–केसरी देख रहा¸ केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़–दौड़ करता था रण¸ वह मान–रक्त का प्यासा था।।11।।
चढ़कर चेतक पर घूम–घूम करता मेना–रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸ मानो प्रत्यक्ष कपाली था।।12।।
रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸ पड़ गया हवा को पाला था।।13।।
गिरता न कभी चेतक–तन पर¸ राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸ या आसमान पर घोड़ा था।।14।।
जो तनिक हवा से बाग हिली¸ लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸ तब तक चेतक मुड़ जाता था।।15।।
कौशल दिखलाया चालों में¸ उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में¸ सरपट दौड़ा करवालों में।।16।।
है यहीं रहा¸ अब यहां नहीं¸ वह वहीं रहा है वहां नहीं।
थी जगह न कोई जहां नहीं¸ किस अरि–मस्तक पर कहां नहीं।।17।
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸ क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।33।।
बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸ वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा अरि की सेना पर घहर गया।।18।।
भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸ हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग घोड़े का ऐसा देख रंग।।19।।
चढ़ चेतक पर तलवार उठा रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट करता था सफल जवानी को।।20।।
कलकल बहती थी रण–गंगा अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी चटपट उस पार लगाने को।।21।।
वैरी–दल को ललकार गिरी¸ वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸ तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22।।
पैदल से हय–दल गज–दल में छिप–छप करती वह विकल गई।
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸ देखो चमचम वह निकल गई।।23।।
क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸ क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸ क्षण शोर हो गया किधर गई।।24।।
क्या अजब विषैली नागिन थी¸ जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸ फैला शरीर में जहर नहीं।।25।।
थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸ वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸ बिजली थी कहीं कटार कहीं।।26।।
लहराती थी सिर काट–काट¸ बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट तनती थी लोहू चाट–चाट।।27।।
सेना–नायक राणा के भी रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे दूने–तिगुने उत्साह भरे।।28।।
क्षण मार दिया कर कोड़े से रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।29।।
क्षण भीषण हलचल मचा–मचा राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।30।।
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸ मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा।।31।।
जो साहस कर बढ़ता उसको केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸ बरछे पर उसको रोक दिया।।32।।
क्षण भर में गिरते रूण्डों से मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸ पट गई भूमि नर–मुण्डों से।।34।।
ऐसा रण राणा करता था पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह पर कम होता था रोष नहीं।।35।।
कहता था लड़ता मान कहां मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है वह मुगलों का अभिमान कहां।।36।।
भाला कहता था मान कहां¸ घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से रव निकल रहा था मान कहां।।37।।
लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸ वह कुल–कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार–बार मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।।38।।
तब तक प्रताप ने देख लिया लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान उड़ता निशान था हाथी पर।।39।।
वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸ अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।।40।
फिर रक्त देह का उबल उठा जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे¸ बढ़ चलो कहा निज भाला से।।41।।
हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸ राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिये वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।42।।
क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸ ज्वर सiन्नपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से कहता हय कौन¸ हवा था वह।।43।।
तनकर भाला भी बोल उठा राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ तू मुझे तनिक आराम न दे।।44।।
खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸ बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।45।।
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸ अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे शोणित सागर लहरा दूं मैं।।46।।
रंचक राणा ने देर न की¸ घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट राणा चढ़ आया हाथी पर।।47।।
गिरि की चोटी पर चढ़कर किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸ कुछ की चलती थी सांसें।।48।।
वे देख–देख कर उनको मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।।49।।
मुख छिपा लिया सूरज ने जब रोक न सका रूलाई।
मुग़ल आक्रमण
उदयसिंह वर्ष 1541 ई. में मेवाड़ के राणा हुए थे, जब कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। मुग़ल सेना ने आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, लेकिन राणा उदयसिंह ने अकबर अधीनता स्वीकार नहीं की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब उन्हें लगा कि चित्तौड़गढ़ अब नहीं बचेगा, तब उदयसिंह ने चित्तौड़ को ‘जयमल’ और ‘पत्ता’ आदि वीरों के हाथ में छोड़ दिया और स्व्यं अरावली के घने जंगलों में चले गए।
वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक ‘उदयसागर’ नामक सरोवर का निर्माण किया था। वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई। चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद ही उदयसिंह का देहांत हो गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और मुग़ल अधीनता स्वीकार नहीं की।
‘हल्दीघाटी का युद्ध’ भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ।
इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये, किंतु प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की। युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक नहीं हो सका। खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए प्रताप एवं उसकी सेना युद्ध स्थल से हट कर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति अधिक थी।
जहाँगीर से संघर्ष
हल्दीघाटी के इस प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ राणा प्रताप शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु महाराणा प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर ‘सलीम’ (जहाँगीर) अपने हाथी पर बैठा हुआ था।
महाराणा प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया।
तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी की सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत की छाती का छलनी होना अंकित किया गया है। महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।
राजपूतों का बलिदान
इस समय युद्ध अत्यन्त भयानक हो उठा था। सलीम पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे। प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था। इसलिए मुग़ल सैनिक उन्हीं को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी प्रताप को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसते जा रहे थे।
स्थिति की गम्भीरता को परखकर झाला सरदार ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया।
उनका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।
शक्तिसिंह द्वारा महाराणा प्रताप की सुरक्षा
महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक महाराणा प्रताप को मुग़ल सैनिकों से बचाते हुए जब सुरक्षित स्थान पर ले जा रहा था। उस समय रास्ते में एक बहुत बड़ा नाला था, जिसको चेतक एक बड़ी छलांग लगा कर लाँघ गया। चेतक नाला तो लाँघ गया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई, क्योकि युद्ध में चेतक के शरीर पर भी अनगिनत घाव लगे थे। परन्तु दो मुग़ल सैनिक अभी भी महाराणा प्रताप के पीछे लगे थे और महाराणा प्रताप को उनके घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं।
उसी समय महाराणा प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी- “हो, नीला घोड़ा रा असवार।” प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उन्हें एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था, उनका भाई शक्तिसिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा, और महारणा प्रताप के पीछे लगे दोनों मुग़ल सैनिकों को यमलोक पंहुचा दिया था।
जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहे थे, चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है, जहाँ पर चेतक मरा था।
महाराणा प्रताप को विदा करके शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट आया। सलीम (जहाँगीर) को उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, “मेरे भाई के कन्धों पर मेवाड़ राज्य का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।” सलीम ने अपना वचन निभाया, परन्तु शक्तिसिंह को अपनी सेवा से हटा दिया।
महाराणा प्रताप की सेवा में पहुँचकर उन्हें अच्छी नज़र भेंट की जा सके, इस ध्येय से उसने भिनसोर नामक दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उदयपुर पहुँचकर उस दुर्ग को भेंट में देते हुए शक्तिसिंह ने प्रताप का अभिवादन किया। प्रताप ने प्रसन्न होकर वह दुर्ग शक्तिसिंह को पुरस्कार में दे दिया। यह दुर्ग लम्बे समय तक उसके वंशजों के अधिकार में बना रहा।
संवत 1632 (जुलाई, 1576 ई.) के सावन मास की सप्तमी का दिन मेवाड़ के इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। उस दिन मेवाड़ के अच्छे रुधिर ने हल्दीघाटी को सींचा था। प्रताप के अत्यन्त निकटवर्ती पाँच सौ कुटुम्बी और सम्बन्धी, ग्वालियर का भूतपूर्व राजा रामशाह और साढ़े तीन सौ तोमर वीरों के साथ रामशाह का बेटा खाण्डेराव मारा गया। स्वामिभक्त झाला मन्नाजी अपने डेढ़ सौ सरदारों सहित मारा गया और मेवाड़ के प्रत्येक घर ने बलिदान किया।
महाराणा प्रताप का मानसिंह को संदेश
महाराणा प्रताप उदयसागर तक मानसिंह का स्वागत करने के लिए आए। इस झील के सामने वाले टीले पर आमेर के राजा के लिए दावत की व्यवस्था की गई थी। भोजन तैयार हो जाने पर मानसिंह को बुलावा भेजा गया। राजकुमार अमरसिंह को अतिथि की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था। राणा प्रताप अनुपस्थित थे।
मानसिंह के पूछने पर अमरसिंह ने बताया कि “राणा को सिरदर्द है, वे नहीं आ पायेंगे। आप भोजन करके विश्राम करें।” मानसिंह ने गर्व के साथ सम्मानित स्वर में कहा कि “राणा जी से कहो कि उनके सिर दर्द का यथार्थ कारण समझ गया हूँ। जो कुछ होना था, वह तो हो गया और उसको सुधारने का कोई उपाय नहीं है, फिर भी यदि वे मुझे खाना नहीं परोसेंगे तो और कौन परोसेगा।” मानसिंह ने राणा प्रताप के बिना भोजन स्वीकार नहीं किया। तब प्रताप ने उसे कहला भेजा कि “जिस राजपूत ने अपनी बहन तुर्क को दी हो, उसके साथ कौन राजपूत भोजन करेगा।”
मानसिंह का कथन
मानसिंह ने इस अपमान को आहूत करने में बुद्धिमता नहीं दिखाई। यदि प्रताप की तरफ़ से उसे निमंत्रित किया गया होता, तब तो उसका विचार उचित माना जा सकता था, परन्तु इसके लिए प्रताप को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मानसिंह ने भोजन को छुआ तक नहीं, केवल चावल के कुछ कणों को जो अन्न देवता को अर्पण किए थे, उन्हें अपनी पगड़ी में रखकर वहाँ से चला गया।
जाते समय उसने कहा- “आपकी ही मान-मर्यादा बचाने के लिए हमने अपनी मर्यादा को खोकर मुग़लों को अपनी बहिन-बेटियाँ दीं। इस पर भी जब आप में और हम में विषमता रही, तो आपकी स्थिति में भी कमी आयेगी। यदि आपकी इच्छा सदा ही विपत्ति में रहने की है, तो यह अभिप्राय शीघ्र ही पूरा होगा। यह देश हृदय से आपको धारण नहीं करेगा।” अपने घोड़े पर सवार होकर मानसिंह ने महाराणा प्रताप, जो इस समय आ पहुँचे थे, को कठोर दृष्टि से निहारते हुए कहा- “यदि मैं तुम्हारा यह मान चूर्ण न कर दूँ तो मेरा नाम मानसिंह नहीं।”
राणा प्रताप ने राजा मानसिंह को उत्तर दिया कि- “आपसे मिलकर मुझे खुशी होगी।” वहाँ पर उपस्थित किसी व्यक्ति ने अभद्र भाषा में कह दिया कि- “अपने साथ फूफ़ा को लाना मत भूलना।” जिस स्थान पर मानसिंह के लिए भोजन सजाया गया था, उसे अपवित्र हुआ मानकर खोद दिया गया और फिर वहाँ गंगा का जल छिड़का गया और जिन सरदारों एवं राजपूतों ने अपमान का यह दृश्य देखा था, उन सभी ने अपने को मानसिंह का दर्शन करने से पतित समझकर स्नान किया तथा वस्त्रादि बदले।
मुग़ल सम्राट को सम्पूर्ण वृत्तान्त की सूचना दी गई। उसने मानसिंह के अपमान को अपना अपमान समझा। अकबर ने समझा था कि राजपूत अपने पुराने संस्कारों को छोड़ बैठे होंगे, परन्तु यह उसकी भूल थी। इस अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारी की गई और इन युद्धों ने प्रताप का नाम अमर कर दिया।
महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा
महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि- “वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेंगे।” इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशों पर धावा मारकर जन-स्थानों को उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का पर्वतीय कन्दमूल-फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र अमर का जंगली जानवरों और जंगली लोगों के मध्य पालन करना, अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था।
इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये, यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था। तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, महाराणा प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। “चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।” महाराणा की यह प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही।
महाराणा प्रताप के सरदारों का वचन
राणा प्रताप के समस्त सरदारों ने उनसे अंत समय में कहा था कि- “महाराज! हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुर्क मेवाड़ की भूमि पर अधिकार न कर सकेगा। जब तक मेवाड़ भूमि की पूर्व-स्वाधीनता का पूरी तरह उद्धार हो नहीं जायेगा, तब तक हम लोग कुटियों में निवास करेंगे।”
जब महाराणा प्रताप (विक्रम संवत 1653 माघ शुक्ल 11) तारीख़ 29 जनवरी, सन 1597 ई. में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तों ने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया। अरावली के कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा। चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा।
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप॥
इन्हें भी देखें –
- सम्राट पृथ्वीराज चौहान SAMRAT PRITHVI RAJ CHAUHAN
- चन्द्रगुप्त मौर्य (345-298 ई.पू.) Chandragupta Maurya
- चन्द्रगुप्त प्रथम (320-350 ई.)
- चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-415)
- भारत में रामसर स्थल | Ramsar Sites in India | 2024
- मिस यूनिवर्स | ब्रह्माण्ड सुन्दरी | 1952-2023
- अंतर्राष्ट्रीय कप व ट्रॉफियां और उनसे सम्बंधित प्रमुख खेल
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