मुक्त अर्थव्यवस्था में मुद्रा | Money in a Free Economy

मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसकी आर्थिक आवश्यकताओं का स्वरूप भी जटिल होता गया है। प्राचीन समय में वस्तु-विनिमय प्रणाली (Barter System) के माध्यम से आर्थिक लेन-देन किए जाते थे, किंतु जैसे-जैसे समाज अधिक संगठित और जटिल होता गया, वैसे-वैसे विनिमय की प्रक्रिया में सहूलियत और सटीकता की आवश्यकता बढ़ी। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए मुद्रा की उत्पत्ति हुई और यह आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गई।

जी. एन. हॉम (G. N. Halm) के शब्दों में —

“Social economy has always been, and probably will remain, a monetary economy.”

अर्थात्, सामाजिक अर्थव्यवस्था सदैव एक मौद्रिक अर्थव्यवस्था रही है और संभवतः ऐसी ही बनी रहेगी।
(Monetary Theory, Chapter 1, Page 1)

मुक्त अर्थव्यवस्था, जिसे पूंजीवादी प्रणाली भी कहा जाता है, में मुद्रा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। यह प्रणाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजी संपत्ति के अधिकार और लाभ कमाने की प्रेरणा पर आधारित होती है। इस व्यवस्था में मुद्रा न केवल विनिमय का माध्यम होती है, बल्कि यह मूल्य निर्धारण, पूंजी निर्माण, उपभोक्ता स्वतंत्रता, साख प्रणाली और आर्थिक स्थिरता जैसे अनेक पहलुओं में केंद्रीय भूमिका निभाती है।

आज के युग में जब अधिकांश देश पूँजीवादी या मुक्त बाजार की दिशा में अग्रसर हो चुके हैं, मुद्रा की भूमिका और भी अधिक केंद्रीय हो गई है। एक ऐसी प्रणाली, जिसमें उत्पादन, उपभोग, विनिमय, निवेश, बचत, और वितरण जैसे सभी आर्थिक निर्णय निजी व्यक्तियों द्वारा स्वतंत्र रूप से लिए जाते हैं, वहां यह जानना आवश्यक हो जाता है कि इस व्यापक ढांचे को दिशा देने का कार्य कैसे होता है। इस लेख में हम मुक्त अर्थव्यवस्था के स्वरूप, कीमत-प्रक्रिया में मुद्रा की भूमिका, उपभोक्ता-संप्रभुता, पूँजी निर्माण, साख प्रणाली, और आर्थिक असंतुलनों में मुद्रा की भूमिका की व्यापक विवेचना करेंगे।

मुक्त अर्थव्यवस्था का स्वरूप | परिभाषा और विशेषताएँ

मुक्त या पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वह आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ उत्पादन के साधनों का स्वामित्व निजी व्यक्तियों या संस्थाओं के पास होता है। व्यक्तियों को संपत्ति रखने, उसे बेचने, निवेश करने और उपभोग करने की स्वतंत्रता होती है। इसमें सरकार का हस्तक्षेप न्यूनतम होता है और बाजार की शक्तियाँ — विशेषतः माँग और पूर्ति — ही यह तय करती हैं कि क्या, कैसे और किसके लिए उत्पादन होगा।

इस व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता (निजी संपत्ति का अधिकार): — प्रत्येक व्यक्ति को कार्य, उत्पादन, उपभोग और निवेश के लिए स्वतंत्रता प्राप्त होती है। व्यक्तियों को अपनी संपत्ति रखने और उसका उपयोग करने की स्वतंत्रता होती है।
  • मुनाफा प्रेरणा (Profit Motive) — उत्पादन और व्यापार का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। उद्यमी अधिकतम लाभ कमाने के उद्देश्य से उत्पादन करते हैं।
  • प्रतिस्पर्धा — विभिन्न उत्पादक एवं विक्रेता बाजार में प्रतिस्पर्धा करते हैं जिससे गुणवत्ता और मूल्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
  • मूल्य-निर्धारण का कार्य बाजार करता है — सरकार नहीं बल्कि माँग और पूर्ति के संबंध कीमतों को निर्धारित करते हैं। सरकार का हस्तक्षेप न्यूनतम होता है, जिससे बाजार की शक्तियाँ स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें।

इस सब के केंद्र में जो तत्व कार्य करता है, वह है — मुद्रा। यही वह साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी क्रय-शक्ति को व्यक्त करता है, उत्पादक लाभ की गणना करता है और उपभोक्ता अपने विकल्पों का चयन करता है।

कीमत-संयंत्र (Price Mechanism) और मुद्रा की भूमिका

कीमत-प्रक्रिया (Pricing Process)

मुक्त अर्थव्यवस्था में किसी केंद्रीय सत्ता द्वारा यह निर्देश नहीं दिया जाता कि क्या उत्पादन होगा या कैसे वितरण होगा। यहाँ मार्गदर्शन का कार्य कीमत-संयंत्र करता है, जो वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों के माध्यम से संकेत देता है। कीमतें बताती हैं कि कौन-सी वस्तुएँ अधिक माँग में हैं, कौन-से संसाधन सीमित हैं, और उत्पादन किन क्षेत्रों में होना चाहिए।

यह प्रक्रिया निम्नलिखित स्तरों पर कार्य करती है:

  1. उत्पादन का निर्धारण — कीमतें यह संकेत देती हैं कि किस वस्तु का उत्पादन अधिक लाभदायक है।
  2. विनिमय और उपभोग — उपभोक्ता कीमतों के आधार पर वस्तुओं की माँग करते हैं।
  3. संसाधनों का आवंटन — संसाधन उन क्षेत्रों में प्रवाहित होते हैं जहाँ लाभ अधिक होता है।
  4. बचत और निवेश — ब्याज दरें और अपेक्षित लाभ कीमतों से जुड़ी होती हैं, जो निवेशकों को दिशा देती हैं।

मुद्रा — कीमत प्रक्रिया की आधारशिला

यह मूल्य प्रक्रिया तभी संभव है जब मूल्य किसी सामान्य मापक के माध्यम से व्यक्त किया जाए। यहाँ पर मुद्रा की आवश्यकता होती है। वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें मुद्रा में व्यक्त की जाती हैं और उत्पादन, उपभोग, तथा वितरण के सभी निर्णय मुद्रा के आधार पर लिए जाते हैं। मुद्रा ने न केवल विनिमय को सरल बनाया, बल्कि आर्थिक गणना (Economic Calculation) को संभव किया। इससे निम्नलिखित कार्य संभव हो पाए:

  • वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण
  • लाभ-हानि की गणना
  • संसाधनों का तुलनात्मक मूल्यांकन
  • निवेश के लिए प्राथमिकता निर्धारण

इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि मुक्त अर्थव्यवस्था में मुद्रा ही कीमत-संयंत्र का संचालन करती है और समस्त आर्थिक प्रक्रिया को सुचारु रूप से चलाती है।

मुक्त अर्थव्यवस्था में मुद्रा का बहुआयामी महत्व

1. मुद्रा — मुक्त अर्थव्यवस्था की रीढ़

मुक्त अर्थव्यवस्था में बाजारों की स्थापना और उनका संचालन पूरी तरह मुद्रा पर निर्भर होता है। माँग और पूर्ति के आधार पर कीमतों का निर्धारण होता है, जो तब संभव है जब विनिमय एक सामान्य माध्यम (मुद्रा) के माध्यम से हो। इस व्यवस्था में उत्पादन, वितरण, विनिमय, निवेश, और राजस्व-संग्रह जैसे सभी क्रियाकलाप मुद्रा पर आधारित होते हैं।

2. मुद्रा — आर्थिक प्रक्रियाओं का तेल

जैसे मशीनें तेल के बिना सुचारु रूप से नहीं चल सकतीं, वैसे ही पूँजीवादी अर्थव्यवस्था बिना मुद्रा के संचालन नहीं कर सकती। मुद्रा स्वयं उत्पादन नहीं करती, किंतु वह उत्पादन की प्रक्रिया को सुसंगठित और गतिशील बनाती है। यह पूँजी के प्रवाह, आय के आवंटन, और निवेश के निर्णयों को गति देती है। जहाँ कोई क्रिया रुकती है, वहाँ मुद्रा उसे पुनः संचालित करती है।

3. मुद्रा — पूँजी निर्माण का आधार

पूँजी निर्माण के लिए संसाधनों का संचय आवश्यक होता है, जो मुद्रा के बिना संभव नहीं है। मुद्रा से पूँजी में तरलता आती है और यह बचत को निवेश में रूपांतरित करने का कार्य करती है। यदि मुद्रा न हो, तो बचतों को अर्थव्यवस्था में पुनः निवेशित करना कठिन हो जाएगा। इससे उत्पादन, रोजगार और आय पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

4. मुद्रा — साख व्यवस्था का आधार

मुक्त अर्थव्यवस्था में क्रेडिट सिस्टम अत्यंत महत्वपूर्ण है। व्यक्ति और संस्थाएँ उधारी लेकर उत्पादन या उपभोग करते हैं। यह प्रणाली भी पूरी तरह मुद्रा पर आधारित होती है। विलंबित भुगतान, ऋण, ब्याज दरें — ये सभी तत्व मुद्रा के बिना असंभव हैं। इसीलिए मुद्रा को “विलम्बित भुगतान का माध्यम” और “मूल्य-संचय का साधन” कहा जाता है।

कॉलबोर्न के अनुसार, “मुद्रा के कारण ही साख प्रणाली का विकास हुआ है और लेन-देन का कार्य विस्तारित रूप में संभव हो पाया है।”

5. उपभोक्ता की स्वतंत्रता — मुद्रा की देन

पूँजीवादी प्रणाली में उपभोक्ता को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। वह क्या खरीदेगा, किससे खरीदेगा, कितनी मात्रा में खरीदेगा — यह सब उसके ऊपर निर्भर करता है। किंतु यह स्वतंत्रता तभी संभव है जब उपभोक्ता के पास अपनी आवश्यकताओं को व्यक्त करने का साधन — मुद्रा — उपलब्ध हो। यदि मुद्रा न हो, तो उपभोक्ता अपनी क्रय-शक्ति को प्रकट नहीं कर सकता और वस्तुओं के चयन में उसकी स्वतंत्रता बाधित होती।

6. वर्तमान और भविष्य के बीच की कड़ी

मुद्रा ने वर्तमान और भविष्य के बीच सेतु का कार्य किया है। इससे साख प्रणाली का जन्म हुआ, जिससे व्यक्ति वर्तमान में क्रय करता है और भुगतान भविष्य में करता है। उत्पादक वर्तमान में उत्पादन करते हैं और भविष्य में उसका विक्रय होता है। लेकिन उन्हें वर्तमान में संसाधनों की कीमत चुकानी होती है, जो मुद्रा के माध्यम से ही संभव है। उपभोक्ता भी अपनी आय का एक हिस्सा भविष्य के लिए बचत करता है — वह भी मुद्रा में। इस प्रकार मुद्रा न केवल वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, बल्कि भविष्य की योजनाओं की नींव भी बनती है।

7. आर्थिक असंतुलनों का कारण भी — मुद्रा

मुक्त अर्थव्यवस्था में जहाँ मुद्रा प्रगति और संतुलन का माध्यम है, वहीं यह असंतुलन का कारण भी बन सकती है। मुद्रा की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि से मुद्रा-स्फीति (Inflation) और कमी से मुद्रा-संकुचन (Deflation) की स्थिति उत्पन्न होती है। स्फीति से मुद्रा का मूल्य घट जाता है, जिससे आर्थिक असंतुलन और सामाजिक असंतोष उत्पन्न होते हैं। वहीं, संकुचन से क्रय-शक्ति घट जाती है, मांग में गिरावट आती है और उत्पादन प्रणाली बाधित होती है।

इसलिए अर्थशास्त्री मानते हैं कि मुद्रा की उचित मात्रा और उसका सही प्रवाह ही आर्थिक स्थिरता का आधार है

सारांश रूप में कहा जाए तो मुद्रा मुक्त अथवा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की आत्मा है। यह केवल विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि समस्त आर्थिक क्रियाओं का केंद्रीय तत्व है। इसके बिना कीमत-संयंत्र कार्य नहीं कर सकता, उपभोक्ता की स्वतंत्रता असंभव है, पूँजी निर्माण ठप हो जाएगा, और आर्थिक असंतुलन हर ओर फैल सकता है।

अठारहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध विचारक जॉन लॉ (John Law) ने कहा था —

“राजरूपी शरीर के लिए मुद्रा रक्त के समान जीवनदायिनी शक्ति है, जिससे प्रत्येक अंग को स्फूर्ति मिलती है। मुद्रा के अभाव में सर्वोत्कृष्ट विधान भी लोगों को न तो रोजगार दिला सकते हैं और न ही उत्पादन में कोई सुधार कर सकते हैं। व्यापार भी मुद्रा पर निर्भर होता है।”

इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि चाहे समय कोई भी हो, मुक्त अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने और विकास की राह पर अग्रसर करने के लिए मुद्रा एक अनिवार्य एवं अपरिहार्य तत्व है

Economics – KnowledgeSthali


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