भारतीय उपमहाद्वीप भाषाई विविधता का विश्व में अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहाँ हर कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर भाषा और बोलियों का स्वरूप बदल जाता है। राजस्थान–हरियाणा–दिल्ली की सीमा पर स्थित मेवात ऐसा ही एक क्षेत्र है, जहाँ की सांस्कृतिक पहचान के केंद्र में मेवाती भाषा विशेष महत्त्व रखती है। मेवाती केवल एक बोली नहीं, बल्कि मेवात की सामाजिक और ऐतिहासिक चेतना का मूलाधार है। यह बोली अपने भीतर राजस्थानी, ब्रजभाषा, हरियाणवी तथा गुर्जर परंपरा के विभिन्न रूपों को समेटे हुए है।
यह विस्तृत लेख मेवाती भाषा की उत्पत्ति, क्षेत्र, व्याकरणिक विशेषताओं, साहित्यिक परंपरा, सामाजिक–सांस्कृतिक संबंधों और आधुनिक स्वरूप पर आधारित है।
मेवाती : नाम और उत्पत्ति का संदर्भ
मेवाती भाषा का नाम मुख्यतः मेवात क्षेत्र और वहाँ निवास करने वाले मेओ समुदाय से जुड़ा हुआ है। “मेवात” शब्द का अर्थ है—मेओ जाति का प्रदेश। इसी प्रदेश से निकली बोली को समय के साथ “मेवाती” नाम प्राप्त हुआ।
मेओ समुदाय ऐतिहासिक रूप से एक सशक्त, कृषि-प्रधान और वीरतापूर्ण जीवन जीने वाला समुदाय रहा है। उनकी पहचान राजपुताना परंपरा से भी गहराई से जुड़ती है। इस समुदाय की दैनिक जीवन-शैली, त्यौहार, रीतिरिवाज और लोकगीत मेवाती भाषा की नींव को मजबूती प्रदान करते हैं।
मेवाती का भौगोलिक विस्तार
मेवाती बोली उत्तर–पश्चिम भारतीय उपमहाद्वीप के एक सीमित लेकिन सांस्कृतिक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूभाग में बोली जाती है। इसका मुख्य क्षेत्र निम्नलिखित है—
(1) राजस्थान
- अलवर का उत्तरी–पश्चिमी भाग
- भरतपुर का कुछ क्षेत्र
- धौलपुर से सटे इलाकों में कुछ अंश
(2) हरियाणा
- नूंह (पूर्व में मेवात जिला)
- फरीदाबाद के ग्रामीण क्षेत्र
- गुड़गाँव के दक्षिणी भाग
(3) दिल्ली का दक्षिणी क्षेत्र
दिल्ली के दक्षिणी और हरियाणा सीमा लगे गाँवों में मेवाती के अनेक रूप सुने जा सकते हैं।
इस बोली की सीमा निम्न भाषाओं से लगती है—
- उत्तर में : बांगड़ू/हरियाणवी
- पश्चिम में : ढूंढाड़ी और मारवाड़ी
- दक्षिण में : डांगी (राजस्थानी समूह की बोली)
- पूर्व में : ब्रजभाषा
सबसे रोचक तथ्य यह है कि मेवाती पर ब्रजभाषा का प्रभाव अत्यंत गहरा है। शब्दावली, वाक्य-प्रयोग, मुहावरों और लोकगीतों में ब्रजभाषा की छाप स्पष्ट रूप से देखी जाती है।
मेवाती की भाषाई स्थिति : बोली या उपभाषा?
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से मेवाती को—
- कभी ब्रजभाषा की उपबोली,
- कभी हरियाणवी की नज़दीकी बोली,
- तो कभी राजस्थानी समूह की एक स्वतंत्र बोली
—के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
हालाँकि भाषावैज्ञानिकों के बीच मतभेद है, किन्तु सामान्यतः इसे ब्रजभाषा समूह की उपबोली माना जाता है।
इसके पीछे कारण हैं—
- ब्रजभाषा के समान ध्वन्यात्मक संरचना
- समान शब्दावली
- समान वाक्य-क्रम और क्रिया-रूप
- भक्ति साहित्य में प्रयोग
हरियाणवी का भी मेवाती पर पर्याप्त प्रभाव है, क्योंकि मेवात क्षेत्र हरियाणा में गहराई से जुड़ा हुआ है।
मेवाती भाषा की प्रमुख विशेषताएँ
(1) ध्वनि-संरचना
- ‘स’ और ‘श’ का आपसी विनिमय सामान्य है
- कई स्थानों पर ‘ह’ ध्वनि लुप्त हो जाती है
- शब्दों के अंत में स्वर का लोप होता है
उदाहरण :
- “कहाँ” → “कैं”
- “कौन” → “कूनी”
(2) व्याकरणिक विशेषताएँ
- वाक्य निर्माण काफी सरल और बोलचाल आधारित
- बहुवचन बनाने में “-an” और“-yan” प्रत्यय प्रमुख
- क्रियाओं में हरियाणवी और ब्रजभाषा जैसा मिश्रण
(3) शब्दावली
मेवाती शब्दकोष में—
- राजस्थानी
- हरियाणवी
- ब्रजी शब्द
- अरबी–फ़ारसी शब्द (मेओ संस्कृति का प्रभाव)
—एक साथ मिल जाते हैं।
उदाहरण :
- अरबी–फ़ारसी मूल : इबादत, क़िस्मत, दौलत
- ब्रजी–राजस्थानी मूल : म्हारो, घणो, थारो, म्हारा
मेवाती साहित्य : इतिहास और परंपरा
मेवाती भाषा का साहित्य अत्यधिक विस्तृत नहीं है। इसके प्रमुख कारण हैं—
- भाषा का ग्रामीण और बोलचाल तक सीमित रहना
- शिक्षित वर्ग द्वारा साहित्य लेखन की परंपरा का अभाव
- आधुनिक काल में स्रोतों का अभिलेखन न होना
- उपलब्ध साहित्य का विकृत रूप में बचना
फिर भी मेवाती साहित्य की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण धारा चरणदासी पंथ से जुड़ी हुई है।
(1) चरणदास जी (1706–1782)
चरणदासी संप्रदाय के संस्थापक चरणदास जी की कुछ रचनाएँ मेवाती के रूप में उपलब्ध रही हैं।
उनकी भाषा में—
- सरलता
- भक्ति-भाव
- लोकधर्मी आवाज
- सामाजिक शिक्षाएँ
—मुख्य रूप से दिखाई देती हैं।
(2) दयाबाई
चरणदास जी की शिष्या दयाबाई ने भी मेवाती में भक्ति-साहित्य की सृष्टि की। उनकी रचनाएँ स्त्री संवेदना और आध्यात्मिकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
(3) सहजोबाई
सहजोबाई, जिन्हें हिन्दी भक्तिन कवयित्रियों में विशेष स्थान प्राप्त है, मेवाती और ब्रज दोनों भाषाओं में रचनाएँ करने वाली कवयित्री मानी जाती हैं।
साहित्य की समस्या
वर्तमान समय में इन रचनाओं का मौलिक स्वरूप सुरक्षित नहीं रह पाया है।
मुद्रण-प्रकाशन और पुनर्लेखन की प्रक्रिया ने—
- भाषा विकृत कर दी
- मूल शैली बदल दी
- कई पंक्तियाँ मिश्रित कर दीं
इसके कारण मेवाती साहित्य का प्रामाणिक स्वरूप आज दुर्लभ हो चुका है।
मेवाती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
मेवाती भाषा का अध्ययन उसके सांस्कृतिक परिवेश के बिना अधूरा है। मेवात की संस्कृति—
- लोकगीतों
- किस्सों
- सूफी परंपरा
- मेओ समुदाय की खान–पान शैली
- पारंपरिक पोशाक
- कृषि जीवन
—से गहराई से जुड़ी है।
(1) मेवाती लोकगीत
मेवाती में गाए जाने वाले प्रमुख लोकगीत—
- ब्याह-शादी के गीत
- जौहर–वीरता के गीत
- सांस्कृतिक पर्वों के गीत
- फसल कटाई के गीत
इन गीतों में नारी-भावना, विरह, प्रेम और साहस प्रमुख विषय हैं।
(2) मेवाती किस्से
मेवात में कई लोककथाएँ प्रसिद्ध हैं, जैसे—
- गोगाजी की कथाएँ
- मीरा–नारायण की लोककथाएँ
- मेओ वीरों के प्रसंग
इन किस्सों के माध्यम से भाषा का संरक्षित रूप आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में जीवित है।
आधुनिक युग में मेवाती
आज मेवाती एक सीमित क्षेत्रीय बोली है, जो आधुनिकता, शिक्षा और शहरीकरण के प्रभाव से काफी बदल चुकी है।
(1) शब्दावली में बदलाव
बल्कि हिन्दी और उर्दू के शब्द तेजी से प्रवेश कर रहे हैं।
नयी पीढ़ी—
- मोबाइल
- टीवी
- स्कूल
- बाज़ार
जैसे शब्दों को प्राकृतिक रूप से मेवाती में मिला रही है।
(2) शहरीकरण का प्रभाव
गुड़गाँव, फरीदाबाद, जिले के शहरीकरण ने—
- भाषा पर दबाव डाला
- बोलने वालों की संख्या घटाई
- युवाओं को हिन्दी/हरियाणवी की ओर प्रेरित किया
(3) पहचान का संकट
मेवाती बोलने वाले कई लोग इसे
“गाँव की बोली”
या
“साधारण भाषा”
मात्र समझते हैं।
इस मानसिकता के कारण भाषा के संरक्षण में कठिनाई आती है।
मेवाती और शिक्षा
मेवाती आज भी ग्रामीण विद्यालयों में बोलचाल का प्रमुख माध्यम है।
परंतु—
- पाठ्यपुस्तकें
- अध्ययन सामग्री
- शोध
—लगभग न के बराबर उपलब्ध है।
यदि मेवाती में
- लोककथाएँ
- कहावतें
- साहित्यिक सामग्री
- इतिहास
संकलित किया जाए तो यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक धरोहर बन सकती है।
संरक्षण की आवश्यकता
मेवाती एक जीवंत बोली है, किन्तु इसके संरक्षण के लिए कुछ प्रयास आवश्यक हैं—
- मेवाती लोकगीतों और किस्सों का दस्तावेज़ीकरण
- विद्यालयों में मेवाती जागरूकता कार्यक्रम
- शोधकर्ताओं द्वारा मेवाती के व्याकरण और शब्दकोष का निर्माण
- मेवाती साहित्य का पुनर्संपादन
- डिजिटल माध्यमों पर मेवाती सामग्री तैयार करना
यदि ये प्रयास जारी रहे तो मेवाती आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सुरक्षित रह सकेगी।
मेवाती लोकगीत : परंपरा, प्रकार और उदाहरण
मेवाती क्षेत्र की संस्कृति का सबसे सशक्त आधार उसके लोकगीत हैं। ये गीत पीढ़ियों से बिना किसी लिखित भाषा के मौखिक परंपरा में चलते आए हैं। इन गीतों में मेओ समाज का जीवन, प्रेम, संघर्ष, खेती, त्यौहार, वीरता और सामाजिक संबंधों की झलक स्पष्ट मिलती है। मेवाती लोकगीतों में ब्रजभाषा, राजस्थानी और हरियाणवी शब्दों का नैसर्गिक मेल मिलता है।
नीचे मेवाती लोकगीतों को उनकी प्रकृति के अनुसार व्यवस्थित किया गया है।
विवाह–सम्बंधी लोकगीत
मेवात में विवाह एक सामूहिक सांस्कृतिक उत्सव होता है, जिसकी तैयारी महीनों पहले से ही आरम्भ हो जाती है। गीतों के बिना विवाह अधूरा माना जाता है।
(क) मंगनी गीत
उदाहरण 1 :
“म्हारा घरा आई रे मंगनी की ख़ुशबू,
सैंयां राजी, ताई राजी, थारे नाम की लागे धूम।”
अर्थ:
घर में मंगनी की खुशियाँ हैं, सारा परिवार वर के नाम की ख़ुशी में झूम रहा है।
(ख) लगन गीत
उदाहरण 2 :
“लागी लगन म्हारा लाल की, बाजे ढोल नगाड़ा,
नाचे सारी बरात मेवात की, संग आवे सारा पाड़ा।”
अर्थ:
वर की लगन लग चुकी है, पूरे गाँव के साथ उत्सव का माहौल बन गया है।
(ग) गीत–गालियाँ (हल्की छेड़छाड़ वाले गीत)
मेवाती विवाह में इन गीतों का विशेष महत्त्व होता है।
उदाहरण 3 :
“ननद कहे भाभी से– थारा भैया तो बड़े ही भोळा,
भाभी बोले– के करूं री ननद, लागे है मोहन मुराैला।”
अर्थ:
ननद भाभी को छेड़ती है और भाभी प्रेमपूर्ण उत्तर देती है।
कृषि–प्रधान लोकगीत
खेती मेवात के जीवन का मूल आधार है। इसलिए खेती से जुड़े गीतों की विशेष परंपरा है।
(क) हाड़–चून (खेती शुरू करने के गीत)
उदाहरण 4 :
“बरसै बदरिया खेतन में,
म्हारी धरती जागे रे,
हल जोते म्हारा बाबा,
धानवा लागे लागे रे।”
अर्थ:
बरसात के साथ खेतों में नई जान लौट आती है।
(ख) फसल कटाई गीत
उदाहरण 5 :
“कटो कूटा बाजरे री बाली,
नाचे गोरी खेतन में,
घाम जळे या छांव पड़े,
मन लागे म्हारी मेहतन में।”
अर्थ:
मेहनत का आनंद बताते हुए महिलाएँ खेतों में नाचती–गाती हैं।
वीर–लोकगीत (मेओ वीरों के गीत)
मेवात की भूमि वीरता के लिए प्रसिद्ध रही है। अनेक गीत मेओ योद्धाओं के पराक्रम का वर्णन करते हैं।
उदाहरण 6 :
“मेवात री धरती रा छोरा,
लड़े मरदां री लराई,
जाँण गंवाए मगर न देवे,
दुश्मन ने कोई परछाई।”
अर्थ:
मेवात के वीर अपनी जान दे देते हैं, पर हार स्वीकार नहीं करते।
उदाहरण 7 :
“अल्लाह कसम, मेवड़ री धरती,
सूरमा पैदा करे,
एक–एक घोड़े पर चढ़ कै,
सौ–सौ दुश्मन डरे।”
सामाजिक–परिवारिक लोकगीत
इन गीतों में दैनंदिन जीवन, सामाजिक रिश्ते और घरेलू भावनाओं का चित्रण होता है।
(क) भाई–बहन के गीत
उदाहरण 8 :
“भाई म्हारा बाजर जाए,
म्हारे लायदे लाल चुनरिया,
बहना रोये बिन भाई के,
कैसे कटे बैसाख री दुपहरिया।”
(ख) माँ–बच्चा गीत (लोरियाँ)
उदाहरण 9 :
“सो जा री छोरे, नींद आवे पलकों पे,
तेरा बाबा खेते जावै, लावेगे दूध मलाई।”
(ग) सास–बहू गीत
उदाहरण 10 :
“सासू बोली– उठ जा गोरी, पानी भरने जाई,
बहू बोली– म्हारे ओढ़णी भारी, सुरज भी चढ़ आया।”
अर्थ:
सास–बहू के बीच प्यारे, हल्के-फुल्के तकरार का वर्णन।
त्यौहार और पर्वों के लोकगीत
मेवात के प्रमुख त्यौहार––ईद, तीज, होली, वसंत––सभी में विशेष गीत गाए जाते हैं।
(क) तीज गीत
उदाहरण 11 :
“आसी तीज री रात,
गोरी झूलै पेड़ की डाल,
मेवात री हवा झुलावे,
लहराए गोरी री लाल चुनाल।”
(ख) होली गीत
मेवात की होली पर ब्रजभाषा का प्रभाव गहरा है।
उदाहरण 12 :
“रंग बरसे मेवात में,
नाचे हर एक गली,
हाथ में पिचकारी लिए,
सब भाई–भाई मिली।”
(ग) ईद गीत
उदाहरण 13 :
“ईद आई रे भाई, सज गई मेवात की गलियां,
मीठी सेवइयाँ, नई अचकन, खुशियों की घर में छवियां।”
प्रेम और विरह गीत
इन गीतों में स्त्री–पुरुष के प्रेम, प्रतीक्षा और विरह का भाव अत्यंत मार्मिक होता है।
उदाहरण 14 :
“आ जा बलमा मेवात में,
रात बनी है सुहानी,
थारो बिन सूनी लागै,
म्हारे आंगण की कहानी।”
उदाहरण 15 :
“प्रीतम परदेस गए,
छोड़ गए दिल में टीस,
कूक उठे कुंजन में पपीहा,
कांपे गोरी की सीस।”
सूफी–लोकगीत
मेवात की संस्कृति में सूफी परंपरा का भी विशेष प्रभाव रहा है।
उदाहरण 16 :
“अल्लाह हू, पीर के दर पे चले,
हर इक मुश्किल आसान करे,
मेवात री धरती का मालिक,
दीन–दुनिया दोनों सँवरे।”
मेवाती लोकगीतों की प्रमुख विशेषताएँ
- सरल, बोलचाल आधारित भाषा
- ब्रजभाषा–हरियाणवी–राजस्थानी शब्दों का मिश्रण
- लयात्मकता और तुकबंदी
- सांस्कृतिक भावनाओं का सहज अभिव्यक्ति
- सामूहिक गायन की परंपरा
- संगीत में ढोलक, नगाड़ा, मंजीरा, बांसुरी का प्रयोग
- खेत, परिवार, प्रेम, वीरता और धर्म मुख्य विषय
मेवाती लोकगीत : भाषा संरक्षण का आधार
आज जब मेवाती भाषा तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रही है, लोकगीत ही उसके संस्कृति-संरक्षक स्तंभ बने हुए हैं। इन गीतों को––
- एकत्रित करने
- लिपिबद्ध करने
- ऑडियो–वीडियो संग्रह बनाने
- विद्यालयों में शामिल करने
—की अत्यंत आवश्यकता है।
यदि यह परंपरा सुरक्षित रही, तो मेवाती भाषा और मेवात की सांस्कृतिक पहचान सदैव जीवित रहेगी।
निष्कर्ष
मेवाती भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि मेवात की जीवंत पहचान है।
यह भाषा—
- ब्रजभाषा
- हरियाणवी
- राजस्थानी
- और स्थानीय सांस्कृतिक परंपराओं
का एक सुन्दर संगम है।
हालाँकि इसका साहित्य सीमित है और स्रोत विकृत रूप में उपलब्ध हैं, फिर भी मेवाती की सांस्कृतिक शक्ति, लोकगीतों की सुंदरता और इसकी लोक-आत्मा इसे एक विशेष स्थान प्रदान करती है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि मेवाती को केवल “ग्रामीण बोली” न समझा जाए, बल्कि इसे एक सांस्कृतिक विरासत के रूप में सम्मान दिया जाए। इसके संरक्षण और संवर्धन से न केवल मेवाती बोली बचेगी, बल्कि मेवात की शताब्दियों पुरानी संस्कृति भी सुरक्षित रहेगी।
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